“भांगड़ा पा ले”- लचर कहानी और कमजोर निर्देशन

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः रौनी स्क्रूवाला

निर्देशकः स्नेहा तौरानी

कलाकारः सनी कौशल, रूखसार ढिल्लों, जयति भाटिया व श्रिया पिलगांवकर

अवधिः दो घंटे 13 मिनट

भांगडा नृत्य और पष्चिमी नृत्य के बीच समायोजन बैठाने के लिए बुनी गयी लाचर कहानी, लाचर निर्देशन का परिणाम है फिल्म ‘‘भांगड़ा पा ले’’. पहले यह फिल्म 13 सितंबर, फिर एक नवंबर को रिलीज होने वाली थी, पर अब 3 जनवरी 2020 को रिलीज हुई है.

कहानी

फिल्म के शुरू होते ही द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान धूल भरे युद्ध के मैदान में एक सैनिक एक ढोल (ड्रम) को ऊपर खींचता है, और एक धुन निकालते हुए गीत गाता है, जिसे सुनकर हताश सैन्य कंपनी के अदंर जोश आ जाता है. कई सैनिक घायल होते हैं और ढोल बजाने वाले का एक पैर कट जाता है. अगला दृश्य अमृतसर के एक आधुनिक कौलेज का है, जहां लड़कियां भांगड़ा मंडली में एक प्रतियोगिता के लिए औडीशन दे रही हैं.

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वास्तव में फिल्म में दो कहानियां हैं, एक कहानी 1944 के विष्वयुद्ध के दौरान के एक सैनिक कैप्टन (सनी कौषल) की है और दूसरी कहानी 2019 के भांगड़ा नृत्य में माहिर युवक जग्गी (सनी कौषल) की है. दोनों कहानियों का जुड़ाव यह है कि जग्गी के दादाजी थे कैप्टन. फिल्म के आगे बढ़ने पर कई टुकड़ों में जग्गी, सिमी को अपने दादा जी यानी कि कैप्टन की कहानी सुनाता है. कैप्टन के पिता व दादा ने जंग के मैदान पर नाम रोशन किया था, पर कैप्टन को भांगड़ा नृत्य में रूचि है. लेकिन पिता की इच्छा के चलते वह सैनिक बन जाता है.

सैनिक बनने से पहले निम्मो (श्रिया पिलगांवकर) से उसका प्रेम विवाह होना था. युुद्ध के मैदान में एक पैर गंवाने के बाद जब कैप्प्टन वापस लौटता है, तो निम्मो की शादी हो रही होती है, पर वह निम्मों के घर पहुंचता है. निम्मो की ढोल पर कैप्टन एक पैर से ही भांगड़ा नृत्य कर निम्मो की शादी अपने साथ करने के लिए लोगों को मनाने में सफल हो जाते हैं.

2019 का जग्गी भांगड़ा नृत्य में माहिर है. गांव में उसके पिता (परमीत सेठी) हर किसी को भांगडा नुत्य सिखाते हैं. पर वह कुछ बड़ा काम करने के लिए अमृतसर जाकर खालसा काैलेज में पढ़ाई करने के साथ साथ भांगड़ा नृत्य सीखता रहता है. पैसा कमाने के लिए रात में वह डीजे बनकर शादियों में गीत गाने व भांगड़ा नृत्य करता है. जग्गी लंदन में भांगड़ा प्रतियोगिता का हिस्सा बनने के लिए प्रयासरत है. क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करके वह अपने प्रिय दिवंगत दादा (कैप्टन) की विरासत का जश्न मना सकेगा.

जग्गी के अपने कौलेज के भांगड़ा में उसका साथ देने वाली कोई लड़की नहीं मिल रही है. तभी एक शादी में भांगड़ा में दक्ष लड़की सिमी (रूखसार ढिल्लों) से उसकी मुलाकात होती है. जग्गी व सिम्मी में दोस्ती हो जाती है. दोनो एक साथ शराब पीते हैं और सिमी को अपने साथ लंदन प्रतियोगिता में ले जाने की जग्गी सोचता है, वह कैप्टन की कहानी भी सिमी को सुनाता है. मगर जब जग्गी को पता चलता है कि सिमी तो उसके विरोधी कौलेज यूएसडीएन से है, तो उनके बीच जहर सा घुल जाता है.

सिम्मी को उसकी मां (जयति भाटिया) ने पालपोसकर बड़ा किया है. जब वह कुछ माह की थी, तभी उसके पिता (समीर) उन्हें छोड़कर अवैध तरीके से लंदन चले गए थे. सिमी का मकसद लंदन जाकर अपने पिता को खरी खोटी सुनाना है. तो दोनों का अपना अपना संघर्ष व मकसद है. पर सिमी मन ही मन जग्गी को प्यार करने लगती है.

लंदन जाने के लिए टीम के चयन के लिए इंटरकौलेज प्रतियोगिता होती है, जिसमें खालसा कौलेज यानी कि जग्गी की टीम को यूएसडीएन कौलेज यानीकि सिमी की टीम से हार का सामना करना पड़ता है. उसके बाद जग्गी की भांगड़ा की पूरी टीम बिखर जाती है. वह निराश होकर अपने गांव पहुंचता है. उसके पिता उसका हौसला बढ़ाते हैं. जग्गी की नई टीम तैयार होती है. लोगों की मदद से वह अपनी टीम के साथ लदंन जाता है और वहां पर सिमी की टीम को हराकर विजेता बनते हैं.  सिमी और जग्गी एक दूसरे से प्यार का इजहार कर देते हैं.

लेखन व निर्देशनः

धीरज रतन की अतिकमजोर पटकथा के चलते फिल्म बर्बाद हुई. कहानी का चयन गलत है. अतीत व वर्तमान की कहानी को जिस तरह से बीच बीच में मिश्रित करने का प्रयास किया गया है, उससे दर्शक कन्फ्यूज होता रहता है. इसके अलावा फिल्म में भांगड़ा नृत्य को भी सही अंदाज में नहीं फिल्माया गया. यानी कि नृत्य निर्देशक इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी हैं. इंटरवल से पहले तो दर्शक अपना सिर पीट लेते हैं. जग्गी और सिमी के बीच रोमांस भी ठीक से नही गढ़ा गया.

निर्देशक के तौर पर स्नेहा तौरानी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में बुरी तरह से असफल रही हैं. फिल्म को एडीटिंग टेबल पर कसने की जरुरत थी. कुछ दृष्य बेमानी लगते हैं.

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अभिनयः

सनी कौशल पूरी तरह से निराश करते हैं. “भांगड़ा पा ले” सनी कौशल के कैरियर की तीसरी फिल्म है, मगर वह इस फिल्म में भी अभिनय को लेकर संघर्ष करते ही नजर आते हैं. इमोशनल दृष्यों में सनी का रोल बिलकुल नही जमता. जबकि रूखसार ढिल्लों क्यूट और खूबसूरत लगी हैं. रूखसार अपने नृत्य कौशल व अभिनय से काफी उम्मीदें जगाती हैं. रूखसार उम्मीद जगाती हैं कि यदि उन्हे सही पटकथा, कहानी व किरदार मिले, तो वह परदे पर अपना जलवा दिखा सकती हैं. श्रिया पिलगांवकर के हिस्सा करने को कुछ खास रहा ही नही.

गीत संगीतः

फिल्म में गानों की बहुतायत है, जो कि टीवी का गीत संगीत का कार्यक्रम नजर आता है. इनमें से एक रीमिक्स गाना फिल्म ‘करण अर्जुन’ से ‘भांगड़ा पाले’ जरुर आकर्शित करता है.

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जानें क्या है आयुष्मान खुराना की नई फिल्म “बाला” की सबसे खास बात

रेटिंगः साढ़े तीन स्टार

निर्माताः दिनेश वीजन

निर्देशकः अमर कौशिक

कलाकारः आयुष्मान खुराना, भूमि पेडणेकर, यामी गौतम, दीपिका चिखालिया, धीरेंद्र कुमार, सीमा पाहवा, जावेद जाफरी, सौरभ शुक्ला, अभिषेक बनर्जी व अन्य.

अवधिः दो घंटे सत्रह मिनट

हमारे यहां शारीरिक रंगत,  मोटापा,  दुबलापन, छोटे कद आदि के चलते लड़कियों को जिंदगी भर अपमान सहना पड़ता है. वह हीनग्रंथि कर शिकार होकर खुद को बदलने यानी कि चेहरे को खूबसूरत बनाने के लिए कई तरह की फेअरनेस क्रीम लगाती हैं, कद बढ़ाने के उपाय, मोटापा कम करने के उपाय करती रहती है. तो वही लड़के अपने सिर के गंजेपन से मुक्ति पाने के उपाय करते नजर आते हैं.

