Family Story: दादी आप की तो मौज है – क्यों मिनी की बात से दादी हैरान रह गईं

Family Story, लेखिका- बिमला गुप्ता

एकदिन मिनी मेरे पास बैठ कर होमवर्क कर रही थी. अचानक कहने लगी, ‘‘दादी, आप को कितनी मौज है न?’’

‘‘क्यों किस बात की मौज है?’’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘आप को तो कोई काम नहीं करना पड़ता है न,’’ उस का उत्तर था.

‘‘क्यों? मैं तुम्हारे लिए मैगी बनाती हूं, सूप बनाती हूं, हरी चटनी बनाती हूं, तुम्हारा फोन चार्ज करती हूं. कितने काम तो करती हूं?’’

तुम्हें कौन सा काम करना पड़ता है?’’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘‘क्या बताऊं दादी… मु  झे तो बस काम

ही काम हैं?’’ उस ने बड़े ही दुखी स्वर में

उत्तर दिया.

‘‘क्या काम है, पता तो चले?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्लास अटैंड करो, होमवर्क करो, कभी टैस्ट की तैयारी करो, कभी कोई प्रोजैक्ट तैयार करो… दादी आप को पता है, बच्चों को कितने काम होते हैं,’’ वह धाराप्रवाह बोलती जा रही थी, जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘उस पर ये औनलाइन क्लासें. बस

लैपटौप के सामने बैठे रहो बुत बन कर. जरा सा

इधरउधर देखो तो मैम चिल्लाने लगती हैं. चिल्लाती भी इतनी जोर से हैं कि घर पर भी सब को पता चल जाता है, सोनम तुम ने होमवर्क क्यों नहीं किया?

‘‘राहुल तुम्हारी राइटिंग बहुत गंदी है.

महक तुम्हारा ध्यान किधर है? बस डांटती ही जाती हैं, आज मिनी पूरी तरह विद्रोह पर उतर आई थी. मैं चुपचाप उस की बातें सुन रही थी. फिर मैं ने हंस कर पूछा, ‘‘क्या स्कूल में मैम नहीं डांटती?’’ .

‘‘दादी, कैसी बात कर रही हो? वह भी डांटती हैं… मैडमों का तो काम ही डांटना है.’’

‘‘फिर?’’ मेरा प्रश्न था.

‘‘दादी, आप सम  झ नहीं रही हो?’’ उस ने बड़े भोलेपन से उत्तर दिया.

‘‘क्या नहीं सम  झ रही हूं? तू कुछ बताएगी तो पता चलेगा.’’

‘‘रुको, मैं आप को सम  झाती हूं. स्कूल में भी मैम डांटती हैं, पर हम लोगों को बुरा नहीं लगता है, ‘‘क्योंकि डांट तो सब को पड़ती है. इसलिए क्लास में सब बराबर होते हैं.

कभीकभी तो पनिशमैंट भी मिलता है, पर किसी को पता तो नहीं चलता? यहां तो अपने ही

फ्रैंड्स के पेरैंट्स तक को पता चल जाता है. सब के सामने इन्सल्ट हो जाती है न?’’ वह गंभीरतापूर्वक बोली.

‘‘हां बात तो तेरी ठीक है. हमें स्कूल में मैम से डांट पड़ी है… घर पर तो किसी को पता नहीं चलना चाहिए,’’ मैं ने मन ही मन मुसकराते हुए उस की बात का समर्थन किया.

समर्थन पा कर वह बहुत खुश हुई. शायद बचपन से ही हमारे मन में यह भावना घर कर जाती है कि हमारी गलतियों का किसी को पता नहीं चलना चाहिए.

अब वह पूरी तरह अपनी

रौ में आ चुकी थी. मु  झे अपना राजदान बनाते हुए बोली,

‘‘दादी, मैं आप को एक बहुत

ही मजेदार बात बताऊं? आप किसी को बताएंगी तो नहीं?’’

उस ने पूछा. वह आश्वस्त होना चाहती थी.

‘‘नहीं, मैं किसी को नहीं बताऊंगी. तू बेफिक्र हो कर बता.’’

मेरा उत्तर सुन कर वह बोली,

‘‘जब किसी बच्चे पर मैम

नाराज होती हैं, तो सारे बच्चे नीचे मुंह

कर के या मुंह पर हाथ रख कर हंसने

लगते हैं.’’

‘‘मैम नाराज नहीं होती.’’

‘‘मैम को पता ही नहीं चलता है.’’

‘‘और वह बच्चा?’’

‘‘बच्चों को क्या फर्क पड़ता है. रोज किसी न किसी पर मैम गुस्सा होती ही हैं.’’

यह सुन कर मु  झे हंसी आ गई. सच ही है, ‘हमाम में सब नंगे.’

‘‘एक और मजेदार बात बताऊं दादी?’’ अब वह बहुत खुश लग रही थी.

‘‘हांहां जरूर.’’

‘‘जब मैम ब्लैकबोर्ड पर लिखती हैं न तो क्लास की तरफ उनकी पीठ होती है तब हम लोग बहुत मस्ती करते हैं. कुछ लड़के तो अपनी सीट छोड़ कर उधम मचाने लगते हैं और जैसे ही मैम मुड़ती हैं सब अपनीअपनी सीट पर चुपचाप बैठ जाते हैं. मैम को कुछ पता ही नहीं चलता. हम लोग स्कूल में बहुत मजे करते हैं.

घर पर तो मैं बोर हो जाती हूं,’’ उस ने निराश हो कर कहा.

‘‘बस सारा दिन घर में बैठे रहो. इस कोरोना ने तो पागल कर दिया है.

‘‘उस पर सुबहसुबह जब अच्छी नींद आती है तो मम्मा जबरदस्ती उठा देती हैं. दोपहर को जब मु  झे नींद नहीं आती तो कहती हैं अब थोड़ी देर सो जाओ.’’

‘‘पहले भी तो ऐसा ही होता था,’’ मैं ने कहा.

‘‘दादी आप सम  झ नहीं रही हो. पहले मैं स्कूल जाती थी, इसलिए थक जाती थी. अब दिन में सो जाती हूं तो रात को नींद नहीं आती है, पर सुबहसुबह उठना पड़ता है न? और ये पापा बारबार कहते हैं बुक रीडिंग कर लो… मु  झे परेशान कर के रख दिया है सब ने,’’ उस ने दुखी स्वर में कहा. फिर कुछ देर कुछ सोचने के बाद मु  झ से पूछने लगी, ‘‘दादी, मैं कब बड़ी होऊंगी?’’

मिनी का प्रश्न सुन कर मैं हैरत से उस की ओर देखने लगी. मन सोच में डूब गया. अकसर बचपन में हम जल्दी बड़े होना चाहते हैं, पर बड़े होने पर दुनियादारी में फंस कर हमारी बचपन की निश्चिंतता, निश्छलता, भोलापन सब पता नहीं कहां गायब हो जाते हैं. उम्र बढ़ने के साथ ही जिम्मेदारियों के बो  झ तले दबते ही चले जाते हैं.

धीरेधीरे जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए हम स्वयं शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक रूप से कमजोर हो जाते हैं. दूसरों का बो  झ उठातेउठाते हम स्वयं सब पर बो  झ बन जाते हैं. फिर याद आती हैं उस उम्र की बातें जो लौट कर कभी नहीं आती है.

मगर मिनी को क्या पता है कि उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है… वह तो बस जल्दी से जल्दी उस उम्र में पहुंचना चाहती है.

Family Story: मधु बना विष – रश्मि के ससुराल में क्यों बहस छिड़ गई थी

Family Story: बचपन में होश संभालने के बाद पंकज ने बूआ के मुंह से यही सुना था कि ‘यह तुम्हारी मम्मी की तसवीर है. पहले वह तसवीर पंकज के पिता शिवानंद के कमरे में टंगी थी क्योंकि इस के साथ उन की कुछ यादें जुड़ी थीं. कभी चित्र की नायिका ने शिवानंद से कहा भी था, ‘अब तो मैं सशरीर यहां रहती हूं. तब मेरा इतना बड़ा चित्र क्यों लगा रखा है? अब तो मैं वधू भी नहीं रही, एक बच्चे की मां बन चुकी हूं.’

शिवानंद ने तब हंसते हुए कहा था, ‘क्या करूं मेरी आंखों में तुम्हारा वही रूप समाया हुआ है.’

‘हमेशा पहले जैसा तो नहीं रहेगा,’ रश्मि बोली, ‘अब तो रूप बदल गया है.’ ‘नहीं, रश्मि. हम बूढे़ हो जाएंगे तब भी तुम ऐसी ही याद आती रहोगी,’ शिवानंद भावुक हो कर बोले, ‘पहली झलक यही तो देखी थी.’

यह सच था कि विवाह से पहले शिवानंद और रश्मि ने एक दूसरे को देखा नहीं था. रश्मि को परिवार के दूसरे लोगों ने देखा और पसंद किया. तब जयमाला की रस्म होती नहीं थी. विवाह के समय सबकुछ इतना दबादबा हुआ था कि चाह कर भी शिवानंद पत्नी को देख नहीं सके. विवाह कर घर लौटे तो अपने कमरे में टंगे चित्र में पत्नी को पहली बार देखा तो देखते ही रह गए. इस चित्र को उन के छोटे भाई सदानंद  ने खींचा था और बड़ा करा कर भाई के कमरे में लगा दिया था.

रश्मि के कई बार टोकने पर भी वह चित्र उन के शयनकक्ष में लगा ही रहा. 2 साल में रश्मि ने एक सुंदर से बच्चे को जन्म दिया, जिस का नाम पंकज रखा गया. पंकज भरेपूरे परिवार का दुलारा था. उस के दिन सुख से बीत रहे थे कि रश्मि में पुन: मातृत्व के लक्षण उभरे. घर में बेटा या बेटी को ले कर एक नई बहस छिड़ गई. दादी कहती कि एक बेटा और हो जाए तो पंकज को भाई मिल जाएगा. दोनों भाई उसी तरह साथ रहेंगे जैसे मेरे शिवानंदसदानंद रहे. बूआ पूछती, ‘मां, क्या बहन भाई के सुखदुख की साथी नहीं होती?’

इस तरह के हासपरिहास में 4 महीने बीत गए कि अचानक एक दिन रश्मि अपनी ही साड़ी में उलझ कर सीढि़यों से लुढ़कती हुई नीचे आ गिरी. बच्चा पेट में ही मर गया. रश्मि की चोट गहरी थी. उसे भी बचाया नहीं जा सका.

रश्मि का वधूवेश में लिया चित्र पहले जहां टंगा रहता था उस की मृत्यु के बाद भी वही टंगा रहा. नन्हा पंकज पूछता तो बूआ बहलाते हुए कहतीं, ‘मम्मी, अभी फोटो में से निकल कर आसमान में घूमने गई हैं.’

‘कैसे, प्लेन में बैठ कर?’

‘हां, बेटा.’

‘बूआ, मम्मी, घूम कर कब आएगी?’

‘बस, एकदो दिन में आ जाएगी.’

शिवानंद के विरोध पर उन का विवाह टल गया था. उस दौरान बेटी प्रभा भी शादी कर के अपनी ससुराल चली गई. मां को गृहस्थी संभालना पहाड़ लग रहा था क्योंकि बहू और बेटी के रहते हुए उन में निश्ंिचतता की आदत पड़ गई थी. मां मजबूरी में घर तो संभाल रही थी पर बेटे व पोते की तकलीफ जब देखी नहीं गई तो उन्होंने शिवानंद पर फिर से शादी कर लेने का दबाव यह सोच कर बनाया कि पत्नी आने के बाद पंकज की देखभाल हो जाएगी और शिवानंद का मन भी लग जाएगा.

शिवानंद भी थोड़ा टालमटोल के बाद फिर से विवाह के लिए तैयार हो गए.

शिवानंद की वकालत अच्छी चल रही थी. अपना बड़ा सा मकान था. पिता भी शहर के जानेमाने वकीलों में से थे. उन के विवाह के 4 वर्ष छोड़ दिए जाएं तो सब तरह से वे सुयोग्य वर थे. एक बेटा था तो उसे भी देखने वाले बहुत लोग थे.

शिवानंद की फिर से विवाह की तैयारी होने लगी. चढ़ावे के लिए नई साडि़यां और गहने आए, रश्मि के गहने भी थे जिन्हें नई बहू को देने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी.

प्रभा ने यह कहते हुए कि रश्मि भाभी के कुछ गहने चढ़ावे पर नहीं जाएंगे, अलग रख दिए.

‘तुम्हारा मन है तो बाकी मुंहदिखाई में दे देंगे,’ मां ने दुलार में कहा, ‘मांग टीका और नथ तो अभी चढ़ावे के समय जाने दो.’

‘नहीं मां, इन्हें भी अलग ही रहने दो.’ बेटी प्रभा बोली, ‘सब कुछ मुझे पंकज के विवाह में देना है.’

दुलार भरी हंसी से मां ने कहा, ‘पंकज की बहू के लिए पुराने गहने. अरे पगली, तब तक कितना नया चलन हो जाएगा.’

प्रभा मचलते हुए तब बोली थी, ‘अम्मां, यह सब अलग ही रख लें… वह लहंगाचुनरी भी, सभी कुछ मेरे कहने से.’

लाडली बेटी की बात अम्मां ने मान ली और बहू शिखा के लिए सबकुछ नया सामान चढ़ावे में भेजा गया.

अम्मां ने टोका अवश्य था कि बेटी, नई बहू क्या पंकज को उस का हिस्सा नहीं देगी. आखिर उस का हिस्सा तो रहेगा ही.

‘उस के अपने भी तो होंगे, अम्मां. यह सब अलग जमा कर दें.’

मां के मन में विवाद उठा, ‘लड़की अपने लिए तो कुछ नहीं कह रही है पर भतीजे के लिए ममता का यह रूप भी किसी को अच्छा नहीं लग रहा था.’

विवाह हुआ. शयनकक्ष सजा. कुछ याद करते हुए मां ने आदेश दिया और उस दिन रश्मि का वधूवेश में सालों से टंगा चित्र वहां से हट कर पीछे के एक कमरे में लगा दिया गया. प्रभा ने देखा तो वह विचलित हो उठी और वहां से हटा कर तसवीर को पूजा के कमरे में लगाने लगी.

पंकज ने तोतली आवाज में पूछा था, ‘बूआ का कर रही हो. मम्मी ऊपर से आएंगी तो रास्ता भूल जाएंगी न.’

‘मम्मी आ गई हैं,’ यह कहते हुए प्रभा ने पंकज को नववधू शिखा की गोद में बैठाया तो वह यह कहते हुए गोद से उतर गया, ‘नहीं, यह मेरी मम्मी नहीं हैं.’

शूल सा लगा शिखा को सौतेले बेटे का कथन. पंकज अपना हाथ छुड़ा कर  उस कमरे में चला गया जहां पहले उस की मां की तसवीर टंगी थी. पर वहां चित्र नहीं था. ‘अरे, मेरी मम्मी कहां गई,’ करुण स्वर चीत्कार कर उठा.

‘देखो पंकज, यह हैं मम्मी. तुम भूल गए. वह अब यहां आ गई हैं. सब उन की पूजा करेंगे न.’

प्रभा को लगा कि नई मां ला कर पंकज के साथ अन्याय किया गया है. पंकज के प्रति उस की अगाध ममता

ही थी जो उस ने रश्मि भाभी के  गहने शिखा भाभी को न देने की जिद की थी.

शिखा ने 2 पुत्रों और 1 पुत्री को जन्म दिया था. पंकज भी जैसेजैसे समझदार हुआ उस ने मां को मां का सम्मान ही दिया और भाईबहन को अपना माना. मन में कोई विद्वेष नहीं था, पर पूजाघर में जब भी पंकज जाता मां की तसवीर को बेहद श्रद्धा से देखता.

बीतते समय के साथ पंकज इंजीनियर बना तो विवाह के लिए रिश्ते भी आने लगे. उस की राय मांगी गई तो प्रोफेसर  की बेटी निधि उसे पसंद आई. प्रोफेसर ने शिवानंद को सपरिवार घर आने का निमंत्रण दिया. प्रभा उसी दिन ससुराल से आई थी. बोली, मैं भी भाभी के साथ लड़की देखने चलूंगी.

‘‘बूआ,’’ पंकज बोला, ‘‘मुझे कुछ जरूरी काम को पूरा करने के लिए अभी बाहर जाना है. आप और मां लड़की देखने चली जाएं. आप की पसंद मेरी पसंद होगी.’’

