गहरी पैठ

महाराष्ट्र, हरियाणा की विधानसभाओं और 51 विधानसभा सीटों के चुनावों के नतीजों से भारतीय जनता पार्टी के सुनहरे रंग की परत तो उतर गई है. भाजपा पहले भी हारी थी पर फिर बालाकोट के कारण और मायावती के पैतरों के कारण लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीत गई. जीतने के बाद उस का गरूर बढ़ गया और उस ने किसानों, कामगारों, छोटे व्यापारियों की फिक्र ही छोड़ दी. आजकल ये काम वे पिछड़े लोग कर रहे हैं जो पहले शूद्रों की गिनती में आते थे, पर भाजपा ने जिन्हें भगवा चोले पहना दिए और कहा कि भजन गाओ और फाके करो.

इन लोगों ने जबरदस्त विद्रोह कर दिया. हरियाणा में जाटों, अहीरों, गुर्जरों ने और महाराष्ट्र में मराठों ने भाजपा को पूरा नहीं तो थोड़ा सबक सिखा ही दिया. दलित और मुसलिम वोट बंटते नहीं तो मामला कुछ और होता. दलित ऊंचे सवर्णों से ज्यादा उन पिछड़ों से खार खाए बैठे हैं जिन्हें वे रोज अपने इर्दगिर्द देखते हैं. उन्हें पता ही नहीं रहता कि असली गुनाहगार वह जातिवाद है जो पुराणों की देन है, न कि उन के महल्ले या गांव के थोड़े खातेपीते लोग, जिन्हें वे दबंग समझते हैं.

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हरियाणा में दुष्यंत चौटाला ने 10 सीटें पाईं और भारतीय जनता पार्टी से उपमुख्यमंत्री पद झटक लिया. कांग्रेस ताकती रह गई पर उसे अब उम्मीद है कि दूसरे राज्यों में जहां जाटों, पिछड़ों की पार्टियां नहीं हैं वहां उसे फायदा पहुंचेगा. भाजपा को यह समझना चाहिए पर वह समझेगी नहीं कि किसी भी देश को आगे बढ़ने के लिए ज्यादा सामान पैदा करना होता है. अमीरी कठोर मेहनत से आती है चाहे वह खेतों में हो या कारखानों में. मंदिरों में तो पैसा और समय बरबाद होता है.

भाजपा को तो राम मंदिर, पटेल की मूर्ति, चारधाम की देखभाल, अयोध्या की दीवाली की पड़ी रहती है. इन सब में पौबारह होती है तो इन का रखरखाव करने वाले भगवाधारियों की. वे पिछड़े जो काम कर रहे हैं, खूनपसीना बहा रहे हैं, वे व्यापारी जो रातदिन दुकानें खोले बैठे हैं, दफ्तरों में काम कर रहे वे लोग जो कंप्यूटरों पर आंखें खराब कर रहे हैं, वे औरतें जो बच्चों को पढ़ा रही हैं ताकि वे अपना कल सुधार सकें, को इन पूजापाठों से क्या फायदा होगा?

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भाजपा ने किसानों की परेशानियों को समझा ही नहीं. भाजपा तो सोनिया गांधी के जमीन अधिग्रहण कानून को खत्म करना चाहती है जिस से किसानों की जमीनें उन की अपनी पक्की मिल्कीयत बनी थीं. भाजपा ने जीएसटी लागू कर के उन लाखों पिछड़े वर्गों के दुकानदारों का काम बंद कर दिया जो छोटा काम करने लगे थे. नोटबंदी के बाद छोटे लोगों के पास पैसा बचा ही नहीं. बैंकों में रखा पैसा खतरे में है. भाजपा इस मेहनतकश जमात की सुन नहीं रही है तो इस ने चपत लगाई है, अभी हलकी ही है. महाराष्ट्र, हरियाणा में काफी कम सीटें जीतीं और विधानसभा उपचुनावों में बोलबाला नहीं रहा. यहां तक कि गुजरात के 6 उपचुनावों में से 3 कांग्रेस जीत गई जबकि कांग्रेस का तो कोई नेता ही नहीं है. राहुल फिलहाल सदमे में है, सोनिया बीमार हैं. नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अब चुनावी बिजली का शौक लगा है. अब सरकारें और लड़खड़ाएंगी.

सेना के गुणगान तो हमारे देश में बहुत किए जाते हैं पर ये दिखावा ज्यादा हैं, यह पक्का है. सैनिकों की शिकायतों को किस तरह नजरअंदाज किया जाता है, यह दिखता रहता है. यह तो साफ है यदि ऊंची जाति का ऊंचा अफसर सेना के खिलाफ अदालत में जाए तो भी उस के खिलाफ कुछ नहीं होता. हो सकता है, उसे मंत्री भी बना दिया जाए पर पिछड़ी जाति का कोई अदना सिपाही कुछ गलत कर दे तो पूरी फौज उस के पीछे हाथ धो कर पड़ जाती है.

सुरेंद्र सिंह यादव को आर्मी में सेना में सिपाही की नौकरी दी गई थी और 26 अप्रैल, 1991 में उस ने नौकरी जौइन की. कुछ दिन बाद उस के आवेदन खंगालते समय पता चला कि उस के माध्यमिक शिक्षा मंडल, ग्वालियर के दिए मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट पर कुछ शक है. उसे आर्मी ऐक्ट की धारा 44 पर चार्जशीट दी गई और जब वह साबित नहीं कर पाया कि सर्टिफिकेट असली ही है तो उसे नौकरी से निकाल भी दिया गया और 3 महीने की जेल भी दे दी गई.

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यह तो पक्का है कि उस ने बाकी टैस्ट और फिजिकल जांच पूरी की होगी, क्योंकि सिर्फ मैट्रिक के सर्टिफिकेट के बल पर तो सेना में नौकरी नहीं मिलती. शायद इसीलिए रिव्यूइंग अथौरिटी ने समरी कोर्ट मार्शल का आदेश रद्द कर दिया और उसे फिर 27 नवंबर, 1992 को बहाल कर दिया. पर चूंकि वह अदना सिपाही था, गरीब था, यादव था, उस की छानबीन रिकौर्ड औफिस ने चालू रखी. उसे शो कौज नोटिस दिया गया और 10 जुलाई, 1993 को फिर निकाल दिया.

जिस देश में मंत्री, प्रधानमंत्री के सर्टिफिकेट का अतापता न हो वहां एक पिछड़े वर्ग के सिपाही के पीछे सेना हाथ धो कर पड़ गई. वह हाईकोर्ट गया जिस ने मामला आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल को सौंप दिया. सालों के बाद आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल ने 2016 में सिपाही के खिलाफ फैसला दिया और डिस्चार्ज को सही ठहराया.

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सुरेंद्र सिंह यादव अब सुप्रीम कोर्ट में आया कि उस पर एक ही गुनाह के लिए 2 बार कार्यवाही हुई, पहले समरी कोर्ट मार्शल और वहां से बहाल होने पर शो कौज नोटिस दे कर. उस पर किसी और गलती या गुनाह का आरोप नहीं था. अपने हक के लिए लड़ रहे आम सैनिक के लिए सुप्रीम कोर्ट में सेना ने सीनियर एडवोकेट आर. बालासुब्रमण्यम के साथ 5 और वकील खड़े किए. सिपाही सुरेंद्र सिंह यादव के साथ केवल एक वकील सुधांशु पात्रा था.

जब सुप्रीम कोर्ट में भारीभरकम फौज के भारीभरकम वकील हों तो अदना सिपाही को हारना ही था. सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि समरी कोर्ट मार्शल का फैसला दोबारा कार्यवाही करने में कोई रुकावट पैदा नहीं करता. वैसे आम कानून यही कहता है कि एक गुनाह पर 2 बार मुकदमा नहीं चल सकता और फिर यह तो पिछड़ी जाति का सीधासादा सिपाही था, उस की हिम्मत कैसे हुई कि अफसरों के खिलाफ खड़ा हो. यह कोई वीके सिंह थोड़े ही है जिस की 2-2 जन्मतिथियां रिकौर्ड में दर्ज हों, जो सेना में जनरल बना और फिर मंत्री.

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धोखाधड़ी: क्लर्क से बना कल्कि अवतार

तब मेरी उम्र 14-15 साल रही होगी. मेरी मौसी के बेटे की शादी थी. गरमी की छुट्टियां थीं तो वहां जाना कोई बड़ा मसला नहीं था. एक दिन की बात है. खेतों में गेहूं की कटाई चल रही थी. मौसी का पूरा परिवार खेत में था.

दोपहर में कोई नौजवान बाबा वहां आया और सब के हाथ देख कर भविष्य बताने लगा. मेरे बारे में उस बाबा ने 2 अहम बातें कही थीं.

पहली यह कि मैं 84 साल तक जिऊंगा और दूसरी यह कि बड़ा हो कर मैं वकील बनूंगा. बाद में मौसी ने उस बाबा को खाना और अनाज दिया था.

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अब उस बाबा की भविष्यवाणी पर आते हैं. मेरी उम्र के बारे में बाबा ने शिगूफा छोड़ा था, क्योंकि यह तो कोई नहीं बता सकता कि कोई कितना जिएगा, पर बाबा की कही दूसरी बात भी गलत ही साबित हुई. मैं वकील नहीं बना. मतलब, मेरे मन में कभी दूरदूर तक खयाल नहीं आया कि इस फील्ड में हाथ आजमाया जाए.

लेकिन उस बाबा की कही ये बातें आज भी मेरे मन में क्यों उमड़घुमड़ रही हैं? शायद उस बाबा के गेटअप का असर था. दाढ़ीमूंछ, भगवा कपड़े, हाथ में लाठी और कमंडल. उस बाबा के बात करने का तरीका भी लुभावना था और चूंकि उसे किसी के भी भविष्य को बताने या उस की मुसीबतों से छुटकारा दिलाने का धार्मिक लाइसैंस मिला हुआ था, इसलिए इधरउधर की हांक कर वह अपने 2-4 दिन के खाने का जुगाड़ कर गया था, बिना अपने शरीर या दिमाग को कष्ट दिए.

