नमामि: भाग 1

लेखिका- मधुलता पारे

अचानक डोरबैल बजी. दरवाजा खोला तो रामवती धड़धड़ाते हुए अंदर घुसी और कल्पना के कुछ बोलने से पहले ही शुरू हो गई, ‘‘क्या करूं बीबीजी, देर हो गई. सोनू का डब्बा जो बनाना था.’’

कल्पना ने पूछा, ‘‘यह सोनू कौन है? तुम्हारा बेटा?’’

रामवती की 2 बेटियां और एक बेटा है.

रामवती के हाथ तेजी से काम करते जा रहे थे. एक सैकंड के लिए हाथ रोक कर कल्पना की ओर देख कर वह बोली, ‘‘नहीं बीबीजी, मेरे बेटे को तो स्कूल में ही खाना मिलता है. सोनू मेरा दामाद है. यहां वह जींस सिलने के कारखाने में काम करता है. वहां उसे 9 बजे तक पहुंचना होता है.’’

कल्पना को देर हो रही थी. सोनू की पहेली में उल झती तो और देर हो जाती. उस ने रामवती से कहा, ‘‘देखो, मु झे देर हो रही है. अभी  झाड़ूपोंछा रहने दो. शाम को कर देना.’’

कल्पना ने जैसेतैसे टिफिन में कुछ नमकीन और बिसकुट रखे. रामवती के बाहर निकलते ही उस ने ताला लगाया और तेज कदमों से बस स्टौप की ओर बढ़ गई. गनीमत थी कि बस मिल गई. थोड़ा सुकून से बैठने को मिला. वह विचारों में खो गई.

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छोटा सा परिवार था कल्पना का. पति राजेश, 2 बच्चे श्रेयस और श्रेया और मांजी. राजेश एक सैंटर सर्विस में काम करते थे. बेटा बैंगलुरु से इंजीनियरिंग कर रहा था और बेटी 12वीं जमात में पढ़ रही थी.

कल्पना स्टेट गवर्नमैंट के औफिस में काम करती थी. अचानक दूर इस शहर में उस का ट्रांसफर हो गया था. पहले तो मन हुआ कि नौकरी छोड़ दे, फिर बच्चों की पढ़ाई और उन के भविष्य की खातिर इस्तीफा देने का विचार छोड़ना पड़ा.

राजेश ने भी कल्पना को सम झाया था, ‘आज के हालात में 300 किलोमीटर की दूरी परिवहन के साधनों के चलते महज कुछ घंटों की रह गई है. छुट्टियों में कभी तुम आ जाना, कभी मैं ही चला आऊंगा. ऐसे ही समय निकल जाएगा.’

बड़ी दीदी ने भी इस गंभीर समस्या को सुल झाने में अपना पूरा सहयोग दिया. राजेश की शादी से ले कर दोनों बच्चों के जन्म के समय बाबूजी के न रहने पर एक दीदी ही थीं, जो हर समय रक्षा कवच बन कर खड़ी रहती थीं. उन के रहते राजेश को कभी किसी बात की चिंता नहीं रहती थी.

राजेश के घर से 2 किलोमीटर की दूरी पर दीदी अपने परिवार के साथ रहती थीं. 2 साल पहले राजेश के जीजाजी नहीं रहे थे. दीदी ने अपने परिवार को बखूबी अनुशासन में बांध कर रखा हुआ था. इस शहर में कल्पना के मकान की समस्या को उन्होंने चुटकी बजाते ही हल कर दिया था.

दरअसल, उन की छोटी बहू के पिताजी के इस शहर में 2 मकान थे. एक में वे रहते थे और एक किराए पर उठाया हुआ था. कुछ दिन पहले ही किराएदार ने मकान खाली किया था. उसी मकान में कल्पना आ गई थी.

अचानक बस रुकी. कल्पना का स्टौप आ गया था. वह जल्दी से उतर कर औफिस पहुंची और काम में लग गई.

शाम को घर पहुंच कर कल्पना पलंग पर निढाल सी लेटी ही थी कि रामवती आ गई.

रामवती सांवले रंग की भरेपूरे बदन की दबंग औरत थी.

‘‘पोंछा लगा दूं क्या?’’ रामवती ने कल्पना से पूछा.

कल्पना ने कहा, ‘‘हां, लगा दे पोंछा और फिर चाय बना देना.’’

कल्पना ने रामवती से पहले ही तय कर लिया था कि वह शाम को तकरीबन 6 बजे आएगी तो वह चाय बना देगी या जो भी काम होगा कर देगी.

चाय पीतेपीते अचानक कल्पना को ध्यान आया और उस ने रामवती से पूछ लिया, ‘‘जैसा कि तुम ने बताया था तुम्हारी बेटियां छोटी हैं, फिर यह दामाद कहां से आ गया?’’

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‘‘अरे बीबीजी, नमामि से सोनू की सगाई की है, तो फिर वह दामाद ही हुआ न.’’

‘‘नमामि तुम्हारी बेटी का नाम है क्या? बड़ा अच्छा नाम है. किस ने रखा है?’’ यह सुन कर रामवती इतमीनान से शुरू हो गई, ‘‘बीबीजी, जब मैं दाखिले के लिए बेटी को स्कूल ले कर गई थी, तब मैडम ने उस का नाम पूछा था. मैं ने बता दिया था कि जरा दबे रंग की है न, तो हम ने उस का नाम काली रख दिया था.

‘‘मैडम ने काली नाम लिखने से मना कर दिया और कहा कि दूसरा नाम बताओ तो मैं ने कहा कि मैडमजी, आप ही कोई अच्छा सा नाम लिख दो.

‘‘मैडमजी ने नमामि नाम रखा और कहा कि इसे आज के बाद से काली नाम से मत बुलाना, तब से हम सब उसे नमामि ही बुलाते हैं.’’

कल्पना ने पूछा, ‘‘दूसरी बेटी का क्या नाम है?’’

रामवती ने कहा, ‘‘शिवानी.’’

‘‘तुम्हारे बेटे का क्या नाम है?’’

‘‘उस का स्कूल में दीपक नाम है और घर में हम राजा बुलाते हैं,’’ रामवती ने कहा.

‘‘नमामि तो अभी नाबालिग है… इतनी जल्दी सगाई कर दी. दामाद सोनू का ध्यान रखना, उस के लिए रोज खाना बनाना… क्या वह तुम्हारे घर में ही रहता है?’’ कल्पना ने पूछा.

कल्पना के सवालों को नजरअंदाज करते हुए रामवती ने बात जारी रखी, ‘‘बीबीजी, 17 साल की तो हो गई है नमामि. जल्दी ही 18 साल की हो जाएगी. उस का पढ़ाई में मन लगता नहीं है. 8वीं जमात के बाद स्कूल जाना छोड़ दिया था. पिछले साल मेरी भतीजी की शादी थी. सोनू उसी का देवर है. मु झे देखते ही भा गया. एकदम गोराचिट्टा गबरू जवान है. मैं ने मन ही मन उसे नमामि के लिए पसंद कर लिया.

‘‘मैं ने अपने भाई और मां से बात की. उन को भी इस शादी से कोई एतराज नहीं था. फिर हम लोगों ने सोनू के घर वालों से बात की. उन लोगों को भी नमामि पसंद आ गई.

‘‘मैं ने उसी शादी में नमामि की सोनू से सगाई करा दी थी.’’

‘‘पर, तुम ने अभी से उसे अपने घर में क्यों रख लिया?’’ कल्पना ने सवाल दागा.

‘‘अरे बीबीजी, हमारा घर कोई ज्यादा बड़ा तो है नहीं. बस, एक कमरा है. दिनभर घर में कोई न कोई रहता है. एक तरफ किचन का प्लेटफार्म है, जिस पर गैस रखी है. दूसरी टेबल पर टैलीविजन रखा है. बाकी थोड़ी सी जगह है, जिस में हम सब रहते हैं.

‘‘बाहर छोटा सा बरामदा है, जिस में मेरे ससुर की खटिया लगी है. सोनू का कारखाना उस के खुद के घर से 8 किलोमीटर दूर है, पर मेरे घर से 2 किलोमीटर की दूरी पर है.

