एक रिश्ता किताब का: भाग 3

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जैसा मैं था वैसा ही सोमेश को भी बनाता गया…बेहद जिद्दी और सब पर अपना ही अधिकार समझने वाला…ऐसा इनसान जीवन में कभी सफल नहीं होता बेटी. न मेरी शादी सफल हुई न मेरी परवरिश. न मैं अच्छा पति बना न अच्छा पिता. अच्छा किया जो तुम ने शादी से मना कर दिया. कम से कम तुम्हारे इनकार से मेरी इस जिद पर एक पूर्णविराम तो लगा.’’

निरंतर रो रहे थे जगदीश चाचा. पापा भी रो रहे थे. शायद हम सब भी. इस कथा का अंत इस तरह होगा किस ने सोचा था. जगदीश चाचा सब रिश्तों को खो कर इतना तो समझ ही गए थे कि अकेला इनसान कितना असहाय, कितना असुरक्षित होता है. सब गंवा कर दोस्ती का रिश्ता बचाना सीख लिया यही बहुत था, एक शुरुआत की न जगदीश चाचा ने. पापा ने माफ कर दिया जगदीश चाचा को. सिर से भारी बोझ हट गया, एक रिश्ता तोड़ एक रिश्ता बचा लिया, सौदा महंगा नहीं रहा.

तूफान के बाद की शांति घर भर में पैर पसारे थी. दोपहर का समय था जब मेरे एक सहयोगी ने दरवाजा खटखटाया. कंधे पर बैग और हाथ में शादी का तोहफा लिए मामा ने उन्हें अंदर बिठाया. मैं मिलने गई तो विजय को देख कर सहसा हैरान हो गई.

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‘‘अरे, शादी वाला घर नहीं लग रहा आप का…आप भी मेहंदी से लिपीपुती नहीं हैं…पंजाबी दुलहन के हाथ में तो लंबेलंबे कलीरे होते हैं न. मुझे तो लगा था कि पहुंच ही नहीं पाऊंगा. सीधा स्टेशन से आ रहा हूं. आप पहले यह तोहफा ले लीजिए. अभी फुरसत है न. रात को तो आप बहुत व्यस्त होंगी. जरा खोल कर देखिए न, आप की पसंद का है कुछ.’’

एक ही सांस में विजय सब कह गए. उन के चेहरे पर मंदमंद मुसकान थी, जो सदा ही रहती है. आफिस के काम से उन को मद्रास में नियुक्त किया गया था. अच्छे इनसान हैं. मेरी शादी के लिए ही इतनी दूर से आए थे. आसपास भी देख रहे थे.

‘‘क्या बात है शुभाजी, घर में शादी की चहलपहल नहीं है. क्या शादी का प्रबंध कहीं और किया गया है? आप जरा खोल कर देखिए न इसे…माफ कीजिएगा, मुझे रात ही वापस लौटना होगा. आप को तो पता है कि छुट्टी मिलना कितना मुश्किल है…मैं तो किसी तरह जरा सा समय खींच पाया हूं. आप को दुलहन के रूप में देखना चाहता था. आप के हाथों में वह सब कैसा लगता वह सब देखने का लोभ मैं छोड़ ही नहीं पाया.’’

विजय के शब्दों की बेलगाम दौड़ कभी मेरे हाथ में दिए गए तोहफे पर रुकती और कभी आसपास के चुप माहौल पर. इतनी दूर से मुझे बस दुलहन के रूप में देखने आए थे. चाहते थे तोहफा अभी खोल कर देख लूं.

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‘‘आप बहुत अच्छी हैं शुभाजी, सोेमेशजी बहुत किस्मत वाले हैं जो आप उन्हें मिलने वाली हैं. आप सदा सुखी रहें. मेरी यह दिली ख्वाहिश है.’’

सहसा उन का हाथ मेरे सिर पर आया. सिहर गया था मेरा पूरा का पूरा अस्तित्व. नजरें उठा कर देखा कुछ तैर रहा था आंखों में.

‘‘क्या बात है, शुभाजी, सब ठीक तो है न…घबराहट हो रही है क्या?’’

क्या कहूं मैं सोेमेश के बारे में, और विजय को भी क्या समझूं. विजय तो आज भी वहीं खड़े हैं जहां तब खड़े थे जब मेरी सोमेश के साथ सगाई हुई थी. एक मीठा सा भाव रहता था सदा विजय की आंखों में. कुछ छू जाता था मुझे. इस से पहले मैं कुछ समझ पाती सोमेश से मेरी सगाई हो गई और जितना समय सगाई को हुआ उतने ही समय से विजय की नियुक्ति भी मद्रास में है, जिस वजह से यह प्रकरण पुन: कभी उठा ही नहीं था. भूल ही गई थी मैं विजय को.

तभी पापा भीतर चले आए और मैं तोहफा वहीं मेज पर टिका कर भीतर चली आई. अपने कमरे में दुबक सुबक- सुबक कर रो पड़ी. जाहिर सा था पापा ने सारी की सारी कहानी विजय को सुना दी होगी. कुछ समय बीत गया…फिर ऐसा लगा बहुत पास आ कर बैठ गया है कोई. कान में एक मीठा सा स्वर भी पड़ा, ‘‘आप ने अभी तक मेरा तोहफा खोल कर नहीं देखा शुभाजी. जरा देखिए तो, क्या यह वही किताब है जिसे सोमेश ने जला दिया था…देखिए न शुभाजी, क्या इसी किताब को आप पिछले साल भर से ढूंढ़ रही थीं. देखिए तो…

‘‘शुभा, आप मेरी बात सुन रही हैं न. जो हो गया उसे तो होना ही था क्योंकि सोमेश इतनी अच्छी तकदीर का मालिक नहीं था और जिस रिश्ते की शुरुआत ही धोखे और खराब नीयत से हो उस का अंत कैसा होता है. सभी जानते हैं न. आप कमरे में दुबक कर क्यों रो रही हैं. आप ने तो किसी को धोखा नहीं दिया, तो फिर दुखी होने की क्या जरूरत. इधर देखिए न…’’

मेरा हाथ जबरदस्ती अपनी तरफ खींचा विजय ने. स्तब्ध थी मैं कि इतना अधिकार विजय को किस ने दिया? दोनों हाथों से मेरा चेहरा सामने कर आंसू पोंछे.

‘‘इतनी दूर से मैं आप के आंसू देखने तो नहीं आया था. आप बहुत अच्छी लगती थीं मुझे…अच्छे लोग सदा मन के किसी न किसी कोने में छिपे रहते हैं न. यह अलग बात है कि आप ने मन का कोई कोना नहीं पूरा मन ही बांध रखा था… आप का हाथ मांगना चाहता था. जरा सी देर हो गई थी मुझ से. आप की सगाई हो गई और मैं जानबूझ कर आप से दूर चला गया. सदा आप का सुख मांगा है…प्रकृति से यही मांगता रहा कि आप को कभी गरम हवा छू भी न जाए.

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‘‘आप की एक नन्ही सी इच्छा का पता चला था.

‘‘याद है एक शाम आप बुक शाप में यह किताब ढूंढ़ती मिल गई थीं. आप से पता चला था कि आप इसे लंबे समय से ढूंढ़ रही हैं. मैं ने भी इसे मद्रास में ढूंढ़ा… मिल गई मुझे. सोचा शादी में इस से अच्छा तोहफा और क्या होगा…इसे पा कर आप के चेहरे पर जो चमक आएगी उसी में मैं भी सुखी हो लूंगा इसीलिए तो बारबार इसे खोल कर देख लेने की जल्दी मचा रहा था मैं.’’

पहली बार नजरें मिलाने की हिम्मत की मैं ने. आकंठ डूब गई मैं विजय के शब्दों में. मेरी नन्ही सी इच्छा का इतना सम्मान किया विजय ने और इसी इच्छा का दाहसंस्कार सोमेश के पागलपन को दर्शा गया जिस पर इतना बड़ा झूठ तारतार कर बिखर गया.

