कहा जाता है कि आपदा अपने साथ मौके ले कर आती है. सत्ता साजिशों में कामयाब होती है, तो उन्हें अपने लिए मौकों में तबदील कर लेती है और जनता जागरूक व लड़ाकू होती है तो हालात को अपने मुताबिक ढाल लेती है.
भारत के लिहाज से आज के हालात देखें तो सत्ता इस कोरोना रूपी आपदा को मौके में तबदील करती नजर आ रही है. सरकारों ने लौकडाउन के बीच नियम बनाया कि 33 फीसदी से ले कर 50 फीसदी तक लोग काम कर सकते हैं, मगर साथ में श्रम कानूनों में बदलाव कर के काम के घंटे 8 से बढ़ा कर 12 कर दिए हैं यानी तैयारी ऐसी कि जो मजदूर पलायन कर के जा रहे हैं, उन में से 50 फीसदी के लिए दोबारा आने के दरवाजे बंद हो जाएंगे. कम वेतन में ज्यादा काम करवाने का इंतजाम कर लिया गया है.
भारत में 43 करोड़ मजदूर हैं, जिन में से तकरीबन 39 करोड़ असंगठित क्षेत्र से हैं. मतलब साफ है कि तकरीबन 18 करोड़ मजदूरों की नौकरी जा सकती है. सरकार ने 40,000 करोड़ रुपए मनरेगा के लिए अतिरिक्त आवंटित किए हैं, ताकि कुछ दिनों के लिए मजदूर वहीं लग जाएं और उस समय का इस्तेमाल करते हुए पूंजीवादी मौडल को दुरुस्त कर लिया जाए.
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विदेशों से लाखों लोग हवाईजहाजों से लाए गए व विभिन्न राज्यों में फंसे पैसे वाले परिवारों के छात्रों को एसी बसों से घर लाया गया, मगर मजदूरों की गांव वापसी की राहों में कांटे बिछा कर डरावना अनुभव करवाया जा रहा है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कह रही हैं कि विपक्ष राजनीति कर रहा है, राज्य सरकारें अतिरिक्त ट्रेनों की मांग क्यों नहीं कर लेतीं? वित्त मंत्री को पता है कि सब से बुरी हालत मध्य प्रदेश, बिहार व उत्तर प्रदेश के मजदूरों की हो रही है और तीनों राज्यों में इन की ही सरकार है, मगर वे विपक्ष पर आरोप लगाते हुए कह रही हैं कि पलायन करने वालों की पीड़ा पर राजनीति नहीं करनी चाहिए.