यह तो हुआ एक अनजान बाबा का किस्सा. अब आप को एक ऐसे आदमी से रूबरू कराते हैं, जिस ने खुद को कल्कि अवतार बता कर लोगों से इतना पैसा ऐंठा कि भगवान के साथसाथ वह धन्ना सेठ भी हो गया.

मजे की बात तो यह है कि उस ने ऐसे लोगों को अपना भक्त बनाया जो अच्छेखासे पढ़ेलिखे हैं और समाज में जिन का रुतबा भी है.

हम बात कर रहे हैं 70 साल के वी. विजय कुमार नायडू की, जो कभी एलआईसी में क्लर्क था. बाद में नौकरी छोड़ कर उस ने एक ऐजुकेशनल संस्थान बनाया था, पर जब वह संस्थान नहीं चला तो वह अंडरग्राउंड हो गया. इस के बाद साल 1989 में वह खुद को विष्णु का 10वां अवतार कल्कि भगवान बताते हुए चित्तूर में प्रकट हुआ.

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अब तमिलनाडु के उसी अवतार के यहां 600 करोड़ रुपए की बेनामी जायदाद मिली है. इस में 20 करोड़ के अमेरिकी डौलर हैं और 44 करोड़ रुपए की भारतीय करंसी है. 88 किलो सोना बरामद हुआ है. 1271 कैरेट के बेशकीमती हीरे भी मिले हैं. कैश की रसीदें मिली हैं जिन से पता चलता है कि उस के पास 600 करोड़ रुपए की बेनामी जायदाद है.

नए जमाने के इस कल्कि भगवान के 40 ठिकानों पर रेड चली थी, जिन में उस के नाम पर बनी एक यूनिवर्सिटी और एक आध्यात्मिक स्कूल शामिल है. इस बाबा का मुख्य आश्रम आंध्र प्रदेश में चित्तूर जिले के वैरादेहपलेम इलाके में है.

इनकम टैक्स डिपार्टमैंट के सूत्रों के मुताबिक, आश्रम के ऊपर जमीनों को हड़पने और टैक्स चोरी के आरोप हैं. इस के अलावा कल्कि ट्रस्ट के फंड में भी गड़बडि़यां हो सकती हैं.

क्लर्क से कल्कि बने इन महाशय ने दूसरे तमाम बाबाओं की तरह अध्यात्म को ही अपना हथियार बनाया. उस ने अपना मायाजाल लाखों भारतीय लोगों के साथसाथ कई विदेशियों पर भी फेंका और उन्हें जम कर ठगा. बाद में कमाई का यह धंधा फलताफूलता गया और कल्कि भगवान देखते ही देखते करोड़पति बन गया.

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कुछ अलगअलग वैबसाइट से पता चलता है कि इस कल्कि भगवान के आशीर्वाद से बहुत से लोगों के बच्चों के अच्छे संस्थाओं में दाखिले हो गए. यह इतना दयालु था कि इस के चमत्कारों से बहुत से लोगों के डूबे हुए पैसे वापस मिल गए.

यहां तक कि बाबा की कृपा से बहुत से भक्तों के सारे बरतन अपनेआप साफ हो गए. कुछकुछ वैसे ही, जैसे कभी निर्मल बाबा की बरसती कृपा से लोगों की जिंदगी में खुशहाली आ जाती थी. वह समोसे खिला कर लोगों को भरमाता था तो यह अपनी चिकनीचुपड़ी बातों से लोगों की जेब हलकी कर देता था.

इस कल्कि भगवान ने खुद को और पत्नी पद्मावती को देवीदेवता के समान बताया था. इस के आश्रमों में देश के अमीर लोगों के अलावा विदेशी और एनआरआई लोगों की भी कतारें लगती थीं. यही वजह थी कि इस कल्कि भगवान के साधारण दर्शन के लिए लोगों को 5,000 रुपए और विशेष दर्शन के लिए 25,000 रुपए देने पड़ते थे.

देखा जाए तो अब सरकारी महकमे की दबिश पड़ने के बाद ही पता चला कि दक्षिण भारत के एक छोटे से इलाके में कोई रईस कल्कि भगवान रहता है. इस के अलावा न जाने कितने ऐसे तथाकथित भगवान अपनीअपनी दुकान लगाए लोगों के दुखों का कारोबार कर रहे हैं और मजे की जिंदगी गुजार रहे हैं. बहुत से कानून के शिकंजे में फंस कर जेल की हवा तक खा रहे हैं, पर जनता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है.

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अभी हाल ही में जब हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए थे, तब हर पार्टी का नेता चाहता था कि राम रहीम के अनुयायी उसे ही वोट दें. सब ने उन्हें लुभाने की पूरी कोशिश की थी, जबकि राम रहीम अभी रेप के सिलसिले में जेल में बंद है.

ऐसे बाबा लोग आम जनता की उस दुखती रग पर हाथ रखते हैं, जैसी रग कभी उस अनजान बाबा ने खेत में आ कर हमारे परिवार के लोगों की पकड़ी थी. उसे पता था कि वह  झूठ बोल रहा है या तुक्का मार रहा है, लेकिन साथ ही उसे यह भी पता था कि ये लोग उस के तुक्के को तीर सम झ कर उस की रोजीरोटी का इंतजाम तो कर ही देंगे.

यह तो पता नहीं कि मेरी भविष्यवाणी बताने वाले उस बाबा का आगे क्या हुआ, लेकिन अगर कहीं उस की गोटी सैट बैठ गई होगी तो किसी छोटे से गांव के मंदिर में उस ने यकीनन ऐश की जिंदगी गुजारी होगी, वहां का कल्कि भगवान बन कर.

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2 आदिवासी औरतें: एक बनी कटी पतंग, दूसरी चढ़ी आसमान पर

मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश के शिवपुरी और बैतूल जिले की आदिवासी समाज की ये 2 औरतें देश की 2 सब से बड़ी राजनीतिक पार्टियों के इस्तेमाल की चीज बन कर रह गई हैं.

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इस से बड़ी ट्रैजिडी और क्या होगी कि शिवपुरी जिले के कोलारस विधानसभा क्षेत्र की ग्राम पंचायत रामपुरी के गांव लुहारपुरा की अनपढ़ जूली अपने हक को नहीं जानती थी, इसलिए शिवपुरी की जिला पंचायत अध्यक्ष और राज्यमंत्री का दर्जा पाने के बाद भी वह अपनी 18 बीघा जमीन के मामले में ठगी का शिकार बनी. उस का राजनीतिक इस्तेमाल करने वाले नेताओं ने उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंका.

वहीं दूसरी औरत ज्योति धुर्वे रायपुर जैसे महानगर की दुर्ग यूनिवर्सिटी से राजनीति में एमए की तालीम लेने के बाद साल 2008 में अनुसूचित जनजाति आयोग की अध्यक्ष बनी और कैबिनेट मंत्री का दर्जा पाने के बाद लंबी उड़ान पर निकल पड़ी. वह 2 बार सांसद बनने के बाद आज भाजपा की राष्ट्रीय सचिव बन बैठी है. साथ ही, अपने ऊपर लगे फर्जी आदिवासी व विधवा होने के आरोप के बावजूद उस ने जायदाद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

करोड़ों रुपए में खेलने वाली भाजपा की इस पूर्व सांसद ज्योति धुर्वे का मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार बाल भी बांका नहीं कर सकी है. वजह, इस भाजपा सांसद के संरक्षक प्रदेश भाजपा कोषाध्यक्ष व पूर्व सांसद हेमंत खंडेलवाल हैं. इन के कांग्रेस की कमलनाथ सरकार के बैतूल जिले की मुलताई विधानसभा से विधायक और प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री सुखदेव पांसे से गहरे संबंधों के चलते ज्योति धुर्वे का फर्जी आदिवासी का मामला ठंडे बस्ते में जा पहुंचा है.

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एक करोड़ों में तो दूसरी कंगाल

मध्य प्रदेश की राजनीति में दोनों ही औरतें भाजपा व कांग्रेस के पूर्व विधायकों की करीबी रही हैं. जहां जूली कांग्रेस के पूर्व विधायक, जो अब नहीं रहे, राम सिंह यादव के फार्महाउस में काम करती थी तो ज्योति धुर्वे भाजपा के पूर्व सांसद, जो अब नहीं रहे, विजय कुमार खंडेलवाल, प्रदेश भाजपा कोषाध्यक्ष की भारतीय जनता पार्टी महिला मोरचा की अध्यक्ष थी.

ज्योति धुर्वे ने अपने कांग्रेसी पति पूर्व जनपद सदस्य भैसदेही जनपद प्रेम सिंह धुर्वे, जो अब नहीं रहे, की राजनीति में विपक्षी पार्टी के साथ दो कदम आगे बढ़ाए तो जूली के पति मांगीलाल ने मजदूरी करने वाली अपनी बीवी को फार्महाउस के मालिक राम सिंह यादव की कठपुतली बनने पर मजबूर कर दिया.

इन दोनों आदिवासी औरतों का राजनीतिक सफर व खात्मा भाजपा के बीते 15 सालों के राज में हुआ है. लालबत्ती लगी गाड़ी में घूमने वाली इन दोनों औरतों का एक कड़वा सच यह भी है कि दोनों में से एक असली तो दूसरी नकली आदिवासी है.

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एक है एमए दूसरी अंगूठाछाप

एक फटी, मटमैली साड़ी में लिपटी, वहीं दूसरी महंगे कपड़ों और गहनों से लदी हुई. दोनों की राजनीति में शुरुआत साल 2005 और साल 2008 में हुई.

मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले की जूली को वहां के पूर्व विधायक और नेता राम सिंह यादव ने जिला पंचायत का सदस्य बना दिया था. कुछ समय बाद क्षेत्र के दूसरे पूर्व विधायक वीरेंद्र रघुवंशी ने जूली को राज्यमंत्री का दर्जा दिलवा कर उसे जिला पंचायत के अध्यक्ष का पद सौंप दिया.

साल 2005 से साल 2009 तक जिला पंचायत अध्यक्ष रही जूली के पति मांगीलाल राम सिंह यादव के फार्महाउस पर काम करता था. जूली भी अपने पति के साथ वहीं पर रहती थी और पूर्व विधायक के फार्महाउस पर काम करती थी.