‘‘आप को दुलहन के रूप में देखना चाहता था, तभी तो इतनी दूर से आया हूं. आज का दिन आप की शादी का दिन है न. तो शादी हो जानी चाहिए. आप के पापा और मां ने पूछने को भेजा है. क्या आप मेरा हाथ पकड़ना पसंद करेंगी?’’

क्या कहती मैं? विजय ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. झट से एक प्रगाढ़ चुंबन मेरे गाल पर जड़ा और सर थपक दिया. शायद कुछ था जो सदा से हमें जोड़े था. बिना कुछ कहे बिना कुछ सुने. कुछ ऐसा जिसे सोमेश के साथ कभी महसूस नहीं किया था.

विजय बाहर चले गए. पापा और मां से क्याक्या बातें करते रहे मैं ने सुना नहीं. ऐसा लगा एक सुरक्षा कवच घिर आया है आसपास. मेरी एक नन्ही सी इच्छा मेरी वह प्रिय किताब मेरे हाथों में चली आई. समझ नहीं पा रही हूं कैसे सोमेश का धन्यवाद करूं?

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कबीर सिंह को फौलो कर किया ये अपराध, पढ़ें खबर

वैसे तो लोग फिल्में देखकर बहुत कुछ सीखते हैं.  कुछ रोमांस सिखते हैं तो कुछ अच्छे काम, कोई नई टेक्निक सीखता है तो कोई कुछ, लेकिन गलत काम करना भी लोग सीखना बहुत ही बहादुरी का काम समझते हैं. इससे कारण अपराध ने भी जन्म लिया है और अब तो अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं. जैसा कि आपने देखा होगा कि कुछ समय पहले टिक-टौक को बैन करने की बात चल रही थी क्योंकि उसके चलते अपराध भी बढ़ रहे थे और लोग अपनी जान तक जोखिम डाल रहे थें. बल्कि कई जाने तो जा भी चुकी हैं. भला ऐसी भी क्या दिवानगी जो किसी की जान ले ले.

लेकिन भाई अब उनको कौन समझाए जो जानबूझ कर पागल होना चाहते हैं. अभी हाल ही में कबीर सिंह फिल्म रिलीज हुई. जो लोगों को काफी पसंद भी आई. हालांकि कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया था क्योंकि इसमें कबीर सिंह को कुछ ज्यादा एल्कोहौलिक दिखाया गया है. प्यार में पागल होकर कबीर सिंह यानी की शाहिद कपूर फिल्म में खूब नशा करते हैं और साथ ही लड़की की फैमिली की इज्जत भी नहीं करते उनकी थोड़ी सी बात पर उन्हें बुरा भला कहते हैं जिसके कारण लड़की की फैमिली और भी ज्यादा नापसंद करती है लड़के को.

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उसी करैक्टर से इंप्रेस होकर एक टिक-टौक फेम स्टार है जिसका नाम है अश्विनी कुमार. अश्विनी टिक-टौक पर जानी दादा के रूप में फेमस है और उनकी छवी भी टिक-टौक पर गुस्सैल इंसान की ही है और ये उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं.

अश्विनी पर कत्ल का इल्जाम लगा है. दरअसल अश्विनी कबीर सिंह से काफी प्रभावित हुए. इतना ज्यादा की जिस लड़की को वो पसंद करते थे उसे ही मार डाला. केवल इतना ही नहीं उसे मारने के बाद खुद भी सुसाइड कर लिया. बात ये थी कि वो लड़की जिससे वो पसंद करता था. उसकी शादी होने वाली थी दिसंबर में जिसकी खबर अश्विनी को लगते ही उससे बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने ये अपराध कर डाला. लड़की की पहचान निकिता शर्मा के रूप में हुई है.

इसी साल दिसंबर में शादी होने वाली थी. लेकिन शायद उसकी किस्मत में ये था ही नहीं. बौलीवुड में ऐसी कई फिल्मे बनी है जिससे कुछ लोग कुछ ज्यादा ही प्रभावित हो जाते हैं. लेकिन ये प्रभाव अगर पौजिटिव हो तो ठीक भी है लेकिन जब यह प्रभाव नेगेटिव हो तो यही होता है टिक- टौक स्टार अश्विनी ने किया.

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अब आप ही सोचिए भला ऐसी फिल्म को फौलो करके लोग अपनी जिंदगी को क्यों बर्बाद करते हैं. लेकिन हां यहां पर एक सीख जरूर मिलती है कि कभी भी गलत चीजों को फौलो करके गलत काम न करें. यहां पर माता-पिता को भी ये ध्यान देना चाहिए कि कहीं आपका बच्चा कुछ गलत तो फौलो नहीं कर रहा है. अगर वो बचपन से ही गलत चीजों से दूर रहेगा तो जाहिर है युवावस्था में भी वो कुछ गलत नहीं करेगा.

तो इस खबर से एक अभिभावक को भी ये सीख मिलती है कि वो अपने बच्चों पर ध्यान दें. आजकल के जितने भी युवा हैं उनको भी ये सीखना चाहिए की हमें क्या फौलों करना है और क्या नहीं. क्योंकि इस तरह की पागलपन वाली हरकतें आजकल के युवा ही सबसे ज्यादा करते हैं. इसका उदाहरण आप टिक-टौक से ले सकते हैं जिसपर हाल ही में केस भी चल रहा था जिसका कारण कुछ ऐसे ही पागलपन थे, जो युवा टिक-टौक पर कर रहें थें.

कहानी सौजन्य-मनोहर कहानियां

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इंडियन आइडल 11 के सेट पर फिर रो पड़ीं नेहा कक्कड़, लोगों ने ऐसे उड़ाया मजाक

सोनी टी.वी. का सबसे चहीता सिंगिग शो इंडियन आइडल सीजन 11 की शुरूआत हो चुकी है. जब से इंडियन आइडल सीजन 11 शुरू हुआ है तब से ये शो विवादों से घिरा हुआ है. बीते दिनों इंडियन आइडल के सेट की एक वीडियो काफी तेजी से वायरल होती दिखाई दी जीसमें एक कंटेस्टेंट ने नेहा कक्कड़ के गालों पर किस कर रहा था. यह वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ और हर कोई इस वीडियो को देखकर हैरान था कि कैसे कोई अंजान लड़का नेहा कक्कड़ को ऐसे किस कर सकता है. जहां एक तरफ इस वीडियो को देख लोग हैरान थे तो वहीं दूसरी तरफ कुछ लोगों का ये भी कहना था कि यह सब सिर्फ एक पब्लिसिटी स्टंट है जिससे की शो की टीआरपी बढ़ सके.

सिंगिंग सेंसेशन नेहा कक्कड़ हुईं इमोशनल…

जैसा कि आप सब जानते हैं सिंगिंग सेंसेशन नेहा कक्कड़ काफी नरम स्वभाव की हैं और वे बात बात पर रो पड़ती हैं. उनका ये बार बार रोना उनके लिए काफी मुश्किलें खड़ी कर देता है. आज कल सोशल मीडिया का जमाना है और नेहा को बार बार रोता देख लोग उनको लेकर काफी फनी मीम्स बनाने लग जाते हैं. एक बार फिर एक कंटेंस्टेंट नेहा को अपनी बातों से रुलाते दिखाई दिए.

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अभिलाष की इन बातों ने रुलाया नेहा को…

जी हा, इंडियन आइडल सीजन 11 के बीते एपिसोड में कंटेस्टेंट अभिलाष ने अपनी आपबीती जजेस को सुनाई थी कि किस तरह उनका चेहरा जल गया और इतनी तकलीफ उठाने के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानीं और इंडियन आइडल में हिस्सा लेने का तय किया. अभिलाष की ये बात सुन नेहा काफी इमोशनल हो गईं और वे अपने आंसू ना रोक पाईं.

जैसे ही लोगों ने यह एपिसोड देखा, उसी समय सब नेहा को ट्रोल करने लग गए और उन पर खूब सारे फनी मीम्स बनाए. चलिए दिखाते हैं आपको फैंस द्वारा बनाए गए नेहा के फनी मीम्स.