फिल्मकार अमर कौशिक ने इन्ही मुद्दों को फिल्म ‘बाला’ में गंजेपन को लेकर कहानी गढ़ते हुए जिस अंदाज में उठाया है, उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं. अंततः वह सदियों से चली आ रही इन समस्यओं से मुक्ति का उपाय देते हुए कहते हैं कि ‘खुद को बदलने की जरुरत क्यों? अपनी कहानी में वह काली लड़की के प्रति समाज के संकीर्ण रवैए को बताने में वह पीछे नही रहते.

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कहानीः

यह कहानी कानपुर निवासी बालमुकुंद शुक्ला उर्फ बाला (आयुष्मान खुराना) के बचपन व स्कूल दिनों से शुरू होती है. जब उसके सिर के बाल घने और सिल्की होते थे और वह अपने बालों पर इस कदर घमंड करता था कि स्कूल में हर खूबसूरत लड़की उसकी दीवानी थी. वह भी श्रुति का दीवाना था. मगर गाहे बगाहे बाला अपनी सबसे अच्छी दोस्त लतिका के काले चेहरे को लेकर उसका तिरस्कार भी करता रहता था. स्कूल में कक्षा के बोर्ड पर वह अपने गंजे शिक्षक की तस्वीर बनाकर उसे तकला लिखा करता था. मगर पच्चीस साल की उम्र तक पहुंचते ही बाला के सिर से बाल इस कदर झड़े कि वह भी गंजे हो गए.

उनकी बचपन की प्रेमिका श्रुति ने अन्य युवक से शादी कर ली. समाज में उसका लोग मजाक उड़ाने लगे हैं. बाला अब एक सुंदर बनाने वाली क्रीम बनाने वाली कंपनी में नौकरी कर रहे हैं. इसके प्रचार के लिए वह औरतों के बीच अपने अंदाज में बातें कर प्रोडक्ट बेचते हैं. एक बार लतिका (भूमि पेडणेकर) भी अपनी मौसी के साथ पहुंच जाती है. और बाला के सिर से टोपी हटाकर कर लोगों के सामने उसका गंजापन ले आती है. बाला का मजाक उड़ता है. प्रोडक्ट नही बिकता. परिणामतः नौकरी मे उसे मार्केटिंग से हटाकर आफिस में बैठा दिया जाता है.

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लतिका ने ऐसा पहली बार नही किया. लतिका स्कूल दिनों से ही बाला को बार-बार आईना दिखाने की कोशिश करती रही है, वह कहती रही है कि खुद को बदलने की जरुरत क्यों हैं. मगर बाला लतिका से चिढ़ता है. पेशे से जानी- मानी दबंग वकील लतिका काले रंग के कारण नकारी जाती रही है.मगर उसने कभी खुद को हीन महसूस नहीं किया.

बाला के माता (सीमा पाहवा) व पिता (सौरभ शुक्ला) भी परेशान हैं. क्योंकि बाला की शादी नहीं हो रही है. बालों को सिर का ताज समझने वाला बाला, बालों को उगाने के लिए सैकड़ों नुस्खे अपनाता है, वह हास्यास्पद व घिनौने हैं. मगर बाला को यकीन है कि उसके बालों की बगिया एक दिन जरूर खिलेगी. पर ऐसा नहीं होता. अंततः वह बाल ट्रांसप्लांट कराने के लिए तैयार होता है, पर उसे डायबिटीज है और डायबिटीज के कारण पैदा हो सकने वाली समस्या से डरकर वह ऐसा नही कराता.

अपने बेटे को निराश देखकर उनके पिता (सौरभ शुक्ला) बाला के लिए दिल्ली से विग मंगवा देते हैं. विग पहनने से बाला का आत्म विश्वास लौटता है. इसी आत्मविश्वास के बल पर लखनउ की टिक टौक स्टार व कंपनी की ब्रांड अम्बेसेडर परी (यामी गौतम) को अपने प्रेम जाल में  फंसाकर उससे शादी कर लेता है. मगर सुहागरात  से पहले ही परी को पता चल जाता है कि उसका पति बाला गंजा है. परी तुरंत ससुराल छोड़कर मायके पहुंच जाती है. अपनी मां (दीपिका चिखालिया) की सलासह पर वह अदालत में बाला पर धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए शादी को निरस्त करने की गुहार लगाती है.बाला अपना मुकदमा लड़ने के लिए वकील के रूप में लतिका को ही खड़ा करता है. पर अदालती काररवाही के दौरान बाला को सबसे बड़ा ज्ञान मिलता है.

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लेखन व निर्देशनः

अमर कौशिक ने लगभग हर लड़की के निजी जीवन से जुड़ी हीनग्रथि और समाज के संकीर्ण रवैए को हास्य के साथ बिना उपदेशात्मक भाषण के जिस शैली में फिल्म में पेश किया है, उसके लिए वह बधाई के पात्र हैं. मगर इंटरवल के बाद भाषणबाजी पर जोर देकर फिल्म को थोड़ा कमजोर कर डाला. फिल्म के संवाद कहीं भी अपनी मर्यादा नहीं खोते और न ही अश्लील बनते हैं. कुछ संवाद बहुत संदर बने हैं. अमर कौशिक ने महज फिल्म बनाने के लिए गंजेपन का मुद्दा नहीं उठाया, बल्कि वह इस मुद्दे को गहराई से उठाते हुए इसकी तह तक गए हैं.

अमूमन फिल्म की कहानी व किरदार जिस शहर में स्थापित होते हैं, वहां की बोलचाल की भाषा को फिल्मकार मिमिक्री की तरह पेश करते रहे हैं, मगर इस फिल्म में कानपुर व लखनउ की बोलचाल की भाषा को यथार्थ के धरातल पर पेश किया गया है. फिल्मकार ने अपरोक्ष रूप से ‘टिकटौक स्टारपना’ पर भी कटाक्ष किया है. फिल्मकार ने इमानदारी के साथ इस सच को उजागर किया है कि जो लड़की महज दिखावे की जिंदगी जीती है, वह जिंदादिल नही हो सकती.

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अभिनयः

बाला के किरदार में आयुष्मान खुराना ने शानदार अभिनय किया है. दर्शक गंजेपन को भूलकर सिर्फ बाला के गम का हिस्सा बनकर रह जाता है. बाला की गंजेपन के चलते जो हताशा है, उसे दर्शकों के दिलों तक पहंचाने  में आयुष्मान खुराना पूरी तरह से सफल रहे हैं. पर बौलीवुड के महान कलाकारों की मिमिक्री करते हुए कुछ जगह वह थकाउ हो गए हैं. भूमि ने साबित कर दिखाया कि सांवले /काले रंग के चहरे वाली लड़की लतिका के किरदार को उनसे बेहतर कोई नहीं निभा सकता था.

कई दृश्यों में वह चिंगारी पैदा करती हैं. टिकटौक स्टार परी के किरदार में यामी गौतम सुंदर जरुर लगी हैं, मगर कई दृश्यों में उन्होंने ओवर एक्टिंग की है. छोटे से किरदार में दीपिका चिखालिया अपनी उपस्थिति दर्ज करा जाती हैं. सौरभ शुक्ला, सीमा पाहवा, जावेद जाफरी, धीरेंद्र कुमार ने ठीक ठाक अभिनय किया है.

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“बायपास रोड”: ऊंची दुकान फीका पकवान

रेटिंग: दो स्टार

निर्माताः मदन पालीवल और नील नितिन मुकेश

निर्देशकः नमन नितिन मुकेश

कलाकारः नील नितिन मुकेश, अदा शर्मा, शमा सिकंदर, गुल पनाग, सुधांशु पांडे, रजित कपूर, मनीश चैधरी, ताहिर शब्बीर

अवधिः दो घंटे 17 मिनट

धन दौलत के लोभ में इंसान किस कदर गिर गया है, उसी के इर्द गिर्द घूमती कहानी पर नमन नितिन मुकेश के रहस्यप्रधान रोमांचक फिल्म ‘‘बाय पास रोड’’ लेकर आए हैं, जो कि प्रभावित नही करती.

