गहरी पैठ

कोरोना के कहर में तबलीगी जमात की नासमझी से जो समस्याएं बढ़ी हैं, उन्होंने केंद्र सरकार को फिर से हिंदू मुसलिम करने का कट्टर कार्ड थमा दिया है. देखा जाए तो देश की जनता को आराम से जीने का मौका देने का वादा दे कर जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार ने अपना एक और दांव, दंगे चला कर अब घरघर में दहशत का माहौल खड़ा कर दिया है. किसी को भी देश का गद्दार कहने का हक खुद ब खुद लेने के बाद अब उन्होंने जगहजगह गोली मारो गद्दारों को नारा गुंजाना शुरू कर दिया है. बिना सुबूत, बिना गवाह, बिना अदालत, बिना दलील, बिना वकील के किसी को भी गद्दार कह कर उसे मार डालने का हक बड़ा खतरनाक है.

न सिर्फ मुसलमानों को डराया जा सकता है, इस नारे से हर उस को डराया जा सकता है, जिस ने अपनी अक्ल लगा कर भगवा भीड़ की मांग को पूरी करने से इनकार कर दिया हो.

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आज देश का दलित, किसान, मजदूर, बेरोजगार युवा, बलात्कारों से परेशान लड़कियां, छोटे व्यापारी सरकारी फैसलों से परेशान हैं. दलितों के घोड़ी पर चढ़ कर शादी करने पर मारपीट ही नहीं हत्या कर दी जाती है और जिस ने भी उस के खिलाफ आवाज उठाई, उसे गद्दार कह कर गोली मारने का हक ले लिया गया है. अगर किसान कर्ज माफ करने के लिए सरकार के खिलाफ मोरचा खोलें तो उन्हें गद्दार कहा जा सकता है. अगर व्यापारी नोटबंदी, जीएसटी और बैंकों के फेल होने पर होने वाले नुकसान की बात करें तो उन्हें गद्दार कहा जा सकता है. नागरिकता कानून ?की फुजूल की बात करने वाले को गद्दार कहने का हक है. छोटीबड़ी अदालतों में वकीलों के झुंड मौजूद हैं जो अपने हकों को मांगने वालों को गद्दार कह कर जज के सामने तक नहीं जाने दे रहे. जजों को गद्दार कह कर उन का रातोंरात तबादला कर दिया जा रहा है.

सारे देश में सरकार डिटैंशन सैंटर बनवा रही है जो आधी जेल की तरह हैं जहां नाममात्र का खाना मिलेगा, नाममात्र के कपड़े मिलेंगे, पर बरसों रहना पड़ सकता है. उन को गुलाम बना कर उन से काम कराया जा सकता है. लड़कियों को बदन बेचने पर मजबूर किया जा सकता है. यह हिटलर ने जरमनी में किया था. स्टालिन ने रूस में किया था. माओ ने चीन में किया था. कंबोडिया में पोलपौट ने किया था.

गद्दार कह कर कैसे सिर फोड़े जा सकते हैं. घरों को जला कर सजा दी जा सकती है. इस का नमूना दिल्ली में दिखा दिया गया. जिन्होंने किया वे आजाद घूम रहे हैं. जो शांति के लिए जिम्मेदार हैं, वे भड़काऊ भाषण देने में लगे हैं.

इस सब से मुसलमानों को तो लूटा जा ही रहा है, दलित और पिछड़े भी लपेटे में आ गए हैं. आज सरकारी नौकरियों में केवल ऊंचों को पद देने का हक एक बार फिर मिल गया है, क्योंकि या तो सरकारी काम ठेके पर दे दिए गए हैं या बंद कर दिए गए हैं. दहशत के माहौल की वजह से कोई बोल नहीं पा रहा. कन्हैया कुमार जो बिहार में भारी भीड़ जमा कर रहा था को अब दिल्ली की अदालतों में बुला कर परेशान करने की साजिश की जा रही है. चंद्रशेखर आजाद को बारबार लंबी जेल में भेज दिया जाता है. हार्दिक पटेल का मुंह बंद कर दिया गया है.

देश को अमन चाहिए, क्योंकि अगर पेट में आधा खाना ही हो, कपड़े फटे हुए हों तो भी अगर चैन हो तो जिंदगी कट जाती है. अब यह चैन भी गद्दार के नारे के नीचे दब रहा है.

पूरी दुनिया कोरोना की महामारी से जूझ रही है. लौकडाउन के बाद जरूरी कीमती सामान से लदे ट्रक जहां थे वहीं खड़े हैं. पहले भी हालात ट्रक ड्राइवरों के पक्ष में कहां थे. देखें तो देश के ट्रक ड्राइवरों की जिंदगी वैसे ही उबाऊ और खानाबदोशी होती है, उस पर हर नाके पर, हर सड़क पर बैठे खूंख्वारों से निबटना एक आफत होती है. सेव लाइफ फाउंडेशन का अंदाजा है कि ट्रक ड्राइवर हर साल तकरीबन 50,000 करोड़ रुपए रिश्वत में देते हैं. रिश्वत ट्रैफिक पुलिस वाले, टैक्स वाले, नाके वाले, चुंगी वाले, पोल्यूशन वाले तो लेते ही हैं, अब धार्मिक धंधे करने वाले भी जम कर लेने लगे हैं. धार्मिक धंधे वाले ट्रकों और टैक्सियों को रोक कर ड्राइवरों से उगाही करते हैं.

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कोई कह सकता है कि यह रिश्वत तो मालिक की जेब से जाती होगी, पर यह गलत है. बहुत से ट्रकों को लगभग ठेके पर दे दिया जाता है कि ट्रक पहुंचाओ, रास्ते में जो हो, भुगतो और एकमुश्त पैसा ले लो. ड्राइवर को ऐसे में अपने मुनाफे में कटौती नजर आती है. वह कानूनी, गैरकानूनी दोनों रोकटोक पर रिश्वत देने में हिचकिचाता है और अकसर झगड़ा हो जाता है और मारपीट तक हो जाती है तो नुकसान ट्रक ड्राइवर का ही होता है.

ड्राइवरों की जिंदगी वैसे ही बड़ी दुखद है. उन्हें 12 घंटे ट्रक चलाना होता है, इसलिए अकसर वे शराब और दवाओं का नशा करते हैं. देश की सड़कें बेहद खराब हैं जो ट्रक चलाने में ड्राइवर की हड्डीपसली दुखा देती हैं. आमतौर पर सड़कों पर लाइट नहीं होती. अंधेरे में चलाना मुश्किल होता है. भारत में अब तक सुरक्षित ट्रक नहीं बनने शुरू हुए हैं. ड्राइवरों के केबिन एयरकंडीशंड नहीं होते, उन ट्रकों के भी नहीं जिन में खाने के सामान या दवाओं के लिए रेफ्रीजरेटर लगे होते हैं, इसलिए बेहद गरमीसर्दी का मुकाबला करना पड़ता है. बहुत से ड्राइवरों को बदलते साथियों के साथ चलना होता है.

हमारे यहां ड्राइवरों को रास्ते में सोने के लिए ढाबों पर पड़ी चारपाइयां ही होती हैं, जिन पर न गद्दे होते हैं, न पंखे तक.

घरों से दूर रहने की वजह से ड्राइवर राह चलती बाजारू औरतों को पकड़ते हैं, पर वे लूटने की फिराक में रहती हैं. उन के गैंग अलग बने होते हैं जो परेशान करते हैं. ड्राइवरों को बीवियों की चिंता भी रहती है कि उन के पीछे वे औरों के साथ तो नहीं आंखें लड़ा रहीं.

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यही वजह है कि आज 1000 ट्रकों पर 400-500 ड्राइवर ही मिल रहे हैं. ट्रांसपोर्ट उद्योग को ड्राइवरों की कमी की वजह से भारी नुकसान होने लगा है. एक तरफ बेरोजगारी है, पर दूसरी तरफ ट्रेनिंग न मिलने की वजह से ड्राइवरों की कमी है. ट्रेनिंग तो आज सिर्फ जय श्रीराम कह कर मंदिर के धंधे कैसे चलाए जाएं की दी जा रही है.

गुरुजी का नया बखेड़ा

झारखंड मुक्ति मोरचा के सुप्रीमो शिबू सोरेन उर्फ गुरुजी ने राज्य में स्थानीय नीति यानी डोमिसाइल नीति को ले कर एक बार फिर बखेड़ा खड़ा कर दिया है.

उन्होंने यह कह कर नया सियासी बवाल मचा दिया है कि पिछली रघुवर दास सरकार की डोमिसाइल नीति आदिवासी विरोधी है. इस के बाद राज्य में एक नई बहस छिड़ गई है और आदिवासी आंदोलन नए सिरे से गोलबंद होता दिखाई देने लगा है.