लड़की देखने की औपचारिकता पूरी करने के बाद एक माह के अंदर शादी हो गई और निधि दुलहन बन कर पंकज के घर आ गई. अब प्रभा ने रश्मि का चित्र पूजा घर से हटा कर पंकज के कमरे में लगा दिया.

आज सुहागरात है, यह सोच कर प्रभा ने अपनी पसंद के कपड़े निधि को पहनाए. फिर वे सभी गहने जो कभी रश्मि ने शादी के मौके पर पहने थे और जिसे आज के दिन के लिए प्रभा ने मां के पास रखवा दिए थे. निधि को गहने पहना कर देखा तो देखती रह गई. उसे लगा जैसे चित्र में से निकल कर रश्मि आ गई है. अनुकृति ही नहीं असल में है वही.

शयनकक्ष में सुहाग सेज पर प्रतीक्षा में बैठी निधि को देख कर पंकज विक्षिप्त हो उठा, ‘‘मम्मीमम्मी, तुम आ गईं.’’

पंकज के कहे शब्दों को सुन कर दरवाजे पर खड़ी भाभी और बहनें विस्मय से चीख पड़ीं. प्रभा बूआ, देखिए न पंकज को क्या हो गया है? उधर उस के सामने खड़ी निधि विस्मय, अकुलाहट, अचकचाहट से उसे देखती रह गई.

‘‘पंकज क्या है, क्या कह रहे हो? वह निधि है, तुम्हारी पत्नी,’’ बूआ बोली, ‘‘मम्मी कहां से आ गईं? पागल हो गए हो?’’

‘‘आ गई है न बूआ, देखिए न…’’

विस्मय, आश्चर्य, अनहोनी के डर से कांपती प्रभा बूआ अपने को अपराधिनी मानती हुई पंकज को घसीट कर निधि के पास कर आई और निधि का हाथ उस के हाथ में देते हुए बोली, ‘‘पंकज यह तुम्हारी पत्नी है.’’

‘‘नहीं,’’ बूआ का हाथ झटक कर निधि बोली, ‘‘इन्होंने मुझे मम्मी कहा है. मैं दूसरे संबंध की कल्पना नहीं कर सकती. मैं इन की पत्नी नहीं हो सकती,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चली गई.

परिवार के बडे़बूढ़ों के साथ दोस्तों और रिश्तेदारों ने भी निधि को समझाया कि वैदिक मंत्रों के बीच तुम ने सात फेरे लिए हैं, तो कहे के रिश्ते का क्या मूल्य है. बेटी, उसे नाटक समझ कर भूल जाओ.

इस बीच निधि मायके गई तो फिर ससुराल आने का नाम ही नहीं लेती थी. तब घरवालों ने ऊंचनीच समझा कर उसे किसी तरह ससुराल भेज दिया.

पंकज का भ्रम टूट जाए, इस के लिए सब तरह के उपाय किए गए. मनोचिकित्सक से परामर्श भी लिया गया. रश्मि का चित्र पंकज के कमरे से हटा कर अलमारी में बंद कर दिया गया था. रश्मि के पहने गहने और कपडे़ अलग रख दिए गए, इस के बाद सालों बीत जाने पर भी निधि के मन में पंकज के प्रति प्रणय के अंकुर न फूटे. उस के नाम से ही उसे अरुचि हो गई थी. मन बहल जाए इसलिए पिता ने बेटी को पीएच.डी. करने की प्रेरणा दी ताकि अध्ययन में व्यस्त हो कर वह अपने अतीत को भूल जाए.

उधर पंकज को भी एकदो बार अवसर दिया गया कि स्थिति में सुधार हो किंतु वह न सुधर सका. उस की ऐसी मनोदशा देख पिता शिवानंद ने उस का निधि से संबंधविच्छेद करवा दिया. कुछ सालों बाद निधि का अपने सहयोगी से प्रेमविवाह हो गया.

पंकज के मन पर जो गहरा आघात लगा था वह वर्षों के इलाज से थोड़ा बहुत सुधरा, किंतु कभीकभी वह दिमाग का संतुलन खो बैठता था. सरकारी नौकरी थी, चल रही थी, पर कभी भी उस के छूटने की आशंका बनी रहती थी. उस के पुनर्विवाह के लिए संबंध आते रहे किंतु पिता शिवानंद ने कहा कि जब तक वह पूरी तरह से ठीक नहीं हो जाता वह किसी की लड़की का जीवन बरबाद नहीं करेंगे.

प्रभा बूआ अपने सौम्य, सुंदर, सुयोग्य भतीजे को पागलपन के कगार पर लाने के लिए खुद को दोषी मानती हैं. आंसू बहाती हैैं और कहती हैं, ‘‘मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे लाड़ की ऐसी परिणति होगी.’’

Romantic Story: अधूरा सपना – हर शाम अभीन गुप्ता स्टोर के पास क्यों जाता था

Romantic Story, लेखक- पंकज कुमार यादव

पता नही क्यों जब भी शादी में , बैंड बाजे की धुन में कोइ फिल्मी गाने की सैड सैंाग बजती है, अभीन की धड़कने तेज हो जाती. उसकी आंखे बंद हो जाती कुछ पल के लिए ,दिल और मन रूआंसा सा हो जाता है  कुछ पल के लिए.  रभीना हां यही तो नाम था उस लड़की का जिसे देख देख वो फिल्मी प्यार मे डुब जाता था. रभीना अभीन को के प्रति सीरियस है इसका एहसास कभी भी नही होने देती थी. ये बात अभीन को भी पता था. पर अभीन हर शाम गुप्ता स्टोर के पास पांच बजे के करीब खडा़ हो जाता था ,ताकि वो टियूशन जाती रभीना का दीदार कर सके. रोज दीदार के नाम पर खडा़ तो नही हो सकता था गुप्ता जी के स्टोर पर ,इसलिए कुछ ना कुछ रोज अभीन को दुकान से खरीदना ही पड़ता था. गुप्ता अंकल सब कुछ जानते हुए भी अंजान बने रहते थे. अभीन अभी अभी बारहवीं में तो गया था.

मैथ ,फिजिक्स ,केमिस्ट्री के प्रशनो केा रट्टा मारने के बाद वो तुरंत रभीना के याद में डूब जाता था. और याद में भी ऐसे डूबता मानो सच में गोता लगा रहा हो. रभीना उसकी बाहों में ,रभीना उसके जोक पर लागातार हंसते हुए. अभीन, रभीना को बस सोचता जाता और अपना होश खोता जाता. अभीन के इस पढ़ाकू व्यवहार से मां चिंतित रहने लगी. ऐसी भी क्या पढाइ जो बंद कमरे में पढते -पढते बिना खाये पिये सो जाये. मां को कहां पता था कि अभीन बंद कमरे सिर्फ पढाई नही करता. वारहवीं का इग्जाम खत्म होते होते ही अभीन का प्यार और भी परवान चढ़ने लगा. अभीन से रभीना कभी बात नही करती थी. इन दो सालो में भी अभीन रभीना से बात नही कर पाया. पर इससे अभीन को कोइ फर्क नही पड़ता था. वो हर रोज गुप्ता स्टोर से खरीदारी कर आता. गुप्ता जी के दुकान की ऐसी कोइ चीज नही रही हो जिसे अभीन ने नही खरीदी हो. अब तो गुप्ता अंकल ही अभीन को बता देते थे कि बेटे आज सर्ट में लगाने वाली बटन ही खरीद ले ,बेटे आज ना हेयर डाई खरीद ले. और फिर अभीन दे देा अंकल कह कर टियूशन जाती अभीना को निहारता निढाल हो जाता कुछ पलो के लिए. अभीन पढ़ने में तो तेज था ही साथ ही उसने अपने बेहतर जीवन के सपने भी बुने थे.

उसका प्यार जितना फिल्मी था उतना ही फिल्मी उसके सपने थे. पर उसकी खूबसूरत सपने में भी खूबसूरत रभीना भी थी. एक अच्छी पैकेज वाली नौकरी ,एक मकान और छोटी सी कार में खुद से डाªइव करते हुए रभीना को बारिश के बूदों में घुमााना. अपनी इसी सपने को पूरा करने के लिए अभीन दिन रात पढा़ई करता था. अभी भी अभीना उसके लिए सपना ही थी , एक कल्पना जिसे देख वो खुश हुआ करता था. जिसे महसूस कर वो अपने सपनो को सच करने के लिए आइ लीड को पीटते नींद केा भगाने के लिए आंख के पुतलियों पे उर्जा देती पानी की छिंटो के सहारे पढाई करता था.

पहली कोशिश में पहली ही दफा में ही अभीन ने इजीनियरिंग परीक्षा इंट्रेस निकाल ली. अपार खुशी ,पर दुखः इस बात की थी  ,कि अब गुप्ता अंकल के दुकान पर रोज समान खरीदने का मौका नही मिलेगा. अब वो अब अपनी सपना को अपने खव्वाब को रोज अपनी आंखो से दीदार नही कर पायेगा. अभीन वापस अपने घर आते ही चिंतित हो उठा. उसके कइ दिनो से इस तरह के व्यवहार से उसके माता पिता भी चिंतित हो उठे. हमेशा खुश रहने वाला लड़का इतना परेशान क्यों है ?

अभीन के होश उड़े हुए थे. वो थोड़ा बेसुध सा रहने लगा. अभीन अब उतावले से रभीना से बात करने और उसे मिलने के रास्ते तलाशने लगा. अपने मोहल्ले में ही रहने वाली रभीना के लिए उसने कभी ऐसी कोशिश नही की थी. उसने कभी ये बात नही सोची थी कि ऐसा भी कभी अवस्था आयेगा. आखिरकर वो अपने मासी के घर रहने वाली रेंटर निकली. किसी बहाने से अभीन अपने मासी के यहां पहुंच भी गया. पर ये क्या रभीना दो बार सामने से गुजरी , उसने ध्यान ही नही दिया.

गुप्ता अंकल के स्टोर पर तो रोज मुझे देख हंसती थी. वो मुझसे कही ज्यादा खुश लगती थी ,मुझे गुप्ता अंकल के स्टोर पर इंतजार करता देख. पर आज ना जाने ऐसा व्यवहार क्यू कर रही है. अभीन को रभीना पर गुस्सा भी आ रहा था. ऐसी भी क्या बेरूखी. आखिर अभीन गुस्सा होकर यो कहें निराश होकर अपने हल्के कदम और भारी मन के साथ कब अपने घर पहुच गया उसे भी  पता ना चला. अभीन अभी भी गुस्से में ही था. रात का भोजन नही ,अगले दिन, दिन भर कमरे से बाहर निकलना नही. अभीन के माता पिता परेशान हो गये. कही ऐसा तो नही कि अभीन घर से दूर इंजीनियरिंग की पढाई करने जाने से दुखी है.

अभीन माता पिता से, घर से दूर रहने के फायदे और स्वालंबी बनने की जरूरत पर लम्बी लेक्चर सूनते सूनते बोर होने लगा. तो घर से निकला. माता पिता समझे अब अभीन समझदार हो गया. अभीन गुप्ता अंकल क स्टोर पर पहुंचा. दो साल में पहली बार अभीन गुप्ता अंकल के स्टोर पर साम पांच बजे के बाद मुरझाया चेहरा लेकर पहुंचता है. गुप्ता अंकल ने पुछा ’’ अरे तुमने बताया नही  तुमने आइआइटी एक बार में ही निकाल ली.’’ ’’ हां अंकल निकाल ली  ’’ कह कर अभीन चुपचाप हो गया. और एका एक अपने मासी के घर की ओर बढ चला. आज रभीना से पुछ ही लुंगा कि शादी करोगी या नही ? और कुछ ही देर में अभीन रभीना के घर के दरवाजे पर था. पर ये क्या उसके दरवाजे पर ताला लगा हुआ था. तभी उसकी मासी आवाज देती हैं. ’’ अरे अभीन उधर रेंटर के कमरे की ओर क्या कर रहा है ़ इधर आ ’’  ’’ आता हूं मासी  ये आपके रेंटर कहां गये ,इनका दवाजा बंद है  लगता है मार्केट गये हैं !’’  ’’ नही नही !

मार्केट नही गये अपने गांव गये हैं. उनकी बेटी है ना रभीना उसकी शादी है अगल हप्ते ’’. अभीन अंदर से हिल जाता है. रोते हुए अपने घर की ओर दैाड़ता है. उसका दिमाग भारी लगने लगता है. अपने बहते आॅशु को पोछते हुए दौड़ते हुए चलने लगता है. अभीन को मालुम है कि लोग उसे रोते हुए देख रहे हैं. पर आंशु रोकना उसके बस की बात नही थी , सो उसने दौड़ कर घर जल्द पहुंचना ही अच्छा समझा. और बंद कमरे में जी भर रोया अभीन और रोते हुए थक कर सो गया.

रात को सपने में भी आयी राभीना ,पर कहीं से ऐसा नही लगा जैसे रभीना उसकी जिंदगी से चली गयी हो. पहले की ही तरह अभीन के बाहों में लिपटी अभीन के बाल को खींचती. और अभीन के जोक पर पहले चुपचाप रहती ये भी कोइ जोक है. और फिर खिलखिला कर हसंती और जी खोल कर हंसती. अभीन के चेतन में अभी भी था कि रभीना उसकी जिंदगी से चली गयी है. पर उसकी हिम्म्त ही नही हुइ पुछने की ,क्यूकिं रभीना तो अभी उसकी बाहों मे थी. सुबह तैयार होकर अपने सपने को पूरा करने के लिए अभीन आईआईटी दिल्ली निकल रहा था. पर उसका सपना थोड़ा थेाड़ा अधूरा सा लग रहा था क्यूकि इस सपने में रभीना नही थी.

Short Story: वीकली औफ – पति महोदय की फरमाइशें खत्म नहीं होती!

Short Story: साप्ताहिक छुट्टी के दिन खूब मजे करने के इरादे से सुबह उठते ही रवि ने किरण से   2-3 बढि़या चीजें बनाने को कहा और बताया कि उस के 2 दोस्त सपत्नीक हमारे घर लंच पर आ रहे हैं. इस से पहले कि किरण रवि से पूछ पाती कि नाश्ते में आज क्या बनाया जाए आंखें मलते हुए रवि के बेडरूम से आ रही रोजी और बंटी ने अपनी मम्मी को बताया कि वह इडली और डोसा खाना चाहते हैं.

पति और बच्चों की फरमाइशें सुन कर किरण रसोईघर में जाने के लिए उठी ही थी कि  उसे याद आया कि गैस तो खत्म होने को है.

‘‘रवि, स्कूटर पर जा कर गैस एजेंसी से सिलेंडर ले आओ, गैस खत्म होने वाली है. कहीं ऐसा न हो कि मेहमान घर आ जाएं और गैस खत्म हो जाए.’’

‘‘ओह, एक तो हफ्ते भर बाद एक छुट्टी मिलती है वह भी अब तुम्हारे घर के कामों में बरबाद कर दूं. तुम खुद ही रिकशे पर जा कर गैस ले आओ, मुझे अभी कुछ देर और सोने दो.’’

‘‘मैं कैसे ला सकती हूं, बच्चों के लिए अभी नाश्ता तैयार करना है और साढ़े 8 बज रहे हैं, अब और कितनी देर सोना है तुम्हें,’’ किरण ने अपनी मजबूरी जाहिर की.

‘‘जाओ यार यहां से, तंग मत करो, लाना है तो लाओ, नहीं तो खाना होटल से मंगवा लो, पर मुझे कुछ देर और सोने दो, वीकली रेस्ट का मजा खराब मत करो.’’

‘‘छुट्टी मनाने का तुम्हें इतना ही शौक है तो दोस्तों को दावत क्यों दी,’’ खीझते हुए किरण बोली और माथे    पर बल डालते हुए रसोई की तरफ बढ़ गई.

‘‘बहू, पानी गरम हो गया?’’ जैसे ही यह आवाज किरण के कानों में पड़ी उस का पारा और भी चढ़ गया, ‘‘पानी कहां से गरम करूं, पिताजी, गैस खत्म होने वाली है और रवि को छुट्टी मनाने की पड़ी है.’’

1 घंटे बाद रवि उठा और     गैस एजेंसी से गैस का सिलेंडर और मंडी से सब्जियां ला कर उस ने किरण के हवाले कर दीं.

‘‘स्नान कर के मैं तैयार हो जाता हूं,’’ रवि बोला, ‘‘कहीं पानी न चला जाए, बच्चे कहां हैं?’’