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कहानीः

अलीबाग में रह रहे मशहूर फैशन डिजाइनर विक्रम कपूर (नील नितिन मुकेश) जिस दिन घातक दुर्घटना का शिकार होते है, उसी दिन उनकी कंपनी की सेक्सी और नंबर वन मौडल सारा ब्रिगेंजा (शमा सिकंदर) की अपने घर में रहस्यमयी मौत होती है. मीडिया को लगता है कि इन दोनों हादसों का आपस में कोई न कोई गहरा रिश्ता जरूर है. सारा की मौत पहली नजर में आत्महत्या लगती है. जबकि इस हादसे में विक्रम को कुचल कर मारने की कोशिश की जाती है.

फिर कहानी अतीत में जाती है, जहां विक्रम और सारा के अतिनजदीकी रिश्तों का सच सामने आता है. हालांकि विक्रम अपनी ही कंपनी में इंटर्नशिप करने वाली डिजाइनर राधिका (अदा शर्मा) से प्यार करते है और सारा ब्रिगेंजा भी जिम्मी (ताहिर शब्बीर) की मंगेतर हैं.

अस्पताल में पता चलता है कि विक्रम के दोनों पैर बेकार हो चुके हैं और अब उन्हें सिर्फ व्हील चेअर का ही सहारा हैं. जब विक्रम अस्पताल से अपने पिता प्रताप कपूर (रजित कपूर) के साथ अपने घर पहुंचता है, तो घर पर उनकी सौतेली मां रोमिला (गुल पनाग), सात आठ वर्षीय सौतेली बहन नंदिनी (पहल मांगे) और नौकर की मौजूदगी के बावजूद हादसे का शिकार होते-होते बचते हैं.

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उधर पुलिस अफसर हिमांशु रौय (मनीष चैधरी) सारा की मौत का सच जानने उजागर करने पर आमादा है. हिमांशु रौय को सारा के मंगेतर जिम्मी के अलावा विक्रम के व्यावसायिक प्रतिद्वंदी नारंग (सुधांशु पांडे) पर शक है. पुलिस की जांच अलग चल रही है, तो वहीं व्हील चेअर पर रहेन वाले विक्रम को मारने की कई बार कोशिश होती है. इसी बीच कुछ अन्य हत्याएं भी हो जाती हैं. अंततः सच सामने आता ही है.

लेखनः

अभिनय करने के साथ फिल्म की पटकथा व संवाद नील नितिन मुकेश ने ही लिखी है. उन्होने पूरी कहानी को अपनी तरफ से जलेबी की तरह घुमाते हुए रहस्य का जामा पहनाने का भरसक प्रयास किया है. पर वह पूरी तरह से इसमें सफल नहीं हुए.

कहानी पुरानी ही है. इस तरह की कहानी तमाम सीरियल व अतीत में कुछ फिल्मों में आ चुकी है. फिल्म का क्लायमेक्स तो लगभग हर रहस्यप्रधान सीरियल से मिलता जुलता है. वर्तमान से बार बार अतीत में जाने वाली कहानी काफी कन्फ्यूजन पैदा करती है. कहानी में कई कमियां हैं. एक दृष्य में सारा का प्रेमी जिम्मी पुलिस से भगते हुए कदई मंजिल उपर से नीचे गिरता है. पुलिस उसके पास पहुंच जाती है. और उसे देखकर वह मृत समझती है, पर इंटरवल के बाद जिम्मी पुनः कहानी में नजर आने लगते हैं. कुछ चरित्र ठीक से विकसित नही किए गए. फिल्म के कुछ संवाद बहुत सतही है. कुल मिलाकर फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी नील नितिन मुकेश का लेखन है.

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निर्देशनः

अपने समय के मशहूर गायक स्व.मुकेश के पोते, गायक नितिन के बेटे व नील नितिन मुकेश के छोटे भाई नमन नितिन मुकेश ने ‘‘बायपास रोड’’ से पहली बार निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखा है. तकनीकी दृष्टिकोण से देखें, तो वह पूरी तरह  से सफल रहे हैं. मगर कथा व पटकथा की मदद न मिलने के कारण उनका सारा प्रयास विफल हो गया.

अभिनयः

विक्रम के किरदार को नील नितिन मुकेश ने इमानदारी व शानदार अभिनय के साथ निभाया है. अदा शर्मा ने भी ठीक ठाक अभिनय किया है. रजित कपूर, शमा सिकंदर और मनीश चैधरी अपनी छाप छोड़ जाते हैं. इसके अलावा अन्य कलाकारों के चरित्र लेखक की कमजोरी की भेंट चढ़ गए.

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रेटिंग: एक स्टार

निर्माताः साजिद नाड़ियाडवाला और फौक्स स्टार स्टूडियो

निर्देशकः फरहाद सामजी

कलाकारः अक्षय कुमार, बौबी देओल, रितेश देशमुख, कृति सैनन, कृति खरबंदा,  पूजा हेगड़े, चंकी पांडे, रंजीत, नवाजुद्दीन सिद्दिकी, जौनी लीवर व अन्य.

अवधिः दो घंटे 26 मिनट

सफलतम फ्रेंचाइजी को बार बार भुनाना गलत नही है, मगर सफल फ्रेंचाइजी के नाम पर दर्शकों को मूर्ख बनाते हुए कुछ भी उल जलूल परोसना शर्मनाक है. हर फिल्म फिर चाहे वह सफल फ्रेंचाइजी ही क्यों न हो, का मकसद दर्शकों का स्वस्थ मनोरंजन करना होता है. मगर सफल फ्रेंचाइजी ‘हाउसफुल’ की नई प्रस्तुति ‘‘हाउसफल 4’’ खरी नही उतरती. इस हास्य फिल्म में वही पुरानी कहानी को अति घटिया संवादों के साथ पेश कर दिया गया है.

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कहानीः

लंदन में नाई की दुकान चला रहे हैरी (अक्षय कुमार) अपनी भूलने की आदत के चलते खतरनाक माफिया डान माइकल (मनोज पाहवा) के पांच मिलियन डौलर्स को कपड़े समझकर वाशिंग मशीन में धो देते है. बस तभी से माइकल, हैरी और उसके दोस्तों मैक्स (बौबी देओल) और रौय (रितेश देशमुख) की जान के पीछे पड़ जाते हैं. पैसों का जुगाड़ करने के लिए यह तीनों मिलकर अरबपति ठकराल (रंजीत) की तीनों खूबसूरत बेटियों कृति (कृति सेनन),  नेहा (कृति खरबंदा) और पूजा (पूजा हेगड़े) से शादी करने की योजना बनाते हैं.

ठकराल के गले में एक नंगी औरत की तस्वीर है और वह हमेशा तीन अर्धनग्न लड़कियों के कंधे पर अपना हाथ रखे नजर आते हैं. खैर, ठकराल भी इस शादी के लिए रजामंद हो जाते हैं. ठकराल की यह तीनों बेटियां डिस्टीनेशन वेडिंग करना चाहती हैं. इसके लिए ग्लोबल मैप को घुमाकर जगह तय की जाती है और यह जगह आती है भारत में स्थित सितमगढ़. पता चलता है कि 1419 में सितमगढ़ रियासत थी और उसी रियासत का एक किला है, जो कि अब होटल में तब्दील हो चुका है. होटल का मैनेजर( जौनी लीवर) और बेल ब्वाय पास्ता (चंकी पांडे) है.

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शादी की रस्म के लिए जब यह सभी लंदन से भारत के सितमगढ़ पहुंचते हैं, तो हैरी को याद आता है कि वह आज से तकरीबन 600 पहले अर्थात 1419 में सितमगढ़ का राजकुमार बाला देव सिंह था. उसे यह बात उसका विश्वासपात्र नौकर पास्ता (चंकी पांडे) याद दिलाता है. फिर कहानी 600 साल पहले चली जाती है. जब हैरी उर्फ बाला के सिर पर बाल नही थे. और किस तरह शादी के दिन ही दुश्मनों की चाल के चलते वह सब मारे गए थे.

अतीत की कहानी खत्म होते ही हैरी को अहसास होता है कि इस जन्म में वह और उसके दोस्त अपने पूर्व जन्म की प्रेमिकाओं की बजाय अपनी पूर्व जन्म की भाभियों से शादी करने जा रहे हैं, तो वह अपने दोस्तों और उनकी प्रेमिकाओं को याद दिलाता है कि कैसे कृति पिछले जन्म में राजकुमारी मधु, रौय नृत्य के गुरु बांगड़ू,  मैक्स राजकुमारी का अंगरक्षक धरमपुत्र थे और नेहा राजकुमारी मीना, जबकि नेहा राजकुमारी माला थी. अब सभी सितमगढ़ पहुंच गए हैं, तो बाकी किरदार भी पहुंचेंगे ही तो 600 साल पहले के गामा (राणा दुगुबत्ती) अब कव्वाल पप्पू रंगीला और राघवन (शरद केलकर) भी इस जन्म में सितमगढ़ आ पहुंचते हैं. फिर शुरू होती है पिछले जन्म की बदले की कहानी को पूरा करने का खेल पर अंततः प्रेम की ही जीत होती है.

