Bigg Boss 13: 4 हफ्तों बाद फिनाले में सलमान के साथ धूम मचाएंगे ये भोजपुरी सुपरस्टार

टेलीविजन इंडस्ट्री में सबसे ज्यादा टी.आर.पी गेन करने वाला कलर्स टी.वी का रीएलिटी शो बिग बौस के सीजन 13 में अब मामला गंभीर होता दिखाई दे रहा है. वैसे तो बिग बौस के हर सीजन में औडियंस को कुछ ना कुछ नया और अनोखा को देखने को मिलता ही है लेकिन इस सीजन के ट्विस्ट ने कंटेस्टेंटस को हिला कर रख दिया है. दरअसल बिग बौस सीजन 13 में इस बार सबसे बड़ा ट्विस्ट ये है कि औडियंस को इस बार फिनाले सिर्फ 4 ही हफ्तों में देखने को मिल जाएगा. इसी ट्विस्ट के साथ घरवालों के बीच फिनाले तक पहुंचने की रेस शुरू हो चुकी है.

खेसारी लाल यादव लेंगे एंट्री…

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सभी कंटेस्टेंटस खुद को फिनाले तक पहुंचाने के लिए जोर शोर से मेहनत कर रहे हैं. फिनाले में अब कुछ ही दिन बाकी हैं और इसी के साथ उन सितारों के नाम भी सामने आने लगे हैं जो फिनाले में औडियंस को नजर आने वाले हैं. इन सब के बीच एक बहुच बड़ा नाम सामने आया जो इस बार बिग बौस सीजन 13 के फिनाले में एंट्री लेंगे. आप सब को ये जानकर बेहद खुशी होगी कि इस बार फिनाले में भोजपुरी एंजस्ट्री के सुपरस्टार खेसारी लाल यादव एंट्री लेंगे और दर्शकों को एंटरटेन करेंगे.

सलमान खान के साथ करेंगे स्टेज शेयर…

 

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खबरों की मानें को खेसारी लाल यादव को इससे पहने बिग बौस सीजन 13 का कंटेस्टेंट बनने का औफर दिया गया था जिसे उन्होनें अपने बिजी स्कैड्यूल की वजह से ठुकरा दिया था. अब खबरें कुछ ऐसी हैं कि खेसारी लाल यादव बिग बौस सीजन 13 के फिनाले यानी 25 अक्टूबर को सलमान खान के साथ स्टेज शेयर करते दिखाई देंगे, इन सब खबरों के बीच ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा की खेसारी लाल यादव के आते ही दर्शकों को शो में जबरदस्त भोजपुरी तड़का देखने को मिलेगा.

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बता दें, खेसारी लाल यादव नें अभी तक इस बात पर कोई बयान नहीं दिया है. अब देखने वाली बात ये होगी की बिग बौस सीजन 13 के फिनाले में खेसारी लाल यादव किस तरह औडियंस को एंटरटेन करने नजर आने वाले हैं.

रानू मंडल: रेलवे स्टेशन से बौलीवुड

लेखक- रविंद्र शिवाजी दुपारगुडे 

ये वक्त से लड़ कर अपना नसीब बदल दे, इंसान वही जो अपनी तकदीर बदल दे. कल क्या होगा उस की कभी न सोचो, क्या पता कि कल वक्त खुद अपनी लकीर बदल दे.पंक्तियां तब सार्थक हो जाती हैं जब हम रानू मंडल जैसे लोगों के बारे में सुनते हैं. कहते हैं कि प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती. ऐसा ही कुछ रानू मंडल के साथ हुआ.

अपनी सुरीली आवाज के दम पर उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई और आज वह ऐसी जगह मौजूद हैं, जहां पहुंचना उन लोगों का सपना होता है, जो संगीत की दुनिया में अपना भविष्य बनाना चाहते हैं.

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कुछ दिनों पहले तक पश्चिम बंगाल के रानाघाट रेलवे स्टेशन पर रानू मंडल नाम की उम्रदराज महिला अकसर पुरानी फिल्मों के गीत गा कर भीख मांगती थी. इस तरह उसे पेट भरने लायक पैसे मिल जाते थे.

ऐसे ही एक दिन वह भीख मांगतेमांगते मशहूर गायिका लता मंगेशकर का गाया हुआ फिल्म शोर का गीत ‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है…’ गा रही थी. यह गीत इतना कर्णप्रिय लग रहा था कि उधर से गुजरने वाले लोगों के पैर वहां रुक गए.

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लोग इस बात से ताज्जुब में थे कि उस भीख मांगने वाली महिला की आवाज हूबहू लता मंगेशकर की आवाज से मिल रही थी. लोगों की उस भीड़ में सौफ्टवेयर इंजीनियर अतींद्र चक्रवर्ती भी शामिल थे. वह गाती हुई महिला का वीडियो बनाने लगे.

बाद में अतींद्र ने उस की वीडियो को यूट्यूब पर डाल दिया. इस के बाद यह वीडियो वायरल हो कर लाखों लोगों तक पहुंच गया. लोगों ने रानू मंडल की आवाज की बहुत तारीफ की.

यह वीडियो वायरल होते हुए मशहूर सिंगर और अभिनेता हिमेश रेशमिया के पास पहुंचा तो वह रानू मंडल की आवाज से बेहद प्रभावित हुए. उन्होंने रानू मंडल से मुलाकात की. उस की आवाज को गहराई से परखा.

उन्हें लगा कि अगर रानू मंडल को कुछ ट्रेंड कर दिया जाए तो वह अच्छी गायिका बन सकती हैं. इसलिए वह रानू को स्टूडियो ले गए. पहले उन्होंने रानू को अच्छा लुक दिया. उन का मेकओवर किया. इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी नई फिल्म ‘हैप्पी हार्डी ऐंड हीर’ के लिए ‘तेरी मेरी, मेरी तेरी…’ गीत भी गवाया.

इस गीत से रानू मंडल सोशल मीडिया के माध्यम से रातोंरात दुनिया भर में मशहूर हो गईं. हिमेश रेशमिया के एक ही कदम से रानू मंडल सेलिब्रिटी की कतार में खड़ी हो गईं. इस के बाद तो फिल्म इंडस्ट्री की नामीगिरामी शख्सियतों सलमान खान, अमिताभ बच्चन आदि ने भी रानू मंडल की आवाज की बहुत तारीफ की.

साल 1979 में एक फिल्म प्रदर्शित हुई थी ‘सरगम’, जिस में अभिनेत्री जयाप्रदा और अभिनेता ऋषि कपूर पर एक गाना फिल्माया गया था. ‘डफली वाले डफली बजा’ उन दिनों यह गाना काफी मशहूर हुआ था. इस गाने को मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर ने गाया था. वही गाना अब रानू मंडल की आवाज में उन के दूसरे अलबम के रूप में सामने आया है.

हिमेश रेशमिया ने रानू मंडल की आवाज में जो गाना रिकौर्ड कराया है, रानू मंडल को उस गाने का पारिश्रमिक 6 लाख रुपए मिला. रानू मंडल के बारे में अब काफी नईनई जानकारियां सामने आ रही हैं. जैसे कि वह पहले मुंबई में ही रहती थीं. तब उन्हें रानी बौबी नाम से जाना जाता था.

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रानू ने बताया कि उन के पति अभिनेता फिरोज खान के यहां खाना बनाने का काम करते थे. तब वह पति के साथ किचन में अकसर गीत गुनगुनाती रहती थी. एक दिन खुद फिरोज खान ने उन की मधुर आवाज की तारीफ की थी.

पति की मौत के बाद रानू को मुंबई छोड़ कर वापस रानाघाट आना पड़ा. रानू ने बताया कि उस का जन्म किसी फुटपाथ पर नहीं हुआ था बल्कि एक अच्छे परिवार में हुआ था. 6 साल की उम्र में ही वह अपने परिजनों से अलग हो गई थीं. उन्हें उन की बहन ने पालापोसा.

रानू मंडल ने काफी संघर्ष किए. उन्हें लता मंगेशकर के गीत बहुत प्यारे लगते थे. इसलिए जब भी मौका मिलता, वह उन के गीत गाती रहती थीं.

कहते हैं कि गरीबी में अपने सगेसंबंधी भी साथ छोड़ जाते हैं. यही रानू मंडल के साथ भी हुआ. उन की बेटी सती राय ने खुद उन का साथ छोड़ दिया था, तब रानू रानाघाट स्टेशन पर पहंचीं. इस के बाद तो प्लेटफार्म ही उन का घर बन गया. वहीं पर गाने गा कर वह भीख मांगतीं और वहीं सो जातीं. लेकिन अब रानू के सितारे गर्दिश से निकल कर चमकने लगे तो वही बेटी मां से मिली.

रानू ने गिलेशिकवे भुला कर बेटी को गले लगाया और कह दिया कि जो हो गया, वह बीता पल था. मेरी बेटी अपनी परेशानियों के कारण मुझ से दूर थी. मैं उसे बिलकुल दोष नहीं दूंगी. जबकि सती राय का कहना है कि मुझे खुद मेरे पति ने छोड़ दिया, जिस से मेरी जिंदगी भी दुख और दर्द से भरी हुई है.