सिलेंडर आया देख किरण थोड़ी ठंडी हुई और फिर बोली, ‘‘बच्चे पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने गए हैं,’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, तुम शांति से काम कर सकोगी, नाश्ता तो कर गए हैं न,’’ कहते हुए रवि बाथरूम में घुस गया.

‘‘नाश्ता कहां कर गए हैं, गैस तो चाय रखते ही खत्म हो गई थी,’’ किरण की आवाज रवि के बाथरूम का दरवाजा बंद करते ही टकरा कर लौट आई.

‘10 बजने को हैं, यह शांति अभी तक क्यों नहीं आई? सारे बर्तन साफ करने को पड़े हैं, कपड़ों से मशीन भरी पड़ी है,’ किरण मन ही मन बुदबुदाई.

‘‘रवि, जरा मीना के यहां फोन कर के पता करना, यह शांति की बच्ची अभी तक क्यों नहीं आई,’’ लेकिन बाथरूम में चल रहे पानी के शोर में किरण की आवाज दब कर रह गई.

स्नान कर के जैसे ही रवि बाथरूम से निकला तो देखा कि किरण बर्तन साफ करने में जुटी है. भूख ने उस के पारे को और बढ़ा दिया, ‘‘अब क्या खाना भी नहीं मिलेगा?’’

‘‘खाओगे किस में, एक भी बर्तन साफ नहीं है.’’

‘‘शांति कहां हैं, जब यह वक्त पर आ नहीं सकती तो किसी और को काम पर रख लो, कम से कम खाना तो वक्त पर मिले,’’ 2 अलगअलग बातों को एक ही वाक्य में समेटते हुए रवि बोला.

‘‘तुम से बोला तो था कि फोन कर के मीना के यहां से शांति के बारे में पूछ लो लेकिन तुम सुनते कब हो. अब छोड़ो, 5 मिनट इंतजार करो, मैं बना देती हूं तुम्हारे लिए कुछ खाने को.’’

‘‘बाबूजी ने नाश्ता कर लिया?’’ रवि ने पूछा.

‘‘हां, उन्हें दूध के साथ ब्रैड दे दी थी. वैसे भी वह हलका ही नाश्ता करते हैं.’’

नाश्ते से फ्री होते ही किरण बिना नहाएधोए रसोई में दोपहर का खाना बनाने में जुट गई.

‘‘आप के दोस्त आते ही होंगे, काम जल्दी निबटाना होगा. ऐसा करो, कम से कम तुम तो तैयार हो जाओ…और तुम ने यह क्या कुर्तापायजामा पहन रखा है, कम से कम कपड़े तो बदल लो.’’

‘‘अरे भई, कपड़े निकाल कर तो दो, और उन्हें आने में अभी 1 घंटा बाकी है.’’

‘‘अलमारी से कपड़े निकाल नहीं सकते. आप को तो हर चीज हाथ में चाहिए,’’ खीजती हुई किरण अलमारी से कपड़े भी निकालने लगी, ‘‘अभी सब्जियां काटनी हैं, आटा गूंधना है, कितना काम बाकी है.’’

सब्जियां गैस पर चढ़ा कर किरण नहाने चली गई. बच्चों को भी नहला कर किरण ने तैयार कर दिया.

थोड़ी देर बाद ही रवि के दोस्त अपने बीवीबच्चों के साथ घर आ गए. हाल में बैठा कर रवि उन की खातिरदारी में लग गया. किरण, पानी लाना, किरण, खाना लगा दो, किरण, ये ला दो, वो ला दो के बीच चक्कर लगातेलगाते किरण थक चुकी थी लेकिन रवि की फरमाइशें पूरी नहीं हो रही थीं.

शाम 4 बजे जब सारे मेहमान चले गए तब जा कर कहीं किरण ने चैन की सांस ली.

वह थोड़ी देर लेटना चाहती थी लेकिन तभी बाबूजी की आवाज ने उस के लेटने के अरमान पर पानी फेर दिया, ‘‘बहू, जरा चाय तो बना दो, सोचता हूं थोड़ी दूर टहल आऊं.’’

किरण ने चाय बना कर जैसे ही बाबूजी को दी कि बच्चे उठ गए, रवि सो चुका था. बच्चों को कुछ खिलापिला कर अभी उसे थोड़ी फुर्सत हुई थी कि काम वाली शांति बाई ने बेल बजा कर उस के चैन में खलल डाल दिया.

शांति को देखते ही किरण भड़क उठी, ‘‘क्या शांति, यह तुम्हारे आने का टाइम है. सारा काम मुझे खुद करना पड़ा. नहीं आना होता है तो कम से कम बता तो दिया करो, तुम्हें मालूम है कि कितनी परेशानी हुई आज,’’ एक ही सांस में किरण बोल गई.

‘‘क्या करूं बीबीजी, आज मेरे मर्द को काम पर नहीं जाना था, सो कहने लगा कि आज तू मेरे पास रह,’’ शांति ने अपनी रामकहानी सुनानी शुरू कर दी.

‘‘चल छोड़ अब रहने दे, जल्दी से कपड़े धो ले, पानी आ गया, सारे कपड़े गंदे हो गए हैं,’’ 2 घंटे शांति के साथ कपड़े धुलवाने और साफसफाई करवाने के बाद किरण डिनर बनाने में जुट गई. सब को खाना खिला कर जब रात को वह बिस्तर पर लेटी तो रवि अपनी रूमानियत पर उतर आया.

‘‘अब तंग मत करो, सो जाओ चुपचाप, मैं भी थक गई हूं.’’

‘‘क्या थक गई हूं, रोज तुम्हारा यही हाल है. कम से कम छुट्टी वाले दिन तो मान जाया करो.’’

‘‘छुट्टी, छुट्टी, छुट्टी, तुम्हारी तो छुट्टी है, पर मुझ से क्यों ट्रिपल शिफ्ट में काम करवा रहे हो?’’

Romantic Story: महानायक – आखिर विष्णुजी के नखरे का क्या राज था?

Romantic Story, लेखिका – वीना शर्मा

शालिनी ने घड़ी देखी. 12 बज रहे थे. अभी आधा रास्ता भी पार नहीं हुआ था.

‘‘हम लोग 1 बजे तक बच्चों के स्कूल पहुंच जाएंगे न?’’ शालिनी ने कुछ अधीर स्वर में अपने ड्राइवर भुवन से पूछा.

‘‘पहुंच जाएंगे मैडम. इसीलिए तो मैं इस रोड से लाया हूं. यहां ट्रैफिक कम होता है.’’

‘‘ट्रैफिक तो अब किसी भी रोड पर कम नहीं होता,’’ पास बैठी शालिनी की सहेली रीना बोली.

रीना का बेटा चिंटू भी उसी स्कूल में पढ़ता था, जिस में शालिनी के दोनों बच्चे अनूषा और माधव थे.

शालिनी और रीना बचपन की सहेलियां थीं. साथ पढ़ी थीं और समय के साथ दोस्ती बढ़ती ही गई थी. शालिनी के पति अमर कुमार मशहूर फिल्म अभिनेता थे और रीना के पति बिशन एक बड़े व्यापारी. दोनों का जीवन अति व्यस्त था.

अमर कुमार की व्यवस्तता तो बहुत ही अधिक थी. पिछले 7 सालों में उन की इतनी फिल्में जुबली हिट हुई थीं कि शालिनी को अब गिनती भी याद नहीं थी. इतनी अधिक सफलता की कल्पना तो न शालिनी ने की थी न अमर कुमार ने. शालिनी को गर्व था अपने पति पर. हर जगह अमर के नाम की धूम मची रहती थी. बच्चों को भी अपने पापा पर कम गर्व नहीं था. पापा की वजह से वे स्कूल में वीआईपी थे.

आज अनूषा और माधव ने चिंटू और अपनी क्लास के अन्य साथियों के साथ पापा की नई गाड़ी में घूमने का प्रोग्राम बनाया था. स्कूल में जल्दी छुट्टी होने वाली थी.

बच्चों में पापा की नई गाड़ी के लिए बहुत उत्साह था. सब से बढि़या गाड़ी जो अभी तक सिर्फ उन के पापा के पास थी. कितने उत्साह से दोनों आज के दिन का इंतजार कर रहे थे, जब उन के स्कूल में जल्दी छुट्टी होने वाली थी.

गाड़ी सिगनल पर रुकी. शालिनी परेशान होने लगी कि अब और देर होगी. उस ने फिर घड़ी देखी. तभी अचानक शालिनी का मोबाइल बजा.

‘‘हैलो,’’ शालिनी धीरे से बोली.

‘‘मैडम बहुत गड़बड़ हो गई है… आप कहां हैं?’’ उधर से आने वाला स्वर अमर के सैके्रेटरी वसु का था.

‘‘क्या हुआ वसु? हम स्कूल के रास्ते में हैं.’’

‘‘मैडम, विष्णुजी अभी तक नहीं आए हैं. यहां इतना बड़ा सैट लगा हुआ है. प्लीज आप…’’

‘‘हां बोलो वसु, क्या करना है?’’

‘‘आप वह नई गाड़ी जल्दी से विष्णुजी के यहां पहुंचा दीजिए. जब तक वह गाड़ी नहीं पहुंचेगी विष्णुजी नहीं आएंगे और आप तो जानती हैं, जब तक विष्णुजी नहीं आएंगे…’’

‘‘शूटिंग नहीं होगी,’’ शालिनी ने गुस्से में कहा.

‘‘जी मैडम, आप जल्दी से भुवन को उनझ्र के यहां भेज दीजिए. आप के लिए दूसरी गाड़ी पहुंच जाएगी.’’

शालिनी ने फोन बंद किया ही था कि वह फिर बजा. इस बार अमर ने फोन किया था.

‘‘हां बोलिए,’’ शालिनी ने अपने गुस्से को भरसक रोकते हुए कहा.

‘‘शालू प्लीज, वह नई गाड़ी फौरन…’’

‘‘विष्णुजी के यहां भेज दूं?’’

‘‘हां, प्लीज, जल्दी…’’

शालिनी ने तेजी से फोन बंद किया और फिर बोली, ‘‘भुवन गाड़ी रोको.’’

भुवन हैरान था. अभीअभी तो ग्रीन सिगनल हुआ था. फिर भी उस ने गाड़ी किनारे लगा दी. शालिनी तेजी से नीचे उतर गई. पीछेपीछे रीना भी उतर गई.

‘‘भुवन, जल्दी से विष्णुजी के घर उन्हें लेने जाओ.’’

‘‘लेकिन मैडम आप?’’

‘‘हम टैक्सी से चले जाएंगे.’’

शालिनी और रीना टैक्सी में जा रही थीं. शालिनी का परेशान चेहरा देख कर रीना भी परेशान हो रही थी.

‘‘इतना परेशान मत हो शालू… ये सब तो…’’

‘‘मैं विष्णुजी से तंग आ गई हूं,’’ शालिनी रोंआसे स्वर में बोली.

रीना क्या कहती? वह शालिनी से कितना कुछ तो सुनती रहती थी, इन विष्णुजी के बारे में.

अमर के गुरु हैं वे. उन के सैट पर आए बिना अमर शूटिंग नहीं करता. उन के नखरे उठातेउठाते निर्माता परेशान हो जाते हैं. महंगी से महंगी दारू, बढि़या से बढि़या होटल से खाना और क्या कुछ नहीं…

आउटडोर पर तो उन की फरमाइश और भी बढ़ जाती है. उन्हें वही फल और सब्जियां चाहिए होती हैं, जिन का मौसम नहीं होता.

कालेज के जमाने में अमर नाटकों में काम करता था, जिन के निर्देशक यही विष्णुजी हुआ करते थे. इन की योग्यता पर कोई संदेह नहीं था, बहुत सफल निर्देशक थे ये. अपने काम में बहुत मेहनत करते थे. हर कलाकार पर विशेष ध्यान देते थे. उन से प्रशंसा के 2 बोल सुनने के लिए अमर जमीनआसमान एक कर देता था.

अमर को फिल्मों का बेहद शौक था. इसीलिए तो जब उस ने एक फिल्मी पत्रिका में टेलैंट कौंटैस्ट के बारे में पढ़ा तो जल्दी से फार्म भर कर भेज दिया. फिर जब वहां से बुलावा आया तो अमर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन वहां ‘स्क्रीन टैस्ट’ होगा, बड़ेबड़े लोगों के सामने डायलौग बोलने पड़ेंगे, वह कालेज का नाटक नहीं है कि हंसतेखेलते ट्राफी जीती जा सके, विष्णुजी ने अमर को कई दिनों तक अभ्यास कराया, हिम्मत बंधाई…

‘‘अपने पर भरोसा रखो. तुम बहुत अच्छे कलाकार हो…’’

अमर चुन लिया गया. उसे फिल्म मिल गई. शूटिंग पर विष्णुजी साथ रहे.

अमर की फिल्म हिट हो गई. धड़ाधड़ नई फिल्में मिलने लगीं. विष्णुजी हर जगह साथ होते. उन के बिना अमर काम नहीं कर पाता था.

अमर स्टार बन गया. नाम और पैसा सभी कुछ बरसने लगा. विष्णुजी के घर की हालत बदलने लगी. उन की तीनों बेटियां अच्छे स्कूल में जाने लगीं. बढि़या फ्लैट, नौकरचाकर सभी कुछ…

उन की पत्नी मालती खुश रहने लगी, क्योंकि उस ने अभी तक अच्छे दिन देखे ही नहीं थे. विष्णुजी कभी कोई नौकरी नहीं कर पाए थे और दारू पीना भी कम नहीं करते थे.

अमर की शादी हुई. शादी की पार्टी में पहली बार शालिनी ने विष्णुजी को देखा. नाटे, मोटे शराब का गिलास पर गिलास खाली करते हुए… उस व्यक्ति को शालिनी आश्चर्य से देख रही थी.

अमर ने शालिनी का परिचय करवाया, ‘‘ये मेरे गुरुजी हैं.’’

अमरके इशारे पर शालिनी ने  झुक कर उन के पांव छूए. पार्टी भर शालिनी देखती रही. बहुत से लोग विष्णुजी के आगेपीछे घूम रहे थे और वे सब से अकड़अकड़ कर बातें कर रहे थे.

जैसेजैसे अमर की सफलता बढ़ती गई, विष्णुजी की यह अकड़ भी बढ़ती रही.

शालिनी के मन में उन के लिए कभी कोई श्रद्धा पैदा नहीं हुई, लेकिन अमर की वजह से वह उन्हें हमेशा चुपचाप सहती रही.

सारे निर्मातानिर्देशक भी अमर की वजह से ही चुप रहते. अमर उन के बिना शौट नहीं दे सकता. उन का सैट पर होना जरूरी है. वे हर निर्देशक को काम सिखाने लगते. निर्माता को छोटीछोटी बातों पर डांटनेफटकारने लगते. फिर भी अमर की वजह से कोई कुछ नहीं कहता.

मम्मी और आंटी को टैक्सी से उतरता देख, बच्चों के मुंह उतर गए.

रीना ने बात संभाली, ‘‘वह बात यह है कि रास्ते में गाड़ी खराब हो गई… अभी आती ही होगी… तब तक सब लोग आइसक्रीम खाते हैं.’’

दूसरी गाड़ी जल्दी आ गई. लेकिन यह तो पापा की नई गाड़ी नहीं है. अनूषा और माधव का मुंह उतर गया. उन के चेहरे देख कर शालिनी को धक्का जैसा लग रहा था.

बच्चों के घूमने का कार्यक्रम एक औपचारिकता की तरह निभाया गया. रीना ही उन्हें बहलाती रही.

शालिनी का उखड़ा मूड देख कर अमर परेशान हो गया. बोला, ‘‘वह क्या है न शालू… विष्णुजी की जिद थी उन्हें लेने वही गाड़ी आए. बेचारे कुमार का लाखों का नुकसान हो रहा था… मैं क्या करूं?’’

‘‘लेकिन विष्णुजी को हमेशा आप की नई गाड़ी ही क्यों चाहिए होती है?’’ शालिनी अपने गुस्से पर काबू नहीं रख सकी.

‘‘उन का ईगो संतुष्ट होता है… तुम तो जानती हो उन्हें.’’

‘‘हां, मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हूं. ईगो के सिवा और है क्या उन के पास?’’

अमर कुछ नहीं कह सका. घर का वातावरण कई दिनों तक तनावपूर्ण रहा.