‘‘दूसरी बात, उसे मेरे हाथ का खाना बहुत पसंद है. जब अपना दामाद है तो उस का डब्बा बनाना मेरा फर्ज बनता है न.

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‘‘बीबीजी, मैं ने उस से कह दिया कि घर में रहना है तो कायदेकानून से रहना पड़ेगा. मेरा बड़ा लिहाज करता है वह.’’

रामवती की बात में दम था. खाना वह सच में बहुत अच्छा बनाती थी. कल्पना की सभी समस्याओं का समाधान हो चुका था. अब तक उस की थकान भी दूर हो चुकी है.

रामवती ने पूछा, ‘‘आप के लिए कुछ बनाऊं क्या?’’

आज कल्पना ने औफिस की कैंटीन में ही खाना खा लिया था. अभी भूख नहीं थी. उस ने सोचा कि भूख लगने पर दलियाखिचड़ी कुछ बना लेगी, इसलिए रामवती के सवाल के जवाब में ‘नहीं’ कहा. साथ ही, उसे दूसरे दिन सुबह 8 बजे आने की याद दिलाई.

रामवती ने ‘हां’ में अपनी सहमति जताई और वहां से चली गई.

कल्पना ने दरवाजा बंद किया और मोबाइल में नंबर डायल करने लगी. रोज शाम को एक बार राजेश से बात कर के मन को बड़ा सुकून मिलता था.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

चौथा चक्कर

लेखिका- डा. नरेंद्र चतुर्वेदी

रामजी एक सरकारी दफ्तर में बड़े साहब थे. सुबह टहलने जाते तो पूरी तरह तैयार हो कर जाते थे. पांव में चमकते स्पोर्ट्स शूज, सफेद पैंट, सफेद कमीज, हलकी सर्दी में जैकेट, सिर पर कैप, कभीकभी हाथ में छड़ी. पार्क में टहलने का शौक था, अत: घर से खुद कार चला कर पार्क में आते थे. वहां पर न जाने क्यों 3 चक्कर के बाद वह बैठ जाते. शायद ही कभी उन्होंने चौथा चक्कर लगाया हो.

उस दिन पार्क में बहस छिड़ गई थी.

कयास लगाने वालों में एक ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘अरे, बामन ने 3 पग में पृथ्वी नाप दी थी तो रामजी साहब 3 चक्कर में पार्क को नाप देते हैं.’’

कुछ दिन पहले पार्क के दक्षिण में हरी घास के मैदान पर सत्संगियों ने कब्जा कर लिया. वे अपने किसी गुरु को ले आए थे. छोटा वाला माइक और स्पीकर भी लगा लिया था. गुरुजी के लिए एक फोल्ंिडग कुरसी कोई शिष्य, जिस का मकान पार्क के पास था, ले आता था.

इस बीच घूमने वाले, अपने घूमने का समय कम कर वहां बैठ जाते थे और गुरुजी मोक्ष की चर्चा में सब को खींचने का प्रयास करते थे. वह बता रहे थे कि थोड़े से अभ्यास से ही तीसरी आंख खुल जाती है और वही सारी शक्तियों का घर है. हमारे गुरु पवित्र बाबा के आश्रम पर आप आइए, मात्र 7 दिन का सत्संग है.

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पता नहीं क्यों, गुरुजी को रामजी साहब की सुंदर शख्सियत भा गई. उन के भीतर का विवेकानंद जग गया. अगर यह सुदर्शन मेरे सत्संग में आ जाए, तो फिर शायद पूरे पार्क के लोग आ जाएं. उन्होंने सावधानी से रामजी साहब की परिक्रमा के समय…जीवन की क्षणभंगुरता, नश्वर शरीर को ले कर, कबीर के 4 दोहे सुना दिए, पर रामजी का ध्यान उधर था ही नहीं.

‘‘खाली घूमने से कुछ नहीं होगा. प्राण शक्ति का जागरण ही योग है,’’ गुरु समझा रहे थे.

रामजी साहब ने अनसुना करते हुए भी सुन लिया…

उन के दूसरे चक्कर के समय, एक शिष्य उन के नजदीक आया और बोला, ‘‘गुरुजी, आप से कुछ बात करना चाहते हैं.’’

‘‘क्यों? मुझे तो फुरसत नहीं है.’’

‘‘फिर भी, आप मिल लें. वह सामने बैठे हैं.’’

‘‘पर वहां तो एक ही कुरसी है.’’

‘‘आप उधर बैंच पर आ जाएं, मैं उधर चलता हूं.’’

शिष्य को यह सब बुरा लगा. फिर भी वह अपने गुरुजी के पास यह संदेश ले गया.

गुरुजी मुसकराते हुए उठे, ‘‘नारायण, नारायण…’’

रामजी साहब ने गुरुजी को नमस्कार किया तो उन का हाथ, आशीर्वाद की मुद्रा में उठा और बोले, ‘‘वत्स, आप का स्वास्थ्य कैसा है?’’

‘‘बहुत बढि़या.’’

‘‘आप रोजाना इस पार्क में टहलने आते हैं?’’

‘‘हां.’’

‘‘पर मैं देखता हूं कि आप 3 ही चक्कर लगाते हैं, क्यों?’’

रामजी साहब हंसे, जैसे लाफिंग क्लब के सदस्य हंसते हैं. गुरुजी और शिष्य उन्हें इस तरह बेबाक हंसता देख अवाक् रह गए.

‘‘तो क्या आप मेरे चक्कर गिना करते हैं?’’ रामजी साहब ने पूछा.

‘‘नहीं, नहीं, ये भक्तगण इस बात की चर्चा करते हैं.’’

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‘‘हां, पर आप ने तो सीधा ही चौथा चक्कर लगा लिया, क्या?’’

गुरुजी समझ नहीं पाए. वह अवाक् से रामजी साहब को देखते रह गए.

अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए रामजी साहब बोले, ‘‘महाराज, आप को इस कम उम्र में संन्यास की क्या आवश्यकता पड़ गई?’’

‘‘मेरी बचपन से रुचि थी, संसार के प्रति आकर्षण नहीं था.’’

‘‘तो अब भी बचपन की रुचि उतनी ही है या बढ़ गई?’’ रामजी ने पूछ लिया. सवाल तीखा और तीर की तरह चुभने वाला था.

‘‘महाराज एक जातिगत आरक्षण होता है,’’ गुरुजी के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए रामजी आगे बोले, ‘‘उस में कम योग्य भी अच्छा पद पा सकता है, क्योंकि पद आरक्षित है और उस पर बैठने वाले भी कम ही हैं. एक यह ‘धार्मिक’ आरक्षण है, यहां कोई बैठ जाए, उस का छोटामोटा पद सुरक्षित हो जाता है. आप शनि का मंदिर खोल लें. वहां लोग अपनेआप खिंचे चले आएंगे. टीवी पर देखें, सुकुमार संतसाध्वियों की फौज चली आई. फिर आप को इस आरक्षण की क्यों जरूरत हो गई? पार्क में मार्केटिंग की अब क्या जरूरत है?’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है, महाराज तो इंजीनियरिंग गे्रजुएट हैं, वैराग्य ही आप को इधर ले आया,’’ एक भावुक शिष्य बोला.

‘‘महाराज, वही तो मैं कह रहा हूं कि बिना 3 चक्कर चले आप चौथे पर कैसे पहुंच गए?’’

‘‘नहीं, नहीं, मैं ने विद्याध्ययन किया है, स्वाध्याय किया है, गुरु आश्रम में दीक्षा ली है,’’ महाराज बोले.

‘‘पहला चक्कर तो पूरा ही नहीं हुआ और पहले से चौथे पर छलांग और महाराज, जो आप कह रहे थे कि चौथे चक्कर की जरूरत है, तो क्यों? अभी तो नौकरी की लाइन में लगना था?

‘‘बुद्ध के जमाने में दुख था, होगा. हमारे बादशाहों के महल में एक भी वातानुकूलित कमरा नहीं था. आज तो आम आदमी के पास भी अच्छा जीवन जीने का आधार है. घर में गैस है, फ्रिज है, गाड़ी है, घूमने के लिए स्कूटर है. उस की सुरक्षा है. उस के बच्चे स्कूल जाते हैं. घर है. महाराज, आज जीवन जीने लायक हो गया है. बताएं, सब छोड़ कर किस मुक्ति के लिए अब जंगल जाया जाए?’’

