भोजपुरी डायरेक्टर्स की पहली पसंद बनीं चांदनी सिंह, देखें ग्लैमरस फोटोज

भोजपुरी फिल्मों की बेहतरीन अदाकारा चांदनी सिंह अपने अभिनय की वजह से हरदम सुर्खियों में बनी रहतीं हैं. एल्बम गर्ल के रूप में फिल्मों में पहचान बनाने वाली चांदनी सिंह इन दिनों निर्माताओ निर्देशकों की पहली पसंद बनी हुई हैं. चांदनी सिंह ने अभिनय की शुरुआत खेसारीलाल यादव के साथ के एक वीडियो एल्बम  ‘डोली में गोली मार देब.’ से की थी जो बहुत ही हिट रही.

चांदनी सिंह को उसके तुरंत बाद एक नया एल्बम ‘चोंए चोंए’ भी मिली जो सुपरहिट रही. उनका एल्बम ‘मिलते मरद हमके भूल गईलू’ गाना इंटरनेट पर धमाल मचा चुका है. इस गाने को यूट्यूब पर करीब 6 करोड़ से भी ज्यादा बार देखा जा चुका है. चांदनी सिंह की फिल्मों में एंट्री बड़े निर्देशकों में शुमार अरविन्द चौबे “मैं नागिन तू सपेरा” से हुई थी.

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इस फिल्म में चांदनी के अपोजिट भोजपुरी के स्टार अरविन्द अकेला कल्लू थे. इसके बाद उन्होने संजीव मिश्रा के साथ बद्रीनाथ, पवन सिंह के साथ राजा, बॉस, और क्रेक फाईटर, यश कुमार मिश्रा के साथ विजयी भवः खेसारी लाल यादव के साथ मेरी जंग मेरा फैसला जैसी फिल्मों में काम किया. जहां दर्शकों ने उन्हें एल्बमों से भी ज्यादा प्यार दिया.

चांदनी सिंह चुनौतियों का डट कर सामना करने वाली अभिनेत्रियों में सुमार हैं. इसी लिए वह जौनपुर जैसे छोटे शहर से निकल इस मुकाम को हासिल करने में कामयाब हो पाई हैं. उनका कहना है की छोटे शहरों की लड़कियों में प्रतिभाएं छुपी है. लेकिन इन शहरों के दकियानूसी सोच के चलते यह लडकियां आगे नहीं बढ़ पाती है. अब छोटे शहरों के लोगों को अपने सोच में बदलाव लाने की जरुरत है. उन्हें चाहिए की अपने घरों की लड़कियों को आगे बढ़ने में मदद करें जिससे यह लड़कियां भी आगे बढ़ पायें.

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वह कहती हैं की अगर आप चुनौती स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है तो आप के लिए सफलता थोड़ी मुश्किल हो जाती है. इसी लिए मै हर तरह के रोल के लिए खुद को तैयार रखती हूं चाहे वह कितना ही कठिन रोल क्यों न हो. यही कारण है की मै निर्माता-निर्देशकों की पहली पसंद बनी हुई हूं और मुझे लगतार अच्छी फिल्में मिल रहीं हैं.

वहीं चांदनी सिंह के फैन्स का कहना है की चांदनी लाजवाब अभिनय करती है इसी वजह से उन्हें लगातार फिल्मे मिल रही हैं. अभी हाल ही में चांदनी जी ने प्रमोद प्रेमी के साथ एक फिल्म कम्पलीट कि है. इसके अलावा अरविन्द अकेला कल्लू के साथ भी उन्होंने हाल ही में एक फिल्म पूरी की है. चांदनी ने यश कुमार की फिल्म वचन को भी पूरा किया है. जिसके निर्देशक धीरू यादव हैं. वह फिल्म “वचन” के गाने को पूरा करने के लिए उत्तर प्रदेश जाने वाली है जिसमे उनके साथ यश कुमार, निधि झा लुलिया है.

चांदनी सिंह ने भोजपुरी के सभी बड़े एक्टरों के साथ काम कर चुकी हैं जिसमें खेसारीलाल, पवन सिंह, यशकुमार, अरविन्द अकेला कल्लू का नाम प्रमुख है.

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चांदनी सिंह के वीडियो अल्बम लिंक्स- 

https://www.youtube.com/watch?v=ZgvRXUOSZfY

एक भावनात्मक शून्य: भाग 1

काफी समय के बाद विजय से मिलना हुआ. मौसी की बेटी की शादी थी. मामा की एक बेटी थी मिन्नी और बेटा विजय. मिन्नी बचपन से ही नकचढ़ी थी और विजय मेधावी और शालीन. मिन्नी काफी सभ्य, समझदार और विजय भी एक पूर्ण अस्तित्व. समूल परिपक्वता लिए हुए नजरों के सामने आए तो समझ ही नहीं पाया कैसे बात शुरू करूं. अजनबी से लगे वे.

बचपन का प्यार, बिना लागलपेट का व्यवहार कहां चला गया. मिलने का उत्साह उड़नछू हो गया जब विजय ने बस इतना ही पूछा, ‘‘कहो, कैसे हो? सोम ही हो न. बहुत समय के बाद मिलना हुआ. घर में सब ठीक हैं न. शांति बूआ के ही बेटे हो न?’’