शालिनी को अब अमर की चिंता होने लगी थी, क्योंकि अमर विष्णुजी पर इतना निर्भर करता है? क्यों काम नहीं कर सकता उन के बिना? सफलता के इस शिखर पर पहुंच कर भी आत्मविश्वास क्यों नहीं आ पाया अमर में? इस तरह कितने दिन चलेगा? कहीं ऐसा न हो कि अमर को काम मिलना बंद हो जाए. फिर क्या होगा? अमर सम झता क्यों नहीं?

नीरज साहब एक बहुत बड़ी फिल्म बना रहे थे. अमर उन की अनेक हिट फिल्मों का हीरो ही नहीं, बल्कि बहुत अच्छा दोस्त भी था. जाहिर है मुख्य भूमिका इस बार भी उसे ही निभानी थी. नीरज साहब की यह फिल्म एकसाथ कई भाषाओं में बन रही थी और इस में कई विदेशी कलाकार भी काम कर रहे थे.

आज बहुत ही भव्य सैट लगा था. प्रैस वाले, मीडिया वाले सब आने वाले थे. अमर चाहता था कि शानिली भी सैट पर आए.

वैसे शालिनी अमर के सैट पर बहुत कम जाती थी और कुछ सालों से तो उस ने जाना बिलकुल छोड़ दिया था. वह लोगों के साथ विष्णुजी का व्यवहार सहन नहीं कर पाती थी. लेकिन इस बार अमर और नीरज साहब के बारबार आग्रह करने पर शालिनी को जाना पड़ा.

सारी तैयारी हो चुकी थी. विदेशी कलाकारों सहित सारे कलाकार तैयार थे. सैट तैयार था. लेकिन शूटिंग शुरू नहीं हो पा रही थी. विष्णुजी अभी तक नहीं पहुंचे थे. कई बार फोन किया गया, गाड़ी भेज दी गई थी. लेकिन वे नहीं आए. इस फिल्म के मुहूर्त वाले दिन से ही वे काफी नाराज थे, क्योंकि इस बार नीरज साहब ने मुहूर्त उन से नहीं बल्कि एक नामी विदेशी कलाकार से करवाया था.

जब बहुत देर हो गई तो अमर ने खुद फोन लगाया. मालती ने ही फोन उठाया, बोली, ‘‘क्या बताऊं अमर भैया, मैं तो सम झासम झा कर थक गई. ये सुबह से ही पी रहे हैं और नीरज साहब को गालियां दे रहे हैं.’’

शालिनी की मनो:स्थिति बहुत खराब हो रही थी. क्या सोच रहे होंगे सब लोग अमर के लिए… यह इतना बड़ा नायक… इतना असमर्थ… इतना असहाय है.

आखिर शूटिंग शुरू हुई. अमर ने विष्णुजी के बिना ही काम किया.

‘‘कमाल कर दिया तुम ने,’’ नीरज साहब ने अमर को गले लगा लिया. विदेशी कलाकार अमर के अभिनय से बेहद प्रभावित हुए.

मेकअप रूम में शालिनी अमर की ओर प्रशंसा से देख रही थी. बोली, ‘‘आप उन के बिना काम कर सकते हैं… क्यों सहते हैं उन के इतने नखरे? आप उन के मुंहताज नहीं हैं… आप उन के बिना भी…’’

‘‘जानता हूं शालू मैं उन के बिना काम कर सकता हूं,’’

‘‘तो फिर हमेशा क्यों नहीं करते?’’

‘‘शालू… वह आदमी… जिंदगी में कुछ नहीं कर पाया… मेरी स्टारडम को जी रहा है वह… यह उस से छिन गई तो वह टूट जाएगा, फिर क्या होगा उस का? क्या होगा उस के परिवार का? बोलो?’’ शालिनी अवाक सी अमर को देख रही थी.

न जाने कब वहां आ कर खड़े हो गए थे नीरज साहब. फिर धीरे से बोले, ‘‘यह बात हम लोग सम झते हैं भाभीजी.’’

शालिनी को लग रहा था वह सचमुच एक महानायक की पत्नी है.

Crime Story: अपराध – निलकंठ अपनी पत्नी को क्यों जान से मारना चाहता था

Crime Story: एंबुलैंस का सायरन बज रहा था. लोग घबरा कर इधरउधर भाग रहे थे. छुट्टी का दिन होने से अस्पताल का आपातकालीन सेवा विभाग ही खुला था, शोरशराबे से डाक्टर नीलकंठ की तंद्रा भंग हो गई.

घड़ी पर निगाह डाली, रात के 10 बज कर 20 मिनट हो रहे थे. उसे ऐलिस के लिए चिंता हो रही थी और उस पर क्रोध भी आ रहा था. 9 बजे वह उस के लिए कौफी बना कर लाती थी. वैसे, उस ने फोन पर बताया था कि वह 1-2 घंटे देर से आएगी.

‘‘सर,’’ वार्ड बौय ने आ कर कहा, ‘‘एक गंभीर केस है, औपरेशन थिएटर में पहुंचा दिया है.’’

‘‘आदमी है या औरत?’’ नीलकंठ ने खड़े होते हुए पूछा.

‘‘औरत है,’’ वार्ड बौय ने उत्तर दिया, ‘‘कहते हैं कि आत्महत्या का मामला है.’’

‘‘पुलिस को बुलाना होगा,’’ नीलकंठ ने पूछा, ‘‘साथ में कौन है?’’

‘‘2-3 पड़ोसी हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ औपरेशन की तैयारी करने को कहो. मैं आ रहा हूं. और हां, सिस्टर ऐलिस आई हैं?’’

‘‘जी, अभीअभी आई हैं. उस घायल औरत के साथ ही ओटी में हैं,’’ वार्ड बौय ने जाते हुए कहा.

राहत की सांस लेते हुए नीलकंठ ने कहा, ‘‘तब तो ठीक है.’’

वह जल्दी से ओटी की ओर चल पड़ा. दरअसल, मन में ऐलिस से मिलने की जल्दी थी, घायल की ओर ध्यान कम ही था.

ऐलिस को देखते ही वह बोला, ‘‘इतनी देर कहां लगा दी? मैं तो चिंता में पड़ गया था.’’

‘‘सर, जल्दी कीजिए,’’ ऐलिस ने उत्तर दिया, ‘‘मरीज की हालत बहुत खराब है. और…’’

‘‘और क्या?’’ नीलकंठ ने एप्रन पहनते हुए पूछा, ‘‘सारी तैयारी कर दी है न?’’

‘‘जी, सब तैयार है,’’ ऐलिस ने गंभीरता से कहा, ‘‘घायल औरत और कोई नहीं, आप की पत्नी सुरमा है.’’

‘‘सुरमा,’’ वह लगभग चीख उठा.

सुबह ही नीलकंठ का सुरमा से खूब झगड़ा हुआ था. झगड़े का कारण ऐलिस थी. नीलकंठ और ऐलिस का प्रणय प्रसंग उन के विवाहित जीवन में विष घोल रहा था. सुबह सुरमा बहुत अधिक तनाव में थी, क्योंकि नीलकंठ के कोट पर 2-4 सुनहरे बाल चमक रहे थे और रूमाल पर लिपस्टिक का रंग लगा था. सुरमा को पूरा विश्वास था कि ये दोनों चिह्न ऐलिस के ही हैं. कुछ कहने को रह ही क्या गया था? पूरी कहानी परदे पर चलती फिल्म की तरह साफ थी.

झुंझला कर क्रोध से पैर पटकता हुआ नीलकंठ बाहर निकल गया.

जातेजाते सुरमा के चीखते शब्द कानों में पड़े, ‘आज तुम मेरा मरा मुंह देखोगे.’

ऐसी धमकियां सुरमा कई बार दे

चुकी थी. एक बार नीलकंठ ने

उसे ताना भी दिया था, ‘जानेमन, जीना जितना आसान है, मरना उतना ही मुश्किल है. मरने के लिए बहुत बड़ा दिल और हिम्मत चाहिए.’

‘मर कर भी दिखा दूंगी,’ सुरमा ने तड़प कर कहा था, ‘तुम्हारी तरह नाटकबाज नहीं हूं.’

‘देख लूंगा, देख लूंगा,’ नीलकंठ ने विषैली मुसकराहट के साथ कहा था, ‘वह शुभ घड़ी आने तो दो.’

आखिर सुरमा ने अपनी धमकी को हकीकत में बदल दिया था. उन का घर 5वीं मंजिल पर था. वह बालकनी से नीचे कूद पड़ी थी. इतनी ऊंचाई से गिर कर बचना बहुत मुश्किल था. नीचे हरीहरी घास का लौन था. उस दिन घास की कटाई हो रही थी. सो, कटी घास के ढेर लगे थे. सुरमा उसी एक ढेर पर जा कर गिरी. उस समय मरी तो नहीं, पर चोट बहुत गहरी आई थी.

शोर मचते ही कुछ लोग जमा हो गए, उन्होंने सुरमा को पहचाना और यही ठीक समझा कि उसे नीलकंठ के पास उसी के अस्पताल में पहुंचा दिया जाए.

काफी खून बह चुका था. नब्ज बड़ी मुश्किल से पकड़ में आ रही थी. शरीर का रंग फीका पड़ रहा था. नीलकंठ के मन में कई प्रश्न उठ रहे थे, ‘सुरमा से पीछा छुड़ाने का बहुत अच्छा अवसर है. इस के साथ जीवन काटना बहुत दूभर हो रहा है. हमेशा की किटकिट से परेशान हो चुका हूं. एक डाक्टर को समझना हर औरत के वश की बात नहीं, कितना तनावपूर्ण जीवन होता है. अगर चंद पल किसी के साथ मन बहला लिया तो क्या हुआ? पत्नी को इतना तो समझना ही चाहिए कि हर पेशे का अपनाअपना अंदाज होता है.’

सहसा चलतेचलते नीलकंठ रुक गया.

‘‘क्या हुआ, सर?’’ ऐलिस ने चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘मैं यह औपरेशन नहीं कर सकता,’’ नीलकंठ ने लड़खड़ाते स्वर में कहा, ‘‘कोई डाक्टर अपनी पत्नी या सगेसंबंधी का औपरेशन नहीं करता, क्योंकि वह उन से भावनात्मक रूप से जुड़ा होता है. उस के हाथ कांपने लगते हैं.’’

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं?’’ ऐलिस ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘जल्दी से डाक्टर जतिन को बुला लो,’’ नीलकंठ ने वापस मुड़ते हुए कहा. वह सोच रहा था कि औपरेशन में जितनी देर लगेगी, उतनी जल्दी ही सुरमा इस दुनिया से दूर चली जाएगी.

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ ऐलिस ने तनिक ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘डाक्टर जतिन को आतेआते एक घंटा तो लगेगा ही. लेकिन इतना समय कहां है? मैं मानती हूं कि आप के लिए पत्नी को इस दशा में देखना बड़ा कठिन होगा और औपरेशन करना उस से भी अधिक मुश्किल, पर यह तो आपातस्थिति है.’’

‘‘नहीं,’’ नीलकंठ ने कहा, ‘‘यह डाक्टरी नियमों के विरुद्ध होगा और यह बात तुम अच्छी तरह जानती हो.’’

‘‘ठीक है, कम से कम आप कुछ देखभाल तो करें,’’ ऐलिस ने कहा, ‘‘मैं अभी डाक्टर जतिन को संदेश भेजती हूं.’’

डाक्टर नीलकंठ जब ओटी में घुसा तो आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था, कितने ही उद्गार मन में उठते और फिर बादलों की तरह गायब हो जाते थे.

सामने सुरमा का खून से लथपथ शरीर पड़ा था, जिस से कभी उस ने प्यार किया था. वे क्षण कितने मधुर थे. इस समय सुरमा की आंखें बंद थीं, एकदम बेहोश और दीनदुनिया से बेखबर. इतना बड़ा कदम उठाने से पहले उस के मन में कितना तूफान उठा होगा? एक क्षण अपराधभावना से नीलकंठ का हृदय कांप उठा, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उस के शरीर को झंझोड़ रही हो.

नीलकंठ ने कांपते हाथों से सुरमा के बदन से खून साफ किया. उस का सिर फट गया था. वह कितने ही ऐसे घायल व्यक्ति देख चुका था, पर कभी मन इतना विचलित नहीं हुआ था. वह सोचने लगा, क्या सुरमा की जान बचा सकना उस के वश में है?

लेकिन डाक्टर जतिन के आने से पहले ही सुरमा मर चुकी थी. नीलकंठ सूनी आंखों से उसे देख रहा था, वह जड़वत खड़ा था.

जतिन ने शव की परीक्षा की और धीरे से नीलकंठ के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘मुझे दुख है, सुरमा अब इस दुनिया में नहीं है. ऐलिस, नीलकंठ को केबिन में ले जाओ, इसे कौफी की जरूरत है.’’

ऐलिस ने आहिस्ता से नीलकंठ का हाथ पकड़ा और लगभग खींचते हुए ओटी से बाहर ले गई. कमरे में ले जा कर उसे कुरसी पर बैठाया.

‘‘सर, मुझे दुख है,’’ ऐलिस ने आहत स्वर में कहा, ‘‘सुरमा के ऐसे अंत की मैं ने कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी. मैं अपने को कभी माफ नहीं कर सकूंगी.’’

नीलकंठ ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘तुम्हारा कोई दोष नहीं, कुसूर मेरा है.’’

नीलकंठ आंखें बंद किए सोच रहा था, ‘शायद सुरमा को बचा पाना मेरे वश से बाहर था, पर कोशिश तो कर ही सकता था. लेकिन मैं टालता रहा, क्योंकि सुरमा से छुटकारा पाने का यह सुनहरा अवसर था. मैं कलह से मुक्ति पाना चाहता था. अब शायद ऐलिस मेरे और करीब आ जाएगी.’

ऐलिस सामने कौफी का प्याला लिए खड़ी थी. वह आकर्षक लग रही थी.

पुलिस सूचना पा कर आ गई थी. औपचारिक रूप से पूछताछ की गई. यह स्पष्ट था कि दुर्घटना के पीछे पतिपत्नी के बिगड़ते संबंध थे, परंतु नीलकंठ का इस दुर्घटना में कोईर् हाथ नहीं था. नैतिक जिम्मेदारी रही हो, पर कानूनी निगाह से वह निर्दोष था. पोस्टमार्टम के बाद शव नीलकंठ को सौंप दिया गया. दोनों ओर के रिश्तेदार सांत्वना देने और घर संभालने आ गए थे. दाहसंस्कार के बाद सब के चले जाने पर एक सूनापन सा छा गया.

नीलकंठ को सामान्य होने में सहायता दी तो केवल ऐलिस ने. अस्पताल में ड्यूटी के समय तो वह उस की देखभाल करती ही थी, पर समय पा कर अपनी छोटी बहन अनीषा के साथ उस के घर भी चली जाती थी. चाय, नाश्ता, भोजन, जैसा भी समय हो, अपने हाथों से बना कर देती थी. धीरेधीरे नीलकंठ के जीवन में शून्य का स्थान एक प्रश्न ने ले लिया.

कई महीनों के बाद नीलकंठ ने एक दिन ऐलिस से कहा, ‘‘मैं तुम्हारे जैसी पत्नी ही पाना चाहता था. तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिलीं. यह सोच कर कभीकभी आश्चर्य होता है.’’

‘‘सर,’’ ऐलिस बोली, ‘‘सर.’’

नीलकंठ ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं ने कितनी बार कहा है कि मुझे ‘सर’ मत कहा करो. अब तो हम दोनों अच्छे दोस्त हैं. यह औपचारिकता मुझे अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘क्या करूं,’’ ऐलिस हंस पड़ी, ‘‘सर, आदत सी पड़ गई है, वैसे कोशिश करूंगी.’’

‘‘तुम मुझे नील कहा करो,’’ उस ने ऐलिस की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मुझे अच्छा लगेगा.’’

ऐलिस हंस पड़ी, ‘‘कोशिश करूंगी, वैसे है जरा मुश्किल.’’

‘‘कोई मुश्किल नहीं,’’ नीलकंठ हंसा, ‘‘आखिर मैं भी तो तुम्हें ऐलिस कह कर बुलाता हूं.’’

‘‘आप की बात और है,’’ ऐलिस ने कहा, ‘‘आप किसी भी संबंध से मुझे मेरे नाम से पुकार सकते हैं.’’

‘‘तो फिर किस संबंध से तुम मेरा नाम ले कर मुझे बुलाओगी?’’ नीलकंठ के स्वर में शरारत थी.

‘‘पता नहीं,’’ ऐलिस ने निगाहें फेर लीं.