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4 साल तक डिप्रेशन में थीं TV की ये हौट एक्ट्रेस, करना चाहती थीं सुसाइड

अभिनय का पेश इस कदर असुरक्षा वाला है कि हर कलाकार खुद को सफल बनाने के लिए निरंतर संघर्ष करता रहता है. एक फिल्म की सफलता के बाद भी अगली फिल्म की सफलता की कोई गारंटी नही होती. परिणामतः कलाकार अपनी निजी जिंदगी और करियर के बीच सामंजस्य बैठाने के चक्कर में न सिर्फ बीमार पड़ते हैं, बल्कि डिप्रेशन का भी शिकार होेते रहते हैं. दीपिका पादुकोण सहित कई अभिनेत्रियां डिप्रेशन का शिकार हो चुकी हैं. उन्ही में से एक हैं चर्चित फिल्म व टीवी अदाकारा शमा सिकंदर.

जो कि डिप्रेशन के ही चलते चार पांच वर्ष तक अभिनय व अपने दोस्तों से भी दूर रहीं. मगर वह डिप्रेशन से छुटकारा पाने में सफल हुईं,और नए सिरे से अपने अभिनय करियर को संवारने के साथ ही निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख चुकी हैं. इन दिनों वह एक नवंबर को प्रदर्षित होने जा रही नमन नितिन मुकेश की रहस्य व रोमांच से भरपूर फिल्म ‘बाय पास रोड’’ को लेकर चर्चा में हैं. इस फिल्म में शमा सिकंदर के साथ नील नितिन मुकेश, अदा शर्मा, रजित कपूर, सुधांषु पांडे व गुल पनाग जैसे कलाकार हैं.

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हाल ही में जब फिल्म ‘‘बाय पास रोड’’ के प्रमोशन के दौरान शमा सिकंदर से एक्सक्लूसिब मुलाकात हुई, तो शमा सिकंदर से उनके डिप्रेशन में जाने की वजहें और उससे उबरने को लेकर लंबी बातचीत हुई.

इन दिनों अभिनेत्रियों के डिप्रेशन में जाने की काफी खबरें आ रही हैं. बीच में चार साल तक आप भी डिप्रेशन की शिकार रहीं. ऐसा क्या हो गया था कि आप डिप्रेशन में चली गयी थी?

– किसी भी इंसान के डिप्रेशन में जाने की तमाम वजहें होती हैं. कैरियर व जिंदगी के उतार चढ़ाव अथवा छोटी उम्र में हुआ कोई ट्रोमा, जो कि दिमाग में बस जाते हैं. जब आप दो वर्ष या चार वर्ष या सात वर्ष के बच्चे होते हैं. उस वक्त आपका दिमाग विकसित हो रहा होता है. एक कच्ची मिट्टी की तरह, जिसमें कोई भी इंप्रेशन जमकर बैठ जाता है, तो उसको बदलने के लिए बहुत समय चाहिए होता है.

पहली बात तो यह होती है कि पता चलना चाहिए कि बदलना क्या है? इस बात को समझने में ही इंसान की आधी उम्र निकल जाती है. इस मामले में मैं लकी थी. मैं जान गई थी कि मुझे बदलने की जरूरत है. डिप्रेशन इसीलिए होता है कि वह आपको याद दिला रहा होता है कि आपकी क्षमता क्या है और आप बन क्या गए हो.

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दिमाग कहता है कि मेरा पोटेंशियल मुझे दे दो. मैं इस चीज को डिजर्व करता हूं. तो डिप्रेशन की मूल वजह यही होती है. बचपन के सारे ड्रामे आज जब आपको हिट करने लगते हैं, तो आप डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं. क्योंकि आपकी जिंदगी में बहुत कुछ चलता रहता है.

कुछ बताना चाहेंगी, क्या खास था?

– नहीं! ऐसा कुछ खास नहीं था. जब हुआ,उस वक्त सब कुछ अच्छा ही था. मैं तो शौक हो गई कि ऐसा क्यों हुआ? हमारी आदत यह है कि हम हमेशा टेंपरेरी/क्षणिक दुःख के कारण को ढूंढने में ही लगे रहते हैं. जो दुःख लंबे समय से चला आ रहा है, उसे हम भूल जाते हैं. वह पीछे रह जाता है. यह डिप्रेशन लंबे समय से चले आ रहे दुःख का है. यह एक दिन इतना बढ़ जाता है कि फिर आपको समझ नहीं आता कि क्या करें?उस हमारी कंडीशनिंग/हालत भी ऐसी है कि हमें सिखाया जाता है कि सच मत बोलो.

सच कह रही हूं. वास्तव में हमें सिखाया जाता है कि सच मत बोलो. जबकि हमसे कहा जाता है कि सच बोलना चाहिए. लेकिन हमें सिखाते हैं कि सच मत बोलो. क्योंकि करनी में सत्य नहीं होता. जब करनी में सत्य नहीं हैं, तो इंसान वही सीखेगा. बड़ों की सीख पर जब सच बोलते हैं, तो थप्पड़ पड़ता है. इसलिए यह जो कंडीशनिंग है, उसको मिटाना जरुरी है. ऐसा करना आसान नही होता. वक्त लगता है. तो डिप्रेशन के बहुत से कारण हैं.

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डिप्रेशन से बाहर निकलने के लिए आपने क्या रास्ता अपनाया?

– मेडीटेशन किया.डौक्टर की मदद ली. बहुत सारी दवाइयां खानी पड़ी. इसके अलावा सबसे ज्यादा मदद थेरेपी ने की. डीप मेडीटेशन करना ही होता है. डौक्टर आपके सीक्रेट्र के साथ आपको आपके वही पुराने ट्रौमा से एक बार फिर से ‘फेस टू फेस’ कराकर उन बातों को आपके दिमाग से साफ करने में मदद करते हैं. तभी आप आगे बढ़ सकते हैं, अन्यथा नहीं बढ़ पाएंगे. अगर आप मुझसे कहेंगे कि मैं बदल गया हूं मैं मान ही नहीं सकती. क्योंकि इतने साल की जो कंडीशनिंग है, उसको बदलना इतना आसान नहीं है. इसी के चलते मैंने चार-पांच वर्ष तक काम बंद कर दिया. दोस्तों से भी नहीं मिलती थी. मैं बिल्कुल अपने अंदर ही घुस गई.

मेरे अंदर सिर्फ एक ही जिद थी कि मुझे हर हाल में इससे बाहर निकलना है. इतना डिप्रेशन था कि मैं मरने के कगार पर आ गई थी. फिर भी अंदर से आवाज आती थी कि नहीं, तुम इससे बाहर निकल सकती हो. तुम इससे ज्यादा मजबूत हो. मैं हर किसी को सलाह देना चाहूंगी कि अगर आपको लगता है कि जिंदगी खत्म हो गई या बर्बाद हो गई है, तो आप इस बात को भी समझ लें कि आप इससे ज्यादा मजबूत हैं. यह आपका अंत नहीं बल्कि आपकी एक नई शुरुआत है.

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अंत का मतलब यह नहीं है कि आपको लिटरली अपने आप को खत्म करना है. अंत का मतलब यह है कि आपको अगर कोई चीज नहीं समझ में आ रही, तो उसका खात्मा कीजिए. अगर आपको अपने अंदर का कोई किरदार समझ नही आ रहा है, तो आप उस किरदार का खात्मा करिए. आप अपने आपको एकदम से बदल लें, जिस तरह से हम कलाकार फिल्म दर फिल्म करते हैं. आप यह न भूले कि हमारी सोच में इतनी ताकत है कि हम जो चाहें, वह बन सकते हैं.