अवाक् रह गया था मैं. सोचा था झट से गले मिलूंगा सब से. कितना सब बांट लूंगा बचपन का, वह बारिश में भीग कर छींकना…

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मेरे और विजय के कपड़े बदलवाती मामी सारा दोष विजय पर ही थोप देतीं. ‘क्यों वह मेरे साथ मस्ती करता रहा,’ बड़बड़ा कर तुलसी का काढ़ा पिलातीं और खबरदार करतीं कि फिर से बारिश में गए तो घर से ही निकाल देंगी. बहुत प्यार करती थीं मामी मुझे. हर साल मामी के पास जाने की एक और वजह भी थी, मामी नारियल और खसखस के लड्डू बड़े स्वादिष्ठ बनाती थीं. तरहतरह के व्यंजन बना कर खिलाना मामी का प्रिय शौक था.

‘‘मामीजी कैसी हैं विजय, उन्हें साथ नहीं लाए?’’

‘‘मां भी चली आतीं तो पापा अकेले रह जाते. मेरे पास भी छुट्टी नहीं थी. मजबूरीवश आना पड़ा. यहां मामा की जगह सारी रस्में मुझे जो निभानी हैं. पापा तो चलफिर नहीं न सकते…’’

विजय ने मजबूरी स्वीकार कर ली थी, जो उस के व्यवहार में भी झलक रही थी. जाहिर था वह यहां आ कर खुश नहीं था. एक मजबूरी ढोने आया था, बस.

‘‘बूआ और फूफाजी नहीं आए? कैसे हैं वे दोनों?’’ मिन्नी ने सवाल किया था. शायद मैं ने उस के मांबाप का हालचाल पूछा था इसलिए मिन्नी ने भी कर्ज उतार दिया था. मन बुझ सा गया था. ये दोनों वे नहीं रहे, कहीं खो से गए हैं दोनों.

खासी चहलपहल थी घर में. मौसी की बड़ी बेटी नताशा और छोटी सीमा है जिस की शादी में हम आए हैं. नताशा का पति अभी कुछ दिन पूर्व अमेरिका गया है. शादीब्याह में दस काम करने को होते हैं. एक वजह यह भी थी सोम के आने की.

‘‘सोमू भैया, तुम….’’

मेरी तंद्रा टूटी थी.

नताशा सामने खड़ी थी. गहनों से लदीफंदी. पहले से थोड़ी मोटी और सुंदर.

‘‘हाय, सोमू भैया,’’ हाथों में पकड़े बैग पटक लगभग भाग कर आई थी मेरे पास और मेरे गले से लिपट मेरे गाल पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए थे.

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‘‘कैसी हो, नताशा?’’

मन भर आया था मेरा. मैं अकेली संतान हूं न अपने मांबाप की जिस वजह से किसी भाईबहन का प्यार मुझे सदा दरकार रहता है. नताशा मेरी प्यारी सी बहन है. इस की शादी में भी आया था मैं, भाई की हर रस्म मैं ने ही पूर्ण की थी.

‘‘सुना है श्रीमान अमेरिका गए हैं… बिटिया कैसी है?’’

‘‘क्या बताऊं भैया, बिटिया ने बहुत तंग कर रखा है. अपने पापा के बिना उदास हो गई है. उस का बुखार ही नहीं उतर रहा. जब से गए हैं तब से बुखार में तप रही है.’’

अपनी दादी की गोद में थी बिटिया. खाना खा कर हम सब अपने कमरे में आ गए, जहां नन्ही सी बच्ची बुखार में तप रही थी. नताशा शादी के काम में व्यस्त थी और उस की सास पोती की देखभाल में. कुछ ही पल में मैं तो दोनों दादीपोती से हिलमिल गया लेकिन मिन्नी और विजय औपचारिक बातचीत के बाद आराम करने के लिए लेट गए. 2 साल की गोलमटोल बच्ची तेज बुखार में तप रही थी.

‘‘क्या बताएं बेटा, सभी टेस्ट करा चुके हैं. कोई रोग नहीं. बाप वहां उदास है… बेटी यहां तप रही है.’’

बेटे के वियोग में मां भी बेचैन और बेटी भी. नताशा की आंखें भी भर आई थीं.

‘‘मैं ने बहुत समझाया था उन्हें, माने ही नहीं. कहने लगे, तरक्की करनी है तो परिवार का मोह छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘एक ही बेटा है मेरा…इतना बड़ा घर है. बिटिया के दादाजी की पेंशन आती है. हमारी कोई जिम्मेदारी भी नहीं थी उस पर, कहता है कि बिटिया ही बहुत है और बच्चा नहीं चाहिए…अब इस बिटिया के लिए क्या यहां कुछ कम था जो पराए देश में जा बसा है. इस बिटिया के लिए ही न सारा झमेला, बिटिया ही न रही तो किस के लिए सब. महीना भर हुआ है उसे गए और महीना ही हो गया है हमें डाक्टरों के चक्कर लगाते. क्या करें हम.’’

‘‘आजा, बेटा मेरे पास,’’ यह कह कर मैं ने हाथ बढ़ाए तो बिटिया ने झटक दिए.

‘‘किसी के पास जाती भी तो नहीं, दादीदादा और मां के सिवा कोई हाथ न लगाए.

वैसे तो सारा इंतजाम होटल में है फिर भी…’’ नताशा ने मन खोला था.

‘‘कोई बात नहीं, मैं और विजय हैं ही. तुम हमें काम समझा दो. आज और कल 2 दिन की ही तो बात है. काम बांट दो न, हम कर लेंगे सब…क्यों विजय?’’

पुकार लिया था मैं ने विजय को. ममेरा भाई है, शादी में काम तो कराएगा न. लाख अजनबी लगे, है तो अपना.