‘‘तुम जानती हो, मेरे मन में तुम्हारे लिए क्या भावना है,’’ नीलकंठ ने कहा, ‘‘मैं चाहता हूं कि तुम मेरे सूने जीवन में बहार बन कर प्रवेश करो.’’

‘‘यह तो अभी मुमकिन नहीं,’’ ऐलिस ने छत की ओर देखा.

‘‘अभी नहीं तो कोई बात नहीं,’’ नीलकंठ ने कहा, ‘‘पर वादा तो कर सकती हो?’’ नीलकंठ को विश्वास था कि ऐलिस इनकार नहीं करेगी, शक की कोई गुंजाइश नहीं थी.

‘‘यह कहना भी मुश्किल है,’’ ऐलिस ने मेज पर पड़े चम्मच से खेलते हुए कहा.

‘‘क्यों?’’ नीलकंठ ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘आखिर हम अच्छे दोस्त हैं?’’

‘‘बस, दोस्त ही बने रहें तो अच्छा है,’’ ऐलिस ने कहा.

‘‘क्या मतलब?’’ नीलकंठ ने खड़े होते हुए पूछा, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘यही कि अगर शादी कर ली तो इस बात की क्या गारंटी है,’’ ऐलिस ने एकएक शब्द तोलते हुए कहा, ‘‘कि मेरा भी वही हश्र नहीं होगा, जो सुरमा का हुआ? आखिर दुर्घटना तो सभी के साथ घट सकती है?’’

यह सुनते ही नीलकंठ को मानो सांप सूंघ गया. उस ने कुछ कहना चाहा, पर जबान पर मानो ताला पड़ गया था. ऐलिस ने साथ देने से इनकार जो कर दिया था.

Love Crime: प्रेमी ने की खौफनाक हरकत, ‘मेरी नहीं तो किसी की नहीं’ कहकर ले ली जान

Love Crime: प्राची महाराष्ट्र के ठाणे के उपनगर किशोर नगर स्थित आनंद भवन सोसायटी में रहती थी. वह के.जी. जोशी और एन.जी. वेडकर कालेज से बीकौम द्वितीय वर्ष की पढ़ाई कर रही थी. इस के साथ ही साथ वह घर की आर्थिक मदद के लिए ठाणे की एक प्राइवेट कंपनी में पार्टटाइम जौब करती थी. वैसे तो प्राची अकसर अपने औफिस के लिए दोपहर 1 बजे के आसपास निकलती थी, लेकिन 4 अगस्त, 2018 को शनिवार था इसलिए कालेज बंद होने के कारण प्राची 11 बजे ही औफिस के लिए निकल गई थी. प्राची हंसमुख और मेहनती युवती थी. औफिस के लोग जितना काम पूरे दिन में नहीं करते थे, उस से अधिक काम वह पार्टटाइम में कर दिया करती थी. यही कारण था कि औफिस स्टाफ और बौस प्राची की बहुत इज्जत करते थे.

उस दिन प्राची स्कूटी से जब ठाणे आरटीओ के सामने पहुंची तो आकाश ने ओवरटेक कर के अपनी मोटरसाइकिल उस की स्कूटी के आगे लगा दी. प्राची आकाश को जानती थी. अचानक ब्रेक लगाने से वह गिरतेगिरते बची. उसे आकाश की यह हरकत अच्छी नहीं लगी. इस बेहूदे कृत्य पर प्राची आकाश पर भड़क गई, ‘‘यह क्या बदतमीजी है, तुम ने इस तरह से रास्ता क्यों रोका?’’

‘‘हां, रोका है, एक बार नहीं हजार बार रोकूंगा.’’ आकाश अपनी मोटरसाइकिल स्टैंड पर खड़ी करते हुए बोला.

‘‘देखो, मैं तुम से बहस नहीं करना चाहती. मेरा रास्ता छोड़ो, मुझे औफिस के लिए देर हो रही है.’’ प्राची ने अपनी स्कूटी स्टार्ट करते हुए कहा.

‘‘अगर मैं ने रास्ता नहीं छोड़ा तो मेरा क्या कर लोगी, पुलिस के पास जाओगी? जाओ, शौक से जाओ. पुलिस के पास तो तुम पहले भी गई थी, क्या कर लिया मेरा?’’ आकाश ने प्राची की स्कूटी की चाबी निकालते हुए कहा.

‘‘देखो आकाश, बहुत तमाशा हो चुका. तुम मेरा पीछा करना बंद करो और मेरी स्कूटी की चाबी मुझे दे दो.’’

कहते हुए प्राची अपना हेलमेट सिर पर लगाने लगी. तभी आकाश ने प्राची का हेलमेट छीन कर उसे हवा में उछालते हुए कहा, ‘‘तमाशा हमारा नहीं तुम्हारा है, प्राची. आखिर तुम यह मान क्यों नहीं लेतीं कि तुम्हें मुझ से प्यार है. हम दोनों एकदूसरे के लिए बने हैं. दोनों मिल कर एक नई दुनिया बसाएंगे, जहां हमारे ऐशोआराम के सारे साधन होंगे.’’ आकाश नरम लहजे में प्राची को समझाने की कोशिश करने लगा. लेकिन प्राची ने इस की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया.

‘‘आकाश, यह तुम्हारी गलतफहमी है. मैं ने न तो तुम्हें कभी प्यार किया था और न करती हूं. यह बात मैं तुम्हें कितनी बार कह चुकी हूं. मैं पहले भी तुम्हें अपना एक अच्छा दोस्त मानती थी और आज भी मानती हूं. इस से ज्यादा तुम मुझ से और कोई अपेक्षा न रखो, समझे.’’ प्राची ने साफसाफ कह दिया.

‘‘तो क्या यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?’’ आकाश ने निराशा भरे शब्दों में पूछा.

‘‘हां…हां,’’ प्राची ने लगभग चीखते हुए कहा, ‘‘हां, अब तुम मुझे भूल जाओ. तुम भी जियो और मुझे भी जीने दो.’’

‘‘प्राची, यही तो मुश्किल है. न तो मैं तुम्हें भूल सकता हूं और न तुम्हारे बिना रह सकता हूं. इस के लिए तो सिर्फ अब एक ही रास्ता बचा है…’’ कहते हुए आकाश का चेहरा गुस्से से लाल हो गया.

‘‘एक ही रास्ता…क्या मतलब है तुम्हारा? कहना क्या चाहते हो तुम?’’ प्राची ने पूछा.

जब आकाश को लगा कि प्राची मानने वाली नहीं है और न ही वह उस की बात को तवज्जो दे रही है तो गुस्से में वह अपना संयम खो बैठा. उस ने तय कर लिया कि प्राची अगर उसे प्यार नहीं करती तो वह उसे किसी और से प्यार करने के लिए भी नहीं छोड़ेगा. यह सोचते हुए उस ने अपनी पैंट की जेब से चाकू निकाल लिया और यह कहते हुए उस पर हमला कर दिया कि अगर वह उस की नहीं हुई तो वह उसे किसी और की भी नहीं होने देगा. प्यार की आग में जल रहे आकाश ने प्राची के ऊपर इतनी ताकत से अनेक वार किए कि उस के चाकू का फल टूट कर जमीन पर गिर गया. इस के बाद वह आत्महत्या करने के मकसद से सड़क के दूसरी तरफ से आती हुई राज्य परिवहन निगम की बस के सामने कूद गया.

गनीमत यह रही कि बस के ड्राइवर ने अचानक ब्रेक लगा दिए, जिस से वह बच गया. उस के सिर में हलकी सी चोट आई थी. वह फटाफट उठा और वहां से औटो पकड़ कर फरार हो गया. भीड़ ने बस तमाशा देखा भीड़भाड़ भरे इलाके में फिल्मी स्टाइल से घटी इस घटना को वहां से गुजर रहे लोगों ने देखा था. लेकिन भीड़ में से कोई भी उस की मदद के लिए आगे नहीं आया, बल्कि कुछ लोग तो अपने मोबाइल से फोटो खींचने और वीडियो बनाने में लग गए. हद तो तब हो गई, जब जमीन पर घायलावस्था में पड़ी प्राची दर्द से कराहती और तड़पती रही. उसे उस समय अस्पताल ले जाने वाला कोई नहीं था.

किसी दूसरे शहर से आए 3 लोगों ने जब प्राची को सड़क पर लहूलुहान देखा तो वह उसे अस्पताल ले जाने की कोशिश करने लगे. लेकिन कोई औटो और टैक्सी वाला तड़प रही प्राची को अपनी गाड़ी में ले जाने के लिए तैयार नहीं हुआ. किसी तरह वे तीनों एक प्राइवेट वाहन से प्राची को जब करीब के अस्पताल ले कर पहुंचे तो वहां के डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. यह घटना थाणे के नौपाड़ा पुलिस स्टेशन इलाके में घटी थी. इस बीच किसी ने इस मामले की जानकारी नौपाड़ा के थानाप्रभारी चंद्रकांत जाधव को दे दी थी. थानाप्रभारी चंद्रकांत जाधव बिना देर किए सहायक इंसपेक्टर धुमाल और इंसपेक्टर सोडकर के साथ घटनास्थल पर पहुंचे. वहां अपने एक अधिकारी को तैनात कर के वह क्रिटिकेयर सुपरस्पेशियलिटी अस्पताल रवाना हो गए.

थानाप्रभारी चंद्रकांत जाधव ने इस मामले की जानकारी अपने वरिष्ठ अधिकारियों और थाणे पुलिस कंट्रोल रूम को दे दी. अस्पताल पहुंच कर थानाप्रभारी ने डाक्टरों से बात की और प्राची के शव का बारीकी से निरीक्षण किया. प्राची के गले और शरीर पर चाकू के 7-8 गहरे घाव थे. डाक्टरों ने बताया कि प्राची को अगर समय रहते अस्पताल लाया गया होता तो शायद वह बच सकती थी. प्राची के पास से मिले कालेज के परिचय पत्र से प्राची के घर का पता मिल गया था. पुलिस ने यह जानकारी प्राची के घर वालों को दे दी. बेटी की हत्या की सूचना मिलते ही पिता विकास जाडे सन्न रह गए, घर में रोनापीटना शुरू हो गया. उन्हें जिस अनहोनी का डर था, आखिर वह हो ही गई. घर वाले जिस हालत में थे, उसी हालत में क्रिटिकेयर अस्पताल की ओर दौड़े.

अस्पताल पहुंचने पर पुलिस ने उन्हें सांत्वना दे कर कुछ पूछताछ की. पर प्राची के परिवार वालों ने थानाप्रभारी चंद्रकांत जाधव को बताया कि उस की हत्या आकाश ने की होगी. क्योंकि आकाश ही एक ऐसा युवक था, जो उन की बेटी को एकतरफा प्यार करता था. आए दिन वह उसे परेशान किया करता था. प्राची के परिवार वालों से पूछताछ करने के बाद पुलिस ने उस की लाश पोस्टमार्टम के लिए सिविल अस्पताल भेज दी. सरेराह घटी घटना से पुलिस भी रह गई हैरान घटनास्थल का मंजर काफी मार्मिक और डरावना था. उस मंजर को जिस ने भी देखा, उस का कलेजा कांप उठा. घटनास्थल पर खून में सना टूटा हुआ चाकू पड़ा था. वहीं पर मृतका की स्कूटी और आकाश की पल्सर बाइक खड़ी थी. उसी समय थाणे के पुलिस कमिश्नर विवेक फणसलकर, डीसीपी डा. डी.एस. स्वामी, एसीपी अभय सायगांवकर मौकाएवारदात पर आ गए. उन के साथ फोरैंसिक टीम भी थी.

फोरैंसिक टीम का काम खत्म होने के बाद पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों ने सरसरी तौर पर घटनास्थल का मुआयना कर थानाप्रभारी चंद्रकांत जाधव को आवश्यक दिशानिर्देश दिए. वरिष्ठ अधिकारियों के जाने के बाद थानाप्रभारी ने अपने सहायकों के साथ घटनास्थल की सारी औपचारिकताएं पूरी कर के घटनास्थल से सबूत एकत्र किए. मौके की काररवाई निपटाने के बाद थानाप्रभारी थाने लौट आए. वह प्राची के पिता विकास जाडे को भी साथ ले आए थे. उन की तहरीर पर उन्होंने आकाश के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया. दिनदहाड़े दिल दहला देने वाली इस वारदात से इलाके के लोगों में दहशत फैल गई थी. आरोपी आकाश की तलाश के लिए डीसीपी ने 5 पुलिस टीमों का गठन किया. सभी टीमों को अलगअलग जिम्मेदारी सौंपी गई.

आकाश पवार भिवंडी के नारपोली थाने के अंतर्गत आने वाले गांव कल्हार का रहने वाला था. थाना नारपोली के थानाप्रभारी सुरेश जाधव सबइंसपेक्टर संजय गलवे, हैडकांस्टेबल संजय भोसले, सत्यवान मोहिते कोली और नंदीवाल को ले कर संजय के घर गए. लेकिन वह घर से फरार मिला. बाद में टीम ने अपने मुखबिरों की इत्तला पर कुछ ही घंटों में आकाश को गिरफ्तार करने में सफलता हासिल कर ली. उस के सिर में हलकी सी चोट लगी थी, जिस का उपचार करवा कर पुलिस टीम उसे थाना नौपाड़ा ले आई और उसे थानाप्रभारी चंद्रकांत जाधव को सौंप दिया. आकाश ने बिना किसी दबाव के अपना अपराध स्वीकार कर लिया. पुलिस तफ्तीश और आकाश पवार के बयानों के आधार पर प्राची जाडे हत्याकांड की दिल दहला देने वाली जो कहानी सामने आई, वह कुछ इस प्रकार थी—

वर्षीय आकाश पवार एक साधारण लेकिन भरेपूरे परिवार का युवक था. उस के पिता का नाम कुमार पवार था. वह मुंबई की एक प्राइवेट फर्म में नौकरी करते थे, जहां उन की अच्छीखासी सैलरी और मानसम्मान था. परिवार में किसी भी चीज की कमी नहीं थी. परिवार की गाड़ी बड़े ही आराम से चल रही थी. आकाश परिवार में सब से छोटा था. इसलिए परिवार के सभी सदस्य उसे बहुत प्यार करते थे. इसी वजह से वह जिद्दी बन गया था. वह जिस चीज की हठ करता था, उसे ले कर ही मानता था. आकाश सुंदर और स्मार्ट था. इस के अलावा वह फैशनपरस्त और दिलफेंक था. लेकिन पढ़ाई में उस का मन नहीं लगता था. बीकौम पहले साल में फेल हो जाने की वजह से कालेज प्रशासन ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया था. इस के बाद भी वह अपने आवारा दोस्तों से मिलनेजुलने कालेज परिसर में आताजाता रहता था.

करीब 3 साल पहले 2015 में प्राची जाडे और आकाश पवार तब मिले थे, जब दोनों ने इंटरमीडिएट कक्षा में दाखिला लिया था. आकाश पहली ही नजर में प्राची का दीवाना हो गया था. इस के बाद वह प्राची के करीब जाने की कोशिश करने लगा. 65 वर्षीय विकास जाडे कोपरी पुलिस थाने के पास अपने 6 सदस्यों वाले परिवार के साथ रहते थे. उन की किराने की दुकान थी, जो अच्छीखासी चल रही थी. दुकान की आय से परिवार का आसानी से भरणपोषण हो रहा था. उन की चारों बेटियां परिवार के लिए मिसाल थीं. क्योंकि वे सभी अपने काम से काम रखती थीं. विकास जाडे के लिए उन की बेटियां ही सब कुछ थीं. इसलिए वह अपनी बेटियों की पढ़ाईलिखाई पर अधिक ध्यान देते थे.

जुनूनी आशिक था आकाश 20 वर्षीय प्राची चारों बेटियों में दूसरे नंबर की थी. वह अपनी तीनों बहनों से कुछ अलग थी. नरमदिल, चंचल स्वभाव और आधुनिक विचारों वाली प्राची किसी से भी बेझिझक बातें कर लिया करती थी. उस की मीठीमीठी बातें सब के दिल को छू लेती थीं. प्राची जितनी पढ़ाईलिखाई में होशियार थी, उतनी ही खेलकूद में निपुण थी. लंबी दौड़, ऊंची कूद में उसे बहुत रुचि थी. इस के अलावा वह स्कूल और कालेज के हर प्रोग्राम में भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थी. वह चाहती थी कि अगर उस की मौत हो जाए तो उस की आंखें दान दे दी जाएं. ताकि उस के न रहने पर उस की आंखों से कोई और यह संसार देखे. और ऐसा ही हुआ. उस की आंखें बेकार नहीं गईं. उस के मातापिता ने आंखें नेत्र बैंक को दान कर दीं.