उस ने कहा कि डिप्रेशन के कारण मां ने हमारा घर छोड़ दिया था. पिता की मृत्यु के बाद भी मां हमारे साथ 8 सालों तक रहीं. डिप्रेशन का शिकार बनने के कारण वह परिवार के साथ नहीं रहती थीं. उन्होंने खुद ही घर छोड़ा था. उस के बाद हमारा सपंर्क नहीं रहा.

कई बार रिश्तेदार मां के बारे में बताते थे कि तुम्हारी मां यहां हैं, वहां हैं. पर निजी जिंदगी की तकलीफों के कारण हम ने मां की तरफ ध्यान नहीं दिया. सती राय ने अपनी मां के मैनेजर अतींद्र चक्रवर्ती पर भी गंभीर आरोप लगाए. उस ने कहा कि अतींद्र उसे उस की मां से मिलने नहीं देते. इतना ही नहीं, वह उस की मां के पैसों का भी गलत इस्तेमाल कर रहे हैं. पर अच्छीखासी अंगरेजी बोलने वाली रानू मंडल ने ही बेटी और अपने मैनेजर के बीच सुलह करवा दी.

अब तक रानू मंडल ने 3 गाने रिकौर्ड किए हैं और अभी कई स्टेज शो के उन्हें औफर मिल रहे हैं. यही नहीं, भोजपुरी फिल्म निर्माताओं ने भी अपनी फिल्मों में रानू की आवाज का इस्तेमाल करने का निर्णय लिया है. आइटम डांसर राखी सावंत ने भी कहा है कि मंदाकिनी बोरा के गाए उन के ‘छप्पन छुरी’ गाने के रिमिक्स वर्जन को रानू मंडल की आवाज दी जानी चाहिए.

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पौलिटिकल राउंडअप: ओवैसी ने लताड़ा

हैदराबाद, अपने कड़वे बोलों के लिए बदनाम एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘फादर औफ इंडिया’ बताए जाने पर कहा कि डोनाल्ड ट्रंप एक जाहिल आदमी हैं और पढ़ेलिखे भी ज्यादा नहीं हैं. न तो उन को हिंदुस्तान के बारे में कुछ मालूम है और न ही उन को महात्मा गांधी के बारे में कुछ पता है. ट्रंप को दुनिया के बारे में भी कुछ मालूम नहीं है.

असदुद्दीन ओवैसी ने 25 सितंबर को कहा, ‘‘अगर ट्रंप को मालूम होता तो इस तरह की जुमलेबाजी नहीं करते. महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का खिताब इसलिए मिला, क्योंकि लोगों ने उन की कुरबानी को देख कर उन्हें यह उपाधि दी थी. इस तरह के खिताब दिए नहीं जाते, हासिल किए जाते हैं.’’

हाईकोर्ट हुआ सख्त

अहमदाबाद. हाईकोर्ट ने सरकारी जमीनों को धार्मिक संप्रदायों को दान देने पर बेहद कड़ी टिप्पणी करते हुए 25 सितंबर को कहा कि गुजरात सरकार किसी शख्स या किसी खास धार्मिक संप्रदाय को सार्वजनिक इस्तेमाल की जमीन को दान न दे. जब पूरा देश धर्मस्थलों से भरा पड़ा है, तो राज्य सरकार को किसी खास संप्रदाय पर दरियादिली नहीं दिखानी चाहिए.

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हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी 3 पक्ष वाले एक जमीन के  झगड़े में की जिस में राजकोर्ट नगरनिगम, एक कोऔपरेटिव सोसाइटी और एक धार्मिक ट्रस्ट शामिल हैं. नगरनिगम एक जमीन को धार्मिक ट्रस्ट को बेचना चाहता है लेकिन कोऔपरेटिव सोसाइटी का दावा है कि यह उस की जमीन है.

संजय सिंह को मिली कमान

दिल्ली. अपनी तेजतर्रार इमेज और बेबाक राय के लिए मशहूर आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह को आगामी विधानसभा के लिए प्रभारी बनाया गया है.

इस के साथ ही 26 सितंबर को ‘आप’ की ओर से जारी बयान के मुताबिक, ‘पार्टी दिल्ली विधानसभा चुनाव अपनी सरकार के ऐतिहासिक कामकाज के आधार पर लड़ेगी जिस ने चहुंमुखी विकास से राष्ट्रीय राजधानी की तसवीर बदल दी है. हमारे स्वयंसेवी स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली और जलापूर्ति क्षेत्र में दिल्ली सरकार के कामकाज की जानकारी घरघर तक पहुंचाएंगे.’

पिछले कुछ समय से आम आदमी पार्टी दिल्ली में अपनी इमेज बनाने में ज्यादा कामयाब हुई है. अब संजय सिंह को देखते हैं कि वे चुनाव में वोटरों को अपने पक्ष में कैसे लाएंगे.

मांझी का तीर

कटिहार. बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके और हिंदुस्तानी अवाम मोरचा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीतनराम मां झी ने 26 सितंबर को राजद नेता तेजस्वी यादव पर आरोप लगाया कि भाजपा के प्रति उन के दिल में ‘सौफ्ट कौर्नर’ है. बिहार विधानसभा के मानसून सत्र के बाद से ही उन के लक्षण सही नहीं हैं.

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यह चिनगारी छोड़ने के साथ ही अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के नेता के चेहरे के सवाल पर जीतनराम मां झी ने कहा कि निजी तौर पर तेजस्वी उन्हें पसंद हैं, लेकिन इस का आखिरी फैसला महागठबंधन को करना है.

फट गए बादल

चंडीगढ़. भाजपा के करीबी रहे शिरोमणि अकाली दल के अब तेवर बदल गए हैं. उस के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने हरियाणा में अपनी पार्टी के एकमात्र विधायक के भाजपा में शामिल होने को गलत बताया.

कलांवली के विधायक बलकौर सिंह 26 सितंबर को नई दिल्ली में भाजपा में शामिल हो गए. उन्होंने मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर की राज्य को ‘ईमानदारी’ सरकार देने के लिए तारीफ की.

इस बात से नाराज सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि हर रिश्ते की एक मर्यादा होती है और अकाली दल के मौजूदा विधायक को अपने खेमे में शामिल करने से उन के गठबंधन की मर्यादा टूट रही है.

भाजपा हर जगह मर्यादा की दुहाई देती है, लेकिन किसी दूसरी पार्टी के नेता को अपनी तरफ मिलाने से भी नहीं चूकती है.

परेड की डिमांड

भोपाल. यह किसी सेना की परेड की बात नहीं हो रही है, बल्कि मध्य प्रदेश के हाई प्रोफाइल हनी ट्रैप स्कैंडल में कई नेताओं और अफसरों के शामिल होने पर वहां के एक मंत्री गोविंद सिंह ने कहा है कि अपराधियों के खिलाफ केस दर्ज होना चाहिए. पुलिस को आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज करना चाहिए और उन की पब्लिक में परेड करानी चाहिए.

27 सितंबर को मध्य प्रदेश कांग्रेस दफ्तर के बाहर एक बड़ा बिलबोर्ड लगाया गया जिस में लिखा था कि ‘चाल चरित्र चेहरे’ का दावा करने वाले शिवराज सिंह चौहान अपनी पार्टी के नेताओं के नाम हनी ट्रैप में आने के बाद भी चुप क्यों हैं? इस से पता चलता है कि कुछ तो गड़बड़ है.

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जोड़ीदारों का बंटवारा

मुंबई. एकजैसी विचारधारा के हिमायती रहे भाजपाइयों और शिव सेना वालों में काफी उठापटक के बाद सीटों का बंटवारा तकरीबन हो गया है. भारतीय जनता पार्टी राज्य में 144 सीटों पर और शिव सेना 126 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. दूसरे सहयोगी दलों के लिए 18 सीटें रखी गई हैं.

यही नहीं, भाजपा की तरफ से शिव सेना को उपमुख्यमंत्री पद भी दिया जा सकता है. मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस खुद कई बार कह चुके हैं कि वे आदित्य ठाकरे को उपमुख्यमंत्री बना सकते हैं.

सवाल उठता है कि अगर पिछले कुछ सालों में भाजपा ताकतवर हुई है तो उसे ऐसे गठबंधन की जरूरत ही क्यों पड़ती है?

प्रधानमंत्री की उम्मीद

चेन्नई. काफी दिनों के बाद भारत लौटे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 30 सितंबर को कहा कि दुनिया की भारत से ‘बहुत उम्मीदें’ हैं और उन की सरकार देश को ‘महानता’ के उस रास्ते पर ले जाएगी जहां वह पूरी दुनिया के लिए फायदेमंद साबित होगा. इस के साथ ही उन्होंने एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के खिलाफ अपनी मुहिम को दोहराया.