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निर्देशनः

फिल्म का कुछ हिस्सा साजिद खान ने निर्देशित किया था,  मगर ‘‘मी टू’’ में साजिद खान के फंसने के बाद असफल फिल्म ‘‘इंटरटेनमेंट’’ के निर्देशक फरहाद सामजी ने इसका निर्देशन किया. फिल्म में वही किरदारों की अदला बदली का अति पुराना फार्मुला उपयोग कर लोगों को जबरन हंसाने का प्रयास किया गया है, पर दर्शकों को हंसी बजाय रोना आता है. इसमें ‘माइंडलेस कौमेडी’ के साथ कई घटिया, अति सतही व बचकाने पंच भी डाले पिरोए गए हैं. फिल्म का क्लायमेक्स भी बचकाना है. फिल्म के संवाद तो बहुत ही ज्यादा वाहियात हैं. अफसोस की बात यह है कि इसे छह लेखकों की फौज ने मिलकर लिखा है.

‘‘माइंडलेस कौमेडी” की कल्पना की पराकास्ठा यह है कि क्लायमेक्स में अक्षय कुमार के पिछवाड़े चार चार चाकू लगे हैं, पर खून नहीं निकलता और वह आगे बढ़ते रहते हैं. मगर कुछ देर बाद वह चाकू गायब भी हो जाते हैं. इतना ही नही हर कलाकार अष्लील हाव भाव करते हुए दर्शकों को हंसाने का असफल प्रयास करते हैं.

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600 साल पुराना सितमगढ़ का किला 600 साल बाद भी उसी स्थिति में है. वाह..फिल्मकार की क्या कल्पना है. दर्शक सिनेमाघर से निकलते समय ही कहता रहता है कि ‘कहां फंसायो नाथ.’ कुछ दर्शक तो यह भी कहते सुने गए कि इस तरह की फिल्म बनाते समय निर्माता व कलाकारों का शर्म नहीं आयी.

अभिनयः

फिल्म देखकर अहसास होता है, जैसे कि हर कलाकार के बीच प्रतिस्पर्धा चल रही है कि कौन सबसे घटिया/वाहियात अभिनय कर सकते है. हीरोईनों के हिस्से करने के लिए कुछ खास रहा ही नहीं. छोटे से किरदार में नवाजुद्दीन सिद्दिकी और जौनी लीवर जरुर अपनी छाप छोड़ जाते हैं.

‘‘जैकलीन आई एम कमिंगः अधेड़ उम्र की साधारण प्रेम कहानी’’

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः मंजेष गिरी

निर्देशकः बंटी दुबे

कलाकारः रघुबीर यादव, किरण डी पाटिल, दिव्या धनोवा,शक्ति कुमार व अन्य.

अवधिः एक घंटा पचास मिनट

प्रेम कहानी और रोमांस पर अनगिनत फिल्में बन चुकी हैं. मगर अब तक इन सभी प्रेम कहानी प्रधान फिल्मों में टीन एजर प्रेम कहानी ही पेश की जाती रही हैं. मगर फिल्म निर्देशक बंटी दुबे पहली बार एक बेहतरीन व प्यारी सी अधेड़ उम्र के इंसान की प्रेम कहानी फिल्म ‘‘जैकलीन आई एम कमिंग’’ में लेकर आए हैं. फिल्म की गति बहुत धीमी होने के चलते मजा किरकिरा हो जाता है.

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कहानीः

फिल्म शरू होती है नर्मदा नदी के किनारे अकेले बाल बढ़ाए अंट शंट बक रहे एक बूढ़े इंसान से, जब उन्हे तलाशते हुए केशव आते हैं, तो पता चलता है कि यह पागल खाना से भागे हुए काशी तिवारी हैं. जब केशव, डौक्टर अर्जुन से कहता है कि काशी तिवारी का इस संसार में कोई नहीं है. इसलिए वह उनका इलाज करे या न करें, मौत ही दे दें. तब डाक्टर अर्जुन, काशी की इस हालत के लिए खुद को जिम्मेदार बताते हैं.

उसके बाद कहानी अतीत में जाती है. 40 साल के पीडब्लूडी में कार्यरत काशी तिवारी (रघुवीर यादव) आगरा में अकेले रहते हैं. अब काशी के जीवन में थोड़ा आनंद है. अन्यथा उनके अनाथ हो जाने पर उनकी परवरिश उनके रूढ़िवादी चाचा ने की थी. काशी तिवारी के दोस्त केशव (किरण डी पाटिल) हमेशा उनकी मदद के लिए मौजूद रहते हैं. एक दिन काशी तिवारी चर्च में एक खूबसूरत महिला जैकलीन (दिव्या धनोवा) को देख मोहित हो जाते हैं.

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फिर जैकलीन से शादी करने के लिए वह टीनएजर लड़कों की तरह जैकलीन का पीछा करने लगते हैं. एक दिन मिठाई खिलाने के बहाने वह जैकलीन से अपने मन की बात कह देते है. काशी के चाचा इसके खिलाफ हैं, क्योकि जैकलीन क्रिष्चियन हैं. पर पूरी दुनिया से लड़कर काशी किसी तरह जैकलिन से शादी कर लेते हैं. लेकिन उनकी जिंदगी में यह खुशी ज्यादा समय तक नहीं रहती. मानसिक रूप से बीमार जैकलिन को अंततः एक दिन मेंटल अस्पताल भेज दिया जाता है. आशा मेंटल अस्पताल के डीन डौक्टर अर्जुन (शक्ति कुमार) बहुत अभिमानी हैं.

पीडब्ल्यूडी की नौकरी से सेवानिवृत्ति होने के बाद उन्हे अकेलापन खलने लगता है और वह सोचते हैं कि अब तो वह दिन भर घर पर जैकलीन की सेवा कर सकते हैं. उधर जैकलीन का स्वास्थ्य भी सुधर गया है. मगर डा.अर्जुन, जैकलीन को छुट्टी देने से इंकार कर देते हैं. केशव व काशी, मेंटल अस्पताल के ट्रस्टी से मदद मांगते है. इससे डा. अर्जुन के अभिमान को चोट पहुंचती है. पर केशव की मदद से रात के अंधेरे में मेंटल अस्पताल से जैकलीन को भगाकर काशी दूर रहने चले जाते हैं. पर डा.अर्जुन हर हाल में जैकलीन को वापस लाने की कसम खा लेते हैं.

अंततः एक दिन जबरन जैकलीन को मेंटल अस्पताल में पुनः पहुंचा दिया जाता है.इसी सदमें मे काशी भी पागल हो जाते हैं और उन्हे भी मेंटल अस्पताल में भर्ती कर दिया जाता है.अंत में डौक्टर अर्जुन यह कह कर अपना त्यागपत्र दे देते हैं कि अनुशासन उनके अंदर कब अभिमान में परिवर्तित हो गया कि वह सारी मानवता ही भूल गए.

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लेखन व निर्देषनः

फिल्मकार ने इस रोमांटिक प्रेम कहानी में भरपूर ड्रामा पिरोने का प्रयास किया है. अकेलपन की जिंदगी जी रहे अधेड़ उम्र के इंसान के किरदार को बेहतरीन तरीके से गढ़ा गया है. इसके अलावा चमक खोती प्रेम कहानी को भी बेहतर तरीके से चित्रित किया गया है. मगर पटकथा कुछ कमजोर है. फिल्म की गति बहुत धमी है. इस तरह की प्रेम कहानियांं साठ व सत्तर के दषक में काफी पसंद की जाती रही हैं.

पर अब तेज गति, मोबाइल, इंटरनेट, व्हाट्सअप, फेसबुक का जमाना है. यदि इस बात पर फिल्मकार ने ध्यान दिया होता, तो फिल्म के साथ लोग ज्यादा रिलेट कर पाते. इसके अलावा इसमें इमोशंस की भी कमी है. फिल्मकार ने जैकलीन की मानसिक बीमारी को भी परिभाशित नहीं किया है. फिल्म लंबी भी है.