चूंकि आकाश प्राची के कालेज का साथी था, इसलिए उस की आकाश से दोस्ती हो गई. लेकिन वह दोस्ती सिर्फ औपचारिकता भर थी. प्राची आकाश को सिर्फ अपना दोस्त मानती थी और उस के साथ हंसतीबोलती व घूमतीफिरती थी. लेकिन आकाश पवार ने उस की दोस्ती का अलग ही मतलब निकाल लिया था. प्राची जब भी आकाश के सामने आती तो आकाश के दिल की धड़कनें तेज हो जाती थीं. प्राची का सुंदर मन रंग और रूप उस की आंखों में समा जाता था. और तो और वह प्राची को ले कर अपने जीवन के रंगीन सपनों में खो जाता था. प्राची और आकाश की दोस्ती प्राची और आकाश की दोस्ती को धीरेधीरे 5 साल से अधिक का समय हो गया था.

जब आकाश आवारा लड़कों के साथ घूमनेफिरने लगा तो प्राची ने उस से दूरी बना ली. इसी बीच आकाश बीकौम फर्स्ट ईयर में फेल हो गया तो प्राची ने आकाश से अपनी दोस्ती पूरी तरह खत्म कर ली. खुद को व्यस्त रखने के लिए उस ने एक प्राइवेट फर्म में नौकरी कर ली थी. प्राची के इस रवैए से आकाश को गहरा धक्का लगा. वह उसे प्यार करता था. अपनी जिंदगी से उसे ऐसे जाने नहीं देना चाहता था. प्राची का पीछा कर के वह उस से बात करने की कोशिश करता था. बात न करने पर वह प्राची को तरहतरह की धमकियां देता था. हद तो तब हो गई जब 11 जून, 2018 कालेज परिसर में उस ने प्राची को अपने एक क्लासमेट के साथ बातें करते देख लिया. आकाश को यह अच्छा नहीं लगा. वह वहीं पर प्राची पर भड़कते हुए बोला, ‘‘देख प्राची, अगर तूने मुझ से दोस्ती तोड़ी तो बहुत बुरा नतीजा होगा. तू मेरी है और मेरी ही रहेगी. मैं तुझे किसी और की नहीं होने दूंगा. खत्म कर दूंगा तुझे.’’

आकाश पवार की इस धमकी से प्राची बुरी तरह डर गई थी. धमकी वाली बात प्राची ने अपने परिवार वालों को बताई तो प्राची के पिता विकास जाडे ने उसी दिन कापूरवाड़ी पुलिस थाने में आकाश पवार के खिलाफ शिकायत कर दी. लेकिन पुलिस ने उस पर कोई कड़ी काररवाई नहीं की. इस की जगह पुलिस ने आकाश पवार से माफीनामा लिखवा कर उसे छोड़ दिया. प्राची जाडे और उस के परिवार वालों के इस कदम से आकाश पवार की हिम्मत और बढ़ गई. उस ने एकदो बार प्राची से मिलने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुआ. इस से उस का मानसिक संतुलन बिगड़ गया और उस ने प्राची के प्रति एक क्रूर फैसला ले लिया. बाजार जा कर वह एक लंबे फल का चाकू खरीद लाया.

घटना के दिन आकाश पवार ने प्राची का पीछा कर रास्ता रोक लिया और वादविवाद के बाद जेब में छिपा कर लाए चाकू से प्राची पर हमला कर उस की हत्या कर दी. पुलिस जांच और आकाश पवार के बयान से पता चला कि मामला एकतरफा प्यार का था. आकाश पवार की गिरफ्तारी के बाद सड़कों पर कई सामाजिक संस्थाएं उतर गईं. उन्होंने प्राची जाडे की हत्या पर शोकसभा कर के कैंडल मार्च निकाला.

Family Story: जरा सा मोहत्याग – क्या नीमा ने अपनी बहन से बात की?

Family Story: बहुत दिनों से नीमा से बात नहीं हो पा रही थी. जब भी फोन मिलाने की सोचती कोई न कोई काम आ जाता. नीमा मेरी छोटी बहन है और मेरी बहुत प्रिय है.

‘‘मौसी की चिंता न करो मां. वे अच्छीभली होंगी तभी उन का फोन नहीं आया. कोई दुखतकलीफ होती तो रोनाधोना कर ही लेतीं.’’

मानव ने हंस कर बात उड़ा दी तो मुझे जरा रुक कर उस का चेहरा देखना पड़ा. आजकल के बच्चे बड़े समझदार और जागरूक हो गए हैं, यह मैं समझती हूं और यह सत्य मुझे खुशी भी देता है. हमारा बचपन इतना चुस्त कहां था, जो किसी रिश्तेदार को 1-2 मुलाकातों में ही जांचपरख जाते. हम तो आसानी से बुद्धू बन जाते थे और फिर संयुक्त परिवारों में बच्चों का संपर्क ज्यादातर बच्चों के साथ ही रहता था. बड़े सदस्य आपस में क्या मनमुटाव या क्या मेलमिलाप कर के कैसेकैसे गृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं, हमें पता ही नहीं होता था. आजकल 4 सदस्यों के परिवार में किस के माथे पर कितने बल आए और किस ने किसे कितनी बार आंखें तरेर कर देखा बच्चों को सब समझ में आता है.

‘‘मैं ने कल मौसी को मौल में देखा था. शायद बैंक में जल्दी छुट्टी हो गई होगी. खूब सारी शौपिंग कर के लदीफंदी घूम रही थीं. उन की 2 सहयोगी भी साथ थीं.’’

‘‘तुम से बात हुई क्या?’’

‘‘नहीं. मैं तीसरे माले पर था और मौसी दूसरे माले पर.’’

‘‘कोई और भी तो हो सकती है? तुम ने ऊपर से नीचे कैसे देख लिया?’’

‘‘अरे, अंधा हूं क्या मैं जो ऊपर से नीचे दिखाई न दे? अच्छीखासी हंसतेबतियाते जा रही थीं… और आप जब भी फोन करती हैं रोनाधोना शुरू कर देती हैं कि मर गए, बरबाद हो गए. जो समय सुखी होगा उसे आप से कभी नहीं बांटती और जब जरा सी भी तकलीफ होगी तो उसे रोरो कर आप से कहेंगी. मौसी जैसे इनसान की क्या चिंता करनी… छोड़ो उन की चिंता. उन का फोन नहीं आया तो इस का मतलब है कि वे राजीखुशी ही होंगी.’’

मैं ने अपने बेटे को जरा सा झिड़क दिया और फिर बात टाल दी. मगर सच कहूं तो उस का कहना गलत भी नहीं था. सच ही समझा है उस ने अपनी मौसी को. अपनी जरा सी भी परेशानी पर हायतोबा मचा कर रोनाधोना उसे खूब सुहाता है. लेकिन बड़ी से बड़ी खुशी पचा जाना उस ने पता नहीं कहां से सीख लिया. कहती खुशी जाहिर नहीं करनी चाहिए नजर लग जाती है. किस की नजर लग जाती है? क्या हमारी? हम जो उस के शुभचिंतक हैं, हम जिन्हें अपनी परेशानी सुनासुना कर वह अपना मन हलका करती है, क्या हमारी नजर लगेगी उसे? अंधविश्वासी कहीं की. अभी पिछले हफ्ते ही तो बता रही थी कि मार्च महीने की वजह से हाथ बड़ा तंग है. कुछ रुपए चाहिए. मेरे पास कुछ जमाराशि है, जिसे मैं ने किसी आड़े वक्त के लिए सब से छिपा कर रखा है. उस में से कुछ रुपए उसे देने का मन बना भी लिया था. मैं जानती हूं रुपए शायद ही वापस आएं. यदि आएंगे भी तो किस्तों में और वे भी नीमा को जब सुविधा होगी तब. छोटी बहन है मेरी. मातापिता ने मरने से पहले समझाया था कि छोटी बहन को बेटी समझना. मुझ से 10 साल छोटी है. मैं उस की मां नहीं हूं, फिर भी कभीकभी मां बन कर उस की गलती पर परदा डाल देती हूं, जिस पर मेरे पति भी हंस पड़ते हैं और मेरा बेटा भी.

‘‘तुम बहुत भोली हो शुभा. अपनी बहन से प्यार करो, मगर उसे इतना स्वार्थी मत बनाओ कि उस का ही चरित्र उस के लिए मुश्किल हो जाए. मातापिता को भी अपनी संतान के चरित्रनिर्माण में सख्ती से काम लेना पड़ता है तो क्या वे उस के दुश्मन हो जाते हैं, जो तुम उस की गलती पर उसे राह नहीं दिखातीं?’’

‘‘मैं क्या राह दिखाऊं? पढ़ीलिखी है और बैंक में काम करती है. छोटी बच्ची नहीं है वह जो मैं उसे समझाऊं. सब का अपनाअपना स्वभाव होता है.’’

‘‘सब का अपनाअपना स्वभाव होता है तो फिर रहने दो न उसे उस के स्वभाव के साथ. गलती करती है तो उसे उस की जिम्मेदारी भी लेने दो. तुम तो उसे शह देती हो. यह मुझे बुरा लगता है.’’

मैं मानती हूं कि उमेश का खीजना सही है, मगर क्या करूं? मन का एक कोना बहन के लिए ममत्व से उबर ही नहीं पाता. मैं उसे बच्ची नहीं मानती. फिर भी बच्ची ही समझ कर उस की गलती ढकती रहती हूं. सोचा था क्व10-20 हजार उसे दे दूंगी. कह रही थी कि मार्च महीने में सारी की सारी तनख्वाह इनकम टैक्स में चली गई. घर का खर्च कैसे चलेगा? क्या वह इस सत्य से अवगत नहीं थी कि मार्च महीने में इनकम टैक्स कटता है? उस के लिए तैयारी क्या लोग पहले से नहीं करते हैं? पशुपक्षी भी अपनी जरूरत के लिए जुगाड़ करते हैं. तो क्या बरसात के मौसम के लिए छाते का इंतजाम नीमा के पड़ोसी या मित्र करेंगे? सिर मेरा है तो उस की सुरक्षा का प्रबंध भी मुझे ही करना चाहिए न. मैं हैरान हूं कि उस के पास तो घर खर्च के लिए भी पैसे नहीं थे और मानव ने बताया मौसी मौल में खरीदारी कर रही थीं. सामान से लदीफंदी घूम रही थीं तो शौपिंग के लिए पैसे कहां से आए?

सच कहते हैं उमेश कि कहीं मैं ही तो उसे नहीं बिगाड़ रही. उस के कान मरोड़ उसे उस की गलती का एहसास तो कराना ही चाहिए न. कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं, जिन के बिना गुजारा नहीं चलता. लेकिन वही हमें तकलीफ भी देते हैं. गले में स्थापित नासूर ऐसा ही तो होता है, जिसे काट कर फेंका नहीं जा सकता. उसी के साथ जीने की हमें आदत डालनी पड़ती है. निभातेनिभाते बस हम ही निभाते चलते जाते हैं और लेने वाले का मुंह सिरसा के मुंह जैसा खुलता ही जाता है.

40 की होने को आई नीमा. कब अपनी गलत आदतें छोड़ेगी? शायद कभी नहीं. मगर उस की वजह से अकसर मेरी अपनी गृहस्थी में कई बार अव्यवस्था आ जाती है. अकसर किसी के पैर पसारने की वजह से अगर मेरी भी चादर छोटी पड़ जाए तो कुसूर मेरा ही है. मैं ने अपनी चादर में उसे पैर पसारने ही क्यों दिए? मातापिता ही हैं जो औलाद के कान मरोड़ कर सही रास्ते पर लाने का दुस्साहस कर सकते हैं. वैसे तो एक उम्र के बाद सब की बुद्धि इतनी परिपक्व हो ही जाती है कि चाहे तो पिता का कहा भी न माने तो पिता कुछ नहीं कर सकता. मगर बच्चे के कान तक हाथ ले जाने का अधिकार उसे अवश्य होता है.

मैं ने शाम को कुछ सोचा और फिर नीमा के घर का रुख कर लिया. फोन कर के बताया नहीं कि मैं आ रही हूं. मानव कोचिंग क्लास जाता हुआ मुझे स्कूटर पर छोड़ता गया. नीमा तब स्तब्ध रह गई जब उस ने अपने फ्लैट का द्वार खोला.

‘‘दीदी, आप?’’

नीमा ने आगेपीछे ऐसे देखा जैसे उम्मीद से भी परे कुछ देख लिया.

‘‘दीदी आप? आप ने फोन भी नहीं किया?’’

‘‘बस सोचा तुझे हैरान कर दूं. अंदर तो आने दे… दरवाजे पर ही खड़ा कर दिया.’’

उसे एक तरफ हटा कर मैं अंदर चली आई. सामने उस का कोई सहयोगी था. मेज पर खानेपीने का सामान सजा था. होटल से मंगाया गया था. जिन डब्बों में आया था उन्हीं में खाया भी जा रहा था. पुरानी आदत है नीमा की, कभी प्लेट में सजा कर सलीके से मेज पर नहीं रखती. समोसेपकौड़े तो लिफाफे में ही पेश कर देती है. पेट में ही जाना है. क्यों बरतन जूठे किए जाएं? मुझे देख वह पुरुष सहसा असहज हो गया. सोचता होगा कैसी बदतमीज है नीमा की बहन एकाएक सिर पर चढ़ आई.

‘‘अपना घर है मेरा… फोन कर के आने की क्या तुक थी भला? बस बैठबैठे मन हुआ तो चली आई. क्यों तुम कहीं जाने वाली थी क्या?’’

मैं ने दोनों का चेहरा पढ़ा. पढ़ लिया मैं ने कुछ अनचाहा घट गया है उन के साथ.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए सोचा देख आऊं.’’

‘‘हां, विजय भी हालचाल पूछने ही आए हैं. ये मेरे सहयोगी हैं.’’

मेरे ही प्रश्न ने नीमा को राह दिखा दी. मैं ने तबीयत का पूछा तो उस ने झट से हालचाल पूछने के लिए आए सहयोगी की स्थिति साफ कर दी वरना झट से उसे कोई बहाना नहीं सूझ रहा था. मेरी बहन है नीमा. भला उसी के रंगढंग मैं नहीं पहचानूंगी? बचपन से उस की 1-1 हरकत मैं उस का चेहरा पढ़ कर ही भांप जाती हूं. 10 साल छोटी बहन मेरी बहुत लाडली है. 10 साल तक मेरे मातापिता मात्र एक ही संतान के साथ संतुष्ट थे. मैं ही अकेलेपन की वजह से बीमार रहने लगी थी. मौसी और बूआ सब की 2-2 संतानें थीं और मेरे घर में मैं अकेली. बड़ों में बैठती तो वे मुझे उठा देते कि चलो अंदर जा कर खेलो. क्या खेलो? किस के साथ खेलो? बेजान खिलौने और बेजान किताबें… किसी जानदार की दरकार होने लगी थी मुझे. मैं चिड़ीचिड़ी रहती थी, जिस का इलाज था भाई या बहन.

भाई या बहन आने वाला हुआ तो मातापिता ने मुझे समझाना शुरू कर दिया कि सारी जिम्मेदारी सिर्फ मेरी ही होगी. अपना सुखदुख भूल मैं नीमा के ही सुख में खो गई. 10 साल की उम्र से ही मुझ पर इतनी जिम्मेदारी आ गई कि अपनी हर इच्छा मुझे व्यर्थ लगती. ‘‘तुम उस की मां नहीं हो शुभा… जो उस के मातापिता थे वही तुम्हारे भी थे,’’ उमेश अकसर समझाते हैं मुझे.

अवचेतन में गहरी बैठा दी गई थी मातापिता द्वारा यह भावना कि नीमा उसी के लिए संसार में लाई गई है. मुझे याद है अगर हम सब खाना खा रहे होते और नीमा कपड़े गंदे कर देती तो रोटी छोड़ कर उस के कपड़े मां नहीं मैं बदलती थी. जबकि आज सोचती हूं क्या वह मेरा काम था? क्या यह मातापिता का फर्ज नहीं था? क्या बहन ला कर देना मेरे मातापिता का मुझ पर एहसान था? इतना ज्यादा कर्ज जिसे 40 साल से मैं उतारतेउतारते थक गई हूं और कर्ज है कि खत्म ही नहीं होता है.

