बिहार : सरकारी नौकरियों की चाहत ने बढ़ाई बेरोजगारी

धीरज कुमार

प्रदेश की राजधानी पटना में तकरीबन सभी जिलों के लड़केलड़कियां अलगअलग शहर के कोचिंग सैंटरों में अपना भविष्य बेहतर करने की उम्मीद में भागदौड़ करते देखे जा सकते हैं. उन की एक ही ख्वाहिश होती है कि किसी तरह से प्रतियोगिता परीक्षा में पास कर सरकारी नौकरी हासिल करना.

बहुत से लड़केलड़कियां अपना भविष्य बनाने की चाह में पटना जैसे शहरों में कई सालों से टिके होते हैं, फिर भले ही उन के मातापिता किसान हैं, रेहड़ी चलाने वाले हैं, छोटेमोटे धंधा करने वाले हैं. उन की थोड़ी आमदनी भी होगी, लेकिन वे अपने बच्चे के उज्ज्वल भविष्य के लिए पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहते हैं, चाहे इस के लिए खेत बेच कर, कर्ज ले कर, गहने गिरवी रख कर कोचिंग सैंटरों में लाखों रुपए क्यों न बरबाद करना पड़े.

कोचिंग सैंटर वाले भी इस का भरपूर फायदा उठा रहे हैं. ज्यादातर कोचिंग सैंटर सौ फीसदी कामयाबी का दावा कर लाखों का कारोबार करते हैं, भले ही उन की कामयाबी की फीसदी जीरो के बराबर हो.

अब सवाल यह कि किसी सरकार के पास इतने इंतजाम हैं, जो सभी नौजवानों को नौकरी मुहैया करा देगी? इस सवाल के जवाब के लिए पिछले तकरीबन 10 सालों की  प्रमुख रिक्तियों और बहालियों का विश्लेषण किया गया. राज्य सरकार ने साल 2010 में बिहार में पहली बार शिक्षक पात्रता परीक्षा (टेट) का आयोजन किया था. इस परीक्षा में 26.79 लाख लोगों ने आवेदन किया था, जिन में से मात्र 1.47 लाख अभ्यर्थियों को पास किया गया. इस में कामयाबी का फीसदी मात्र साढ़े 5 फीसदी था. राज्य सरकार ने उन सफल अभ्यर्थियों में से तकरीबन एक से सवा लाख लोगों को नियोजन किया.

उस समय शिक्षकों को सरकार ने  जो बहाली की, उन्हें नियोजन यानी आउटसोर्सिंग पर रखा गया, जिन को सरकार नियत वेतन देती है. नियमित शिक्षकों की तरह वेतन व अन्य सुविधाएं नहीं देती है. हां, चुनाव के समय कुछ पैसे बढ़ा कर वोट बैंक के लिए खुश करने की कोशिश की जाती है.

आज उन्हीं शिक्षकों ने कानून का दरवाजा खटखटा कर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी लड़ाई लड़ी, ताकि उन्हें पुराने शिक्षकों की तरह दूसरी सुविधाएं मिलें. लेकिन वे सरकार और अदालत के चक्रव्यूह में फंस कर हार गए.

राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में भी दलील पेश की है कि स्थायी बहाली नहीं होंगी. पहले की हुई स्थायी बहाली को वर्तमान सरकार डाइंग कैडर यानी मृतप्राय मान चुकी है.

इस का मतलब यह है कि अब जो भी बहाली होगी, वह सिर्फ नियत वेतन पर रखा जाएगा. अब पुरानी बहाली की तरह ईपीएफ, बीमा, पैंशन, ग्रेच्युटी, स्थानांतरण, अनुकंपा पर नौकरी देने का प्रावधान आदि की सुविधाएं खत्म कर दी गई हैं.

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जबकि गैरसरकारी संस्थाओं में आज भी ऐसी सुविधाओं में से कुछ ही दी जाती हैं. यही वजह है कि मेहनत करने वाले लोग प्राइवेट संस्थाओं को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं, लेकिन इस के बावजूद भी कुछ  लोग अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि सरकारी नौकरियों के पीछे भागना फायदेमंद है या नुकसानदायक.

बिहार सरकार स्टाफ सिलैक्शन कमीशन (एलडीसी) 2014 में  तकरीबन 13,000 पदों की बहाली के लिए परीक्षा का आयोजन किया गया. इन पदों पर बहाली के लिए तकरीबन  13 लाख  अभ्यर्थियों ने आवेदन किया था. कई बार यह परीक्षा रद्द की गई. इस परीक्षा को टालते हुए लगभग  5-6 साल बीत जाने के बाद भी अभी उस की बहाली पूरी नहीं की गई है. अगर रिक्तियों के अनुपात में बहाली की संख्या को देखा जाए तो इस परीक्षा में महज  1 फीसदी अभ्यर्थियों का चयन किया जाना है.

बिहार सरकार जानबूझ कर कोई भी बहाली को कम समय में पूरा नहीं करती है, बल्कि उसी बहाली को कई सालों में चरणबद्ध तरीके से पूरा करने की कोशिश करती है, ताकि समय लंबा खिंचे. इस से अभ्यर्थी धीरेधीरे कम होंगे और सरकार के एजेंडे का प्रचारप्रसार ज्यादा होगा. इस तरह सरकार को ज्यादा फायदा मिलेगा. ऐसी प्रक्रिया में कुछ अभ्यर्थियों की तो उम्र भी निकल जाती है, जिस के कारण वे बहाली से पहले ही छंट जाते हैं.

साल 2019 में बिहार पुलिस में कांस्टेबल के 11,880 पदों पर बहाली होनी थी, जिस में तकरीबन 13 लाख अभ्यर्थियों ने आवेदन दिए थे. अभ्यर्थियों के अनुपात में यह महज एक फीसदी से भी कम बहाली की गई. इस के साथ ही कई अन्य छोटीमोटी बहालियां हुईं जैसे दारोगा की बहाली, नर्स की बहाली, पशुपालन विभाग में बहाली वगैरह. इन सभी पदों की बहाली में सीटें कम थीं. इन 10 सालों की बहाली में तकरीबन छोटीबड़ी सभी बहालियां मिला कर तकरीबन डेढ़ से 2 लाख अभ्यर्थियों की बहाली हुई होगी.

ऊपर मोटेतौर पर 2-3 परीक्षाओं का जिक्र किया गया. गौर करने की बात  यह है कि तीनों परीक्षाओं  में तकरीबन 50 लाख अभ्यर्थियों ने हिस्सा लिया, जिन में से तकरीबन 2 लाख लोगों को नौकरी मिल गई.

बिहार के नौजवानों की यह खासीयत है कि एकसाथ कई परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. अगर मान लिया जाए कि तीनों परीक्षा में कुछ लोग समान रूप से सम्मिलित हुए हों, तो तकरीबन 30 से 35 लाख नौजवान 10 सालों में बेरोजगार रह गए यानी उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिल पाई.

राज्य और केंद्र सरकार द्वारा युवाओं में स्किल पैदा करने के लिए ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना’ के तहत कई तरह के प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. लेकिन इन प्रशिक्षण केंद्रों पर प्लेसमैंट की योजना नहीं होने के चलते ये सभी कार्यक्रम कागजों पर ही रह गए हैं. इसी तरह नौकरी से वंचित लोगों की वजह से बेरोजगारों की तादाद काफी बड़ी हो जाती है. उन में से ज्यादातर लोग घर छोड़ कर दूसरी जगह जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं. स्किल की कमी में कम तनख्वाह पर बाहरी राज्यों में काम करना पड़ता हैं.

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नीतीश सरकार अपने शुरू के कार्यकाल में बेरोजगारी दूर करने और रोजगार बढ़ाने के लिए बाहरी राज्यों के गैरसरकारी संस्थाओं को बिहार में आमंत्रित कर नियोजन मेला का आयोजन करती थी, जिस का मीडिया में काफी प्रचारप्रसार भी किया जाता था. इस में दूसरे राज्यों के धागा मिल, कपड़ा मिल, बीमा कंपनियां, सिक्योरिटी कंपनी, साइकिल कंपनी, मोटर कंपनी वगैरह छोटीबड़ी तकरीबन 20-22 कंपनियां हर जिले में आ रही थीं. उस में 18 से 25 साल की उम्र के लड़के और लड़कियों को रोजगार देने का काम किया जाता था. लेकिन लोगों ने गैरसरकारी कंपनी होने के चलते रोजगार हासिल करने में जोश नहीं दिखाया, इसलिए सरकार को वह कार्यक्रम बंद करना पड़ा.

केंद्र सरकार की ओर से की जाने वाली बहाली जैसे रेलवे, बैंक वगैरह में कम कर दी गई हैं या तकरीबन रोक दी गई हैं. फिर भी बिहार के छोटेबड़े शहरों में तैयारी करने वालों की तादाद में कमी नहीं आई है, बल्कि इजाफा ही हुआ है.

साल 2001 से साल 2005 के बीच बिहार सरकार ने 11 महीने के लिए राज्य में शिक्षामित्रों की बहाली की थी. यह बहाली मुखिया द्वारा की गई थी, जिन का मासिक वेतन मात्र 1,500 रुपए था. बाद में आई सरकार ने उन के मासिक वेतन में बढ़ोतरी 3,000 रुपए कर दी. साल 2015 में  वर्तमान सरकार शिक्षकों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने के लिए वेतनमान तो लागू कर दिया, पर आज भी पुराने शिक्षकों की तरह सुविधाओं से वंचित रखा गया है.

आज सरकार हजार डेढ़ हजार रुपए पर किसी भी तरह की बहाली निकालती है, तो लोगों की भीड़ लग जाती है. लोगों का मानना है कि पहले सरकारी दफ्तर में किसी तरह से घुस जाओ. आने वाले समय में सरकार अच्छस वेतन दे ही देगी. इसी का नतीजा है कि बिहार में तकरीबन ढाई लाख रसोइया विद्यालयों में इस उम्मीद में काम कर रही हैं कि आने वाले दिनों में सरकार अच्छा वेतन देगी.

सरकारी नौकरियों के पीछे भागने की खास वजह यह रही है कि इस में मेहनत कम करनी पड़ती है. इस के उलट गैरसरकारी दफ्तरों में काम ज्यादा करना पड़ता है.

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बिहार में खेती लायक जमीन होते हुए भी लोगों का खेतीबारी के प्रति मोहभंग होता जा रहा है. इस के पीछे बाढ़, सुखाड़ और नवीनतम कृषि उपकरणों की कमी होना भी है, जिस के कारण लोगों के पास एकमात्र विकल्प सरकारी तंत्र में नौकरियों की तलाश करना रह जाता है.

नौजवानों को चाहिए कि सरकारी नौकरियों के पीछे भागने के बजाय वे अपने अंदर हुनर पैदा करें. इस पर अपने पौजिटिव नजरिए को विकसित करने की जरूरत है. कोई भी नया हुनर सीख कर अपने कामधंधे में लगा जा सकता है और अपने परिवार के लिए सहारा बना जा सकता है.

गहरी पैठ

हाथरस, बलरामपुर जैसे बीसियों मामलों में दलित लड़कियों के साथ जो भी हुआ वह शर्मनाक तो है ही दलितों की हताशा और उन के मन की कमजोरी दोनों को दिखाता है. 79 सांसदों और 549 विधायक जिस के दलित हों, वह भारतीय जनता पार्टी की इस बेरुखी से दलितों पर अत्याचार करते देख रही है तो इसलिए कि उसे मालूम है कि दलित आवाज नहीं उठाएंगे.