लेकिन प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया कि देश में धर्म, जाति, इलाके के नाम पर जिस तरह लोगों को बांटा जा रहा है, उन में जहर भरा जा रहा, उस से कैसे छुटकारा मिलेगा?

बढ़ी सियासी रार

कोलकाता. भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने ममता सरकार पर हमला करते हुए कहा था कि बंगाल में जंगलराज है. इस पर तृणमूल वाले बिदक गए और उन्होंने 28 सितंबर को कहा कि जेपी नड्डा राज्य में विकास नहीं देख सकते, क्योंकि वे खुद जंगल से आए हैं.

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तृणमूल के नेता फरहाद हकीम ने कोसते हुए कहा कि नड्डा को केंद्र में ‘जंगलराज’ क्यों नहीं दिखा, क्योंकि भाजपा की दोष से भरी नीतियों के चलते अर्थव्यवस्था कमजोर हुई है और पूरे देश में नौकरियां गई हैं.

जितेंद्र सिंह के बोल बचन

जम्मू. केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह 29 सितंबर को कटरा में नवरात्रि उत्सव का उद्घाटन करने गए थे. वहां उन्होंने लोगों से कहा कि वे माता वैष्णो देवी का धन्यवाद करें कि जम्मूकश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर दिया गया है.

याद रहे कि केंद्र सरकार ने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधानों को खत्म कर दिया था और राज्य को 2 केंद्रशासित क्षेत्रों जम्मूकश्मीर और लद्दाख में बांट दिया था.

थार की बेटी का हुनर: भाग 1

राजस्थान के सीमावर्ती जिलों बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर से पाकिस्तान की सीमा लगी हुई है. जैसलमेर और बाड़मेर जिलों की सीमा के सामने पाकिस्तान का सिंध प्रांत है. सिंध में राजस्थान के सैकड़ों लोगों के रिश्तेदार हैं. सिंध के अमरकोट के सोढ़ा राजपूतों की रिश्तेदारियां जैसलमेर, बाड़मेर और जोधपुर के तमाम गांवों में हैं. इन जिलों से लगती पाक सीमा पर जब से तारबंदी हुई, तब से लोग परेशान हैं. तारबंदी से पहले इन जिलों के लोग पाकिस्तान में अपनी रिश्तेदारी में हो आते थे. पाक के लोग भी भारत में आ जाते थे और शादीब्याह कर के लौट जाते.

सिंध और पश्चिमी राजस्थान के लोगों की बोलचाल की भाषा और रहनसहन मिलताजुलता है. इसलिए उन की यह पहचान नहीं हो पाती थी कि वे भारतीय हैं या पाकिस्तानी.

1965 और 1971 के भारतपाक युद्ध के दौरान कई लोग पाक से जैसलमेर, बाड़मेर के गांवों में आ बसे थे. इन में ज्यादातर हिंदू थे. उन परिवारों की महिलाएं हस्तशिल्प के काम में निपुण थीं.

ये महिलाएं हस्तशिल्प कला गुदड़ी (राली), रूमाल, बैडशीट, तकिया कवर, चादर, पर्स, बैग और अन्य चीजों पर हाथ से ऐसी कशीदाकारी करती हैं कि देखने वाला देखता रह जाए. इन अनपढ़ महिलाओं का हुनर पढ़ेलिखे फैशन डिजाइनरों को भी पीछे छोड़ देता है.

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पाकिस्तान से आए इन शरणार्थियों के पास राजस्थान में न तो जमीन थी और न ही रोजगार के साधन. बाड़मेर, जैसलमेर के गांवों में बिजली, पानी, सड़क, विद्यालय आदि की भी व्यवस्था नहीं थी. गांवों में मजदूरी का भी कोई साधन नहीं था. इस के अलावा हर साल पड़ने वाले अकाल ने भी इस इलाके में भुखमरी बढ़ाने का काम किया.

पाकिस्तान से आए शरणार्थी परिवारों की महिलाओं की हस्तकला ने यहां पर दो जून की रोटी का प्रबंधन किया. उन दिनों एजेंट कपड़ा ला कर इन महिलाओं को दे देते थे. ये महिलाएं उस कपडे़ पर आकर्षक दस्तकारी कर के कपड़े की कीमत दोगुनी कर देतीं.

एजेंट इन अशिक्षित गरीब महिलाओं को अनाज व चंद रुपए दे कर बाजार में मोटा मुनाफा कमाते थे. गांवों में उन दिनों भेड़ की ऊन से भी कपड़े, दरियां, पट्टू, बरड़ी आदि बनाए जाते थे. गांव के लोग बुनकर को ऊन दे कर कपड़े बनवाते थे. बुनकर आधी ऊन स्वयं रख कर आधी ऊन से कपड़े बुन कर गांव वालों को दे देते थे.

कहने का मतलब यह कि इस इलाके में उन दिनों बहुतों ने गरीबों को ठगने का काम किया. गांव के लोगों के पास उस समय और कोई चारा नहीं था. इसलिए सब कुछ समझते हुए वे शोषण का शिकार बनते रहे. दशकों से हस्तशिल्प कला का इस इलाके में काम होता रहा, मगर इसे पहचान कोई नहीं दिला सका.

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बहुत संघर्ष किया थार की बेटी ने

बाद में बाड़मेर की इस कला को थार की बेटी रूमा देवी ने विश्वस्तर पर पहचान दिलाई. उन की वजह से आज पूरे विश्व में बाड़मेर का नाम है. अपनी कोशिश से 8वीं तक पढ़ी रूमा देवी ने 75 गांवों में करीब 22 हजार महिलाओं की जिंदगी बदल दी है.

राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर में एक गांव है रावतसर. इसी गांव के खेताराम चौधरी की बेटी हैं रूमा देवी. खेताराम गरीब किसान थे. किसी तरह परिवार की गुजरबसर चल रही थी. उन की 7 बेटियां थीं. रूमा जब 4 साल की हुई तो मां का देहांत हो गया. उस छोटी बच्ची की परवरिश उस की दादी और चाची ने की.

पिता खेताराम ने तो पत्नी की मौत के बाद दूसरी शादी कर ली थी. रूमा चाचाचाची के पास रही. उन्होंने ही उसे पालापोसा. 8वीं पास करने के बाद रूमा आगे भी पढ़ना चाहती थी लेकिन चाचाचाची ने पढ़ाई छुड़वा कर उसे घर के काम में लगा दिया.

रूमा की दादी कशीदाकारी करती थीं. उन के साथ रूमा भी यह काम बखूबी सीख गई. घर के काम निपटाने के बाद रूमा दस्तकारी करती थी. रूमा को घर के कामों के लिए 10 किलोमीटर दूर से बैलगाड़ी द्वारा पानी लाना पड़ता था.

मोहल्ले के कुछ लोग भी उस से अपने लिए पानी मंगा लेते थे. इस के बदले में वे उसे कुछ पैसे जरूर दे दिया करते थे. इस तरह लोगों की प्यास बुझाने के साथसाथ उसे कुछ आमदनी भी हो जाती थी.

रूमा जब 17 साल की हुई तो उस की शादी बाड़मेर जिले के गुड़ामालानी तहसील के गांव मंगला की बेरी निवासी टीकूराम चौधरी के साथ हो गई. रूमा का बाल विवाह हुआ था. टीकूराम के पिता कहीं छोटी सी नौकरी करते थे, जिस की वजह से उन्हें परिवार के साथ बलदेव नगर कच्ची बस्ती में रहने के लिए विवश होना पड़ा था.

रूमा भी शादी के बाद ससुराल मंगला की बेरी से बाड़मेर शहर आ गई. वह ससुराल में खुश थी. मगर यहां भी गरीबी ने उस का पीछा नहीं छोड़ा था. ससुर की नौकरी से बमुश्किल घर का खर्च चलता था.

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शादी के 2 साल बाद रूमा ने एक बेटे को जन्म दिया. बेटा कमजोर था. उस का इलाज कराने के भी पैसे नहीं थे, जिस से 2 दिन बाद ही उस की मौत हो गई थी. बेटे की मौत ने उसे झकझोर कर रख दिया था.

रूमा ने उसी समय तय कर लिया था कि वह चूल्हेचौके में जिंदगी खपाने के बजाय कोई ऐसा काम करेगी, जिस से दो पैसे आएं. लेकिन उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह काम कौन सा करे. तभी उस के दिमाग में बैग बनाने का विचार आया.

सोचनेविचारने के बाद रूमा ने एक पुरानी सिलाई मशीन खरीदी और छोटेमोटे बैग बनाने लगी. वह बाजार से बैग बनाने का सामान खरीद कर लाती, फिर बैग बना कर दुकानों पर सप्लाई करने जाती. घर की जिम्मेदारियों के साथ बैग बनाने के लिए रूमा अकेली ही संघर्ष करती रही.

कुछ महीनों बाद उस के बनाए बैग की मांग बढ़ने लगी तो रूमा ने मोहल्ले की अन्य महिलाओं को अपने साथ जोड़ना शुरू कर दिया. महिलाओं को जब पैसे मिलने लगे तो वे भी मन से काम करने लगीं.