इस पर शिबू सोरेन का कहना है कि स्थानीय नीति का आधार साल 1932 का खतियान होना चाहिए. गौरतलब है कि रघुवर दास सरकार ने डोमिसाइल नीति 1985 को कट औफ डेट रखा था.

हिंसक आंदोलनों के बाद साल 2015 में झारखंड की डोमिसाइल नीति जमीन पर उतरी थी. साल 2000 से इस मसले को ले कर भड़की आग ने कई सरकारों की लुटिया डुबो दी थी.

इस के पहले राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी हुए थे. शिबू सोरेन के सुर में सुर मिला कर झामुमो के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य कहते हैं कि 1985 के आधार पर स्थानीय नीति जायज नहीं है. अब इस नीति को ले कर नए सिरे से विचार किया जाएगा.

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साल 2015 में लागू की गई डोमिसाइल नीति के तहत 30 साल से झारखंड में रहने वाले अब झारखंडी (स्थानीय) करार दिए गए. इस के तहत झारखंड सरकार द्वारा संचालित व मान्यताप्राप्त संस्थानों, निगमों में बहाल या काम कर रहे मुलाजिमों, पदाधिकारियों और उन के परिवार को स्थानीय माना गया है.

झारखंड राज्य और केंद्र सरकार के मुलाजिमों को स्थानीयता का विकल्प चुनने की सुविधा दी गई है. अगर वे झारखंड राज्य को चुनेंगे तो उन्हें और उन की संतानों को स्थानीय नागरिक माना जाएगा.

इस के बाद वे अपने पहले के गृह राज्य में स्थानीयता का फायदा नहीं उठा सकेंगे, वहीं झारखंड को नहीं चुनने की हालत में वे अपने गृह राज्य में स्थानीयता का लाभ ले सकेंगे.

भौगोलिक सीमा में निवास करने वाले वैसे सभी लोग, जिन का खुद या पुरखों का नाम पिछले सर्वे खतियान में दर्ज हो व मूल निवासी, जो भूमिहीन हों, उन के संबंध में उन की प्रचलित भाषा, संस्कृति और परंपरा के आधार पर ग्राम सभा द्वारा पहचान किए जाने पर उन्हें स्थानीय माना गया है.

इस के साथ ही वैसे लोगों को भी स्थानीय माना गया है, जो कारोबार और दूसरी वजहों से पिछले 30 साल या उस से ज्यादा समय से झारखंड में रह रहे हों और अचल संपत्ति बना ली हो. ऐसे लोगों की बीवी, पति और संतानें स्थानीय मानी गई हैं.

गौरतलब है कि राज्य में आदिवासियों की आबादी 26 फीसदी ही है और 74 फीसदी गैरआदिवासी हैं. झारखंड मुक्ति मोरचा के विधायक नलिन सोरेन कहते हैं कि उन की पार्टी शुरू से ही साल 1932 को आधार मान कर स्थानीय नीति बनाने की मांग करती रही है. नई डोमिसाइल नीति से आदिवासियों का हक मारा गया है. इस नीति में आदिवासियों की अनदेखी कर गैरआदिवासियों का ध्यान रखा गया है.

गौरतलब है कि झारखंड सरकार ने 22 सितंबर, 2001 को बिहार के नियम को अपनाया था. संकल्प संख्या-5, विविध-09/2001, दिनांक 22 सितंबर, 2001 द्वारा बिहार के श्रम, नियोजन एवं प्रशिक्षण विभाग के सर्कुलर 3/स्थानीय नीति 5044/81806, दिनांक 3 मार्च, 1982 को आधार बनाया गया. इसी आधार पर खतियान (पिछला सर्वे रिकौर्ड औफ राइट्स) को स्थानीयता का आधार माना गया है.

साल 2000 में बिहार से अलग हो कर नया झारखंड राज्य बनने के बाद राज्य में डोमिसाइल नीति को ले कर आंदोलन चल रहा था. नया झारखंड राज्य बनने के बाद से 2015 तक 10 बार मुख्यमंत्रियों की अदलाबदली हुई, पर हर किसी ने डोमिसाइल नीति पर टालमटोल वाला रवैया ही अपनाया.

बहरहाल, शिबू सोरेन राजनीतिक फायदे को देख कर पाला बदलने और गुलाटी मारने के माहिर खिलाड़ी रहे हैं.

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साल 1980 में वे पहली बार जब सांसद बने, तो उस समय कांग्रेस के साथ थे. 1983 में जनता दल बना तो उन्होंने कांग्रेस को ठेंगा दिखा कर जनता दल का दामन थाम लिया.

2 साल बाद उन्हें लगा कि वहां उन की दाल नहीं गल रही है तो फिर कांग्रेस की गोद में जा बैठे और 1985 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ा. 1990 आतेआते कांग्रेस से उन का मन भर गया और उन्होंने फिर से जनता दल का झंडा उठा लिया.

जनता दल के घटक दल के रूप में उन्होंने चुनाव लड़ा. उन की पार्टी झामुमो के 6 उम्मीदवार जीत कर संसद पहुंच गए.

साल 1993 में शिबू सोरेन का माथा फिर घूमा और वे अपने 6 सांसदों के साथ कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिंह राव के पक्ष में खड़े हो गए, जिस के लिए वे 3 करोड़ रुपए से ज्यादा की घूस लेने के आरोप में भी फंसे हुए हैं.

इस के कुछ समय बाद ही उन का कांग्रेस से मन उचट गया और वे भाजपा के साथ मिल कर नीतीश कुमार को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने की मुहिम में लग गए.

साल 1996 में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री तो बने, पर सदन में बहुमत साबित नहीं कर पाए और जनता दल टूट गया. तब गुरुजी शिबू सोरेन लालू प्रसाद यादव के साथ खड़े हो गए.

साल 2000 में जब अलग झारखंड राज्य बना, तो वे मुख्यमंत्री बनने के लोभ में भाजपा की अगुआई वाले राजग में शामिल हो गए. जब भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को मुख्यमंत्री बना दिया तो शिबू बिदक कर कांग्रेसराजद गठबंधन की छत के नीचे जा बैठे.

साल 2007 में मधु कोड़ा को झारखंड का मुख्यमंत्री बनाने में उन्होंने मदद की और साल 2008 में खुद मुख्यमंत्री बनने के चक्कर में कोड़ा की सरकार को गिरा दिया था. अब अपनी पार्टी और बेटे की सरकार में वे उलटपुलट बयान दे कर उन के लिए परेशानी खड़ी कर रहे हैं.

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14 मार्च, 2020 को एक पत्रकार ने पूछा कि अब झारखंड में आप की सरकार है, तो क्या राज्य का विकास होगा? इस के जवाब में शिबू सोरेन ने कहा, ‘हम विकास का ठेका लिए हुए हैं क्या?’

पौलिटिकल राउंडअप : चिराग पासवान का ऐलान

पटना. लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान ने 3 मार्च को कहा था कि उन की पार्टी किसानों के मुद्दे पर बिहार विधानसभा चुनाव में उतरेगी.

याद रहे कि बिहार में इस साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होने वाले?हैं. इसी को ध्यान में रख कर 14 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान में होने वाली रैली में लोक जनशक्ति पार्टी का चुनाव घोषणापत्र ‘विजन डौक्यूमैंट 2020’ जारी किया जाएगा. इस में जातपांत मुद्दा नहीं रहेगा, बल्कि प्रदेश का विकास मुख्य मुद्दा होगा.

रजनीकांत का खुलासा

चेन्नई. फिल्म सुपरस्टार रजनीकांत ने 12 मार्च को साफ किया कि तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनने की उन की ख्वाहिश कभी नहीं थी और राजनीति की उन की योजना में भावी पार्टी और उस की अगुआई वाली संभावित सरकार के अलगअलग प्रमुख होंगे.

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याद रहे कि रजनीकांत ने 31 दिसंबर, 2017 को राजनीति में आने का ऐलान किया था और अपनी पहली आधिकारिक प्रैस कौंफ्रैंस में यह भी कहा कि उन की योजना है कि मुख्यमंत्री के तौर पर किसी पढ़ेलिखे नौजवान को आगे किया जाए.

केजरीवाल ने नकारा एनआरसी

नई दिल्ली. केंद्र सरकार के ‘कागज दिखाओ मिशन’ को नकारते हुए दिल्ली विधानसभा में 13 मार्च को एनपीआर और एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव पास कर दिया गया.

इस प्रस्ताव पर हुई चर्चा में हिस्सा लेते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्र सरकार से पूछा कि कोरोना से देश में चिंता बढ़ी है और अर्थव्यवस्था का बुरा हाल हो चुका है. इन समस्याओं से किनारा कर सीएए, एनपीआर, एनआरसी पर जोर क्यों दिया जा रहा है?