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तय हो गया सब. कल जब सब घर से चले जाएं तब पूरे घर की जिम्मेदारी विजय पर. शादी का सारा सामान घर पर है न. सोना, चांदी, जेवर, कपड़े और क्या नहीं. सिर्फ मामा की मिलनी के समय विजय होटल में जाएगा. जैसे ही रस्म हो जाए वह घर वापस आ जाएगा और तब तक मौसी के पड़ोसी उन के घर का खयाल रखेंगे. मेरे जिम्मे था होटल का सारा इंतजाम देखना.

‘‘सीमा को ब्यूटी पार्लर से लाने का काम भी विजय का. विजय सीमा को होटल छोड़, रस्म पूरी कर घर आ जाएगा. क्यों विजय, ठीक रहेगा न?’’

गरदन हिला दी थी विजय ने. उसी शाम हम दोनों जा कर सभी रास्ते समझ आए थे. लगभग पूरी शाम हम साथ रहे थे. वह चुप था. उस ने अपनी तरफ से कोई भी बात नहीं की थी. मैं ही था जो निरंतर उसे कुरेद रहा था.

‘‘शादी कब कर रहे हो, विजय? सीमा के बाद अब तुम दोनों ही बच गए हो, जो आजाद घूम रहे हो.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी कैसी है सोम? उसे साथ क्यों नहीं लाए?’’

‘‘तुम चाचा बनने वाले हो न. आजकल में कभी भी, इसीलिए मम्मी और पापा भी नहीं आ पाए.’’

‘‘अरे, ऐसी हालत में तुम पत्नी को छोड़ कर यहां चले आए.’’

‘‘क्या करें भाई, यही तो गृहस्थी है. अपने घर के साथसाथ भाईबहन का घर भी तो देखना चाहिए. यहां मौसी का कोई बेटा होता तो वही संभाल लेता न सब. अब संयोग देखो, दामादजी हैं तो ठीक शादी से पहले अमेरिका चले गए. छोटे परिवारों की यही तो त्रासदी है. एक भी सदस्य कम हो जाए तो सब अस्तव्यस्त हो जाता है.’’

सुनता रहा विजय सब. बस, जरूरत की बात करता रहा जिस के बिना गुजारा नहीं चल सकता था.

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‘‘अब तुम्हारे घर पर ही देख लो. मिन्नी की शादी के बाद तुम भी अकेले रह जाओगे. घरबाहर, मांबाप सब को अकेले ही तो देखना होगा. मिन्नी का पति घुलमिल गया तो ठीक. नहीं तो एक असुरक्षा की भावना तो है ही न. जैसे मुझ में है… किसी अपने को ही खोजता रहता हूं… कोई अपना ऐसा जिस पर भरोसा कर सकूं. तुम्हारी तो एक बहन है भी, मेरे पास तो वह भी नहीं है.’’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

दूसरी बार: भाग 1

लेखिका- डा. उषा यादव

आसमान से गिर कर खजूर में अटकना इसी को कहते हैं. गांव के एकाकी जीवन से ऊब कर अम्मां शहर आई थीं, किंतु यहां भी बोझिल एकांत उन्हें नागपाश की तरह जकड़े हुए था. लगता था, जहां भी जाएंगी वहां चुप्पी, वीरानी और मनहूसियत उन के साथ साए की तरह चिपकी रहेगी. गांव में कष्ट ही क्या था उन्हें? सुबह चाय के साथ चार रोटियां सेंक लेती थीं, उन के सहारे दिन मजे में कट जाता था. कोई कामधाम नहीं, कोई सिरदर्द नहीं. उलझन थी तो यही कि पहाड़ सा लंबा दिन काटे नहीं कटता था.

भूलेभटके कोई पड़ोसिन आ जाती तो कमर पर हाथ रख कर ठिठोली करती, ‘‘अम्मांजी को अपनी गृहस्थी से बड़ा मोह है. रातदिन चारपाई पर पड़ेपड़े गड़े धन की चौकसी किया करती हैं.’’

‘‘कैसा गड़ा धन, बहू?’’ वह उदासीन भाव से जवाब देतीं, ‘‘लेटना तो वक्त काटने का एक जरिया है. बैठेबैठे थक जाती हूं तो लेटी रहती हूं. लेटेलेटे थक जाती हूं तो उठ बैठती हूं.’’

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पड़ोसिन सहानुभूति जताते हुए वहीं देहरी पर बैठ जाती, ‘‘जिंदगी का यही रोना है. जवानी में आदमी के पास काम ज्यादा, वक्त कम होता है. बुढ़ापे में काम कुछ नहीं, वक्त ही वक्त रह जाता है. बालबच्चे अपनी दुनिया में रम जाते हैं. बूढ़े मांबाप बैठ कर मौत का इंतजार करते हैं. उन में से अगर एक चल बसे तो दूसरे की जिंदगी दूभर हो जाती है. जब से बाबूजी गुजरे हैं, तुम्हारे चेहरे पर हंसी नहीं दिखाई दी. न हो तो कुछ दिन के लिए राकेश भैया के यहां घूम आओ. मन बदल जाएगा.’’

‘‘यही मैं भी सोचती हूं,’’ वह गंभीर भाव से सिर हिलातीं, ‘‘राकेश की चिट्ठी आई है कि वह अगले महीने आएगा. तभी उस से कहूंगी कि मुझे अपने साथ ले चले.’’

पर अम्मां को कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. राकेश खुद ही उन्हें साथ ले चलने के लिए आतुर हो उठा. वजह यह थी कि बेटे के सत्कार में मां ने बड़े चाव से भोजन बनाया था…दाल, चावल, रोटी, तरकारी और चटनी.