काम बढ़ा तो सन 2008 में रूमादेवी ने 10 महिलाओं के साथ ‘दीप देवल महिला स्वयं सहायता समूह’ का गठन किया. रूमा के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह बैग बनाने का सामान इकट्ठा खरीद सके. दुकानदार भी उसे जान गए थे. वे उसे उधार में सामान दे देते थे. बैगों की बिक्री कर के वह सभी के पैसे चुका देती थी. यह सिलसिला कई महीनों तक चला.

बलदेवनगर क्षेत्र में ही ग्रामीण विकास चेतना संस्थान का कार्यालय था. रूमा वहां गई और सेक्रेटरी विक्रम सिंह चौधरी से मिल कर उन से हस्तशिल्प के लिए सहयोग मांगा. इस पर वहां के अध्यक्ष ने कुछ सैंपल बना कर दिखाने को कहा. रूमा ने अन्य महिलाओं के साथ कई दिनों तक सैंपल तैयार किए.

खुद ढूंढी राह रूमा ने

सैंपल देख कर विक्रम सिंह खुश हुए. इस से उन्हें यकीन हो गया कि रूमा एवं उस की साथी महिलाएं अच्छा काम कर सकती हैं, इसलिए उन्होंने रूमा को पहला और्डर दिला दिया. रूमा और उस की साथी महिलाओं ने तय समय पर उन का और्डर पूरा कर के दे दिया.

काम अच्छा था, इसलिए रूमा के उत्पाद की तारीफ होने लगी. काम की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए रूमा ने समूह में काम करने वाली महिलाओं को ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी. इस के अलावा उन्होंने कच्ची बस्ती की अन्य महिलाओं को हस्तकला सिखाई.

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सन 2008 से 2010 तक रूमा ने करीब 1500 महिलाओं को हस्तकला के कई पैटर्न सिखा कर अपनी संस्था से जोड़ा. रूमा का व्यवहार एवं काम के प्रति लगन, मेहनत और ईमानदारी देख कर सभी महिलाओं ने रूमा देवी को ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान की अध्यक्ष चुन लिया.

अध्यक्ष चुने जाने के बाद रूमा की जिम्मेदारी और बढ़ गई थी. रूमा को रोजाना 10 से 12 घंटे काम करना पड़ता था. बाड़मेर शहर के बाद रूमा गांवगांव, ढाणीढाणी पहुंच कर वहां की महिलाओं को हस्तकला के लिए प्रेरित करने लगीं.

शुरू में रूमा को इस काम में सफलता नहीं मिली. मर्द तो यह कहने लगे थे कि यह उन की बय्यरवानियों को बिगाड़ देगी. लेकिन रूमा के अंदर काम करने की ललक थी, इसलिए उस ने हिम्मत नहीं हारी.

ग्रामीण महिलाओं से मिल कर उन्हें घर बैठे काम और मजदूरी देने का वादा किया तो महिलाएं मान गईं. इस के बाद उन के पति भी रूमा का आदरसम्मान करने लगे.

दरअसल, पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर जिलों के सभी गांवों ढाणियों में आज भी परदा प्रथा कायम है. हालांकि घूंघट से महिलाएं छुटकारा चाहती हैं, मगर पुरुष प्रधान समाज में उन की  एक नहीं चलती.

इस कारण छाती तक घूंघट निकालती महिलाएं अपने घर में ही कैद रहने को मजबूर हैं. घर का काम निपटा कर महिलाएं घर में ही पड़े रह कर समय बिताती हैं. उन के पास और कोई काम नहीं रहता.

आजकल पढ़ीलिखी बहुएं गांवों में आने लगी हैं. उन्हें भी रिवाज के अनुसार ससुराल में रहना पड़ता है. इसलिए राजस्थान में 21वीं सदी में भी परदा प्रथा कायम है. ऐसे रूढि़वादी परिवेश में रूमादेवी ने किस तरह महिलाओं और उन के घर वालों को समझा कर काम से जोड़ा, इस की कल्पना की जा सकती है.

रूमा को बहुत संघर्ष करना पड़ा. मगर उस ने हिम्मत नहीं हारी. उसी संघर्ष और साहस का परिणाम यह है कि आज उस ने बाड़मेर के मंगला की बेरी, रावतसर सहित 3 बड़े जिलों बाड़मेर, जैसलमेर और बीकानेर के 75 गांवों की करीब 22 हजार महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता दिलाई.

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रूमा की वजह से बाड़मेर, बीकानेर और जैसलमेर की ये महिलाएं आत्मनिर्भर बन कर खुद के पैरों पर खड़ी हो गई हैं. इन महिलाओं में पाकिस्तान से आए उन शरणार्थी परिवार की महिलाओं भी शामिल हैं,जो हस्तकला में पारंगत हैं.

जानें आगे क्या हुआ अगने भाग में…

सनी लियोनी ने धूमधाम से मनाया बेटी का बर्थडे, इस तरह दिखी पूरी फैमिली

बौलीवुड एक्ट्रेस सनी लियोनी ने सोमवार को अपनी बेटी निशा कौर वेबर का बर्थडे सेलिब्रेट किया. निशा 4 साल की हो गई हैं. सनी ने बड़े ही शानदार तरीके से निशा का बर्थडे सेलिब्रेट किया. बर्थडे की फोटोज सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं. निशा भी अपने बर्थडे के लिए काफी एक्साइटेड नजर आईं. इस दौरान पूरे परिवार ने व्हाइट कलर के आउटफिट्स पहने हैं. साथ ही पूरा परिवार काफी खुश नजर आ रहा है.

2017 में लिया था निशा को गोद…

इस दौरान सनी के बेटे भी अपनी दीदी के बर्थडे सेलिब्रेशन में काफी एंजौय करते हुए नजर आए. बता दें कि सनी लियोनी के 3 बच्चे हैं. बेटी निशा को सनी ने 2017 में गोद लिया था. उस वक्त निशा 21 महीने की थी. इसके बाद सनी के 2018 में सेरोगेसी के जरिए 2 बेटे हुए. कुछ दिनों पहने ही सनी ने अपने बेटों का बर्थडे सेलिब्रेट किया था.

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वैसे सनी अपने बच्चों से काफी प्यार करती हैं. वो चाहें कितना भी काम में बिजी हों, लेकिन फिर भी बच्चों के लिए समय निकाल ही लेती हैं. सनी को अक्सर बच्चों को स्कूल छोड़ते हुए और उनके साथ घूमते हुए देखा जाता है.

धमाकेदार वापसी करने जा रही हैं सनी लियोनी…

सनी की प्रोफेशनल लाइफ की बात करें तो लास्ट वो अपनी ज़ी 5 की वेब सीरीज़ करणजीत कौर में दिखाई दी थीं जो उनकी खुद की बायोपिक थी. इसके अलावा, सनी काफी समय से पर्दे से गायब हैं. लेकिन अब रिपोर्ट्स के मुताबिक़ सनी धमाकेदार वापसी करने जा रही हैं.

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औल्ट बालाजी की वेबसीरीज में आएंगी नजर…

खबरों की मानें तो एकता कपूर ने सनी को औल्ट बालाजी के लिए एक वेबसीरीज औफर की है जिसका नाम है कामसूत्र और ये कामसूत्र किताब पर ही बनेगी. कामसूत्र एक किताब है जिसे वात्यायन ने लिखा है जो जिंदगी जीने के तरीके के मूल बताती है. एकता कपूर का मानना है कि ये किरदार, सनी लियोन से बेहतर और कोई नहीं कर सकता है.

विरमादेवी का किरदार निभाएंगी सनी लियोनी…

इसके साथ ही सनी एक तमिल फिल्म में भी नज़र आने वाली हैं. वीरमादेवी नामक योद्धा पर आधारित यह फिल्म इसी मशहूर योद्धा की कहानी दर्शाएगी. फिल्म में सनी लियोन ही विरमादेवी का किरदार निभाती नज़र आएंगी.

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1954 के बाद पहली बार कोई भारतीय कप्तान बना BCCI का अध्यक्ष, ये होंगी चुनौतियां

आखिरकार सौरव गांगुली विश्व के सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड यानी बीसीसीआई के अध्यक्ष बन गए. वैसे तो बीसीसीआई स्वतंत्र संस्था है जिसपर किसी की भी हस्तक्षेप नहीं रहा लेकिन राजनीति से ये कभी अछूती नहीं रही. चाहे हो जगमोहन डालमिया हो या फिर अनुराग ठाकुर हों या श्रीनिवासन.

लेकिन इस बार एक अच्छी बात ये है कि 1954 के बाद पहली बार कोई भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान इस अहम पद पर बैठने जा रहा है. गांगुली पर जिम्मेदारी भी बहुत है क्योंकि अगले साल ही टीम को टी-20 विश्व कप और एशिया कप खेलना है. साथ ही सीओए के साथ तालमेल बैठाना भी बड़ी जिम्मेदारी होगी.