पिछले 100 सालों में पहले कांग्रेसी नेताओं ने और फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं ने जम कर पौराणिक व्यवस्था को गांवगांव में थोपा. रातदिन पुराणों, रामायण, महाभारत और लोककथाओं को प्रवचनों, कीर्तनों, यात्राओं, किताबों, पत्रिकाओं, फिल्मों व नाटकों से फैलाया गया कि जो व्यवस्था 2000 साल पहले थी वही अच्छी थी और तर्क, तथ्य पर टिकी बराबरी की बातें बेकार हैं.

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जिन लोगों ने पढ़ कर नई सोच अपनाई थी उन्हें भी इस में फायदा नजर आया चाहे वे ऊंची जातियों के पढ़े-लिखे सुधारक हों या दलितों के ही नेता. उन्हें दलितों में कम पैसे में काम करने वालों की एक पूरी बरात दिखी जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे.

यही नहीं, दलितों के बहाने ऊंची जातियों को अपनी औरतों को भी काबू में रखने का मौका मिल रहा था. जाति बड़ी, देश छोटा की बात को थोपते हुए ऊंची जातियों ने दहेज, कुंडली, कन्या भ्रूण हत्या जम कर अपनी औरतों पर लादी. औरत या लड़की चाहे ऊंची जाति की हो या नीची, मौजमस्ती के लिए है. इस सोच पर टिकी व्यवस्था में सरकार, नेताओं, व्यापारियों, अफसरों, पुलिस से ले कर स्कूलों, दफ्तरों में बेहद धांधली मचाई गई.

हाथरस में 19 साल की लड़की का रेप और उस से बुरी तरह मारपीट एक सबक सिखाना था. यह सबक ऊंची जातियां अपनी औरतों को भी सिखाती हैं, रातदिन. अपनी पढ़ीलिखी औरतों को रातदिन पूजापाठ में उलझाया गया. जो कमाऊ थीं उन का पैसा वैसे ही झटक लिया गया जैसा दलित आदमी औरतों का झटका जाता है. जिन आदमियों को छूना पाप होता है, उन की औरतों, बेटियों के गैंगरेप तक में पुण्य का काम होता है. यह पाठ रोज पढ़ाया जाता है और हाथरस में यही सबक न केवल ब्राह्मण, ठाकुर सिखा रहे हैं, पूरी पुलिस, पूरी सरकार, पूरी पार्टी सिखा रही है.

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दलितों के नेता चुपचाप देख रहे हैं क्योंकि वे मानते हैं कि जिन का उद्धार नहीं हुआ उन्हें तो पाप का फल भोगना होगा. मायावती जैसे नेता तो पहले ही उन्हें छोड़ चुके हैं. भारतीय जनता पार्टी के 79 सांसद और 549 विधायक अपनी बिरादरी से ज्यादा खयाल धर्म की रक्षा के नाम पर पार्टी का कर रहे हैं. दलित लड़कियां तो दलितों के हाथों में भी सुरक्षित नहीं हैं. यह सोच कर इस तरह के बलात्कारों पर जो चुप्पी साध लेते हैं, वही इस आतंक को बढ़ावा दे रहे हैं.

सरकार की हिम्मत इस तरह बढ़ गई है कि उस ने अपराधियों को बचाने के लिए पीडि़ता के घर वालों पर दबाव डाला और हाथरस के बुलगढ़ी गांव को पुलिस छावनी बना कर विपक्षी दलों और प्रैस व मीडिया को जाने तक नहीं दिया. वे जानते हैं कि जाति शाश्वत है. यह हल्ला 4 दिन में दब जाएगा.

बिहार चुनावों की गुत्थी समझ से परे हो गई है. भारतीय जनता पार्टी नीतीश कुमार का साथ भी दे रही है और उसी के दुश्मन चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी से भी मिली हुई है. इस चक्कर में हाल शायद वही होगा जो रामायण और महाभारत के अंत में हुआ. रामायण में अंत में राम के पास न सीता थी, न बच्चे लवकुश, न लक्ष्मण, न भरत. महाभारत में पांडवों के चचेरे भाई मारे भी जा चुके थे और उन के अपने सारे बेटेपोते भी.

लगता है कि हिंदू पौराणिक कथाओं का असर इतना ज्यादा है कि बारबार यही बातें दोहराई जाती हैं और कुछ दिन फुलझड़ी की तरह हिंदू सम्राट का राज चमकता है, फिर धुआं देता बुझ जाता है. बिहार में संभव है, न नीतीश बचें, न चिराग पासवान.

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जो स्थिति अब दिख रही है उस के अनुसार चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के उम्मीदवार भाजपा की सहयोगी पार्टी सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार खड़ी करेगी. वे कितने वोट काटेंगे पता नहीं, पर चिराग पासवान के पास अगर अभी भी दलित व पासवान वोटरों का समर्थन है तो आश्चर्य की बात होगी, क्योंकि चिराग पासवान जाति के नाम पर वोट ले कर सत्ता में मौज उठाने के आदी हो चुके हैं. हो सकता है कि उन्हें एहसास हो गया हो कि नीतीश कुमार निकम्मेपन के कारण हारेंगे तो लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ गठबंधन करने में आसानी रहेगी और तब वे भाजपा को 2-4 बातों पर कोस कर अलग हो जाएंगे.

जो भी हो, यह दिख रहा है कि कम से कम नेताओं को तो बिहार की जनता की चिंता नहीं है. बिहार की जनता को अपनी चिंता है, इस के लक्षण दिख नहीं रहे, पर कई बार दबा हुआ गुस्सा वैसे ही निकल पड़ता है जैसे 24 मार्च को लाखों मजदूर दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु से पैदल ही बिहार की ओर निकले थे. वह हल्ला का परिणाम था, चुनावों में गुस्से का दर्शन हो सकता है.

बिहार के मुद्दे अभी तक चुनावी चर्चा में नहीं आए हैं. बिहार में बात तो जाति की ही हो रही है. बिहार की दुर्दशा के लिए यही जिम्मेदार है कि वहां की जनता बेहद उदासीन और भाग्यवादी है. उसे जो है, जैसा है मंजूर है, क्योंकि उसे पट्टी पढ़ा दी गई है कि सबकुछ पूजापाठी तय करते हैं, आम आदमी के हाथ में कुछ नहीं है.

बिहार देश की एक बहुत बड़ी जरूरत है. वहां के मजदूरों ने ही नहीं, वहां के शिक्षितों और ऊंची जाति के नेताओं ने देशभर में अपना नाम कमाया है. बिहार के बिना देश अधूरा है पर बिहार में न गरीब की पूछ है, न पढ़ेलिखे शिक्षित की चाहे वह तिलकधारी हो या घोर नास्तिक व तार्किक. ऐसा राज्य अपने नेताओं के कारण मैलाकुचला पड़ा रहे, यह खेद की बात है और नीतीश कुमार जीतें या हारें कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

बिहार में का बा : लाचारी, बीमारी, बेरोजगारी बा

जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के नाम अपने संदेश में लोगों को कोरोना से बचने के लिए आगाह कर रहे थे, उसी समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा बिहार विधानसभा चुनाव के सिलसिले में एक रैली को संबोधित कर रहे थे. उस भीड़ में न मास्क था और न ही आपस में 2 गज की दूरी. इसी साल के मार्च महीने में जब कोरोना की देश में आमद हो रही थी, तब 2,000 लोगों के जमातीय सम्मेलन को कोरोना के फैलने की वजह बता कर बदनाम किया गया था, पर अब बिहार चुनाव में लाखों की भीड़ से भी कोई गुरेज नहीं है.

बिहार चुनाव इस बार बहुत अलग है. नीतीश कुमार अपने 15 साल के सुशासन की जगह पर लालू प्रसाद यादव के 15 साल के कुशासन पर वोट मांग रहे हैं. इस के उलट बिहार के 2 युवा नेताओं चिराग पासवान और तेजस्वी यादव ने बड़ेबड़े दलों के समीकरण बिगाड़ दिए हैं.

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बिहार चुनाव में युवाओं की भूमिका अहम है. बिहार में बेरोजगारी सब से बड़ा मुद्दा बन गई है. एक अनजान सी गायिका नेहा सिंह राठौर ने ‘बिहार में का बा’ की ऐसी धुन जगाई है कि भाजपा जैसे बड़े दल को बताना पड़ रहा है कि ‘बिहार में ई बा’ और नीतीश कुमार अपने काम की जगह लालू के राज के नाम पर वोट मांग रहे हैं.

बिहार की चुनावी लड़ाई अगड़ों की सत्ता को मजबूत करने के लिए है. एससी तबके की अगुआई करने वाली लोक जनशक्ति पार्टी को राजग से बाहर कर के सीधे मुकाबले को त्रिकोणात्मक किया गया है, जिस से सत्ता विरोधी मतों को राजदकांग्रेस गठबंधन में जाने से रोका जा सके.

जिस तरह से नीतीश कुमार का इस्तेमाल कर के पिछड़ों की एकता को तोड़ा गया, अब चिराग पासवान को निशाने पर लिया गया है, जिस से कमजोर पड़े नीतीश कुमार और चिराग पासवान पर मनमाने फैसले थोपे जा सकें.

बिहार चुनाव में अगर भाजपा को पहले से ज्यादा समर्थन मिला, तो वह तालाबंदी जैसे फैसले को भी सही साबित करने की कोशिश करेगी. बिहार को हिंदुत्व का नया गढ़ बनाने का काम भी होगा.

बिहार के चुनाव में जातीय समीकरण सब से ज्यादा हावी होते हैं. यह कोई नई बात नहीं है. आजादी के पहले से ही यहां जातीयता और राजनीति में चोलीदामन का साथ रहा है. 90 के दशक से पहले यहां की राजनीति पर अगड़ों का कब्जा रहा है.

लालू प्रसाद यादव ने मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीति की दिशा को बदल दिया था. अगड़ी जातियों ने इस के खिलाफ साजिश कर के कानून व्यवस्था का मामला उठा कर लालू प्रसाद यादव के राज को ‘जंगलराज’ बताया था. उन के सामाजिक न्याय को दरकिनार किया गया था.

पिछड़ी जातियों में फूट डाल कर नीतीश कुमार को समाजवादी सोच से बाहर कर के अगड़ी जातियों के राज को स्थापित करने में इस्तेमाल किया गया था. बिहार की राजनीति के ‘हीरो’ लालू प्रसाद यादव को ‘विलेन’ बना कर पेश किया गया था.

भारतीय जनता पार्टी को लालू प्रसाद यादव से सब से बड़ी दुश्मनी इस वजह से भी है कि उन्होंने भाजपा के अयोध्या विजय को निकले रथ को रोकने का काम किया था. साल 1990 में जब अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ ले कर भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी निकले, तो उन को बिहार में रोक लिया गया.

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भाजपा को लालू प्रसाद यादव का यह कदम अखर गया था. केंद्र में जब भाजपा की सरकार आई, तो लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में उल झाया गया और इस के सहारे उन की राजनीति को खत्म करने का काम किया गया.

लालू प्रसाद यादव के बाद भी बिहार की हालत में कोई सुधार नहीं आया. बिहार में पिछले 15 साल से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. इस के बाद भी बिहार बेहाल है.

साल 2020 के विधानसभा चुनावों में लालू प्रसाद यादव का ‘सामाजिक न्याय’ भी बड़ा मुद्दा है. लालू प्रसाद यादव भले ही चुनाव मैदान में नहीं हैं, पर उन का मुद्दा चुनाव में मौजूद है.

