दलितों के नेता होने का दावा करने वाले रामविलास पासवान वर्षों से उस पार्टी के साथ चिपके हैं जिस पर उन्होंने ही एक बार सदियों से हो रहे जुल्मों को सही और पिछले जन्मों का फल बताया था. सत्ता के मोह में रामविलास पासवान अपना पासा तो सही फेंकते रहे हैं और अपनी जगह बचाए रखते रहे हैं, पर वे इस चक्कर में दलितों के हितों को नुकसान पहुंचाते रहे हैं.

उदित राज, रामविलास पासवान, मायावती जैसे बीसियों दलित नेता भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में हैं और इन दोनों पार्टियों में दलितों और उन के वोटों का इस्तेमाल करने वाले ऊंचे नेताओं की देश में कमी नहीं है और हर पार्टी में ये मौजूद हैं. इन की मौजूदगी का आम दलितों को कोई फायदा होता है, यह दिखता नहीं है. हाल में अपने गांवों तक बड़े शहरों से पैदल चल कर आने वाले मजदूरों में काफी बड़ी तादाद में दलित ही थे और इन के नेताओं के मंत्रिमंडल में होने के बावजूद न केंद्र सरकार ने और न राज्य सरकारों ने इन मजदूरों से हमदर्दी दिखाई.

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रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अब बिहार के चुनावों से पहले पर फड़फड़ा रही है, पर यह साफ है कि वह नेताओं के हितों को ध्यान में रखेगी, वोटरों के नहीं. दलितों की मुश्किलें अपार हैं, पर चाहे उन की गिनती कुछ भी हो, उन के पास अपना दुख कहने का कोई रास्ता नहीं है.

रामविलास पासवान, प्रकाश अंबेडकर, मायावती जैसे दसियों नेता देशभर में हैं, पर उन्हें अपनी पड़ी रहती है. जो थोड़े उद्दंड होते हैं जैसे चंद्रशेखर उन्हें सरकार जल्दी ही जेल में पहुंचा देती है और ऊंची जातियों के जज उन्हें जमानत नहीं देते. उन के सत्ता में बैठे नेता चुप रहते हैं.

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