भारत में हर साल बर्बाद किया जाता है इतना भोजन, वहीं 82 करोड़ लोग सोते हैं भूखे

कुछ दिनों पहले ही एक ऐसी सूची जारी की गई जिसने भारत को शर्मिंदा कर दिया. भारत एशिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है और दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी लेकिन ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत दक्षिण एशिया में भी सबसे नीचे है. वैश्विक भुखमरी सूचकांक यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में दुनिया के 117 देशों में भारत 102वें स्थान पर रहा है.

यह जानकारी साल 2019 के इंडेक्स में सामने आई है. वेल्थहंगरहिल्फे एंड कन्सर्न वल्डवाइड द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया के उन 45 देशों में शामिल है जहां ‘भुखमरी काफी गंभीर स्तर पर है.’ साल 2015 में भूखे भारतीयों की संख्या 78 करोड़ थी और अब 82 करोड़. यानी जिस आंकड़े को घटना चाहिए वो बढ़ रहे हैं.

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जीएचआई में भारत का खराब प्रदर्शन लगातार जारी है. साल 2018 के इंडेक्स में भारत 119 देशों की सूची में 103वें स्थान पर था. इस साल की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2017 में इस सूचकांक में भारत का स्थान 100वां था लेकिन इस साल की रैंक तुलनायोग्य नहीं है.

वैश्विक भुखमरी सूचकांक लगातार 13वें साल तय किया गया है. इसमें देशों को चार प्रमुख संकेतकों के आधार पर रैंकिग दी जाती है – अल्पपोषण, बाल मृत्यु, पांच साल तक के कमजोर बच्चे और बच्चों का अवरुद्ध शारीरिक विकास.

इस सूचकांक में भारत का स्थान अपने कई पड़ोसी देशों से भी नीचे है. इस साल भुखमरी सूचकांक में जहां चीन 25वें स्थान पर है, वहीं नेपाल 73वें, म्यांमार 69वें, श्रीलंका 66वें और बांग्लादेश 88वें स्थान पर रहा है. पाकिस्तान को इस सूचकांक में 94वां स्थान मिला है. जीएचआई वैश्विक, क्षेत्रीय, और राष्ट्रीय स्तर पर भुखमरी का आकलन करता है. भूख से लड़ने में हुई प्रगति और समस्याओं को लेकर हर साल इसकी गणना की जाती है.

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जीएचआई को भूख के खिलाफ संघर्ष की जागरूकता और समझ को बढ़ाने, देशों के बीच भूख के स्तर की तुलना करने के लिए एक तरीका प्रदान करने और उस जगह पर लोगों का ध्यान खींचना जहां पर भारी भुखमरी है, के लिए डिजाइन किया गया है.इंडेक्स में यह भी देखा जाता है कि देश की कितनी जनसंख्या को पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिल रहा है. यानी देश के कितने लोग कुपोषण के शिकार हैं.

ये तो रही महज आंकड़ों की बात. अब हम कुछ जमीनी स्तर पर भी इसकी पड़ताल कर लें. भारत में भले ही विकास के नए आयामों को छू रहा है लेकिन विश्व पटल में ऐसे आंकड़े हमारी सारे किए कराए पर पानी फेर देते हैं. भले ही आप अमेरिका के ह्यूस्टन की तस्वीर देखकर ये सोच रहे हों कि विदेशों में भी भारत का डंका बज रहा है. लेकिन वहीं आप का देश भुखमरी में एशिया में सबसे नीचे हैं. आप उन देशों से भी पीछे हैं तो किसी भी तरह भारत से मुकाबले करने के काबिल है ही नहीं.

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भारत 2010 में 95वें नंबर पर था और 2019 में 102वें पर आ गया. 113 देशों में साल 2000 में जीएचआई रैंकिंग में भारत का रैंक 83वां था और 117 देशों में भारत 2019 में 102वें पर आ गया.

एक तरफ तो ये आंकड़ा और दूसरी तरफ एक और आंकड़ा देखिए. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 40 फ़ीसदी खाना बर्बाद हो जाता है. इन्हीं आंकड़ों में कहा गया है कि यह उतना खाना होता है जिसे पैसों में आंके तो यह 50 हज़ार करोड़ के आसपास पहुंचेगा. विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया का हर 7वां व्यक्ति भूखा सोता है.

विश्व भूख सूचकांक में भारत का 67वां स्थान है. देश में हर साल 25.1 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है लेकिन हर चौथा भारतीय भूखा सोता है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियां वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं.

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जेलों में तड़पती जिंदगी: भाग 1

मोहम्मद आमिर खान

दिल्ली का रहने वाला मोहम्मद आमिर खान पायलट बन कर अपने कैरियर में ऊंची उड़ान भरना चाहता था, मगर उस के सपनों की उड़ान वक्त से पहले जमीन पर आ गई. 14 साल तक जेल में रहने के बाद अब वह टूट चुका है.

मोहम्मद आमिर खान उस शाम को आज भी नहीं भूला है, जब वह अपनी मां के लिए दवा लेने घर से निकला था. उस का कहना है कि उसी दौरान पुलिस ने उसे रास्ते से ही पकड़ लिया था. तब वह महज 18 साल का था.

बाद में मोहम्मद आमिर खान पर बम धमाके करने, आतंकी साजिश रचने और देश के खिलाफ होने जैसे संगीन आरोप लगाए गए थे.

18 साल की उम्र में ही मोहम्मद आमिर खान 19 मामलों में उल झ गया था. अब उस के सामने थी एक लंबी कानूनी लड़ाई. उस का कहना है कि बेकुसूर करार दिए जाने के बाद जेल में कटे उस की जिंदगी के बेशकीमती सालों की भरपाई आखिर कौन करेगा? वह अपनी जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने की कोशिश कर रहा?है, मगर सवाल है कि उसे दोबारा बसाने की जिम्मेदारी कौन लेगा?

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मोहम्मद आमिर खान के मुताबिक, वह तमाम नेताओं के साथसाथ राष्ट्रपति से भी मिल चुका है, मगर उसे आश्वासनों के अलावा कुछ नहीं मिला.

जेल में मोहम्मद आमिर खान के 14 साल ही नहीं बीते, बल्कि उस के सारे सपने भी बिखर गए. जब वह जेल से निकला तो उस के पिता की मौत हो चुकी थी. सदमे में डूबी उस की मां अब कुछ बोल नहीं पाती हैं. उन की आवाज हमेशा के लिए चली गई है.

इमरान किरमानी

कश्मीर के हंदवाड़ा इलाके के रहने वाले 34 साला इमरान किरमानी को साल 2006 में दिल्ली पुलिस की एक विशेष सैल ने मंगोलपुरी इलाके से गिरफ्तार किया था.

इमरान पर आरोप था कि वह दिल्ली में आत्मघाती हमला करने की योजना बना रहा था, मगर पौने 5 साल बाद अदालत ने उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया.

इमरान किरमानी ने जयपुर से एयरक्राफ्ट मेकैनिकल इंजीनियरिंग की डिगरी हासिल की है. जब उसे दिल्ली में गिरफ्तार किया गया, तब वह एक निजी कंपनी में नौकरी कर रहा था.

जेल में बिताए अपनी जिंदगी के 5 सालों को याद करते हुए इमरान किरमानी कहता है, ‘‘बरी तो अदालत ने कर दिया, लेकिन सब से बड़ा सवाल यह है कि मेरे 5 साल जो जेल में बीत गए, उन्हें कौन वापस करेगा?’’

इमरान किरमानी को इस बात का भी काफी सदमा है कि जिस वक्त वह अपना भविष्य बनाने निकला था, उसी वक्त उसे जेल में डाल दिया गया और वह भी बिना किसी कुसूर के. वह कहता है, ‘‘जो मेरे साथ पढ़ाई करते थे, काम करते थे, वे आज बहुत तरक्की कर चुके हैं. मैं भी करता, लेकिन मेरा कीमती समय जेल में ही बरबाद हो गया.’’

इमरान किरमानी अब अपने गांव के एक स्कूल में पढ़ाता है. उसे सरकार से किसी मदद की उम्मीद नहीं है और न ही वह इस के लिए सरकार के पास जाने के लिए तैयार है.