नई पीढ़ी का दर्द

तालाबंदी के बाद मजदूरों का पलायन एक दुखभरी दास्तान है. नई पीढ़ी के लोगों को यह दर्द परेशान कर रहा है. नौजवान सवाल कर रहे हैं कि 15 साल तक एक ही नेता के मुख्यमंत्री रहने के बाद भी बिहार की ऐसी हालत क्यों है? अब उसी नेता को दोबारा मुख्यमंत्री पद के लिए वोट क्यों दिया जाए?

मुंबई आ कर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग अपनी रोजीरोटी के लिए तिलतिल मरते हैं. अगर उन के प्रदेशों में कामधंधा होता, रोजीरोटी का जुगाड़ होता, तो ये लोग अपने प्रदेश से पलायन क्यों करते?

फिल्म कलाकार मनोज बाजपेयी ने अपने रैप सांग ‘मुंबई में का बा…’ में मजदूरों की हालत को बयां किया है.  5 मिनट का यह गाना इतना मशहूर  हुआ कि अब बिहार चुनाव में वहां की जनता सरकार से पूछ रही है कि ‘बिहार में का बा’.

दरअसल, बिहार में साल 2005 से ले कर साल 2020 तक पूरे 15 साल नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रहे हैं. केवल एक साल के आसपास जीतनराम मां झी मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ पाए थे, वह भी नीतीश कुमार की इच्छा के मुताबिक.

किसी भी प्रदेश के विकास के लिए 15 साल का समय कम नहीं होता. इस के बाद भी बिहार की जनता नीतीश कुमार से पूछ रही है कि ‘बिहार में का बा’ यानी बिहार में क्या है?

तालाबंदी के दौरान सब से ज्यादा मजदूर मुंबई से पलायन कर के बिहार आए. 40 लाख मजदूर बिहार आए. इन में से सभी मुंबई से नहीं आए, बल्कि कुछ गुजरात, पंजाब और दिल्ली से भी आए.

ये मजदूर यह सोच कर बिहार वापस आए थे कि अब उन के प्रदेश में रोजगार और सम्मान दोनों मिलेंगे. यहां आ कर मजदूरों को लगा कि यहां की हालत खराब है. रोजगार के लिए वापस दूर प्रदेश ही जाना होगा. बिहार में न तो रोजगार की हालत सुधरी और न ही समाज में मजदूरों को मानसम्मान मिला.

बीते 15 सालों में बिहार की  12 करोड़, 40 लाख आबादी वाली जनता भले ही बदहाल हो, पर नेता अमीर होते गए हैं. बिहार में 40 सांसद और 243 विधायक हैं. इन की आमदनी बढ़ती रही है. पिछले 15 सालों में  85 सांसद करोड़पति हो गए और 468 विधायक करोड़पति हो गए.

मनरेगा के तहत बिहार में औसतन एक मजदूर को 35 दिन का काम मिलता है. अगर इस का औसत निकालें तो हर दिन की आमदनी 17 रुपए रोज की बनती है. राज्य में गरीब परिवारों की तादाद बढ़ती जा रही है.

गरीबी रेखा से नीचे यानी बीपीएल परिवारों की तादाद तकरीबन 2 करोड़, 85 लाख है. नीतीश कुमार के 15 सालों में गरीबों की तादाद बढ़ी है और नेताओं की आमदनी बढ़ती जा रही है.

जंगलराज या सामाजिक न्याय

मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीतिक और सामाजिक हालत में आमूलचूल बदलाव हुआ. लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय के पुरोधा बन कर उभरे. उन के योगदान को दबाने का काम किया गया.

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साल 1990 से साल 2020 के  30 सालों में बिहार पर दलितपिछड़ा और मुसलिम गठजोड़ राजनीति पर हावी रहा है. अगड़ी जातियों का मकसद है कि  30 सालों में जो उन की अनदेखी हुई, अब वे मुख्यधारा का हिस्सा बन जाएं.

भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में अगड़ी जातियां काफीकुछ अपने मकसद में कामयाब भी हो गई हैं. बिहार में भाजपा का युवा शक्ति के 2 नेताओं तेजस्वी यादव और चिराग पासवान से सीधा मुकाबला है.

भाजपा के पास बिहार में कोई चेहरा नहीं है, जिस के बल पर वह सीधा चुनाव में जा सके. सुशील कुमार मोदी भाजपा का पुराना चेहरा हो चुके हैं.

विरोधी मानते हैं कि बिहार में लालू प्रसाद यादव के समय जंगलराज था. जंगलराज का नाम ले कर लोगों को डराया जाता है कि लालू के आने से बिहार में जंगलराज की वापसी हो जाएगी.

राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘मंडल कमीशन के बाद वंचितों को न्याय और उन को बराबरी की जगह दे कर सामाजिक न्याय दिलाने का काम किया गया था. अब आर्थिक न्याय देने की बारी है.

‘जो लोग जंगलराज का नाम ले कर बिहार की छवि खराब कर रहे हैं, वे बिहार के दुश्मन हैं. इन के द्वारा बिहार की छवि खराब करने से यहां पर निवेश नहीं हो रहा. लोग डर रहे हैं. अब हम आर्थिक न्याय दे कर नए बिहार की स्थापना के लिए काम करेंगे.’

वंचितों के नेता

लालू प्रसाद यादव की राजनीति को हमेशा से जातिवादी और भेदभावपूर्ण बता कर खारिज करने की कोशिश की गई. लालू प्रसाद यादव अकेले नेता नहीं हैं, जिन को वंचितों के हक की आवाज उठाने पर सताया गया हो. नेल्सन मंडेला, भीमराव अंबेडकर, मार्टिन लूथर किंग जैसे अनगिनत उदाहरण पूरी दुनिया में भरे पड़े हैं.

लालू प्रसाद यादव सामंतियों के दुष्चक्र के शिकार हुए, जिन की वजह से उन का राजनीतिक कैरियर खत्म करने की कोशिश की गई. इस के बाद भी लालू प्रसाद यादव के योगदान से कोई इनकार नहीं किया जा सकता है.

लालू प्रसाद यादव साल 1990 से साल 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे. साल 2004 से साल 2009 तक उन्होंने केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार यानी संप्रग सरकार में रेल मंत्री के रूप में काम किया.

बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो अदालत ने 5 साल के कारावास की सजा सुनाई. चारा घोटाला मामले में दोषी करार दिए जाने के बाद उन्हें लोकसभा से अयोग्य ठहराया गया.

लालू प्रसाद यादव मंडल विरोधियों के निशाने पर थे. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि साल 1990 में लालू प्रसाद यादव ने राम रथ यात्रा के दौरान समस्तीपुर में लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया.

मंडल विरोधी भले ही लालू प्रसाद यादव के राज को जंगलराज बताते थे, पर सामाजिक मुद्दे के साथसाथ आर्थिक मोरचे पर भी लालू सरकार की तारीफ होती रही है.

90 के दशक में आर्थिक मोरचे पर विश्व बैंक ने लालू प्रसाद यादव के काम की सराहना की. लालू ने शिक्षा नीति में सुधार के लिए साल 1993 में अंगरेजी भाषा की नीति अपनाई और स्कूल के पाठ्यक्रम में एक भाषा के रूप में अंगरेजी को बढ़ावा दिया.

राजनीतिक रूप से लालू प्रसाद यादव के जनाधार में एमवाई यानी मुसलिम और यादव फैक्टर का बड़ा योगदान है. लालू ने इस से कभी इनकार भी नहीं किया है.

साल 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री बने. उन के कार्यकाल में ही दशकों से घाटे में चल रही रेल सेवा फिर से फायदे में आई.

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भारत के सभी प्रमुख प्रबंधन संस्थानों के साथसाथ दुनियाभर के बिजनैस स्कूलों में लालू प्रसाद यादव के कुशल प्रबंधन से हुआ भारतीय रेलवे का कायाकल्प एक शोध का विषय बन गया.

अगड़ी जातियों की वापसी

राजनीतिक समीक्षक अरविंद जयतिलक कहते हैं, ‘जनता यह मानती है कि राज्य की कानून व्यवस्था अच्छी रहे. यही वजह है कि लालू प्रसाद यादव के विरोधियों ने उन की पहचान को जंगलराज से जोड़ कर प्रचारित किया. उन के प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार के राज को सुशासन कहा गया.

‘इसी मुद्दे पर ही नीतीश कुमार हर बार चुनाव जीतते रहे और 15 साल तक मुख्यमंत्री बने रहे. लालू प्रसाद यादव ने जो सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी और जो आर्थिक सुधारों के लिए काम किया, उस की चर्चा कम हुई.

‘लालू प्रसाद यादव की आलोचना में विरोधी कामयाब रहे. बहुत सारे काम करने के बाद भी लालू यादव को जो स्थान मिलना चाहिए था, नहीं मिला.’

बिहार में तकरीबन 20 फीसदी अगड़ी जातियां हैं. पिछड़ी जातियों में 200 के ऊपर अलगअलग बिरादरी हैं. इन में से बहुत कोशिशों के बाद कुछ जातियां ही मुख्यधारा में शामिल हो पाई हैं. बाकी की हालत जस की तस है. इन में से 10 से 15 फीसदी जातियों को ही राजनीतिक हिस्सेदारी मिली है.

1990 के पहले बिहार की राजनीति में कायस्थ, ब्राह्मण, क्षत्रिय और भूमिहार प्रभावी रहे हैं. दलितों की हालत भी बुरी है. बिहार की आबादी का 16 फीसदी दलित हैं. अगड़ी जातियों ने दलितों में खेमेबंदी को बढ़ावा देने का काम किया है.

साल 2005 में भाजपा और जद (यू) ने अगड़ी जातियों को सत्ता में वापस लाने का काम किया. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अब नीतीश कुमार को भी दरकिनार करने की कोशिश कर रही है.

नितीश के सियासी रंग और बिहार का चुनाव

सबसे अधिक छह बार बिहार के मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले नितीश कुमार भारतीय राजनीति मे सत्ता के लिए सबसे अधिक रंग बदलने वाले चेहरे भी हैं. उनके पास सुशासन का तमगा, केवल मंचों से नैतिकता का पाठ पढ़ाने और आश्वासन देने का हुनर भी है. नितीश जब सफेद मुस्लिम टोपी और हरे गमछे मे होते थे तब भी उनके पास सत्ता थी और केसरिया साफे और गमछे के साथ भी सत्ता है. इससे जाहिर है कि वह देश‌ के ऐसे नेता हैं जो सत्ता के लिए कभी भी रंग बदल सकते हैं. जबकि वह खुद आज भी मंचों से सबसे अधिक नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं.

बहुत पीछे जाने की जरूरत नही है.नितीश ने मुस्लिम वोटर्स को रिझाने के लिए ट्रिपल तलाक़ और जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने का विरोध किया था. यहां तक कि तीन तलाक और आर्टिकल 370 के मुद्दे पर वोटिंग के दौरान दोनों सदनों से उनकी पार्टी के सांसद वॉकआउट कर गए थे. बिहार विधान सभा मे एनआरसी और एनपीआर लागू न करने का प्रस्ताव पास करवाने वाले नितीश कुमार की पार्टी ने केंद्र में सीएए का समर्थन किया, राज्यसभा और लोकसभा मे उनके सांसदों ने वोट किया. यहां तक की राज्य सभा मे उनके मुस्लिम सांसदों ने भी वोट किया.