अभिनयः

काशी के किरदार में रघुवीर यादव ने एक बार फिर साबित कर दिखाया कि अभिनय में उनका कोई सानी नही है. दिव्या धनोवा सिर्फ सुंदर व मासूम लगी हैं. पर रघुबीर यादव व दिव्या के बीच केमिस्ट्री कहीं नजर ही नहीं आती. शक्ति कुमार व किरण डी पाटिल ने ठीक ठाक अभिनय किया है.

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‘मर्द’ में जल्द नजर आयेंगे रणदीप हुड्डा

अपने देसी अंदाज के लिए जाने जाने वाले बौलीवुड एक्टर रणदीप हुड्डा एक बार फिर सुर्खियों में हैं. बहुत जल्द फिल्म ‘मर्द’ में दमदार किरदार में रणदीप हुड्डा नजर आने वाले हैं. फिल्म के मेकर्स ने सोशल मीडिया पर एक फोटो शेयर करते हुए कैप्शन में लिखा- ‘आधिकारिक घोषणा… रणदीप हुड्डा #Mard में प्रमुख भूमिका में. इस फिल्में के अनाउन्समेंट के बाद से ही रणदीप को काफी लोग विश करते दिख रहे हैं. हरयाणवी छोरे रणदीप की बात की जाए तो औन स्कीन उनकी इंटेंस एक्टिंग को काफी पसंद किया जाता रहा  हैं. बता दे रणदीप पिछले दिनों इम्तियाज अली की फिल्म ‘लव आज कल 2’ को लेकर सुर्खियों में बने हुए थे. फिल्म में भले ही कार्तिक आर्यन और सारा अली खान लीड रोल में है लेकिन रणदीप हुड्डा का किरदार इनसे कुछ कम नहीं हैं। लेकिन अब एक्टर रणदीप हुड्डा को लेकर एक बड़ी खबर सामने आ रही हैं

‘मर्द’ एक नए जमाने की प्रेम कहानी हैं इस फिल्म को साई कबीर डायरेक्ट कर रहे हैं.  राजू चड्ढा और राहुल मित्रा निर्मित इस फिल्म की शूटिंग 9 नवंबर से शुरू होगी. 2020 तक फिल्म रिलीज हो सकती हैं. इस फिल्म के जरिए रणदीप हुड्डा एक बार फिर बड़े पर्दे पर रोमांस का तड़का लगाते दिखाई देंगे.

इस फिल्म का टाइटल ‘मर्द’ बौलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन की फिल्म से लिया गया हैं. अमिताभ बच्चन की ये फिल्म साल 1985 में रिलीज हुई थी. आपको बता दें, मेकर्स ने अभी तक फिल्म रिलीज डेट का ऐलान नहीं किया है. लेकिन फिल्म की शूटिंग शुरू होने के साथ ही मेकर्स इसको लेकर बड़ी घोषणा करेंगे.

‘कलंक’ देखने से पहले पढ़ लें ये

फिल्म ‘‘कलंक’’ की उलझी हुई प्रेम कहानी देश के बंटवारे की पृष्ठभूमि में 1944 में लाहौर के पास स्थित हुसैनाबाद से शुरू होती है. फिल्म की कहानी के केंद्र में बहार बेगम (माधुरी दीक्षित), बलराज चैधरी (संजय दत्त), देव चैधरी (आदित्य रौय कपूर), सत्या चैधरी (सोनाक्षी सिन्हा) ,रूप (आलिया भट्ट) और जफर (वरूण धवन) हैं. कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे पता चलता है कि यह सभी एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं.

इतने बड़े स्टारकास्ट वाली पीरियड फिल्म के बारे में जाने सब कुछ.

फिल्म रिव्यू- कलंक

एक्टर- आलिया भट्ट, वरुण धवन, सोनाक्षी सिन्हा, आदित्य रौय कपूर, माधुरी दीक्षित, संजय दत्त

निर्देशक- अभिषेक वर्मन

रेटिंग- 3 स्टार

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कहानी…

फिल्म शुरू होती है अपनी दो छोटी बहनों के साथ रूप के पतंग उड़ाने से. रूप जब अपनी बहनों के साथ अपने घर पहुंचती है, तो अपने पिता के साथ सत्या चैधरी को बैठे देखकर गुस्सा होती है. डाक्टरों के अनुसार कैंसर की मरीज सत्या चैधरी की जिंदगी सिर्फ एक-दो साल की ही है. सत्या चाहती है कि रूप उनके घर में आकर रहे. सत्या चाहती है कि उसकी मौत के बाद उसके पति देव चौधरी, रूप से शादी कर लेंगे. रूप अपनी बहनों के भविष्य को देखते हुए सत्या के घर जाने के लिए मजबूर होती है, पर वह शर्त रखती है कि देव चैधरी उसके साथ शादी कर लें. देव और रूप की शादी हो जाती है. सुहागरात के वक्त देव, रूप से कहता है कि उसने सत्या के दबाव में यह शादी की है. वह सिर्फ सत्या से प्यार करते हैं, इसलिए कभी रूप से प्यार नही कर पाएंगे. मगर रूप को इज्जत मिलेगी. देव चैधरी के पिता बलराज चैधरी का पुश्तैनी अखबार ‘डेली टाइम्स’ है. लंदन में पढ़ाई कर वापस लौटे देव ने ‘डेली टाइम्स’ की बागडोर संभाल रखी है. वह देश के बंटवारे के खिलाफ अपने अखबार में लिखते रहते हैं. इससे मुस्लिम लीग के नवोदित नेता अब्दुल (कुणाल खेमू) नाराज रहता है. अब्दुल को हिंदुओं से नफरत है. अब्दुल की इस नफरत की आग को भड़काने में अहम योगदान हीरामंडी में ही पले बढ़े जफर का है जो एक लोहार है. जफर के अंदर गुस्सा और आग है. लोग उसे हरामी व नाजायज कहते हैं. एक दिन गाने की आवाज सुनकर रूप हवेली की नौकरानी सरोज से सवाल करती है, तो सरोज बताती है कि यह आवाज हीरामंडी स्थित हवेली से बहार बेगम की है, पर चौधरी परिवार के उसूलों के अनुसार रूप हीरामंडी नही जा सकती. रूप और देव को नजदीक लाने के लिए सत्या, रूप से कहती है कि उसे देव के साथ अखबार के संपादकीय विभाग में काम करना चाहिए. रूप शर्त रखती है कि ऐसा वह तभी करेगी, जब उसे बहार बेगम से संगीत सीखने को मिलेगा. मजबूरन सत्या, बलराज से आज्ञा ले लेती है. सरोज, रूप को लेकर बहार बेगम के पास जाती है. बहार बेगम, रूप की आवाज पर मोहित हो जाती है. वापसी में रूप की मुलाकात जफर से होती है. जफर लड़कियों का शौकीन है. लेकिन जफर को जल्द अहसास हो जाता है कि शादीशुदा रूप दूसरी लड़कियों की तरह नही है. फिर भी रूप और जफर की मुलाकातें होती रहती हैं. अपने अखबार ‘डेली टाइम्स’ के लिए हीरामंडी के लोगों पर कहानी लिखने के लिए रूप पहले अब्दुल (कुणाल खेमू) से मिलती है, पर अब्दुल मदद नही करता, क्योंकि अब्दुल को पता है कि वह देव चैधरी की दूसरी पत्नी है. तब जफर उसे कई कहानियां बताता है और हीरामंडी घुमाता है. धीरे-धीरे रूप को जफर से प्यार हो जाता है, मगर जफर तो चैधरी परिवार से इंतकाम लेने के लिए रूप का इस्तेमाल करता है. बहार बेगम, रूप को सावधान करती है. लेकिन बाद में पता चलता है कि जफर, बहार बेगम और बलराज चैधरी का नाजायज बेटा है. बहार बेगम को सत्रह साल की उम्र में शादीशुदा बलराज चैधरी से प्रेम हुआ था. बलराज को अपने करीब लाने के लिए ही उसने जफर को जन्म दिया था, पर बलराज ने उसे अपनी हवेली में जगह नही दी थी, तो वह जफर को सड़क पर छोड़ आयी थी, फिर भी बलराज ने उसे स्वीकार नहीं किया था. इसी बीच कुछ लोगों ने जफर को हीरामंडी में लाकर पाला. एक दिन बहार बेगम ने जफर को सच बता दिया था. तब से जफर के अंदर चौधरी परिवार से इंतकाम लेने की आग जल रही है. लेकिन जफर सचमुच रूप से प्यार करने लगता है जिसके बाद कहानी नया मोड़ लेती है.

