मोहम्मद आमिर खान
दिल्ली का रहने वाला मोहम्मद आमिर खान पायलट बन कर अपने कैरियर में ऊंची उड़ान भरना चाहता था, मगर उस के सपनों की उड़ान वक्त से पहले जमीन पर आ गई. 14 साल तक जेल में रहने के बाद अब वह टूट चुका है.
मोहम्मद आमिर खान उस शाम को आज भी नहीं भूला है, जब वह अपनी मां के लिए दवा लेने घर से निकला था. उस का कहना है कि उसी दौरान पुलिस ने उसे रास्ते से ही पकड़ लिया था. तब वह महज 18 साल का था.
बाद में मोहम्मद आमिर खान पर बम धमाके करने, आतंकी साजिश रचने और देश के खिलाफ होने जैसे संगीन आरोप लगाए गए थे.
18 साल की उम्र में ही मोहम्मद आमिर खान 19 मामलों में उल झ गया था. अब उस के सामने थी एक लंबी कानूनी लड़ाई. उस का कहना है कि बेकुसूर करार दिए जाने के बाद जेल में कटे उस की जिंदगी के बेशकीमती सालों की भरपाई आखिर कौन करेगा? वह अपनी जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने की कोशिश कर रहा?है, मगर सवाल है कि उसे दोबारा बसाने की जिम्मेदारी कौन लेगा?
ये भी पढ़ें- पाखंड की गिरफ्त में समाज
मोहम्मद आमिर खान के मुताबिक, वह तमाम नेताओं के साथसाथ राष्ट्रपति से भी मिल चुका है, मगर उसे आश्वासनों के अलावा कुछ नहीं मिला.
जेल में मोहम्मद आमिर खान के 14 साल ही नहीं बीते, बल्कि उस के सारे सपने भी बिखर गए. जब वह जेल से निकला तो उस के पिता की मौत हो चुकी थी. सदमे में डूबी उस की मां अब कुछ बोल नहीं पाती हैं. उन की आवाज हमेशा के लिए चली गई है.
इमरान किरमानी
कश्मीर के हंदवाड़ा इलाके के रहने वाले 34 साला इमरान किरमानी को साल 2006 में दिल्ली पुलिस की एक विशेष सैल ने मंगोलपुरी इलाके से गिरफ्तार किया था.
इमरान पर आरोप था कि वह दिल्ली में आत्मघाती हमला करने की योजना बना रहा था, मगर पौने 5 साल बाद अदालत ने उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया.
इमरान किरमानी ने जयपुर से एयरक्राफ्ट मेकैनिकल इंजीनियरिंग की डिगरी हासिल की है. जब उसे दिल्ली में गिरफ्तार किया गया, तब वह एक निजी कंपनी में नौकरी कर रहा था.
जेल में बिताए अपनी जिंदगी के 5 सालों को याद करते हुए इमरान किरमानी कहता है, ‘‘बरी तो अदालत ने कर दिया, लेकिन सब से बड़ा सवाल यह है कि मेरे 5 साल जो जेल में बीत गए, उन्हें कौन वापस करेगा?’’
इमरान किरमानी को इस बात का भी काफी सदमा है कि जिस वक्त वह अपना भविष्य बनाने निकला था, उसी वक्त उसे जेल में डाल दिया गया और वह भी बिना किसी कुसूर के. वह कहता है, ‘‘जो मेरे साथ पढ़ाई करते थे, काम करते थे, वे आज बहुत तरक्की कर चुके हैं. मैं भी करता, लेकिन मेरा कीमती समय जेल में ही बरबाद हो गया.’’
इमरान किरमानी अब अपने गांव के एक स्कूल में पढ़ाता है. उसे सरकार से किसी मदद की उम्मीद नहीं है और न ही वह इस के लिए सरकार के पास जाने के लिए तैयार है.
ये भी पढ़ें- थार की बेटी का हुनर: भाग 2
फारूक अहमद खान
हाल ही में इंजीनियर फारूक अहमद खान को भी 19 साल बाद अदालत ने सभी आरोपों से बरी कर दिया है. उस पर दिल्ली में बम धमाका करने की योजना बनाने का आरोप लगा था.