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वहीं साल 2010 के नितीश कुमार सब को याद होंगें, जब वह हर कुछ महीनों में केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार के पास बिहार के मदरसों के अनुदान का प्रस्ताव भेजते थे. मनमोहन सरकार उसे बार बार नकार देती थी. केंद्र में सत्ता बदली तो यही नितीश केसरिया साफे में आ गये और अपने पुराने प्रस्ताव को भूल गए. आपको ये भी बता दें कि ये वही नितीश हैं जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी का 10 साल से ज्यादा का सत्ता का साथ छोड़ कर अपने धुर विरोधी लालू यादव का, जिनको वह डेढ़ दशक से ज्यादा समय से कोसते आए थे, हाथ थाम लिया था.

यही नही नितीश उन्हें अल्पसंख्यकों और पिछड़ों का सबसे बड़ा मसीहा बताने लगे और भाजपा को सांप्रदायिक बताने लगे थे. बात यहीं खतम नही होती, फिर वही नितीश थे कि अभी सुहाग की मेहंदी सूखी भी नहीं थी कि पाला बदला भाजपा के बगलगीर हो गये और फिर भाजपा के साथ सरकार बना ली. जो दुनिया के प्रजातंत्र में एक अनूठी अनैतिकता कही जा सकती है? राजनीति में नैतिकता के साथ खिलवाड़ का या जनमत के साथ इतना हास्य शायद इससे पहले नहीं हुआ होगा. वैसे पाला बदलने की घटनाएं पिछले छह सालों मे अब देश के कई राज्यों मे हो चुकी हैं. लेकिन वह नितीश कुमार जैसे नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले लोग नही थे.

बिहार विधानमंडल के पिछले सत्र मे विधानसभा के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी ने अपना भाषण उर्दू में पढ़ा,क्या ये मुसलमानों को पटाने की कवायद नही थी. जबकि भाजपा विधायकों ने इस पर एतराज भी जताया. उसके बाद ही नितीश कुमार ने अजमेर शरीफ चादर भेजी हजरत ख्वाजा गरीब नवाज के मजार पर चढ़ाने के लिए. जबकि उनका उस्र नही था, पर बिहार मे चुनाव की आहट जरूर थी. बिहार की राजनीति मे 17 प्रतिशत मुसलमान चुनावी नतीजे को प्रभावित करते हैं. लालू के बाद बिहार के मुसलमानों के लिए नितीश कुमार ही पसंदीदा चेहरें हैं.

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सत्ता मे आने के बाद उन्होने इस समुदाय को लेकर तमाम घोषणएं भी की थी. लेकिन सथानीय लागों का कहना हे कि अधीकांश धोष्णओं की जमीनी हकीकत आज भी, मंचों और भाषणों तक सीमित है.अलबत्ता कब्रिस्तानों की धेराबंदी के मामले मे बड़े पैमाने पर काम दिखता है. उर्दू शिक्षकों की बहाली का मामला हो,मदरसा शिक्षकों के वेतन, मदरसों के अनुदान का मामला हो, मुस्लिम नौजवानों के रोजगार का मामला हो, शिक्षा और स्वास्थ्य का मामला हो, मुस्लिम क्षेत्रों के अस्पताल और सरकारी स्कूलों का मामला हो या अल्पसंख्यक लोन का मामला हो, पर जदयू सरकार ने अब तक काम ठोस काम नही किया है.

नितीश कुमार कभी मुसलमानों को लाली पाप देते हैं तो कभी दलितों और पिछड़ों को. दरअसल, बिहार में अब तक राजनीति जाति से संचालित होती रही है, यानी वह जाति के लचीले खोल में समाकर ही आकार लेती रही है. लेकिन नितीश कुमार ने यहां भी एक दांव खेला और जाति समूहों और उन समूहों से बनने वाले समीकरण को साधा. जैसे कि लालू प्रसाद ने सामाजिक न्याय का नारा देकर पिछड़ों और दलितों को गोलबंद कर अपनी राजनीति को परवान चढ़ाया था. वहीं नितीश ने सामाजिक न्याय के साथ विकास का नारा दिया.जातीय न्याय के साथ ही आर्थिक न्याय और लैंगिक न्याय के नारें को भी उन्होने उछाला.

महिलाओं को पंचायती चुनाव में आरक्षण देकर, अतिपिछड़ा और महादलित नाम से नए राजनीतिक समूह का गठन कर वे ऐसा करने में सफल हो सके. वहीं मुस्लिम में अशराफ मुस्लिम के मुकाबले पसमांदा समूह को उभारकर भी वे ऐसा करने में कामयाब रहे. दरअसल बिहार में जाति का समीकाण उतना आसान है भी नहीं.ओबीसी में दस जातियां हैं, बात सिर्फ कोईरी, कुरमी, यादव और बनिया पर होकर रह जाती है. दलितों मे करीब दो दर्जन जातियां हैं. मुस्लिमों में ही 42 जातियां हैं.अतिपिछड़ा समूह में तो जातियों की संख्या 120 के पार है.गौरतलब है कि ये वही बिहार है जहां आजादी से पहले जनेऊ आंदोलन हुआ था, यादवों और कुछ अन्य ग़ैर-ब्राह्मण पिछड़ी जातियों ने जनेऊ पहनना शुरू किया. फिर समय ने करवट बदला तो इसी बिहार मे जेपी आंदोलन के वक़्त संपूर्ण क्रांति के लिए हज़ारों लोगों ने पटना के गांधी मैदान में जनेऊ तोड़े भी थे. यानी बिहार मे जाति का गणीत बेहद जटिल है और हर राजनीतिक दल उसे अपने हिसाब से हल करना चाहता है.

दरअसल  लालू-राबड़ी के 15 साल के काल के बाद नितीश कुमार बिहार के लिए उम्मीदों और अरमानों की गठरी ले कर आए थे. वादों की लम्बी फेहरिस्त के साथ और कुछ अच्छा करेंगे जैसे भरोसे के साथ. अगर लालू के 15 साल और नितीश के 15 सालों की तुलना की जाये तो बिहार मे बदलाव तो दिखता है, लेकिन उनके अधिकांश वादे फाइलों मे कैद रह गये. खासकर दलितों और मुस्लिमों से जुड़े मामलों पर वह उतने खरे नही उतरे जितना इन वर्गों को सपना दिखाया गया था.

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कोरोना वायरस के चलते हुए लाकडाउन के दौरान बिहार के प्रवासी मजदूरों और छात्रों को लेकर जिस तरह से सुशासन बाबू ने रूख अपनाया था, उससे सत्ता के पहले वाले नितीश कुमार के मुकाबाले मुख्यमंत्री नितीश कुमार ही एक अकुशल प्रशासक के तौर पर दिखे थे.बहुत तेज़ी से उनकी लोकप्रियता मे कमी आयी है. बिहार मे उनकी साख को बट्टा बहुत तेज़ी से लग रहा है. आपको याद होगा कि नितीश को लोगों ने लालू प्रसाद यादव से ज्यादा सक्षम प्रशासक माना था. लेकिन आज राज्य में भ्रष्टाचार हर स्तर पर है. कानून व्यवास्था का मजाक हर जगह, हर रोज़ उड़ता है. कहा जाता है कि शराबबंदी ने राज्य में पुलिस के लिए कमाई का एक नया रास्ता खोल दिया है.छह साल पहले केंद्र से बेटी बचाओ का नारा खूब जोर से उछला था, लेकिन बिहार मे अक्सर बेटियों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं होती है.

इसके बावजूद खाकी के बड़े ओहदेदार राजनीति की आकांक्षा रखते हैं. आईपीएस अफसर सुनील कुमार और पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने खाकी से खादी की तरफ रूख कर भी लिया है. यहां भी वही जाति का खेल दिख रहा है. आपको याद होगा कि सुशांत सिंह राजपूत मामले मे तब डीजीपी रहे गुप्तेश्वर पांडेय ने जिस तरह की टिप्पणीयां की थी, इतने बड़े पद पर रहने के दौरान ऐसी टिप्पणीयां सुनने को नही मिलती हैं. राजनीतिक हलकों मे कहा जा रहा है कि नितीश कुमार ने हाल मे दलितों के साथ कुछ कागजी और कुछ असल की जो दरियादिली दिखायी है, कहीं वो सब भारी न पड़ जाये इसलिए बैलेंस करने के लिए  गुप्तेश्वर पांडेय को सवर्ण कार्ड के तौर पर प्रयोग करेगें. वैसे इन चुनावों मे श्री पांडेय को नितीश ने कहीं से उम्मीदवार नही बनाया है. बिहार मे रोजगार की समस्या सारे पुराने आंकड़ों को पार कर गयी है. याद रहे इन में से कई मुद्दों के खिलाफ ही माहौल बना कर नितीश कुमार बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे. आज वो सब कुछ किसी न किसी रूप मे उनके शासन का अंग है.

बिहार में 243 विधानसभा सीटों पर चुनाव जीतने के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मतदाता महत्वपूर्ण हैं. राज्य में एससी/एसटी वोट करीब 16 प्रतिशत से ज्यादा है. यही वजह है कि सभी पार्टियों और गठबंधन की रणनीती के केंद्र में ये वोटबैंक है. कुमार शुरू से दलितों को किसी न किसी रूप मे रिझातें रहें हैं. ये बात अलग है कि चुनावों से ठीक पहले उन्होने दलितों को रिझाने के लिए एक और दांव खेला, कि अनुसूचित जाति-जनजाति के किसी व्यक्ति की हत्या हो जाने पर उसके परिवार के किसी एक सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाएगी.

राजनीतिक हलके मे इसे केवल चुनावी ऐलान माना जा रहा है.क्यों कि घोषण मे पिछली हत्यायों का कोई जिक्र नही है. नितीश ने दलितों को 3 डिसमिल जमीन देने का वादा किया गया था जो आज तक पूरा नहीं हो पाया है. इसी लिए चिराग पासवान जैसे दलित नेताओं ने कहा है कि सरकार को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि अपराधियों में क़ानून का भय हो. जिससे भविष्य में न सिर्फ़ दलितों बल्कि किसी भी वर्ग के लोगों की हत्या न हो सके. बहरहाल बिहार की राजनीति में पिछले 15 दिनों में दिलचस्प बदलाव देखने को मिल रहा है.जो चुनाव अब तक राजग के लिए काफी आसान लग रहा था जिसमें भाजपा आगे नजर आ रही थी लेकिन अब हालात बिल्कुल बदल चुके हैं.

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राजग ने 180 से अधिक सीटें जीतने की बात करनी बंद कर दी है. इसके अलावा, भाजपा ने नितीश कुमार के शासन का बचाव करना शुरू कर दिया है. हालांकि जब चुनावी प्रक्रिया की शुरुआत हो रही थी तब पार्टी के कई नेताओं ने इसको नजरअंदाज किया था और मांग की थी कि चुनाव के बाद नितीश की जगह भाजपा के किसी और नेता को लाया जाए. भाजपा को डर सताने लग रहा है कि नितीश तो खुद डूबेंगे ही,उसके साथ-साथ भाजपा को भी नुकसान हो सकता है. इस लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा फिर एक बार सामने किया जा रहा है. नितीश और प्रधानमंत्री की संयुक्त रैलियों और सभाओं की रणनीति बन रही है.देखना है कि आने वाले दिनों मे चुनाव कितना और करवट बदलता है, क्योंकि कई छोटे-छोटे राजनीतिक दल भी अपने अंदाज मे ताल ठोंक रहें हैं.

