ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ कर मध्य प्रदेश की जनता और चुनी गई कांग्रेसी सरकार से गद्दारी की थी या फिर अपनी गैरत की हिफाजत की थी, इस का सटीक फैसला अब मीडिया या चौराहों पर नहीं, बल्कि जनता की अदालत में 10 नवंबर, 2020 को होगा जब 28 सीटों पर हुए उपचुनावों के वोटों की गिनती हो रही होगी. इन 28 सीटों में से 16 सीटें ग्वालियरचंबल इलाके की हैं, जहां वोट जाति की बिना पर डलते हैं और इस बार भी भाजपा और कांग्रेस के भविष्य का फैसला हमेशा की तरह एससीबीसी तबके के लोग ही करेंगे, जिन का मूड कोई नहीं भांप पा रहा है.

साल 2018 के विधानसभा के चुनाव में इन वोटों ने भाजपा और बसपा को अंगूठा दिखाते हुए कांग्रेस के हाथ के पंजे पर भरोसा जताया था, लेकिन तब हालात और थे. ये हालात बारीकी से देखें और समझें तो महाराज कहे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का असर कम, बल्कि एट्रोसिटी ऐक्ट से पैदा हुई दलितों और सवर्णों की भाजपा से नाराजगी ज्यादा थी.

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दलित इस बात से खफा थे कि भाजपा सवर्णों को शह दे रही है और इस मसले पर अदालत भी उस के साथ है, इस के उलट ऊंची जाति वाले इस बात से गुस्साए हुए थे कि संसद में अदालत के फैसले को पलट कर मोदी सरकार उन की अनदेखी करते हुए दलितों को सिर चढ़ा रही है, जबकि वे हमेशा उसे वोट देते आए हैं.

इसी इलाके में बड़े पैमाने पर एट्रोसिटी ऐक्ट को ले कर हिंसा हुई थी. इस का नतीजा यह हुआ कि इन दोनों ही तबकों के वोट भाजपा से कट कर कांग्रेस की झोली में चले गए और वह इस इलाके की 36 सीटों में से 26 सीटें ले गई.

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