किंतु जब थाली सामने आई तो राकेश समझ नहीं सका कि इन में से कौन सी वस्तु खाने लायक है? दाल, चावल में कंकड़ भरे हुए थे. कांपते हाथों की वजह से कोई रोटी अफगानिस्तान का नक्शा बन गई थी तो कोई रोटी कम, डबलरोटी ज्यादा लग रही थी. तरकारी के नाम पर नमकीन पानी में तैरते आलू के टुकड़े थे. कुचले हुए आम में कहने भर के लिए पुदीना था.

अम्मां ने खुद ही अपराधी भाव से सफाई दी, ‘‘यह खाना कैसे खा सकोगे, बेटा? बुढ़ापे में न हाथपांव चलते हैं, न आंखों से सूझता है. अपने लिए जैसेतैसे चार टिक्कड़ सेंक लेती हूं. तुम्हारे लायक खाना नहीं बना सकी. आज तुम भूखे ही रह जाओगे.’’

‘‘खाना बहुत अच्छा बना है, अम्मां. सालों बाद तुम्हारे हाथ की बनी रोटी खाई तो पेट से ऊपर खा गया हूं,’’ राकेश ने आधा पेट खा कर उठते हुए कहा. उस ने मन ही मन फैसला भी कर लिया कि अम्मां को इस हालत में एक दिन भी अकेला नहीं छोड़ेगा.

भावनाओं के जोश में उस ने दूसरा फैसला यह किया कि गांव का मकान बेच देगा. वह जानता था कि अगर मकान रहा तो अम्मां कुछ ही दिनों में गांव लौटने की जिद करेंगी. कांटा जड़ से उखड़ जाए तभी अच्छा है. सदा की संकोची अम्मां बेटे के सामने अपनी अनिच्छा जाहिर न कर सकीं. नतीजा यह हुआ कि 2 दिन में मकान बिक गया. तीसरे दिन गांव के जीवन को अलविदा कह कर अम्मां बेटे के साथ शहर चली आईं.

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शहर आते ही पहला एहसास उन्हें यही हुआ कि गांव का मकान बेचने में जल्दबाजी हो गई है. बहू ने उन्हें देख कर जिस अंदाज में पांव छुए और जिस तरह मुंह लटका लिया, वह उन्हें बहुत खला. आखिर वह बच्ची तो थी नहीं. अनमने ढंग से किए जाने वाले स्वागत को पहचानने की बुद्धि रखती थीं. बच्चों ने भी एक बार सामने आ कर नमस्ते की औपचारिकतावश और फिर न जाने घर के किस कोने में समा गए.

बहू ने नौकर को हुक्म दिया, ‘‘अम्मांजी के लिए पीछे वाला कमरा ठीक कर दो. गुसलखाना जुड़ा होने के कारण वहां इन को आराम रहेगा. एक पलंग बिछा दो और इन का सामान वहीं पहुंचा दो. उस के बाद चाय दे आना. मैं लता मेम साहब के यहां किटी पार्टी में जा रही हूं.’’

बहू सैंडल खटखटाती हुई चली गई और वह भौचक्की सी सोफे पर बैठी रह गईं. कुछ देर बाद नौकर ने उन्हें उन के कमरे में पहुंचा दिया. एक ट्रे में चायनाश्ता भी ला दिया. अकेले बैठ कर चाय का घूंट भरते हुए उन्होंने सोचा, ‘क्या सिर्फ इसी चाय की खातिर भागी हुई यहां आई हूं?’

पर यह चाय भी अगली सुबह कहां मिल सकी थी? रात का खाना वह नहीं खातीं, यह बात बहू जानती थी. इसलिए उस ने शाम को खाने के लिए नहीं पुछवाया. कुछ और लेंगी, यह भी पूछने की जरूरत नहीं समझी.

वह इंतजार करती रहीं कि बहूबच्चों में से कोई न कोई उन के पास अवश्य आएगा, हालचाल पूछेगा पर निराशा ही हाथ लगी.

जब बहूबच्चों की आवाजें आनी बंद हो गईं और घर में सन्नाटा छा गया तो एक ठंडी सांस ले कर वह भी लेट गई. टूटे मन को उन्होंने खुद ही दिलासा दिया, ‘मुझे सफर से थका जान कर ही कोई नहीं आया. फुजूल ही मैं बात को इतना तूल दे रही हूं.’

सुबह  जब काफी देर तक कोई नहीं आया तो वह बेचैन होने लगीं. मुंह अंधेरे उठ कर उन्होंने दैनिक कार्यों से छुट्टी पा ली थी. अब चाय की तलब उन्हें व्याकुल बना रही थी. दूर से आती चाय के प्यालों की खटरपटर जब सही न गई तो उन्होंने सोचा, ‘लो, मैं भी कैसी मूर्ख हूं. यहां बैठी चाय का इंतजार कर रही हूं. आखिर कोई मेहमान तो हूं नहीं. मुझे खुद उठ कर बालबच्चों के बीच पहुंच जाना चाहिए. यहां हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना कितना बेतुका है?’

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बीच के कमरों को पार कर के वह खाने के कमरे में जा पहुंचीं. वहां बड़ी सी मेज के इर्दगिर्द बैठे बहूबच्चे चायनाश्ता कर रहे थे. राकेश शायद पहले ही खापी कर उठ चुका था. अम्मां को देख कर एकबारगी सन्नाटा सा खिंच गया. अगले ही पल बहू तमक कर उठते हुए बोली, ‘‘बुढ़ापे में जबान शायद ज्यादा ही चटोरी हो जाती है.’’