विधानसभा चुनाव : गूंजेगा हाथरस गैंगरेप

प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 15 सालों के सत्ता विरोधी मतों का ही सामना नहीं करना होगा, बल्कि उत्तर प्रदेश के हाथरस में एससी तबके की लड़की के साथ हुए गैंगरेप का भी असर वहां पड़ेगा.

इस बात का अंदेशा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लग चुका था. जनता दल (यूनाइटेड) के नेता केसी त्यागी गैंगरेप और लड़की की लाश को आननफानन जलाने में तीखी प्रतिक्रिया देने वाले नेताओं में सब से आगे थे.

केसी त्यागी ने कहा था, ‘अगर बलात्कार और हत्या के मामले में कार्यवाही करने के लिए किसी प्रधानमंत्री को अपने मुख्यमंत्री को फोन करना पड़े तो इस से शर्मनाक कोई दूसरी बात नहीं हो सकती.’

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हाथरस की घटना को देखने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुद भी इस बात का अंदाजा लग चुका था कि यह घटना बिहार चुनाव पर असर डाल सकती है. इस वजह से उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को फोन कर के पूरे मामले को खुद के लैवल पर देखने को कहा.

इस की सब से बड़ी वजह यह भी थी कि भाजपा बिहार चुनाव मोदी के चेहरे पर ही लड़ रही है. दलित लड़की से गैंगरेप और उस की लाश को जबरन जलाने के सवालों से मोदी को जोड़ा न जा सके, इस के चलते प्रधानमंत्री द्वारा हस्तक्षेप किया गया.

उत्तर प्रदेश और बिहार के हालात एकजैसे ही हैं. एससी तबके को सताने की घटनाएं वहां भी होती रहती हैं. 2007 से 2017 के बीच अपराध के आंकड़े बताते हैं कि बिहार इस तरह के मामलों में देश में तीसरे नंबर पर रहा. बिहार में भाजपा व जद (यू) के साझेदारी की सरकार है. बिहार में 2016 में अनुसूचित जाति के लोगों पर जोरजुल्म के 5,701 मामले दर्ज हुए.

बिहार में वोट डालने का सब से बड़ा आधार जाति होती है. भाजपा ने रिया चक्रवर्ती और सुशांत सिंह राजपूत मामले में बिहार को उलझाने का काम किया, पर कुछ ही समय में यह मुद्दा दरकिनार हो गया. अब वहां 15 साल के सुशासन पर वोट पड़ने हैं. इन सालों के विकास का हिसाब देना जद (यू) और भाजपा को भारी पड़ेगा. एससी तबका सवर्ण और बीसी तबके के साथ खड़ा नहीं होना चाहता.

दरार से और बिगड़े हालात

बिहार में तकरीबन 16 फीसदी एससी हैं. इस में से 5 फीसदी सब से ज्यादा पासवान और 4 फीसदी वाल्मीकि वोट हैं. हाथरस में गैंगरेप की पीडि़ता लड़की इसी जाति की थी. उस के साथ इंसाफ को ले कर उत्तर प्रदेश के अलगअलग जिलों में वाल्मीकि समाज ने धरना और विरोध प्रदर्शन करना शुरू किया था.

जैसेजैसे बिहार में चुनाव प्रचार होगा, वैसेवैसे विपक्षी दल हाथरस कांड को मुद्दा बनाएंगे. यह बात समझ आने के बाद ही बिहार में राजग के सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी ने अपना रास्ता बिहार में अलग कर दिया. लोजपा बिहार में राजग के गठबंधन के साथ चुनाव नहीं लड़ रही है.

लोजपा नेता चिराग पासवान ने खुल कर कह दिया है कि वे केंद्र सरकार में भाजपा और राजग के साथ हैं, पर बिहार चुनाव में जद (यू) के चलते राजग गठबंधन में नहीं हैं.

बिहार भाजपा और जद (यू) दोनों का मत है कि चिराग पासवान के दोहरे फैसले का फायदा विरोधी दल उठाएंगे. इस आपसी लड़ाई में राजग को नुकसान हो जाएगा, इसलिए वे बारबार कह रहे हैं कि जो नीतीश के साथ नहीं वह राजग के साथ नहीं.

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तमाम दबाव के बाद भी चिराग पासवान नीतीश कुमार के सामने झुकने को तैयार नहीं हैं. यही नहीं, चिराग का झुकाव राजद यानी राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव की तरफ होने से राजग को दलित वोटों की ज्यादा फिक्र होने लगी है.

एससी बनेंगे मुद्दा

बिहार के विधानसभा चुनाव में इस बार लालू प्रसाद यादव सामने नहीं हैं. इस के बाद भी उन के सामाजिक न्याय की लड़ाई मुख्य मुद्दा है. लालू प्रसाद यादव को ‘शोषितों की असली आवाज’ और ‘सामाजिक न्याय के प्रतीक’ के रूप में देखा जाता है. वे भले ही पिछड़ी यादव जाति से हैं, पर बिहार में दलितों की गैरपासवान बिरादरी उन के साथ खड़ी होती रही है.

नीतीश कुमार ने महादलित आयोग का गठन कर के एससी तबके को रिझाने का काम भले ही किया हो, पर यह तबका कभी उन के साथ नहीं रहा है. नीतीश कुमार के लिए दलित ही नहीं, मुसलिम वोट बैंक भी परेशानी खड़ी करने वाला है. कश्मीर में धारा 370 के मुद्दे, राम मंदिर और नागरिकता कानून के चलते वह राजग के साथ खड़ा नहीं होगा. ऐसे में राजग के मुकाबले कांग्रेसराजद गठबंधन ज्यादा असरदार दिख रहा है.

बिहार में कोरोना के समय पलायन कर के आने वाला मजदूर तबका तकरीबन 40 लाख है, जिसे बिहार में कोई रोजीरोजगार नहीं मिला. उसे वापस बड़े शहरों की तरफ लौटना पड़ा. इन में बड़ी तादाद दलितों की है. उन को लग रहा है कि बीते 15 सालों में दलितों के हालात जस के तस ही हैं. हाथरस गैंगरेप मामले ने इस पर मुहर भी लगा दी है. जो बातें एससी तबका भूलने वाला था, वे उसे फिर से याद आ रही हैं.

नीतीश कुमार ने किया शर्मिंदा

जनता दल (यूनाइटेड) ने जिन 115 उम्मीदवारों  के नामों का ऐलान किया है, उन में से एक नाम कुख्यात मंजू वर्मा का भी है. मंजू वर्मा को नीतीश कुमार ने  चेरिया बरियारपुर विधानसभा सीट से टिकट दिया है. ये वही मंजू वर्मा हैं, जो नीतीश सरकार में समाज कल्याण विभाग की मंत्री थीं  और जिन के कार्यकाल में पिछले साल मुजफ्फरपुर बालिका गृह बलात्कार कांड हुआ था. इस कांड ने बिहार में सरकारी संरक्षण में बच्चियों के साथ यौन हिंसा  और दरिंदगी का एक ऐसा भयावह सच उजागर किया था, जिसे जान कर समूचा देश हैरान रह  गया था.

इस कांड के उजागर होने के बाद मंत्री मंजू वर्मा पर इस्तीफे का दबाव बना था और आखिरकार उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. इस पूरे मामले में कथित रूप से मंजू वर्मा के पति चंद्रशेखर वर्मा के भी शामिल होने की बात सामने आई थी.

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जांच के दौरान पुलिस ने मंजू वर्मा के घर पर छापेमारी की थी, जहां से गैरकानूनी हथियार और कारतूस भी बरामद हुए थे. इस पूरे मामले में मंजू वर्मा और उन के पति को गिरफ्तार किया गया था और जेल जाना पड़ा था. हालांकि कुछ दिनों बाद कोर्ट से दोनों को जमानत मिल गई थी.

मंजू वर्मा को जद (यू) से एक बार फिर से टिकट दे कर नीतीश कुमार ने यह संकेत दे दिया है कि अगर वे फिर से मुख्यमंत्री बनते हैं, तो मंजू वर्मा की अगुआई और संरक्षण में बिहार में बच्चियों के साथ रेप और जोरजुल्म बदस्तूर जारी रहेगा.

बिहार : बाढ़, बालू और बरबादी

56 साल की खजूरी देवी की आंखों में आंसू है. गरमी के दिनों भी उस के होंठ सूख गए हैं और बातचीत के दौरान वह अपना माथा पीटने लगती है.

खजूरी बताती है,”हेहो बाबू, ई करोनाकरोना सुनीसुनी के मौन बौराए गेलो छौन. ओकरा पर ई बाढ़…
पौरकां साल बुढ़वा चली गेलोहन, ई बार बङका बेटा. राती के लघी करै लै निकलहो रहै, सांप काटी लेलकै… (साहब, कोरोना सुनसुन कर मन घबरा गया है. उस पर इस बाढ़ ने कहर बरपाया हुआ है. पिछले साल पति मर गया और इस साल बड़े बेटे को सांप ने काट लिया जब वह रात को पिशाब करने बाहर निकला था)

यह कह कर वह फिर से फफकफफक कर रो पङी. वह इशारा कर के दिखाती है कि उस का घर यहां से करीबन आधा किलोमीटर दूर है. वह परिवार सहित टूटीफूटी अस्थाई झोंपड़ी में रह रही है, जो 4-5 बांस की बल्लियों पर टिकी है. ऊपर पन्नी है जिसे बल्लियों से बांध दिया गया है.

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बाढ़ का पानी जब आता है तो बिलों में रह रहे जहरीले सांप भी सूखे जमीन की ओर भागते हैं और घरों के अंदर छिप कर बैठ जाते हैं.

बहुतों की मौत सांप काटने से भी हो जाती है. एक अनुमान के मुताबिक भारत में सांप के काटने से लगभग 50 हजार लोगों की जानें जाती हैं, जिस में बिहार में सब से अधिक मौतें होती हैं.

हालांकि मृतक को सरकार की ओर से ₹5 लाख का मुआवजा मिलता है पर यह आश्चर्यजनक है कि पिछले 5 सालों में किसी पीङित ने यहां  मुआवजे के लिए आवेदन नहीं दिया. कारण इधर अशिक्षितों की संख्या ज्यादा है और उन्हें सरकारी नियमों और कानूनों तक की जानकारी नहीं होती.

खैर, मैं ने देखा कि खजूरी की झोंपड़ी के बाहर 1-2 बकरियां भी खूंटी से बंधी हैं और वे भी मिमिया रही हैं, शायद भूख से क्योंकि दूर तक सिर्फ पानी ही पानी है और घास तक भी नहीं बचा कि वे कुछ खा सकें.

मैं ने अपनी नजरें उस की झोंपड़ी के अंदर डाली. वहां एक बालटी में पानी था और मिट्टी के बने चूल्हे पर खाली बरतन. कुछ सूखी लकङियां भी पङी थीं.

खजूरी ने बताया कि घर में राशन जरा भी नहीं है. छोटा बेटा दिहाङी पर निकला है, शायद कुछ ला पाए. अगर नहीं ला पाया तो आज पूरी रात और कल पूरा दिन फिर भूखे ही रहना होगा.

tejaswi

मैं कुछ आगे निकला तो 2-4 पक्के मकान दिख गए. अलबत्ता यह समझते मुझे देर नहीं लगा कि ये मकान प्रधानमंत्री आवास योजना पर बनाए गए थे. सभी घर बाढ़ के पानी में आधे डूबे हुए थे. हां, एक छत पर सूखी लकङियों से चूल्हा जला कर खाना जरूर बनाया जा रहा था पर मुझे अंदेशा था कि बाढ़ के पानी में कटाव होता है और इस की धार कभीकभी इतनी तेज होती है कि बड़े से बङे पेङ को भी धाराशाई कर देती है. फिर आवास योजना में कितनी ईमानदारी बरती गई होगी यह सब जानते हैं, वह भी बिहार में जहां भ्रष्टाचार चरम पर है और सरकार की अमूमन हर परियोजना भ्रष्टाचारियों को भेंट चढ़ जाता है.

