‘मेरी होड़ खुद से है’ – सीपी भट्ट

भोजपुरी फिल्मों में हरफनमौला कलाकार सीपी भट्ट का नाम बड़ी इज्जत के साथ लिया जाता है. वे भोजपुरी फिल्मों के एकमात्र ऐसे कलाकार हैं जो हर रोल में फिट बैठते हैं, इसीलिए उन के लिए एक कहावत चलन में है कि ‘सीपी फिट तो पिक्चर हिट’.

सीपी भट्ट ने अभी तक 250 से भी ज्यादा फिल्मों में काम किया है और अपनी एक अलग छाप छोड़ी है. आज वे भोजपुरी के सब से बिजी कलाकारों में से एक हैं.

भोजपुरी फिल्म ‘बापजी’ के सेट पर हुई एक मुलाकात में सीपी भट्ट से लंबी बातचीत हुई. पेश हैं, उसी के खास अंश:

आप को वकालत जैसे पेशे को छोड़ कर भोजपुरी फिल्मों में काम करने का विचार कैसे आया?

– मैं गोरखपुर जिले के देहाती इलाके का रहने वाला हूं. मेरे पिता और भाई थिएटर से जुड़े रहे हैं. वे थिएटर के मंजे हुए कलाकारों में गिने जाते हैं. मैं ने भी पढ़ाई के साथ-साथ थिएटर करना शुरू कर दिया था. थिएटर ने मुझे ऐसी पहचान दिलाई कि मेरी अदाकारी की गूंज भोजपुरी सिनेमा तक पहुंच गई, जिस के चलते मुझे पहली भोजपुरी फिल्म ‘पिया तोसे नैना लागे’ का प्रस्ताव आया.

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पहली फिल्म में ही मेरी ऐक्टिंग को इतना सराहा गया कि मेरे सामने अचानक से दर्जनों फिल्मों के औफर आ गए.

बौलीवुड फिल्म कलाकारों की तरह भोजपुरी के कलाकारों को इश्तिहारों के लिए कम साइन किया जाता है, इस के बावजूद आप ने ढेर सारे इश्तिहार किए हैं. इस के पीछे क्या राज है?

– मुझे इश्तिहारों के लिए तमाम औफर आते रहते हैं. इस की एक वजह मेरी भोजपुरी बैल्ट में अलग पहचान को जाती है. चूंकि अकेले उत्तर प्रदेश व बिहार में 35 करोड़ से भी ज्यादा भोजपुरी दर्शक हैं, जिसे कंपनियां अच्छी तरह से जानती हैं. मेरी अलग पहचान ने मुझे कई इश्तिहारों में काम करने का मौका दिया है. इन में मैक्स इंश्योरैंस, ग्रीन प्लाईवुड, 7अप जैसी बड़ी कंपनियों के इश्तिहार शामिल हैं.

भोजपुरी टैलीविजन चैनलों द्वारा ज्यादातर फिल्में और गाने ही प्रसारित किए जाते हैं. इन पर भोजपुरी के धारावाहिक और रिएलिटी शो बहुत कम प्रसारित होते हैं. क्या वजह है कि भोजपुरी के चैनलों पर ऐसे कार्यक्रम नहीं आ रहे हैं?

– आप सही कह रहे हैं. भोजपुरी के ज्यादातर चैनल फिल्मों और गानों में सिमट कर रह गए हैं, फिर भी कुछ टीवी चैनल ऐसे हैं, जो धारावाहिकों और रिएलिटी शो को ज्यादा तवज्जुह देते रहे हैं. इन्हीं में से एक भोजपुरी ‘गंगा’ चैनल पर लंबे समय तक प्रसारित हुए लोकप्रिय सीरियल ‘बगल वाली जान मारेली’ में मैं भी काम कर चुका हूं.

इस चैनल द्वारा कई रिएलिटी शो भी प्रसारित होते रहे हैं. मुझे उम्मीद है कि आने वाले दिनों में दूसरे चैनलों पर भी इस तरह की कोशिशें तेज होंगी.

आप की वह फिल्म जिस में आप के काम को सब से ज्यादा तारीफ मिली है?

– वैसे तो मुझे अपनी सभी फिल्मों में तारीफ मिलती रहती है, फिर भी जिन फिल्मों में मेरी अदाकारी को सब से ज्यादा तारीफ मिली है, उन में ‘दबंग सरकार’, ‘साजन चले ससुराल’, ‘नागिन इच्छाधारी’, ‘लावारिस’, ‘मुकद्दर’, ‘कुली नंबर वन’, ‘दूल्हे राजा’, ‘घरवाली बाहरवाली’, ‘सुहाग’ जैसी सुपरहिट फिल्में शामिल हैं. मैं ने इन फिल्मों में अलग-अलग तरह के किरदारों से लोगों का दिल जीता है.

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भोजपुरी सिनेमा में आप के समय के कई कलाकारों ने ऐंट्री मारी और एक ही इमेज में बंध कर रह गए, जबकि आप ने कई तरह के रोल कर के इंडस्ट्री में एक अलग ही इमेज बना ली है. क्या इस से आपस में होड़ नहीं होती है?

– फिल्मों में मेरी होड़ किसी से नहीं है, चाहे वे मुझ से पहले आए हों या बाद में आए हों. अगर होड़ है तो वह खुद से है, क्योंकि मैं हर अगली फिल्म में पिछली फिल्म को देख कर और अच्छा करने की कोशिश करता हूं. मैं हर रोज अपनी ऐक्टिंग और डांस पर होमवर्क करता हूं.

जिन कलाकारों ने तकरीबन मेरे साथ ही ऐक्टिंग शुरू की थी, वे भी आज अपनी विधा के टौप के ऐक्टर हैं. भले ही वे किसी एक इमेज में ही बंध कर ऐक्टिंग करते रहे हों, पर यह उन की खूबी है कि वे खुद को एक ही इमेज से दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब रहे हैं.

जहां तक मेरा सवाल है, तो मैं इसलिए कई तरह के रोल में अपनेआप को फिट कर पाया हूं, क्योंकि मैं किसी एक इमेज में बंध कर नहीं रहना चाहता था. और मैं इस में कामयाब भी रहा.

भोजपुरी फिल्मों में आइटम डांस खूब होते हैं. क्या आइटम डांस के जरीए भोजपुरी फिल्में हिट होती हैं या फिल्म की कहानी से?

– भोजपुरी फिल्मों से अब आइटम डांस खत्म हो रहे हैं. ऐसा कतई नहीं है कि भोजपुरी फिल्मों में आइटम डांस जबरदस्ती डाले जाते हैं, बल्कि फिल्मों में उन का होना फिल्मों की कहानी पर निर्भर करता है. हां, यह जरूर है कि कभीकभार कुछ आइटम डांस इतने हिट हो जाते हैं कि दर्शक सिनेमा की तरफ खुदबखुद खिंचे चले आते हैं.

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जहां तक फिल्मों के कामयाब होने का सवाल है तो फिल्म हिट होती है उस की कहानी, छायांकन, ऐक्टिंग और टैक्नोलौजी से.

साल 2020 में आप को अपनी किन फिल्मों के आने का इंतजार रहेगा?

मेरी भोजपुरी की एक दर्जन से ज्यादा फिल्में रिलीज हो रही हैं, जिन में ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘बापजी’, ‘दिल धकधक करे’, ‘रण’ वगैरह शामिल हैं. इस के अलावा मेरी हिंदी की 5 फिल्में भी रिलीज हो रही हैं.

बदहाल अस्पताल की बलि चढ़े नौनिहाल

कोटा के इस अस्पताल की दशा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह जरूरी उपकरणों के साथ ही मैडिकल स्टाफ की कमी से भी जूझ रहा है. इतना ही नहीं, जब राज्य सरकार की एक समिति इस अस्पताल का दौरा करने गई तो उस ने वहां सूअर व कुत्ते टहलते हुए देखे.

इस पर हैरत नहीं है कि कोटा के अस्पताल में बड़ी तादाद में नवजात बच्चों की मौत की खबर आने के साथ ही एकदूसरे पर आरोप लगाने की ओछी राजनीति सतह पर आ गई. लेकिन ऐसी राजनीति से बचने की नसीहत वे नहीं दे सकते, जो खुद ऐसा करने का कोई मौका नहीं छोड़ते. आखिर कोई यह कैसे भूल सकता है कि जब उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के एक अस्पताल में कोटा की तरह बच्चों की मौत का मामला सामने आया था तो उस के बहाने राजनीति चमकाने की कैसी भद्दी होड़ मची थी.

सरकारी तंत्र की ढिलाई और लापरवाही को उजागर किया ही जाना चाहिए, लेकिन इसी के साथ कोशिश इस बात की भी होनी चाहिए कि बदहाली के आलम से कैसे छुटकारा मिले? यह कोशिश रहनी चाहिए, क्योंकि यह एक कड़वी सचाई है कि अस्पतालों की तरह स्कूल, सार्वजनिक परिवहन के साधन वगैरह भी बदहाली से दोचार हैं और इस के लिए वह घटिया राजनीति ही ज्यादा जिम्मेदार है, जो हर वक्त दूसरों पर आरोप मढ़ कर अपने फर्ज को पूरा समझने की ताक में रहती है.