जूली के पास उस के पिता के गांव रामगढ़ में पट्टे की जमीन थी. 9-9 बीघा जमीन पर पूर्व विधायक राम सिंह यादव के बेटे महेंद्र यादव ने भूमि विकास बैंक से ट्रैक्टर उठाया और बैंक की किस्त जमा न करने पर जब भूमि विकास बैंक ने उस के बैंक में बंधक 9-9 बीघा जमीन के पट्टे को नीलाम किया तो पूर्व विधायक राम सिंह यादव के बेटे महेंद्र यादव ने बैंक से वह पट्टे वाली 18 बीघा जमीन खरीद ली.

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जूली अब अपना सबकुछ गंवाने के बाद बकरियां चरा रही है. वर्तमान समय में जूली के साथ न तो कोई विधायक है और न पूर्व विधायक. और तो और जिस पार्टी की ओर से वह जिला पंचायत अध्यक्ष बनी थी, उस पार्टी का कोई कार्यकर्ता से ले कर पदाधिकारी भी उस के दुख में साथी बनने को तैयार नहीं है.

जहां जूली की जाति पर किसी ने सवाल नहीं उठाया, तो वहीं दूसरी ओर ज्योति धुर्वे अपनेआप को असली आदिवासी साबित नहीं कर सकी है.

मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल बैतूल जिले के भाजपा सांसद व प्रदेश भाजपा कोषाध्यक्ष विजय कुमार खंडेलवाल ने ज्योति धुर्वे को साल 2008 में मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग की अध्यक्ष की कुरसी और कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिलवा दिया था.

विजय कुमार खंडेलवाल की साल 2007 में हुई मौत के बाद उन के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में उन के छोटे बेटे हेमंत खंडेलवाल साल 2008 में लोकसभा के उपचुनाव में सांसद बने, लेकिन इस बीच बैतूल लोकसभा सीट आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हो जाने के चलते उस सीट पर उन की राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में ज्योति धुर्वे की ताजपोशी हुई.

ज्योति धुर्वे ने साल 2009 में लोकसभा का चुनाव लड़ा और उन का आदिवासी का जाति प्रमाणपत्र विभाजित मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ से साल 2009 में जारी किया गया.

उस समय ज्योति, पिता महादेव ठाकुर का पता समता कालोनी, रायपुर था. रायपुर जिला कलक्टर सुबोध सिंह के समय बने जाति प्रमाणपत्र में ज्योति धुर्वे को पिता की जाति के आधार पर आदिवासी बताया गया. इसी प्रमाणपत्र को ग्राम पंचायत चिल्कापुर, तहसील भैसदेही ने अटैस्ट किया और उस आधार पर एसडीएम भैसदेही ने साल 2009 में नया जाति प्रमाणपत्र पिता के बदले पति की जाति के आधार पर जारी कर दिया.

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2 बार सांसद रही ज्योति धुर्वे की साल 2014 में घोषित संपत्ति 2 करोड़, 62 लाख रुपए थी. वे वर्तमान में भाजपा की राष्ट्रीय सचिव हैं और ग्राम चिल्कापुर, गुदगांव में उन का एक पैट्रोल पंप भी है.

जाने कहां गए वे दिन

जिला पंचायत अध्यक्ष के साथ ही जूली को एक बार शासन की ओर से राज्यमंत्री का दर्जा भी मिल गया था. फिर क्या था, लालबत्ती की कार में घूमने वाली जूली का रुतबा काफी बढ़ गया था. बड़ेबड़े अफसर और मुलाजिम ‘मैडम’ कह कर उस का आदर करने लगे थे. पद जाते ही मानो जूली की पूरी जिंदगी बदल गई.

एक समय पर इज्जत और सुख के साथ जीने वाली इस औरत की जिंदगी अंधकार और परेशानियों से भर गई. अब गुजरबसर के लिए जूली लुहारपुरा में

रह कर बकरी चराने को मजबूर हो गई है. इन दिनों वह गांव की तकरीबन 50 बकरियां चराने का काम करती है.

जूली के मुताबिक, हर बकरी के लिए उसे 50 रुपए हर महीने मिलते हैं. इस से जो कमाई होती है, उसी के दम पर वह घरपरिवार का पालनपोषण करती है.

पश्चिम बंगाल

कटखने कुत्तों का कहर

देश के सारे बड़े शहरों की तरह पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से सटे हावड़ा जिले में कटखने कुत्तों के कहर से निबटने के लिए हर साल सरकार को लाखों रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं.

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हावड़ा जिला स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े बताते हैं कि हर साल जिले में 20,000 से ज्यादा लोग कुत्ते के काटने का शिकार होते हैं. इस से उन्हें अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़ते हैं. इस के बावजूद किसी भी नगरनिगम, नगरपालिका, ग्राम पंचायत या ब्लौक की ओर से कुत्तों की बढ़ती तादाद पर काबू पाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है.

हावड़ा नगरनिगम द्वारा 2 साल पहले 50 कुत्तों की नसबंदी कराई गई थी, लेकिन इस का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला. रात को हर मोड़ व नुक्कड़ पर दर्जनों आवारा कुत्ते मिल जाते हैं. प्रशासन का कहना है कि ऐसे कुत्तों की हत्या नहीं की जा सकती है, लेकिन उन के पास इन की तादाद कंट्रोल करने के लिए इतनी बड़ी मैडिकल व्यवस्था भी नहीं है.

हावड़ा जिला स्वास्थ्य विभाग ने कुत्तों द्वारा लोगों को काटे जाने का जो आंकड़ा जारी किया है, उस के मुताबिक, साल 2014 में 20,689, साल 2015 में 21,133, साल 2016 में 19,632, साल 2017 में 20,842, साल 2018 में 23,621 और साल 2019 में अप्रैल महीने तक 8,341 लोगों को कुत्तों ने काटा यानी 6 साल में 1 लाख, 14 हजार, 258 लोगों को कुत्ते काट चुके हैं.

इन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हर साल औसतन 19,043 लोग कुत्तों के काटने का शिकार होते हैं. इस से बचने के लिए सरकार के जहां लाखों रुपए रेबिज इंजैक्शन पर खर्च हुए हैं, वहीं लोग खुद को महफूज नहीं कर पा रहे हैं. स्वास्थ्य विभाग ने यह स्वीकार किया है कि कुत्तों द्वारा काटे गए लोगों को बचाने के लिए सरकार को हर साल लाखों रुपए खर्च करने पड़ते हैं.

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DCP किरण बेदी! के समय भी यही हाल था जो आज दिल्ली पुलिस और वकीलों के बीच है

नई दिल्ली: तीस हजारी कोर्ट का तमाशा पूरी दुनिया ने देखा. लोगों ने देखा कि कैसे कानून के रखवाले और संविधान के रक्षक दोनों कैसे जूझ रहे हैं. हालांकि आम आदमी को लूटने में दोनों ही माहिर होते हैं. हमने तो एक कहावत भी सुनी थी कि काले, सफेद, और खाकी वालों के दर्शन न हीं हो तो बेहतर है.

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. इससे पहले भी दिल्ली में वकील और पुलिस आमने-सामने आ चुके हैं लेकिन तब दिल्ली में डीसीपी थीं किरण बेदी. वही किरण बेदी जिन्हें ‘क्रेन बेदी’ भी कहा जाता है. दिल्ली के अलावा चेन्नई में भी वकील और पुलिस आमने-सामने आई थी.

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तीस हजारी कोर्ट में पुलिस और वकीलों की बीच हुई हिंसक झड़प के बाद अब पुलिसकर्मी विरोध प्रदर्शन पर उतर आए हैं. कमिश्नर की अपील के बाद भी मंगलवार को पुलिसकर्मियों ने पुलिस हेडक्वार्टर के बाहर विरोध प्रदर्शन करते हुए नारेबाजी की.

दिल्ली पुलिस (Delhi Police) के जवानों ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक (Amulya Patnaik IPS) के सामने ‘हमारा सीपी(कमिश्नर) कैसा हो, किरण बेदी (Kiran Bedi) जैसा हो’ के नारे लगे. किरण बेदी ने ऐसा क्या किया जिसके कारण आज पुलिस कमिश्नर के सामने उनके जैसा कमिश्नर के नारे लगने लगे.

यह घटना 17 फरवरी 1988 की है. इस दिन डीसीपी किरण बेदी के दफ्तर में वकील पहुंचे हुए थे. इस बीच किसी बात पर बहस हो गई जो झड़प में बदल गई, इस दौरान बेकाबू भीड़ के कारण हालात ऐसे हो गए कि किरण बेदी को लाठीचार्ज कराना पड़ा. इस असर यह हुआ कि वकीलों ने दिल्ली की सभी अदालतों को बंद करा दिया. हालांकि इसके बाद भी एक न्यायाधीश ऐसे थे, जिन्होंने अपनी अदालत को खोले रखा और फैसले सुनाए.

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बवाल वाले दिन 17 फरवरी 1988 को याद करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एस.एन. ढींगरा ने  बताया था कि उस दिन डीसीपी दफ्तर में वकीलों की वजह से हालात बेकाबू हो गए थे, ऐसे में नौबत लाठीचार्ज तक आ पहुंची थी. उन्होंने कहा कि जब तक हालात बेकाबू न हो कोई पुलिस अधिकारी लाठीचार्ज नहीं कराता. आखिर वह बैठे-बिठाए मुसीबत क्यों मोल लेना चाहेगा.

अब इस लड़ाई में दिल्ली पुलिस रिटायर्ड गजटेड औफिसर एसोसियेशन ने भी बुधवार को छलांग लगा दी. इसकी पुष्टि तब हुई जब एसोसियेशन के अध्यक्ष पूर्व आईपीएस और प्रवर्तन निदेशालय सेवा-निवृत्त निदेशक करनल सिंह ने दिल्ली के उप-राज्यपाल और पुलिस आयुक्त को पत्र लिखा. पत्र में जिम्मेदारी वाले पदों पर मौजूद दोनो ही शख्शियतों से आग्रह किया गया है कि अब तक हाईकोर्ट में जो कुछ हुआ है दिल्ली पुलिस उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में जाने का विचार गंभीरता से करे.