उन्होंने केंद्र सरकार पर तंज कसते हुए कहा कि अगर सरकार हम से दस्तावेज मांगे तो दिल्ली विधानसभा के 70 में से 61 विधायकों के पास जन्म प्रमाणपत्र नहीं है, तो क्या उन्हें डिटैंशन सैंटर में रखा जाएगा?

जिन्हें लग रहा था कि केजरीवाल सरकार के प्रति मुलायम हो गए हैं, उन्हें थोड़ा संतोष हुआ होगा कि वे फिलहाल तो सिर्फ मुठभेड़ी माहौल से बच रहे हैं.

योगी के तीखे तेवर

लखनऊ. नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ किए गए प्रदर्शनों में हुई हिंसा में सार्वजनिक संपत्तियों के नुकसान की भरपाई के लिए आरोपियों की तसवीर वाली

होर्डिंग्स प्रदेश सरकार द्वारा लखनऊ में अलगअलग चौराहों पर लगाई गईं. इस पर नाराज होते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन होर्डिंग्स को हटवाने का आदेश दिया. इस के बाद योगी सरकार सुप्रीम कोर्ट गई, पर सुप्रीम कोर्ट ने भी पूछा था कि किस कानून के तहत यह कार्यवाही की गई?

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इस के जवाब में योगी सरकार 13 मार्च को उत्तर प्रदेश रिकवरी औफ डैमेज टू पब्लिक ऐंड प्राइवेट प्रोपर्टी अध्यादेश 2020 ले कर आई, जिसे कैबिनेट से मंजूरी भी मिल गई. इस के तहत आंदोलनोंप्रदर्शनों के दौरान सार्वजनिक या निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने पर कुसूरवारों से वसूली भी होगी और उन के पोस्टर भी लगाए जाएंगे.

यह कानून नितांत लोकतंत्र विरोधी है. भाजपा को पुराणों से मतलब है, संविधान से नहीं. जहां राजा राम शंबूक का गला मरजी के अनुसार काट सकते हैं.

कांग्रेस है डूबता जहाज

रांची. भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता और कभी केंद्रीय मंत्री रहे शाहनवाज हुसैन ने 14 मार्च को कहा कि कांग्रेस की बदहाली के लिए खुद कांग्रेस पार्टी जिम्मेदार है और आज इस की दशा डूबते हुए उस जहाज की तरह हो गई है, जिस पर सवार लोग अपनी जान बचाने के लिए उस में से कूद कर भाग रहे हैं.

शाहनवाज हुसैन ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि कांग्रेस के नौजवानों को यह समझ में आ गया है कि पार्टी नेता राहुल गांधी की अगुआई में न तो उन का भला होने वाला है और न ही देश का भला होने वाला है. मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की घर वापसी हुई है. दूसरे प्रदेशों में भी कांग्रेस में भगदड़ मची है.

कांग्रेस में ऊंची जाति वालों या अंधभक्तों की कमी नहीं जो भाजपा के वर्णव्यवस्था वाले फार्मूले में पूरा भरोसा रखते हैं. ये विभीषण हैं.

गहलोत ने केंद्र को कोसा

जयपुर. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 14 मार्च को राजसमंद जिले में आरोप लगाया कि केंद्र सरकार की गलत नीतियों के चलते देश में अभी मंदी का दौर है. भारत सरकार की गलत नीतियों की वजह से नौकरियां लग नहीं रही हैं… नौकरियां जा रही हैं. ऐसे माहौल में अगर हम लोग ऐसे फैसले करेंगे, जिन का फायदा सब को मिले तो मैं समझता हूं कि आने वाले वक्त में हम लोग स्वावलंबन की तरफ बढ़ सकेंगे.

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अपनी सरकार की तारीफ करते हुए अशोक गहलोत ने कहा कि सरकार राज्य में ढांचागत विकास के साथसाथ पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, सड़कों, ऊंची पढ़ाईलिखाई पर खास ध्यान दे रही है.

यूट्यूब चैनल और साजिश

चंडीगढ़. कांग्रेस विधायक नवजोत सिंह सिद्धू ने 14 मार्च को अपना यूट्यूब चैनल ‘जीतेगा पंजाब’ शुरू किया था, पर इस के 2 दिन बाद ही 16 मार्च को चैनल के चीफ एडमिन स्मित सिंह ने दावा किया कि कुछ ‘पंजाब विरोधी ताकतें’ इसी नाम की फर्जी आईडी बना कर लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रही हैं. ‘जीतेगा पंजाब’ की लौंच के कुछ ही मिनटों के भीतर इसी नाम की सैकड़ों फर्जी यूट्यूब आईडी बन गईं. कुछ पेशेवर लोग जनता के साथ नवजोत सिंह सिद्धू के सीधे जुड़ाव को कम करने में लगे हैं.

इसी गरमागरमी में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने 16 मार्च को ही एक बयान दिया कि उन का अमृतसर के विधायक (नवजोत सिंह सिद्धू) के साथ कोई मसला नहीं है और वे पार्टी में किसी के साथ भी किसी भी मामले पर चर्चा कर सकते हैं.

कांग्रेस हुई कड़ी

अहमदाबाद. राज्यसभा चुनाव से पहले गुजरात कांग्रेस ने 16 मार्च को अपने उन 5 विधायकों को पार्टी से सस्पैंड कर दिया, जिन्होंने हाल ही में विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था. कांग्रेस ने जहां इसे भाजपा की साजिश बताया, वहीं भाजपा ने इन इस्तीफों के पीछे कांग्रेस के कलह को जिम्मेदार बताया. सस्पैंड होने वाले विधायकों में मंगल गावित समेत 4 दूसरे विधायक शामिल थे.

गुजरात की 182 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा के पास 103 सीटें हैं, जबकि कांग्रेस के पास 73 विधायक हैं. भारतीय जनता पार्टी अब देशभर में दूसरे दलों के विधायकों को खरीदने में लग गई है.

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कोरोना वायरस: बीमारी को शोषण और उत्पीड़न का जरिया बनाने पर आमादा सरकार

देश मे आर्थिक इमरजेंसी लगाने की बाते करना भाजपा सरकार की जरूरत हो सकती है, लेकिन देश की जरूरत कतई नही है. सरकार कोरोना वायरस को शोषण का जरिया बनाने पर आमादा है.

जिनकी मदद करनी थी, उनसे ही मदद मांग रहे है, किसानों से,छात्रों से, कर्मचारियो से अर्धसैनिक बलों से मदद मांग रहे है.

जो पीड़ित है, और बीमारों का इलाज करने में लगे हुए है, उनका वेलफेयर फ़ंड मांग रहे है. बेशर्मी के तमाम रिकॉर्ड ही तोड़ दिए है.

कर्मचारियो का डी ए जुलाई 2021 तक फ्रीज कर दिया है, 4 %  जो जनवरी ड्यू था वह नही दिया और आगे को तीन बार का डीए नही मिलेगा यानि कुल मिलाकर वेतन का 15 % के आस पास डीए कट जाएगा. इनकमटैक्स कट ही चुका है. अब भी कट ही रहा है.

टीए न देने का आदेश कर ही चुके है, एक दिन का वेतन एक वर्ष तक काटकर पीएम केयर फ़ंड में देने के आदेश कर दिये है.

निजी कंपनियों को तो उपदेश दिए जाते हैं कि किसी का वेतन न रोकें पर उनके बकाए भुगतान को भी रोका जा रहा है और खुद कर्मचारियों के वेतन काटे जा रहे हैं.

कर्मचारी संगठनों ने इस कटौती का विरोध किया है पर जब तक पंडे पूजारी और उनके इशारे पर चलने वाले टीवी हैं, सरकार को डर नहीं. फिर भाजपा का आईटी सैल भी रात-दिन एक कर मोदी के गुणगान में लगा है ताकि धर्म और उससे चल रहे जातीय भेदभाव बना रहे.

रिटायर्ड फौजी सुप्रीम कोर्ट चले गए है. रिटायर्ड फौजियों का डीए काटना घोर अनर्थ है. उन्होंने कोर्ट में चुनौती दी है. इन्हीं फौजियों का नाम लेकर चुनाव जीते जाते हैं पर अब हाल में चुनाव नहीं हो रहे तो उन्हें कुर्बान कर दिया गया है.

कर्मचारी संगठन, किसान संगठन, मजदूर संगठन और छोटे दुकानदारों के संगठन मिलकर अडानी अम्बानी की सेवक सरकार का खुलकर विरोध कभी नहीं कर पाएंगे क्योंकि उनके नेता ऊंची जातियों के ही हैं.