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मुंबई में क्रिकेट संघों की कई राउंड मीटिंग के बाद सौरव गांगुली के नाम पर सहमती बनी थी क्यूंकि उन्होंने साफ तौर पर बता दिया था की अध्यक्ष पद के अलावा उनका किसी और पद में कोई रूचि नहीं है. माना जा रहा है कि गांगुली को भारत सरकार के मंत्री अनुराग ठाकुर का भी समर्थन प्राप्त था. अध्यक्ष पद खोने के बाद बृजेश पटेल ने आईपीएल का चेयरमैन बनने पर सहमति दे दी. गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह को सचिव जबकि अरुण सिंह ठाकुर, जो अनुराग ठाकुर के छोटे भाई है, को कोषाध्यक्ष बनाए जा सकते हैं.

चयन प्रक्रिया पूरी होने के बाद पूर्व भारतीय कप्तान का कार्यकाल 10 महीने का होगा. फिलहाल गांगुली के लिए ये एक छोटा कार्यकाल होगा क्योंकि नए नियमों के तहत जुलाई 2020 से उनकी कूलिंग ऑफ़ अवधि शुरू हो जाएगी. वह पिछले पांच वर्षों करीब दो महीने से क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल में पद संभाल रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित लोढ़ा कमेटि के नियमों के मुताबिक एक प्रशासक केवल छह साल के अंतराल पर सेवा दे सकता है.

गांगुली, जिन्होंने अपनी आक्रामक कप्तानी के साथ भारतीय क्रिकेट में एक नए युग की शुरुआत की, वो बोर्ड के शीर्ष पद संभालने वाले दूसरे भारतीय कप्तान होंगे. बीसीसीआई के अध्यक्ष बनने वाले एकमात्र अन्य भारतीय कप्तान विजयनग्राम या विज्जी के महाराजकुमार थे, जिन्होंने 1936 में इंग्लैंड दौरे के दौरान 3 टेस्ट मैचों में भारतीय टीम का नेतृत्व किया था.

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वे 1954 में बीसीसीआई के अध्यक्ष बने थे. गांगुली कभी भी नेतृत्व की भूमिका निभाने से कतराते नहीं हैं. विश्व क्रिकेट में सबसे सफल कप्तानों में से एक के रूप में अपना करियर खत्म करने के बाद, उन्होंने बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष जगमोहन डालमिया के संरक्षण में सीएबी में प्रशासन में प्रवेश किया.

जब गांगुली ने 2000 में भारत के कप्तान के रूप में पदभार संभाला था, तो भारतीय क्रिकेट गर्त में था. मैच फिक्सिंग कांड के बाद बोर्ड की आईसीसी में दबदबा काफी कम हो गया था. बतौर कप्तान उन्होंने भारतीय क्रिकेट को विश्वास दिलाया कि भारत विदेशों में भी जीत सकता है.

गांगुली के सामने अब कई चुनौती होंगी. उन्हें सीओए के साथ कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट को भी सुधारना होगा. नामांकन दाखिल करने के बाद गांगुली ने पत्रकारों से कहा था, ‘‘हितों का टकराव का मुद्दा बड़ा है. और मुझे यह नहीं पता है कि मैं सर्वश्रेष्ठ क्रिकेटरों की सेवाएं ले पाऊंगा या नहीं क्योंकि उनके पास दूसरे विकल्प भी मौजूद होंगे.’’

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गांगुली ने साफ किया कि ‘एक व्यक्ति एक पद’ के मौजूदा नियम क्रिकेट के पूर्व दिग्गजों को प्रशासन में आने से रोकेगा क्योंकि उन्हें अपनी आजीविका कमाने की भी जरूरत होगी. इसके साथ ही फर्स्ट क्लास क्रिकेट पर भी गांगुली का ध्यान होगा. गांगुली के सामने टी-20 विश्व कप के समय तक टीम को बेहतरीन बनाना भी बड़ा मुद्दा है. क्योंकि टी-20 में अभी भी भारतीय टीम को सुधार करने की बड़ी जरूरत है.

Bigg Boss 13: ‘टिकट टू फिनाले’ पाने के लिए की कंटेस्टेंटस ने पार की सारी हदें, देखें वीडियो

बिग बौस का दूसरा नाम ही लड़ाईयां और एंटरटेनमेंट है और इसी के साथ बिग बौस के सीजन 13 में हमें ये लड़ाई झगड़े शुरूआत से ही देखने को मिले लेकिन अब तक ये लड़ाई झगड़े खाने जैसी छोटी-मोटी बातों के लेकर हो रहे थे लेकिन अब मामला गंभीर होता दिखाई दे रहा है. वैसे तो बिग बौस के हर सीजन में औडियंस को कुछ ना कुछ नया और अनोखा को देखने को मिलता ही है लेकिन इस सीजन के ट्विस्ट ने कंटेस्टेंट को हिला कर रख दिया है.

किसको मिलेगा ‘टिकट टू फिनाले’

दरअसल बिग बौस सीजन 13 में इस बार सबसे बड़ा ट्विस्ट ये है कि औडियंस को इस बार फिनाले सिर्फ 4 ही हफ्तों में देखने को मिल जाएगा. इसी ट्विस्ट के साथ घरवालों के बीच फिनाले तक पहुंचने की रेस शुरू हो चुकी है. सभी कंटेस्टेंट ‘टिकट टू फिनाले’ को पाने के लिए सर से ऐड़ी तक को जोर लगा रहे हैं और ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि किसको मिलता है ‘टिकट टू फिनाले’ और कौन होगा घर से बेघर.

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सिद्धार्थ शुक्ला ने देबोलीना पर कसा ताना…

बीते एपिसोड के शुरूआत में सिद्धार्थ शुक्ला, देवोलीना भट्टाचार्जी को टास्क में उनकी मदद ना करने पर ताना मारते दिखाई देते हैं और उनकी बात सुन देवोलीना रो पड़ती हैं और शांत होने के बाद वे सिद्धार्थ को काफी खरी खोटी सुनाती हैं. इसके चलते सिद्धार्थ देवोलीना को शांत करने के कोशिश करते नजर आते हैं.

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रोटियों को लेकर रश्मि और असीम के बीच तू तू मैं मैं…

इतना ही नहीं बल्कि रोटियों को लेकर रश्मि देसाई और असीम रियाज के बीच भी तू तू मैं मैं होती दिखाई दी. असीम का गुस्सा रश्मि बिल्कुल सहन ना कर पाईं और उनके भी सबर का बांध टूट गया. रश्मि ने भी असीम को खूब खरी खोटी सुनाईं और इस लड़ाई के बाद रश्मि खूब रोईं. इन सब के बाद जहां एक तरफ देवोलीना रश्मि को चुप करवाने के कोशिश कर रही थीं वहीं दूसरी तरफ बाकी घरवाले असीम के गुस्से को शांत करते दिखाई दिए.

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बिग बौस ने दिया टौस फैक्टरी टास्क…

एपिसोड में बिग बौस ने घरवालों को टौस फैक्टरी का टास्क दिया जिसमें दोनों टीमों को बिग बौस के हुक्म अनुसार सोफ्ट टौय बनाने थे और जो टीम इस टास्क को बिग बौस के दिए समय अनुसार पूरा कर लेगा वही टीम इस टास्क की विनर रहेगी. इस टास्क में सिद्धार्थ शुक्ला और पारस छाबड़ा को बिग बौस ने जज बनने का हुक्म दिया और ये चैक करने के लिए बोला कि किस टीम के सोफ्ट टौयज सही हैं और किस टीम के नहीं.

बता दें, आज के एपिसोड में दोनों जज यानी सिद्धार्थ शुक्ला और पारस छाबड़ा बताएंगे कि टौस फैक्टरी टास्क में कौन सी टीम विनर रहेंगी. जैसे जैसे फिनाले नजदीक आ रहा है वैसे वैसे सभी कंटेस्टेंट के दिलों की धड़कनें बढ़ती जा रही हैं.

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हर कदम दर्द से कराहती बाल विधवाएं

उस पर भी विडंबना यह है कि ऐसी लड़कियों का दोबारा ब्याह नहीं किया जाता, बल्कि इन का किसी भी उम्र के मर्द से ‘नाता’ कर दिया जाता है. इस के बाद भी इन की जिंदगी में कोई खास सुधार नहीं आता. ये उन मर्दों की पहली पत्नियों के बच्चों का लालनपालन करते हुए अपनी जिंदगी का बो झ ढो रही होती हैं.

गरीबी व परिवार की तंगहाली और पुरातन परपंराओं ने बाल विवाह को बढ़ावा दिया और बड़े लैवल पर बाल विधवाओं को जन्म दिया. राजस्थान के हजारों गांवों में अब भी ऐसी विधवाएं बदकिस्मती का बो झ उठाए अनाम सी जिंदगी जी रही हैं.