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फारूक अहमद खान

हाल ही में इंजीनियर फारूक अहमद खान को भी 19 साल बाद अदालत ने सभी आरोपों से बरी कर दिया है. उस पर दिल्ली में बम धमाका करने की योजना बनाने का आरोप लगा था.

अनंतनाग, कश्मीर के फारूक अहमद खान को स्पैशल टास्क फोर्स ने 23 मई, 1996 को उस के घर से गिरफ्तार किया था. गिरफ्तारी के वक्त 30 साल का फारूक अहमद खान पब्लिक हैल्थ इंजीनियरिंग महकमे में जूनियर इंजीनियर के पद पर काम करता था.

दिल्ली हाईकोर्ट ने 4 साल बाद फारूक अहमद खान को लाजपत नगर धमाका मामले से बरी कर दिया था, लेकिन उस के बाद उसे जयपुर और गुजरात में हुए बम धमाकों के मामले में जयपुर सैंट्रल जेल में रखा गया.

जयपुर की एडिशनल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने भी उसे रिहा करने का आदेश दिया और उस के खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों को खारिज कर दिया.

जिंदगी के तकरीबन 20 साल खोने के अलावा फारूक अहमद खान को अपने मुकदमे के खर्च के तौर पर एक मोटी रकम भी गंवानी पड़ी. उस का कहना है कि दिल्ली में मुकदमे के खर्च में 20 लाख रुपए लगे, जबकि जयपुर में 12 लाख रुपए का खर्च उठाना पड़ा.

साल 2000 में जब फारूक अहमद खान के पिता की मौत हुई तो उसे पैरोल पर भी नहीं छोड़ा गया. उस की मां कहती हैं, ‘‘जिस दिन फारूक के अब्बा ने बेटे की जेल की तसवीर देखी थी तो उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उन की मौत हो गई. अब बेटा तो घर आ गया, लेकिन उस के खोए हुए 19 साल कौन लौटाएगा?’’

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मकबूल शाह

कश्मीर के श्रीनगर के लाल बाजार का रहने वाला मकबूल शाह साल 2010 में 14 साल बाद जेल से रिहा हुआ तो उसे लगा कि एक नई जिंदगी मिल गई है.

मकबूल शाह को भी दिल्ली में बम धमाके की साजिश रचने के आरोप में साल 1996 में गिरफ्तार किया गया था. उस वक्त उस की उम्र सिर्फ 14 साल थी.

मकबूल को भी अदालत ने आरोपों से बरी कर दिया, मगर मकबूल शाह को लगता है कि जिन लोगों ने उसे फर्जी मुकदमे में फंसाया था, उन के खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए.

संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत जेलों का रखरखाव और मैनेजमैंट पूरी तरह से राज्य सरकारों का सब्जैक्ट है. हर राज्य में जेल प्रशासन तंत्र चीफ औफ प्रिजंस (कारागार प्रमुख) की देखरेख में काम करता है, जो आईपीएस अफसर होता है.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि जेल की कुल आबादी के 65 फीसदी कैदी अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं. इन में अनुसूचित जाति के 21.7 फीसदी, अनुसूचित जनजाति के 11.5 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग के 31.6 फीसदी हैं.

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व्यवस्था की गड़बड़ी

भारत में जेलें 3 ढांचागत समस्याओं से जू झ रही हैं: एक, जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी, जिस का श्रेय जेल की आबादी में अंडरट्रायल्स (विचाराधीन कैदियों) के बड़े फीसदी को जाता है. 2, कर्मचारियों की कमी. 3, फंड की कमी. इस का नतीजा तकरीबन जानवरों जैसी जिंदगी, गंदगी और कैदियों व जेल अफसर के बीच हिंसक  झड़पों के तौर पर निकला है.

ठूंसठूंस कर भरे कैदी

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया, 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की कई जेलें कैदियों की तादाद के लिहाज से छोटी पड़ रही हैं. भारतीय जेलों में क्षमता से 14 फीसदी ज्यादा कैदी रह रहे हैं. इस मामले में छत्तीसगढ़ और दिल्ली देश में सब से आगे हैं, जहां की जेलों में क्षमता से दोगुने से ज्यादा कैदी हैं.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक, देशभर की जेलों में 4,19,623 कैदी हैं, जिन में से 17,834 औरतें हैं यानी कुल कैदियों में से 4.3 फीसदी औरतें हैं. ये आंकड़े 2015 के हैं.

साल 2000 में यह आंकड़ा 3.3 फीसदी था यानी 15 साल में औरत कैदियों में एक फीसदी का इजाफा हुआ है. इतना ही नहीं 17,834 में से 11,916 यानी तकरीबन 66 फीसदी औरतें विचाराधीन कैदी हैं.

मेघालय की जेलों में क्षमता से तकरीबन 77.9 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 68.8 फीसदी और मध्य प्रदेश में 39.8 फीसदी ज्यादा कैदी हैं.

उत्तर प्रदेश में विचाराधीन कैदियों की तादाद 62,669 थी. इस के बाद बिहार 23,424 और महाराष्ट्र 21,667 का नंबर था. बिहार में कुल कैदियों के 82 फीसदी विचाराधीन कैदी थे, जो सभी राज्यों से ज्यादा थे.

भारतीय जेलों में बंद 67 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं यानी ऐसे कैदी, जिन्हें मुकदमे, जांच या पूछताछ के दौरान हवालात में बंद रखा गया है, न कि कोर्ट द्वारा किसी मुकदमे में कुसूरवार करार दिए जाने की वजह से.

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अंतर्राष्ट्रीय मानकों के हिसाब से भारत की जेलों में ट्रायल या सजा का इंतजार कर रहे लोगों का फीसदी काफी ज्यादा है. उदाहरण के लिए इंगलैंड में यह 11 फीसदी है, जबकि अमेरिका में 20 फीसदी और फ्रांस में 29 फीसदी है.

साल 2014 में देश के 36 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से 16 में 25 फीसदी से ज्यादा विचाराधीन कैदी एक साल से ज्यादा वक्त से हवालात में बंद थे. जम्मूकश्मीर 54 फीसदी के साथ इस लिस्ट में सब से ऊपर है. उस के बाद गोवा 50 फीसदी और गुजरात 42 फीसदी. उत्तर प्रदेश सब से ऊपर है. यहां विचाराधीन कैदियों की तादाद सब से ज्यादा 18,214 थी.

देश की विभिन्न अदालतों में 31 मार्च, 2016 तक लंबित पड़े मामलों की तादाद 3.1 करोड़ थी, जिसे किसी भी लिहाज से बहुत बड़ा आंकड़ा कहा जा सकता है. ऐसे में यह मान कर चला जा सकता है कि किसी असरदार दखलअंदाजी की गैरमौजूदगी में भारत की जेलें इसी तरह भरी रहेंगी.

साल 2014 के आखिर तक कुल विचाराधीन कैदियों में से 43 फीसदी यानी तकरीबन 1.22 लाख लोग 6 महीने से ले कर 5 साल से ज्यादा वक्त तक विभिन्न हवालातों में बंद थे. इन में से कइयों ने तो जेल में इतना समय बिता लिया है, जितना उन्हें कुसूरवार होने की असली सजा के तौर पर भी नहीं बिताना पड़ता.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के रिकौर्ड के मुताबिक, 2.82 लाख विचाराधीन कैदियों में 55 फीसदी से ज्यादा मुसलिम, दलित और आदिवासी थे.

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साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश की कुल आबादी में इन 3 समुदायों का सम्मिलित हिस्सा 39 फीसदी है. इस में मुसलिम, दलित और आदिवासी क्रमश: 14.3 फीसदी, 16.6 फीसदी और 8.6 फीसदी हैं. लेकिन कैदियों के अनुपात के हिसाब से देखें, जिस में विचाराधीन और कुसूरवार करार दिए गए, दोनों तरह के कैदी शामिल हैं, इन समुदायों के लोगों का कुल अनुपात देश की आबादी में इन के हिस्से से ज्यादा है.