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क्या करें जब लग जाए आग

19 जून को लखनऊ के व्यस्ततम इलाके चारबाग में 2 होटलों में भीषण आग लगने से 5 लोगों की मौत हो गई और कई गंभीर रूप से घायल हो गए.

13 जून को मुंबई के वर्ली में प्रभादेवी इलाके की व्यूमौंट बिल्डिंग में भीषण आग लग गई. आग इतनी भीषण थी कि दमकल की 6 बड़ी गाडि़यों व 5 टैंक मिल कर भी आग को घंटों बाद काबू कर पाए. 33 मंजिला इस टावर में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का भी एक फ्लैट है. आग पर काबू पाने में लगा घंटों का समय बताता है कि अगर सुरक्षा के इंतजाम न होते तो कई जानें जातीं.

बहरहाल, आग लगते ही धुएं से भरे स्थान पर, बस, एक ही पल में हम क्या निर्णय लेते हैं, उसी निर्णय पर, उसी पल पर निर्भर करता है कि हम अपने जीवन की सुरक्षा कर पाएंगे या नहीं. हम में से कोई भी किसी अनिष्ट की कल्पना नहीं करना चाहता, पर आगे के कदम के बारे में प्लान बना कर हम खुद को और अपने प्रियजनों को सुरक्षित कर सकते हैं.

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फायर ऐंड सेफ्टी एसोसिएशन के प्रमुख पंकज का कहना है, ‘‘हमारे देश में आग से बचने के तरीकों व सावधानियों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है. ज्यादातर बिल्डर्स इसे गैरजरूरी समझते हैं कि आग लगने पर इस्तेमाल किए जाने वाले आवश्यक साधनों पर खर्च किया जाए. आप जब नई बिल्डिंग्स के विज्ञापन देखते हैं तो आप को उस में स्विमिंग पूल और लैंडस्केप दिखाए जाते हैं, लेकिन कभी यह नहीं बताया जाता कि आग लगने पर सुरक्षा के क्या साधन उपलब्ध हैं.’’

फायर एडवायजर पी देशमुख का इस बारे में कहना है, ‘‘रोकथाम और सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए. हर प्रौपर्टी, रैजीडैंशियल हो या कौमर्शियल, में बाहर निकलने के लिए उपयुक्त सीढि़यां होनी चाहिए. साल में कम से कम 2 बार सेफ्टी औडिट्स होने चाहिए और यह चैक कर लेना चाहिए कि आग बुझाने वाले सभी यंत्र, अलार्म सही हैं और ठीक तरह से काम कर रहे हैं.’’

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आग से बचाव के लिए विशेषज्ञों के मुताबिक निम्न बातों की सभी को जानकारी होनी आवश्यक है-

  • सीढि़यों, दरवाजों और गलियारों में सामान न रखें. आग लगने पर लोग इन्हीं रास्तों से बाहर भागते हैं. आग लगते ही बिल्डिंग से बाहर निकल जाना चाहिए.
  • आग लगने पर फायर ब्रिगेड की गाड़ी को पहुंचने में 20 से 30 मिनट लग ही जाते हैं, इसलिए सुरक्षा आप की जागरूकता पर निर्भर करती है. अकसर कई बिल्ंिडग्स में आग बुझाने वाले यंत्र ऐसी जगह पर रहते हैं जहां वे दिखते ही नहीं हैं. याद रखिए, ऐसी स्थिति में आप के पास क्षणिक समय होता है, जिस में कुछ आवश्यक कदम उठा कर आप अपना और अपने प्रियजनों का जीवन बचा सकते हैं.

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  • लोग इस आशंका पर कम ही ध्यान देते हैं कि उन के घरों में उन की अनुपस्थिति में भी आग लग सकती है. यदि आप के घर में बुजुर्ग मातापिता, छोटे बच्चे हैं तो अपने पड़ोसियों को इन के बारे में जरूर बता कर रखें. आग लगने पर सब से पहले खुद को सुरक्षित करें, फिर परिवार के अन्य सदस्यों की सहायता करें. याद रखें, यदि आप अक्षम हो गए तो किसी की भी सहायता नहीं कर पाएंगे.
  • यदि धुआं है तो अपना सिर नीचे रखें. यदि कोई भी सुरक्षा उपाय नहीं है तो अपना रूमाल पानी में भिगोएं और उसे अपनी नाक पर रख लें. यह कार्बन कणों को कुछ दूर करेगा, आप अच्छी तरह सांस ले सकेंगे.
  • यदि कमरे में आग लग गई है और दरवाजा बंद है तो तुरंत दरवाजा न खोलें. पहले हाथ से दरवाजा छुएं कि कितना गरम है. यदि ज्यादा गरम नहीं है तो घुटनों पर झुक जाएं ताकि जब आप दरवाजा खोलें तो लपटों या धुएं से नुकसान कम से कम हो. धुआं या लपटें दिखें तो फौरन दरवाजा बंद कर दें. आपातकालीन सेवा से संपर्क करें और स्थान खाली कर दें.

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  • आग लगने पर तुरंत बाहर चले जाएं. यदि बाहर नहीं जा सकते और कमरा धुएं से भर गया है, तो ताजी हवा के लिए तुरंत खिड़कियां खोल दें. जितना धुआं आप की सांसों में जाएगा, उतनी ही स्थिति प्रतिकूल हो जाएगी. धुएं से अगर कोई बेहोश हो जाए तो यथाशीघ्र उसे हवादार जगह पर शिफ्ट कर दें.
  • हर व्यक्ति को बेसिक लाइफ सपोर्ट की ट्रेनिंग लेनी चाहिए. इस से आप विषम परिस्थितियों में भी लोगों की जान बचा सकते हैं.
  • आग लगने पर लिफ्ट का प्रयोग न करें. सीढि़यों से उतरने में ही सुरक्षा है.
  • यदि कोई व्यक्ति आग से झुलस गया हो तो उसे जमीन पर न लिटाएं. उसे कंबल या किसी भारी कपड़े में लपेटने की कोशिश करें.

विशेषज्ञों द्वारा बताई गई इन बातों की सभी को जानकारी होनी जरूरी है ताकि अनहोनी होने पर सभी अपनी व अपने प्रियजनों की जान बचा सकें.

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दहेज में जाने वाले दैय्यत बाबा

लेखक- रामकिशोर पंवार

इन सब के अलावा वर पक्ष को दहेज के रूप में बिना मांगे उस गांव का दैय्यत बाबा भी मिल जाता है, जो उस लड़की के साथ उस की ससुराल में तब तक रहता है, जब तक उस के पहले बेटे या बेटी की चोटी उस के स्थान पर न उतारी जाए.

कहनेसुनने में आप को भले ही यह बात अजीबोगरीब लगे, पर मध्य प्रदेश के बैतूल जिले की मुलताई तहसील के सैकड़ों गांवों में आज भी दर्जनों दैय्यत बाबा अपने क्षेत्र की लड़कियों के

साथ दहेज में बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तरह जाते हैं. ऐसा आज से नहीं, बल्कि सैकड़ों सालों से हो रहा है.

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अंधविश्वास से भरे इस रिवाज का पालन करने वालों में इस मुलताई तहसील के गरीब मजदूर तबके से ले कर धन्नासेठ भी शामिल हैं. कुछ लोग तो विदेशों से अपने गांव के दैय्यत बाबा के पास अपने बच्चे की चोटी उतारने आ चुके हैं.

पैर पसार चुकी प्रथा

हमारे समाज में प्राचीन काल से ही कई रूढि़यां जारी हैं. पंवारों की रियासत धारा नगरी पर मुगलों के लगातार हमलों से लड़ती, थकीहारी व धर्म परिवर्तन के डर से घबराई पंवार राजपूतों की फौज ने जानमाल की सुरक्षा के लिए धारा नगरी को छोड़ना उचित समझा था.

धारा नगरी छोड़ कर गोंडवाना क्षेत्र में आ कर बसे पंवार राजपूतों के वंशजों ने इस क्षेत्र में खुद की पहचान को छुपा कर अपनी पहचान भोयर जाति के रूप में कराई और वे यहीं पर बस गए.

आदिवासियों के बीच रह कर उन का रहनसहन सीख कर वे भी आदिवासी क्षेत्र में मौजूद बाबा भगतों के चक्कर में आ कर उन्हीं की तरह दैय्यत बाबाओं के पास जा कर मन्नतें मांगने लगे.

जब उन की तथाकथित मन्नतें पूरी होने लगीं तो वे दैय्यत बाबाओं को खुश करने के लिए उन के स्थान पर मुरगे या बकरे की बलि देने लगे.

ये हैं दैय्यत बाबा

मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर बसा बैतूल जिला अपने प्राचीन समय से ही गोंड राजाओं के अधीन रहा था. आदिवासी समाज के बारे में कहा जाता है कि ये लोग शिव के उपासक होते हैं. खुद को दैत्य गुरु शुक्राचार्य के अनुयायी के रूप मानने वाले इन लोगों ने अपने परिवार के कर्मकांडों में स्वयंभू ग्राम देवता के रूप में पहचान बना चुके दैय्यत (पत्थर से बनी घोड़े पर सवार सफेद कुरताधोती पहने बाबा की आकृति) बाबाओं के मंदिर बना कर उन्हें स्थापित कर दिया है. गांव के बाहर स्थापित ऐसे दैय्यत बाबाओं के स्थान पर चैत्र महीने में मुरगेबकरे की बलि दी जाती है.

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बैतूल जिले की मूल आदिवासी आबादी के बाद दूसरे नंबर पर गांवों में रहने वाली बहुसंख्यक पंवार जाति के लोगों ने आदिवासी के साथसाथ इन देवीदेवताओं को स्वीकार कर उन की तरह बलि प्रथा को भी अपना लिया है.

पंवार जाति की बेटियों की शादियों में दहेज के रूप में गांव के दैय्यत बाबा भी जाने लगे और इस बहाने गांव की बेटियां अपनी पहली औलाद होने के बाद दैय्यत बाबा को खुश करने के लिए मुरगे या बकरे की बलि देने लगीं.