अम्मां समझ नहीं सकीं कि इस बात का मतलब क्या है? भौचक्की सी बहू का मुंह ताकने लगीं.

बहू ने तीखी आवाज में बात स्पष्ट की, ‘‘इन्हें दफ्तर जाने की जल्दी थी. बच्चों के स्कूल का समय हो रहा था. मैं जल्दीजल्दी सब को खिलापिला कर आप के पास चाय भेजने की सोच रही थी पर तब तक सब्र नहीं कर सकीं आप?’’

अम्मां फीकी हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘ठीक कहती हो, बहू. अभी चाय के लिए कौन सी देर हो गई थी? मैं ही हड़बड़ी में बैठी न रह सकी.’’

वह वापस अपने कमरे में लौट आईं. कुछ देर बाद नौकर एक गिलास में ठंडी चाय और एक तश्तरी में 2 जले हुए टोस्ट ले कर आ पहुंचा. जिस चाय के लिए वह इतनी आकुल थीं, वह चाय अब जहर का घूंट बन चुकी थी. बड़ी मुश्किल से ही अम्मां उसे गले से नीचे उतार सकीं. न चाहते हुए भी आंखों के सामने मेवे, फल और मिठाई से सजी हुई खाने की मेज बारबार घूम रही थी.

चाय पी कर गिलास रख रही थीं कि बेटा बड़े व्यस्त भाव से कमरे में आ कर बोला, ‘‘क्या हाल है, अम्मां? यहां आ कर अच्छा लगा तुम्हें?’’

‘‘हां, बेटा.’’

‘‘चायवाय पी?’’

‘‘पी ली.’’

‘‘मैं ने सुधा से कह दिया है कि तुम्हारे आराम का पूरा खयाल रखे. दोपहर के खाने में अपनी मनपसंद चीज बनवा लेना. मैं दफ्तर जा रहा हूं. शाम को देर से लौटूंगा. इस मशीनी जिंदगी में मुझे मिनट भर की फुरसत नहीं. तुम बिना किसी संकोच के अपनी हर जरूरत सुधा को बता देना.’’

‘‘ठीक है, बेटा,’’ वह प्लास्टिक के चाबी भरे बबुए की तरह नपेतुले शब्द ही बोल पाईं.

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बस, दिनभर में सिर्फ यही बातचीत थी, जो किसी ने उन के साथ की. उस के बाद सारा दिन वह अकेली पड़ीपड़ी ऊबती रहीं. नौकर एक बार आ कर उन के कमरे में पानी से भरी सुराही रख गया. दोबारा आ कर उन्हें खाने की थाली दे गया.

उस के बाद कोई उन के कमरे में झांकने तक नहीं आया. सुबह का अनुभव इतना कड़वा था कि खुद उन की हिम्मत भी दोबारा बहूबच्चों के बीच जाने की नहीं हुई. बोझिल अकेलापन सांप की तरह उन को निरंतर डसता रहा.

वह पहली दफा बेटेबहू के यहां नहीं आई थीं. पहले भी तनु और सोनू के जन्म पर राकेश उन्हें लिवा लाया था. जिद कर के सालसालभर रोके रखा था. उस समय इसी बहू ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. इतना लाड़ लड़ाती थी कि अपनी सगी बेटी भी क्या दिखाएगी? दूध, फल, दवा हर चीज उन्हीं के हाथ से लेती थी. जरा देर होती नहीं कि ‘अम्मांअम्मां’ कह कर आसमान सिर पर उठा लेती थी.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

हाय रे प्याज ये तूने क्या कर डाला

लोगों के थाली से कहीं प्याज गायब है तो कहीं पर खेतों से प्याज चोरी हो रहे हैं. रेस्टोरेंट्स ने ओनियन डोसा बंद कर दिया तो संसद में प्याज की कीमतों पर हंगामा हो रहा है. लोग धरना दे रहें हैं तो कहीं प्याज लौकर में रखे जा रहे हैं. अब भाई ये सब जानकर तो यही कहेंगे की हाय रे प्याज ये तूने क्या कर डाला…

इस वक्त प्याज की कीमतें आसमान छू रहीं हैं गरीबों को प्याज मिलने की बात तो दूर यहां मध्यम वर्ग के परिवार और अमीरों तक के होश उड़े हुए हैं. अगर प्याज की कीमतों की बात करें तो इस वक्त जो रेट है उस हिसाब से प्याज खाना बहुत ही मुश्किल है. पिछले एक हफ्ते में प्याज की जो कीमत बढ़ी है वो भी आपको हैरान कर देगी.

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इस वक्त पूरे देश में प्याज 80 रुपये प्रति किलो से लेकर 120 रुपये प्रति किलो तक बिक रही है. जयपुर में प्याज की कीमत 85 रु प्रति किलो है, वाराणसी में प्याज की कीमत 90 रू प्रति किलो तक है. इतना ही नहीं दिल्ली में पिछले हफ्ते प्याज की थी 70 से 80 रु प्रति किलो लेकिन अब इसकी कीमत बढ़कर हो गई 100 से 120 रु प्रति किलो. हैदराबाद में 120-150 रु, भोपाल में 100-110,भुवनेश्वर में 100-120, पटना में 90-100, चंडीगढ़ में 95- 105, लखनऊ में 90-100, मुंबई में 100- 120 रूपये प्रति किलो तक प्याज बिक रहें हैं.