गुरुजी चुप रह गए थे.

‘‘सात प्राणायाम, आंख मींचने की कला, गीता पर व्याख्यान, इस से ही काम चल जाए फिर कामधाम की क्या जरूरत है?’’

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रामजी साहब की बात सुन कर शिष्यगण सोच रहे थे, उन्हें क्यों पकड़ लाए.

‘‘फिर भी मानव जीवन का एक उद्देश्य है कि वह इस जीवन में शांति, प्रेम, आनंद को पाए. भारतीय संस्कृति जीवन जीने की कला सौंपती है, उस का भी तो प्रचार करना है,’’ महाराज बोले.

‘‘महाराज, उस के लिए घर छोड़ कर, आश्रम की क्या जरूरत है. आश्रम भी ईंटपत्थर का, यहां घर भी ईंटपत्थर का, भोजन की तो वहां भी जरूरत होती है, रहा सवाल ग्रंथ और पाठ का, तो वह घर पर भी कर सकते थे. आंख मींचना ही ध्यान है, तो आप कहीं भी ध्यान लगा सकते हैं, यह बात दूसरी है जब बेपढ़ेलिखे इस उद्योग में अच्छा कमा रहे हैं, तब पढ़ेलिखे तो बिजनेस चला ही लेंगे? आप ने मुझ से पूछा है, इसीलिए मैं ने भी आप से पूछ लिया, वरना इस चौथे चक्कर के पीछे मैं कभी नहीं पड़ता.’’

‘‘महाराज के गुरुजी के आश्रम तो दुनिया भर में हैं. आज शांति की जरूरत सब को है, जिसे आज पूरा विश्व चाहता है,’’ एक शिष्य बोला.

‘‘हां,’’ महाराज चहके, ‘‘यहां के लोगों में अज्ञान है, यहां विदेशों से लोग आते हैं और ज्ञान लेने में रुचि ले रहे हैं.’’

‘‘आप विदेश हो आए क्या?’’

‘‘अभी नहीं, महाराज का कार्यक्रम बन गया है. अगले माह जा रहे हैं,’’ दूसरा शिष्य चहका.

‘‘वहां क्यों? काम तो यहां अपने देश में बहुत है. गरीबी है, अज्ञान है, अशिक्षा है. महाराज, मुफ्त में विदेश यात्राएं, वहां की सुविधाएं, डालर की भेंट तो यहां नहीं है. पर महाराज यहां भी बाजार मंदा नहीं है.’’

शिष्यगण नाराज हो चले थे. सुबहसुबह जो पार्क में टहलने आए थे वे भी यह संवाद सुन कर रुक गए थे.

‘‘लगता है आप बहुत अशांत हैं,’’ महाराज बोले, ‘‘कसूर आप का नहीं है, कुछ तत्त्व हैं, वे हमेशा धर्म के खिलाफ ही जनभावना बनाते रहते हैं. पर उस से क्या फर्क पड़ा? दोचार पत्रपत्रिकाएं क्या प्रभाव डालेंगी? आज करोड़ों मनुष्य सुबह उठते ही धर्म से जुड़ना चाहते हैं. सारे चैनल हमारी बात कह रहे हैं. कहां क्या गलत है?’’

महाराज ने गर्व के साथ श्रोताओं की ओर देखा. शिष्यों ने तालियां बजा दी थीं.

‘‘आप सही कह रहे हैं, आजादी के समय न इतने बाबा थे, न इतना पाप बढ़ा था. जब आप कर्मफल को मानते हैं तब इन कर्मकांडी व्यापारों की क्या जरूरत है. क्या 10 मिनट को आंख मींचने से, मंदिर की घंटियां बजाने से, यज्ञ करने से, तीर्थयात्रा से कर्मफल कट सकता है? महाराज, शांति तो भांग पी कर भी आ जाती है. मुख्य बात मन का शांत होना होता है और वह होता है, अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने से, पलायन से नहीं.’’

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युवा संन्यासी का चेहरा उतर गया था.

उस ने उठने का संकेत किया.

‘‘महाराज, पहला चक्कर धर्म का था, वह तो पैदा होते ही मिल गया. शिक्षा ग्रहण की, बड़े हुए तो देश का कानून मिल गया, समाज का विधान मिल गया. धन का दूसरा चक्कर लगाया, 30 साल नौकरी की. तीसरा चक्कर गृहस्थी का अभी चल रहा है, चलेगा. इन तीनों चक्करों में महाराज खूब सुख मिला है, मिल रहा है, शांति है.

‘‘महाराज, यह चौथा चक्कर तो नीरस होता है. जब इतना सुख मिल रहा है तो मोक्ष पाने को चौथा चक्कर क्यों लगाएं.

‘‘मृत्यु के बाद आनंद कैसा, आज तक तो कोई बताने आया नहीं. सुख तो देह भोगती है, शांति मन भोगता है, पर महाराज, जब तन और मन दोनों ही नहीं होंगे, तब कौन भोगेगा और कौन बताएगा? जैसे साधारण आदमी की मौत होती है वैसे ही महात्मा रोगशोक से लड़ते हुए मरते हैं.

‘‘महाराज मान लें, इसी जीवन में मोक्ष मिल जाएगा तो महाराज उस की शर्त तो ‘कष्टवत’ हो जाना है, और बाद मरने के मोक्ष मिला तो. महाराज, कल आप कह रहे थे, बूंद समुद्र में मिल जाएगी तो समुद्र का पानी खारा होता है, पीने लायक ही नहीं, उस नीरस जीवन से तो यह सरस जीवन श्रेष्ठ है. हां, धंधे के लिहाज से ठीक है, आप इंजीनियर हैं, कंप्यूटर जानते हैं, इंटरनेट जानते हैं, अच्छी अंगरेजी आती है. कमाएं, पर मुझे बख्शें. हां, यह बात दूसरी है, आज जैसे बालाएं विज्ञापन में बिक रही हैं, बाबा भी बिक रहे हैं, उन का काम धन कमाना है. कोई सुने या न सुने अपनी बात कहने का हक तो है न.

‘‘आप लोग विचारें, मैं तो अपने इन 3 चक्करों में ही संतुष्ट हूं. क्यों अनावश्यक उस चौथे चक्कर के प्रपंच में पड़ कर अपने 3 चक्करों के सुख को खोऊं. सुख तो आप लोग खो रहे हो,’’ रामजी साहब ने भक्तों की ओर देखते हुए कहा.

भक्त लोग अवाक् थे, सोच रहे थे, क्या रामजी ने कुछ गलत कहा है, सोच तो वह भी यही रहे थे, पर कह नहीं पा रहे थे, क्यों?

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मैं जब कभी पढ़ने बैठती हूं तो मुझे तरहतरह की बातें याद आती हैं. मैं क्या करूं?

सवाल-

मैं 19 साल की हूं. मेरा पढ़ने को बहुत मन करता है, लेकिन घर के कामों से फुरसत नहीं मिलती. मैं जब कभी पढ़ने बैठती हूं तो मुझे तरहतरह की बातें याद आती हैं. इस से मैं तनाव में घिर जाती हूं. मैं अपनी पढ़ाई पर कैसे ध्यान दूं, ताकि मेरा भविष्य सुधर सके?

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जवाब-

आप घर के कामों और पढ़ाई के समय में तालमेल बैठाएं. पढ़ाई के दौरान माहौल शांत रखें और दिमाग में इधरउधर की बातें आने पर सोचें कि आप को सिर्फ पढ़ाई करनी है. यह अच्छी बात है कि आप का रुझान पढ़ाई की तरफ है. किसी सहेली के साथ पढ़ेंगी, तो मन इधरउधर नहीं भटकेगा.

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धर्म के नाम पर चंदे का धंधा

धार्मिक कहानियां हमेशा ही लोगों को कामचोर और भाग्यवादी बनाने की सीख देती हैं. सभी धर्मों की कहानियों में यह बताया जाता है कि अमुक देवीदेवता को पूजने या पैगंबर की इबादत करने से दुनिया की सारी दौलत पाई जा सकती है.