‘‘आओ दीदी बैठो न,’’ अनमनी सी बोली नीमा.

मेरी नजर सोफे पर पड़े लिफाफों पर पड़ी. जहां से खरीदे गए थे उन पर उसी मौल का पता था जिस के बारे में मानव ने मुझे बताया था. कुछ खुले परिधान बिखरे पड़े थे आसपास. शायद नीमा उन्हें पहनपहन कर देख रही थी या फिर दिखा रही थी.

छटी इंद्री ने मुझे एक संकेत सा दिया… यह पुरुष नीमा की जिंदगी में क्या स्थान रखता है? क्या इसी को नीमा नए कपड़े पहनपहन कर दिखा रही थी.

‘‘क्या बुखार था तुम्हें? आजकल मौसम बदल रहा है… वायरल हो गया होगा,’’ कह मैं ने कपड़ों को धकेल कर एक तरफ किया.

उसी पल वह पुरुष उठ पड़ा, ‘‘अच्छा, मैं चलता हूं.’’

‘‘अरे बैठिए न… आप अपना खानापीना तो पूरा कीजिए. बैठो नीमा,’’ मेरा स्वर थोड़ा बदल गया होगा, जिस पर दोनों ने मुझे बड़ी गौर से देखा.

उस पुरुष ने कुछ नहीं कहा और फिर चला गया. नीमा भी अनमनी सी लगी मुझे.

‘‘बीमार थी तो यह फास्ट फूड क्यों खा रही हो तुम?’’ डब्बों में पड़े नूडल्स और मंचूरियन पर मेरी नजर पड़ी. उन डब्बों में 1 ही चम्मच रखा था. जाहिर है, दोनों 1 ही चम्मच से खा रहे थे.

‘‘कुछ काम था तुम से इसलिए फोन पर बात नहीं की… मुझे कुछ रुपए चाहिए थे… मानव की कोचिंग क्लास के लिए… तुम्हारी तरफ मेरे कुल मिला कर 40 हजार रुपए बनते हैं. तुम तो जानती हो मार्च का महीना है.’’ नीमा ने मुझे विचित्र सी नजरों से देखा जैसे मुझे पहली बार देख रही हो… चूंकि मैं ने कभी रुपए वापस नहीं मांगे थे, इसलिए उस ने भी कभी वापस करना जरूरी नहीं समझा. मैं बड़ी गौर से नीमा का चेहरा पढ़ रही थी. मैं उस की शाम बरबाद कर चुकी थी और संभवतया नैतिक पतन का सत्य भी मेरी समझ में आ गया था. अफसोस हो रहा है मुझे. एक ही मातापिता की संतान हैं हम दोनों बहनें और चरित्र इतना अलगअलग… एक ही घर की हवा और एक ही बरतन से खाया गया खाना खून में इतना अलगअलग प्रभाव कैसे छोड़ गया.

‘‘मेरे पास पैसे कहां…?’’ नीमा ने जरा सी जबान खोली.

‘‘क्यों? अकेली जान हो तुम. पति और बेटा अलग शहर में रहते हैं… उस पर तुम एक पैसा भी खर्च नहीं करती… कहां जाते हैं सारे पैसे?’’

नीमा अवाक थी. सदा उसी की पक्षधर उस की बहन आज कैसी जबान बोलने लगी. बोलना तो मैं सदा ही चाहती थी, मगर एक आवरण था झीना सा खुशफहमी का कि शायद वक्त रहते नीमा का दिमाग ठीक हो जाए. उस का परिवार और मेरा परिवार तो सदा ही उस के आचरण से नाराज था बस एक मैं ही उस के लिए डूबते को तिनके का सहारा जैसी थी और आज वह सहारा भी मैं ने छीन लिया.

‘‘पाईपाई कर जमा किए हैं मैं ने पैसे… मानव के दाखिले में कितना खर्चा होने वाला है, जानती हो न? मेरी मदद न करो, लेकिन मेरे रुपए लौटा दो. बस उन से मेरा काम हो जाएगा,’’ कह कर मैं उठ गई. काटो तो खून नहीं रहा नीमा में. मेरा व्यवहार भी कभी ऐसा होगा, उस ने सपने में भी नहीं सोचा होगा. उस की हसीन होती शाम का अंजाम ऐसा होगा, यह भी उस की कल्पना से परे था. कुछ उत्तर होता तो देती न. चुपचाप बैठ गई. उस के लिए मैं एक विशालकाय स्तंभ थी जिस की ओट में छिप वह अपने पति के सारे आक्षेप झुठला देती थी.

‘‘देखो न दीदी अजय कुछ समझते ही नहीं हैं…’’

अजय निरीह से रह जाते थे. नीमा की उचितअनुचित मांगों पर. नारी सम्मान की रक्षा पर बोलना तो आजकल फैशन बनता जा रहा है. लेकिन सोचती हूं जहां पुरुष नारी की वजह से पिस रहा है उस पर कोई कानून कोई सभा कब होगी? अपने मोह पर कभी जीत क्यों नहीं पाई मैं. कम से कम गलत को गलत कहना तो मेरा फर्ज था न, उस से परहेज क्यों रखा मैं ने? अफसोस हो रहा था मुझे. दम घुटने लगा मेरा नीमा के घर में… ऐसा लग रहा था कोई नकारात्मक किरण मेरे वजूद को भेद रही है. मातापिता की निशानी अपनी बहन के वजूद से मुझे ऐसी अनुभूति पहले कभी नहीं हुई. सच कहूं तो ऐसा लगता रहा मांपिताजी के रूप में नीमा ही है मेरी सब कुछ और शायद यही अनुभूति मेरा सब से बड़ा दोष रही. कब तक अपना दोष मैं न स्वीकारूं? नीमा की भलाई के लिए ही उस से हाथ खींचना चाहिए मुझे… तभी वह कुछ सही कर पाएगी…

‘‘दीदी बैठो न.’’

‘‘नहीं नीमा… मुझे देर हो रही है… बस इतना ही काम था,’’ कह नीमा का बढ़ा हाथ झटक मैं बाहर चली आई. गले तक आवेग था. रिकशे वाले को मुश्किल से अपना रास्ता समझा पाई. आंसू पोंछ मैं ने मुड़ कर देखा. पीछे कोई नहीं था, जो मुझे रोकता. मुझे खुशी भी हुई जो नीमा पीछे नहीं आई. बैठी सोच रही होगी कि यह दीदी ने कैसी मांग कर दी… पहले के दिए न लौटा पाए न सही कम से कम और तो नहीं मांगेगी न… एक भारी बोझ जैसे उतर गया कंधों पर से… मन और तन दोनों हलके हो गए. खुल कर सांस ली मैं ने कि शायद अब नीमा का कायापलट हो जाए.

Family Story: तालमेल – उनके बेटे-बहू में क्यों बदलाव आया?

Family Story, लेखक- सतीश सक्सेना

सुनयना का निधन 3 महीने पहले ही तो हुआ था. पत्नी का यूं अचानक चले जाना मेरे लिए बहुत घातक था. इस सदमे ने मेरे वजूद को तोड़ कर रख दिया था. मैं, मैं नहीं रहा था. मेरी स्थिति उस खंडहर मकान जैसी हो गई थी जो नींव से तो जुड़ा था पर मकान कहलाने लायक नहीं था. इन 3 महीनों में ही परिवार पर से मेरा दबदबा लगभग खत्म हो चला था. बहू स्नेहा, जो कभी मेरे पैरों की आहट से डरती और बचती फिरती थी, अब मुझ से जिरह करने लगी थी. बेटा प्रतीक मुझ से चेहरा उठा कर बात करने लगा था. दोनों पूरी तरह से गिरगिट की तरह रंग बदल चुके थे. आखिर क्यों? मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.

वैसे तो घर में सभी तरह के काम करने के लिए नौकर हैं पर अब मैं होलटाइमर हूं. चौबीस घंटे वाला खिदमतगार. झाड़ूपोंछा करने वाली सुबह 9 बजे आती है और अपना काम कर के 10 बजे तक चली जाती है. उस के कुछ देर बाद ही चौकाबरतन करने वाली आती है और पौन घंटे में काम खत्म कर के चली जाती है. कपड़े धोने के लिए अलग नौकरानी है और कार चलाने के लिए एक ड्राइवर भी है, लेकिन दिन में तो  24 घंटे होते हैं और 24 तरह के काम भी. सुनयना की मृत्यु के बाद से वे सभी काम मैं, 65 साल का बूढ़ा, संभालता हूं.

मैं ने बदलते हालात से समझौता कर लिया है. मेरा मानना है कि समझौता शब्द बहुत गुणकारी है. आप की सारी उलझनों को पल भर में सुलझा देता है. आप की जिंदगी में बड़े से बड़ा तूफान आ जाए, मुलायम घास की तरह झुक कर उसे गुजर जाने देना ठीक है. अकड़ू पेड़ तो टूट कर गिर जाते हैं.

पत्नी के निधन के कुछ दिन बाद प्रतीक गुस्से से भरा मेरे पास चला आया था. आते ही एक प्रश्न जड़ा था, ‘रात आप ने खाना क्यों नहीं खाया?’

मैं ने सहज भाव से कहा था, ‘कल हमारी शादी की वर्षगांठ थी, बेटे. तेरी मां की याद आ गई. फिर खाने का मन ही नहीं हुआ. रात तो मैं सो भी नहीं पाया.’

जब उसे एहसास हुआ कि मेरे भूखे सो जाने का कारण किसी प्रकार की नाराजगी नहीं थी तो नाटकीय अफसोस जताते हुए वह बोला, ‘ओह, मुझे याद ही नहीं रहा, बाबा. दरअसल, जिंदगी इतनी मशीनी हो गई है कि न दिन के गुजरने का एहसास होता है और न ही रात के. काम, काम और सिर्फ काम. आराम के पल, इन काम के पलों के बीच कहां खो जाते हैं, पता ही नहीं चलता? ऐसे में कोई क्याक्या याद रखे?’

प्रतीक चला गया था. और मैं सोचने लगा कि आज रिश्ते कितने संकुचित हो चले हैं. इस पीढ़ी के लोग यह तो याद रखते हैं कि पति का बर्थडे कब है? पत्नी का कब? बच्चों का कब? अपनी मैरिज ऐनीवरसरी कब है? पर हमारी पीढ़ी के बारे में कुछ याद नहीं रहता. यह कैसी विडंबना है? एक हमारा समय था. हम मातापिता को बेहिसाब सम्मान देते थे.  जबकि यह पीढ़ी तो मांबाप को नौकरों की तरह समझने में भी नहीं हिचकिचाती, सेवा करना तो दूर की बात है.

इस पीढ़ी की एक और खास आदत है, मातापिता का किया भूलने की. आज प्रतीक यह भी भूल चुका है कि उस की पढ़ाई के लिए हम ने यह घर कभी गिरवी रखा था. अपना भविष्य भुला कर उस का वर्तमान संवारा था. पता नहीं, इस पीढ़ी को अपने काम के सामने रिश्ते भी क्यों छोटे लगने लगते हैं? घर वालों से भी बातें करते समय शब्दों में व्यावसायिकता की बू आती है. पक्के पेशेवर हो चुके हैं. हमारी शादी की वर्षगांठ भूल जाने का बड़ा ही अच्छा बहाना बनाया था उस ने.

सुनयना की मृत्यु से पहले तक घर में, मेरा दबदबा हमेशा बना रहा. न प्रतीक ने कभी मुझ से आंखें मिला कर बात की और न ही स्नेहा ने कभी ऐसा व्यवहार किया, जिस से कि हमें ठेस पहुंचे. जीवन में हम ने मातापिता से यही सीखा था कि घर तो सभी बना लेते हैं. आदर्श घर भी बनाए जा सकते हैं, पर घर को प्यार भरा घर बनाना असंभव नहीं तो दूभर जरूर होता है.

ऐसा घर रिश्तों में प्यार व स्नेह की भावना से बनता है. प्यार केवल जोड़ता है, तोड़ता नहीं. उन की इस नसीहत को मैं ने घर की नींव में डाला था. यही कारण है कि मैं यह प्रयास करता रहता ताकि रिश्तों में कड़वाहट कभी न आए.

एक दिन शरीर की टूटन के कारण मैं देर तक सोता रह गया तो स्नेहा ने मुझे कमरे में आ कर जगाया. तेज आवाज में बोली, ‘बाबा, आप ने तो हद कर दी है. सुबह 10 बजे उठने की आदत बना डाली है. दिनभर हमारे पीछे आप सोते रहते हैं. मुफ्त का खाना खाते हैं. इस आलीशान घर में रहते हैं. आप को न पानी का बिल भरना पड़ता है और न ही लाइट का. सर्दी में हीटर और गरमी में एसी जैसी सुविधाएं तो हम ने जुटा ही रखी हैं तो क्या हम आप से यह उम्मीद भी न करें कि आप सुबह समय से उठ जाएं और घर संभालें? हम औफिस जा रहे हैं. घर में नौकर काम कर रहे हैं. उन्हें अकेला तो नहीं छोड़ा जा सकता. उठिए और घर का दरवाजा बंद कर लीजिए.’

स्नेहा मुझे नींद से झकझोर कर चली गई. मैं स्तब्ध था. सोच रहा था कि स्नेहा ने कितनी आसानी से मेरे एक दिन लेट उठने को, मेरी रोज की आदत में तबदील कर दिया था. शरीर की टूटन की परवा न करते हुए भी उठ कर दरवाजा बंद कर लिया था. कल प्रतीक ने भी ऐसा ही व्यवहार किया था. उस ने औफिस जाते समय मुझ से कहा था, ‘बाबा, आखिर इस तरह कब तक चलेगा? आप घर का जरा सा भी ध्यान नहीं रखते. घर से नौकर सामान चुराचुरा कर ले जाते हैं. रसोई से मसाले चोरी होते हैं. तेल, घी हर 15-20 दिन में खत्म हो जाते हैं. साबुन पता नहीं कहां जाते हैं. मेरा एक तौलिया और एक नीली शर्ट कितने दिनों से ढूंढ़े नहीं मिल रहे. स्नेहा की कई मैक्सियां और साडि़यां दिखाई नहीं देती हैं. घर में चोरियां न हों, आप को इस का खयाल तो रखना चाहिए. जरा इस तरफ भी अपना ध्यान लगाइए.’

मन ही मन मैं उबल कर रह गया. जी में आया कि मुंह पर कस कर एक थप्पड़ जड़ दूं. मुझे सिखाने चला है कि मैं क्या करूं, क्या न करूं? आज के बच्चे जब घर में भी प्रोफैशनल किस्म की बातें करते हैं तो मुझे गुस्सा कुछ ज्यादा ही आता है. चिढ़ होने लगती है. वैसे मैं समझ गया था कि उस ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया है? दिल्ली में विश्वासपात्र नौकर मिलना एक बड़ी समस्या है. बाहरी प्रदेशों से नौकरी की चाह लिए आए लोगों को बिना उन का आचरण और चरित्र जाने 24 घंटे घर में नहीं रखा जा सकता. पता नहीं वे कब कौन सा कांड कर बैठें या घर की बहुमूल्य संपत्ति ले कर चलते बनें. उन की इस जरूरत के लिए भला मुझ से अधिक लायक होलटाइमर नौकर और कौन हो सकता है?

बस, इसी क्षण मेरा मन घर से उचट गया. मुझे लगने लगा कि मेरी सल्तनत अब पूरी तरह से धराशायी हो गई है. परिवार में मेरी स्थिति शून्य हो गई है. घर में रोज बढ़ता तनाव मुझे पसंद नहीं था, इसलिए परेशानी मुझे अधिक थी. बेटाबहू मिल कर मुझ पर प्रहार किए जा रहे थे. परिवार में एकदूसरे को प्रतिदिन सहना यदि दूभर होने लगे तो घर टूटने की संभावनाएं बढ़ ही जाती हैं. घर टूटे, मुझे यह मंजूर नहीं था, क्योंकि मैं समझता था कि घर तोड़ना बहुत आसान है, उसे जोड़े रखना बहुत कठिन.

सोचा, कैसे हाथों से फिसलती रेत को रोकूं? अपनी परेशानियों को घर की चारदीवारी से बाहर जाने से बचाऊं? वह भी ऐसे समय में जब परिवार के किनारे टूटते हुए लग रहे हैं? रिश्तों में दरार साफसाफ दिखाई दे रही है. घर के झगड़े और रिश्तों में मनमुटाव के किस्से यदि बाहर जाने लगें, तब कोई क्या कर पाएगा? जगहंसाई होगी. उसे न प्रतीक रोक पाएगा, न स्नेहा और न मैं. कपड़ा जरा सा फटा हो तो उस में से थोड़ा ही दिखाई देता है, यदि पूरा का पूरा फट जाए तो कोई क्या छिपा पाएगा?