कुछ दूर निकला तो पता चला कि आगे नहीं जा सकते क्योंकि आगे की सङक टूटी पङी है और उस के ऊपर से पानी बह रहा है.

इस बीच मुस्ताक अहमद नाम के एक  व्यक्ति ने बताया कि बाढ़ की वजह से उस के खेत डूब गए हैं और फसल बरबाद हो गई है.

उस ने 15 कट्ठा यानी 10,800 वर्गफुट जमीन में खेती की थी और उस में धान उगाए थे.

मुस्ताक ने बताया,”एक समय घर में 3-4 भैंस थीं. अब 1 ही बची है. इस बार यह भैंस गाभिन (गर्भवती) थी और एक बछङा हुआ था, लेकिन भैंस को दूध कम होता था. बछङा मर गया.

“खेती के लिए धान उगाए थे, वे भी बह गए.”

पास ही खङे मुन्ना ने बताया,”की करभौं हो… हम्मू खेती करले रहिए, ई बाढ़ में सब बरबाद भै गेले. आबे मजदूरी करी के पेट पाले ले पङते (क्या बताएं आप को, मैं ने भी खेती की थी पर इस बाढ़ में सब बरबाद हो गया. अब तो मजदूरी कर के पेट पालना होगा)

मुन्ना ने बताया कि वह मजदूरी करने दिल्लीपंजाब जाएगा पर उसे कोरोना से डर लग रहा है. उस के गांव के कई लोग भाग कर वापस तो आ गए पर बिहार में कोई कामधाम मिल नहीं रहा.

मौनसून में आफत शुरू

पुर्णिया प्रमंडल से तकरीबन 1-2 घंटे की दूरी पर स्थित अररिया जिले में बेलवा पुल के नजदीक एक गांव की स्थिति तो हर साल ऐसी ही होती है. इस के साथ ही चिकनी, नंनदपुर जैसे सैकड़ों गावों में जब बाढ़ का पानी आता है तो लोग छतों पर जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं. पानी अचानक से भरता है और लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाने का मौका तक नहीं मिलता.

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अभी 2-4 दिन पहले ही बाढ़ के पानी में फंसे एक परिवार को बाहर निकाला गया था. एक की तो हालत यह थी कि वह अपने फूस (बांस और पुआल से बने घर) पर पिछले 5 दिनों से बिना खाएपीए पङा था. फिर कुछ लोगों की मदद से उसे बाहर निकाला गया.

कोसी नदी बिहार के लिए शोक

नेपाल से सटे भारत के तराई क्षेत्रों में हर साल का नजारा यही रहता है. मौनसून में जब बारिश होती है तो कईकई दिनों तक होती रहती है. इस बारिश से नदियों में पानी भर जाता है और वह उफन कर बाहर आ जाता है.

बिहार की कोसी नदी इधर इसलिए बदनाम है कि इस नदी में जब बारिश का मौसम न हो तो पानी घुटनों के नीचे रहता है. मगर जब बारिश होती है तो यह पता करना मुश्किल होता है कि नदी कहां और कितनी गहरी है.

हर साल इस नदी में इन दिनों कईयों की जान डूब कर चली जाती है. जानवर बह जाते हैं, न जाने कितने घर बहती धार में समा जाते हैं. कोसी नदी तब विकराल रूप धारण कर लेती है. गांव के गांव कटाव के शिकार हो कर बह जाते हैं और रह जाते हैं तो लोगों की आंखों में आंसू, बेबसी और अपनों के खोने का गम.

अलबत्ता, राज्य से ले कर केंद्र सरकार के नेता और मंत्री हवाई दौरा जरूर करते हैं.

अखबारों और चैनलों में दर्दनाक तसवीरें दिखाई जाती हैं, बाढ़ राहत पैकेज का ऐलान कर दिया जाता है और फिर सब कुछ शांत हो जाता है.
अगले साल फिर वही सब होता है…

जान की कीमत कुछ भी नहीं

यों नेपाल से सटे बिहार के कुछ जिलों में हर साल बाढ़ आफत लिए आता है. सब से अधिक प्रभावित होते हैं बिहार के 7 जिले जिन में पूर्वी चंपारण, चंपारण, सहरसा, सुपौल, अररिया, किशनगंज और कटिहार.

कटिहार जिले से गंगा नदी भी बहती हुई बंगाल की खाङी तक जाती है और यहीं कहींकहीं कोसी नदी भी इस में मिल जाती है. इस से बाढ़ भयानक रूप ले लेती है.

बाढ़ आने की एक वजह नेपाल भी जरूर है. दरअसल, मौनसून में तेज बारिश के बाद वहां से पानी बहता हुआ तराई क्षेत्रों में आ जाता है. काफी पहले यह समस्या उतनी गहरी नहीं थी क्योंकि तब नेपाल के पहाड़ों पर घने जंगल हुआ करते थे, लेकिन वहां की आबादी बढ़ी तो जंगलों को काट कर खेती लायक बनाया जाने लगा. इस से जो पानी जंगलों में ठहर कर धीरेधीरे और कुछ सूख कर आता था वह अचानक से आने लगा. इस से बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई.

इस बाढ़ से बिहार के 10 जिले के 600 से ज्यादा गांवों में भयंकर तबाही मचती है और यह हर साल की बात है.

वादे हैं वादों का क्या

हर साल बिहार में बाढ़ आती है. हर साल तबाही मचती है. सैकङों लोग मारे जाते हैं और हजारों करोड़ रुपए की संपत्ति पानी में बह जाती है. और इन सब की एक वजह यह भी है कि नेपाल में कोसी नदी पर बांध बना है. यह बांध भारत और नेपाल की सीमा पर है, जिसे 1956 में बनाया गया था.

इस बांध को ले कर भारत और नेपाल के बीच संधि है. संधि के मुताबिक अगर नेपाल में कोसी नदी में पानी ज्यादा हो जाता है तो नेपाल बांध के गेट खोल देता है और इतना पानी भारत की ओर बहा देता है, जिस से बांध को नुकसान न हो.

उधर, बाढ़ की समस्या को ले कर सरकार मानती है कि उत्तर बिहार के मैदान में बाढ़ नियंत्रण तभी हो सकेगा जब यहां की नदियों पर नेपाल में वहीं बांध बना दिए जाएं जहां नदियां पहाड़ों से मैदानी भागों में उतरती हैं. कोसी पर बराह क्षेत्र में, बागमती पर नुनथर में और कमला पर शीसापानी में और गंडक, घाघरा और महानंदा नदियों की सहायक धाराओं पर भी बांध बनाने से बाढ़ को रोका जा सकता है.

लेकिन यह तब होगा जब नेपाल से समझौता हो. मगर देश को आजाद हुए दशकों हो गए मगर इतने लंबे अंतराल के बाद भी इस समस्या पर सिर्फ राजनीति ही होती रही है. और फिर अभी तो नेपाल भारत संबंध भी अच्छे नहीं चल रहे.

जनता से हर चुनाव में वादे किए जाते हैं, सब्जबाग दिखाया जाता है पर होता कुछ नहीं.

हाल ही में बिहार की प्रमुख विपक्षी पार्टी राजद नेता व पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने सरकार पर हमला बोलते हुए कहा है,”मौनसून की दस्तक से बिहार के कोसी और गंडक नदी के मैदानी इलाकों के लोग आतंकित हैं. जानमाल, मवेशी का नुकसान हर साल होता रहा है… इस निकम्मी सरकार ने 15 सालों में कोई ठोस कदम नहीं उठाया. भ्रष्टाचार का आलम यह है कि यहां चूहे बांध खा जाते हैं.”

बिहार राजद के मुख्य प्रवक्ता भाई वीरेंद्र सिंह कहते हैं,”वर्तमान सरकार गरीब जनता की नहीं है. 15 सालों से सत्ता में रहने के बावजूद नीतीश सरकार ने बिहार में बाढ़ प्रभावित जिलों के लिए कुछ नहीं किया. बिहार के लोग एक तो कोरोना से दूसरे बाढ़ से परेशान हैं, उधर जेडीयू और बीजेपी के लोग वर्चुअल रैलियां कर रहे हैं.

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“इन्हें सत्ता की भूख है और इतनी अधिक कि अपनी गलतियों की वजह से बिहार भाजपा के 70 से अधिक कार्यकर्ताओं को कोरोना हो गया.”

यों साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. मगर ऐसा लगता नहीं कि उन्हें बाढ़ की चिंता है क्योंकि हाल के दिनों से बीजेपी और जेडीयू गठबंधन चुनाव की तैयारियों में लगे हैं.

जातिवाद बनाम विकास

एक तरफ कोरोना वायरस का कहर तो दूसरी तरफ बाढ़ से आफत में घिरे लोगों में सरकार के प्रति गुस्सा जरूर है पर आगे चुनाव है और फिर से एक बार जातपात और धर्म के नाम पर वोट मांगे जाएंगे.

इधर नेताजी चुनाव जीतेंगे और उधर विकास का मुद्दा फिर ठंढे बस्ते में चला जाएगा. लोगों को सिर्फ इतना ही सुकून होगा कि कम से कम उन की जाति का कोई नेता तो जीता.
जातपात ने बिहार में विकास की रफ्तार को रोक रखा है और नेता लोग इस बात को अच्छी तरह समझते हैं.

सुशांत की मौत के बाद बॉलीवुड से नाराज है बिहार के लोग, नहीं देखना चाहते इन सितारों की फिल्में!

बौलीवुड एक्टर सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput) की सुसाइड के बाद से सभी जगह बस उन्ही की बातें चल रही है फिर चाहे वे सुशांत को इंसाफ दिलाने की बात हो या फिर स्टार किड्स (Star Kids) को बौयकौट करने की बात हो. बौलीवुड से लेकर भोजपुरी इंडस्ट्री तक सुशांत सिंह राजपूत के जाने से उदास है. ऐसे में भोजपुरी इंडस्ट्री से जुड़े कई लोगों ने सुशांत को याद कर उनके बारे में सोशल मीडिया पर काफी कुछ लिखा है और तो और खेसारीलाल यादव (Khesarilal Yadav) और अक्षरा सिंह (Akshara Singh) जैसे कलाकार सुशांत के घर उनके परिवार वालें से मिलने भी पहुंचे थे.

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सुशांत सिंह राजपूत पटना, बिहार के रहने वाले थे और उनकी आत्महत्या की खबर सुन पूरा बिहार इस समय काफी उदास है. इतना ही नहीं बल्कि पिछले दिनों पटना के लोगों ने सुशांत सिंह राजपूत को इंसाफ दिलाने के लिए कैंडल मार्च तक निकाली थी और उस कैंडन मार्च में करण जौहर (Karan Johar) और सलमान खान (Salman Khan) जैसे लोगों के पुतले भी जलाए गए थे जो कि बौलीवुड इंडस्ट्री में नेपोटिज्म फैला रहे हैं.