अब आप ये वाक्या भी जानकर हैरान ही होंगे कि मंदसौर के रिचा गांव में एक किसान के खेत से प्याज चोरी हो गई. उसने ये दावा किया कि मेरे खेत से 30,000 रुपये की प्याज की चोरी हुई है. अब ये तो सोचने वाली ही बात है कि कहां रुपया, पैसे और गहने चोरी होते थे और अब तो प्याज भी चोरी होने लगा.

अब भला आप खुद सोचिए ऐसे में कोई प्याज कहां से खाएगा? इस वक्त हर व्यक्ति को प्याज सोने-चांदी  के समान ही लग रहा होगा. प्याज की बढ़ती कीमतों को लेकर संसद तक में हंगामें हो चुके हैं. गुरुवार को संसद भवन में गांधी प्रतिमा के सामने कांग्रेस के राज्यसभा और लोकसभा दोनों ही सदनों के सदस्यों ने प्रदर्शन किया फिर भी कोई असर नहीं दिख रहा है. हालांकि विपक्षी पार्टियों को वर्तमान सरकार पर तंज कसने का अवसर जरूर मिल रहा है.

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प्याज की बढ़ती कीमत के चक्कर में मंगलवार को भी संसद में जमकर हंगामा हुआ. क्योंकि पिछले दो-ढाई महीने से प्याज की कीमतें कई बार बढ़ी हैं. आम आदमी पार्टी के सदस्यों ने भी कीमत को लेकर हंगामा किया प्रदर्शन किया. आपको ये जानकर थोड़ा आश्चर्य होगा  कि जहां एक ओर इस वक्त पूरे देश में प्याज की बढ़ती कीमतों को लेकर हंगामें हो रहे हैं वहीं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.

उन्होंने तो संसद तक में ये बयान दे दिया कि प्याज की कीमत से उनपर व्यक्तिगत तौर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि न तो वो प्याज खाती है और ना ही उनके परिवार में कोई प्याज खाता है. उन्होंने कहा कि मैं बहुत ज्यादा प्याज – लहसुन नहीं खाती हूं. इसलिए चिंता ना करें मैं ऐसे परिवार से आती हूं जहां प्याज को लेकर कोई खास परवाह नहीं है अब भले ही वो इस बात को लेकर कोई परवाह ना करती हों लेकिन सोशल मीडिया पर उनके इस बयान के कारण काफी तंज कसे जा रहे हैं. अब देखना ये है कि आगे प्याज की कीमतों को लेकर हमारी सरकार क्या करती है ? क्योंकि अभी तक तो कीमत को लेकर भले ही हंगामें हुए हों फिर भी कोई राहत नजर नहीं आ रही है.

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डा. प्रियंका रेड्डी: कानून, एनकाउन्टर और जन भावना

6 दिसंबर की सुबह सुबह जो समाचार देश की मीडिया में आकाश के बादलों की तरह छा गया वह था हैदराबाद में हुए डा. प्रियंका रेड्डी के साथ हुए बलात्कार एवं नृशंस हत्याकांड के बाद देशभर में गुस्से के प्रतिकार स्वरुप पुलिस के एनकाउंटर का. जिसमें बताया गया था कि डॉ प्रियंका रेड्डी के साथ हुई अनाचार के चारों आरोपियों को पुलिस ने एक एनकाउंटर में मार गिराया है.

इस खबर के पश्चात चारों तरफ मानो खुशियों का सैलाब उमड़ पड़ा. सोशल मीडिया हो या देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जब समाचार को लेकर आया तो इसके पक्ष में कसीदे पढ़े जाने लगे. यह अच्छी बात है कि लोगों में बलात्कार अनाचार के प्रति रोष दिखाई पड़ता है. मगर इस एनकाउंटर के पश्चात जिस तरह एकतरफा एनकाउंटर को जायज ठहराया गया वह कई प्रश्न खड़े करता है और यह संकेत देता है कि हमारा समाज, देश किस दिशा में जाने को तैयार खड़ा है. देखिए सोशल मीडिया कि कुछ प्रतिक्रियाएं-

प्रथम-हैदराबाद में रेप के चारों आरोपियों को पुलिस ने मार गिराया. बहुत लोग खुश हो रहे हैं. सत्ता यही चाहती है कि आप ऐसी घटनाओं पर खुश हों और आपकी आस्था बनी रहे.

द्वितीय- क्या एनकाउंटर की इसी तर्ज पर बड़ी मछलियों को भी मार दिया जाएगा? लिस्ट बहुत लंबी है. किस किस का नाम लिया जाय और किसे छोड़ा जाय?

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तृतीय- शायद मानवाधिकार और बुद्धिजीवी वर्ग पुनः सक्रिय होनेवाला है, इस एनकाउंटर के लिए पर आम जनता प्रसन्न है. तुरंत दान महा कल्याण. डिसीजन ओन द स्पॉट.निर्भय  की तरह न झूलेगा केस न जुवेनाइल कोर्ट का झमेला. जियो जियो .

चतुर्थ- सेंगर, कांडा, चिन्मयानंद, मुजफ्फरपुर शेल्टर होम के मालिक और एम जे अकबर जैसों का एनकाउंटर कब होगा ?

पंचम- “कुछ देर बाद कई मानवाधिकार के ढोल वाले अपना शटररुपी मुँह खोलेंगे.उन्हें अवॉयड करियेगा. आज पीड़ित बेटी को अधिकार मिला है.