जानें आगे अगले भाग में…

एक रिश्ता किताब का: भाग 2

पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- एक रिश्ता किताब का: भाग 1

‘‘तुम अच्छी लड़की हो बेटा, तुम तो मेरा अभिमान हो…लोग कहते थे मैं ने एक ही बेटी पर अपना परिवार क्यों रोक लिया तो मैं यही कहता था कि मेरी बेटी ही मेरा बेटा है. लाखों रुपए लगा कर तुम्हें पढ़ायालिखाया, एक समझदार इनसान बनाया. वह इसलिए तो नहीं कि तुम्हें एक मानसिक रोगी के साथ बांध दूं. 4 महीने से तुम दोनों मिल रहे हो, इतना डांवांडोल चरित्र है सोमेश का तो तुम ने हम से कहा क्यों नहीं?’’

‘‘मैं खुद भी समझ नहीं पा रही थी पापा, एक दिशा नहीं दे पा रही थी अपने निर्णय को…लेकिन यह सच है कि सोमेश के साथ रहने से दम घुटता है.’’

रिश्ता तोड़ दिया पापा ने. हाथ जोड़ कर जगदीश चाचा से क्षमा मांग ली. बदहवासी में क्याक्या बोलने लगे जगदीश चाचा. मेरे मामा और ताऊजी भी पापा के साथ गए थे. घर वापस आए तो काफी उदास भी थे और चिंतित भी. मामा अपनी बात समझाने लगे, ‘‘उस का गुस्सा जायज है लेकिन वह हमारा ही शक दूर करने के लिए मान क्यों नहीं जाता. क्यों नहीं हमारे साथ सोमेश को डाक्टर के पास भेज देता.

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शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा, एक ही रट मेरे तो गले से नीचे नहीं उतरती. शादी क्या कोई दवा की गोली है जिस के होते ही मर्ज चला जाएगा. मुझे तो लगता है बापबेटा दोनों ही जिद्दी हैं. जरूर कुछ छिपा रहे हैं वरना सांच को आंच क्या. क्या डर है जगदीश को जो डाक्टर के पास ले जाना ही नहीं चाहता,’’ ताऊजी ने भी अपने मन की शंका सामने रखी.

‘‘बेटियां क्या इतनी सस्ती होती हैं जो किसी के भी हाथ दे दी जाएं. कोई मुझ से पूछे बेटी की कीमत…प्रकृति ने मुझे तो बेटी भी नहीं दी…अगर मेरी भी बेटी होती तो क्या मैं उसे पढ़ालिखा कर, सोचनेसमझने की अक्ल दिला कर किसी कुंए में धकेल देता?’’ रो पड़े थे ताऊजी.

मैं दरवाजे की ओट में खड़ी थी. उधर सोमेश लगातार मुझे फोन कर रहा था, मना रहा था मुझे…गिड़गिड़ा रहा था. क्या उस के पास आत्मसम्मान नाम की कोई चीज नहीं है. मैं सोचने लगी कि इतने अपमान के बाद कोई भी विवेकी पुरुष होता तो मेरी तरफ देखता तक नहीं. कैसा है यह प्यार? प्यार तो एहसास से होता है न. जिस प्यार का दावा सोमेश पहले दिन से कर रहा है वह जरा सा छू भर नहीं गया मुझे. कोई एक पल भी कभी ऐसा नहीं आया जब मुझे लगा हो कोई ऐसा धागा है जो मुझे सोमेश से बांधता है. हर पल यही लगा कि उस के अधिकार में चली गई हूं.

‘‘मैं बदनाम कर दूंगा तुम्हें शुभा, तेजाब डाल दूंगा तुम्हारे चेहरे पर, तुम मेरे सिवा किसी और की नहीं हो सकतीं…’’

मेरे कार्यालय में आ कर जोरजोर से चीखने लगा सोमेश. शादी टूट जाने की जो बात मैं ने अभी किसी से भी नहीं कही थी, उस ने चौराहे का मजाक बना दी. अपना पागलपन स्वयं ही सब को दिखा दिया. हमारे प्रबंधक महोदय ने पुलिस बुला ली और तेजाब की धमकी देने पर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया सोमेश को.

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उधर जगदीश चाचा भी दुश्मनी पर उतर आए थे. वह कुछ भी करने को तैयार थे, लेकिन अपनी और अपने बेटे की असंतुलित मनोस्थिति को स्वीकारना नहीं चाहते थे. हमारा परिवार परेशान तो था लेकिन डरा हुआ नहीं था. शादी की तारीख धीरेधीरे पास आ रही थी जिस के गुजर जाने का इंतजार तो सभी को था लेकिन उस के पास आने का चाव समाप्त हो चुका था.

शादी की तारीख आई तो मां ने रोक लिया, ‘‘आज घर पर ही रह शुभा, पता नहीं सोमेश क्या कर बैठे.’’

मान गई मैं. अफसोस हो रहा था मुझे, क्या चैन से जीना मेरा अधिकार नहीं है? दोष क्या है मेरा? यही न कि एक जनून की भेंट चढ़ना नहीं चाहती. क्यों अपना जीवन नरक बना लूं जब जानती हूं सामने जलती लपटों के सिवा कुछ नहीं.

मेरे ममेरे भाई और ताऊजी सुबह ही हमारे घर पर चले आए.

‘‘बूआ, आप चिंता क्यों कर रही हैं…हम हैं न. अब डरडर कर भी तो नहीं न जिआ जा सकता. सहीगलत की समझ जब आ गई है तो सही का ही चुनाव करेंगे न हम. जानबूझ कर जहर भी तो नहीं न पिआ जा सकता.’’

मां को सांत्वना दी उन्होंने. अजीब सा तनाव था घर में. कब क्या हो बस इसी आशंका में जरा सी आहट पर भी हम चौंक जाते थे. लगभग 8 बजे एक नई ही करवट बदल ली हालात ने.

जगदीश चाचा चुपचाप खड़े थे हमारे दरवाजे पर. आशंकित थे हम. कैसी विडंबना है न, जिन से जीवन भर का नाता बांधने जा रहे थे वही जान के दुश्मन नजर आने लगे थे.

पापा ने हाथ पकड़ कर भीतर बुलाया. हम ने कब उन से दुश्मनी चाही थी. जोरजोर से रोने लगे जगदीश चाचा. पता चला, सोमेश सचमुच पागलखाने में है. बेडि़यों से बंधा पड़ा है सोमेश. पता चला वह पूरे घर को आग लगाने वाला था. हम सब यह सुन कर अवाक् रह गए.

‘‘मुझे माफ कर दो बेटी. तुम सही थीं. मेरा बेटा वास्तव में संतुलित दिमाग का मालिक नहीं है. मेरा बच्चा पागल है. वह बचपन से ही ऐसा है जब से उस की मां चली गई.’’

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सोमेश की मां तभी उन्हें छोड़ कर चली गई थी जब वह मात्र 4 साल का था. यह बात मुझे पापा ने बताई थी. पतिपत्नी में निभ नहीं पाई थी और इस रिश्ते का अंत तलाक में हुआ था.

‘‘…मैं क्या करता. मांबाप दोनों की कमी पूरी करताकरता यह भूल ही गया कि बच्चे को ना सुनने की आदत भी डालनी चाहिए. मैं ने ना सुनना नहीं न सिखाया, आज तुम ने सिखा दिया. दुनिया भी सिखाएगी उसे कि जिस चीज पर भी वह हाथ रखे, जरूरी नहीं उसे मिल ही जाए,’’ रो रहे थे जगदीश चाचा, ‘‘सारा दोष मेरा है. मैं ने अपनी शादी से भी कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं कर ली थीं जो पूरी नहीं उतरीं. जिम्मेदारी न समझ मजाक ही समझा. मेरी पत्नी की और मेरी निभ नहीं पाई जिस में मेरा दोष ज्यादा था. मेरे ही कर्मों का फल है जो आज मेरा बच्चा बेडि़यों में बंधा है…मुझे माफ कर दो बेटी और सदा सुखी रहो… हमारी वजह से बहुत परेशानी उठानी पड़ी तुम्हें.’’