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गलत है मौत पर राजनीति

‘‘मैं अपने बच्चे के निमोनिया का इलाज कराने 50 किलोमीटर दूर से आया हूं. रास्ते में इतनी सर्दी थी कि बच्चे की सांसें तेज चल रही थीं. बच्चे की हालत देख कर ही डर लग रहा था.’’

ये शब्द मोहन मेघवाल के हैं, जो अपने बच्चे का इलाज कराने के  लिए राजस्थान में कोटा के जेके लोन अस्पताल आए थे.

यह वही अस्पताल है, जहां बीते दिनों 100 से ज्यादा बच्चों ने दम तोड़ दिया था.

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चिट्ठी लिख कर के जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत की रोजाना बढ़ती तादाद को देखते हुए जरूरी सुविधाओं को मजबूत बनाने के लिए गुजारिश की थी. इस के साथ ही बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने अपने ट्विटर अकाउंट से ट्वीट कर के अशोक गहलोत और प्रियंका गांधी पर निशाना साधा था.

पर, उस से भी ज्यादा दुखद है कि कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं खासकर महासचिव प्रियंका गांधी की इस मामले में चुप्पी साधे रखना. अच्छा होता कि वे उत्तर प्रदेश की तरह उन गरीब पीडि़त मांओं से भी जा कर मिलतीं, जिन की गोद केवल उन की पार्टी की सरकार की लापरवाही के चलते उजड़ गई है. लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस मुद्दे पर राजनीति नहीं किए जाने की अपील की.

अशोक गहलोत ने कहा, ‘‘हम लोग बारबार कह रहे हैं कि पूरे 5-6 साल में सब से कम आंकड़े अब आ रहे हैं. इतनी शानदार व्यवस्था वहां कर रखी है.

‘‘मैं किसी को इस मौके पर दोष नहीं देना चाहता हूं. पिछले 5 साल के आंकड़े थे. इन में भाजपा के शासन में ही ये आंकड़े कम होते गए. हमारी सरकार बनने के बाद ये आंकड़े और कम हो गए.

‘‘नागरिकता संशोधन कानून के बाद  देश और प्रदेश में जो माहौल बना हुआ है, ऐसे में कुछ लोग जानबूझ कर ध्यान हटाने के लिए यह शरारत कर रहे हैं.’’

वहीं, राजस्थान सरकार के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा कहते हैं, ‘‘यह सब प्रधानमंत्री कार्यालय से हो रहा है. सीएए और एनआरसी को ले कर राजस्थान में विरोध प्रदर्शन हुए हैं, अब उन्हें कोई और चीज तो मिलती नहीं है. पहला सवाल तो यह है कि जब योगी आदित्यनाथ के गृह क्षेत्र गोरखपुर में औक्सीजन की कमी से 100 से ज्यादा बच्चों की मौत हुई थी, तब भाजपा का एक भी डैलिगेशन गया था वहां? यहां राजनीति करने आ रहे हैं, तो एक जवाब दें कि जब 2015 में अस्पताल प्रशासन ने 8 करोड़ रुपए मांगे तो भाजपा सत्ता में थी, ऐसे में अस्पताल को पैसे क्यों नहीं दिए गए?’’

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राजस्थान भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया अस्पताल का औचक निरीक्षण करने पहुंचे. उन्होंने कहा, ‘‘इस मामले में राज्य सरकार के प्रशासन को दोष क्यों नहीं देना चाहिए? मैं ने देखा कि हर बिस्तर पर 2 से 3 बच्चे लेटे थे और उन की देखभाल करने के लिए बिस्तर के किनारे ही उन की मां भी खड़ी थीं. साफतौर पर संक्रमण के प्रसार की जांच के लिए कोई सावधानी नहीं बरती जा रही है.’’

इस से पहले बच्चों की मौत की सूचना के तुरंत बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने दावा किया था कि उस अस्पताल में बच्चों की मौत का आंकड़ा पिछले 6 सालों में सब से कम है.

बाद में स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा ने भी अलगअलग सालों में हुई मौतों को गिनाते हुए कहा कि साल 2014 में 1,198 बच्चों की मौत हुई, 2015 में 1,260 बच्चे मारे गए, 2016 में 1,193, 2017 में 1,027 बच्चों और 2018 में 1,005 बच्चों की मौत हुई.

कुलमिला कर राजनीतिक लैवल पर बयानबाजी का सिलसिला जारी है और इस के साथ ही बच्चों की मौत का सिलसिला भी जारी है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन बच्चों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है और क्या रोजाना मरते हुए इन बच्चों को बचाया जा सकता है?

अस्पताल ही बीमार

राजस्थान में कोटा के जेके लोन अस्पताल के आईसीयू में एक ही बिस्तर पर 2 से 3 बीमार बच्चों का होना एक सामान्य सी बात बनी हुई है. इन मासूम बच्चों को साफ हवा के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ता है.

यही नहीं, अव्यवस्था के बीच गंभीर बीमारियों से जूझ रहे इन बच्चों की देखभाल के लिए नर्स नहीं, बल्कि उन की मां खड़ी रहती हैं.

अस्पताल के सूत्रों ने तसदीक की है कि यहां जरूरी और जिंदगी बचाने की श्रेणियों में आने वाले 60 फीसदी से ज्यादा उपकरण काम नहीं कर रहे हैं. लापरवाही की इतनी हद है कि अस्पताल मैनेजमैंट का कोई भी अफसर इस बात पर ध्यान नहीं देता कि कुछ उपकरणों को फिर से ठीक किया जा सकता है. धूल फांक रहे कुछ उपकरण तो ऐसे भी हैं, जिन्हें महज 2 रुपए की कीमत के एक तार के छोटे से टुकड़े की मदद से फिर से चलाया जा सकता है.

इस के बावजूद कई नैबुलाइजर, वार्मर और वैंटिलेटर काम नहीं कर  रहे हैं. साथ ही, अस्पताल में संक्रमण की जांच के लिए इकट्ठा किए गए  14 नमूनों की जांच रिपोर्ट पौजीटिव आई है. यह जांच रिपोर्ट बैक्टीरिया के प्रसार का आकलन करने में मदद करती है. इस रिपोर्ट को अफसरों को सौंपे जाने के बावजूद बड़ी तादाद में बैक्टीरिया के प्रसार को साबित होने पर भी कोई कार्यवाही नहीं की गई.

बीते एक साल में कोटा के इस अस्पताल में भरती होने वाले तकरीबन 16,892 बच्चों में से 960 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है.

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जेके लोन अस्पताल के शिशु औषधि विभाग के एचओडी डाक्टर अमृत लाल बैरवा बताते हैं, ‘‘बीते एक महीने में यहां मरने वाले बच्चों में से 60 बच्चों का जन्म यहीं हुआ था, बाकी के बच्चे आसपास के अस्पतालों से गंभीर हालात में रैफर हो कर यहां लाए गए थे.

‘‘यह एक ऐसा अस्पताल है, जहां पर आसपास के 3-4 जिलों से बच्चों को लाया जाता है. साथ ही, मध्य प्रदेश के झाबुआ से भी बच्चों को यहां लाया जाता है. पर इस अस्पताल में मौजूद संसाधन और स्वास्थ्य कर्मचारियों की कम तादाद इतनी बड़ी तादाद में आए मरीजों का इलाज करने में चुनौती पेश करती है.’’

डाक्टर अमृत लाल बैरवा की ओर से 27 दिसंबर, 2019 को अस्पताल के सुपरिंटैंडैंट को भेजी गई रिपोर्ट के मुताबिक, अस्पताल में मौजूद 533 उपकरणों में से 320 खराब हैं. इन में 111 इनफ्यूजन पंप में से 80 खराब हैं. 71 वार्मरों में से 44 खराब हैं. 27 फोटोथैरेपी मशीनों में से 7 खराब हैं और 19 वैंटिलेटर मशीनों में से 13 खराब हैं. वहीं, अगर स्टाफ की कमी की बात करें तो एनआईसीयू में कुल 24 बैड के लिए 12 स्टाफ उपलब्ध हैं, जबकि भारत सरकार के नियमों के मुताबिक, 12 बैड पर कम से कम

10 कर्मचारी तैनात होने चाहिए.

इसी तरह एनएनडब्ल्यू में सिर्फ 8 लोगों की तैनाती है. एनआईसीयू में उपलब्ध 42 बैड के लिए कुल 20 लोगों का स्टाफ उपलब्ध है, जबकि यह तादाद 32 होनी चाहिए.

वहीं, इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस अस्पताल में प्रोफैसर और एसोसिएट प्रोफैसर के 4 पद खाली पड़े हैं.

जेके लोन अस्पताल की बात करें, तो बीते 6 सालों में इस अस्पताल में 6,000 बच्चे दम तोड़ चुके हैं. इन में से 4,292 बच्चे गंभीर हालत में आसपास के जिलों से इस अस्तपाल में लाए गए थे.

डाक्टर अमृत लाल बैरवा इन बच्चों की मौत के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में फैली अव्यवस्था और जिला अस्पतालों में डाक्टरों की कम तादाद को जिम्मेदार मानते हैं.