बाबा जाते हैं दहेज में

बैतूल जिले की मुलताई तहसील में पंवार समाज की तादाद ज्यादा है. पंवार (भोयर) समाज में वर्तमान समय में चुट्टी (चोटी) नामक परंपरा जारी है, जो एक मन्नत का रूप होती है. इस में अपने पहले बच्चे की चोटी उतारी जाती है जो हिंदू महीने माघ से वैशाख महीने तक चलती रहती है. इन महीनों में चोटी उतरवाने का कार्यक्रम ज्यादातर बुधवार और रविवार के दिन होता है.

एक दिन में अलगअलग अपनेअपने दैय्यत बाबा, जिन के अलगअलग नाम होते हैं, जैसे खंडरा देव बाबा, एलीजपठार वाले दैय्यत बाबा, देव बाबा के पास सैकड़ों की तादाद में चोटी उतारने का कार्यक्रम होता है.

एक जानकारी के मुताबिक, एक ही दैय्यत बाबा के पास दिनभर में 10-10 चोटी उतारने के कार्यक्रम होते हैं. हर गांव में अलगअलग नामों से देव यानी दैय्यत बाबा के सामने उस गांव की विवाहिता बेटी अपने पहले बच्चे के नाम से मन्नतें मानती हैं.

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मुरगा या बकरा पार्टी

5 साल से 11 साल तक के बच्चों (चाहे वह लड़का हो या लड़की) के नाम से दैय्यत बाबा के सामने मुरगे या बकरे की बलि दी जाती है. बच्चों को नए कपड़े, मिठाई वगैरह दी जाती है, जिसे प्रसाद के रूप में वहां मौजूद सभी लोगों को बांटा जाता है.

ग्राम चौथिया, चिल्हाटी, करपा, बरई, एनस, तुमड़ीडोल, मुलताई, पारबिरोली सहित सैकड़ों गांवों में कोई न कोई चोटी उतारने का कार्यक्रम आएदिन होता रहता है.

गांव चिल्हाटी के दुर्गेश बुआडे कहते हैं कि हिंदू धर्म में चोटी उतारने का रिवाज है, भले ही इन के नाम बदल दिए हों. चोटी बच्चों की सलामती के लिए एक मन्नत का नाम है जिस के पूरा होने पर मन्नत मांगने वाला आदमी अपनी पहली संतान से इसे शुरू करता है.

अकसर विवाहिता बेटी के बेटे या बेटी की ही चोटी उतारी जाती है. अगर पतिपत्नी दोनों एक ही गांव के हों तो फिर उसी गांव के दैय्यत बाबा के पास चोटी उतारने का कार्यक्रम होता है.

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अगर किसी लड़की की ससुराल किसी दूसरे गांव की होती है तो उसे अपनी ससुराल जा कर ही उस दैय्यत बाबा के पास अपने पहले बेटे या बेटी की चोटी 5 साल से 11 साल की उम्र में उतरवाई जाती है.

चोटी कार्यक्रम में दैय्यत बाबा के दरबार में उस गांव के भगत बाबा द्वारा पूजा कर के बकरे की बलि दी जाती है. चोटी के संबंध में मान्यता है कि जब तक पहले बच्चे की चोटी नहीं उतारी जाती, तब तक दैय्यत बाबा उसे सताता रहता है.

यह परंपरा समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है. हालांकि इस तरह के कार्यक्रम में काफी रुपयापैसा खर्च होता है, लेकिन लोगों को समझाना भी आसान नहीं है. कुछ लोग तो अपनी ससुराल के दैय्यत बाबा के पास चोटी उतारने के बाद अपने गांव के दैय्यत बाबा के पास भी बकरे की बलि देते हैं.

केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री रह चुकी मेनका गांधी भले ही टीवी पर ‘जीने की राह’ प्रोग्राम दिखा कर जीव हत्या से लोगों को सचेत करें, लेकिन बैतूल जिले में आज भी लोगों के बीच फैले अंधविश्वास के चलते हजारों मुरगेबकरे काटे जा रहे हैं.

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ड्रग्स चख भी मत लेना: भाग 2

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2-3 घंटेउस बार में गुजार कर वह वापस आई तो मुग्धा काफी बहकीबहकी और दार्शनिकों की सी बातें कर रही थी कि जीवन नश्वर है, जवानी बारबार नहीं आती, इसे जीभर कर एंजौय करना चाहिए. अच्छी बात यह रही कि मुग्धा ने उसे नशे के लिए बाध्य नहीं किया था. हां, पहली बार स्नेहा ने सिगरेट के एकदो कश लिए थे जो चौकलेट फ्लेवर की थी.

रूम पर आ कर उसे बार के उन्मुक्त दृश्य और मुग्धा की बातें याद आती रहीं कि ड्रग्स का अपना एक अलग मजा है जिसे एक बार चखने में कोई हर्ज नहीं, फिर तो जिंदगी में यह मौका मिलना नहीं है और यह कोई गुनाह नहीं बल्कि उम्र और वक्त की मांग है. आजकल हर कोई इस का लुत्फ लेता है. इस से एनर्जी भी मिलती है और अपने अलग वजूद का एहसास भी होता है.

अगले सप्ताह वह फिर मुग्धा के साथ गई और इस बार हुक्के के कश भी लिए. कश लेते ही वह मानो एक दूसरी दुनिया में पहुंच गई. नख से ले कर शिख तक एक अजीब सा करंट शरीर में दौड़ गया. फिर यह हर रोज का सिलसिला हो गया. शुरू में उस का खर्च मुग्धा उठाती थी. अब उलटा होने लगा था. मुग्धा का खर्च स्नेहा उठाती थी, जो एक बार में 2 हजार रुपए के लगभग बैठता था.

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स्नेहा झूठ बोल कर घर से ज्यादा पैसे मंगाने लगी. यहां तक तो बात ठीकठाक रही. लेकिन एक दिन मुग्धा के एक दोस्त अभिषेक (बदला नाम) के कहने पर उस ने चुटकीभर एक सफेद पाउडर जीभ पर रख लिया तो मानो जन्नत जमीन पर आ गई. अभिषेक ने इतनाभर कहा था. इस हुक्कासिगरेट में कुछ नहीं रखा रियल एंजौय करना है तो इसे एक बार चख कर देखो.

स्नेहा की कहानी बहुत लंबी है जिस का सार यह है कि वह अब पार्टटाइम कौलगर्ल बन चुकी है और हर 15 दिन में होशंगाबाद रोड स्थित एक फार्महाउस जाती है जहां नशे का सारा सामान खासतौर से उस सफेद पाउडर की 10 ग्राम के लगभग की एक पुडि़या मुफ्त मिलती है. एवज में उसे अभिषेक और उस के 3-4 रईस दोस्तों का बिस्तर गर्म करना पड़ता है जो अब उसे हर्ज की बात नहीं लगती. यह उस की मजबूरी हो गई है.

अब स्नेहा उस पाउडर के बगैर रह नहीं पाती. लेकिन उस की सेहत गिर रही है. उसे कभी भी डिप्रैशन हो जाता है, नींद नहीं आती, डाइजैशन खराब हो चला है. और सब से अहम बात, वह अपनी ही निगाह में गिर चुकी है. मम्मीपापा से वह पहले की तरह आंख मिला कर आत्मविश्वास से बात नहीं कर पाती. जैसेतैसे पढ़ कर पास हो जाती है.

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स्नेहा के दोस्तों का दायरा काफी बढ़ गया है और उस की कई नई फ्रैंड्स भी उस फार्महाउस में जाती हैं, मौजमस्ती करती हैं, सैक्स करती हैं, नशा करती हैं और दूसरे दिन दोपहर को रूम पर वापस आ कर प्रतिज्ञा भी करती हैं कि अब नहीं जाएंगी. लेकिन नशे की लत उन की यह प्रतिज्ञा हर 15 दिन में कच्चे धागे की तरह तोड़ देती है.

कहानी (दो)

24 वर्षीय प्रबल (बदला हुआ नाम) भी इंजीनियरिंग का छात्र है. फर्स्ट ईयर से ही वह होस्टल में रह रहा है. सिगरेट तो वह कालेज में दाखिले के साथ ही पीने लगा था लेकिन अब कोकीन और हेरोइन भी लेने लगा है.

स्नेहा की तरह वह भी अपने एक दोस्त के जरिए इस लत का शिकार हुआ था. पैसे कम पड़ने लगे तो सप्लायर ने उसे रास्ता सुझाया कि मुंबई जाओ और यह माल बताई गई जगह पर पहुंचा दो. आनेजाने के खर्चे के अलावा 5 हजार रुपए और महीनेभर की पुडि़या मुफ्त मिलेगी. प्रस्ताव सुन कर वह डर गया कि पुलिस ने पकड़ लिया तो… जवाब मिला कि संभल कर रहोगे तो ऐसा होगा नहीं. अगर पुडि़या चाहिए तो यह तो करना ही पड़ेगा.

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ऐसा नहीं है कि प्रबल ने इस लत से छुटकारा पाने की कोशिश न की हो. लेकिन मनोचिकित्सक की सलाह पर वह ज्यादा दिन तक अमल नहीं कर पाया और दवाइयां भी वक्त पर नहीं खा पाया. एक नशामुक्ति केंद्र भी वह गया, कसरत की, बताए गए निर्देशों का पालन किया लेकिन 3-4 महीने बाद ही फिर तलब लगी तो वह वापस उसी दुनिया में पहुंच गया. अब हर 2-3 महीने में वह पुणे, नागपुर, जलगांव, नासिक और मुंबई दिया गया माल पहुंचाता है और 4-6 महीने के लिए बेफिक्र हो जाता है.

प्रबल की परेशानी यह है कि अगर कभी पुलिस के हत्थे चढ़ गया तो फिर वह कहीं का नहीं रह जाएगा. आएदिन अखबारों में छापे की खबरें पढ़ कर वह और परेशान हो जाता है और अपने भीतर की घबराहट से बचने के लिए ज्यादा नशा करने लगता है. वह समझ रहा है कि वह ड्रग माफिया का बहुत छोटा प्यादा बन चुका है, लेकिन इस के अलावा उसे कोई और रास्ता नहीं सूझ रहा कि इस चक्रव्यूह से कैसे निकले.

