हाथरस, बलरामपुर जैसे बीसियों मामलों में दलित लड़कियों के साथ जो भी हुआ वह शर्मनाक तो है ही दलितों की हताशा और उन के मन की कमजोरी दोनों को दिखाता है. 79 सांसदों और 549 विधायक जिस के दलित हों, वह भारतीय जनता पार्टी की इस बेरुखी से दलितों पर अत्याचार करते देख रही है तो इसलिए कि उसे मालूम है कि दलित आवाज नहीं उठाएंगे.

पिछले 100 सालों में पहले कांग्रेसी नेताओं ने और फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं ने जम कर पौराणिक व्यवस्था को गांवगांव में थोपा. रातदिन पुराणों, रामायण, महाभारत और लोककथाओं को प्रवचनों, कीर्तनों, यात्राओं, किताबों, पत्रिकाओं, फिल्मों व नाटकों से फैलाया गया कि जो व्यवस्था 2000 साल पहले थी वही अच्छी थी और तर्क, तथ्य पर टिकी बराबरी की बातें बेकार हैं.

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जिन लोगों ने पढ़ कर नई सोच अपनाई थी उन्हें भी इस में फायदा नजर आया चाहे वे ऊंची जातियों के पढ़े-लिखे सुधारक हों या दलितों के ही नेता. उन्हें दलितों में कम पैसे में काम करने वालों की एक पूरी बरात दिखी जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे.

यही नहीं, दलितों के बहाने ऊंची जातियों को अपनी औरतों को भी काबू में रखने का मौका मिल रहा था. जाति बड़ी, देश छोटा की बात को थोपते हुए ऊंची जातियों ने दहेज, कुंडली, कन्या भ्रूण हत्या जम कर अपनी औरतों पर लादी. औरत या लड़की चाहे ऊंची जाति की हो या नीची, मौजमस्ती के लिए है. इस सोच पर टिकी व्यवस्था में सरकार, नेताओं, व्यापारियों, अफसरों, पुलिस से ले कर स्कूलों, दफ्तरों में बेहद धांधली मचाई गई.

हाथरस में 19 साल की लड़की का रेप और उस से बुरी तरह मारपीट एक सबक सिखाना था. यह सबक ऊंची जातियां अपनी औरतों को भी सिखाती हैं, रातदिन. अपनी पढ़ीलिखी औरतों को रातदिन पूजापाठ में उलझाया गया. जो कमाऊ थीं उन का पैसा वैसे ही झटक लिया गया जैसा दलित आदमी औरतों का झटका जाता है. जिन आदमियों को छूना पाप होता है, उन की औरतों, बेटियों के गैंगरेप तक में पुण्य का काम होता है. यह पाठ रोज पढ़ाया जाता है और हाथरस में यही सबक न केवल ब्राह्मण, ठाकुर सिखा रहे हैं, पूरी पुलिस, पूरी सरकार, पूरी पार्टी सिखा रही है.

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दलितों के नेता चुपचाप देख रहे हैं क्योंकि वे मानते हैं कि जिन का उद्धार नहीं हुआ उन्हें तो पाप का फल भोगना होगा. मायावती जैसे नेता तो पहले ही उन्हें छोड़ चुके हैं. भारतीय जनता पार्टी के 79 सांसद और 549 विधायक अपनी बिरादरी से ज्यादा खयाल धर्म की रक्षा के नाम पर पार्टी का कर रहे हैं. दलित लड़कियां तो दलितों के हाथों में भी सुरक्षित नहीं हैं. यह सोच कर इस तरह के बलात्कारों पर जो चुप्पी साध लेते हैं, वही इस आतंक को बढ़ावा दे रहे हैं.

सरकार की हिम्मत इस तरह बढ़ गई है कि उस ने अपराधियों को बचाने के लिए पीडि़ता के घर वालों पर दबाव डाला और हाथरस के बुलगढ़ी गांव को पुलिस छावनी बना कर विपक्षी दलों और प्रैस व मीडिया को जाने तक नहीं दिया. वे जानते हैं कि जाति शाश्वत है. यह हल्ला 4 दिन में दब जाएगा.

बिहार चुनावों की गुत्थी समझ से परे हो गई है. भारतीय जनता पार्टी नीतीश कुमार का साथ भी दे रही है और उसी के दुश्मन चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी से भी मिली हुई है. इस चक्कर में हाल शायद वही होगा जो रामायण और महाभारत के अंत में हुआ. रामायण में अंत में राम के पास न सीता थी, न बच्चे लवकुश, न लक्ष्मण, न भरत. महाभारत में पांडवों के चचेरे भाई मारे भी जा चुके थे और उन के अपने सारे बेटेपोते भी.

लगता है कि हिंदू पौराणिक कथाओं का असर इतना ज्यादा है कि बारबार यही बातें दोहराई जाती हैं और कुछ दिन फुलझड़ी की तरह हिंदू सम्राट का राज चमकता है, फिर धुआं देता बुझ जाता है. बिहार में संभव है, न नीतीश बचें, न चिराग पासवान.

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जो स्थिति अब दिख रही है उस के अनुसार चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के उम्मीदवार भाजपा की सहयोगी पार्टी सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार खड़ी करेगी. वे कितने वोट काटेंगे पता नहीं, पर चिराग पासवान के पास अगर अभी भी दलित व पासवान वोटरों का समर्थन है तो आश्चर्य की बात होगी, क्योंकि चिराग पासवान जाति के नाम पर वोट ले कर सत्ता में मौज उठाने के आदी हो चुके हैं. हो सकता है कि उन्हें एहसास हो गया हो कि नीतीश कुमार निकम्मेपन के कारण हारेंगे तो लालू प्रसाद यादव की पार्टी के साथ गठबंधन करने में आसानी रहेगी और तब वे भाजपा को 2-4 बातों पर कोस कर अलग हो जाएंगे.

जो भी हो, यह दिख रहा है कि कम से कम नेताओं को तो बिहार की जनता की चिंता नहीं है. बिहार की जनता को अपनी चिंता है, इस के लक्षण दिख नहीं रहे, पर कई बार दबा हुआ गुस्सा वैसे ही निकल पड़ता है जैसे 24 मार्च को लाखों मजदूर दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु से पैदल ही बिहार की ओर निकले थे. वह हल्ला का परिणाम था, चुनावों में गुस्से का दर्शन हो सकता है.

बिहार के मुद्दे अभी तक चुनावी चर्चा में नहीं आए हैं. बिहार में बात तो जाति की ही हो रही है. बिहार की दुर्दशा के लिए यही जिम्मेदार है कि वहां की जनता बेहद उदासीन और भाग्यवादी है. उसे जो है, जैसा है मंजूर है, क्योंकि उसे पट्टी पढ़ा दी गई है कि सबकुछ पूजापाठी तय करते हैं, आम आदमी के हाथ में कुछ नहीं है.

बिहार देश की एक बहुत बड़ी जरूरत है. वहां के मजदूरों ने ही नहीं, वहां के शिक्षितों और ऊंची जाति के नेताओं ने देशभर में अपना नाम कमाया है. बिहार के बिना देश अधूरा है पर बिहार में न गरीब की पूछ है, न पढ़ेलिखे शिक्षित की चाहे वह तिलकधारी हो या घोर नास्तिक व तार्किक. ऐसा राज्य अपने नेताओं के कारण मैलाकुचला पड़ा रहे, यह खेद की बात है और नीतीश कुमार जीतें या हारें कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

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