इन कहानियों का असर युवा पीढ़ी यानी नौजवानों पर सब से ज्यादा पड़ता है. यही वजह है कि हमारे देश के नौजवान कोई कामधंधा करने के बजाय गणेशोत्सव, होली, दुर्गा पूजा, राम नवमी, मोहर्रम, क्रिसमस वगैरह त्योहारों पर जीजान लुटा देते हैं. ऐसे नौजवान धार्मिक कार्यक्रमों के बहाने जबरन चंदा वसूली को ही रोजगार मानने लगते हैं.

चंदा वसूली के इस धंधे में धर्म के ठेकेदारों का खास रोल रहता है और चंदे के धंधे के फलनेफूलने में नौजवान खादपानी देने का काम करते हैं. तथाकथित पंडेपुजारियों द्वारा दी गई जानकारी की बदौलत धार्मिक उन्माद में ये नौजवान अपना होश खो बैठते हैं.

धर्म के नाम पर चंदा वसूली के इस खेल में दबंगई भी दिखाई जाने लगी है. स्कूलकालेज के पढ़ने वाले छात्रों की टोली इस में अहम रोल निभाती है.

जनवरी, 2018 में जमशेदपुर के साकची के ग्रेजुएट कालेज में सरस्वती पूजा के नाम पर छात्र संगठन के लोगों ने चंदा न देने वाली छात्राओं के साथ मारपीट की थी. सितंबर, 2019 में भुवनेश्वर में गणेश पूजा के दौरान जबरन चंदा वसूली करने वाले 13 असामाजिक और उपद्रवी तत्त्वों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था.

दरअसल, त्योहारों के मौसम में चंदा वसूलने का धंधा खूब फलताफूलता है. हाटबाजारों की दुकानों, निजी संस्थानों और सरकारी दफ्तरों में भी इन की चंदा वसूली बेरोकटोक चलती रहती है.

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होली, गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा के दौरान तो ये असामाजिक तत्त्व खुलेआम सड़क पर बैरियर लगा कर आनेजाने वाली गाडि़यों को रोक कर चंदा वसूली करते हैं. चंदा न देने पर गाडि़यों की हवा निकालने के साथ वाहन मालिकों के साथ गलत बरताव किया जाता है.

धर्म के नाम पर इकट्ठा किए गए चंदे के खर्च और उस के बंटवारे को ले कर कई बार ये नौजवान आपस में ही उल झ कर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं.

10 अक्तूबर, 2019 को मध्य प्रदेश की गाडरवाला तहसील के गांव पिठवानी की घटना इस बात का जीताजागता सुबूत है. गांव में दुर्गा पूजा पर हर घर से चंदा इकट्ठा किया गया और दशहरे के बाद हुई मीटिंग में चंदे के हिसाबकिताब को ले कर नौजवानों में  झगड़ा हो गया. देखते ही देखते  झगड़ा इतना बढ़ गया कि 3 नौजवानों ने एक नौजवान को इस कदर पीटा कि उस की मौत हो गई.

धर्म के बहाने पुण्य कमाने वाले वे तीनों नौजवान इस समय जेल की सलाखों के पीछे हैं.

धर्म के नाम पर मौजमस्ती

धार्मिक त्योहारों पर चंदे के दम पर होने वाले बेहूदा डांस, लोकगीत और आरकेस्ट्रा के कार्यक्रमों में नशे का सेवन कर यही नौजवान मौजमस्ती करते हैं.

अनंत चतुर्दशी और दशहरा पर्व पर निकाले जाने वाले चल समारोह और प्रतिमा विसर्जन कार्यक्रमों में धर्म की दुहाई देने वाले ये नौजवान डीजे के गानों की मस्ती में इस कदर डूबे रहते हैं कि उन्हें होश ही नहीं रहता है.

12 सितंबर, 2019 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में  गणेश प्रतिमा के विसर्जन के लिए गए नौजवानों में से 13 की मौत की कहानी तो यही बयां करती है. तालाब में डूबने से मौत की नींद सोए सभी लड़के 15 से 30 साल की उम्र के थे. अंधश्रद्धा और अंधभक्ति के रंग में रंगे ये नौजवान रात के 3 बजे 2 नावों पर सवार हो कर प्रतिमा विसर्जन के लिए तालाब के बीच में गए थे.

गणेशोत्सव के नाम पर की गई मस्ती और हुड़दंग में नाव का संतुलन बिगड़ गया और पुण्य कमाने गए लड़के अपनी जान से हाथ धो बैठे.

कुछ इसी तरह का एक और वाकिआ राजस्थान के धौलपुर में 8 अक्तूबर, 2019 को हुआ था. दशहरे के दिन आयोजकों की टोली के कुछ नौजवान दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के लिए चंबल नदी गए हुए थे. दोपहर 2 बजे नदी की तेज धार में प्रतिमा विसर्जन के बहाने मौजमस्ती कर रहे 2 नौजवान बह गए, जिन्हें बचाने की कोशिश में 8 दूसरे नौजवानों की भी मौत हो गई.

इसी दिन मध्य प्रदेश के देवास के सोनकच्छ थाना क्षेत्र के गांव खजूरिया में भी तालाब में प्रतिमा विसर्जन के दौरान नौजवानों की डूबने से मौत हो गई थी.

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इन घटनाओं में हुई मौतें तो यही साबित करती हैं कि पढ़नेलिखने या कामधंधा खोजने की उम्र में ये नौजवान धार्मिक कट्टरता में पड़ कर अपनी जिंदगी से ही हाथ धो

रहे हैं. देश के पढ़ेलिखे नौजवान कामधंधा न कर के किस कदर धार्मिक आयोजन की बागडोर संभालने में अपना भला सम झ रहे हैं.

दरअसल, देश में बेरोजगारी का आलम यह है कि पिछले कई सालों से नौजवानों को रोजगार के मौके नहीं मिल पा रहे हैं. लाखों की तादाद में नौजवान बेकार घूम रहे हैं. सरकार केवल नौजवानों को रोजगार देने का लौलीपौप दिखा कर उन के वोट बटोर लेती है और फिर नौजवानों को राष्ट्र प्रेम, धारा 370, मंदिरमसजिद, गौहत्या रोकने के मसलों में उल झा देती है.

यही वजह है कि नौजवान धार्मिक कार्यक्रमों के बहाने जबरन चंदा वसूली को रोजगार मान कर 10-15 दिन मौजमस्ती से काट लेना चाहते हैं.

गांवदेहातों में यज्ञ, हवन, रामकथा, भागवत कथा, प्रवचन देने का चलन इतना बढ़ा है कि वहां हर महीने इस तरह के आयोजन होते रहते हैं. ऐसे आयोजनों में एक हफ्ते में 2 से 5 लाख रुपए का खर्चा आ ही जाता है.

भक्तों को काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर रहने का संदेश देने वाले ये उपदेशक और कथावाचक लाखों रुपयों के चढ़ावे की रकम और कपड़ेलत्ते ले कर अपना कल्याण करने में लगे रहते हैं.

हालात ये हैं कि गांवों में बच्चों को पढ़ाई के लिए अच्छे स्कूल नहीं हैं. लोगों के इलाज की बुनियादी सहूलियतें नहीं हैं. रातदिन खेतों में काम करने वाले किसानमजदूरों की खूनपसीने की कमाई का एक बड़ा हिस्सा ऐसे कार्यक्रमों में खर्च हो जाता है.

धर्म के पुजारी पापपुण्य का डर दिखा कर कथा, प्रवचन और भंडारे के नाम से उन का पैसा ऐंठने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.

पत्रकार बृजेंद्र सिंह कुशवाहा बताते हैं कि गांवदेहात में आएदिन ढोंगी संतमहात्मा यज्ञ और मंदिर बनाने के नाम पर लोगों से चंदा वसूली करने आते हैं. धर्म की महिमा बता कर चंदे की मोटी रकम लूटने वाले ये पाखंडी बाबा आलीशान गाडि़यों में घूम कर चंदे का कारोबार करते हैं.

कोई भी धर्म आदमी को कर्मवीर बनने की सीख नहीं देता. धर्म के स्वयंभू ठेकेदारों द्वारा लिखी गई धार्मिक कहानियों में यही बताया गया है कि देवीदेवताओं की कथापूजन करने से बिना हाथपैर चलाए सभी काम पूरे हो जाते हैं.