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डायरेक्शन…

फिल्मकार अभिषेक वर्मन ने पूरी फिल्म में इसी बात को दिखाने की कोशिश की है कि सच्चा प्यार, समाज के बनाए नियमों, धर्म की बंदिशों और इंसान की बनाई गई सरहदों को नहीं मानता. इस बात को साबित करने में वो सफल रहे हैं. लेकिन फिल्म में कुछ कमियां भी हैं.

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कमियां…

फिल्म की लंबाई और पटकथा की कमजोरी के चलते फिल्म कई जगह बोर करती है, कहानी की पृष्ठभूमि 1940 का दशक है, मगर फिल्म के भव्य सेट उस काल को रेखाकिंत करने में असफल रहे हैं. एडीटिंग टेबल पर यदि इस फिल्म को कसा जाता, तो यह एक कल्ट/अति बेहतरीन फिल्म बन सकती थी. फिल्म से एक दो गीत कम किए जा सकते थे. अब इसे पटकथा लेखक की कमी कहें या कहानीकार की कमी. पटकथा लेखक की कमजोरी के चलते बहार बेगम और रूप के बीच गुरू-शिष्य के अलावा जो दूसरा रिश्ता है, उसकी टीस भी ठीक से उभर नहीं पाती. कहानी के मामले में भी यह फिल्म कुछ पुरानी क्लासिक फिल्मों की याद दिलाती है.

फिल्म की खूबियां…

दमदार संवादों के चलते दर्शक फिल्म को झेल जाता है. संवाद लेखक की तारीफ जरुर की जानी चाहिए. अलावा इस फिल्म की सबसे बड़ी मजबूत कड़ी इसके कलाकार हैं. फिल्म के कैमरामैन बिनोद प्रधान जरुर तारीफ के हकदार हैं. जहां तक गीत संगीत का सवाल है तो ‘घर मोरे परदेसिया’ और ‘कलंक’के अलावा दूसरे गीत प्रभावित नहीं करते.

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एक्टिंग…

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो रूप के अति जटिल किरदार को आलिया भट्ट ने अपने प्रभावशाली और शानदार अभिनय से जिंदा कर दिया है. मजबूर, गुस्सा, असहाय, दुखी हर भाव आलिया भट्ट के चेहरे पर सहज ही आते हैं. जफर के किरदार में वरूण धवन ने अपनी शारीरिक बनावट के साथ ही जफर के अंदर चल रहे हर भाव को बड़ी खूबी से परदे पर उकेरा है. माधुरी दीक्षित ने साबित कर दिखाया कि आज भी अभिनय और डांस में उनका कोई सानी नही है. आदित्य रौय कपूर व कुणाल खेमू भी प्रभावित करते हैं. सोनाक्षी सिन्हा ने भी अपने किरदार के साथ न्याय किया है. संजय दत्त के हिस्से कुछ खास करने को नहीं था.

Edited By- Nisha Rai

अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है : एक कल्ट फिल्म का घटिया रीमेक

रेटिंग: दो स्टार

सईद अख्तर मिर्जा की 1980 में प्रदर्शित सर्वाधिक चर्चित व कल्ट फिल्म ‘‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’’ पर उसी नाम से बनी यह रीमेक फिल्म 1980 की फिल्म के मुकाबले बहुत ही घटिया है.

फिल्म ‘‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’’ शुरू होती है सड़क पर अपने स्कूटर पर बैठकर जा रहे अल्बर्ट पिंटो (मानव कौल) से. कुछ दूर जाने के बाद सड़क पर  अंडरवर्ल्ड के साटम का खास आदमी नायर (सौरभ शुक्ला) जीप लेकर अल्बर्ट पिंटो को मिलता है. अल्बर्ट पिंटो अपना स्कूटर छोड़कर उसकी जीप में सवार हो जाता है. नायर उसे एक बंदूक देता है. अब यह दोनों मुंबई से गोवा जा रहे हैं. गोवा में सूर्यकांत और जगताप की हत्या अल्बर्ट पिंटो को करनी है. मुंबई से गोवा पहुंचने से पहले रास्ते में कई जगह यह दोनो रूकते हैं, ढाबे पर खाना खाते हैं, बिअर पीते हैं, आपस में कई तरह की बाते करते हैं.

इस बात का भी खुलासा होता है कि हाईवे पर चल रहे ढाबों में खानपान के साथ ही वेश्यागीरी व समलैंगिकता का धंधा भी धड़ल्ले से चल रहा है. गोवा पहुंचने से पहले बीच बीच में अबर्ट पिंटो अतीत में जाता रहता है, जिससे धीरे धीरे पता चलता है कि अल्बर्ट पिंटो की अभी तक शादी नहीं हुई है. उसकी प्रेमिका स्टेला (नंदिता दास) है. वह स्टेला के साथ ही रहता है. स्टेला का भाई व पिता, अल्बर्ट पिंटों को पसंद नहीं करते. अल्बर्ट पिंटो के पिता जोफ पिंटो एक सरकारी विभाग में कार्यरत अति ईमानदार इंसान हैं. एक दिन टीवी समाचार से ही अल्बर्ट को पता चलता है कि जगताप व सूर्यकांत द्वारा कई सौ करोड़ रूपए के घोटाले करने को हुए खुलासे में सीधा आरोप जोफी पिंटो पर लगा है. अल्बर्ट पिंटों के पिता भ्रष्टाचार के आरोप में सस्पेंड कर दिए जाते हैं. फिर जोफी पिंटो फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेते हैं. इसलिए अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा है और वह एक डीसीपी लोगों की मदद से अंडरवर्ल्ड डौन साटम के पास पहुंचकर उनके साथ काम करना शुरू करता है और जगताप व सूर्यकांत की हत्या करने के लिए गोवा जा रहा है. इधर बीच बीच में पुलिस इंस्पेक्टर प्रमोद (किशोर कदम), अल्बर्ट पिंटो की तलाश के सिलसिले में स्टेला सहित कई लोगो से पूछताछ कर रहा है. पर किसी के पास कोई सुराग नहीं है.

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अल्बर्ट इतना गुस्से में है और उसका दिमाग इतना खराब हो चुका है कि उसे हर आम इंसान कौआ लगता है. गरीब लोगों का हंसते व नाचते गाते देखकर उसे आश्चर्य होता है.

फिल्म में आम इंसान के फ्रस्ट्रेशन के साथ ही देश के हालातों पर रोशनी डालने का असफल प्रयास है. पूरी फिल्म व इसके घटनाक्रम कहीं से भी इमानदार व विश्सनीय नजर नहीं आते. फिल्म की गति बहुत धीमी है. कथा कथन की शैली के चलते भी यह फिल्म आम इंसान के सिर के उपर से गुजर जाती है. यह रीमेक फिल्म मौलिक फिल्म की तरह किसी भी मुद्दे को सही परिपेक्ष, संवेदनशीलता व संजीदगी के साथ नहीं उठाती.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो कमजोर पटकथा व कमजोर चरित्र चित्रण के बावजूद मानव कौल काफी हद तक फिल्म को संभालने का प्रयास करते हैं. करियर की यह सबसे कमजोर परफार्मेंस वाली फिल्म है. स्टेला के किरदार में नंदिता दास ने भी बेहतरीन अभिनय किया है. सौरभ शुक्ला अपने कुछ हास्य पंचो की वजह से ध्यान आकर्षित करने में सफल होते हैं.

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एक घंटा तीस मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’’ का निर्माण पिंकी अंकुर पटेल, नुपुर राजे, सौमित्र रानाडे, विक्रम सक्सेना व जगमीत सिंह ने किया है. फिल्म के लेखक व निर्देशक सौमित्र रानाडे, संगीतकार अविषेक मजुमदार, कैमरामैन राहुल डे, गीतकार अश्विन कुमार तथा फिल्म को अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं-मानव कौल, नंदिता दास, सौरभ शुक्ला, किशोर कदम, अतुल काले व अन्य.

नोटबुक : कमजोर पटकथा

‘फिल्मिस्तान’ और ‘मित्रों’ जैसी फिल्मों के सर्जक नितिन कक्कड़ इस बार प्रेम कहानी वाली फिल्म ‘नोटबुक’ में अपना जादू जगाने में बुरी तरह से असफल रहे हैं. अफसोस की बात यह है कि 2014 में औस्कर तक पहुंची थाई फिल्म ‘टीचर्स डायरी’ का सही ढंग से भारतीयकरण नहीं कर पाए.