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वे कहते हैं, ‘‘यह मैडिकल कालेज का अस्पताल है. यहां पर कोटा, बूंदी, बारा, झालावाड़, टोंक, सवाई माधोपुर, भरतपुर, मध्य प्रदेश से लोग अपने बच्चों को ले कर आते हैं और ये मरीज रैफर किए मरीज होते हैं.

‘‘हमारे पास काम का बहुत दबाव रहता है. हमारे पास जितने संसाधन हैं, उस से कहीं ज्यादा मरीज आते हैं. इन बच्चों की मौत की यही वजह है.’’

इन का भी बुरा हाल

कोटा से 50 किलोमीटर दूर डाबी कसबे में रहने वाले मोहन मेघवाल निमोनिया की शिकायत होने पर अपने बच्चे को सीधे जेके लोन अस्पताल ले कर आए हैं.

वे कहते हैं, ‘‘मैं ने पहले अपने घर के नजदीक बने सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर बच्चे का इलाज कराया, लेकिन उस अस्पताल में दस्त और खांसीजुकाम जैसी सामान्य बीमारियां सही नहीं होती हैं. ऐसे में जब मेरे बच्चे की सांसें तेज चलना शुरू हो गईं तो मैं उसे ले कर एक निजी अस्पताल में गया. वहां मुझे बताया गया कि बच्चे की हालत गंभीर है और उसे जेके लोन अस्पताल में ले जाना चाहिए.’’

स्वास्थ्य क्षेत्र कवर करने वाली वरिष्ठ अफसर डाक्टर सविता बताती हैं, ‘‘यह कोई नई बात नहीं है कि सीएचसी और पीएचसी की हालत खराब होती है. मैं ने अपनी पड़ताल में पाया है कि अकसर इन संस्थानों के ताले बंद रहते हैं. यहां जरूरी उपकरण और डाक्टर मौजूद नहीं होते हैं. ऐसे में गरीब लोगों को निजी अस्पतालों में जाना पड़ता है.

‘‘कभीकभार प्राइमरी लैवल पर सरकारी सुविधाओं की कमी के चलते लोगों को उन लोगों के पास भी जाने को मजबूर करती हैं, जो डाक्टर भी नहीं होते हैं.’’

‘‘सीएचसी के लैवल पर एक स्पैशलिस्ट, एक शिशु रोग विशेषज्ञ, गायनोकोलौजिस्ट होना चाहिए. ये विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं होते हैं. जिन दवाओं की जरूरत होनी चाहिए, वैसी दवाएं उपलब्ध नहीं होती हैं. एएनएम उपलब्ध नहीं होती हैं. ऐसे में ग्रामीण और कसबाई इलाकों में रहने वाले लोग अपने बच्चों के बीमार होने पर गैरपंजीकृत डाक्टरों के पास ले कर जाते हैं.

‘‘ये डाक्टर उन्हें एंटीबायोटिक्स दे देते हैं, लेकिन जब कई दिनों तक बच्चे ठीक नहीं होते हैं, तब जा कर मांबाप अपने बच्चे को शहर के अस्पताल ले जाने की सोचते हैं.’’

कमजोर है बुनियाद

जनता को बेहतर डाक्टरी इलाज मुहैया कराने की तमाम सरकारी योजनाओं के बड़ेबड़े होर्डिंग भले ही लोगों का ध्यान खींचते हों, पर इन योजनाओं को असरदार तरीके से लागू न करने के चलते मरीजों का हाल बेहाल है.

अगस्त, 2017 में गोरखपुर के बीआरडी मैडिकल कालेज में औक्सीजन की कमी से हुई सैकड़ों बच्चों की मौतें सरकारी अस्पतालों के बुरे हालात को उजागर करती हैं.

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गौरतलब है कि गोरखपुर और फर्रुखाबाद के जिला अस्पताल में मरने वाले बच्चे उन गरीब परिवारों के थे, जो इलाज के लिए केवल सरकारी अस्पतालों की ओर ताकते हैं.

राजस्थान के बांसवाड़ा में महात्मा गांधी चिकित्सालय में 51 दिनों में 81 बच्चों की मौतें कुपोषण की वजह से हो गईं. जमशेदपुर के महात्मा गांधी मैमोरियल अस्पताल में बीते चंद महीनों में 164 मौतें हुईं तो झारखंड के 2 अस्पतालों में पिछले साल 800 से ज्यादा बच्चों की मौतें हो गईं.

राज्य में जनस्वास्थ्य पर काम करने वाले डाक्टर नरेंद्र गुप्ता ने बताया, ‘‘प्राइमरी लैवल पर स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा बहुत कमजोर है. पहले ऐसी मौतें घर पर ही हो जाती थीं, अब मरीज अस्पताल तक पहुंच रहे हैं. ऐसी मौतें तभी रुक सकती हैं, जब जमीनी लैवल पर बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं हों. यह भी एक हकीकत है कि डाक्टर देहाती क्षेत्र में जाना नहीं चाहते. जो बच्चे मर रहे हैं, उन में काफी कुपोषित होते हैं.

‘‘अगर तहसील लैवल पर स्वास्थ्य सेवाएं ठीक हों, तो काफी सुधार हो सकता है, क्योंकि ऐसे मरीज बड़े अस्पतालों तक देर में पहुंचते हैं. पहले वे लोकल लैवल पर कोशिश करते हैं.

‘‘अस्पतालों पर काफी भार होता है. प्राथमिक और मध्यम स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा न के बराबर है. तभी इन लोगों को कोटा जैसे बड़े शहरों की ओर रुख करना पड़ता है.’’

गंगा यात्रियों को खाना खिलाने का काम करेंगे शिक्षक

उत्तर प्रदेश की राजनीति में गाय और गंगा दोनो का बहुत महत्व है. गाय को सडक पर आने से रोकने के लिये पीडब्ल्यूडी विभाग ने अपने ही इंजीनियरों को रस्सी लेकर छुट्टा जानवरों को पकडने का आदेश जारी किया तो शिक्षा विभाग ने अपने स्कूल में खाना बनाने का काम करने वाले रसोइयों और शिक्षकों को कहा है कि वह गंगा यात्रा करने वालों को खाना खिलानेे की जिम्मेदारी संभाले. इस तरह के आदेश से शिक्षक और इंजीनियरों में असंतोष में है. मजेदार बात यह है कि आलोचनाओं के बाद एक आदेश लिखित में वापस होता है तो दूसरा आदेश जारी हो जाता है. छुट्टा जानवर पकडने का आदेश वापस हुआ तो अगले ही दिन गंगा यात्रा करने वालों को खाने खिलाने का आदेश जारी हो गया.

शिक्षा विभाग से जारी हुआ आदेश हरदोई जिले से जुडा हुआ है. जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी हरदोई के द्वारा यह आदेश जारी हुआ है. इसमें लिखा है कि ‘गंगा यात्रा के आयोजन में गंगा किनारे स्थित ग्राम पंचायतों में 30 जनवरी को गंगा दल यात्री प्रवास करेगे. गंगा दल के ठहरने, नाश्ते और आदि की व्यवस्था विद्यालयों में कार्यरत शि़क्षकों और रसोइयों द्वारा की जानी है.‘ आदेश में ही बिलग्राम और सांडी ब्लाक में आने वाले स्कूलों के नाम भी लिखे है. शिक्षा विभाग का कोई भी अधिकारी और कर्मचारी इस आदेश पर बोलने को तैयार नहीं है. यह पत्र खंड शिक्षा अधिकारी बिलग्राम और सांडी के द्वारा जारी किया गया है.

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गंगा यात्रा की शुरूआत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा 27 जनवरी को बिजनौर और राज्यपाल आंनदी बेन ने बलिया से शुरू की गई. गंगा यात्रा दो हिस्सो में पूरी हो रही है. गंगा यात्रा को सफल बनाने के लिये पार्टी और सरकार स्तर पर काम किया जा रहा है. बिजनौर से कानपुर बैराज तक यह यात्रा 579 किलोमीटर लंबी सडक मार्ग से गुजरेगी. 657 किलोमीटर बलिया से कानुपर तक यह यात्रा गुजरेगी. कुल 1338 किलोमीटर यात्रा 27 जिलों से होकर निकल रही है. इसमें 21 नगर पंचायत और 1038 ग्राम पंचायते पडेगी. उत्तर प्रदेश में गंगा की कुल लंबाई 1140 किलोमीटर है. पावन गंगा यात्रा के व्यापक प्रचार प्रसार की व्यवस्था भी गई है.

हरदोई शिक्षा विभाग के पत्र से पता चलता है कि लोगो के खाने की व्यवस्था स्कूलों को सौंपी गई है. इस आदेश से स्कूल में पढाने वाले शिक्षको की हालत के बारे पता चलता है. शिक्षकों से पढाने के अलावा बहुत सारे काम लिये जाते है. इस बात को लेकर शिक्षकों में गुस्सा भी है. पर खुलकर वह कह नहीं पा रहे. शिक्षकों की यह हालत तब है जब उत्तर प्रदेश के दो डिप्टी सीएम में से एक डाक्टर दिनेश शर्मा खुद लखनऊ विश्वविद्यालय में शिक्षक है. शिक्षकों को उम्मीद थी कि वह शिक्षकों की मजबूरियों को समझते होगे. इसके बाद भी कभी शिक्षकों की डयूटी दुल्हनों को सजाने पर लगा दिया जाता है तो कभी गंगा दल के खाने की व्यवस्था को देखने के लिये.