 

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Receive without pride, let go without attachment. #Meditations

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सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput) के जाने का बाद बौलीवुड इंडस्ट्री के बारे में कई बातें सामने आई हैं जिससे के सभी लोग काफी गुस्से में हैं. सबसे बड़ी बात जो सामने आई वो ये है कि करण जौहर (Karan Johar), सलमान खान (Salman Khan), आलिया भट्ट (Alia Bhatt) और संजय लीला भंसाली (Sanjay Leele Bhansali) जैसे लोग इंडस्ट्री में नेपोटिज्म (Nepotism) फैला रहे हैं और इसका मतलब ये है कि ये लोग सिर्फ बड़े बड़े स्टार्स के बच्चों को ही अपनी फिल्म में लेना चाहते हैं फिर चाहे उनमें कोई टैलेंट हो या ना हो.

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ऐसे में सुशांत सिंह राजपूत जैसे टैलेंटेड एक्टर्स जो कि स्ट्रगल कर इंडस्ट्री का हिस्सा बनना चाहते हैं उन्हें ये लोग आगे नहीं बढ़ने देते. इसी कड़ी में बिहार के लोगों ने एक और बड़ा कदम उठाया है और उनका कहना हैं कि सलमान खान, आलिया भट्ट, करण जौहर जैसे अभिनेताओं और निर्देशकों की फिल्मों पर रोक लगनी चाहिए. इन सबकी मांग ये है कि ऐसे स्टार किड्स की फिल्में अब से बिहार में रिलीज नहीं की जानी चाहिए.

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अब देखने वाली बात ये होगी कि आखिर कब तक सुशांत के फैंस उन्हें न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ेंगे और बौलीवुड इंडस्ट्री में कब तक ये नेपोटिज्म की वजह से टैलेंटेड एक्टर्स पीछे रहेंगे.

मिथिला की बेटी ने उड़ा दी है नीतीश कुमार की नींद

बिहार में आजकल सियासी रोटी गरम है और हर छोटे बड़े नेता तवे पर रोटी रख गरमगरम बयान देने में कसर नहीं छोड़ रहे.

अब बिहार सहित देश के कई जगहों पर एक खबर ने अनायास ही बिहार की राजनीति में सनसनी फैला दी है और यह सनसनी कोई और नहीं लंदन से पढलिख कर आई एक आधुनिक युवती पुष्पम प्रिया चौधरी ने फैलाई है.

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दरअसल, बिहार के कई अखबारों में छपे एक विज्ञापन ने सब को चौंका दिया है. विज्ञापन में पुष्पम प्रिया चौधरी नाम की एक महिला ने खुद को बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बताया है. विज्ञापन के जरीए इस महिला ने बताया है कि उस ने ‘प्लूरल्स’ नाम का एक राजनीतिक दल बनाया है और वह उस की अध्यक्ष हैं.

महिला दिवस पर पेश की दावेदारी

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर जहां पूरा विश्व महिला सशक्तिकरण पर जोर देने की बात कर रहा था, पुष्पम प्रिया चौधरी ने बिहार के अखबारों में विज्ञापन देते हुए मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश की. अपनी पार्टी का नाम उन्होंने प्लूरल्स  दिया है जबकि ‘जन गण सब का शासन’ पंच लाइन दी है.

पुष्पम प्रिया ने विज्ञापन में बताया कि उन्होंने विदेश में पढ़ाई की है और अब बिहार वापस आ कर प्रदेश को बदलना चाहती हैं.

कौन हैं पुष्पम

इंगलैंड के द इंस्टीट्यूट औफ डेवलपमैंट स्टडीज विश्वविद्यालय से एमए इन डेवलपमैंट स्टडीज और लंदन स्कूल औफ इकोनोमिक्स ऐंड पोलीटिकल साइंस से पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन में एमए किया है. वह दरभंगा की रहने वाली हैं और जेडीयू के पूर्व एमएलसी विनोद चौधरी की बेटी हैं. फिलहाल वे लंदन में ही रहती हैं.

जनता से अपील

पुष्पम प्रिया चौधरी ने विज्ञापन में बिहार की जनता को एक पत्र भी लिखा है, जिस में उन्होंने कहा है कि अगर वह बिहार की मुख्यमंत्री बनीं  तो 2025 तक बिहार को देश का सब से विकसित राज्य बना देंगी और 2030 तक इस का विकास यूरोपियन देशों जैसा होगा.

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पिता ने कहा नैतिक समर्थन है

पुष्पम प्रिया के पिता विनोद चौधरी चूंकि जेडीयू नेता हैं इसलिए मीडिया ने उन्हें घेर कर उन की राय जाननी चाही. पिता विनोद चौधरी ने कहा,”मेरी बेटी विदेश में पढ़ीलिखी  है. वह बालिग है और उस की और मेरी सोच में फर्क स्वाभाविक है. वह जो भी कर रही है सोचसमझ कर कर रही होगी. एक पिता होने के कारण मेरा आशीर्वाद सदैव उस के साथ है.”

क्या बदलने वाली है बिहार की राजनीति

बिहार की राजनीति यों तो दबंगई की रही है और अपने इसी दबंगई से कभी यहां की सत्ता पर राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव ने एकतरफा राज किया था. उन्हें करिश्माई नेता के तौर पर भी जाना जाता था. अपने चुटीली बोल और ठेठ गंवई अंदाज में बोलने वाले लालू फिलहाल चारा घोटाले में जेल में हैं पर उन की अनुपस्थिति में पत्नी राबङी देवी, बेटा तेजस्वी और तेजप्रताप राजनीति की बागडोर संभाले हुए हैं. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बिहार में राजद का अपना वोट बैंक है, जो कभी भी निर्णायक साबित हो सकता है.

उधर बीजेपी से नाता जोङ कर सरकार चला रहे सुशासन बाबू यानी नीतीश कुमार के लिए आगामी चुनाव जीतना आसान नहीं होगा, क्योंकि अभी तक बिहार में जातिगत आधार पर वोट पङते हैं मगर बीजेपी सरकार द्वारा लागू कैब, बढती बेरोजगारी, बिगङते कानून व्यवस्था से बिहार की जनता हलकान है और इस बार बीजेपी+जेडीयू गंठबंधन वहां आसानी से सरकार बना लेगी, इस में संशय ही है.

प्रशांत किशोर का दांव

उधर कभी नीतीश के खास रहे प्रशांत  किशोर भी सुशासन बाबू को खूब चिढा रहे हैं. नीतीश का बीजेपी के समर्थन में बोलना प्रशांत किशोर को शुरू से ही खल रहा था. वे पार्टी में रहते हुए भी नीतीश कुमार की नीतियों का कई बार आलोचना कर चुके थे, सो नीतीश ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया.

राजनीति के जानकार बताते हैं कि प्रशांत नीतीश के लिए राह का रोङा बन सकते हैं.

जल्दी ही मशहूर हो गई हैं प्रिया

पुष्पम प्रिया चौधरी यों तो युवा चेहरा हैं और जल्दी लोकप्रिय भी हो गई हैं पर बिहार की राजनीति में अभी नई हैं. पर यह राजनीति है और कहते हैं कि राजनीति और क्रिकेट अनिश्चितताओं का होता है. ऐसे में दिल्ली की तरह वहां भी कोई नया समीकरण बन जाए क्या पता?

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यह तो वक्त ही बताएगा कि बिहार में किस की सरकार बनेगी पर मिथिला की इस बेटी ने सियासी तीसमारखाओं की नींद जरूर उङा दी है.

‘भाभीजी’ ड्रग्स बेचती हैं

जीहां, ये ‘भाभीजी’ ड्रग्स, ब्राउन शुगर और अफीम बेचती हैं. पटना के जक्कनपुर इलाके की रहने वाली राधा देवी ड्रग्स के धंधेबाजों के बीच ‘भाभीजी’ के नाम से मशहूर हैं. पटना, मुजफ्फरपुर, बोधगया से ले कर रांची तक में ‘भाभीजी’ का धंधा फैला हुआ है. पटना के स्कूलकालेजों, कोचिंग सैंटरों और होस्टल वाले इलाकों के चप्पेचप्पे पर ‘भाभीजी’ के एजेंट फैले हुए हैं.

बच्चों और नौजवानों को नशे का आदी बनाने में लगी ‘भाभीजी’ और उन के गुरगे पिछले 6 सालों से इस गैरकानूनी और खतरनाक धंधे को चला रहे थे. 16 अक्तूबर, 2019 को पुलिस ने ‘भाभीजी’, उन के शौहर और 6 गुरगों को दबोच लिया.

जक्कनपुर पुलिस ने 16 अक्तूबर, 2019 को राधा देवी उर्फ ‘भाभीजी’ और उन के शौहर गुड्डू कुमार को उस समय गिरफ्तार कर लिया, जब वे आईसीआईसीआई बैंक से रुपए निकाल रहे थे. दोनों के पास से 9 लाख, 67 हजार, 790 रुपए और 20 ग्राम ब्राउन शुगर और 6 स्मार्ट फोन बरामद किए गए. उस 20 ग्राम ब्राउन शुगर की कीमत 5 लाख रुपए आंकी गई.

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पटना के सिटी एसपी जितेंद्र कुमार ने बताया कि राधा देवी उर्फ ‘भाभीजी’ और गुड्डू कुमार ब्राउन शुगर के स्टौकिस्ट हैं. पुलिस पिछले कई सालों से इन दोनों को रंगे हाथ पकड़ने की कोशिश में लगी हुई थी, पर वे हर बार पुलिस को चकमा दे कर भाग निकलते थे.

गुड्डू कुमार ने पुलिस को बताया कि ब्राउन शुगर के सप्लायर को 12 लाख रुपए देने के लिए वह बैंक से पैसे निकाल रहा था. उसी दिन सप्लायर ब्राउन शुगर की खेप ले कर आने वाला था. सप्लायर नेपाल और खाड़ी देशों से आता था.

‘भाभीजी’ और गुड्डू कुमार को आईसीआईसीआई बैंक के जिस खाते से रुपए निकालते पकड़ा गया था, उस खाते में अभी 17 लाख, 46 हजार रुपए और हैं. कंकड़बाग के आंध्रा बैंक के खाते में भी उन दोनों के 9 लाख, 94 हजार रुपए जमा हैं. इन दोनों ने ब्राउन शुगर के धंधे से करोड़ों रुपए की कमाई की है और कई मकान और फ्लैट भी खरीद रखे हैं.

राधा देवी उर्फ ‘भाभीजी’ और गुड्डू कुमार को दबोचने में लगी पुलिस की टीम 16 अक्तूबर को जक्कनपुर इलाके में ब्राउन शुगर की खरीदार बन कर पहुंची.

जक्कनपुर के इंदिरानगर इलाके के रोड नंबर-4 में शिवपार्वती कम्यूनिटी हाल से सटे किराए के मकान में जब पुलिस पहुंची, तो वहां 5 लोग ब्राउन शुगर की पुडि़या बनाने में लगे हुए थे.

पुलिस ने उन पांचों को ब्राउन शुगर के साथ गिरफ्तार कर लिया. करीमन उर्फ राजेश यादव, सोनू, गणेश कुमार, संतोष कुमार और पप्पू को पुलिस ने पकड़ा. सभी की उम्र 22 से 30 साल के बीच है.

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पिछले चंद महीनों के दौरान ड्रग्स का धंधा करने वाले 14 लोगों को पुलिस जक्कनपुर, मालसलामी, गर्दनीबाग, कंकड़बाग, रामकृष्णानगर वगैरह इलाकों से गिरफ्तार कर चुकी है. 14 सितंबर, 2019 को भी जक्कनपुर इलाके में पुलिस ने 65 लाख रुपए की ब्राउन शुगर के साथ 5 लोगों को पकड़ा था.