अनंतनाग, कश्मीर के फारूक अहमद खान को स्पैशल टास्क फोर्स ने 23 मई, 1996 को उस के घर से गिरफ्तार किया था. गिरफ्तारी के वक्त 30 साल का फारूक अहमद खान पब्लिक हैल्थ इंजीनियरिंग महकमे में जूनियर इंजीनियर के पद पर काम करता था.
दिल्ली हाईकोर्ट ने 4 साल बाद फारूक अहमद खान को लाजपत नगर धमाका मामले से बरी कर दिया था, लेकिन उस के बाद उसे जयपुर और गुजरात में हुए बम धमाकों के मामले में जयपुर सैंट्रल जेल में रखा गया.
जयपुर की एडिशनल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने भी उसे रिहा करने का आदेश दिया और उस के खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों को खारिज कर दिया.
जिंदगी के तकरीबन 20 साल खोने के अलावा फारूक अहमद खान को अपने मुकदमे के खर्च के तौर पर एक मोटी रकम भी गंवानी पड़ी. उस का कहना है कि दिल्ली में मुकदमे के खर्च में 20 लाख रुपए लगे, जबकि जयपुर में 12 लाख रुपए का खर्च उठाना पड़ा.
साल 2000 में जब फारूक अहमद खान के पिता की मौत हुई तो उसे पैरोल पर भी नहीं छोड़ा गया. उस की मां कहती हैं, ‘‘जिस दिन फारूक के अब्बा ने बेटे की जेल की तसवीर देखी थी तो उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उन की मौत हो गई. अब बेटा तो घर आ गया, लेकिन उस के खोए हुए 19 साल कौन लौटाएगा?’’
ये भी पढ़ें- थार की बेटी का हुनर: भाग 1
मकबूल शाह
कश्मीर के श्रीनगर के लाल बाजार का रहने वाला मकबूल शाह साल 2010 में 14 साल बाद जेल से रिहा हुआ तो उसे लगा कि एक नई जिंदगी मिल गई है.
मकबूल शाह को भी दिल्ली में बम धमाके की साजिश रचने के आरोप में साल 1996 में गिरफ्तार किया गया था. उस वक्त उस की उम्र सिर्फ 14 साल थी.
मकबूल को भी अदालत ने आरोपों से बरी कर दिया, मगर मकबूल शाह को लगता है कि जिन लोगों ने उसे फर्जी मुकदमे में फंसाया था, उन के खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए.
संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत जेलों का रखरखाव और मैनेजमैंट पूरी तरह से राज्य सरकारों का सब्जैक्ट है. हर राज्य में जेल प्रशासन तंत्र चीफ औफ प्रिजंस (कारागार प्रमुख) की देखरेख में काम करता है, जो आईपीएस अफसर होता है.
नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि जेल की कुल आबादी के 65 फीसदी कैदी अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं. इन में अनुसूचित जाति के 21.7 फीसदी, अनुसूचित जनजाति के 11.5 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग के 31.6 फीसदी हैं.
ये भी पढ़ें- हर कदम दर्द से कराहती बाल विधवाएं
व्यवस्था की गड़बड़ी
भारत में जेलें 3 ढांचागत समस्याओं से जू झ रही हैं: एक, जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी, जिस का श्रेय जेल की आबादी में अंडरट्रायल्स (विचाराधीन कैदियों) के बड़े फीसदी को जाता है. 2, कर्मचारियों की कमी. 3, फंड की कमी. इस का नतीजा तकरीबन जानवरों जैसी जिंदगी, गंदगी और कैदियों व जेल अफसर के बीच हिंसक झड़पों के तौर पर निकला है.
ठूंसठूंस कर भरे कैदी
नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया, 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की कई जेलें कैदियों की तादाद के लिहाज से छोटी पड़ रही हैं. भारतीय जेलों में क्षमता से 14 फीसदी ज्यादा कैदी रह रहे हैं. इस मामले में छत्तीसगढ़ और दिल्ली देश में सब से आगे हैं, जहां की जेलों में क्षमता से दोगुने से ज्यादा कैदी हैं.
नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक, देशभर की जेलों में 4,19,623 कैदी हैं, जिन में से 17,834 औरतें हैं यानी कुल कैदियों में से 4.3 फीसदी औरतें हैं. ये आंकड़े 2015 के हैं.
साल 2000 में यह आंकड़ा 3.3 फीसदी था यानी 15 साल में औरत कैदियों में एक फीसदी का इजाफा हुआ है. इतना ही नहीं 17,834 में से 11,916 यानी तकरीबन 66 फीसदी औरतें विचाराधीन कैदी हैं.
मेघालय की जेलों में क्षमता से तकरीबन 77.9 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 68.8 फीसदी और मध्य प्रदेश में 39.8 फीसदी ज्यादा कैदी हैं.
उत्तर प्रदेश में विचाराधीन कैदियों की तादाद 62,669 थी. इस के बाद बिहार 23,424 और महाराष्ट्र 21,667 का नंबर था. बिहार में कुल कैदियों के 82 फीसदी विचाराधीन कैदी थे, जो सभी राज्यों से ज्यादा थे.
भारतीय जेलों में बंद 67 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं यानी ऐसे कैदी, जिन्हें मुकदमे, जांच या पूछताछ के दौरान हवालात में बंद रखा गया है, न कि कोर्ट द्वारा किसी मुकदमे में कुसूरवार करार दिए जाने की वजह से.
ये भी पढ़ें- नेताओं के दावे हवा-हवाई, दीपावली के पहले ही गला घोंटू हवाओं ने दी दस्तक
अंतर्राष्ट्रीय मानकों के हिसाब से भारत की जेलों में ट्रायल या सजा का इंतजार कर रहे लोगों का फीसदी काफी ज्यादा है. उदाहरण के लिए इंगलैंड में यह 11 फीसदी है, जबकि अमेरिका में 20 फीसदी और फ्रांस में 29 फीसदी है.
साल 2014 में देश के 36 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से 16 में 25 फीसदी से ज्यादा विचाराधीन कैदी एक साल से ज्यादा वक्त से हवालात में बंद थे. जम्मूकश्मीर 54 फीसदी के साथ इस लिस्ट में सब से ऊपर है. उस के बाद गोवा 50 फीसदी और गुजरात 42 फीसदी. उत्तर प्रदेश सब से ऊपर है. यहां विचाराधीन कैदियों की तादाद सब से ज्यादा 18,214 थी.
देश की विभिन्न अदालतों में 31 मार्च, 2016 तक लंबित पड़े मामलों की तादाद 3.1 करोड़ थी, जिसे किसी भी लिहाज से बहुत बड़ा आंकड़ा कहा जा सकता है. ऐसे में यह मान कर चला जा सकता है कि किसी असरदार दखलअंदाजी की गैरमौजूदगी में भारत की जेलें इसी तरह भरी रहेंगी.
साल 2014 के आखिर तक कुल विचाराधीन कैदियों में से 43 फीसदी यानी तकरीबन 1.22 लाख लोग 6 महीने से ले कर 5 साल से ज्यादा वक्त तक विभिन्न हवालातों में बंद थे. इन में से कइयों ने तो जेल में इतना समय बिता लिया है, जितना उन्हें कुसूरवार होने की असली सजा के तौर पर भी नहीं बिताना पड़ता.
नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के रिकौर्ड के मुताबिक, 2.82 लाख विचाराधीन कैदियों में 55 फीसदी से ज्यादा मुसलिम, दलित और आदिवासी थे.
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश की कुल आबादी में इन 3 समुदायों का सम्मिलित हिस्सा 39 फीसदी है. इस में मुसलिम, दलित और आदिवासी क्रमश: 14.3 फीसदी, 16.6 फीसदी और 8.6 फीसदी हैं. लेकिन कैदियों के अनुपात के हिसाब से देखें, जिस में विचाराधीन और कुसूरवार करार दिए गए, दोनों तरह के कैदी शामिल हैं, इन समुदायों के लोगों का कुल अनुपात देश की आबादी में इन के हिस्से से ज्यादा है.