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त्रिशा के साथ ऐसी हरकत करेंगे लव-कुश, सच्चाई जानकर उड़ जाएंगे नायरा-कार्तिक के होश

स्टार प्लस (Star Plus) के पौपुलर सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ (Yeh Rishta Kya Kehelata Hai) में जब से लव-कुश (Luv-Kush) की रीएंट्री हुई है तब से शो ने एक अलग ही ट्रैक पकड़ लिया है जो कि दर्शकों को खूब पसंद भी आ रहा है. जैसा कि पहले हमने आपको बताया था कि लव-कुश की जबसे रीएंट्री हुई है तब से ही कार्तिक-नायरा (Kartik-Naira) की मुश्किलें बढ़ गईं हैं और इसका कारण ये है कि लव-कुश जब से बोर्डिंग स्कूल से लौटे हैं तक से ही वे काफी बिगड़ गए हैं और उन्हें हर वो बुरी आदत की लत लग चुकी है जो कि नहीं लगनी चाहिए थी.

लव-कुश ने कर दिखाया ऐसा कारनामा…

 

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बात करें आने वाले एपिसोड्स की तो लव-कुश (Luv-Kush) अपने दोस्तों के साथ मिलकर ऐसा कारनामा करने वाले हैं जिसे देख ना सिर्फ कार्तिक और नायरा बल्कि दर्शकों के भी होश उड़ने वाले हैं. दरअसल, कार्तिक और नायरा अपने मोबाइल फोन में त्रिशा (Trisha) की पर्फोर्मेंस (Performance) देख रहे होते हैं और त्रिशा को आगे बढ़ता देख दोनो को काफी खुशी होती है.

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दोस्तों के साथ मिलकर किया ये काम…

वहीं आने वाले एपिसोड के प्रोमो में त्रिशा लव-कुश और उनके दोस्तों से बच कर भाग रही होती है और भागते भागते वह एक जंगल में पहुंच जाती है. इस दौरान त्रिशा लव-कुश के से काफी मिन्नते मांगती है कि वे उसे छोड़ दें पर लव-कुश और उसके दोस्त त्रिशा की एक नहीं सुनते और उसके साथ काफी गलत व्यवहार करते हैं.

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अस्पताल पहुंचे कार्तिक-नायरा…

प्रोमो (Promo) के मुताबिक कार्तिक और नायरा को इस बात का पता जल्दी ही लग जाएगा और वे दोनों भागते हुए अस्पताल जा पहुंचेंगे वहां पहुंच कर उन दोनो के होश उड़ जाएंगे. वहीं खड़े लव-कुश कार्तिक और नायरा को देख कर घबरा जाएंगे और सोचेंगे कि वे इन सबसे कैसे बच पाएंगे.

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क्या सच में मर जाएंगे कार्तिक-नायरा…

जैसा कि पहले सुनने में आ रहा था कि शो के आने वाले एपिसोड्स में कार्तिक और नायरा की मौत हो जाएगी तो लव-कुश की ऐसी हरकतें देखते हुए ये अनुमान लगाया जा सकता है कि वो सब भी लव-कुश की ही कोई ना कोई साजिश हो सकती है.

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नकारात्मक विचारों को कहें हमेशा के लिए बाय

अमेरिकी लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर जिम रौन ने कहा है कि आप वास्तव में जो चाहते हैं, आप का मस्तिष्क खुद ही आप को उस ओर खींच लेता है. इसलिए नकारात्मकता के अंधेरे से आप सकारात्मकता के उजाले में आसानी से आ सकते हैं. बस, आप को अपने मस्तिष्क में बने दृष्टिकोण और उस की शब्दावली में थोड़ा हेरफेर करना होगा. आइए जानें कैसे करें :

नैगेटिव थिंकिंग वाले लोगों से रहें दूर

कुछ लोग इतने नैगेटिव होते हैं कि उन के साथ रह कर पौजिटिव सोच वाला व्यक्ति भी बदलने लगता है. ऐसे लोग हर समय नकारात्मक माहौल बनाए रखते हैं, ऐसे लोगों से बचें, क्योंकि उन के साथ रह कर जीवन में कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि अन्य लोग भी आप से दूरी बनाने लगेंगे.

बहाने बनाने से बचें

जो भी काम आप ने अपने हाथ में लिया है, उसे समय पर पूरा करें. आलस में आ कर उसे न करने के बहाने मारने से नुकसान आप का ही होगा, अगर एक बार आप ने बहाना छोड़ कर यह काम कर लिया तो आप को कभी जिंदगी में इस तरह के नकारात्मक विचार तंग नहीं करेंगे.

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तुलना न करें

अगर आप के किसी दोस्त को किसी कंपीटिशन ऐग्जाम में सफलता मिली है तो उस की तुलना खुद से कर रोना न रोएं कि आप को इतने प्रयासों के बाद भी सफलता नहीं मिली. ऐसा करना बेवकूफी है बल्कि ऐसे में आप को चाहिए कि दोस्त की खुशी में शामिल हों और उस से सलाह लें कि सफलता के लिए उस ने क्या किया और अपनी कमियों को ढूंढ़ कर दूर करने का प्रयास करें.

सफलता असफलता एक सिक्के के 2 पहलू हैं इस बात को हमेशा ध्यान रखें कि यदि आप सफल नहीं होते और डिप्रैशन में जा कर सब से बोलचाल बंद कर खुद को अलगथलग कर लेते हैं, तो यह कोई हल नहीं है.

अगर असफलता मिली है तो उस से सीख कर आगे बढ़ते हुए ही कामयाबी के शिखर पर पहुंचेंगे.

म्यूजिक सुनें

जब भी आप तनाव या नकारात्मकता से घिरे हुए हों तो इस सिचुएशन से खुद को बाहर निकालने के लिए संगीत का सहारा लें. इस से आप का तनमन दोनों प्रसन्न होंगे और आप परेशानी को भूल कर आगे बढ़ पाएंगे.

खुद को प्रोत्साहित करें

जब भी आप को लगे कि आप विफल होने लगे हैं तो खुद को समझाने का प्रयास करें और कहें कि हमें नहीं हारना. जब आप खुद से इस तरह की बातें करेंगे तो निराशा कम होगी और हिम्मत मिलेगी जो आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी.

आज में जीएं

वर्तमान में रहने की कोशिश करें. जो बीत गया है उस के बारे में विचार कर दुखी न हों और जो होने वाला है उस की सोच में डूबने के बजाय जो आज है उसे ऐंजौय करें.

खुश रहें

आज क्या अच्छा हुआ है उस पर विचार करें. यह कुछ भी हो सकता है सुबह नाश्ते का स्वादिष्ठ परांठा, किसी दोस्त की फोन कौल या फिर रास्ते में देखा कोई सुंदर बच्चा. इस से तनाव कम होगा और आप अच्छे काम के लिए प्रेरित होंगे. आप दूसरों को खुशी तभी दे पाएंगे जब आप खुद खुश रहें. इसलिए अपने मन को प्रसन्नचित्त रखें. जिन कामों को करने में आप को खुशी महसूस होती है. उन के लिए वक्त निकालें.

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शराब न पीएं

शराब नकारात्मक विचारों को जन्म देती है और इस के इस्तेमाल से मनुष्य जानवरों की तरह बरताव करने लगता है. उस का अपनी इंद्रियों पर कंट्रोल नहीं रहता. इसलिए शराब का सेवन न करें.

हंसने की आदत डालें

यह एक तरह की थेरैपी है. बिना किसी कारण के रोजाना 5-10 मिनट जोर से ठहाके लगा कर हंसें. इस से ब्लडप्रैशर कंट्रोल रहता है और विचारों में सकारात्मकता आती है. हंसने के लिए मौके न तलाशें. हर रोज ऐक्सरसाइज की तरह कुछ देर हंसने की आदत डालें.

बच्चों के साथ समय बिताएं

बच्चों के साथ खेलें, उन के साथ बातें करें, चीजों को उन के नजरिए से देखें, सुनें. तब आप को एहसास होगा कि दुनिया में कितना भोलापन है और आप का चीजों को देखने का नजरिया ही बदल जाएगा. बच्चों के साथ आप का जिस तरह से मन चाहे उस तरह से खेलें. लोग क्या कहेंगे इस बात की परवा न करें.

सहज रहना सीखें

दुखद परिस्थिति में भी सहज रहना सीखें. जटिल समय में उन लोगों के बारे में सोचें, जिन्होंने खुद को मुश्किल स्थितियों से बाहर निकाला. वर्तमान में आप क्या अच्छा कर सकते हैं. इस बारे में सोचें.

खुद के साथ समय बिताएं

सुबह पार्क में टहलें, छुट्टियों में घूमने जाएं, प्रकृति के बीच समय बिताएं, अपने फोटो खींचें, अपने लिए शौपिंग करें, अपना मनपसंद खाना खाने रैस्टोरैंट जाएं, फिल्म देखें. इस तरह खुद से प्यार करना भी जीवन में अच्छाई की ओर ले जाता है.

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नैगेटिविटी क्या है

– दूसरों के कार्यों में हमेशा कमी निकालना.