पंडेपुजारी, मौलवी और पादरियों ने भी लोगों को इस कदर धर्मांध बना दिया है कि लोग उन की बातों पर आंखें मूंद कर अमल करने में ही अपनी भलाई सम झते हैं, तभी तो लोग धार्मिक कार्यक्रमों में बढ़चढ़ कर चंदा देने में संकोच नहीं करते हैं.

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जनता के चुने गए प्रतिनिधि, जो बड़े पदों पर बैठे हैं, वे धर्म के ठेकेदारों को मौज करने की छूट दिए हुए हैं. हमारे द्वारा चुनी गई सरकारें भी धार्मिक पाखंड में बराबर की भागीदार हैं. सरकारें भी यही चाहती हैं कि लोग इसी तरह धर्म के मसलों में उल झे रहें. ये धर्म की कहानियां इतनी बार इतने सारे लोगों के मुंह से कही जाती हैं कि ये ही सच लगने लगती हैं.

देश के बड़ेबड़े मठों, मंदिरों वगैरह में रखी गई दानपेटियों से निकली धनराशि और भगवान को चढ़ावे में भेंट किए बेशकीमती धातु के गहने चंदे का गुणगान करते नजर आते हैं. इन नौजवानों को यह बात सम झ में क्यों नहीं आती कि आज तक पूजापाठ कर के न तो किसी को नौकरी मिली है और न ही इस से किसी का पेट भरा है. जिंदगी में कुछ करगुजरने के लिए जीतोड़ मेहनत करनी पड़ती है.

मौजूदा दौर में जरूरत इस बात की है कि धर्म के आडंबरों में पैसा फूंकने के बजाय लोग बच्चों की पढ़ाईलिखाई में पैसा खर्च कर उन्हें इस काबिल बनाएं कि वे आजीविका के लिए नौकरी पा सकें या उन्नत तरीकों से खेतीकिसानी या दूसरे कामधंधे कर पैसों की बचत करना सीखें. धर्म के नाम पर दी गई चंदे की रकम से केवल धर्म के ठेकेदारों का ही भला होता है.

धर्म के दुकानदार तो बहुत हैं, पर कर्म के दुकानदारों का टोटा है. वे यदाकदा ही दिखते हैं, इसीलिए धर्म की जयजयकार होती है.

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Bigg Boss 13: खतरे में पड़ी सिद्धार्थ की कैप्टेंसी, असीम ने चली ये चाल

टेलीविजन इंडस्ट्री के सबसे पौपुलर शो बिग बौस सीजन 13 काफी रोमांचक होता दिखाई दे रहा है. जहा एक तरफ दर्शकों को लड़ाई झगड़े देखने को मिल रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ घर में होते मस्ती मजाक भी खूब एंटरटेन कर रहे हैं. बीते एपिसोड में घर के अंदर 3 वाइल्डकार्ड एंट्रीज का स्वागत हुआ है जिसमें मधुरिमा तुली, अरहान खान और शेफाली बग्गा शामिल हैं. अरहान खान और शेफाली बग्गा को तो आप जानते ही होगे पर आपको बता दें, मधुरिमा तुली विशाल आदित्य सिंह की एक्स गर्लफ्रेंड हैं और दोनो के बीच 36 का आंकड़ा है.

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असीम सिद्धार्थ की कैप्टेंसी को करेंगें boycott…

हाल ही में बने घर के नए कैप्टन सिद्धार्थ शुक्ला की कैप्टेंसी पर काफी सवाल खड़े हो रहे हैं. जैसे जैसे असीम रियाज सिद्धार्थ के खिलाफ जाते जा रहे हैं वैसे वैसे वे एक भी मौका नहीं छोड़ रहे सिद्धार्थ के खिलाफ चाल चलने के लिए. बीते एपिसोड में असीम विशाल आदित्य सिंह को ये कहते हैं कि अगर सिद्धार्थ हमारा लग्जरी बजट नहीं लौटाते तो वे सब मिलकर घर का कोई भी काम नहीं करेंगे यानी कि सब मिलकर सिद्धार्थ की कैप्टेंसी को boycott कर देंगे.

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असीम के फैंस ने किया सपोर्ट…

जैसे ही असीम रियाज ने सिद्धार्थ की कैप्टेंसी को boycott करने का फैसला लिया तभी से ही असीम के फैंस उन्हें उनके इस फैसले पर पूरी तरह से सपोर्ट करते दिखाई दिए. असीम के फैंस ने ट्वीट के जरिए उन्हें सपोर्ट किया, चलिए आपको दिखाते हैं कुछ ट्वीट्स…

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अहरान खान ने किया रश्मि देसाई को प्रोपोज…

बता दें, बीते एपिसोड में हुईं वाइल्डकार्ड एंट्रीज के चलते अहरान खान ने रश्मि देसाई को प्रोपोज किया और अपने दिल की बात बोली तो वहीं दूसरी तरफ शेफाली बग्गा ने घर में आते ही शहनाज गिल से माफी मांगी और शहनाज ने भी बिग बौस का इग्नोर करने का आदेश भूलकर शेफाली बग्गा को गले लगा लिया.

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Bigg Boss 13: घर में एंट्री के साथ ही शुरू हुई विशाल और मधुरिमा की लड़ाई, देखें Video

जैसा कि आप सब जानते हैं कि बिग बौस का सीजन 13 बाकी सीजन के मुकाबले काफी सफल रहा है और इस बात की घोषणां किसी और ने नहीं बल्कि खुद बिग बौस ने कुछ दिन पहले ही की थी. बिग बौस शो के फैंस के लिए एक और खुशखबरी है कि बिग बौस सीजन 13 को 5 हफ्तों का एक्सटेंशन मिल गया है. बीते एपिसोड में आपने देखा घरवालों ने 3 वाइल्डकार्ड एंट्रीज का स्वागत काफी अच्छे से किया जिसमें से अहरान खान, शेफाली बग्गा और मधुरिमा तुली शामिल थे.

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अहरान खान ने किया रश्मि देसाई को प्रोपोज…

इन तीनों की एंट्री से पहले बिग बौस ने सभी घरवालों को एक टास्क दिया था जिसमें सभी कंटेस्टेंट्स को इन 3 वाइल्डकार्ड एंट्रीज को इग्नोर करना था. इसी के चलते अहरान खान ने रश्मि देसाई को प्रोपोज किया और अपने दिल की बात बोली तो वहीं दूसरी तरफ शेफाली बग्गा ने घर में आते ही शहनाज गिल से माफी मांगी और शहनाज ने भी बिग बौस का इग्नोर करने का आदेश भूलकर शेफाली बग्गा को गले लगा लिया. खैर, अरहान खान और शेफाली बग्गा तो पहले बिग बौस के घर में रह चुके हैं पर सभी दर्शकों की नजर इस समय मधुरिमा तुली पर टिकी हुई है.

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विशाल मधुरिमा को देख हुए काफी हैरान…

दरअसल, मधुरिमा तुली कंटेस्टेंट विशाल आदित्य सिंह की एक्स गर्लफ्रेंड रह चुकी हैं और दोनो ने साथ में डांस रिएलिटी शो नच बलिए सीजन 9 में हिस्सा लिया था. इस दौरान दोनो में काफी लड़ाइयां हुईं और यही वजह है कि दर्शक ये देखने के लिए एक्साइटिड थे कि विशाल आदित्य सिंह मधुरिमा को देख कैसे रिएक्ट करेंगे. पहले पहले तो दोनो ने एक दूसरे से कोई बात नहीं की, वो बात अलग है कि विशाल उन्हें देख काफी हैरान हे गए थे और बिग बौस से बात करने की गुजारिश कर रहे थे.

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मैं घर में खुद के लिए आई हूं, तुम्हारे लिए नहीं…

इसके बाद खुद मधुरिमा तुली विशाल से बात करने आती हैं और उनसे कहती हैं कि घर में आने से पहले उन्होनें मीडिया के सामने उनके बारे में गलत क्यों बोला. इसी के चलते दोनो की काफी बहस हो जाती है और विशाल कहते हैं कि उन्हें उनसे फर्क नहीं पड़ता तो वहीं, मधुरिमा कहती हैं कि वो घर में खुद के लिए आई हैं न कि उनके लिए. अब देखने वाली बात ये होगी कि क्या ये दोनो अपने बीते झगड़े सुलझा पाएंगे या फिर दोनो के बीच लड़ाई और बढ़ जाएगी.