गिरफ्तार किए गए सभी लोग ‘भाभीजी’ के ही गुरगे थे. तब ‘भाभीजी’ और गुड्डू कुमार पुलिस की आंखों में धूल  झोंक कर भाग निकलने में कामयाब हो गए थे.

‘भाभीजी’ की देखरेख में ही ब्राउन शुगर खरीदने, उस की पुडि़या बनाने और बेचने का धंधा चलता था. एक पुडि़या 500 रुपए में बेची जाती थी. नारकोटिक ड्रग्स ऐंड साइकोट्रौपिक सब्सटैंस ऐक्ट की धारा 22 सी के तहत केस दर्ज किया गया है.

करोड़ों की दौलत होने के बाद भी ये मियांबीवी खानाबदोश की जिंदगी जीते थे. वे किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते थे. पुलिस को चकमा देने के लिए अपना ठिकाना और मोबाइल नंबर बदलते रहते थे. पुलिस साल 2012 से ही दोनों शातिरों को पकड़ने में लगी हुई थी, पर कामयाबी नहीं मिल रही थी. साल 2012 में ही दोनों के खिलाफ गर्दनीबाग थाने में एफआईआर दर्ज हुई थी.

‘भाभीजी’ ने पुलिस को बताया कि पश्चिम बंगाल और  झारखंड से ब्राउन शुगर पटना लाई जाती है. एक किलो ब्राउन शुगर की कीमत 3 करोड़ रुपए होती है. घटिया क्वालिटी की ब्राउन शुगर एक करोड़ रुपए में एक किलो मिलती है.

गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल और  झारखंड में बड़े पैमाने पर अफीम की खेती होती है. अफीम से ही ब्राउन शुगर बनाई जाती है.

ड्रग करंसी का इस्तेमाल, खतरनाक: डीजीपी

बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे मानते हैं कि ड्रग को करंसी के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. जिस्म के कारोबार में भी ड्रग करंसी खूब चल रही है. ड्रग्स के खिलाफ समाज को जहां जागरूक होने की जरूरत है, वहीं नशा मुक्ति मुहिम को मजबूत बनाना होगा.

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नशा दिल और दिमाग दोनों पर खतरनाक असर डालता है और उस के बाद बलात्कार, हिंसा जैसे कई अपराध करने के लिए उकसाता है.

पुलिस ड्रग्स के खिलाफ आएदिन धड़पकड़ करती रहती है, लेकिन समाज के सहयोग के बगैर ड्रग्स के धंधे को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता है.

अफीम की खेती छोड़ी, गेंदा लगाया

झारखंड राज्य के नक्सली एरिया खूंटी के लोगों ने अफीम की खेती से तोबा कर गेंदा के फूल उपजाने शुरू किए हैं. तकरीबन 200 परिवार गेंदे की खेती कर मुनाफा कमा रहे हैं.

आजकल धर्म का व्यापार अफीम के व्यापार की तरह रातदिन बढ़ रहा है और वहां गेंदे के फूलों की खपत बहुत होती है.

कुछ साल पहले तक इस इलाके में पोस्त की गैरकानूनी खेती होती थी और पोस्त से ही अफीम बनाई जाती है. नक्सली बंदूक का डर दिखा कर गांव वालों से जबरन अफीम की गैरकानूनी खेती कराते थे. पिछले साल अगस्त महीने में खूंटी में 14 लाख गेंदे के पौधे लगाए गए थे. आज उन से तकरीबन सवा करोड़ रुपए मुनाफा होने का अंदाजा है. सुनीता नाम की महिला किसान ने 2,000 रुपए में गेंदे के 5,000 पौधे खरीदे थे. एक पौधे से 35 से 40 फूल निकलते हैं.

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पटना में भरा पानी

नीतीश कुमार सरकार कुदरत के एक छोटे से भार के आगे इस तरह बेबस रह जाएगी, इस की उम्मीद नहीं थी. यह ठीक है कि बारिश बहुत ज्यादा थी, पर यह भी ठीक है न कि बरसों से जिस तरह पटना को चलाया जा रहा था वह कोई तालियां बजाने वाला काम न था.

देश के दूसरे शहरों की तरह अनापशनाप बनते मकान, नालों में फेंका जाता कूड़ा ताकि बाद में उन पर  झुग्गियां बन जाएं, संकरी होती सड़कें, नालियों पर बेतहाशा कब्जा, चारों तरफ गंद के ढेर बारिश के लिए तो खुली दावत हैं कहर मचाने के लिए. बारिशें तो होंगी ही, पर अच्छी सरकार वही है जो हर तरह से तैयार रहे, वरना जनता बिना सरकार के कैसे बुरी है.

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सरकार जनता को लूटने के लिए नहीं, कानून बनाए रखने के लिए, रंगदारी रोकने और कुदरत से लड़ने से बचने के तरीके ढूंढ़ने के लिए ही होती है. बिहार के लिए बाढ़ कोई नई चीज नहीं हैं, हां इतनी बारिश नई है. गंगा हर साल बाढ़ के निशान पर पहुंचती है और हर दूसरेतीसरे साल नेपाल की तराई में जबरदस्त बारिश की वजह से बहुत बड़े इलाके में पानी भर जाता है. इस बार पटना को भी पानी ने दूसरे कई जिलों समेत अपनी चपेट में ले लिया और पटना के ऊंचों के घरों में भी बाढ़ का पानी पहुंच गया. वैसे तो हर साल जब खेतों में पानी भरता है तो किसी के कानों पर जूं भी नहीं रेंगती है. देश वैसे ही चलता रहता है. कुदरत के आगे आदमी की क्या बिसात.

पटना में पानी भरा था तो सिर्फ इसलिए कि शहरों को बसाने में अब जमीन की भूख इतनी बड़ी हो गई है कि आपदाओं का खयाल ही नहीं रखा जाता. पटना गंगा की बाढ़ की वजह से नहीं डूबा, अपनी खुद की गलती से डूबा. ज्यादा बारिश होने पर पानी को निकलने की जगह नहीं मिली, क्योंकि नाले गंद से भरे हुए थे. बहुत जगह तो थे ही नहीं. 12 महीनों गंदा पानी यों ही बहता रहता है. इस भारी बारिश को  झेलने का इंतजाम तो इस देश में मुंबई में भी नहीं किया जाता, जहां हर साल 10 दिन रेलें, सड़कें बंद हो जाती हैं.

हम इतने नकारा हो गए हैं कि हमें हर समय नवरात्रों, गणेश पूजा का तो खयाल रहता है जब जम कर नाचगाना होता है, पर शहरों की सड़कों, नालों, नालियों, गंद का खयाल रखने की फुरसत नहीं है. इन दिनों, जो 100-150 मौतें हुईं भी, उन्हें तो पूरा देश भगवान की देन मान लेगा.

आज तकनीक इतनी ज्यादा और सुधरी हुई व सस्ती है कि कोई भी शहर बाढ़प्रूफ बनाना मुश्किल नहीं है. बाढ़ दुनियाभर में आती है. आजकल ज्यादा आ रही है, क्योंकि मौसम अपने तेवर दिखाने लगा है. बारिश, बर्फ, गरमी अब पहले सी हिसाब से नहीं होती. आदमी ने कुदरत से मजाक किया है, अब कुदरत कर रही है. सरकार वह है जो यज्ञहवन करा कर चुप न बैठे. सरकार वह है जो आम गरीब को बाढ़ के कहर से बचाए और सुशील कुमार मोदी को भी.

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भगवा के नाम पर

जैसे पहले सारे विपक्षी दल कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो कर अलग सरकार बनाने की कोशिश करते थे, पर हार जाते थे, वैसा ही कुछ आज भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ इकट्ठा होने की कोशिश में दूसरी पार्टियां मोटी दीवार का सामना कर रही हैं. भारतीय जनता पार्टी के लिए अब पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब में कांग्रेस की सरकार गिराना आसान है. शायद अगर वह ऐसा नहीं कर रही तो इसलिए कि इस से उसे कोई फायदा नहीं होने वाला.

हाल में ममता बनर्जी को लगभग  झुक कर दिल्ली में भाजपा नेताओं से मिलने को मजबूर होना पड़ा क्योंकि उन्हें लगने लगा है कि भाजपा का फिलहाल मुकाबला आसान नहीं है. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल भी चुपचाप दूसरे कामों में लगे हैं और भाजपा से दोदो हाथ नहीं कर रहे हैं.

भाजपा की जीत की वजह वही है जो लगभग 60 साल कांग्रेस की रही थी. कांग्रेस ने देश के कोनेकोने में ऊंची जातियों का साथ ले कर छोटी जातियों को चुग्गा फेंक कर फुसला लिया था. ऊंची जातियों के कांग्रेसी उसी तरह खादी पहनने लगे थे जैसे आज भाजपाई देशभक्ति, अखंड भारत, हिंदू समाज का बोरा लपेट कर गरीबों को फुसलाते हैं. जैसे गांधी ने धोती पहन कर सत्ता पर कब्जा करा था, वैसे ही भाजपा के सैकड़ों स्वामियों ने धर्म का दूत बन कर कोनेकोने में लोगों के कामकाज और दिमाग पर कब्जा कर लिया है.

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देश आज पहले से ज्यादा मुसीबतों में है, पर हल्ला ऐसा मचाया जा रहा है कि मानो आज से पहले कभी ज्यादा सुनहरे दिन आए ही नहीं थे. यह हल्ला सिर्फ अखबारों या टीवी पर नहीं है, हर प्रवचन, हर आरती, हर स्कूल, हर कालेज में मचाया जा रहा है. इस सब का सब से बड़ा खमियाजा वह जमात  झेल रही है जो सदियों से समाज के बाहर रही है. आज वह और बुरी हालत में है, पर भगवा दुपट्टा पहन कर उस के नेता खुश हो लेते हैं कि उन्हें बहुत पूछ मिल रही है. ऐसा ही कांग्रेस ने देश की आजादी के समय किया था और फिर इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ नारे के साथ किया था. गरीब की हालत नहीं सुधरी, पर अमीर और अमीर हो गए.

आज यही दोहराया जा रहा है. इस का असली नुकसान होगा कि देश में जो उभरने या बनाने वाली जमात है, वह पिछड़ी रह जाएगी और उसे अपने काम का सही मुआवजा नहीं मिलेगा. वह नीची की नीची ही नहीं रहेगी, बल्कि उसे सम झा दिया जाएगा कि नीचा बने रहने में ही उस का लाभ है. वैसे भी उसे पैदा होते ही बता दिया जाता है कि वह शूद्र, दलित या अछूत है तो इसलिए कि उस ने पिछले जन्म में कुछ पाप किए थे. अब भी वह उस सोच से ऊपर नहीं उठ पाएगा. राजनीतिक दल कुछ नहीं दिलाएंगे, यह पक्का है.

अगर देश में मंदी इसी तरह छाई रही, बेरोजगारी बढ़ती रही तो नुकसान सब से ज्यादा गरीब को होगा. उसे भगवा नारों से रोटी तो मिलने से रही. जिन गरीबों को उम्मीद थी कि उन को बराबरी मिल रही है, क्योंकि वे कांवडि़यों या नवरात्रों के ट्रक पर ऊंचे के साथ बैठे हैं, उन्हें पता भी न चलेगा कि वे क्याकुछ खो बैठे हैं. कांग्रेस या दूसरे दल उन्हें इस दलदल से निकालने की भी कोशिश नहीं कर रहे, क्योंकि असल में वे भी तो कुछ अच्छे भगवाई ही हैं. तिलक व कलेवाधारी, पूजापाठी संतोंमहंतों के चरणों में लोटने वाले.

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