– अपने काम से संतुष्ट न होना. हमेशा काम में मन न लगने का रोना रोते रहना, लेकिन उसे अच्छा बनाने के लिए कोई खास प्रयास न करना.

– छोटी सी बात पर हायतोबा मचाना और अपने साथ दूसरों को भी परेशान करना.

– दूसरों को आगे बढ़ता और खुश देख कर जलन महसूस करना.

– अपने से अमीर या संपन्न लोगों को देख कर खुद को हीन समझना.

– खुद पर विश्वास न होना.

– किसी भी काम को ट्राई करने से पहले ही उस का नतीजा सुना देना, ‘वह काम मुझ से नहीं होगा, मुझे नहीं आता,’ वगैरावगैरा.

नैगेटिव थिंकिंग को पौजिटिव थिंकिंग में कैसे बदलें

– यदि किसी खास परिस्थिति को ले कर आप के मन में नकारात्मक विचार हैं और आप गुस्से में हैं तो कुछ देर शांत रहें और उस परिस्थिति को किसी दूसरे नजरिए से देखें. खुद ब खुद आप के मन में सकारात्मक विचार आ जाएंगे.

– आज नियमित काम से कुछ अलग हट कर करें. वह आप की कोई हौबी या फिर ऐसा गुण भी हो सकता है जिसे आप भूल गए थे. ऐसा करने पर आप को खुद से प्यार होगा और लगेगा कि आप भी लीक से हट कर कुछ नया और अच्छा करने की काबिलीयत रखते हैं, इस से अपने प्रति आप का नजरिया पौजिटिव हो जाएगा.

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– यदि शारीरिक रूप से सौंदर्य के मामले में आप में कोई कमी है तो उसे सहज स्वीकार करें. अगर उस कमी के बारे आप हीनभावना के शिकार होते हैं तो ऐसे में उन्हें न देखें, जिन में कोई कमी नहीं है बल्कि ऐसे लोगों को देखें जिन में आप से भी ज्यादा कमी है और वे खुशहाल जीवन जी रहे हैं. ऐसे लोगों से प्रेरणा लें.

– किसी फैमिली फंक्शन में जाएं तो वहां कमियां न निकालें. ऐसा करने से खुद को रोकें और अच्छा देखने का प्रयास करें. वहां आप कमियां निकालने नहीं बल्कि ऐंजौय करने आए हैं.

– नकारात्मकता से व्यक्ति गुस्सैल हो जाता है इसलिए किसी भी बात पर तुरंत रिऐक्ट करने से पहले एक बार अवश्य सोचें कि जो आप कहने जा रहे हैं वह सही है या आप के बेवजह के गुस्से का परिणाम है. जवाब आप को मिल जाएगा और उस के साथ आप का गुस्सा भी शांत हो जाएगा व पौजिटिव सोच भी आ जाएगी.

भोजपुरी फिल्म “यमदूत” में नजर आने वाले हैं ये बड़े अभिनेता, देखें फोटोज

भोजपुरी फिल्मों के सुपर स्टार विनोद सिंह जल्द ही एक नई फिल्म “यमदूत” में नजर आने वाले हैं. इस फिल्म के फर्स्ट सेड्यूल की शूटिंग पूरी हो चुकी है और अगले माह इसके दूसरे सेड्यूल को शूट किये जाने की तैयारियां पूरी कर ली गई है. फिल्म का निर्माण राजलक्ष्मी फिल्म प्रोडक्शन के बैनर तले किया जा रहा है.

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इस फिल्म के फर्स्ट सेड्यूल शूटिंग से जुडी कई फोटोज पहले भी वायरल हो चुकी हैं. जिसमें इसके मुख्य अभिनेता विनोद सिंह और अमृता सिंह को शादी के जोड़े में भी देखा गया था. इस फोटोज के वायरल होने पर लोगों को लगा था की सचमुच विनोद व अमृता पाण्डेय की शादी हो गई है. लेकिन बाद में लोगों को पता चला की उनकी यह शादी रियल नहीं बल्कि फिल्म ” यमदूत” के शादी के सीन के दौरान ली गयी थीं.

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बिहार के नालंदा जिले के रहने वाले विनोद सिंह ने बताया की एक छोटे से शहर से फिल्म इंडस्ट्री तक का सफर करने में उन्हें तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पडा था. इसके पहले नालंदा से किसी भी शख्स ने फिल्म इंडस्ट्री में दस्तक नहीं दी थी. इसलिए विनोद सिंह के लिए फिल्मों का सफर और भी कठिन रहा. विनोद ने बताया की, ‘मैने इस फिल्म के लिए बहुत मेहनत की मुझे विश्वास है की इस फिल्म में लोगों को मेरा कैरेक्टर पसंद आयेगा’.

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बेहतरीन लोकेशन में बन रही फिल्म “यमदूत” बहुत ही रोमांचक और पारिवारिक फिल्म है. जिसके सभी गाने बहुत ही कर्ण प्रिय हैं. इस फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी निर्देशन सुनील चालक निभा रहे हैं जबकि फिल्म के निर्माता वीरेन्द्र कुमार सिंह है. फिल्म में मुख्य भूमिका में विनोद सिंह, अमृता पाण्डेय, सुशील सिंह, बृजेश त्रिपाठी, आकांक्षा दूबे, शिवानी यादव, जावेद हैदर, बिनोद गिरी, शान्तनु सिन्हा सरीखे कई मंजे हुए कलाकार नजर आयेंगे. फिल्म का छायांकन देव दत्त व आदित्य मेहर का है. फिल्म की कहानी लिखी है संदीप ने, डांस मास्टर राजू हैं, संगीत दिया है छोटू रावत ने गाने अमित सरासत नें लिखें हैं.

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इस भोजपुरी फिल्म में पल्लवी के साथ रोमांस कर रहे हैं विमल पांडे, फोटोज हुईं वायरल

उत्तर प्रदेश के नेपाल से सटे जिले महराजगंज में स्टार अभिनेता विमल पाण्डेय और अभिनेत्री गुंजन पन्त व पल्लवी के प्यार त्रिकोण पर आधरित फिल्म “हमरे मरद की मेहरारू” की शूटिंग जोरों पर हैं. इसी फिल्म में फिल्माए गए एक दृश्य में विमल पाण्डेय और अभिनेत्री पल्लवी के रोमांस की तस्वीरें सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो रहीं हैं. जिस पर प्रशंसकों की काफी प्रक्रिया मिल रहीं है. इस फिल्म में फिल्माए जा रहे एक दृश्य में विमल पाण्डेय बेडरूम में पल्लवी के साथ रोमांस करते नजर आ रहें है. तो वहीं हरे-भरे खेतों के बीच लुक अलग ही नजर आ रहा है. फिल्म के इस सीन से जुडी तस्वीरें किसी ने वायरल कर दी है जो काफी ट्रेंड कर रहीं हैं.

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श्री सद्गुरु एंटरटेनमेंट हाउस रीगल फिल्म एंड म्यूजिक के बैनर तले बन रहे इस फिल्म का निर्देशन “राम जी पटेल द्वारा किया जा रहा है. जब की इस फिल्म में चौकलेटी ब्वाय के नाम से मशहूर अभिनेता “विमल पांडे” और खुबसूरत अदाकारा गुंजन पन्त व पल्लवी मुख्य भूमिका निभा रहीं हैं. दिलचस्प बात यह है की विमल पाण्डेय इसी जिले के रहने वाले हैं और पहली बार वह अपने होम टाउन “महराजगंज” में किसी फिल्म की शूटिंग कर रहें हैं.

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इस फिल्म में विमल पाण्डेय और गुंजन पन्त व पल्लवी के अलावा अभिनेता “प्रेम सिंह” भी मुख्य भुमिका में नजर आयेंगे. जब की “चन्द्रमुखी मौसम”, विनोद मिश्रा, दीपक सिन्हा और सुनील दत्त पण्डे भी अहम किरदार करते नजर आयेंगे. इस फिल्म के छायांकन की जिम्मेदारी सम्राट सिंह निभा रहें हैं फिल्म के निर्माता अरुण दूबे है. इस फिल्म के मुख्य अभिनेता विमल पाण्डेय ने हाल ही में अपनी फिल्म “हीरा बाबू एम बी बी एस” की शूटिंग कम्पलीट की है. जिसके पोस्ट प्रोडक्शन का भी काम जोरो से चल रहा है जो जल्द ही बड़े पर्दे पर देखने को मिलेगी. इसके पहले भी अभिनेता विमल पाण्डेय कई फिल्मो और अल्बम्स में अपने अभिनय का जलवा दिखा चुके है.

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इस फिल्म की अधिकांश कहानी अभिनेता विमल पांडे और अभिनेत्री गुंजन पंत व पल्लवी के इर्द गिर्द घूमती नजर आएगी. फिल्म में लव ट्रायंगल जैसा सिचुएशन देखने को मिलेगा, जो दर्शकों को खूब एंटरटेन करेगा. इस फिल्म में फैमली ड्रामा, रोमांस, लव ट्रायंगल, तो है ही साथ ही बीच बीच में कौमेडी का तड़का भी देखने को मिलेगा. अभिनेता विमल पांडे के पीआरओ “आर्यन पांडे” की माने तो नवोदित स्टार अभिनेता विमल पांडे इस साल कम से कम 7-8 फिल्मे करने जा रहे हैं. तो वही इस साल उनकी 4 फिल्मे बड़े पर्दे पर द्स्तक देगी.