फिल्म ‘नोटबुक’ की कहानी शुरू होती है दिल्ली में अपने घर के अंदर नींद में सपना देख रहे कश्मीरी पंडित कबीर (जहीर इकबाल) से. सपने में कबीर एक सैनिक की पोशाक में है, सीमा पार से आया एक मासूम बालक उसे देखकर भागता है और जमीन पर पड़े एक बम पर उसके पैर के पड़ने से वह मारा जाता है. तभी श्रीनगर से आए फोन की घंटी से कबीर की नींद टूटती है. फोन पर बात करने के बाद वह श्रीनगर के लिए रवाना होता है. श्रीनगर में वह अपने पुश्तैनी मकान पर पहुंचता है, जिसकी देखभाल एक मुस्लिम शख्स कर रहा है. कई साल पहले कुछ कश्मीरी मुस्लिमों ने ही उसके परिवार को श्रीनगर छोड़ने पर मजबूर किया था. अब एक मुस्लिम ही उसके मकान को सुरक्षित रखे हुए हैं. श्रीनगर की एक झील के बीचो बीच कबीर के पिता का ‘वूलर स्कूल’ है,जिसमें सात बच्चे नाव से पढ़ने आते जाते हैं. लेकिन जुनैद से शादी तय होने पर स्कूल की शिक्षक फिरदौस (प्रनूतन बहल) ने वूलर स्कूल छोड़कर अपने होने वाले शौहर जुनैद के डीपीएस स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया है.वूलर स्कूल में कोई शिक्षक नहीं है. यूं तो स्कूल अब सरकार के कब्जे में है, मगर कबीर के घर की सुरक्षा कर रहे शख्स की इच्छा है कि कबीर वूलर स्कूल के बच्चों को पढ़ाए, जिससे बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो. कबीर प्रयास करता है और उसे वूलर स्कूल में नौकरी मिल जाती है. स्कूल के बच्चे फिरदौस शिक्षक को भूले नहीं हैं, इसलिए वह कबीर को स्वीकार करने को तैयार नहीं है. कबीर को कक्षा में फिरदौस की नोटबुक मिलती है, जिसमें फिरदौस ने हर दिन की कथा व अपने मन के विचार लिख रखे हैं. इस नोटबुक को पढ़कर कबीर उसी तरह बच्चों के साथ व्यवहार कर बच्चों का दिल जीत लेता है. इतना ही नहीं वह फिरदौस से प्यार कर बैठता है और फिरदौस का पता लगाकर उससे मिलने का असफल प्रयास करता है.

फिरदौस की नोटबुक से ही पता चलता है कि एक बुद्धिमान व होनहार विद्यार्थी स्कूल नहीं आ रहा है,तो वह इमरान के घर जा कर नोटबुक में लिखी बातें इमरान की मां से कहकर इमरान के साथ उसकी बहन को भी स्कूल में पढ़ने के लिए ले आता हैं.

उधर डीपीएस स्कूल के व्यवस्थापकों व जुनैद से बच्चों को पढ़ाने के तरीके पर फिरदौस की नोंकझोक चलती रहती है. एक दिन तंग आकर फिरदौस नौकरी छोड़ देती है.

इधर कबीर, इमरान को गणित के गलत सूत्र पढ़ा देता है, जिसके चलते वार्षिक परीक्षा में इमरान फेल हो जाता हैं. इमरान रोते हुए ब्लैकबोर्ड पर गणित के सूत्र को लिखकर कबीर से कहता है कि आपने ही पढ़ाया था तो फिर मैं फेल कैसे हो गया? मैं फेल नहीं हो सकता. कबीर को अपनी गलती का अहसास होता है. वह सरकारी अफसर के पास जाकर अपनी गलती मानते हुए नौकरी छोड़ देता है. इमरान को पास कर दिया जाता है.

तो दूसरी तरफ शादी के दिन फिरदौस को पता चलता है कि उसके होने वाले पति जुनैद के बच्चे की मां एक अन्य औरत बनने वाली है. फिरदौस शादी तोड़कर पुनः वूलर स्कूल में नौकरी करने पहुंच जाती है, बच्चे खुश हो जाते हैं. फिरदौस अपनी नोटबुक उठाती हैं, तो उसमें खाली पड़े पन्नों में कबीर ने अपनी कहानी लिख रखी है जिसे पढ़कर फिरदौस को भी कबीर से प्यार हो जाता हैं. वह कबीर से मिलने उसके घर पहुंचती हैं. कबीर ही मिलता मगर पता चलता है कबीर के पिता ने ही फिरदौस को गणित पढ़ाया था. फिरदौस के पिता ने ही कबीर के कश्मीरी पंडित परिवार को श्रीनगर छोड़ने पर मजबूर किया था. फिरदौस के पिता ने ही कबीर के घर को जलाने का असफल प्रयास किया था.

एक दिन जब इमरान के पिता गुस्से से इमरान को ले जाने आते हैं तभी कबीर वहां पहुंचता हैं और नाटकीय घटनाक्रम के बाद इमरान के पिता इमरान को छोड़कर चले जाते हैं. कबीर व फिरदौस के प्यार को मुकाम मिलता है.

2014 की सफलतम थाई फिल्म ‘टीचर्स डायरी’ की भारतीयकरण वाली फिल्म ‘नोटबुक’ कमजोर पटकथा के चलते विषयवस्तु के साथ न्याय करने में पूरी तरह से विफल रहती है. फिल्म कहीं न कहीं वर्तमान सरकार के एजेंडे वाली असफल फिल्म है. फिल्म की कहानी के केंद्र में कश्मीर से भगाए गए कश्मीरी पंडितों की भी बात है.

कश्मीर में फिल्मायी गयी इस फिल्म में प्रेम कहानी ठीक से उभर नहीं पाती है. मगर फिल्म में कश्मीर के वर्तमान हालातों, शिक्षा को लेकर वहां के कट्टर मुस्लिमों की सोच, कश्मीरी पंडितों के पलायन जैसे मुद्दों को भी हलके फुलके ढंग से चित्रित किया गया है. मगर कमजोर पटकथा के चलते फिल्मकार नितिन कक्कड़ पूणरूपेण एक बेहतरीन फिल्म बनाने में असफल रहे हैं. फिल्मकार ने जिस प्रेम कहानी को पेश किया हैं, उससे दर्शक खुद को जोड़ नहीं पाता. सरलतावादी राजनीति के रूखेपन के बीच प्रेम कहानी अपना असर नहीं डालती.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो जहीर इकबाल व प्रनूतन बहल की यह पहली फिल्म है, पर दोनों अपनी अभिनय प्रतिभा की छाप छोड़ने में असफल रहे हैं. फिल्मकार नितिन ने इनकी कमजोरी को छिपाने के लिए ज्यादातर दृश्य लांग शौट यानी कि काफी दूर से ही फिल्माए हैं. दोनों कलाकारों के चेहरे पर आपेक्षित भाव नहीं आते. घाटी के खूबसूरत दृश्यों के बीच दोनों कलाकारों का लकड़ी की तरह सपाट चेहरा पैबंद नजर आता है. फिरदौस द्वारा जुनैद से शादी तोड़कर वहां से निकलने वाले दृश्य में जरुर एक आत्मविश्वास प्रनूतन बहल में नजर आता है. प्रनूतन बहल व जहीर इकबाल से कई गुना बेहतर परफार्मेंस तो बाल कलाकारों की है.

जहां तक गीत संगीत का सवाल है, तो संगीतकार असफल ही रहे हैं. मगर फिल्म के कैमरामैन मनोज कुमार खटोई बधाई के पात्र है जिन्होंने अपने कैमरे से घाटी की सुंदरता को चित्रित कर कई जगह फिल्मकार की मदद की हैं.

एक घंटा 52 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘नोटबुक’ का निर्माण सलमान खान, मुराद खेतानी व अश्विन वर्दे ने किया है. फिल्म के निर्देशक नितिन कक्कड़, लेखक शरीब हाशमी व पायल असर, पटकथा लेखक दराब फारूकी, संगीतकार विषाल मिश्रा व ज्यूलियस पकम, कैमरामैन मनोज कुमार खटोई तथा कलाकार हैं- जहीर इकबाल ,प्रनूतन बहल व अन्य.