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 : आप का दम बाकी बेदम

सियासत में जो सत्ता पर काबिज होता है, वही सिकंदर कहलाता है. इन चुनावों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने इसे दोबारा सच साबित कर दिया. उन्हें दिल्ली की जनता ने अपना दिल ही नहीं दिया, बल्कि ‘झाड़ू’ को वोट भी भरभर कर दिए, 70 में से 62 सीटें.

किसी सत्तारूढ़ दल के लिए इस तरह से अपना तख्त बचाए रख पाना ढोलनगाड़े बजाने की इजाजत तो देता ही है, वह भी तब जब दिल्ली को किसी भी तरीके से जीतने के ख्वाब देखने वाली भारतीय जनता पार्टी के तमाम दिग्गज नेता यह साबित में करने लगे थे कि यह चुनाव राष्ट्रवाद और राष्ट्रद्रोही सोच के बीच जंग है, यह चुनाव भारत और पाकिस्तान के हमदर्दों के बीच पहचान करने की लड़ाई है, यह चुनाव टुकड़ेटुकड़े गैंग को नेस्तनाबूद करने की आखिरी यलगार है.

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पर, दिल्ली की जनता ने पाकिस्तान की सरहदों को वहीं तक समेटे रखने में ही अपनी भलाई समझी और बिजली, पानी, सेहत और पढ़ाईलिखाई को तरजीह देते हुए 8 फरवरी, 2020 को आम आदमी पार्टी के चुनावी निशान ‘झाड़ू’ पर इतना प्यार लुटाया कि 11 फरवरी, 2020 को जब नतीजे आए, तो भाजपाई ‘कमल’ 8 पंखुडि़यों में सिमट कर मुरझा सा गया. कांग्रेस के ‘हाथ’ पर तो जो 0 पिछली बार चस्पां हुआ था, उस का रंग और भी गहरा हो गया.

केजरीवाल के माने

साल 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव से तकरीबन 2 साल पहले जब देश की राजधानी के जंतरमंतर पर एक बूढ़े, लेकिन हिम्मती समाजसेवी अन्ना हजारे ने 5 अप्रैल, 2011 को देश की तमाम सरकारों को भ्रष्टाचार के मुद्दे और लोकपाल की नियुक्ति पर घेरा था, तब अरविंद केजरीवाल और उन के कुछ जुझारू दोस्तों ने दिल्ली की तब की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार को पानी पीपी कर कोसा था और दिल्ली की जनता को सपना दिखाया था कि अगर उसी के बीच से कोई ईमानदार आम आदमी सत्ता पर अपनी पकड़ बनाता है तो यकीनन वह उन को बेहतर सरकार दे सकता है. तब दिल्ली के तकरीबन हर बाशिंदे को ‘मैं आम आदमी’ कहने में गर्व महसूस हुआ था.

अरविंद केजरीवाल का तीर निशाने पर लगा था. साल 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में उन की पार्टी को उम्मीद से बढ़ कर 28 सीटें मिली थीं. भाजपा 32 सीटें जीत कर सब से बड़ी पार्टी बनी थी, जबकि कांग्रेस महज 7 सीटों पर सिमट कर रह गई थी.

इस के बाद अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के समर्थन से 28 दिसंबर, 2013 से 14 फरवरी, 2014 तक 49 दिनों के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे, पर विधानसभा में कांग्रेस और भाजपा के लोकपाल बिल के विरोध में एक हो जाने पर और भ्रष्ट नेताओं पर लगाम कसने वाले इस लोकपाल बिल के गिर जाने के बाद उन्होंने नैतिक आधार पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था.

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इस के बाद साल 2014 में देश में लोकसभा चुनाव हुए और भाजपा की अगुआई वाली सरकार देश में बनी. दिल्ली की सातों सीटें भाजपा को मिलीं. इसे नरेंद्र मोदी युग की शुरुआत माना गया और तब दिल्ली के आगामी विधानसभा चुनाव को ले कर भाजपाई आश्वस्त थे कि अब तो दिल्ली भी उन की हुई, पर अरविंद केजरीवाल की अगुआई में फरवरी, 2015 के चुनावों में उन की आम आदमी पार्टी ने 70 में से रिकौर्ड 67 सीटें जीत कर भारी बहुमत हासिल किया और 14 फरवरी, 2015 को वे दोबारा दिल्ली के मुख्यमंत्री पद पर काबिज हुए.

आप के पिछले 5 साल

अरविंद केजरीवाल ने पिछले 5 सालों में अपने किए गए कामों पर इस बार के चुनाव में जनता से वोट मांगे. उन्होंने तो इतना तक कह दिया था कि अगर उन्होंने काम नहीं कराया है, तो जनता उन्हें वोट न दे.

अरविंद केजरीवाल की यह साफगोई और ईमानदार छवि उन के द्वारा दिल्ली को मुफ्त में बिजली, पानी, मोहल्ला क्लिनिक, साफसुथरे सरकारी स्कूल और चिकित्सा सुविधाओं को जनता तक पहुंचाने के दम पर बनी थी. उन्होंने हर मौके पर दिल्ली पुलिस को आड़े हाथ लिया था और खुद को जनता का कवच बना दिया था.

मुफ्त बिजलीपानी का फार्मूला जनता को बहुत रास आया. 200 यूनिट बिजली मुफ्त मिलना जनता को यह बात सिखा गया कि अगर वह चौकस रहे तो तय कोटे में अपना काम भी चला सकती है और बिजली बचाने में अपना योगदान भी दे सकती है. अब उसे सरकारी खंभे में कांटा लगाने की जरूरत नहीं थी. मुफ्त पानी ने तो सोने पर सुहागे जैसा काम किया. बहुत से लोग टैंकर माफिया के चंगुल से निकल गए.

अरविंद केजरीवाल के दूसरे वजीर मनीष सिसोदिया ने एक कदम आगे बढ़ कर सरकारी स्कूलों के साथसाथ सरकारी अस्पतालों में कई ऐसे सुधार किए कि दिल्ली की जनता के जेहन में यह बात बैठ गई कि सरकार का मन हो तो वह अपनी अवाम का खयाल रख सकती है. इस के साथ ही आम आदमी पार्टी ने कच्ची कालोनियों को पक्का करने की अपनी मुहिम भी चलाए रखी.

चुनाव से ठीक पहले दिल्ली की सरकारी बसों में महिलाओं को मुफ्त में सफर करने का जो तोहफा इस सरकार ने दिया, वह गरीब जनता की जेब पर सीधा असर डाल गया. निचले तबके की औरतों और लड़कियों को इस से बहुत फायदा मिला.

भाजपा के दांव पड़े उलटे

एक के बाद एक कई राज्यों में अपनी सरकार गंवाने वाली और दिल्ली में मजबूत चेहरे और आपसी तालमेल से जूझ रही भारतीय जनता पार्टी के पास अरविंद केजरीवाल को घेरने के लिए कोई खास मुद्दे थे ही नहीं.

दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी अपनी ‘रिंकिया के पापा’ वाली इमेज से बाहर निकल ही नहीं पा रहे थे. दूसरे बड़े नेता भी अपने कार्यकर्ताओं से दूरी बनाए हुए थे.

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शायद सभी इस बात की राह देख रहे थे कि कब नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपनी जादुई छड़ी घुमाएंगे और दिल्ली में बिना कोई मेहनत किए सत्ता उन की झोली में आ गिरेगी.

लेकिन जब आलाकमान को ऐसा होता नहीं दिखा तो उस ने अपना वही पुराना हिंदूमुसलिम कार्ड खेला और सीएए के लागू होने पर भारत के मुसलिम समाज में छटपटाहट हुई, तो दिल्ली में धरने पर बैठे शाहीन बाग के लोगों को टुकड़ेटुकड़े गैंग से जोड़ने की तिकड़म भिड़ाई गई.

गृह मंत्री अमित शाह अपने रंग में दिखाई दिए और उन्होंने अरविंद केजरीवाल को शाहीन बाग का अगुआ बताते हुए आतंकवादी तक कह दिया, तो उन का एजेंडा सामने आ गया कि वे दिल्ली में वोटों का ध्रुवीकरण कर के सारे हिंदू वोट अपने पक्ष में कर लेना चाहते हैं.

इस के अलावा भाजपा के पास कोई भी ऐसा चेहरा नहीं था, जो मुख्यमंत्री पद का इतना तगड़ा दावेदार हो जो अरविंद केजरीवाल को टक्कर दे सके. यहां भी नरेंद्र मोदी का चेहरा दिखा कर राष्ट्रवाद के नाम पर जनता से वोट बटोरने की सोची गई थी जिसे जनता ने नकार दिया.