अभिनेता विमल पांडे इस फिल्म में अपने किरदार को लेकर बहुत उत्साहित हैं. उन्होंने बताया की यह फिल्म पूरी तरह से पारिवारिक ताने-बाने में बुनी हैं जिसे पूरे परिवार के साथ देखा जा सकेगा. फिल्म का फैमली ड्रामा, रोमांस, लव ट्रायंगल और बेहतरीन कौमेडी लोगों को खासा पसंद आएगा. उन्होंने बताया की इस फिल्म में उनकी और गुंजन पंत की जबरदस्त कैमेस्ट्री देखने को मिलेगी.

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‘‘फिल्म ‘कांचली’ में स्त्री के उत्थान की बात है.’’ -देदीप्य जोशी

राजस्थान के कुछ गांवों में छोटी उम्र के बालक के साथ बड़ी उम्र की महिला की शादी से पनपने वाली सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ फिल्म ‘‘सांकल’’ का निर्देशन कर कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके फिल्मकार देदीप्य जोशी की हास्य फिल्म ‘‘चल जा बापू’’ को खास सफलता नही मिली थी. अब वह स्त्री उत्थान के मसले पर बतौर निर्माता व निर्देशक फिल्म ‘‘कांचली’’ लेकर आए हैं, जो कि राजस्थान के मशहूर लेखक विजयदान देथा की कहानी ‘‘केंचुली’’ पर आधारित है. सात फरवरी को प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘‘कांचली’’ में शिखा मल्होत्रा, संजय मिश्रा और ललित पारिमू की अहम भूमिकाएं हैं.

सांकल’ और ‘चल जा बापू’ जैसी आपकी दो फिल्में आ चुकी हैं. इनके प्रदर्शन का अनुभव कैसा रहा?

– पहली फिल्म ‘‘सांकल’’ थी, जिसे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी सराहा गया. यह फिल्म कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का हिस्सा बनी. मुझे लाइव दर्शकों से मिलने का, उनकी प्रतिक्रिया जानने का अवसर मिला. फिल्म फेस्टिवल वाला दौर काफी सुकून भरा था और हमें अहसास हुआ कि हमने कुछ बेहतर काम किया है. गौरवान्वित भी हुआ. मगर जब हम बौक्स आफिस की बात करते हैं, क्योंकि पूरी दुनिया अर्थशास्त्र पर टिकी हुई है. सिनेमा को कला कहा जाता है, मगर यहां अर्थशास्त्र सबसे ज्यादा मायने रखता है.

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ऐसे में कुछ लोग बीच का रास्ता निकालकर अच्छे कलाकारों के साथ फिल्म बनाते हुए उसमें अपनी बात भी कह देते हैं और उनकी फिल्म बौक्स आफिस पर भी सफलता दर्ज करा लेती है. इन दिनों ऐसा दौर चल रहा है. पर हमारे जैसे कुछ अड़ियल भी होते हैं, जो कहते हैं कि हम अपनी बात अपने तरीके से कहना चाहते हैं. बिना किसी तरह के प्रभाव में आए. हमारे जैसे फिल्मकार फिल्म बनाते समय यह नहीं सोचते कि फिल्म बिकेगी कैसे, सिनेमाघरों में कैसे पहुंचेगी. क्योंकि हम तो अपनी बात दर्शकों से कहना चाहते हैं. मैने जब ‘सांकल’ बनायी थी, तो यह सोचकर बनायी थी कि इससे मुझे आर्थिक तौर पर नुकसान ही होगा. लेकिन मैं चाहता था कि फिल्म देखें और जिस समस्या को मैने अपनी फिल्म का हिस्सा बनाया है, उसको लेकर लोगों के बीच चर्चा हो. इसलिए फिल्म ‘सांकल’ जिस तरह से रिलीज हुई, इसका मुझे कभी पश्चाताप नहीं रहा.

इसके बाद कमर्शियल फिल्म ‘‘चल जा बापू’’ करने के पीछे क्या सोच थी?

– ‘‘चल जा बापू’’ बनाने के पीछे मेरी सोच कमर्शियल सिनेमा करना था. कमशिर्यल सिनेमा में बजट ज्यादा चाहिए. दर्शक भी लार्जर देन लाइफ किरदार व घटनाएं देखना चाहता है. वैसे इन दिनों रियालिस्टिक सिनेमा भी चल रहा है, जिसमें राज कुमार राव, आयुश्मान खुराना जैसे कलाकार काम कर रहे हैं. लेकिन इस तरह की फिल्मों के निर्माण में भी कम लागत नहीं आती है. कंटेंट मजबूत होता है, पर खर्चा भरपूर होता है. मैं शुरू से इस बात के खिलाफ हूं कि कम बजट की कमर्शियल फिल्म नही करनी चाहिए. लेकिन उस वक्त मेरे दिमाग में था कि यदि मैं कमर्शियल फिल्म को रियालिस्टिक अप्रोच दूंंगा, तो कम बजट में भी वह लोगों के दिलों में घर कर जाएगी, पर मेरी यह सोच गलत निकली. क्योकि ‘चल मेरे बापू’ का निर्माता मैं नहीं था. हम दोनों की सोच में अंतर था. मेरी इच्छा के विपरीत निर्माता ने आइटम सांग व दूसरे गाने रखवाए. मैं आइटम सांग के खिलाफ नही हूं, पर इसके लिए फिल्म का सब्जेक्ट भी उसी के अनुरूप हो और आइटम सांग को अच्छे पैसे खर्च कर इतनी भव्यता के साथ फिल्माया जाए कि उसे देखकर दर्शक की आंखे चकाचौंध हो जाएं. फिल्म भी सही ढंग से रिलीज नही हुई.

पहली फिल्म ‘‘सांकल’’ के प्रदर्शन के बाद किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली थी?

– मिश्रित प्रतिक्रियाएं मिली. कलकत्ता के फेस्टिवल में एक शख्स मेरे पास आया जिसकी आंखों में आंसू थे, उसने कहा- ‘‘यह बहुत बड़ा मार्मिक विषय है. इस तरह के विषयों पर फिल्म बननी चाहिए. आपने इसे बनाकर समाज व सिनेमा को बहुत बड़ा योगदान दिया है. इस तरह की सामाजिक कुरीति पर चर्चा होनी चाहिए. हम दर्शक इस तरह की फिल्में देखना चाहते हैं. तो मुझे लगा कि मेरी मेहनत सफल हो गयी. पर जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में एक महिला ने मुझसे कहा- ‘‘आप इस कहानी को बिना हार्श होकर भी दिखा सकते थे.’’ मै इस तरह के कमेंट्स, प्रतिक्रिया से बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं होता. मैं अपने मन का सिनेमा बनाना चाहता हूं.

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सुना है आप ‘‘कांचली’’ का निर्माण 2008 में ही करना चाहते थे?

– जी हां! 2008 से पांच साल तक मैंने इस फिल्म की पटकथा लेकर कई निर्माता व कलाकारों के यहां चक्कर लगाए. पर बात नही बनी. जबकि इस फिल्म में उस वक्त मुख्य भूमिका निभाने के लिए विद्या बालन, नीतू चंद्रा और राधिका आप्टे भी तैयार थीं. मगर कोई निर्माता नहीं मिला. तो उस वक्त फिल्म नही बना सकी. फिर मैने ‘सांकल’ बनायी, ‘चल मेरे बापू’ का निर्देशन किया. अब जब परस्थितियां  मेरे हक में नजर आयी, तो मैंने एक नई अदाकारा शिखा मल्होत्रा के साथ संजय मिश्रा को लेकर ‘‘कांचली’’ बनायी.

पर आप ‘‘कांचली’’ बनाने को इतना बेताब क्यों रहे?

– यह फिल्म राजस्थान के सेक्सपिअर माने जाने वाले लेखक विजयदान देथा की कहानी ‘‘केंचुली’’ पर है. विजयदान देथा के बारे में कहा जाता है कि स्त्री के मन के भाव को समझने वाला कोई पुरूष हो ही नहीं सकता, मगर विजयदान देथा ने अपनी हर कहानी में स्त्री के अंतर्मन को बहुत बारीकी से समझकर उकेरा है. लोग कहते हैं कि यह कहानियां विजयदान देथा ने नही, बल्कि किसी स्त्री ने लिखी है. तो यह उनके लिए बहुत बड़ा कौम्पलीमेंट है. वह महान लेखक थे, तो उन्हे हमने बहुत पढ़ा है. सिनेमा के प्रति रूझान के चलते उनकी कहानी पढ़ते समय मेरी आंखों के सामने एक नक्शा सा खिंच जाता था. विजयदान देथा की राजस्थानी भाषा में इस कहानी का नाम ‘‘केंचुली’’ है, जबकि हिंदी में ‘‘कांचली’’ है. इस कहानी का जो क्लायमैक्स था, उसने मुझे इस फिल्म को बनाने के लिए उकसाया. इसका क्लायमेक्स रोंगटे खड़ा कर देने वाला, हिलाकर रख देने वाला है. 2008 से मैं इस पर फिल्म बनाने के लिए प्रयासरत रहा हूं. मेरी इच्छा थी कि मेरे कैरियर की पहली फिल्म ‘‘कांचली’’ ही हो. पर संभव नहीं हो पाया था. यह कहानी आज भी समसामायिक है.