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गर्व से कहो हम भारतीय हैं

ऐसी ही एक टौप क्लास तौलियाधारियों की है. पूरा जहां, जहां घर में कुरतापाजामा, लुंगी, अपरलोअर, बरमूडाटीशर्ट वगैरह पहनता हो तो पहनता रहे, अपनी बला से. हम नहीं बदलेंगे की तर्ज पर सुबह उठने के बाद और नौकरी या दुकान से घर आने के बाद ये उसी तौलिए को, जिसे नहाने के बाद इस्तेमाल किया था, लपेटे घूमते रहते हैं. इसी तौलिए को लपेटेलपेटे ये रात को नींद के आगोश में चले जाते हैं.

आप सोचते होंगे कि तौलिया अगर सोते समय खुल जाता होगा तो बड़ी दिक्कत होती होगी? जिसे आजकल की भाषा में ऊप्स मूमैंट कहते हैं. सोते समय तौलिया खुल जाए तो खुल जाए, क्या पता चलता है. वह तो जब कोई सुबहसवेरे दरवाजे की घंटी बजा दे और ये अलसाए से बिस्तर से उठें तब जा कर पता चलता है कि तौलिया तो बिस्तर की चादर से गलबहियां करे पड़ा है. तब वे जल्दी में तौलिए को लपेट दरवाजा खोलने आगे बढ़ते हैं.

वैसे भी सोते समय क्या, यह तौलिया किसी भी समय, खिसकते समय की तरह जब चाहे कमर से खिसक जाता है और ये उसे बारबार संभालते देखे जा सकते हैं. लेकिन ये तौलिया टाइप वाले भाईजी लोग बड़े जीवट होते हैं. भले ही ये बड़े अफसर हों, नेता हों या बड़ेछोटे कारोबारी हों, तौलिए से अपना लगाव नहीं छोड़ पाते हैं.

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मैं तो अपने पड़ोस में एक मूंदड़ाजी को जानता हूं. बाजार के बड़े सेठ हैं, लेकिन बचपन से ही उन को जो तौलिए में देखता आ रहा हूं तो आखिरी समय में भी तौलिए में ही देखा. बाद में घर वालों को पता नहीं क्या सू झा कि तौलिया रूपी कफन में ही उन का दाह संस्कार कर दिया गया. शायद कहीं वसीयत में उन की आखिरी इच्छा ही यह न रही हो?

मेरा बचपन से जवानी का समय उन के तौलिए में ही लिपटेलिपटे कट गया. उन की पत्नी और बच्चों ने कई बार कोशिश की थी कि वे कुरतापाजामा नहीं तो कम से कम लुंगीबंडी अवतार में आ जाएं, लेकिन वे नहीं माने तो नहीं माने. बोले, ‘यह हमारी परंपरा है. हमारे पिता और उन के पिता भी इसी तरह से रहते थे.’

वे आगे गर्व से दलील देते हैं कि गरमी प्रधान इस देश में तौलिए से अच्छा व आरामदायक और कोई दूसरा कपड़ा नहीं है. वे यह भी बताने लगते हैं कि अगर एक आदमी साल में 2 जोड़ी कुरतापाजामा या लुंगी लेता हो, तो उन पर कम से कम 1,000 रुपए का खर्चा आता है और उन्होंने जब से होश संभाला है, तब से तौलिए से ही काम चला

रहे हैं, तो सोचें कि 40-50 सालों में 50,000 रुपए तो बचा ही लिए होंगे. वाह रे परंपरा के धनी आदमी, वाह रे तेरा गणित.

हम तौलिए में ही अपना यह पूरा लेख नहीं लपेटना चाहते. महज तौलिए की ही बात से तो कई पाठक भटकाव के रास्ते पर चले जाएंगे. कई हिंदी फिल्मों के सीन दिमाग पर छा जाएंगे कि कैसे किसी छरहरी हीरोइन के गोरे व चिकने बदन से तौलिया आहिस्ता से सरका था.

चाहे फिल्म का कोई सीन हो या कोई रोमांटिक गाना हो, जो बाथरूम में फिल्माया गया हो या बाथरूम से मादक अदाओं के साथ बाहर निकलती हीरोइन पर फिल्माया गया हो, दोस्तों की कही इसी बात पर तो फिल्म को देखने हम लोग दौड़े चले गए थे.

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दूसरी ओर तौलिया नापसंदधारी टाइप सज्जन भी होते हैं. ये धारी वाला कच्छा पहन कर ही सुबह से देर रात तक घरआंगन, बाहर, बाजार, पड़ोस में दिखते रहते हैं.

हां, इस क्लास में हर चीज की तरह थोड़ा विकास यह हुआ है कि कुछेक धारीदार कच्छे में नहीं तो पैंटनुमा अंडरवियर में ही अब घर के अंदरबाहर होते रहते हैं. कुछ तो इन में इतने वीर हैं कि अपनी दुकान में भी इस परंपरागत कपड़े में ही काम चला लेते हैं. जो नहाधो कर शरीर पर तो एक कच्छा और एक बनियान चढ़ाई रात तक का काम हो गया. अल्प बचत वालों को अगर बचत सीखनी है तो इन से सीखें. लोग साल में 4 जोड़ी कपड़े खरीदते हैं तो ये 4 जोड़ी कच्छेबनियान खरीदते हैं.

आइए, अब आते हैं अगले परंपरागत संस्कारी पर. ये स्वच्छता अभियान को  झाड़ू लगाने वाले लोग हैं. ये कहीं भी हलके हो लेते हैं. ये वे लोग हैं, जो घर के बाहर की ही नाली में परंपरागत आत्मविश्वास से मूत्र त्याग करने का लोभ छोड़ नहीं पाते हैं. इस काम में वे पता नहीं क्यों गजब की ताजगी महसूस करते हैं.

डीएनए जोर मारने लगता है तो वे क्या करें? कितने भी धनी हों, इन्हें इस बात से  बिलकुल भी  िझ झक नहीं होती कि वे कहां खड़े हो कर या बैठ कर मूत्र विसर्जन कर रहे हैं.

यह तो साफ है कि अगर ये धोती, लुंगीधारी या तौलियाधारी हैं तो बैठ कर और पैंटकमीज में हों तो खड़े हो कर धारा प्रवाह हो जाते हैं, इसीलिए शायद ऐसे लोगों का पैंटकमीज से छत्तीस का आंकड़ा रहता है.

एक और परंपरागत जन हमारे यहां पाए जाते हैं. डायनासौर भले ही लुप्त हो गए हों, लेकिन ये सदियों से पाए जाते रहे हैं और कभी लुप्त नहीं होने वाले.

ये बस में हों, रेल में हों, बाजार में हों, आप से बात कर रहे हों, न कर रहे हों, इन का हाथ बराबर उन की एक पसंदीदा जगह पर पहुंच जाता है और अपने इस अनमोल अंग को चाहे जब अपनेपन से छू लेता है, सफाई से मसल लेता है.

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आप किसी शराबी की शराब छुड़वा सकते हैं, लेकिन इन के हाथ को वहां जाने से नहीं रोक सकते. यकीन न हो तो ऐसे किसी सज्जन पर प्रयोग कर के देख लें. हां, सब के खाते में 1-2 पड़ोसी दोस्त ऐसे होते ही हैं. जैसे आदमी अपनी पलकें अपनेआप  झपकाता रहता है, वैसे ही इन का हाथ भी अपनेआप अपनी पसंदीदा जगह पर वजह या बेवजह पहुंचता रहता है. इन के बड़े पहुंच वाले लंबे हाथ होते हैं.

अब वक्त हो गया है, दूसरे परंपरागत जन की तरफ जाने का. ये कहीं भी खड़े हों, कुछ भी कर रहे हों, लेकिन खखारना नहीं छोड़ते. मौका मिलते ही गले को साधा, बजाया और थूका. पार्क में घूम रहे हों, कार, स्कूटर, साइकिल पर जा रहे हों, दफ्तर में बैठें हों, बस जब इच्छा हुई थूक दिया.