भाजपा ने उस समय अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी, जब उस ने जनता को अरविंद केजरीवाल की खामियां तो खूब गिनाईं, पर यह नहीं बताया कि अगर वह सत्ता में आई तो दिल्ली वालों की भलाई के क्याक्या काम करेगी. उस के लोकल नेता भी जनता के सामने नरेंद्र मोदी की ही बातें करते दिखे. कश्मीर, गाय, राम मंदिर, अर्बन नक्सली की हवाहवाई चिंघाड़ लगाते रहे.

सब से बड़ी बात तो यह कि भारतीय जनता पार्टी अरविंद केजरीवाल को घेरने में पूरी तरह नाकाम रही. उस के पास आम आदमी पार्टी द्वारा जनता को दी गई सुविधाओं का कोई जवाब नहीं था. न ही कोई ऐसा रोडमैप था, जो सत्ता में आने के लिए उस की राह बनता. यही वजह थी कि भाजपा के इतने तामझाम के बाद भी दिल्ली की जनता ने अपना विश्वास आम आदमी पार्टी में दिखाया और पूरे देश के लिए एक रोल मौडल पेश किया कि केंद्र सरकार की नाराजगी और सीमित सरकारी खजाने के बावजूद अगर कोई मुख्यमंत्री चाहे तो वह अपने राज्य के लोगों की भलाई के काम कर सकता है.

कांग्रेस गई गड्ढे में

लगता है, कांग्रेस यह मान कर चल रही है कि अब वह वहीं लड़ेगी जहां कम से कम नंबर 2 पर तो आ ही जाए. दिल्ली के इन चुनाव ने तो यही साबित किया है. साल 2015 के बाद अब साल 2020 में भी नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा. कभी दिल्ली और देश में अपनी धाक जमाने वाली इस पार्टी की जीरो इस बार भी नहीं टूटी, तो सवाल उठता है कि दिल्ली की जनता ने उसे पूरी तरह क्यों नकार दिया? वह क्यों एक नालायक छात्र की तरह पूरे चुनाव में इम्तिहान देने से बचती रही? क्यों नाम के लिए हिस्सा लिया और अपनी मिट्टी पलीद करा ली?

लगता है, कांग्रेस ने अपनी कमियों पर आंखें मूंदे रहने का मन बना लिया है. उस के पास कीमती 5 साल थे, जिन में वह जनता से जुड़ कर अपनी सियासी जमीन को दोबारा बंजर से उपजाऊ बना सकती थी.

याद रहे कि आम आदमी का आज का वोटर कल का कांग्रेसी प्रेमी था. ऐसे में सुभाष चोपड़ा को आगे कर देना कांग्रेस के लिए खुदकुशी कर देने जैसा था.

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इस पर कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी का यह कहना कि सब को मालूम था कि आम आदमी पार्टी फिर से सत्ता में आएगी, पार्टी के गिर चुके कंधों की तरफ इशारा करता है.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ अपनी हार से ज्यादा इस बात पर खुश दिखे कि बड़ेबड़े दावे करने वाली भाजपा का ऐसा हश्र हुआ?

हो सकता है कि कांग्रेस चाहती हो कि किसी भी तरह भाजपा को दिल्ली की सत्ता से दूर रखा जाए. अगर वह चुनाव में दम दिखाती तो आम आदमी पार्टी के वोट बैंक में ही सेंध लगाती. इस से भाजपा ही मजबूत होती तो उस ने पहले से ही सोचीसमझी चाल के तहत दिल्ली की गद्दी अरविंद केजरीवाल को सौंप दी.

पर अगर ऐसा है, तो यह राहुल गांधी के सियासी सफर को और ज्यादा मुश्किल बना देगा, क्योंकि राजनीति में कब, कौन पलटी मार दे, कह नहीं सकते.

केजरीवाल की चुनौतियां

अगले 5 साल फिर केजरीवाल. इस जीत से आम आदमी पार्टी की कामयाबी का ग्राफ बहुत ज्यादा बढ़ा है, तो चुनौतियां भी कम नहीं हैं. अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की जनता से जो 10 वादे किए हैं, उन्हें उन पर खरा उतरना होगा. मुफ्त की सुविधाओं और सरकारी खजाने के बीच भी तालमेल बनाना होगा. सब से बड़ी समस्या तो दिल्ली के सामने गंदगी की है.

आज जहां देखो, कचरा ही कचरा दिखाई देता है और अरविंद केजरीवाल दिल्ली को लंदन बनाने के ख्वाब देख रहे हैं. दिल्ली की कच्ची बस्तियों के हाल तो और भी बुरे हैं. नाले पर बस्ती है या बस्ती में से नाला है, इस का पता ही नहीं चलता है. बहुत से मोहल्ला क्लिनिक तक गंदगी का दूसरा नाम बन गए हैं.

आप वाले कह सकते हैं कि नगरनिगम पर भाजपा का कब्जा है, तो वह कैसे साफसफाई की मुहिम चलाए? लेकिन जनता तो आप पर ही विश्वास करती है न? सफाई मुहिम को जनता की मुहिम बना कर भी इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है और जब नगरनिगम के चुनाव हों, तो उन पर भी कब्जा जमाया जा सकता है.

इस के अलावा बेरोजगारी, माली मंदी और बढ़ती आबादी दिल्ली को बैकफुट पर ला रही है. अरविंद केजरीवाल ने जीतने के बाद दिल्ली को ‘आई लव यू’ कहा है, तो उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि जिस से प्यार करते हैं, उस का हर तरह से खयाल भी रखा जाता है. लिहाजा, वे दिल्ली में ही जमे रहें और पिछली बार की तरह अभी से देश की सियासत पर कब्जा जमाने के सपने न देखें, क्योंकि अभी इस लिहाज से आप के लिए भी दिल्ली दूर है.

आप की महिला उम्मीदवार भी कम नहीं

चुनाव से ऐन पहले दिल्ली की महिलाओं को डीटीसी बस में मुफ्त सफर कराने के ऐलान ने आम आदमी पार्टी को बहुत फायदा पहुंचाया. उसे दिल्ली की गद्दी पर तीसरी बार पहुंचाने में महिला वोटरों ने खूब योगदान दिया.

वैसे, इस बार के विधानसभा चुनाव में कुल 79 महिलाएं बतौर उम्मीदवार मैदान में थीं, लेकिन जलवा रहा आम आदमी पार्टी की 8 महिलाओं का. अरविंद केजरीवाल ने 9 महिला उम्मीदवारों को टिकट दी थी, जिन में से 8 ने जीत हासिल की.

कांग्रेस ने 10 महिला उम्मीदवारों पर दांव लगाया था, पर एक भी सीट नहीं हासिल हो पाई. ऐसा ही कुछकुछ भाजपा का भी हाल रहा. उस ने सब से कम 5 महिला उम्मीदवारों को टिकट दी थी, पर उन में से एक भी नहीं जीत पाई.

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सफाई वाले का बेटा भी विधायक बना इस चुनाव में 18 ऐसे चेहरे हैं, जो पहली बार विधानसभा में पहुंचे हैं. इन में से 16 विधायक तो आम आदमी पार्टी के ही हैं और 2 विधायक भाजपा के हैं. लेकिन सब से ज्यादा सुर्खियां बटोरीं आम आदमी पार्टी के कोंडली सीट से चुन कर आए कुलदीप कुमार ने. वे एक सामान्य परिवार से आते हैं. उन के पिता नगरनिगम में सफाईकर्मी हैं. वैसे, कुलदीप कुमार साल 2007 में पार्षद भी बने थे. वे 30 साल के हैं और इस बार सब से कम उम्र के विधायक बने हैं.

दिल्ली में राजनीति के सफल प्रयोग को बिहार में दोहारने के आसार, पीके ने किया इशारा

राजधानी दिल्ली में आप ने लगातार तीसरी बार सरकार बनाई. सीएम केजरीवाल साल के पहले चुनाव में 70 में से 62 सीटों पर फतह हासिल कर विरोधियों को चारों खाने चित कर दिया. इसबार के दिल्ली चुनाव हर बार से बहुत अलग थे. आम आदमी पार्टी ने इस चुनाव को बहुत ही होशियारी के साथ लड़ा और इसमें विजय भी पाई. लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि दिल्ली जैसा प्रयोग बिहार में भी देखने को मिल सकता है. वैसे तो यूपी और बिहार की राजनीति दिल्ली की राजनीति से बहुत अलग है. यहां के मुद्दों,नेताओं,जनता सभी में काफी असमानताएं हैं फिर भी चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की बातों से ऐसा लग रहा है कि वो भी बिहार की राजनीति में हाथ आजमाना चाहते हैं.