सामंतशाही के दौर की यह कथा किस तरह आपको समसामायिक नजर आयी?

– परिवार और समाज में स्त्रियों की दशा सदैव दोयम दर्जे की रही है. हर तरह के निर्णय पुरूष ही लेते रहे हैं. जहां निर्णय लेने के लिए कोई लड़की आगे आती है, तो उसे दबाया जाता है. यह पुरुष मानसिकता है. हम नारी उत्थान और औरतों को आगे बढ़ाने की चाहे जितनी बातें कर लें, पर कहीं न कहीं ऐसी गलती कर बैठते हैं, जब हम सोचते हैं कि हमने भी वही किया, जो दूसरे करते रहते हैं. मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं नारीवादी व फेमिनिस्ट नही हूं. मेरी राय में इस संसार में रह रहे पुरूष, औरत या जानवर हर किसी को अपना अपना अस्तित्व है, जिसे नकारा नहीं जा सकता. नारी मानसिक रूप से शक्तिशाली और शारीरिक रूप से कमजोर तथ पुरूष मानसिक रूप से कमजोर और शारीरिक रूप से मजबूत हैं. इसीलिए नारी की सच बात को भी पुरूष दबाता आया है. इसलिए कहानी पूरी तरह से समसामायिक हैं. यह हालात भारत ही नहीं, अमरीका में भी हैं.अमरीका में भी शारीरिक रूप से कमजोर लड़की व औरत के संग जबरन बलात्कार हो रहे हैं.

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फिल्म ‘‘कांचली’’ की कहानी क्या है?

– फिल्म की कहानी किशनू (नरेशपाल सिंह) की बेहद खूबसूरत लड़की कजरी (शिखा मल्होत्रा) से शादी के साथ शुरू होती है. किशनू के शादी कर गांव पहुंचने के साथ ही गांव के कजरी की सुंदरता के चर्चा होने लगते हैं और ठाकुर (ललित परीमू) की नीयत कजरी पर डोल जाती है. ऐसे में वह अपने खास आदमी भोजा (संजय मिश्रा) को कजरी को अपने सामने पेश करने का आदेश देते हैं. लेकिन अपने पति के प्रति बेहद वफादार कजरी एक दिन अपनी आत्मरक्षा के लिए ठाकुर पर हमला कर देती है. यह देख भोजा का मन कजरी पर लट्टू हो जाता है. मगर किशनु अपनी पत्नी कजरी की हिम्मत की दाद देने की बजाय उसे आइंदा से ठाकुर के साथ अच्छी तरह से पेश आने की हिदायत देता है. यह सुनकर कजरी का दिल टूट जाता है, क्योंकि उसने सपने में भी कभी नहीं सोचा था कि उसका पति दुनिया से उसकी इस लड़ाई में उसे अकेला छोड़ देगा. ऐसे में उदास कजरी सोचती है कि सुनने और देखने मे फर्क होता है, शायद किसी कभी गैर मर्द के साथ देख लेने के बाद उसके पति का खून खौल उठे. इस सोच के साथ वह भोजा की आड़ में अपने पति की परीक्षा लेने का निर्णय लेती है. उसके बाद बहुत कुछ घटित होता है.

सांकल’ और ‘कांचली’ में आप क्या अंतर देखते हैं?

– ‘सांकल’ सामाजिक बुराइयों पर थी. जहां एक छोटे बालक का विवाह बड़ी उम्र की महिला के साथ कर दिया जाता है, जिससे कई तरह की सामाजिक विसंगतियां पैदा होती हैं. जबकि‘कांचली’ स्त्री के उत्थान की बात है. स्त्री अपने पति व समाज से खुश है, पर उसके मन की भावना है कि वह खुश तो है, मगर स्वतंत्र नही है. उसका मन कहता है कि वह कई तरह की जकड़न में बंधी हुई है. उसका पति उसे प्यार करता है, उसकी कद्र करता है, मगर उसमें असुरक्षा की भावना है, क्योकि वह पति के सहारे है. इसलिए फिल्म ‘कांचली’ नारी जागृति की कहानी है कि वह किस तरह आत्मनिर्भर व स्वतंत्र हो सकती है.

पिछले कुछ वर्षों से नारी उत्थान और नारी स्वतंत्रता के जो आंदोलन..?

– मेरे विचार अजीब से लगेंगे. हमारे देश में हर मुद्दे के दो अलग विचार बन जाते हैं. सोशल मीडिया के माध्यम से आप किसी निर्णय पर नहीं पहुंच सकते, सभी कन्फ्यूज करते हैं. महिलाओं के लिए सही मायनों में कुछ बेहतर काम कुछ एनजीओ ग्रामीण इलाके में जरुर कर रहे हैं. कुछ संस्थाएं पारिवारिक वेश्यावृत्ति के खिलाफ काम कर रही हैं. डायन प्रथा पर काम कर रही हैं. मगर बड़ी बड़ी अभिनेत्रियां या सेलेब्रिटी जो ट्वीट कर खुद को महिलाओं का हितैषी या नारीवादी बताती रहती हैं, वह महज ढोंग है. यह सब मौका परस्ती ही है.

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नेहा कक्कड़ को मिला शादी का शगुन, आदित्य नारायण की तरफ से इस शख्स ने दी लाल चुनरी!

पिछले कुछ दिनों से नेहा कक्कड़ और आदित्य नारायण काफी सुर्खियों मे हैं. इंडियन आइडल शो में दोनों के घरवालों ने इनका रिश्ता भी पक्का कर दिया था, लेकिन वो शो का हिस्सा था. शो में दोनों की शादी की बात भी हुई. लेकिन बात अभी यहीं नहीं रुकी है. अब सिंगर कुमार सानू ने, आदित्य नारायण की तरफ से नेहा कक्कड़ के लिए एक स्पेशल गिफ्ट दिया है.

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दरअसल हाल ही में शो में कुमार सानू आए और अपने साथ वह आदित्य की तरफ से नेहा के लिए स्पेशल चुनरी लाए. इसके बाद उन्होंने हिमेश रेशमिया के साथ मिलकर ओढ़ ली चुनरिया तेरे नाम की सौन्ग भी गाया. वहां मौजूद बाकी कंटेस्टेंट्स ने भी नेहा के लिए गाना गाया.

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नेहा के साथ बेटे की शादी की खबरों पर उदित नारायण ने कही यह बात…

बता दें कि काफी दिनों से यह खबरें आ रही हैं कि नेहा और आदित्य जल्द ही एक दूसरे से शादी करने वाले हैं. नेहा और आदित्य ने तो इस पर कोई कमेंट नहीं किया, लेकिन आदित्य के पापा उदित नारायण ने इस पर अपनी बात रखी है.

हाल ही में एक वेबसाइट को दिए इंटरव्यू में उदित ने कहा था, ‘नेहा बहुत ही प्यारी लड़की है और वह गाती भी अच्छा हैं. मुझे नेहा बहुत पसंद है और सिर्फ हमें ही नहीं वह सभी को काफी पसंद है. नेहा ने इंडस्ट्री में अपनी मेहनत से एक खास पहचान बनाई है. मैं उनके गाने भी सुनता रहता हूं.’

नेहा और आदित्य को लेकर उन्होंने कहा था, ‘दोनों एक दूसरे को अच्छे से जानते हैं, लेकिन आगे का मुझे नहीं पता. टीवी पर दोनों को लेकर खबरें तो आ रही है, लेकिन मुझे नहीं पता कि दोनों शादी कर रहे हैं. अगर ऐसा हुआ तो मुझे तो खुशी होगी कि वह हमारी की फैमिली का हिस्सा होंगी.

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शराबखोरी : कौन आबाद कौन बरबाद?

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक तसवीर खूब वायरल हुई थी. इस में देशी व अंगरेजी शराब की दुकानों के बीच में मद्यनिषेध महकमे का बोर्ड टंगा था. यह तो ठीक वही बात हुई कि पहले चोर से कहो कि तुम चोरी करो और बाद में पुलिस से कहो कि इन्हें मत छोड़ना.

इस तरह के पाखंड व दिखावे तो हमारे समाज में कदमकदम पर देखने को मिलते हैं. मसलन, एक ओर सिगरेट धड़ल्ले से बनतीबिकती हैं, दूसरी ओर उन की डब्बी व इश्तिहारों में लिखते हैं कि ‘सिगरेट पीना सेहत के लिए हानिकारक है.’ इसी तरह प्लास्टिक, औक्सीटोसिन के इंजैक्शन व फलों को पकाने वाले जहरीले कैमिकल वगैरह से परहेज व पाबंदियां हैं, लेकिन उन्हें बनाने व बेचने की पूरी छूट?है.