मन हुआ था कि शांति से जीने के लिए इस जलालतभरी जिंदगी से हमेशाहमेशा के लिए दूर हो जाऊं. घर बेच कर, इन्हें बेघर कर दूं और वृद्धाश्रम चला जाऊं. तब न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी. इन रिश्तों के लिए मैं मर जाऊंगा. फिर स्नेहा किसे अपना क्रोध दिखाएगी? प्रतीक किस से यह कहेगा कि जरा इस तरफ भी अपना ध्यान लगाइए?

वृद्धाश्रम के हाल ही कौन से अच्छे होते हैं. वहां अजीब तरह की छीछालेदर होती है. संचालक से ले कर इनमेट तक आप को नोंचने लगते हैं. प्रश्न पर प्रश्न. क्या हुआ? बच्चों ने निकाल दिया? बच्चे मारतेपीटते थे? कोई बीमारी है? दवादारू नहीं करते थे? खाना नहीं देते थे? भैया, अगर कुछ पैसों का जुगाड़ हो सके तो यहां से खिसक लो. किराए का मकान लो और अपनी मरजी की जिंदगी जिओ.  आश्रम नाम के सेवाधाम होते हैं, किसी जेल से कम नहीं हैं वे. मैं तो इन बेतुके प्रश्नों का उत्तर देतेदेते ही मर जाऊंगा.

दूसरे पल ही मेरी इस सोच को मन नकार गया. मेरे निश्चय की दृढ़ता तोड़ने लगा. मन ने मुझे समझाया कि यदि मैं ने ऐसा कदम उठाया तो स्नेहरूपी घर को बनाए रखने के सपने का क्या होगा? मैं अपने पैर पर आप ही कुल्हाड़ी नहीं मार लूंगा? मन ने यह भी समझाया कि एक क्षण तो मैं झगड़ों और मनमुटाव की बातों को घर से बाहर न जाने देने की बात सोचता हूं, फिर दूसरे ही पल वृद्धाश्रम जाने की बात करता हूं. यह विरोधाभास क्यों? क्या मेरे रिश्ते इस तरह हमेशा के लिए नहीं टूट जाएंगे?

हमारी पीढ़ी के लोग कहेंगे कि कैसे मतलबी होते हैं आज के बच्चे? जिन्होंने जरा से खर्च के बोझ की खातिर बूढ़े बाप को घर से निकाल दिया. इस पीढ़ी के बच्चे सोचेंगे कि घर आखिर घर होता है. उस में हमेशा कूड़ा जमा किए रखने की कोई जगह नहीं होती. प्रतीक और स्नेहा ने ठीक ही किया. कम से कम अब बूढ़े से कोई अटक तो नहीं रहेगी, और न रहेगी हर वक्त की चखचख. दोनों अब अपने तरीके से जी तो सकेंगे.

दोपहर को मेरे सोने का समय होता है. तब तक घर के सभी काम खत्म हो जाते हैं. खाना बनाने वाली मेरे लिए खाना बना कर जा चुकी होती है. उस के जाने के बाद मैं तसल्ली से खाना खाता हूं और खा कर सो जाता हूं. शाम को काम का सिलसिला 5 बजे से शुरू होता है. उस से कुछ पहले उठ कर मैं चाय पीता हूं और नौकरों के आने का इंतजार करने लगता हूं.

पर आज मुझे नींद ही नहीं आई. लाख चाहा कि प्रतीक और स्नेहा के किए बरताव को भूल जाऊं. घर जिस तरह चल रहा है, चलने दूं. पर अपनों के दिए घाव कुछ इतने गहरे होते हैं कि कभी सूखते ही नहीं. सोचने लगा कि सुनयना की मृत्यु के बाद से ही, ऐसा क्या हो गया कि बच्चे इतना अकड़ने लगे हैं? अभद्र व्यवहार करने का दुस्साहस करने लगे हैं.

मैं सोचने लगा कि बढ़ती हुई उम्र के साथ मेरी मजबूरियां बढ़ गई हैं. मैं अशक्त हो गया हूं. हाथपैर अब साथ नहीं देते. बीमारियों ने शरीर पर अपना कब्जा कर लिया है. एक जाती है तो दूसरी आती है. कुछ तो पक्का घर बना बैठी हैं. यदि डाक्टरों की बात मानूं तो जिंदगी एकचौथाई ही बची है. दिमाग दगा दे चुका है. क्या सही है और क्या गलत, समझ में ही नहीं आता. मन और मस्तिष्क के बीच उठापटक चलती रहती है. पूंजी के नाम पर अब केवल यह मकान ही है. बाकी जो थी वह सुनयना की बीमारी में खत्म हो गई. जराजरा सी जरूरतों के लिए मुझे इन बच्चों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. शायद ये मजबूरियां ही इन की अकड़ और अभद्र व्यवहार का कारण हों? केवल मेरी ही नहीं, इन की भी तो मजबूरियां हैं. दिल्ली में मकान खरीदना आसान बात नहीं है. मकानों की कीमतें दिनदूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही हैं. इस उम्र में महंगे मकान खरीदने का पैसा इन के पास नहीं है. ये इसीलिए इस घर में टिके हुए हैं, वरना कभी का मुझे अकेला छोड़ कर चले गए होते.

दूसरी मजबूरी यह है कि इन्हें एक होलटाइमर नौकर नहीं मिल रहा है. निश्चित रूप से इन का यह व्यवहार इसी कारण है. मन ने कहा, ‘मैं मजबूर जरूर हूं, पर इतना लाचार भी नहीं कि अपने स्वाभिमान की चिता जला दूं. अब मैं किसी हालत में इन से समझौता नहीं करूंगा. मैं ने निश्चय कर लिया कि मकान बेच दूंगा और किराए के मकान में रह कर जिंदगी गुजार दूंगा.’

शाम को प्रतीक और स्नेहा के घर लौटने से पहले प्रौपर्टी ब्रोकर आ गया. मकान देख कर दूसरे दिन खरीदार लाने का वादा कर के चला गया. जब प्रतीक और स्नेहा घर लौटे तो रोजमर्रा की तरह मैं ने ही दरवाजा खोला. मैं उन से सख्त नाराज था. मैं ने उन की तरफ देखा भी नहीं. दरवाजा खोल कर अपने कमरे में चला गया. वे दोनों भी अपने कमरे में चले गए. सोते वक्त जी बहुत हलकाहलका लगा. तनाव भी कम हो गया था.

बडे़ सवेरे ब्रोकर खरीदार ले कर आ गया. उस समय प्रतीक और स्नेहा दोनों ही घर में थे. इस से पहले कि मैं ब्रोकर से कुछ बात कर पाऊं, प्रतीक ब्रोकर से बोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘ये सज्जन इस मकान को खरीदना चाहते हैं,’’ ब्रोकर ने अपने साथ आए खरीदार की ओर इशारा करते हुए कहा.

अब इस से पहले कि प्रतीक कुछ और पूछ पाए, मैं बोल उठा, ‘‘मैं यह मकान बेच रहा हूं.’’

‘‘आप मकान बेच रहे हैं, क्यों?’’ प्रतीक मेरे इस फैसले पर अचंभित दिखा.

‘‘मेरी मरजी.’’

‘‘यह मकान नहीं बिकेगा. यह मैं कह रहा हूं,’’ प्रतीक ने अब ब्रोकर की तरफ मुड़ कर कहा, ‘‘आप जाइए, प्लीज. बाबा ने यह फैसला जरा जल्दी में ले लिया है. अगर हम पक्का निर्णय ले सके तो मैं खुद आप को फोन कर के बुला लूंगा.’’

ब्रोकर और परचेजर दोनों लौट गए. मेरे क्रोध की सीमा टूटने वाली ही थी कि प्रतीक मुझ से बोला, ‘‘यह आप क्या करने जा रहे थे, बाबा? अपना प्यारा सा घर बेच रहे थे? आखिर क्यों?’’

‘‘ताकि मैं तुम लोगों के अत्याचार से छुटकारा पा सकूं. जीवन के जो आखिरी दिन बचे हैं, उन्हें चैन से जी सकूं. मुझे नौकर बना कर छोड़ दिया है तुम दोनों ने. बच्चे मुझे अपमानित करें, यह मैं कभी बरदाश्त नहीं कर सकता,’’ मैं आवेश में कांपने लगा था.

प्रतीक मुझे बांहों से थामते हुए बोला, ‘‘बाबा, मैं आप के आक्रोश का कारण समझ गया हूं. आप पहले बैठिए.’’

मुझे कुरसी पर बिठाने के बाद वह और स्नेहा फर्श पर मेरे समीप ही बैठ गए. प्रतीक ने मेरा हाथ अपने हाथों में लेते हुए बोलना शुरू किया, ‘‘आप स्नेहा और मेरे व्यवहार से नाराज हैं, मैं समझ चुका हूं. हम भी पश्चात्ताप में जल रहे हैं, यह हमारा सच है. हम आप से इस व्यवहार के लिए क्षमा मांगना चाहते थे, पर आप के खौफ के कारण हम आप का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. हमारे ही व्यवहार के कारण यह घर बिखर जाएगा. बाबा, हम उन बच्चों में से नहीं हैं जो घर में अपने बुजुर्गों की अहमियत नहीं समझते. दरअसल, दिनभर की भागमभाग और काम की टैंशन हमें इतना चिड़चिड़ा कर देती है कि हम कभीकभी यह भूल जाते हैं कि हम किस से बातें कर रहे हैं और क्या बातें कर रहे हैं.’’

प्रतीक की इन बातों से मेरा क्रोध कुछ शांत हुआ. मैं ने प्रतीक और स्नेहा के चेहरों को पढ़ा. वास्तव में पश्चात्ताप उन के चेहरों पर डोल रहा था. संवेदनाओं के बादल उमड़घुमड़ रहे थे. किसी भी समय आंसुओं की बारिश संभव थी.

प्रतीक ने अपनी बात आगे बढ़ाई, ‘‘बाबा, पहले तो आप यह समझ लीजिए कि आप हम पर बोझ नहीं हैं. आप मजबूर भी नहीं हैं और यह भी कि हम भविष्य में आप को अकेला छोड़ कर कहीं जाने वाले नहीं हैं. घर में आप का स्थान नौकरों का भी नहीं है. आप जरा मेरे साथ हमारे कमरे में चलिए. वहां मंदिर को देखिए और खुद तय कर लीजिए कि हमारे दिल में आप का स्थान कहां है? सोचिए, यदि घर में 3 प्राणी हों और उन में से 2 सुबह से रात तक घर से बाहर रहते हों तो पीछे से घर कौन संभालेगा? वही जो घर में रहता हो.’’

प्रतीक ने लंबी सांस ली. भर आई आंखों को अपने रूमाल से पोंछा. स्नेहा ने भी अपनी आंखें पोंछी. प्रतीक फिर बोल उठा, ‘‘होता यह है कि जीवन की मुख्यधारा से अलगथलग पड़ते बुजुर्ग अपनेआप को असुरक्षित महसूस करने लगते हैं. इंसीक्योरिटी की यह भावना उन में डर और शंकाओं को जन्म देती है. वे हर वक्त यही सोचते रहते हैं कि उन के इस बुरे वक्त में उन का सहारा कौन बनेगा? बच्चे उन की आंखों से दूर हो जाएं तो लगता है कि बच्चों को भी उन की परवा नहीं है. यह इंसिक्योरिटी की भावना फिर उन्हें सही सोचने ही नहीं देती.

‘‘हमारी पीढ़ी भी बाबा, बुजुर्गों के प्रति कुछ कम लापरवाह नहीं है. हम खुली जिंदगी जीना चाहते हैं. कोई रोकटोक और अनुशासन हमें पसंद नहीं. जब हम घर से बाहर होते हैं, खुले आकाश में आजाद पंछियों की तरह उड़ते हैं. जो जी चाहे करते हैं और जब घर में घुसते हैं तो हमारी आजादी के पंख कट जाते हैं. हम घर में फड़फड़ाते रहते हैं. बुजुर्गों का दबदबा, खौफ और घर का अनुशासन घुटन पैदा करने लगता है. तब हमारा भी मन करता है कि इस घुटनभरी जिंदगी से दूर भाग जाएं. ऐसे में दोनों पीढि़यों के बीच सामंजस्य नहीं बन पाता. दोनों पीढि़यां ही मानने लगती हैं कि घर में यदि सासबहू हैं, तो झगड़ा तो होगा ही. बुजुर्ग और युवा साथसाथ रहते हैं, तो टकराव तो होगा ही.’’

मैं प्रतीक को एकटक देखता ही चला गया. सोचने लगा, मेरा छोटा सा बच्चा इतना विद्वान कब हो गया, मुझे पता ही नहीं चल पाया. कितनी नजदीकी से इस ने जिंदगी को पढ़ा है. मुझे मेरे सोच गड़बड़ाते हुए लगने लगे. प्रतीत हुआ कि शायद मैं ही गलत था.

प्रतीक फिर बोल उठा, ‘‘बाबा, आप ने हमें सिखाया था कि घर तो सभी बना लेते हैं. आदर्श घर भी बनाए जा सकते हैं पर घर को प्यार भरा घर बनाना असंभव नहीं तो दूभर तो होता ही है. ऐसा घर रिश्तों में प्यार व स्नेह की भावना से बनता है. जो रिश्ता टूट जाए, समझ लो वहां प्यार था ही नहीं. बड़ा होतेहोते इस सीख का सही अर्थ मैं समझ गया हूं. यदि मैं गलत नहीं हूं तो घर सिर्फ ईंटगारे का बना होता है.

‘‘आदर्श घर वह होता है जहां रिश्ते एकदूसरे का आदर करते हैं. वहां ससुर ससुर होते हैं, सास सास और बहू बहू. उन में आदर तो होता है, प्यार नहीं. और घर वही मधुवन बन पाता है जहां रिश्तों में प्यार होता है. वहां न ससुर होते हैं, न सास और न बहू. तीनों के बीच आदर से अधिक एकदूसरे के लिए प्यार होता है.’’

उस ने मुझे देखा, शायद मेरे चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ने के लिए. फिर बोला, ‘‘बाबा, हम इस घर को केवल आदर्श घर ही बना सके, महकतागमकता उपवन नहीं. यह घर आज तक आप के खौफ में जिया है. हम डरतेडरते जीते रहे हैं. रिश्तों में प्यार था कहां? सिर्फ खौफ था. घर में घुसने की इच्छा नहीं होती थी. लगता था कि हम जेल में घुस रहे हैं. आज भी हमारे संबंधों में वह खुलापन है कहां? हम जो खुली जिंदगी जीना चाहते हैं, वह है कहां?’’

‘‘बस बेटे, बस…’’ मैं ने उठ कर दोनों बच्चों को गले लगा लिया और कहा, ‘‘घर में गलत मैं ही था. जो सीख मैं तुम लोगों को देता रहा, मैं ने खुद उस पर अमल नहीं किया. अभी इसी वक्त मैं ने अपने खौफ का गला घोंट दिया है. अब हम तीनों आपस में मित्र हैं. ससुर, बेटा या बहू नहीं.’’

दोनों बच्चे मुझ से लिपटलिपट कर रोने लगे. मेरी आंखें भी बिना बहे न रह पाईं. अब मैं ने अपना कमरा, जो घर के मुख्यद्वार के पास था, उन्हें दे कर खुद को घर के पिछवाड़े में शिफ्ट कर लिया है ताकि बच्चे अपनी खुली जिंदगी जी सकें. मुख्यद्वार पर लगी अपनी नेमप्लेट हटा कर प्रतीक के नाम की लगवा दी है. अब हम तीनों जब साथ बैठते हैं तो हंसीठट्ठे ही सुनाई देते हैं.

अब घर से बाहर जो भी बुजुर्ग या युवा मुझ से मिलते हैं, मैं सभी से कहता हूं कि यदि घर को घर बनाए रखना है तो बुजुर्ग अपना रौबदाब छोड़ें, बच्चों को खुली जिंदगी दें और बच्चे अपने बुजुर्गों को कूड़ा न समझें, उन का खयाल रखें. विचारों का यह तालमेल घर में प्यार ही प्यार भर देगा. वह प्यार जो सब को आपस में जोड़ता है, एकदूसरे से तोड़ता नहीं.

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