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पहले बाल विवाह, अब बाल विधवा, आखिर किस से कहें अपना दर्द… न परिवार ने सुनी और न सरकार ने कोई मदद की… उस पर भी समाज की ‘आटासाटा’ और ‘नाता’ जैसी प्रथाओं ने जिंदगी को नरक बना दिया… पेश हैं बाल विधवाओं की सच्ची दास्तान:

‘आटासाटा’ ने छीना बचपन

नाम सुनीता. 4 साल की उम्र में शादी. एक साल बाद ही विधवा और अब जिंदगीभर विधवा के नाम से ही पहचान बने रहने की पीड़ा.

इस समय 11 साल की सुनीता अजमेर जिले के सरवाड़ गांव के सरकारी स्कूल में 7वीं जमात में पढ़ती है. स्कूल में भी उस की पहचान बाल विधवा के रूप में ही है.

सुनीता के इस हाल के पीछे बाल विवाह जैसी कुप्रथा तो है ही, लेकिन ‘आटासाटा’ का रिवाज भी इस का जिम्मेदार है. इस रिवाज के चलते परिवार बेटे के लिए बहू मांगते हैं और वहीं बेटी के बदले दामाद की फरमाइश करते हैं. जहां यह मांग पूरी होती है, वहीं शादी तय होती है. सुनीता भी इसी रिवाज के जाल में फंस गई.

सुनीता के दादा रामप्रताप 8 साल के पोते की जल्दी शादी कराने के लिए उतावले थे. लड़की भी मिल गई, लेकिन लड़की के घर वाले चाहते थे कि इस के बदले में लगे हाथ परिवार के 7 साल के मुकेश को भी दुलहन मिल जाए.

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सुनीता की बड़ी बहन जसोदा मुकेश से काफी बड़ी थी, इसलिए मुकेश की दुलहन बनने का जिम्मा 4 साल की सुनीता के सिर आ पड़ा. शादी होने के कुछ महीने बाद ही सुनीता विधवा भी हो गई.

शादी के बाद से ही मांबाप के घर रह रही सुनीता को तुरतफुरत उस की ससुराल ले जाया गया, जहां विधवा होने की सारी रस्में उस के साथ पूरी की गईं. उस की नाजुक कलाइयों में मौजूद चूडि़यों को बेरहमी से तोड़ा गया और मांग का सिंदूर मिटा दिया गया.

हर कदम पर पहरा

राजसमंद जिले के रतनाड़ा गांव की 15 साला सुमन की गांव में बाल विधवा के रूप में पहचान है. उसे विधवा हुए 9 साल हो चुके हैं.

रतनाड़ा गांव के पास वाले गांव में रहने वाले उस के पति की मौत तालाब में डूबने से हो गई. पति की मौत के बाद उस के घर वालों ने उसे विधवा का मतलब सम झाया. उसे रंगीन कपड़े और जेवर पहनने से मना किया गया, हंसनेखेलने से मना किया गया, पेटभर खाना खाने से रोका गया. तीजत्योहारों पर सजनेसंवरने और मेलों में घूमने पर पाबंदी लगा दी गई.

इतना ही नहीं, उसे अकेले रहने के लिए जबरन मजबूर किया गया. इन नियमकायदों का पालन नहीं करने पर उसे मारापीटा तक जाने लगा.

शादी और विधवा का मतलब भी नहीं सम झी होगी कि सुमन को फिर किसी दूसरे मर्द के यहां ‘नाते’ पर बैठा दिया गया. जहां वह ‘नाता’ के तहत गई, इस की कोई गारंटी नहीं है कि वहां कितने दिन उसे रखा जाएगा.

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इस पर भी विडंबना यह है कि इस बाल विधवा के ‘नाता’ जाने के दौरान दुलहन को रंगीन जोड़ा तक पहनने की इजाजत नहीं होती है. दूल्हा भी घोड़ी नहीं चढ़ सकता है.

दिलचस्प बात तो यह भी है कि राजस्थान के कई इलाकों में इतना घोर अंधविश्वास है कि नई ससुराल में ‘नाते’ आई बाल विधवाओं का प्रवेश भी रात के अंधेरे में पिछले दरवाजे से कराया जाता है.

‘नाता’ भी नहीं महफूज

टोंक जिले के कल्याणपुरा गांव की रहने वाली प्रेमा का ब्याह कब हुआ, उसे खुद मालूम नहीं. कब वह विधवा हुई, यह भी उसे याद नहीं. ये घटनाएं जिंदगी में तभी घटित हो गईं, जब वह मां की गोद में रहती थी.

20 साल की होने पर प्रेमा के पिता को उस के लिए दूसरा साथी मिला. उस के साथ प्रेमा का ‘नाता’ कर दिया गया. एक साल बाद उस ‘नाते’ के पति ने प्रेमा को अपने साथ नहीं रखा और उसे पिता के पास छोड़ गया.

आज प्रेमा फिर अपने पिता व भाई के साथ रह कर अपनी जिंदगी काट रही है. अब प्रेमा को न तो बाल विधवा कहा जा सकता है और न ही छोड़ी हुई, क्योंकि ‘नाता’ की कहीं कोई मंजूरी नहीं है. ऐसे में सरकार भी उस की कोई मदद नहीं कर सकती. समाज ही आगे आए तो कोई बात बने.

बेघर होने का डर

टोंक जिले के ही दूनी गांव की रहने वाली 22 साला केशंता की शादी 11 साल की उम्र में कर दी गई थी. पड़ोस के ही धारोला गांव के रहने वाले उस के पति रामधन को सांप ने काट लिया था, जिस से उस की मौत हो गई थी. इस से 15 साल की उम्र में ही केशंता बाल विधवा बन गई.

तालीम से दूर केशंता अब अपने पिता के साथ खेतों में काम करती है. बाल विवाह की गलत परंपरा ने केशंता का बचपन छीन लिया. सारी खुशियां और मौजमस्ती से उसे दूर कर दिया.

केशंता को ‘नाता’ भेजने से उस का पिता भी डरता है. केशंता के पिता का मानना है कि ‘नाता’ प्रथा में बेटी  की जिंदगीभर की हिफाजत की गारंटी नहीं है. लड़की को कभी भी बेघर किया जा सकता है.

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बावजूद इस के, केशंता को भी एक न एक दिन ‘नाता’ भेज दिया जाएगा. समाज के तानों और दबाव के आगे पिता भी बेबस है, भले ही बेटी की जिंदगी नरक बन रही हो.

बेटी जीने का सहारा

5 साल की उम्र में शादी हुई और 15 साल की उम्र में मां बन गई. और तो और 17 साल की उम्र में विधवा.

यह बाल विधवा बूंदी जिले के देवली गांव की संतोष तंवर है. उस पर अपनी जिंदगी के साथसाथ एक बेटी की भी जिम्मेदारी समाज की इस गलत परंपरा ने डाल दी है.

संतोष की बेटी अभी डेढ़दो साल की हुई थी कि उस के पति की एक सड़क हादसे में मौत हो गई. इस समय उम्र के 23वें पड़ाव पर चल रही संतोष जब भी चटक रंग के कपड़े या गहने पहनती है तो गांव की औरतें ताने मारती हैं.

संतोष न दोबारा शादी कर सकती है और न ही ‘नाता’ जा सकती है. ऐसा करने पर उसे अपनी बेटी को ससुराल या अपने पिता के घर छोड़ना पड़ता है. मायके में 3 साल रहने के बाद अब वह ससुराल में ही एक कमरे में रहती है. खेतों में काम करते हुए वह अपना गुजारा कर रही है.

फिलहाल संतोष अपनी बेटी को ही बेटा मान कर तालीम दिला रही है. वह सपना देखती है कि बेटी जब बड़ी हो जाएगी तो उसे जिंदगी में थोड़ा सुकून मिलेगा. मगर सामाजिक तानाबाना ही उसे बदकिस्मती से बाहर आने नहीं देगा. विधवा होने के चलते उसे अपनी ही बेटी की शादी की रस्मों में शामिल नहीं होने दिया जाएगा.

दर्द यहां भी कम नहीं

ऐसा नहीं है कि बाल विवाह के दर्द से नीची व पिछड़ी सम झी जाने वाली जातियों की औरतें ही पीडि़त हैं, बल्कि ऊंची सम झी जाने वाली ब्राह्मण जैसी जातियों की औरतें भी इस गलत परंपरा से पीडि़त हैं.

ब्राह्मण समाज में औरतों के दोबारा ब्याह करने का प्रचलन वैसे ही कम है. शहरी समाज में भले ही बदलाव आ गया हो, लेकिन गंवई इलाकों के हालात जस के तस हैं.

टोंक जिले के पीपलू गांव की रहने वाली 24 साल की खुशबू तिवारी की शादी 15 साल की उम्र में ही हो गई थी और 17 साल की उम्र में विधवा भी हो गई. इस उम्र में वह एक बेटी की मां भी बनी थी. पति की मौत के बाद ससुराल में वह बेटे के साथ अलग रह रही है.