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हैदराबाद गैंगरेप और मर्डर केस के चारों आरोपियों का एनकाउंटर कर दिया गया है. चारों आरोपियों को गुरुवार देर रात नेशनल हाइवे-44 पर क्राइम सीन पर ले जाया गया था. जहां उन्होंने भागने की कोशिश की तो पुलिस को एनकांउंटर करना पड़ा.हालांकि अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि इन चारों का एनकाउंटर किन परिस्थितियों में हुआ है.हैदराबाद में महिला वेटनरी डॉक्टर के साथ जिस तरह से चार लोगों ने कथित रूप से गैंगरेप किया और उसे जिंदा जला दिया उसके बाद देशभर में लोगों के भीतर इस घटना को लेकर आक्रोश था. लेकिन अब इन चारों ही आरोपियों को पुलिस ने एनकाउंटर में ढेर कर दिया है.

बता दें कि गैंगरेप और बर्बरता से हत्या के मामले तेलंगाना सरकार ने बुधवार को आरोपियों के खिलाफ मुकदमे की सुनवाई के लिए महबूबनगर जिले में स्थित प्रथम अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत को विशेष अदालत (फास्ट ट्रैक कोर्ट) के रूप में नामित किया था. इस मामले में पुलिस ने सोमवार को अदालत में याचिका दाखिल करके आरोपियों की दस दिनों की हिरासत की मांग की . लगातार तीन दिनों तक अभियोजन पक्ष की दलीलें सुनने के बाद सात दिनों की पुलिस हिरासत दे दी गई.

 डॉ प्रियंका के साथ जो हुआ, और अनुत्तरित प्रश्न

गौरतलब है कि 28 नवंबर को इन चार आरोपियों की जिनकी उम्र 20 से 26 साल के बीच थी ने डॉक्टर  प्रियंका रेड्डी को टोल बूथ पर स्कूटी पार्क करते देखा था. आरोप है कि इन लोगों ने जानबूझकर उसकी स्कूटी पंक्चर की थी. इसके बाद मदद करने के बहाने उसका एक सूनसान जगह पर लेकर गैंगरेप किया और बाद में पेट्रोल डालकर आग के हवाले कर दिया. पुलिस के मुताबिक घटना से पहले इन लोगों ने शराब भी पी रखी थी. रेप और मर्डर की घटना के बाद पूरे देश में गुस्सा था .

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वहीं इस एनकाउंटर के बाद लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रिया देखने की मिल रही है. एक चैनल  से बात करते हुए एक्टिविस्ट और वकील वृंदा ग्रोवर ने सवाल उठाया है. उन्होंने कहा कि वह सभी के लिए “न्याय” चाहती हैं लेकिन इस तरह नहीं होना चाहिए था. वहीं इसी मुद्दे पर अनशन पर बैठीं दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने कहा कि जो हुआ अच्छा है कम से कम वह सरकारी दामाद बनकर रहेंगे जैसा कि दिल्ली के निर्भया केस में हुआ.

सबसे बड़ा प्रश्न इस संपूर्ण मामले में यह है कि क्या प्रियंका रेड्डी को इन चार आरोपियों के एनकाउंटर से न्याय मिल गया?

अगर पुलिस ने निअपराधियों को आरोपी बनाकर, देश को दिखा दिया होगा तो, जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता है, तो क्या होगा?

सवाल यह भी है कि जैसी प्रसन्नता लोग सोशल मीडिया पर जाहिर कर रहे हैं क्या वह सही  कही जा सकती  है?

यह भी सच है कि लोगों में  प्रियंका रेड्डी बलात्कार कांड के बाद भयंकर रोष था, यह भी सच है कि कानून अपना काम अच्छे से नहीं कर पा रहा.यह भी सच है कि जिस त्वरित गति से प्रकरण की सुनवाई होनी चाहिए, नहीं हो पा रही. यह भी सही है कि मामला ले देकर राष्ट्रपति दया याचिका  पर फंस जाता है.  तो क्या इलाज अब एनकाउंटर ही बच गया है?

डॉक्टर प्रियंका रेड्डी कांड  के दोषी निसंदेह कानून के अपराधी हैं और हमारा कानून इतना सक्षम है कि वह दूध का दूध पानी का पानी कर सकता है. कानून की मंशा यही है कि चाहे सो गुनाहगार बचे जाएं मगर एक बेगुनाह नहीं मारा जाना चाहिए. इसी सारभूत तत्व को लेकर हमारा कानून  काम कर रहा है, अगर इसी तरह एनकाउंटर करके लोगों को मारा जाएगा तो फिर क्या  कानून की भावना, कानून की आत्मा के साथ क्या हमारा समाज और सिस्टम गलत नहीं कर रहा है.

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आने वाले समय में इस एनकाउंटर को जांच आयोग बनाकर और न्यायालय की देहरी पर हर तरीके से परखा जाएगा तब शायद यह तथ्य सामने आ जाएंगे की किस जगह एनकाउंटर में कई बड़ी गलतियां हुई हैं.

– जैसे सुबह सवेरे अंधेरी रात में चारों आरोपियों को घटनास्थल पर रीक्रिएशन के लिए ले जाना….?

-क्या आरोपियों के हाथों में हथकड़ीयां नहीं बांधी गई थी?

क्या आरोपी फिल्मी सितारों की तरह इतने ताकतवर थे की पुलिस की भारी दस्ते पर सरासर भारी पड़ गए? सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इन चारों के चेहरे देखकर लगता है कि यह आम गरीब  परिवार से थे. क्या यह लोग किसी बड़ी शख्सियत के वारिस होते, तो क्या पुलिस इस तरह काउंटर का पाती.