हम सब एकदूसरे का मुंह देख रहे थे. जगदीश चाचा का एकाएक बदल जाना गले के नीचे नहीं उतर रहा था. कहीं कोई छलावा तो नहीं है न उन का यह व्यवहार. कल तक मुझे बरबाद कर देने की कसमें खा रहे थे, आज अपनी ही बरबादी की कथा सुना कर उस की जिम्मेदारी भी खुद पर ले रहे थे.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

परदेसियों से न अंखियां मिलाना

परदेसी शब्द से मेरा पहला परिचय भारतीय फिल्मों के माध्यम से ही हुआ. बचपन से ही मुझे फिल्में देखने का तथा पिताजी को न दिखाने का शौक था. इन शौकों की टकराहट में प्राय: पिताजी को ही अधिक सफलता मिलती थी इसलिए मुझ बदनसीब को रेडियो से सुने गानों से ही संतोष करना पड़ता था. इसी संतोष के दौरान जब मैं ने यह गाना सुना कि ‘परदेसियों से न अंखियां मिलाना…’ तो मैं बहुत परेशान हो उठा. मेरा हृदय नायिका के प्रति दया से भर उठा. मैं ने सोचा कि आखिर परदेसियों से अंखियां मिलाने में क्या परेशानी है. यह बेचारी क्यों बारबार इस तरह की बात कर रही है.

इस पंक्ति को बारबार दोहराने से मुझे लगा कि वाकई कोई गंभीर बात है वरना वह एक बार ही कह कर छोड़ देती. बहुत कशमकश के बाद भी जब मेरे बालमन को समाधान नहीं मिला तो मैं विभिन्न लोगों से मिला. सभी लोगों ने अपनीअपनी बुद्धि के हिसाब से जो स्पष्टीकरण दिए उस से मेरा दिमाग खुल गया.

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सब से पहले मैं अपने इतिहास के टीचर से मिला. सभी टीचर मुझे शुरू से ही रहस्यमय प्राणी लगते थे. जिन मुश्किल किताबों और सवालों के डर से मुझे बुखार आ जाता था वे उन्हें मुंहजबानी याद थीं. जो गणित के सवाल मुझे पहाड़ की तरह लगते थे वे उन्हें चुटकियों में हल कर देते थे.

इतिहास के मास्टरजी ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा. फिर बोले, ‘‘परदेसियों से अंखियां लड़ाना वाकई एक गंभीर समस्या है. यह इतिहास का खतरनाक लक्षण है. इतिहास गवाह है कि जब भी हम ने परदेसियों से अंखियां लड़ाईं, हमें क्षति उठानी पड़ी. मुहम्मद गोरी ने जयचंद से अंखियां लड़ाईं, जिस से हमारे देश में दिल्ली सल्तनत की नींव पड़ी. दौलत खां लोदी ने बाबर से अंखियां मिलाईं और हमारे भारत में मुगल आ गए.

इसी तरह ईस्ट इंडिया कंपनी को लें. ये परदेसी कंपनी हमारे यहां सद्भावनापूर्ण तरीके से व्यापार करने आई थी. बातों ही बातों में लड़ाई गई अंखियों के परिणाम में हमें गुलामी झेलनी पड़ी. अंगरेजों के अंखियां लड़ाने का तरीका सर्वाधिक वैज्ञानिक था. उन्होंने कभी निजाम से, कभी मराठों से, कभी सिखों से, कभी गोरखों तथा कभी राजपूतों से अंखियां लड़ाईं. इन में से प्रत्येक को उन्होंने अपना कहा, किंतु हुए किसी के नहीं.

इस के बाद में अपने मकानमालिक से मिला. उन का कहना था, ‘‘परदेसियों से अंखियां मिलाने में तो परेशानियां ही परेशानियां हैं. ये परदेसी कभी भरोसे लायक नहीं होते. आप ने यदि थोड़ी सी भी अंखियां मिला ली हैं तो बस, फिर समझो कि टाइम पर किराया नहीं मिलेगा और तो और, अंखियां मिलाने के बाद अतिक्रमण का भी खतरा है.’’

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फिर मैं नेताजी के पास चला गया. नेताजी मेरे पड़ोस में ही रहते थे. तब राजनीति के बारे में, मैं अधिक नहीं जानता था. बस, इतना अवश्य जानता था कि भारत में बहुदलीय व्यवस्था है क्योंकि नेताजी प्राय: नईनई पार्टियां बदलते रहते थे.

वह मेरे इस सवाल पर मुसकराए और बोले, ‘‘बेटा, तुम इस देश के भविष्य हो. तुम क्यों इन चक्करों में पड़ कर अपना भविष्य अंधकारमय कर रहे हो. तुम्हें अभी बहुत आगे बढ़ना है. परदेसियों की अंखियों के चक्कर में पड़ कर तुम देश की सेवा से मुंह मोड़ना चाहते हो. नहीं, यह बिलकुल गलत है. तुम हमारी पार्टी में आ जाओ. फिर हम…’’

उन की बातें सुन कर मैं भाग निकला और हड़बड़ाहट में शर्माजी से जा टकराया. शर्माजी एक सरकारी दफ्तर में बाबू थे. ऐसे दफ्तर में जहां हजारों रुपए महीने की ऊपरी आय थी. उन्होंने मेरी हड़बड़ाहट का कारण जानना चाहा, ‘‘क्या बात है बेटा, क्या पहाड़ टूट पड़ा है?’’

मैं ने उन्हें ईमानदारी से अपनी समस्या बतला दी. उन्होंने मेरी बात सुन कर जोर से ठहाका लगाया और बोले, ‘‘बेटा, अगर परदेसियों से ही अंखियां मिलाने में रह जाता तो 2 लड़कियों की शादी कैसे करता. परदेसियों से अंखियां मिलाने का मतलब है मुफ्त में काम कर देना. इसीलिए मैं न तो आफिस में आने वाले से सीधे मुंह बात करता और न अंखियां मिलाता. यह एक सफल प्रशासक के गुण हैं.’’

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मैं असमंजस में पड़ापड़ा सोचता रहा. तभी डाक्टर अंकल आते दिखाई दिए. मैं तेजी से उन के पास गया. वह जल्दी में थे फिर भी उन्होंने मेरी बात सुनी. ‘‘वैसे परदेसियों से अंखियां मिलाने में कोई परेशानी तो नहीं है. फिर भी यह सावधानी रख लेना जरूरी है कि परदेसियों को आईफ्लू तो नहीं है.

‘‘यदि आंख मिलाना अधिक जरूरी हो तो चश्मा लगा लेना चाहिए और फिर भी कुछ हो जाए तो आईड्राप की 2-2 बूंद हर 6 घंटे में और गोलियां…’’

बाकी मेरे बस के बाहर था. मैं ने सरपट दौड़ लगाई. इतिहास के झरोखे से आईफ्लू की खिड़की तक का सफर वाकई बहुत लंबा हो गया था. परदेसियों से अंखियां मिलाने के संदर्भ में जो भयावह कल्पनाएं उपरोक्त सज्जनों ने मेरे दिमाग में बिठा दीं उस का नतीजा यह है कि आज तक मैं किसी परदेसी से अंखियां नहीं लड़ा पाया. और परिणाम में… परिणाम यही रहा कि आज तक मेरी शादी नहीं हो पाई.

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प्रायश्चित्त: भाग 1

लेखिका- किरण डी. कुमार

‘‘दीदी, मेरा तलाक हो गया,’’ नलिनी के कहे शब्द बारबार मेरे कानों में जोरजोर से गूंजने लगे. मैं अपने दोनों बच्चों के साथ कोलकाता से अहमदाबाद जाने वाली ट्रेन में बैठी थी. नागपुर आया तो स्टेशन के प्लेटफार्म पर नलिनी को खड़ा देख कर मुझे बड़ी खुशी हुई. लेकिन न मांग में सिंदूर न गले में मंगलसूत्र. उस का पहनावा देख कर मैं असमंजस में पड़ गई.