जेडीयू से निकाले गए नेता और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने बिहार के लिए बड़ी योजना का ऐलान कर दिया है. राजधानी पटना में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रशांत ने हालांकि किसी राजनीतिक दल बनाने का तो ऐलान नहीं किया लेकिन उन्होंने राज्य के लाखों युवकों को जोड़ने के लिए ‘बात बिहार की’ कार्यक्रम की घोषणा की. अपनी योजना की घोषणा करते हुए किशोर ने आज कहा कि वह बिहार को देश के अग्रणी राज्यों में शामिल होते हुए देखना चाहते हैं और इसके लिए वह मिशन पर निकलेंगे और युवाओं की फौज तैयार करेंगे. प्रशांत की इस तैयारी को राज्य में तीसरे मोर्चे के संकेत में रूप में भी देखा जा रहा है.

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प्रशांत ने सीधे तौर पर बिहार की राजनीति में एंट्री का ऐलान तो नहीं किया लेकिन ये संकेत तो जरूर दे दिया कि वह भविष्य में ऐसा जरूर कर सकते हैं. बिहार में इस साल नवंबर में चुनाव होने हैं. उससे पहले प्रशांत की ‘बात बिहार की’ कार्यक्रम के जरिए युवाओं को जोड़ने की मंशा को तीसरे मोर्चे की कवायद से जोड़कर देखा जा रहा है. प्रशांत ने कहा कि वह बिहार के युवाओं को राजनीति सिखाएंगे और उन्हें आगे करेंगे. उन्होंने कहा, ‘मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा लेकिन पंचायत स्तर से युवाओं को चुनकर उन्हें आगे बढ़ाया जाएगा.’ उन्होंने दावा किया बिहार में उनके पास सवा लाख सक्रिय सदस्य हैं.

किशोर ने कहा कि वह युवाओं के अपने से जोड़ने के लिए एक कार्यक्रम शुरू करने जा रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘ 20 फरवरी से बात बिहार की नाम से एक कार्यक्रम शुरू करने जा रहा हूं. राज्य के 8,800 पंचायतों में से लड़कों की एक टीम बनाने जा रहा हूं. अभी तक हमारे साथ 2 लाख 93 हजार लड़के जुड़ चुके हैं. हमसे जुड़े लोगों में बीजेपी के भी लोग शामिल हैं. 20 मार्च तक हम राज्य के 10 लाख लड़कों को शामिल करने की योजना है.’ उन्होंने कहा कि बिहार के गांव-गांव से लड़कों को जोड़कर आगे बढ़ाने की रणनीति है. हमारी योजना है कि राज्य में 10 हजार अच्छे मुखिया जीतकर आएं.’

प्रशांत किशोर की राह यहां आसान नहीं होगी क्योंकि उनको शायद नहीं मालूम की अमित शाह की अगुआई में बीजेपी का संगठन हर बूथ पर पन्ना प्रमुख साल भर पहले बना चुका है. बिहार में बीजेपी के 90 लाख तो सिर्फ प्राथमिक सदस्य हैं. अगर बूथ लेवल तक पहुंच को काउंट करें तो संख्या कहीं अधिक हो जाएगी. इसलिए जिस बुनियाद का सपना संजोकर पीके बिहार की राजनीति के महारथियों से लोहा लेने उतरे हैं, उसके बारे में खुद भी आश्वस्त नहीं हैं.

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प्रशांत किशोर ने सामाजिक और आर्थिक सूचकांक गिनाए. हर मोर्चे पर नीतीश कुमार को फेल बताया. उनका कहना था, “लड़कियों को फ्री साइकल मिल गई लेकिन शिक्षा बर्बाद हो गई, बिजली पहुंच गई लेकिन प्रति व्यक्ति आय नहीं बढ़ी. लालू के 15 साल के नाम पर राज करते रहे नीतीश लेकिन बेहतरी के लिए कुछ नहीं किया.” हालांकि प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के लिए पीके क्या करेंगे ये बताना भूल गए. उनकी प्राथमिक शिक्षा नीति क्या होगी ये भी बताना भूल गए. कुल मिलाकर पीके वही काम कर रहे थे जिसे तेजस्वी यादव ठीक से नहीं कर पा रहे हैं.

मोटे तौर पर ये कहा जा सकता है कि पीके ने सरकार की विफलताएं तो खूब गिनाई लेकिन वो बिहार की जनता के लिए क्या करेंगे इसका कोई ठोस रोडमैप वो नहीं बता पाए. पीके भी कुछ वैसा ही कर रहे हैं जैसा की कई सालों से तेजस्वी यादव करते आ रहे हैं. फिलहार तो प्रशांत किशोर की बातों से तो यही समझ आता है कि वो पंचायत स्तर से शुरूआत करके बिहार की राजनीति में बड़ा उलटफेर करने की सोच रहे हैं लेकिन यहां मुकाबला विश्व की सबसे बड़ी पार्टी से है तो पीके को खास रणनीति के साथ मैदान पर उतरलना पड़ेगा.

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तो क्या विकास की राजनीति के आगे फीकी पड़ गई शाहीन बाग की राजनीति

लुटियंस दिल्ली की आवाम ने इस बार भी अरविंद केजरीवाल की दिल खोलकर वोट दिए. विरोधी पार्टियों के खेमों में मातम पसरा हुआ है. भाजपा लगातार हिंदी बेल्टों में चुनाव हारती जा रही है. फिलहाल दिल्ली के चुनावों में दो पार्टियों के बीच ही टक्कर देखने को मिली. भाजपा और आप. भाजपा के पास न तो चेहरा और न ही काम. वहीं इसके उलट आप नेता सीएम केजरीवाल के पास खुद का उनका चेहरा था और पांच साल में दिल्ली में किया गया विकास. इसमें कोई दोराय नहीं कि दिल्ली में सरकारी स्कूलों की हालत बेहतर हुई है. दिल्ली में 24 घंटे बिजली आई और 200 यूनिट तक फ्री बिजली. इसके साथ ही साथ एक ईमानदार छवि.

लगभग 21 दिनों तक चले आक्रामक प्रचार के बावजूद दिल्ली में भाजपा की नैया डूब गई. भाजपा ने ध्रुवीकरण की आक्रामक पिच तैयार कर रखी थी, इसके बावजदू पार्टी को सफलता नहीं मिली. शाहीनबाग में प्रदर्शन से मानों भाजपा को मुंहमागी मुराद जैसा कुछ हाथ लग गया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा सहित अन्य छोटे से लेकर बड़े नेता हर रैली और सभाओं में शाहीनबाग का मुद्दा उछालते रहे. सभाओं में ये नेता जनता के बीच सवाल उछालते रहे कि आप शाहीनबाग के साथ हैं या खिलाफ?

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इसके अलावा शरजील इमाम के असम वाले बयान, जेएनयू, जामिया हिंसा को भी भाजपा ने मुद्दा बनाकर बहुसंख्यक मतदाताओं को साधने की कोशिश की. छोटे से केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली के लिए भाजपा ने जितनी ताकत झोंक दी, उतनी बड़े-बड़े राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने मेहनत नहीं की थी. लगभग 4500 सभाओं का आयोजन किया गया. भाजपा ने गली-गली मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, सांसद-विधायकों की फौज दौड़ा दी. कोई मुहल्ला नहीं बचा, जहां बड़े नेताओं ने नुक्कड़ सभाएं नहीं कीं. भाजपा ने अपने पक्ष में जबरदस्त माहौल बनाने की कोशिश की, लेकिन आम आदमी पार्टी की मुफ्त बिजली-पानी देने की योजना पर पार नहीं पा सकी.

दिल्ली भाजपा के एक बड़े नेता ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर कहा, “केंद्रीय नेतृत्व ने जबरदस्त उत्साह के साथ काम किया. सिर्फ केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने केवल 11 दिनों में 53 सभाएं की, दूसरी तरफ भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने 63 सभाएं की. केंद्रीय नेतृत्व ने महज 21 दिन में चुनाव को टक्कर का बना दिया. लेकिन पूरे पांच साल तक दिल्ली भाजपा सोती रही, जिसकी वजह से हम हार गए.”

भाजपा के नेता मानते हैं कि केजरीवाल ने जिस तरह से दो सौ यूनिट बिजली, महीने में 20 हजार लीटर पानी मुफ्त कर दिया, उससे आम जन और गरीब परिवारों की जेब पर भार कम हुआ है. लाभ पाने वाला गरीब तबका चुनाव में साइलेंट वोटर बना नजर आया.