लगता नहीं कि बिना किसी हादसे के वह बाहर निकल पाएगा और निकल भी पाया तो उस का भविष्य क्या होगा, यह कहना मुश्किल है. लेकिन इसी दौरान उसे इस रहस्यमयी कारोबार के कुछ गुर और रोजाना इस्तेमाल की जाने वाली ड्रग्स के नाम रट गए हैं, मसलन हेरोइन, कोकीन, एलएसडी, क्रिस्टल मेथ, प्वाइंट यानी गांजे वाली सिगरेट और चरस सहित कुछ नए नाम जैसे मारिजुआना, फेंटेनी वगैरहवगैरह.

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नुकसान ही नुकसान

ये ड्रग्स युवाओं को हर लिहाज से खोखला कर रहे हैं जिन के सेवन से 2-4 घंटे का स्वर्ग तो भोगा जा सकता है लेकिन बाकी जिंदगी नर्क बन कर रह जाती है. तमाम ड्रग्स सीधे नर्वस सिस्टम पर प्रभाव डालते हैं, जिन के चलते नशेड़ी वर्तमान से कट कर ख्वाबोंखयालों की एक काल्पनिक दुनिया में पहुंच जाता है जहां कोई चिंता, तनाव या परेशानी नहीं होती, होता है तो एक सुख जो आभासी होता है.

ड्रग्स सेवन के शुरुआती कुछ दिन तो शरीर और दिमाग को होने वाले नुकसानों का पता नहीं चलता लेकिन 4-6 महीने बाद ही इन के दुष्परिणाम दिखना शुरू हो जाते हैं. सिरदर्द, डिप्रैशन, चक्कर आना, भूख न लगना, हाजमा गड़बड़ाना, कमजोरी और थकान इन में प्रमुख हैं.

इन कमजोरियों से बचने के लिए इलाज कराने के बाद युवा ड्रग्स की खुराक बढ़ा देते हैं. यही एडिक्शन का आरंभ और अंत है. यहीं से वे आर्थिक रूप से भी खोखले होना शुरू हो जाते हैं और पैसों के लिए छोटेबड़े जुर्म करने से नहीं हिचकिचाते. चेन स्नैचिंग, बाइक और मोबाइल चोरी, छोटीमोटी स्मगलिंग इन में खास है जिन में कई युवा पकड़े जाते हैं और अपना कैरियर व भविष्य चौपट कर बैठते हैं.

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लड़कियों की तो और भी दुर्गति होती है. उन्हें आसानी से देहव्यापार में ड्रग्स के सौदागर धकेल देते हैं. स्नेहा और मुग्धा जैसी लाखों युवतियां पार्टटाइम कौलगर्ल बन जाती हैं. इन में फिर न आत्मविश्वास रह जाता है और न ही स्वाभिमान. छोटेबड़े नेता, कारोबारी, ऐयाश अफसर और रईसजादे इन युवतियों को भोगते हैं और इन्हें इस दलदल में बनाए रखने के लिए पैसे और ड्रग्स देते व दिलवाते हैं. और जब वे भार बनने लगती हैं तो उन्हें शिवानी शर्मा की तरह कीड़ेमकोड़े की तरह मार दिया जाता है.

चखना मत

इस गोरखधंधे के खात्मे के लिए जिस इच्छाशक्ति की जरूरत है वह न तो नेताओं में है, न अफसरों में. उलटे, वे तो अपनी हवस और पैसों के लिए इस काले कारोबार को और बढ़ावा देते हैं.

बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल के खेल विभाग के एक आदतन नशेड़ी छात्र के मुताबिक, ड्रग्स सेवन की लत एक वाक्य ‘एक बार चख कर तो देख’ से शुरू होती है और जो फिर कभी खत्म नहीं होती. खत्म कुछ युवा हो जाते हैं जो घबरा कर या डिप्रैशन के चलते खुदकुशी कर लेते हैं.

इस खिलाड़ी छात्र का कहना है कि इस चक्कर में कभी कोई युवा भूल कर भी न पड़े. इसलिए उसे एक बार चखने की जिद या आग्रह से बच कर रहना चाहिए. देशभर के होस्टल कैंपस में यह कारोबार फैला है जिस के कभी खत्म होने की कोई उम्मीद नहीं है.

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कई बार युवा साथियों को जानबूझ कर इन जानलेवा नशे की तरफ खींचते हैं. इस के लिए उन्हें लालच दिया जाता है और दबाव भी बनाया जाता है. फिर ड्रग आकाओं के इशारे पर नाचने के अलावा इन के पास कोई और रास्ता नहीं रह जाता. युवतियां नशे के कारोबार की सौफ्ट टारगेट होती हैं जिन्हें ड्रग्स की लत लगा कर बड़े होटलों, फार्महाउसों और बंगलों तक में भेजा जाता है. ये लड़कियां जिंदगीभर पछताती रहती हैं कि काश, पहली बार ड्रग चखी न होती, तो आज उन की यह हालत न होती.

ड्रग्स और उस के कारोबारियों के खिलाफ हर कहीं मुहिम चलती है लेकिन जल्द ही दम तोड़ देती है क्योंकि ड्रग माफियाओं का शिकंजा इतना कसा हुआ है कि उस पर इन अभियानों का कोई असर नहीं होता.

ड्रग्स चख भी मत लेना: भाग 1

साल 1971  में देवानंद अभिनीत और निर्देशित फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ सुपर हिट इसलिए भी हुई थी कि उस में युवाओं के लिए एक सार्थक संदेश था कि ड्रग्स के नशे में फंस कर जिंदगी का सुनहरा वक्त बरबाद मत करो. फिल्म में देवानंद की नशेड़ी बहन जसबीर का रोल जीनत अमान ने इतनी शिद्दत से निभाया था कि लोग उन के अभिनय के कायल हो गए थे. फिल्म का गाना ‘दम मारो दम मिट जाए गम…’ आज के नशेडि़यों का भी पसंदीदा गाना है.

फिल्म में जसप्रीत एक मध्यवर्गीय युवती है जो मांबाप के अलगाव के चलते डिप्रैशन में आ कर हिप्पियों की संगत में फंस कर नेपाल चली जाती है. सालों बाद उस का भाई प्रशांत उसे ढूंढ़ता हुआ काठमांडू पहुंचता है और नशेडि़यों के चंगुल से छुड़ाने के लिए तरहतरह के उपाय करता है.

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लगभग 50 साल बाद भी यह फिल्म प्रासंगिक बनी हुई है, जिस के गवाह हैं ड्रग्स की गिरफ्त में तेजी से आते युवा, जिन्हें सुधारने और नसीहत देने की जरूरत महसूस होने लगी है. 5 दशकों में देश बहुत बदला है लेकिन युवाओं में बढ़ती ड्रग्स की समस्या ज्यों की त्यों है. दरअसल, ड्रग्स का कारोबार बेहद गिरोहबद्ध तरीके से होता है.

एक नई जसप्रीत – शिवानी

मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले की गिनती पिछड़े जिलों में भले ही होती हो लेकिन ड्रग्स के मामले में यह महानगरों से उन्नीस नहीं. 19 वर्षीया छात्रा शिवानी शर्मा शिवपुरी के नवाब साहब रोड की निवासी थी. उस की कहानी ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ की जसप्रीत से काफी मिलतीजुलती है. शिवानी के पिता की मौत 3 महीने पहले ही हुई थी. उस की मां सालों पहले घर छोड़ कर चली गई थीं. अपने चाचाचाची के साथ रह रही शिवानी नशेडि़यों के चंगुल में जो फंसी तो फिर जिंदा इस चक्रव्यूह से बाहर नहीं आ पाई.

शिवानी की लाश शहर की कृष्णपुरम कालोनी के एक चबूतरे पर 6 जुलाई को मिली थी. पुलिस की तफ्तीश में आशंका जताई गई कि उस की हत्या की गई होगी लेकिन साथ ही यह भी कहा गया कि शिवानी की मौत स्मैक की ओवरडोज से हुई थी. पुलिस की कहानी से इतर शिवानी की चाची की मानें तो वह कुछ दिनों से स्मैक का नशा करने लगी थी, जिस की शिकायत उन्होंने पुलिस में भी की थी लेकिन पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की.

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हादसे के 2 दिन पहले ही जूली, रूबी और चिक्की नाम की 3 युवतियों सहित 2 लड़के उसे अपने साथ ले गए थे. फिर शिवानी वापस नहीं आई. शिवानी की बुजुर्ग दादी रोते हुए बताती हैं कि वह अपने हाथ में नशे का इंजैक्शन लगाने लगी थी.

हल्ला मचने पर पुलिस हरकत में आई, तो यह खुलासा हुआ कि पूरी शिवपुरी में ड्रग माफिया सक्रिय है, जिस में पुलिस वालों की मिलीभगत है. आधा दर्जन पुलिसकर्मी भी इस माफिया से मिले हुए थे जिन्हें सस्पैंड कर दिया गया. हद तो उस वक्त हो गई जब शिवपुरी पुलिस का ही एक कांस्टेबल आशीष शर्मा का वीडियो वायरल हुआ जिस में वह नशे का इंजैक्शन लेता हुआ दिखाई दे रहा है.

इसी दौरान शिवपुरी के ही कुछ समाजसेवियों ने नशे के आदी एक नाबालिग बच्चे को पकड़ा था जिस ने बताया था कि स्मैक का इंजैक्शन 250 रुपए में मिलता है और इसे लगाने के लिए वह मैडिकल स्टोर से सीरिंज खरीदता था.

शिवपुरी का यह मामला एक बानगीभर है. दुनियाभर में ड्रग्स का कारोबार बहुत तेजी से फलफूल रहा है और ड्रग माफिया के निशाने पर अधिकतर युवा ही हैं.

हर तीसरी हिंदी फिल्म में दिखाया जाता है कि विलेन ड्रग्स का कारोबार करता है जिस की खेप समुद्री या हवाई रास्ते से आती है और ऐसे आती है कि पुलिस और कस्टम वालों को हवा भी नहीं लगती, यदि लगती भी है तो वे अंजान बने रह कर इस कारोबार को फलनेफूलने देते हैं, एवज में उन्हें तगड़ा नजराना जो मिलता है.