मेरे मन के भावों को पढ़ कर नलिनी ने खुद ही अपनी बात कह दी थी.

‘‘यह क्या कह रही हो, नलिनी? इतना सब सहने का अंत इतना बुरा हुआ? क्या उस पत्थर दिल आदमी का दिल नहीं पसीजा तुम्हारी कठोर तपस्या से?’’

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‘‘शायद मेरी जिंदगी में यही लिखाबदा था, दीदी, जिसे मैं 8 साल से टालती आई थी. मैं हालात से लड़ने के बदले पहले ही हार मान लेती तो शायद मुझे उतनी मानसिक यातना नहीं झेलनी पड़ती,’’ नलिनी भावुक हो कर कह उठी. उस के साथ उस की चचेरी बहन भी थी जो गौर से हमारी बातें सुन रही थी.

नलिनी के साथ मेरा परिचय लगभग 10 साल पुराना है. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत मेरे पति आशुतोष का तबादला अचानक ही कोलकाता से अहमदाबाद हो गया था. अहमदाबाद से जब हम किराए के  फ्लैट में रहने गए तो सामने के बंगले में रहने वाले कपड़े के व्यापारी दिनकर भाई ठक्कर की तीसरी बहू थी नलिनी.

नई जगह, नया माहौल…किसी से जानपहचान न होने के कारण मैं अकसर बोर होती रहती थी. इसलिए शाम होते ही बच्चों को ले कर घर के सामने बने एक छोटे से उद्यान में चली जाती थी. दिनकर भाई की पत्नी भानुमति बेन भी अपने पोतेपोतियों को ले कर आती थीं.

पहले बच्चों की एकदूसरे से दोस्ती हुई, फिर धीरेधीरे मेरा परिचय उन के संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों से हुआ. भानुमति बेन, उन की बड़ी बहू सरला, मझली दिशा और छोटी नलिनी. भानुमति बेन की 2 बेटियां भी थीं. छोटी सेजन 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी.

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गुजरात में लोगों का स्वभाव इतना खुले दिल का और मिलनसार होता है कि कोई बाहरी व्यक्ति अपने को वहां के लोगों में अकेला नहीं महसूस करता. ठक्कर परिवार इस बात का अपवाद न था. मेरी भाषा बंगाली होने के कारण मुझे गुजराती तो दूर हिंदी भी टूटीफूटी ही आती थी. भानुमति बेन को गुजराती छोड़ कर कोई और भाषा नहीं आती थी. वह भी मुझ से टूटीफूटी हिंदी में बात करती थीं. धीरेधीरे हमारा एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू हो गया था. घर में जब भी रसगुल्ले बनते तो सब से पहले ठक्कर परिवार में भेजे जाते और उन की तो बात ही क्या थी, आएदिन मेरे घर वे खमनढोकला और मालपुए ले कर आ जातीं.

ठक्कर परिवार में सब से ज्यादा नलिनी ही मिलनसार और हंसमुख स्वभाव की थी. गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, तीखे नाकनक्श, छरहरा बदन और कमर तक लटकती चोटी…कुल मिला कर नलिनी सुंदरता की परिभाषा थी. तभी तो उस का पति सुशांत उस का इतना दीवाना था. नलिनी घरेलू कामों में अपनी दोनों जेठानियों से ज्यादा दक्ष थी. सासससुर की चहेती बहू और दोनों ननदों की चहेती भाभी, किसी को भी पल भर में अपना बना लेने की अद्भुत क्षमता थी उस में.

20 जनवरी, 2001 को मैं सपरिवार अपनी छोटी बहन के विवाह में शामिल होेने कोलकाता चली गई. 26 जनवरी को मेरी छोटी बहन की अभी डोली भी नहीं उठी थी कि किसी ने आ कर बताया कि अहमदाबाद में भयंकर भूकंप आया है. सुन कर दिल दहल गया. मेरे परिवार के चारों सदस्य तो विवाह में कोलकाता आ कर सुरक्षित थे, पर टेलीविजन पर देखा कि प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखा कर कहर बरपा दिया था और भीषण भूकंप के कारण पूरे गुजरात में त्राहित्राहि मची हुई थी.

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अहमदाबाद में भूकंप आने के 10 दिन बाद हम वापस आ गए तो देखा हमारे अपार्टमेंट का एक छोटा हिस्सा ढह गया था, पर ज्यादातर फ्लैट थोड़ीबहुत मरम्मत से ठीक हो सकते थे.

अपने अपार्टमेंट का जायजा लेने के बाद ठक्कर निवास के सामने पहुंचते ही बंगले की दशा देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. पुराने समय में बना विशालकाय बंगला भूकंप के झटकों से धराशायी हो चुका था. ठक्कर परिवार ने महल्ले के दूसरे घरों में शरण ली थी.

मुझे देखते ही भानुमति बेन मेरे गले लग कर फूटफूट कर रो पड़ीं. घर के मुखिया दिनकर भाई का शव बंगले के एक भारी मलबे के नीचे से मिला था. बड़ा बेटा कारोबार के सिलसिले में दिल्ली गया हुआ था. भूकंप का समाचार पा कर वह भी भागाभागा आ गया था. नलिनी का पति सुशांत गंभीर रूप से घायल हो कर सरकारी अस्पताल में भरती था. घर के बाकी सदस्य ठीकठाक थे.

सुशांत को देखने जब हम सरकारी अस्पताल पहुंचे तो वहां गंभीर रूप से घायल लोगों को देख कर कलेजा मुंह को आ गया. सुशांत आईसीयू में भरती था. बाहर बैंच पर संज्ञाशून्य नलिनी अपनी छोटी ननद के साथ बैठी हुई थी. नलिनी मुझे देखते ही आपा खो कर रोने लगी.

‘दीदी, क्या मेरी मांग का सिंदूर सलामत रहेगा? सुशांत के बचने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती. काश, जो कुछ इन के साथ घटा है वह मेरे साथ घटा होता.’ कहते हुए नलिनी सुबक उठी. नलिनी के मातापिता और उस का भाई मायके से आए थे. दिमाग पर गहरी चोट लगने के कारण सुशांत कोमा में चला गया था. उस के दोनों हाथपैरों पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था.

देखतेदेखते 2 महीने बीत गए, पर सुशांत की हालत में कोई सुधार नहीं आया, अलबत्ता नलिनी की काया दिन पर दिन चिंता के मारे जरूर कमजोर होती जा रही थी. उस के मांबाप और भाई भी उसे दिलासा दे कर चले गए थे.

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भानुमति बेन ने अपने वैधव्य को स्वीकार कर के हालात से समझौता कर लिया था. उन की पुरानी बड़ी हवेली की जगह अब एक साधारण सा मकान बनवाया जाने लगा. नीलिनी की दोनों जेठानियां अपनीअपनी गृहस्थी में मगन हो गईं.

एक दिन खबर मिली कि सुशांत का एक पैर घुटने से नीचे काट दिया गया, क्योंकि जख्मों का जहर पूरे शरीर में फैलने का खतरा था. मैं दौड़ीदौड़ी अस्पताल गई. आशा के विपरीत नलिनी का चेहरा शांत था. मुझे देखते ही वह बोली, ‘दीदी, पैर कट गया तो क्या हुआ, उन की जिंदगी तो बच गई न. अगर जहर पूरे शरीर में फैल जाता तो? मैं जीवन भर के लिए उन की बैसाखी बन जाऊंगी.’

मैं ने हामी भरते हुए उस के धैर्य की प्रशंसा की पर उस के ससुराल वालों को उस का धैर्य नागवार गुजरा.

उस की दोनों जेठानियां और ननदें आपस में एकदूसरे से बोल रही थीं, ‘देखो, पति का पैर कट गया तो भी कितनी सामान्य है, जैसे कुछ भी हुआ ही न हो. कितनी बेदर्द औरत है.’

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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