उस पर भी विडंबना यह है कि ऐसी लड़कियों का दोबारा ब्याह नहीं किया जाता, बल्कि इन का किसी भी उम्र के मर्द से ‘नाता’ कर दिया जाता है. इस के बाद भी इन की जिंदगी में कोई खास सुधार नहीं आता. ये उन मर्दों की पहली पत्नियों के बच्चों का लालनपालन करते हुए अपनी जिंदगी का बो झ ढो रही होती हैं.

गरीबी व परिवार की तंगहाली और पुरातन परपंराओं ने बाल विवाह को बढ़ावा दिया और बड़े लैवल पर बाल विधवाओं को जन्म दिया. राजस्थान के हजारों गांवों में अब भी ऐसी विधवाएं बदकिस्मती का बो झ उठाए अनाम सी जिंदगी जी रही हैं.

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पहले बाल विवाह, अब बाल विधवा, आखिर किस से कहें अपना दर्द... न परिवार ने सुनी और न सरकार ने कोई मदद की... उस पर भी समाज की ‘आटासाटा’ और ‘नाता’ जैसी प्रथाओं ने जिंदगी को नरक बना दिया... पेश हैं बाल विधवाओं की सच्ची दास्तान:

‘आटासाटा’ ने छीना बचपन

नाम सुनीता. 4 साल की उम्र में शादी. एक साल बाद ही विधवा और अब जिंदगीभर विधवा के नाम से ही पहचान बने रहने की पीड़ा.

इस समय 11 साल की सुनीता अजमेर जिले के सरवाड़ गांव के सरकारी स्कूल में 7वीं जमात में पढ़ती है. स्कूल में भी उस की पहचान बाल विधवा के रूप में ही है.

सुनीता के इस हाल के पीछे बाल विवाह जैसी कुप्रथा तो है ही, लेकिन ‘आटासाटा’ का रिवाज भी इस का जिम्मेदार है. इस रिवाज के चलते परिवार बेटे के लिए बहू मांगते हैं और वहीं बेटी के बदले दामाद की फरमाइश करते हैं. जहां यह मांग पूरी होती है, वहीं शादी तय होती है. सुनीता भी इसी रिवाज के जाल में फंस गई.

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