यह सीन तब और भी ज्यादा कलरफुल हो जाता है, जब ये पानतंबाकू चबाने के शौकीन हों. तब ये अपने आसपास की जगह के साथ हर रोज ही मुंह से होली खेलते रहते हैं.

गंगू ने तो अभी आप को केवल 4 जनों की क्लास बताई है, बाकी बाद में. नहीं तो आप अपनी संस्कृति पर गर्व करने लगेंगे और ‘गर्व से कहो हम भारतीय हैं’ कहने से खुद को रोक नहीं पाएंगे.

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गहरी पैठ

अपने कैरियर की शुरुआत से ठाकरे परिवार ने यदि कोई सही फैसला लिया है, तो अब भारतीय जनता पार्टी के साथ बिना मुख्यमंत्री बने सरकार न बनाने का फैसला लिया है. वरना तो यह पार्टी बेमतलब में कभी दक्षिण भारतीयों, कभी बिहारियों, कभी हिंदू पाखंडवादियों के नाम पर हल्ला मचाती रहती थी. शिव सेना का असर महाराष्ट्र में गहरे तक है. महाराष्ट्र की मूल जनता जो पहले खेती करती थी, छोटी कारीगरी करती थी, बाल ठाकरे की नेतागीरी में ही अपना वजूद बना पाई थी.

अफसोस यह है कि 1966 में जन्म से ही शिव सेना भगवा दास की तरह बरताव कर रही है. उस ने वे काम किए जो भारतीय जनता पार्टी सीधे नहीं कर सकती थी. उस ने तोड़फोड़ की नीति अपनाई जिस से वह भगवा एजेंडे का दमदार चेहरा बनी, पर हमेशा भारतीय जनता पार्टी की हुक्मबरदार थी. महाराष्ट्र के मराठे लोग खेती करने वालों में से आते हैं. उन्होंने ही महाराष्ट्र को ऊंचाइयों पर पहुंचाया था. शिवाजी ने ही औरंगजेब से तब दोदो हाथ किए थे, जब उस की सत्ता को चुनौती देने वाला कोई न था. मुगल राज को खत्म करने में मराठों की सेना का बड़ा हाथ था.

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लेकिन शिवाजी के बाद मराठों की नेतागीरी फिर पुरोहितपेशवाओं के हाथों में आ गई. वे ही मराठा साम्राज्य को चलाने लगे थे. 1966 में बाल ठाकरे ने जिस भी वजह से शिव सेना बनाई हो, उस को इस्तेमाल किया गया. उस के लोग महाराष्ट्र के गांवगांव में हैं. वे ही कारखानों की यूनियनों में  झंडा गाड़े रहे. कम्यूनिस्ट आंदोलन को उन्होंने ही हराया, लेकिन वे हरदम चाह कर या अनजाने में सेवक बने रहे. जब मुख्यमंत्री पद एक बार मिला था तो भी भाजपा की कृपा से.

अब 2019 में उद्धव ठाकरे अड़ गए कि वे अपनी कीमत लेंगे. वे केवल मजदूर नहीं हैं जो भाजपा की पालकी उठाएंगे. वे खुद पालकी में बैठेंगे. शिव सेना का मुख्यमंत्री पर हक जमाना सही है, क्योंकि भाजपा की जीत शिव सेना की वजह से हुई है. 2014 में भी भाजपा और शिव सेना अलगअलग लड़ीं, पर भाजपा को 122 सीटें मिली थीं और शिव सेना को 63. भाजपा ने 2019 में मई में लोकसभा चुनावों के बाद एक फालतू का सा मंत्रालय दिल्ली कैबिनेट में दे कर बता दिया था कि उद्धव ठाकरे या नीतीश कुमार की हैसियत क्या है.

कांग्रेस के लिए इस हालत में शिव सेना से समझौते का फैसला करना आसान नहीं है, क्योंकि भाजपा हर तरह से शिव सेना को फुसला सकती है. 6-8 महीने में शिव सेना को मजबूर कर सकती है कि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी या कांग्रेस से किसी बात पर  झगड़ कर फिर भाजपा के खेमे में आ जाए. 11 दिसंबर को कांग्रेस ने फैसले में देर लगाई तो शिव सेना को निराशा हुई, पर जो यूटर्न शिव सेना ले रही है वह आसानी से पचने वाला नहीं है. शिव सेना को यह जताना होगा कि अब तक उस को गुलामों की तरह इस्तेमाल किया गया है. वह महाराष्ट्र की राजा नहीं थी, केवल मुख्य सेवक थी. उम्मीद करें कि यह अक्ल उन और पार्टियों को भी आएगी जो भाजपा के अश्वमेध घोड़े के साथ चल कर अपने को चक्रवर्ती सम झ रही हैं. वे केवल दास हैं, जैसे उन के वोटर हैं.

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देश के सामने असली परेशानी मंदिरमसजिद नहीं है, बेरोजगारी है. यह बात दूसरी है कि आमतौर पर धर्म के नाम पर लोगों को इस कदर बहकाया जा सकता है कि वे रोजीरोटी की फिक्र न कर के अपनी मूर्ति के लिए जान भी दे दें और अपने पीछे बीवीबच्चों को रोताकलपता छोड़ जाएं. जब देश के नेता मंदिर की जीत पर जश्न मना रहे थे, उस समय 15 साल से 35 साल की उम्र के 58 करोड़ लोगों में नौकरी की फिक्र बढ़ रही थी.

इन में से काफी नौकरी के लिए तैयार से हैं और काफी नौकरी पाए हुए हैं. जिन के पास नौकरी है उन्हें पता नहीं कि यह नौकरी कब तक टिकेगी. जिन के पास नहीं है वे अपना पैसा या समय गलियों, खेतों में बेबात गुजारते हैं. इस देश में हर साल 1 से सवा करोड़ नए जवान लड़केलड़कियां पहले नौकरी ढूंढ़ते हैं. क्या इतनी नौकरियां हैं?

देश में बड़े कारखानों की हालत बुरी है. सरकार की सख्ती से बैंकों ने कर्ज देना बंद सा कर दिया है. कभी प्रदूषण के मामले को ले कर, कभी टैक्स के मामले को ले कर कभी सस्ते चीनी सामान के आने से भारतीय बड़े उद्योग न के बराबर चल रहे हैं, लगना तो दूर. अखबार हर रोज उद्योगों, बैंकों, व्यापारों के घाटे के समाचारों से भरे हैं.

छोटे उद्योगों, कारखानों और दुकानों में काफी नौकरियां निकलती हैं. देश के 6 करोड़ छोटे कामों में 14 करोड़ को रोजगार मिला हुआ है, पर इन में से 5 करोड़ लोग तो अपना रोजगार खुद करते हैं. ये खुद काम करने वाले हर तरह की आफत सहते हैं. इन के पास न तो काम करने की सही जगह होती है, न ही कोई नया काम करने का हुनर. इन 6 करोड़ छोटे काम देने वालों में 10 से ज्यादा लोगों को काम देने वाले सिर्फ 8 लाख यूनिट हैं.

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इन 14 करोड़ लोगों को जो काम मिला है वह बड़ी कृपा है पर उन के पास न नया हुनर है, न उन की कोई खास तमन्ना है. वे जेल व कैदियों का सा काम करते हैं. वे इतना न खुद कमा पाते है, न कमा कर मालिक को दे पाते हैं कि कुछ बचत हो, बरकत हो, काम बड़ा हो सके. 50 करोड़ लोग जहां नौकरी पाने के लिए खड़े हों वहां ये 6 करोड़ काम देने वाले क्या कर सकते हैं?

सरकारी नौकरियां देश में कुल 3-4 करोड़ हैं. इस का मतलब हर साल बस 30-40 लाख नए लोगों को काम मिल सकता है. आरक्षण इसी 30-40 लाख के लिए है और उसी को खत्म करने के लिए मंदिर का स्टंट रचा जा रहा है, ताकि लोगों का दिमाग, आंख, कान, मुंह बेरोजगारी से हटाया जा सके और जो नौकरियां हैं, वे भी ऊंचे लोग हड़प जाएं और चूं तक न हो.