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यत्रतत्र सर्वत्र

कैसे युवा ड्रग्स के जाल में फंसते हैं और उन का अंजाम क्या होता है, इस के पहले यह जान लेना निहायत जरूरी है कि इन दिनों दुनियाभर में ड्रग्स का कारोबार बेहद सुनियोजित और संगठित तरीके से हो रहा है. आएदिन देशभर में ड्रग्स के कारोबारी पकड़े जाते हैं. लेकिन यह भी सच है कि पकड़ी हमेशा छोटीमोटी मछलियां जाती हैं, मगरमच्छों तक तो पुलिस कभी पहुंच ही नहीं पाती. यानी पत्ते तोड़े जाते हैं लेकिन इस नशीले व्यापार की जड़ें और गहरी होती जा रही हैं.

शुरुआत देश के उत्तरी इलाके जम्मूकश्मीर से करें जहां हाल ही में धारा 370 हटाई गई है लेकिन, वहां आतंकवाद से भी बड़ी समस्या ड्रग्स की है. बीती 1 अगस्त को यह उजागर हुआ था कि कश्मीर में ड्रग्स धड़ल्ले से पिज्जाबर्गर की तरह मिलता है और आंकड़े बताते हैं कि बीते 5 सालों में ड्रग्स की लत के शिकार युवाओं की तादाद 10 गुना तक बढ़ी है.

जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर के श्री महाराज हरिसिंह अस्पताल (एसएमएचएस) के डाक्टरों के अनुसार ड्रग्स के नशे के आदी एक 15 वर्षीय लड़के ने सनसनीखेज खुलासा किया है कि कश्मीर में ड्रग्स खुलेआम मिलती है. 8वीं जमात में पढ़ने वाले अहमद (बदला नाम) के मुताबिक कश्मीर में हेरोइन की कीमत 1,800 रुपए प्रतिग्राम है.

यानी ‘उड़ता पंजाब’ की तर्ज पर अब कश्मीर भी उड़ने लगा है. एसएमएचएस के ड्रग डी-एडिक्शन सैंटर के रजिस्ट्रार डाक्टर सलीम यूसुफ के अनुसार तो कश्मीर में 10 साल के बच्चे भी ड्रग्स की लत के शिकार हैं. कश्मीर में 12 फीसदी महिलाएं भी ड्रग्स का नशा करती हैं. इस का जिम्मेदार सलीम साइको सोशल स्ट्रैस को ठहराते हैं. लेकिन उन की नजर में बढ़ती बेरोजगारी भी दूसरी वजह है. इस साल 1 अप्रैल से ले कर 1 जून तक कई नशेड़ी एसएमएचएस में इलाज के लिए भरती हुए थे.

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साल 2019 में पुलिस ने एक छापे में जम्मू से 41 किलो अफगानी हेरोइन जब्त की थी. जिस की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत लगभग 250 करोड़ रुपए है. ड्रग्स की यह तस्करी पाकिस्तान के बौर्डर से होती है. हालात कितने भयावह हैं, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2008 से मई 2018 तक जम्मूकश्मीर के 4 नशामुक्ति केंद्रों में 21,871 मरीज इलाज के लिए भरती हुए थे.

ड्रग्स के कारोबार और खपत के लिए कुख्यात पंजाब और हरियाणा के बाद राजधानी दिल्ली के हालात तो और भी चिंताजनक हैं. 31 जुलाई को राज्यसभा में कांग्रेसी सांसद सुब्बारामी रेडी ने ड्रग्स का मुद्दा उठाते बताया था कि दिल्ली में तकरीबन 25 हजार स्कूली बच्चे ड्रग्स की लत के शिकार हो गए हैं और पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है. बात सच है कि दिल्ली में झुग्गीझोंपडि़यों से ले कर पौश इलाकों तक के युवा ड्रग्स का नशा करते हैं. इन पौश इलाकों में रोजाना रेव पार्टियां होती हैं.

बीती 15 जुलाई को दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने एक हाईप्रोफाइल ड्रग सप्लायर करण टिवोती से लाखों रुपए की ड्रग्स बरामद की थी. करण दिल्ली और एनसीआर की हाईप्रोफाइल पार्टियों को ड्रग्स सप्लाई करता था.

इन्हीं दिनों में पश्चिम बंगाल, गुजरात, और महाराष्ट्र सहित मध्य प्रदेश में भी ड्रग रैकेट्स का भंडाफोड़ हुआ था, जिन में एक सप्ताह में ही तकरीबन 2,000 करोड़ रुपए कीमत की ड्रग्स बरामद हुई थी.

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हर एक की अलग कहानी

तेजी से ड्रग्स के शिकार होते युवाओं की कहानियां भी अलगअलग हैं. एक अंदाजे के मुताबिक अकेले भोपाल में 2 लाख से भी ज्यादा युवा ड्रग ऐडिक्ट हैं. इन में से अधिकतर कालेज के छात्रछात्राएं हैं. उन में से कुछ को भरोसे में ले कर बात की गई तो उन्होंने बताया-

कहानी (एक)

23 वर्षीय स्नेहा (बदला नाम) गुना से भोपाल पढ़ने आई है और भोपाल के त्रिलंगा इलाके में बतौर पीजी रहती है. स्नेहा के पिता सरकारी अधिकारी हैं और हर महीने उसे लगभग 10 हजार रुपए महीने भेजते हैं. जिन में से 5 हजार रुपए मकान के किराए और खानेपीने में खर्च होते हैं.

इंजीनियरिंग के तीसरे साल में पढ़ रही स्नेहा ने ड्रग्स के बारे में सुना जरूर था लेकिन कभी इन्हें देखा नहीं था, फिर सेवन का तो सवाल ही नहीं उठता था. स्नेहा की दोस्ती अपने ही अपार्टमैंट में रहने वाली मुग्धा (बदला नाम) से हुई तो जल्द ही दोनों में गहरी छनने लगी. मुग्धा कभीकभार ड्रग्स लेती थी और यह बात उस ने स्नेहा से छिपाई नहीं थी.

एक शाम स्नेहा मुग्धा के कहने पर गुलमोहर इलाके स्थित एक हुक्का लाउंज में चली गई. वहां का नजारा उसे अजीब लगा. वहां रंगबिरंगी लाइटों के साथ धीमा लेकिन उत्तेजित संगीत बज रहा था. लगभग 30-40 युवा अपनेआप में मशगूल कश खींच रहे थे, इन में 15 लड़कियां थीं. वहां कोई खास शोरशराबा या होहल्ला नहीं था. कई युवा ग्रुप बना कर बैठे थे.

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स्नेहा को यह देख थोड़ी हैरानी हुर्ह कि लड़केलड़कियां हुक्के के कश के अलावा कोई पाउडर भी चख और सूंघ रहे थे और नशे में सैक्सी हरकतें भी कर रहे थे. उसे असहज होते देख मुग्धा ने बताया कि यही तो हम यूथ की जरूरत है जहां कोई बंदिश नहीं, बस मौजमस्ती है. और यही इस उम्र का तकाजा है. बाद में तो शादी कर नौकरी और गृहस्थी के झंझट में बंध जाना है. फिर ये दिन ख्वाब बन कर रह जाएंगे.

जानें आगे क्या हुआ अगले भाग में…

धार्मिक झांसों जैसा सरकारी नौकरियों का लौलीपौप

देश में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और हर तरह की मारामारी कम होने के बजाय बढ़ रही है तो इस की एक बड़ी वजह चालाक पंडेपुजारी भी हैं जो लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए कहते रहते हैं कि आज नहीं तो कल काम तो होगा. ऊपर वाले के यहां देर है अंधेर नहीं. एक दिन वह सब की सुनता है और मनचाहा फल देता है.

हैरानपरेशान लोग इन चालाकों की बातों और  झांसे में आ कर फिर से  झूठी उम्मीद लिए दोगुने जोश से पूजापाठ, भजनकीर्तन, आरती और तंत्रमंत्र तक शुरू कर देते हैं. काम हो न हो, बिगड़ी बात बने न बने, लेकिन इन की उम्मीद जिंदा रहती है.

सरकार चली धर्म की राह

14 जून, 2019 को मध्य प्रदेश के अखबारों में मोटेमोटे अक्षरों में एक खबर छपी थी कि हाईकोर्ट के एक अहम फैसले के बाद राज्य में 15 लाख उम्मीदवारों को नौकरी मिलने का रास्ता खुल गया है, क्योंकि अदालत ने पीएससी के इम्तिहान में उम्र का मसला सुल झा लिया है. इस खबर में यह भी बताया गया था कि किन महकमों में कितने पदों पर जल्द ही कितनी भरतियां होंगी.

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इस खबर को पढ़ कर राज्य के नौजवानों में वही जोश आ गया जो हनुमान, शंकर और राम की पूजा करने के बाद आता है कि आखिरकार ऊपर वाले ने हमारी सुन ली. इस बात पर इन नौजवानों ने गौर नहीं किया कि पदों की तादाद 3,000 भी नहीं है.

3 जुलाई, 2019 को यह खबर छपी थी कि अब सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू हो गई है. इस के तहत सामान्य श्रेणी के गरीब उम्मीदवारों को भी कुछ शर्तों के साथ ही सही नौकरियां मिलेंगी. इस खबर पर फिर बेरोजगार नौजवानों ने मंदिरों में जा कर प्रसाद चढ़ाया कि हे ऊपर वाले, तू बड़ा दयालु है जो हमारी गुहार सुन ली.

इस के बाद एक खबर यह भी आई कि सरकार ने इस बाबत मंजूरी दे दी है कि जल्द ही राज्य में स्पोर्ट्स अफसर के पद भरे जाएंगे. इस पद पर उन खिलाडि़यों को नौकरी का मौका मिलेगा जो खेलों में नैशनल या इंटरनैशनल लैवल पर अपना हुनर दिखा चुके हैं.