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समाजजाति कोई भी हो, यह समाज  विधवा औरतों का जीना दूभर कर देता है. सम्मान व सहारा देने के बजाय उस का शोषण करने के तरीके खोजता है. खुशबू जिस घर में बहू बन कर गई थी, आज उसे अपनी बेटी के साथ उसी घर में अलग एक कमरे में रहना पड़ रहा है.

अपने ही हुए पराए

सवाई माधोपुर जिले के बौली गांव की रहने वाली 26 साला ममता कंवर का ब्याह 12 साल की उम्र में महिपाल सिंह से हुआ. साल 2017 में उस के पति की मौत थ्रेशर मशीन में फंसने से हो गई. इस से उस पर एक बेटे और 2 बेटियों को पालने की जिम्मेदारी आ गई.

राजपूत समाज में भी विधवाओं को दोबारा ब्याह करने की इजाजत नहीं है. ममता को संतुलित भोजन नहीं दिया जाता, दूधसब्जी पर रोक है.

इतना ही नहीं, ममता के घर से निकलने पर भी पाबंदी लगा दी गई है. राजपूत विधवाओं को काला व कत्थई रंग के कपड़े ही पहनने की इजाजत है.

अपने ही लोगों के बीच एक कैदी की तरह रहने को ये विधवाएं मजबूर हैं. इन के दोबारा ब्याह करने के बारे में सोचना भी परिवार व समाज को गवारा नहीं है.

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पटना में भरा पानी

नीतीश कुमार सरकार कुदरत के एक छोटे से भार के आगे इस तरह बेबस रह जाएगी, इस की उम्मीद नहीं थी. यह ठीक है कि बारिश बहुत ज्यादा थी, पर यह भी ठीक है न कि बरसों से जिस तरह पटना को चलाया जा रहा था वह कोई तालियां बजाने वाला काम न था.

देश के दूसरे शहरों की तरह अनापशनाप बनते मकान, नालों में फेंका जाता कूड़ा ताकि बाद में उन पर  झुग्गियां बन जाएं, संकरी होती सड़कें, नालियों पर बेतहाशा कब्जा, चारों तरफ गंद के ढेर बारिश के लिए तो खुली दावत हैं कहर मचाने के लिए. बारिशें तो होंगी ही, पर अच्छी सरकार वही है जो हर तरह से तैयार रहे, वरना जनता बिना सरकार के कैसे बुरी है.

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सरकार जनता को लूटने के लिए नहीं, कानून बनाए रखने के लिए, रंगदारी रोकने और कुदरत से लड़ने से बचने के तरीके ढूंढ़ने के लिए ही होती है. बिहार के लिए बाढ़ कोई नई चीज नहीं हैं, हां इतनी बारिश नई है. गंगा हर साल बाढ़ के निशान पर पहुंचती है और हर दूसरेतीसरे साल नेपाल की तराई में जबरदस्त बारिश की वजह से बहुत बड़े इलाके में पानी भर जाता है. इस बार पटना को भी पानी ने दूसरे कई जिलों समेत अपनी चपेट में ले लिया और पटना के ऊंचों के घरों में भी बाढ़ का पानी पहुंच गया. वैसे तो हर साल जब खेतों में पानी भरता है तो किसी के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती है. देश वैसे ही चलता रहता है. कुदरत के आगे आदमी की क्या बिसात.

पटना में पानी भरा था तो सिर्फ इसलिए कि शहरों को बसाने में अब जमीन की भूख इतनी बड़ी हो गई है कि आपदाओं का खयाल ही नहीं रखा जाता. पटना गंगा की बाढ़ की वजह से नहीं डूबा, अपनी खुद की गलती से डूबा. ज्यादा बारिश होने पर पानी को निकलने की जगह नहीं मिली, क्योंकि नाले गंद से भरे हुए थे. बहुत जगह तो थे ही नहीं. 12 महीनों गंदा पानी यों ही बहता रहता है. इस भारी बारिश को  झेलने का इंतजाम तो इस देश में मुंबई में भी नहीं किया जाता, जहां हर साल 10 दिन रेलें, सड़कें बंद हो जाती हैं.

हम इतने नकारा हो गए हैं कि हमें हर समय नवरात्रों, गणेश पूजा का तो खयाल रहता है जब जम कर नाचगाना होता है, पर शहरों की सड़कों, नालों, नालियों, गंद का खयाल रखने की फुरसत नहीं है. इन दिनों, जो 100-150 मौतें हुईं भी, उन्हें तो पूरा देश भगवान की देन मान लेगा.

आज तकनीक इतनी ज्यादा और सुधरी हुई व सस्ती है कि कोई भी शहर बाढ़प्रूफ बनाना मुश्किल नहीं है. बाढ़ दुनियाभर में आती है. आजकल ज्यादा आ रही है, क्योंकि मौसम अपने तेवर दिखाने लगा है. बारिश, बर्फ, गरमी अब पहले सी हिसाब से नहीं होती. आदमी ने कुदरत से मजाक किया है, अब कुदरत कर रही है. सरकार वह है जो यज्ञहवन करा कर चुप न बैठे. सरकार वह है जो आम गरीब को बाढ़ के कहर से बचाए और सुशील कुमार मोदी को भी.

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भगवा के नाम पर

जैसे पहले सारे विपक्षी दल कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो कर अलग सरकार बनाने की कोशिश करते थे, पर हार जाते थे, वैसा ही कुछ आज भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ इकट्ठा होने की कोशिश में दूसरी पार्टियां मोटी दीवार का सामना कर रही हैं. भारतीय जनता पार्टी के लिए अब पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब में कांग्रेस की सरकार गिराना आसान है. शायद अगर वह ऐसा नहीं कर रही तो इसलिए कि इस से उसे कोई फायदा नहीं होने वाला.

हाल में ममता बनर्जी को लगभग  झुक कर दिल्ली में भाजपा नेताओं से मिलने को मजबूर होना पड़ा क्योंकि उन्हें लगने लगा है कि भाजपा का फिलहाल मुकाबला आसान नहीं है. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल भी चुपचाप दूसरे कामों में लगे हैं और भाजपा से दोदो हाथ नहीं कर रहे हैं.

भाजपा की जीत की वजह वही है जो लगभग 60 साल कांग्रेस की रही थी. कांग्रेस ने देश के कोनेकोने में ऊंची जातियों का साथ ले कर छोटी जातियों को चुग्गा फेंक कर फुसला लिया था. ऊंची जातियों के कांग्रेसी उसी तरह खादी पहनने लगे थे जैसे आज भाजपाई देशभक्ति, अखंड भारत, हिंदू समाज का बोरा लपेट कर गरीबों को फुसलाते हैं. जैसे गांधी ने धोती पहन कर सत्ता पर कब्जा करा था, वैसे ही भाजपा के सैकड़ों स्वामियों ने धर्म का दूत बन कर कोनेकोने में लोगों के कामकाज और दिमाग पर कब्जा कर लिया है.

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देश आज पहले से ज्यादा मुसीबतों में है, पर हल्ला ऐसा मचाया जा रहा है कि मानो आज से पहले कभी ज्यादा सुनहरे दिन आए ही नहीं थे. यह हल्ला सिर्फ अखबारों या टीवी पर नहीं है, हर प्रवचन, हर आरती, हर स्कूल, हर कालेज में मचाया जा रहा है. इस सब का सब से बड़ा खमियाजा वह जमात  झेल रही है जो सदियों से समाज के बाहर रही है. आज वह और बुरी हालत में है, पर भगवा दुपट्टा पहन कर उस के नेता खुश हो लेते हैं कि उन्हें बहुत पूछ मिल रही है. ऐसा ही कांग्रेस ने देश की आजादी के समय किया था और फिर इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ नारे के साथ किया था. गरीब की हालत नहीं सुधरी, पर अमीर और अमीर हो गए.

आज यही दोहराया जा रहा है. इस का असली नुकसान होगा कि देश में जो उभरने या बनाने वाली जमात है, वह पिछड़ी रह जाएगी और उसे अपने काम का सही मुआवजा नहीं मिलेगा. वह नीची की नीची ही नहीं रहेगी, बल्कि उसे सम झा दिया जाएगा कि नीचा बने रहने में ही उस का लाभ है. वैसे भी उसे पैदा होते ही बता दिया जाता है कि वह शूद्र, दलित या अछूत है तो इसलिए कि उस ने पिछले जन्म में कुछ पाप किए थे. अब भी वह उस सोच से ऊपर नहीं उठ पाएगा. राजनीतिक दल कुछ नहीं दिलाएंगे, यह पक्का है.

अगर देश में मंदी इसी तरह छाई रही, बेरोजगारी बढ़ती रही तो नुकसान सब से ज्यादा गरीब को होगा. उसे भगवा नारों से रोटी तो मिलने से रही. जिन गरीबों को उम्मीद थी कि उन को बराबरी मिल रही है, क्योंकि वे कांवडि़यों या नवरात्रों के ट्रक पर ऊंचे के साथ बैठे हैं, उन्हें पता भी न चलेगा कि वे क्याकुछ खो बैठे हैं. कांग्रेस या दूसरे दल उन्हें इस दलदल से निकालने की भी कोशिश नहीं कर रहे, क्योंकि असल में वे भी तो कुछ अच्छे भगवाई ही हैं. तिलक व कलेवाधारी, पूजापाठी संतोंमहंतों के चरणों में लोटने वाले.