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बिजली कंपनियों के आंकड़ों की बात करें, तो एक अगस्त को योजना की घोषणा होने के बाद दिल्ली में कुल 52 लाख 27 हजार 857 घरेलू बिजली कनेक्शन में से 14,64,270 परिवारों का बिजली बिल शून्य आया. लाभ पाने वालों ने झाड़ू पर बटन दबाया. दूसरी तरफ, भाजपा का यह भी मानना है कि शाहीनबाग से हुए ध्रुवीकरण का फायदा आप सरकार को हुआ. नागरिकता संशोधन कानून आने के बाद से मुस्लिमों की बड़ी आबादी के मन में डर बैठ गया है. मुसलमानों ने उस पार्टी को जमकर वोट दिया जो भाजपा को हराने में सक्षम थी.

कांग्रेस दिल्ली चुनाव में कहीं नजर नहीं आई, ऐसे में मुसलमानों का अधिकतर वोट आम आदमी पार्टी को गया. यहां तक कि चांदनी चौक, सीलमपुर, ओखला आदि सीटों पर मुस्लिमों का वोट कांग्रेस को न जाकर आम आदमी पार्टी को गया. आम आदमी पार्टी ने महिलाओं पर भी फोकस किया, और इसके जवाब में भाजपा ने कुछ नहीं किया. केजरीवाल सरकार ने बसों में 30 अक्टूबर को भैयादूज के दिन से मुफ्त सफर की महिलाओं को सौगात दी. एक आंकड़े के मुताबिक, प्रतिदिन करीब 13 से 14 लाख महिलाएं दिल्ली में बसों में सफर करती हैं.

स्कूलों की वजह से दिल्ली का एक बड़ा तबका प्रभावित हुआ है. दिल्ली सरकार ने सबसे ज्यादा लाभ निजी स्कूलों की फीस पर अंकुश लगाकर मध्यमवर्गीय जनता को दिया. गौरतलब है कि अधिकांश स्कूल कांग्रेस और भाजपा नेताओं के हैं. ऐसे में केजरीवाल ने फीस पर नकेल कस दी. इसका लाभ मध्यमवर्गीय परिवारों को हुआ है और चुनाव में जिसका सीधा फायदा आप को हुआ.

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भाजपा नेता मानते हैं कि अनाधिकृत कॉलनियों का मुद्दा काम नहीं आया. उलटे ‘जहां झुग्गी, वहां मकान’ का मुद्दा पार्टी के लिए सिरदर्द बन गया. इस योजना को लेकर झुग्गियों में खूब अफवाह फैलाया गया. भाजपा का एक बड़ा वर्ग का यह भी मानना है कि भाजपा का हद से ज्यादा आक्रामक चुनाव प्रचार फायदा देने की जगह नुकसान कर गया. केजरीवाल खुद भाजपा की भारी-भरकम बिग्रेड का बार-बार हवाला देते हुए खुद को अकेला बताते रहे. ऐसे में जनता की केजरीवाल के प्रति सहानुभूति उमड़ी और भाजपा को नुकसान हुआ.

भाजपा को ये समझना पड़ेगा कि सिर्फ राष्ट्रवाद के सहारे चुनाव नहीं जीते जा सकते. चुनाव के लिए आपके पास काम का भी लंबा चिट्ठा सामने होना चाहिए. भाजपा के हाथ से लगातार बड़े राज्य छूटते गए हैं. बात करें तो मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, महाराष्ट्र और अब दिल्ली में भाजपा को करारी हार मिली है. कहीं न कहीं जनता को समझ आ गया है कि केंद्र और  राज्य की राजनीति में फर्क क्या होता है. इसी दिल्ली के लोगों ने पीएम मोदी को सात की सात सीटें लोकसभा में दी थी लेकिन वहीं विधानसभा चुनावों में जीत का सेहरा आप को पहनाया.

दिल्ली-लखनऊ में हिंसा आर या पार, नागरिकता बिल पर बवाल

19 दिसंबर की दिल्ली की ये हिंसा इस कदर हावी हो गई की लोगों के मन में डर बैठ गया है. लोग सहम रहे हैं. इस हिंसा को देख तो यही लगता है कि अब तो दिल्ली की ये हिंसा आर या पार. इस बढ़ती हिंसा के चलते राजधानी दिल्ली के कई मेट्रो स्टेशनों को बंद कर दिया गया, जिसमें भगवान दास, राजीव चौक, जनपथ, वसंत विहार, कल्याण मार्ग, मंडी हाउस, खान मार्केट, जामा मस्जिद, लालकिला, जामिया विश्वनिद्याल, मुनेरका, केंदीय सचिवालय, चांदनी चौक, शाहीन बाग ये सभी मेट्रो स्टेशन शामिल हैं.

लालकिला, मंडीहाउस समेत कई ऐसे क्षेत्र हैं दिल्ली के जहां पर गुरुवार को उग्र प्रदर्शनकारियों ने जमकर प्रदर्शन किया और जगह-जगह पर आगजनी, तोड़-फोड़, पथराव किया. पुलिस को लाठीचार्ज करनी पड़ी, आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े. ऐसा नहीं है कि इस प्रदर्शन में केवल विद्यार्थी ही शामिल हैं बल्कि इस प्रदर्शन में कुछ नेता भी शामिल हैं. एक खबर के मुताबिक इतिहासकार रामचंद्र गुहा और बेंगलुरु में लेखक को तो हिरासत में लिया गया साथ ही योगेंद्र यादब, उमर खालिद, संदीप दीक्षित, प्रशांत भूषण जैसे नेताओं को भी हिरासत में लिया गया है.

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ये सभी नेता नागरिकता बिल को लेकर प्रदर्शन में शामिल है. मेंट्रो के बंद हो जाने के कारण आम जनता को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि लोगों को आवाजाही में दिक्कत हो रही है. तो वहीं राजधानी दिल्ली में कई इलाकों में इंटरनेट सेवा को बंद कर दिया गया है. कालिंग सुविधा बंद कर दी गई है. एसएमएस तक पर रोक लगा दी गई है. ताकि हिंसा को बढ़ावा देने वाले कुछ अवांछनीय तत्व जो अफवाह फैला रहे हैं वो ना कर पाए. लेकिन ऐसे में उन क्षेत्रों में रहने वाले आम नागरिक परेशानी उठा रहे हैं.

इधर जामिया हिंसा को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी करते हुए कहा कि इस पर सुनवाई अब चार फरवरी को होगी. एक तरफ दिल्ली में हिंसा उग्र होती जा रही है तो वहीं गुरुवार को लखनऊ में भी हिंसा अपने चरम पर पहुंचता हुआ नजर आया. वहां पर प्रदर्शनकारी उग्र हो उठे. कई जगहों पर आगजनी, तोड़फोड़ की और इतना ही नहीं बल्कि एक ओबी वैन को भी आग के हवाले कर दिया. कई गाड़ियां धू-धू कर जल रहीं थीं. रोडवेज बसों को भी आग के हवाले कर दिया.

हालांकि जहां पर भी सार्वजनिक संपत्ति को प्रदर्शनकारियों ने नुकसान पहुंचाया है वहां पर सरकार कड़ा रुख अपनाते हुए सख्त कार्रवाई करेगी. लखनऊ के डालीगंज इलाके में हिंसा इतनी तेज हो गई कि पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा और आंसू गैस के गोले भी छोड़ने पड़ें. लखनऊ के इस बढ़ती हिंसा में दो पुलिस बूथ भी बुरी तरह से स्वाहा हो गए. वहां पर इस हिंसा को देखते हुए इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई है. हिंसा का ये रूप देखकर कोई भी सहम जाए. पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच में झड़प हो रही है. प्रदर्शनकारी पुलिस पर उल्टा पथराव करने पर उतारू हैं.

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खबरों के मुताबिक सीएम योगी इन सब को देख कर काफी नाराज हैं और उन्होंने कहा है कि जो भी उपद्रवी सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं उन सबको भरपाई करनी पड़ेगी. उन पर सख्त कार्रवाई की जाएगी. उन्होंने इस इस पर चर्चा के लिए बैठक भी बुलाई है. शायद ये कड़ा रुख अपनाना जरूरी भी था. उपद्रवीयों ने लखनऊ में 20 बाइक, 10 कार व 3 बसों को जला डाला. इतना ही नहीं कवर करने के लिए गई चार मीडियो ओबी वैन को भी आग के हवाले कर दिया. ना जाने ये प्रदर्शन कब तक चलेगा और देश को कब तक इसमें जलना पड़ेगा, क्योंकि ये हिंसा बहुत ही खतरनाक रूप लेती जा रही है और सरकार को जल्द ही इस पर कोई कड़ा रूख अपनाना होगा.