दूसरे खेलों में जलवा दिखा चुके खिलाडि़यों को भी आस बंधी कि अब उन की सुन ली गई है और ऊपर वाले ने चाहा तो वे भी जल्द ही सरकारी नौकरी पा कर अच्छीखासी तनख्वाह ले रहे होंगे.

इस के पहले यह खबर भी बेरोजगारों को उम्मीद बंधा गई थी कि अब सरकार जल्द ही हजारों पद भरने जा रही है जिन में पुलिस महकमे में कांस्टेबल, ड्राइवर समेत दूसरे कई छोटेमोटे पदों पर भरतियां की जाएंगी, इसलिए लोगों को नाउम्मीद होने की जरूरत नहीं है. जल्द ही उन्हें नौकरियां मिलेंगी, बस थोड़ा इंतजार करें, अभी सरकारी कागजी खानापूरी चल रही है.

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इसी तरह 23 जुलाई, 2019 को ओबीसी तबकों को 27 फीसदी आरक्षण के बिल को विधानसभा द्वारा मंजूरी दे दी गई. इस से खुश हो रहे पिछड़े तबके के नौजवानों ने यह नहीं सोचा कि जब सरकार के पास नौकरियां ही नहीं हैं तो ऐसे आरक्षण से क्या फायदा.

साफ दिख रहा है कि सरकार भी धर्म की राह चल रही है कि लोगों को उम्मीद बंधाते रहो, जिस से वे बगावत न करें और उम्मीद पर जीते रहें. इस खेल में सरकार पंडेपुजारियों की तरह पेश आ रही है जिस के पास देने को कुछ नहीं है, लेकिन उम्मीद बंधाने के लिए खबरों का खजाना है.

हकीकत है उलट

अकेले मध्य प्रदेश में ही नहीं, बल्कि पूरे देश के हालात उलट हैं. तमाम राज्यों की सरकारें भी तरहतरह की लुभावनी बातों का लौलीपौप नौजवानों को दिखाती रहती हैं कि बस, कुछ ही दिनों में नौकरी मिलने वाली है.

बात मध्य प्रदेश की करें तो यह जान कर हैरत होती है कि सरकार औसतन हर साल 500 नौकरियां भी नहीं दे पा रही है, जबकि हर साल 5,000 मुलाजिम रिटायर हो रहे हैं.

सरकार के आर्थिक एवं सांख्यिकी महकमे के एक अफसर की मानें तो साल 2014 में अलगअलग महकमों में कुल 4 लाख, 45 हजार, 849 रैगूलर पद थे, लेकिन साल 2017 तक आतेआते तकरीबन डेढ़ लाख मुलाजिम रिटायर हो गए और सरकार ने नई भरतियां न के बराबर कीं, शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने अपने कार्यकाल में रिटायरमैंट की उम्र 60 साल से बढ़ा कर 62 साल कर दी थी. इस से भी नौकरियां घटी हैं.

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यह है वजह

सरकार खबरों और प्रचार के जरीए पंडेपुजारियों की तरह सरकारी नौकरियों का लौलीपौप इसलिए दिखा रही है कि उस की नाकामी और खर्च बचाने की मंशा ढकी रहे.

जैसे पंडेपुजारी कहते हैं कि मंदिरों में जा कर ऊपर वाले के दर्शन करो, प्रसाद और पैसा चढ़ाओ तो मनोकामना पूरी होगी, वैसे ही सरकार कह रही है कि पढ़ते रहो, स्कूलकालेज जाओ, एक दिन जरूर नौकरी मिलेगी. लेकिन वह एक दिन कब आएगा, ऐसा वह भी पंडेपुजारियों की तरह नहीं बताती.

जैसे ऊपर वाला पूजापाठ का फल देता है, वैसे ही इम्तिहान का फल भी मिलेगा. तुम लोग बस लगे रहो यानी ‘कर्म करो और फल की चिंता मत करो’ वाले उसूल पर चलो, क्योंकि ‘गीता’ में गलत कुछ भी नहीं लिखा है.

इधर पूजापाठ के लिए मंदिर हैं तो दूसरी तरफ पढ़ाईलिखाई के लिए स्कूल व कालेज और कोचिंग इंस्टीट्यूट हैं. इन दोनों में ही भारीभरकम दक्षिणा चढ़ाने पर फल मिलेगा, फिर इस दौरान भले ही जेब खाली हो जाए, मांबाप के जेवर बिक जाएं, जमापूंजी खत्म हो जाए, इस की चिंता मत करो, क्योंकि ऊपर वाले ने जिस दिन सुन ली उस दिन सारी गरीबी दूर हो जाएगी और पाप धुल जाएंगे.

मंदिरों में ब्राह्मण तुम्हारी बात ऊपर वाले तक पहुंचाते हैं तो स्कूलकालेजों में यही काम शिक्षक करते हैं. जरूरत सच्चे मन से पढ़ने और पूजा करने की है, बाकी सरकार तो आएदिन खबरों के जरीए बताती ही रहती है कि वह नौकरियों के बाबत वैसे ही पदों की बात कर रही है, जैसे पंडेपुजारी टैंट लगा कर अनुष्ठान, भागवत कथा, यज्ञहवन वगैरह किया करते हैं.

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नौकरी से ताल्लुक रखती खबरों और इश्तिहारों से होता यह है कि आज नहीं तो कल नौकरी मिलने की आस में बेरोजगार ऊपर वाले की माला जपते रहते हैं. पर कल किसी ने नहीं देखा, यह बात खुद धर्म के दुकानदार कहते रहते हैं, जिस से कोई उन का गरीबान न पकड़े. सरकार को फायदा यह होता है कि इश्तिहारों और खबरों की अफीम को चाट कर लोग मदहोश पड़े रहते हैं और उन नौकरियों का इंतजार करते रहते हैं जो सालोंसाल नहीं मिलतीं.

इस दौरान जो नौजवान नौकरी की उम्र पार कर चुके होते हैं, वे चायपकौड़े की दुकान खोल कर या छोटेमोटे काम कर तकदीर को कोस कर भड़ास

निकाल लेते हैं, लेकिन न तो वे पंडों का कुछ बिगाड़ पाते हैं और न ही सरकार का.

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क्या बैंक में रखा पैसा डूब सकता है!

जगदीश (बदला नाम) व्यवसायी हैं और आजकल काफी परेशान रह रहे हैं. बैंक अधिकारियों से ले कर रिश्तेदारों व परिचितों तक से पूछते रहते हैं कि बैंक में जमा पैसा कितना सुरक्षित है?

दरअसल, कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर उन्होंने एक पोस्ट देखा था जिस में दावा किया गया था कि अगर आप ने बैंक में अधिक रकम जमा कराया हुआ है, तो उसे निकाल लें क्योंकि देश में बैंक की हालत अच्छी नहीं है और कई बैंक दिवालिया हो सकते हैं. ऐसे में आप का पैसा डूब सकता है.

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दूसरा एक पोस्ट था, जो यह दावा करता नजर आ रहा था कि बैंक में आप के भले ही लाखों रूपए जमा हैं, लेकिन यदि वह बैंक दिवालिया हो गया अथवा डूब गया तो आप को सिर्फ 1 लाख रूपए ही मिलेंगे.

तो फिर सचाई क्या है

यह अकेले जगदीश की चिंता नहीं, कई लोगों की है. सोशल मीडिया में आए इस तरह की खबर पर हालांकि आरबीआई ने सफाई दी और आगे आ कर खबरों को मनगढंत बताया.

मगर हद तो तब हो गई जब ओडिशा के एक सरकारी मुलाजिम ने सरकारी बैंकों में पैसा रखने के लिए आगाह किया है.

ओडिशा सरकार में प्रधान सचिव एकेके मीणा ने दरअसल कई विभागों को पत्र लिखा था. मुंबई के पीएमसी बैंक घोटाले व कुछ वित्तीय संस्थानों की खस्ता होती वित्तीय हालात के बाद मीणा के इस खत को ले कर सनसनी भी फैल गई, जिस में उन्होंने कहा था कि अगर कोई विभाग किसी बैंक में पैसा जमा करता है तो यह उस की खुद की व्यक्तिगत जिम्मेदारी होगी.

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आरबीआई ने जताया कड़ा ऐतराज

मीणा के इस पत्र पर आरबीआई ने कङा ऐतराज जताया और एक अधिकारी ने बयान जारी करते हुए कहा,”आप को यह जानना चाहिए कि किसी जिम्मेदार पद पर बैठा व्यक्ति अगर इस तरह की बात करता है तो आम जनता में भय का माहौल पैदा हो सकता है. इस का असर बैंकों को वित्तीय लेनदेन पर भी उठाना पङ सकता है.”

आननफानन में तब मीणा को भी सफाई देने के लिए आगे आना पङा. मीणा ने कहा,”राज्य सरकार प्रदेश में किसी भी बैंक की वित्तीय सेहत पर कोई विचार नहीं रखती.”

मीणा के पत्र पर हालांकि खूब बवाल भी मचा था पर उस वक्त उन्होंने कुछ अखबारों की खबरों की ओर भी ध्यान दिलाया था, जिन में बैंकों की वित्तीय सेहत खस्ता होने के बारे में बताया गया था.

वायरल सच क्या है

यह सही है कि बैंक अगर किसी मुसीबत में है अथवा किसी वित्तीय परेशानी में, तो वह आप के जमा किए गए रुपयों का इस्तेमाल कर सकता है.

लेकिन सच यह भी है कि अभी तक ऐसी कोई नौबत नहीं आई है कि बैंक जमाकर्ता को पैसा वापस न कर पाया हो.

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आमतौर पर जब भी किसी बैंक की वित्तीय सेहत बिगङने लगती है तो आरबीआई यानी भारतीय रिजर्व बैंक कई समाधान कर उसे संभाल लेता है.

जानिए आरबीआई के नियमों को

आप का पैसा बैंक में कितना सुरक्षित है, इस बात की पुष्टि आरबीआई के आधिकारिक वेबसाइट पर भी किया गया है. आप चाहें तो rbi.org.in पर लौगऔन कर वेबसाइट पर दिए गए नियम को देख सकते हैं.

इसलिए कह सकते हैं कि घर की तिजोरी से अधिक बैंक में जमा आप का पैसा अधिक सुरक्षित है.

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