सिर्फ एक शराब के मामले में ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति, सरकार व धर्म के ठेकेदारों की उलटबांसियां भी कुछ कम नहीं हैं इसलिए कदमकदम पर बड़े ही अजब व गजब खेल दिखाई देते हैं. मसलन, एक ओर राज्य सरकारों के आबकारी महकमे नशीली चीजों की बिक्री से कमाई करने में जुटे रहते हैं, वहीं दूसरी ओर समाज कल्याण व मद्यनिषेध जैसे महकमे करोड़ों रुपए इन से बचाव के प्रचार में खर्च करते हैं.

जहांतहां दीवारों पर नारे लिखे जाते हैं, होर्डिंग लगाए जाते?हैं और इश्तिहार दिए जाते हैं कि शराब जहर से भी ज्यादा खराब व नुकसानदायक है. इस तरह 2 नावों पर पैर रख कर करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा बड़ी ही दरियादिली के साथ पानी में बहाया जाता है. इन में कोई एक काम बंद होना जरूरी?है, लेकिन इस की फिक्र किसे है?

कहने को आबकारी महकमे नशीली चीजों की बिक्री पर नकेल कसते हैं, लेकिन असल में तो वे भांग, शराब वगैरह के ठेके नीलाम कर के रंगदारी वसूलते हैं. कहा यह जाता है कि वे लोगों को जहरीली शराब पीने से बचाते हैं. जायज व नाजायज शराब में फर्क बताते हैं. सरकारी कायदेकानून को लागू कराते हैं, लेकिन सब जानते हैं कि हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं, इसलिए भ्रष्टाचारी खूब खुल कर खेलते हैं.

इसी वजह से गुड़गांव, हरियाणा में रेयान स्कूल के पास अंगरेजी शराब की दुकान चल रही थी. हफ्तावूसली करने वालों की वजह से ज्यादातर ठेकों पर तयशुदा वक्त से पहले व बाद में और बंदी के दिन भी शराब की बिक्री चोरीछिपे बराबर चलती रहती है.

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शराब बेचने की दुकानों को लाइसैंस देने के नाम पर उन से भरपूर कीमत वसूली जाती है. मसलन, उत्तर प्रदेश में आबकारी महकमे का कुल सालाना बजट 122 करोड़, 78 लाख रुपए का है, जबकि साल 2017-18 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आबकारी से 8 अरब, 916 करोड़ रुपए कमाए. जाहिर है कि शराब का धंधा सरकारों के लिए सोने की खान है.

शराब की मनमानी कीमत तो शराब बनाने वाले खरीदारों से लेते ही हैं, इस के अलावा करों के नाम पर अरबोंखरबों रुपए जनता की जेब से निकल कर विकास के नाम पर सरकारी खजाने में चले जाते हैं. इस का एक बड़ा हिस्सा ओहदेदारों की हिफाजत, सहूलियतों, बैठकों, सैरसपाटों, मौजमस्ती वगैरह पर खर्च होता है.

शराब खराब है, यह बात जगजाहिर है. ज्यादातर लोग इसे जानते और मानते भी हैं, लेकिन कमाई के महालालच में फंसी ज्यादातर सरकारें शराबबंदी लागू ही नहीं करती हैं.

गौरतलब है कि गुजरात, नागालैंड, मणिपुर व बिहार समेत देश के 4 राज्यों में शराबबंदी होने से सरकारें कौन सी कंगाल हो गई हैं? उत्तर प्रदेश में सरकार को होने वाली कमाई का महज 17 फीसदी आबकारी से आता है.

इसे दूसरे तरीकों से भी तो पूरा किया जा सकता है. मसलन, तत्काल सेवाओं के जरीए, कानून तोड़ने वालों पर जुर्माना बढ़ा कर, हथियारों, महंगी गाडि़यों वगैरह पर बरसों पुरानी फीस की दरें बढ़ा कर, सरकारी इमारतों व रसीदों पर इश्तिहार लेने जैसे कई तरीके हैं, जिन से जनता पर बिना कर लगाए भी राज्यों की सरकारें अपनी कमाई बढ़ा सकती हैं, लेकिन ज्यादातर ओहदेदार तो खुद शराब पीने के शौकीन होते हैं, इसलिए वे शराबबंदी को लागू करने के हक में कभी नहीं रहते हैं.

यह है वजह

लोग नशेड़ी कैसे न हों क्योंकि हमारा धर्म तो खुद नाश करने की पैरवी करता है. शिवशंकर के नाम पर भांग, गांजा, सुलफा वगैरह पीने वाले साधुमहात्माओं व भक्तों की कमी नहीं है. कांवड़ यात्रा के दौरान तो ऐसे नशेड़ी खुलेआम सामने आ कर सारी हदें पार कर देते हैं. इस के अलावा धर्म की बहुत सी किताबों में सोमरस पीने का जिक्र आता है.

शराब का इतिहास सदियों पुराना है. अंगूर से अलकोहल तक, ताड़ी से कच्ची व जहरीली शराब पी कर बहुत से लोग अपनी जान गंवा चुके हैं.

दरअसल, हमारा धर्म भी इस की इजाजत देता है. कई देवीदेवताओं की पूजा में शराब का भोग लगाया जाता?

है, फिर उसे प्रसाद के तौर पर भक्तों में बांटा जाता है. काली माई व भैरव के मंदिरों में शराब की बोतलें चढ़ाने जैसे नजारे देखे जा सकते हैं.

शादीब्याह के मौकों पर मौजमस्ती करने, खुशियां मनाने, गम भुलाने, तीजत्योहार या दावतों में मूड बनाने के नाम पर अकसर शराब के दौर चलते हैं. धीरेधीरे शराब पीने की यह लत रोज की आदत बन जाती है. शराब के नशे में इनसान का अपनी जबान, हाथपैर व दिमाग पर काबू नहीं रहता है.

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शराब पीने से शरीर कांपने लगता है. चिड़चिड़ापन, उदासी व बेचैनी बढ़ने लगती है. जिगर खराब होने लगता है. कई तरह की बीमारियां घेरने लगती हैं. इनसान इस का आदी हो जाता है. इस की लत लग जाने पर फिर शराब छोड़ना आसान नहीं रहता. आखिर में शराबी दूसरों की नजरों में भी गिरने लगता है.

फिर भी कई लोग दूसरों को बहलाफुसला कर अपना हमप्याला बनाने के लिए कहते हैं कि शराब पीना सेहत के लिए अच्छा रहता है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है.

नुकसान ही नुकसान

शराब इनसान, उस की जेब व उस के घरपरिवार को तबाह कर देती है, फिर भी इसे पीने वालों की गिनती बढ़ रही है. अब औरतें व बच्चे भी इस के शिकार हो रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 37 करोड़ से भी ज्यादा लोग शराब पीते हैं. इन में से आधे से ज्यादा लोग बहुत बड़े पियक्कड़ हैं.

शराब पीने से हर साल लाखों लोग बीमारियों व मौत के मुंह में चले जाते हैं. उन की माली हालत खराब हो जाती है. न जाने कितने लोग शराब के नशे में कानून तोड़ते हैं. दूसरों के साथ गालीगलौज, झगड़ाफसाद व दूसरे जुर्म करते हैं. अपने बीवीबच्चों को मारतेपीटते?हैं. लेकिन शराब की लत के शिकार लोगों व सरकारों की आंखें नहीं खुलती हैं.

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शराब पी कर गाड़ी चलाने की वजह से सड़कों पर हो रहे हादसों में लाखों लोगों की जानें चली जाती हैं, लोग फिर भी अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारते रहते हैं. कई बार बेगुनाह भी उन की गलती व लापरवाही के शिकार हो जाते हैं. राह चलते या सड़क किनारे सोने वाले गरीब लोग शराबियों की गाडि़यों की चपेट में आ कर अपनी जान तक गंवाते रहते हैं.

दरअसल, पूरे देश में शराबबंदी लागू होनी लाजिमी है, लेकिन ऐसा करना आसान काम नहीं?है. नीतीश कुमार की सरकार ने बिहार में शराबबंदी कानून लागू की थी, लेकिन सरकार के इस फैसले को सब से तगड़ा झटका पटना हाईकोर्ट से उस वक्त लगा, जब जारी आदेश में कहा गया कि किसी भी सभ्य समाज में इतने कड़े कानून लागू नहीं किए जा सकते. यह जनता के हकों को छीनने जैसा है.

इस से पहले हरियाण, आंध्र प्रदेश, मिजोरम व तमिलनाडु राज्यों में भी शराबबंदी लागू की गई थी लेकिन भारी दबाब के चलते उसे वापस लेना पड़ा. दरअसल, शराब चाहे जायज तरीके से बनी हो या नाजायज तरीके से, वह सरकारों, नेताओं व पुलिस सब की कमाई का बड़ा जरीया है. राजकाज चलाने वाले ओहदेदार चाहते हैं कि शराब की खपत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रहे. ऐसे में जरूरत खुद सोचसमझ कर कदम उठाने की है.

हालांकि शराब की लत छुड़ाने के तरीके व पुनर्वास केंद्र वगैरह हैं, लेकिन इन सब में वक्त व पैसा बहुत लगता?है. साथ ही, तब तक शराब दीमक की तरह अंदर ही अंदर खा कर इनसान को खोखला कर चुकी होती है, इसलिए पहले से ही पूरी सावधानी बरतें, वरना पछतावे के साथ यही करना पड़ेगा कि सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या हुआ.

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