जंगली : कमजोर कथा व पटकथा

रेटिंग: दो स्टार

हाथियों के संरक्षण व हाथी दांत की तस्करी पर लगाम लगाने जैसे ज्वलंत मुद्दे पर बनी फिल्म ‘‘जंगली’’ कमजोर पटकथा व कहानी के चलते अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब नहीं रहती. पूरी फिल्म बचकानी सी लगती है. हाथियों का भी सही ढंग से उपयोग नहीं किया गया.

फिल्म ‘‘जंगली’’ की कहानी मुंबई के एक जानवरों के अस्पताल में कार्यरत डाक्टर राज नायर विद्युत जामवाल के इर्द गिर्द घूमती है, जो कि अपनी मां के देहांत के बाद से ही यानी कि पिछले दस वर्ष से मुंबई में हैं और अपने पिता से नाराज चल रहे हैं. डा. राज को लगता है कि यदि उसके पिता ने उसकी मां का इलाज शहर में करवाया होता, तो उसकी मां ठीक हो जाती. उसके पिता चाहते हैं कि डा. राज अपनी मां की बरसी के मौके पर उड़ीसा में हाथियों की उसी सेंचुरी में आए, जिसे उसकी मां व पिता ने ही बसाया है. अब राज के पिता ही इस सेंचुरी में हाथियों के संरक्षण का काम कर रहे हैं. उनके साथ शंकरा (पूजा सावंत) , राजेश भी हैं. राज अपने पिता के पास जाना नहीं चाहते, मगर पत्रकार मीरा (आशा भट्ट) की एक बात डा. राज को अपनी मां की दसवीं बरसी पर जाने के लिए राजी कर देती हैं.

डा. राज का पीछा करते हुए पत्रकार मीरा भी पहुंच जाती हैं, जिसे राज के पिता का इंटरव्यू अपनी वेब साइट के लिए करना चाहती है. राज की मुलाकात अपनी बचपन की साथी शंकरा और फौरेस्ट आफिसर देव (अक्षय ओबेराय )से होती है. घर लौटने के बाद राज अपने बचपन के साथी हाथियों में भोला और दीदी से मिलकर बहुत खुश होता है. वह अपने उन पुराने दिनों को याद करता है, जब उसकी मां जीवित थी और वह अपने गुरू (मकरंद देशपांडे) से कलारिपयट्टू का प्रशिक्षण ले रहा था. हाथियों की इस सेंचुरी व जंगल में पहुंचते ही से डा. राज को कई नई बातों से दो चार होना पड़ता है.

हाथियों के साथ मौज मस्ती करने वाले राज को इस बात का अहसास ही नहीं था कि उनकी खुशहाल सेंचुरी और हाथियों पर  शिकारी व हाथी दांत के तस्कर नजर गड़ाए बैठे हैं. राज की मां की बरसी होने के बाद की रात हाथी दांत के विदेशी तस्करों के लिए शिकार करने वाले  शिकारी (अतुल कुलकर्णी), फारेस्ट आफिसर देव व स्थानीय पुलिस की मदद से हाथियों की इस सेंचुरी में पहुंच कर भोला हाथी सहित चार हाथियों व राज के पिता को मौत की नींद सुलाकर भागने में सफल हो जाते हैं. मगर उससे पहले वह हाथी दांत निकालकर छिपा देते हैं. उधर स्थानीय पुलिस के मुखिया इंस्पेक्टर खान आरोप लगाते हैं कि हाथी दांत के तस्करों व शिकारियों के साथ राज के पिता मिले हुए थे. उसके बाद कहानी में कई मोड़ आते हैं. अंततः देव मारा जाता है. हाथी दांत बरामद हो जाते हैं.  शिकारी मारे जाते हैं. तस्कर विदेशी डालरों के साथ पकड़े जाते हैं.

हाथियों के संरक्षण व हाथी दांत की तस्करी पर लगाम लगाने जैसे ज्वलंत व अति समसामायिक विषय पर अति कमजोर पटकथा के चलते पूरी फिल्म फुसफुसा पटाका के अलावा कुछ नहीं है. फिल्म में हाथी दांत की तस्करों व हाथियों की प्रजाति को खत्म करने पर आमादा शिकारियों के साथ फारेस्ट अफसरों, स्थानीय पुलिस व प्रशासन की सांठगांठ पर पुरजोर तरीके से बात करने से फिल्मकार डरे हुए नजर आए. फिल्म में इमोशन का भी घोर अभाव है. कमजोर पटकथा के चलते इंटरवल से पहले फिल्म बहुत बोर करती है. इंटरवल के बाद एक्शन दृष्यों के चलते फिल्म कुछ संभलती है.

अफसोस की बात यह है कि हौलीवुड निर्देशक चक रसेल भी इस कमजोर पटकथा पर बेहतरीन फिल्म नहीं बना सके. चक रसेल की संजीदगी इस फिल्म में नजर नहीं आती. जबकि वह हौलीवुड में ‘‘मौस्क’’, ‘स्कौर्पियन किंग’, ‘इरेजर’ जैसी कई सफलतम फिल्में दे चुके हैं. यदि इसी तरह की सतही फिल्म बनानी थी, तो फिर हौलीवुड निर्देशक की बजाय भारतीय निर्देशक की ही सेवाएं ली जानी चाहिए थी. हाथी व अन्य जानवरों की दुर्लभ प्रजाति को बचाने के साथ ही जानवरों से प्रेम करने की बात करने वाली कहानियों की हमारे देश में कमी नहीं है. अतीत में हमारे यहां ‘हाथी मेरे साथी’ सहित कई बेहतरीन फिल्में इसी मुद्दे पर बन चुकी हैं.

पटकथा व संवाद लेखकों ने फिल्म में  शिकारी के मुंह से कुछ धार्मिक मंत्रों, महाभारत के धृष्टराष्ट्र व अश्वत्थामा जैसे पात्रों के नाम उद्धरित करवाए हैं, वह महज फिल्म को तहस नहस करने के अलावा कुछ नहीं है. फिल्म ‘जंगली’ को महज बौलीवुड फिल्म बताने के लिए भगवान गणेश को जोड़ना भी अजीब सा लगता है.

हं! फिल्म ‘जंगली’ के एक्शन दृष्य (ज्यादातर एक्शन दृष्य कलारी पट्टू पर ही आधारित हैं) रोमांच पैदा करने में सफल नहीं रहते. कुछ एक्शन दृष्य तो हास्यास्पद लगते हैं. जबकि कलारी पट्टू नामक मार्शल आर्ट में विद्युत जामवाल को महारत हासिल है. हमें याद रखना चाहिए कि विद्युत जामवाल की मां केरला के पलक्कड़ में आश्रम चलाती है, जहां कलारी पट्टू कला का प्रशिक्षण दिया जाता है. यही वजह है कि कुछ एक्शन दृष्यों का निर्देशन भी विद्युत जामवाल ने ही किया है.

मगर थाइलैंड के जंगलों में फिल्मायी गयी इस फिल्म में जंगल, नदी व हाथियों की सेंचुरी के दृष्य जरुर मनमोह लेते हैं. इसके लिए कैमरामैन मार्क इरविन बधाई के पात्र हैं.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो कलारी पट्ट के एक्शन दृष्यों में विद्युत जामवाल का कोई सानी नहीं है. आशा भट्ट और पूजा सावंत की यह पहली फिल्म है, पर दोनों शो पीस ही रही. कहानी में इनका कोई योगदान नहीं है.  शिकारी के किरदार में अतुल कुलकर्णी ने एक बार फिर अपने अभिनय का लोहा मनवाया है. छोटी भूमिका में मकरंद देशपांडे अपनी छाप छोड़ जाते हैं. अक्षय ओबेराय प्रभाव छोड़ने में असफल रहे.

1 घंटा 55 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘जंगली’ का निर्माण ‘जंगली पिक्चर्स’ के बैनर तले विनीत जैन व प्रीति सहानी ने किया है. फिल्मके निर्देशक चक रसेल, लेखक अक्षत खिलडियाल व सुमन दुबे, पटकथा लेखक एडाम प्रिंस व राघव दार, कहानी लेखक रोहन सिप्पी, चारूदत्त आचार्य, उमेश पड़लकर व रितेश शाह, संगीतकार समीर उद्दीन व तनुज टिकू, कैमरामैन मार्क इर्विन व सचिन गदनकुश तथा कलाकार हैं- विद्युत जामवाल, आशा भट्ट, पूजा सावंत, मकरंद देशपांडे, अतुल कुलकर्णी, अक्षय ओबेराय व ठलावैवसल विजय व अन्य.

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