महाराष्ट्र: शरद पवार ने उतारा भाजपा का पानी

कोई नैतिकता, कोई आदर्श, कोई नीति और सिद्धांत नहीं है. जी हां! एक ही दृष्टि मे यह स्पष्ट होता चला गया की महाराष्ट्र में किस तरह मुख्यमंत्री पद और सत्ता के खातिर देश के कर्णधार, आंखो की शरम भी नहीं रखते.

इस संपूर्ण महाखेल मे एक तरह से भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान शीर्षस्थ  मुखिया, प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का शरद पवार ने अपनी सधी हुई चालो से देश के सामने पानी उतार दिया है और क्षण-क्षण की खबर रखने वाली मीडिया विशेषता: इलेक्ट्रौनिक मीडिया सब कुछ समझ जानकर के भी सच को बताने से गुरेज करती रही है.

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नि:संदेह सत्तासीन मोदी और शाह को यह शारदीय करंट कभी भुला नहीं जाएगा क्योंकि अब जब अजित पवार उप मुख्यमंत्री की शपथ अधारी गठबंधन मे भी ले रहे हैं तो यह दूध की तरह साफ हो जाता है की शरद पवार की सहमति से ही अजीत पवार ने देवेंद्र फडणवीस के साथ खेल खेला था.

भूल गये बहेलिए को !

बचपन में एक कहानी, हम सभी ने पढ़ी है, किस तरह एक बहेलिया पक्षी को फंसाने के लिए दाना देता है और लालच में आकर पक्षी बहेलीए के फंदे में फंस जाता है महाराष्ट्र की राजनीतिक सरजमी में भी विगत दिनों यही कहानी एक दूसरे रूपक मे, देश ने देखी. पक्षी तो पक्षी है, उसे कहां बुद्धि होती है. मगर, हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां और उनके सर्वे सर्वा भी ‘पक्षी’ की भांति जाल में फंस जाएंगे, तो यह शर्म का विषय है. शरद पवार नि:संदेह राजनीतिक शिखर पुरुष है और यह उन्होंने सिध्द भी कर दिया.

इस मराठा क्षत्रप में सही अर्थों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की युति को धोबी पछाड़ मारी है.

शरद पवार जानते थे की अमित शाह बाज नहीं आएंगे और सत्ता सुंदरी से परिणय के पूर्व या बाद में बड़ा  खेल खेलेंगे, इसलिए उन्होंने सधी हुई चाल से भतीजे  अजीत पवार को 54 विधायकों के लेटर के साथ फडणवीस के पास भेजा. जानकार जानते हैं की जैसे बहेलिए ने पक्षी फंसाने दाने फेंके थे और पक्षी फस गए थे देवेंद्र फडणवीस और सत्ता की मद में आकर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उस जाल में फस गया. देश ने देखा की कैसे शरद पवार की पॉलिटेक्निकल गेम में फंसकर बड़े-बड़े नेताओं का पानी उतर गया.

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इतिहास में हुआ नाम दर्ज

महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में भगत सिंह कोशियारी और देवेंद्र फडणवीस का इस तरह महाराष्ट्र की राजनीति और इतिहास में एक तरह से नाम दर्ज हो गया. यह साफ हो गया कि 5 वर्षों तक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे देवेंद्र फडणवीस कितने सत्ता के मुरीद हैं की उन्होंने रातों-रात सरकार बनवाने में थोड़ी भी देर नहीं की और जैसी समझदारी की अपेक्षा थी वह नहीं दिखाई.

देश ने पहली बार देखा एक मुख्यमंत्री कैसे 26/11 के शहीदों की शहादत के कार्यक्रम मे अपने उपमुख्यमंत्री अजीत पवार का इंतजार पलक पावडे बिछा कर कर रहे हैं. सचमुच सत्ता की चाहत इंसान से क्या कुछ नहीं करा सकती. इस तरह महाराष्ट्र के सबसे अल्प समय के मुख्यमंत्री के रूप में देवेंद्र फडणवीस का नाम दर्ज हो गया. मगर जिस तरह उनकी भद पिटी वह देश ने होले होले मुस्कुरा कर देखी.

मराठा क्षत्रप शरद भारी पड़े

महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में शरद पवार की धमक लगभग चार दशकों से है. यही कारण है की देश भर में शरद पवार की ठसक देखते बनती है. उन्हें काफी सम्मान भी मिलता है. क्योंकि शरद पवार कब क्या करेंगे कोई नहीं जानता. राजनीति की चौपड़ पर अपनी सधी हुई चाल के कारण वे एक अलग मुकाम रखते हैं.

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सन 78′ में जनता सरकार के दरम्यान 38 वर्षीय शरद पवार ने राजनीति का सधा हुआ  दांव चला था की मुख्यमंत्री बन गए थे. उन्होंने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, जैसी शख्सियतो के साथ राजनीति की क, ख, ग खेली और सोनिया गांधी के रास्ते के पत्थर बन गए थे समय बदला दक्षिणपंथी विचारधारा को रोकने उन्होंने कांग्रेस के साथ नरम रुख अख्तियार किया है और एक अजेय योद्धा के रूप में विराट व्यक्तित्व के साथ मोदी के सामने खड़े हो गए हैं देखिए आने वाले वक्त में क्या वे विपक्ष के सबसे बड़े नेता पसंदीदा विभूति बन कर प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी बनेंगे या फिर…

दिल्ली में बारिश के बाद इनकी कमाई बढ जाती है…

राजधानी दिल्ली में 1-2 दिन की बारिश के बाद एक फोटो खूब वायरल किया जा रहा. फोटो में एक ट्रैक्टर पर 2-3 बाइक ले जाते लोग हैं. नीचे कमर तक पानी है. दरअसल, यह तस्वीर दिल्ली के तुगलकाबाद स्थित प्रह्लादपुर अंडरपास की है जो थोङी देर की बारिश में ही आधा डूब गया. ऐसे में जिन्हें जरूरी काम के लिए इस हो कर गुजरना था उन के लिए समस्या हो गई. अब या तो जमा पानी के अंदर घुस कर जाओ या फिर तैर कर. बाइक वालों के लिए तो यह बङी मुसीबत थी. पानी के अंदर गए तो समझो बाइक में खराबी तय है. पब्लिक को इस समस्या में देख कर  ट्रैक्टर मालिकों के चेहरे खिल उठे. उन्होंने न सिर्फ सवारी बल्कि बाइक को पार कराने के लिए 10 रूपए प्रति व्यक्ति तय कर दी. यानी खुद जाओ या बाइक भेजो 10 रूपए देने ही पङेंगे.

डूब जाती है दिल्ली

यों दिल्ली में हलकी बारिश और वाटर लौगिंग होना आम है. यह अलग बात है कि बारिश से पहले दिल्ली सरकार और एमसीडी बङेबङे वादे तो करती है पर एक ही बारिश के बाद इन की पोलपट्टी खुल जाती है. अभी पिछले साल दिल्ली के मिंटो रोड अंडरपास पर एक बस पूरी तरह डूब गई थी. यह तस्वीर तब देशदुनिया की मीडिया में सुर्खियां बनी थी. एक अखबार ने शीर्षक प्रकाशित कर तंज कसा था,”दिल्ली वाकई पेरिस बन गई.”

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केजरीवाल पर तंज

वैसे दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने से पहले केजरीवाल ने मीडिया से बातचीत में बताया था कि पिछली सरकारें दिल्ली को लूटती रही हैं पर किया कुछ नहीं. अगर उन की सरकार बनी तो दिल्ली को विदेश जैसा बना देंगे. अब दिल्ली में जगहजगह वाटर लौगिंग पर विपक्ष के नेता फोटो के नीचे कैप्शन लगाते हुए तंज करते हैं,”लो जी केजरीवाल ने दिल्ली को वाकई पेरिस बना दिया.” पिछले साल की बारिश में दिल्ली में भयंकर जलजमाव हो गया था. दिल्ली के कई इलाकों में सड़कों पर पानी जमा हो गया था. पंजाबी बाग से ले कर रिंग रोड तक सङकें पानी में डूब गई थीं. जाम इतना लंबा था कि लोगों को अपने गंतव्य तक जाने में घंटों लगे थे.

कोर्ट की सख्ती

इस को देखते हुए तब दिल्ली हाईकोर्ट ने सख्त रूप अपनाया था. कोर्ट ने जल बोर्ड से ले कर शहरी विकास मंत्रालय तक को नोटिस भेज कर जवाब मांगा था. मगर दूसरी ओर दिल्ली में बढती आबादी, कूङेकचरे का सही निस्तारण न होने और सरकारी उदासीनता बङी वजहे हैं. कोर्ट से ले कर तमाम संगठन इस पर चिंता जाहिर कर चुके हैं और संभावना जता चुके हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों ने कोई उपाय नहीं किए तो दिल्ली में भीषण महामारी फैल सकता है.

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