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विधानसभा चुनाव सब में अकेले लड़ने की छटपटाहट

झारखंड में इसी साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होने हैं. मौजूदा विधानसभा का समय 28 दिसंबर, 2019 को खत्म हो रहा है. हर दल ने चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं, पर सब से खास बात यह है कि गठबंधन के तहत चुनाव लड़ने वाली पार्टियां इस बार अकेले ही चुनावी मैदान में उतरने की जुगत में लगी हुई हैं.

राजग से अलग हो कर जद (यू) अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुका है, वहीं दूसरी ओर महागठबंधन से पल्ला  झाड़ कर कांग्रेस भी अपने दम पर चुनाव में हाथ आजमाने के मूड में है. भाजपा आलाकमान ने अकेले 65 सीटें जीतने का टारगेट फिक्स कर दिया है.

बिहार में भाजपा और जद (यू) का ‘हम साथसाथ हैं’ और  झारखंड में ‘हम आप के हैं कौन’ जैसा रिश्ता होगा.

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झारखंड जद (यू) के अध्यक्ष सालखन मुर्मू ने बताया कि  झारखंड में भ्रष्टाचार काफी बढ़ चुका है और संविधान भी खतरे में है. वहां मौब लिंचिंग की वारदातें बहुत ज्यादा हो रही हैं, इसलिए जद (यू)  झारखंड की सभी विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगा.

उन्होंने दावा किया कि पार्टी के इस फैसले से बिहार में भाजपा और जद (यू) के रिश्ते पर कोई असर नहीं होगा. वैसे, कई राज्यों में भाजपा और जद (यू) का गठबंधन नहीं है. जद (यू) ‘नीतीश लाओ,  झारखंड बचाओ’ के नारे के साथ विधानसभा चुनाव में उतरेगा.

वहीं पिछले विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के बैनर तले चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस भी अकेले ही चुनाव लड़ने की कवायद में लगी हुई है.

झारखंड कांग्रेस के प्रवक्ता आलोक दुबे कहते हैं कि पिछले कई विधानसभा और लोकसभा चुनावों में कांग्रेस महागठबंधन में शामिल हो कर चुनाव लड़ती रही है, पर इस से उसे कोई खास फायदा नहीं हो पाया है.  झारखंड मुक्ति मोरचा के वोट कांग्रेस को नहीं मिल पाते हैं. इस वजह से पार्टी आलाकमान से गुजारिश की गई है कि इस बार ‘एकला चलो रे’ की नीति के तहत चुनावी अखाड़े में उतरना पार्टी के लिए बेहतर होगा.

लोकसभा चुनाव में  झारखंड समेत समूचे देश में ताकतवर बनने के बाद भाजपा ने भी इस बार अकेले ही विधानसभा चुनाव में उतरने की कवायद शुरू कर दी है. भाजपा आलाकमान इस बार अपने सहयोगी दलों के बगैर चुनाव लड़ने के नफेनुकसान का आकलन कर रहा है.

14 जुलाई, 2019 को भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा हालात का जायजा लेने रांची पहुंचे थे. पार्टी के सभी पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को उन्होंने टास्क दिया है कि 65 सीटों पर चुनाव जीतने के लिए कमर कस लें. इस के अलावा 25 लाख सदस्य बनाने का टारगेट भी दिया गया है.

गौरतलब है कि 81 सीटों वाली  झारखंड विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 41 सीटों की जरूरत होती है और फिलहाल भाजपा की  झोली में 43 सीटें हैं.  झामुमो 19 सीटें जीत कर दूसरी सब से बड़ी पार्टी है.

बाबूलाल मरांडी के  झारखंड विकास मोरचा ने पिछले विधानसभा चुनाव में 8 सीटें जीती थीं, पर उस के 6 विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे. कांग्रेस को 7 और दूसरों को 4 सीटें मिली थीं.

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भाजपा गठबंधन को 35 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 2009 के चुनाव में उसे 11 फीसदी ही वोट मिले थे. पिछले लोकसभा चुनाव में  झारखंड में भाजपा को कुल 51 फीसदी वोट मिले थे.

मई, 2019 में हुए आम चुनाव में राज्य की 14 लोकसभा सीटों में से उसे महज 12 सीटों पर जीत मिली थी और बाकी 2 सीटें कांग्रेस की झोली में गई थीं.  झामुमो, राजद,  झाविमो समेत वाम दलों का खाता नहीं खुल सका था.

लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की हार की सब से बड़ी वजह शुरू से ही घटक दलों की खींचतान रही थी. भाजपा को धूल चटाने के मकसद से कांग्रेस,  झामुमो,  झाविमो, राजद को मिला कर बनाया गया महागठबंधन खुद ही धराशायी हो गया था. चतरा लोकसभा सीट पर राजद और कांग्रेस दोनों ने अपनेअपने उम्मीदवार उतार कर महागठबंधन की एकजुटता के दावे को तारतार कर दिया था, वहीं हार के बाद सारे घटक दल एकदूसरे के सिर हार का ठीकरा फोड़ते रहे.

लोकसभा चुनाव के बाद राजद में इस कदर घमासान मचा कि पार्टी दो फाड़ हो गई. अभय सिंह को राजद का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, तो पार्टी के पहले के अध्यक्ष गौतम सागर राणा पार्टी से अलग हो गए. उन्होंने राजद (लोकतांत्रिक) बना कर पार्टी के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है, वहीं भाजपा भी भीतरी उठापटक से अछूती नहीं है.

मुख्यमंत्री रघुबर दास के खिलाफ पार्टी के सीनियर लीडर रवींद्र राय, रवींद्र पांडे और सरयू राय ने मोरचा खोल रखा है. ऐसी हालत में किसी भी दल के लिए अकेले चुनाव लड़ना नई चुनौती खड़ी कर सकता है.

सियासी दलों के दावों और वादों के बीच हकीकत यही है कि आदिवासियों के नाम पर साल 2000 में बने  झारखंड की जनता को बेरोजगारी, विस्थापन और शोषण के सिवा अब तक कुछ नहीं मिला है. सियासी दल पिछले 19 सालों से ऊपर ही ऊपर घालमेल और तालमेल कर सरकार बनाने और गिराने का ड्रामा रच कर मलाई खाते रहे हैं.

आदिवासियों के लिए पिछले कई सालों से आवाज उठा रही दयामनि बारला कहती हैं कि जनजातियों की तरक्की के लिए आजादी के बाद से ले कर अब तक की सरकारी योजनाओं का रत्तीभर भी हिस्सा उन तक नहीं पहुंच सका है.

कोरबा समेत कई जनजातियां मिटने के कगार पर पहुंच चुकी हैं और किसी सियासी दलों को इस की फिक्र नहीं है, वहीं दूसरी ओर तकरीबन साढ़े 3 लाख आदिवासी विस्थापन का दर्द  झेलने को मजबूर हैं.

आदिवासियों की तरक्की के नाम पर  झारखंड राज्य बने 20 साल होने को हैं, पर अब तक न कोई कारगर औद्योगिक नीति बनी है और न ही विस्थापन और पुनर्वास नीति ही सही तरीके से आकार ले सकी है.

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भाजपा पर है रघुबर दास का दबदबा

टाटा स्टील के मजदूर और बूथ एजेंट से ले कर मुख्यमंत्री की कुरसी तक का सफर रघुबर दास के लिए आसान नहीं रहा है. साल 1980 में भाजपा के बनने के समय से ही वे पार्टी से जुड़े रहे और दलबदलू सियासत के बीच कभी भी उन्होंने दल बदलने की नहीं सोची.

रघुबर दास मूल रूप से छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं और उन का गांव बंधीपात्री है. उन के पिता चमन राम टाटा स्टील के लोको ट्रेन में खलासी थे.

3 मई, 1955 को जनमे रघुबर दास ने जमशेदपुर के भालूवासा होराइजन स्कूल से मैट्रिक पास की और उस के बाद जमशेदपुर के सहकारी कालेज से ही इंटर और बीएससी की पढ़ाई की. वे 3 भाई और 6 बहनें हैं. ललित दास उन के बेटे और रेणु साव बेटी हैं.

कालेज के दिनों में रघुबर दास ने छात्र संघर्ष समिति के संयोजक के तौर पर राजनीति का ककहरा सीखा. जमशेदपुर में जेपी आंदोलन की अगुआई की और बाद में जनता पार्टी से जुड़ गए. साल 1980 में भाजपा के बनने के समय ही पार्टी से जुड़े और उसी साल मुंबई में हुए भाजपा के पहले अधिवेशन में भी हिस्सा लिया. पिछले विधानसभा चुनाव में पूर्वी सिंहभूम से 5वीं बार विधायक बने रघुबर दास ने रिकौर्ड 70,000 वोटों से जीत हासिल की थी.

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