दलितों को तो छोडि़ए वे बैकवर्ड जो भगवा गमछा पहने घूम रहे हैं, यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर कोई भी मंदिर उन की नौकरी को पक्का कैसे करेगा. उन्हें लगता है कि भगवान सब की सुनेगा. भगवान सुनता है, पर उन की जो भगवान की झूठी कहानी बनाते हैं, सुनाते हैं, बरगलाते हैं.

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‘भाभीजी’ ड्रग्स बेचती हैं

जीहां, ये ‘भाभीजी’ ड्रग्स, ब्राउन शुगर और अफीम बेचती हैं. पटना के जक्कनपुर इलाके की रहने वाली राधा देवी ड्रग्स के धंधेबाजों के बीच ‘भाभीजी’ के नाम से मशहूर हैं. पटना, मुजफ्फरपुर, बोधगया से ले कर रांची तक में ‘भाभीजी’ का धंधा फैला हुआ है. पटना के स्कूलकालेजों, कोचिंग सैंटरों और होस्टल वाले इलाकों के चप्पेचप्पे पर ‘भाभीजी’ के एजेंट फैले हुए हैं.

बच्चों और नौजवानों को नशे का आदी बनाने में लगी ‘भाभीजी’ और उन के गुरगे पिछले 6 सालों से इस गैरकानूनी और खतरनाक धंधे को चला रहे थे. 16 अक्तूबर, 2019 को पुलिस ने ‘भाभीजी’, उन के शौहर और 6 गुरगों को दबोच लिया.

जक्कनपुर पुलिस ने 16 अक्तूबर, 2019 को राधा देवी उर्फ ‘भाभीजी’ और उन के शौहर गुड्डू कुमार को उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब वे आईसीआईसीआई बैंक से रुपए निकाल रहे थे. दोनों के पास से 9 लाख, 67 हजार, 790 रुपए और 20 ग्राम ब्राउन शुगर और 6 स्मार्ट फोन बरामद किए गए. उस 20 ग्राम ब्राउन शुगर की कीमत 5 लाख रुपए आंकी गई.

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पटना के सिटी एसपी जितेंद्र कुमार ने बताया कि राधा देवी उर्फ ‘भाभीजी’ और गुड्डू कुमार ब्राउन शुगर के स्टौकिस्ट हैं. पुलिस पिछले कई सालों से इन दोनों को रंगे हाथ पकड़ने की कोशिश में लगी हुई थी, पर वे हर बार पुलिस को चकमा दे कर भाग निकलते थे.

गुड्डू कुमार ने पुलिस को बताया कि ब्राउन शुगर के सप्लायर को 12 लाख रुपए देने के लिए वह बैंक से पैसे निकाल रहा था. उसी दिन सप्लायर ब्राउन शुगर की खेप ले कर आने वाला था. सप्लायर नेपाल और खाड़ी देशों से आता था.

‘भाभीजी’ और गुड्डू कुमार को आईसीआईसीआई बैंक के जिस खाते से रुपए निकालते पकड़ा गया था, उस खाते में अभी 17 लाख, 46 हजार रुपए और हैं. कंकड़बाग के आंध्रा बैंक के खाते में भी उन दोनों के 9 लाख, 94 हजार रुपए जमा हैं. इन दोनों ने ब्राउन शुगर के धंधे से करोड़ों रुपए की कमाई की है और कई मकान और फ्लैट भी खरीद रखे हैं.

राधा देवी उर्फ ‘भाभीजी’ और गुड्डू कुमार को दबोचने में लगी पुलिस की टीम 16 अक्तूबर को जक्कनपुर इलाके में ब्राउन शुगर की खरीदार बन कर पहुंची.

जक्कनपुर के इंदिरानगर इलाके के रोड नंबर-4 में शिवपार्वती कम्यूनिटी हाल से सटे किराए के मकान में जब पुलिस पहुंची, तो वहां 5 लोग ब्राउन शुगर की पुडि़या बनाने में लगे हुए थे.

पुलिस ने उन पांचों को ब्राउन शुगर के साथ गिरफ्तार कर लिया. करीमन उर्फ राजेश यादव, सोनू, गणेश कुमार, संतोष कुमार और पप्पू को पुलिस ने पकड़ा. सभी की उम्र 22 से 30 साल के बीच है.

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पिछले चंद महीनों के दौरान ड्रग्स का धंधा करने वाले 14 लोगों को पुलिस जक्कनपुर, मालसलामी, गर्दनीबाग, कंकड़बाग, रामकृष्णानगर वगैरह इलाकों से गिरफ्तार कर चुकी है. 14 सितंबर, 2019 को भी जक्कनपुर इलाके में पुलिस ने 65 लाख रुपए की ब्राउन शुगर के साथ 5 लोगों को पकड़ा था.

गिरफ्तार किए गए सभी लोग ‘भाभीजी’ के ही गुरगे थे. तब ‘भाभीजी’ और गुड्डू कुमार पुलिस की आंखों में धूल  झोंक कर भाग निकलने में कामयाब हो गए थे.

‘भाभीजी’ की देखरेख में ही ब्राउन शुगर खरीदने, उस की पुडि़या बनाने और बेचने का धंधा चलता था. एक पुडि़या 500 रुपए में बेची जाती थी. नारकोटिक ड्रग्स ऐंड साइकोट्रौपिक सब्सटैंस ऐक्ट की धारा 22 सी के तहत केस दर्ज किया गया है.

करोड़ों की दौलत होने के बाद भी ये मियांबीवी खानाबदोश की जिंदगी जीते थे. वे किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते थे. पुलिस को चकमा देने के लिए अपना ठिकाना और मोबाइल नंबर बदलते रहते थे. पुलिस साल 2012 से ही दोनों शातिरों को पकड़ने में लगी हुई थी, पर कामयाबी नहीं मिल रही थी. साल 2012 में ही दोनों के खिलाफ गर्दनीबाग थाने में एफआईआर दर्ज हुई थी.

‘भाभीजी’ ने पुलिस को बताया कि पश्चिम बंगाल और  झारखंड से ब्राउन शुगर पटना लाई जाती है. एक किलो ब्राउन शुगर की कीमत 3 करोड़ रुपए होती है. घटिया क्वालिटी की ब्राउन शुगर एक करोड़ रुपए में एक किलो मिलती है.

गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल और  झारखंड में बड़े पैमाने पर अफीम की खेती होती है. अफीम से ही ब्राउन शुगर बनाई जाती है.

ड्रग करंसी का इस्तेमाल, खतरनाक: डीजीपी

बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे मानते हैं कि ड्रग को करंसी के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. जिस्म के कारोबार में भी ड्रग करंसी खूब चल रही है. ड्रग्स के खिलाफ समाज को जहां जागरूक होने की जरूरत है, वहीं नशा मुक्ति मुहिम को मजबूत बनाना होगा.

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नशा दिल और दिमाग दोनों पर खतरनाक असर डालता है और उस के बाद बलात्कार, हिंसा जैसे कई अपराध करने के लिए उकसाता है.

पुलिस ड्रग्स के खिलाफ आएदिन धड़पकड़ करती रहती है, लेकिन समाज के सहयोग के बगैर ड्रग्स के धंधे को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता है.

अफीम की खेती छोड़ी, गेंदा लगाया

झारखंड राज्य के नक्सली एरिया खूंटी के लोगों ने अफीम की खेती से तोबा कर गेंदा के फूल उपजाने शुरू किए हैं. तकरीबन 200 परिवार गेंदे की खेती कर मुनाफा कमा रहे हैं.

आजकल धर्म का व्यापार अफीम के व्यापार की तरह रातदिन बढ़ रहा है और वहां गेंदे के फूलों की खपत बहुत होती है.

कुछ साल पहले तक इस इलाके में पोस्त की गैरकानूनी खेती होती थी और पोस्त से ही अफीम बनाई जाती है. नक्सली बंदूक का डर दिखा कर गांव वालों से जबरन अफीम की गैरकानूनी खेती कराते थे. पिछले साल अगस्त महीने में खूंटी में 14 लाख गेंदे के पौधे लगाए गए थे. आज उन से तकरीबन सवा करोड़ रुपए मुनाफा होने का अंदाजा है. सुनीता नाम की महिला किसान ने 2,000 रुपए में गेंदे के 5,000 पौधे खरीदे थे. एक पौधे से 35 से 40 फूल निकलते हैं.

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