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि डॉ प्रियंका के हत्यारों के रूप में आरोपियों के साथ जो हुआ उससे देश में खुशी का माहौल दिखाई दे रहा है. मगर हमें  यह समझना होगा कि आरोपियों की जगह हम या हमारे कोई परिजन होते,उनके साथ अगर ऐसा पुलिस करती, तो हम क्या सोचते!

और अगर हम यह जानते होते की यह अपराधी नहीं है और तब यह एनकाउंटर होता तब क्या व्यतीत होता? क्योंकि यह सच जानना समझना होगा कि पुलिस के द्वारा गिरफ्तार कियाा जाना, कोई अपराधी सिद्ध हो जाना नहीं है. हमारे देश में जिस तरह पुलिस काम करती है, उससे यह समझा जा जा सकता है कि कभी भी किसी को भी पुलिस गिरफ्तार कर सकती है मगर अंतिम फैसला इजलास पर होता है.

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Bigg Boss 13: नहीं रुक रही सिद्धार्थ और असीम की लड़ाई, पारस हुए घर से बेघर

बिग बौस के घर में हर सदस्य अपने आप को कैप्टन के रूप में देखना चाहता है और अगर ऐसा नहीं हो पाता तो वे अपने किसी खास दोस्त को कैप्टन बनाने के पूरी कोशिश करता है. सिद्धार्थ शुक्ला और असीम रियाज की दोस्ती एस समय पर जितनी गहरी थी उतनी ही गहरी अब दोनों की दुश्मनी होती दिखाई दे रही है. ऐसा कोई टास्क नहीं जाता जब ये दोनो कंटेस्टेंट्स आपस में ना भिड़ें. ऐसा ही कुछ हमें बीते ऐपिसोड के कैप्टेंसी टास्क में देखने को मिला.

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सिद्धार्थ ने गुस्से में आ कर असीम को दिया धक्का…

दरअसल बिग बौस ने सभी घरवालों को कैप्टेंसी टास्क दिया जिसका नाम था बीबी जंक्शन. इस टास्क में सभी को अपने अपने बैग एक दूसरे से बचा कर रखने थे और बज़र बजते ही प्लेटफोर्म से ट्रेन की ओर दौड़ना था. इस टास्क के चलते घरवालों के बीच कई लड़ाई झगड़े होते नजर आए, और इसी दौरान सिद्धार्थ शुक्ला और असीम रियाज भी एक दूसरे के आमने-सामने आ गए. असीम और सिद्धार्थ के बीच इस कदर लड़ाई हुई कि सिद्धार्थ ने गुस्से में आ कर असीम को धक्का दे दिया.

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सिद्धार्थ को किया दो हफ्तों के लिए नोमिनेट…

ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब इन दोनों के बीच हाथापाई हुई हो, इससे पहले भी दोनो एक दूसरे के साथ हाथापाई कर चुके हैं. इसी के चलते सिद्धार्थ को बल को प्रयोग करने के लिए बिग बौस ने 2 हफ्तो तक नोमिनेट रहने की सजा सुना दी. टास्क के चलते सभी पारस छाबड़ा पर भी काफी गुस्सा होते नजर आए क्योंकि सभी सदस्यों का मानना ये था की पारस टास्क में चीटिंग कर रहे हैं और सही से फैसला नहीं ले पा रहे. इसी बीच पारस की भी काफी सदस्यों से लड़ाई होती दिखाई दी.

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टास्क को कर दिया गया रद्ध…

गुस्से में आकर रश्मि देसाई के साथ मिलकर कई सदस्यों ने टास्क की कुछ चीजों को नुकसान पहुंचाया और तोड़ फोड़ की तो इसी कारण टास्क को रद्ध कर दिया गया. जब पारस ने सिद्धार्थ से उनकी असीम के साथ लड़ाई की बात की तो सिद्धार्थ ने बताया कि जिस तरह से असीम उनके कान के पास आकर चिल्लाता है तो उनसे बरदाश्त नहीं होता. अब देखने वाली बात ये होगी की इन दोनों की दुश्मनी कहां पर जाकर खत्म होगी.

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पारस हुए घर से बाहर…

आपको बता दें. बीते एपिसोड में कंटेस्टेंट पारस छाबड़ा को कुछ दिनों के लिए घर से बाहर कर दिया गया क्योंकि टास्क के चलते उनकी उंगली पर चोट लग गई थी और उसकी सर्जरी के लिए उन्हें घर से बाहर जाना पड़ेगा. इसी दौरान पंजाब की कैटरीना कैफ यानी शहनाज गिल काफी रोती हुईं दिखाई दी और उन्होनें असीम को बताया कि वे पारस से बेहद प्यार करती हैं.

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“पानीपत”: एक खास सोच के साथ बनी फिल्म

फिल्म समीक्षाः ‘‘पानीपतः संजय दत्त का शानदार अभिनय..’’

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः सुनीता गोवारीकर और रोहित शेलातकर

निर्देशकः आषुतोश गोवारीकर

संगीतकार: अजय अतुल

कलाकारः अर्जुन कपूर, संजय दत्त, कृति सैनन, मोहनीश बहल, पद्मिनी कोल्हापुरे, जीनत अमान, और नवाब शाह

अवधिः दो घंटे 53 मिनट

फिल्मकार आशुतोश गोवारीकर पहली बार इतिहास पर केंद्रित फिल्म लेकर नही आए हैं. वह इससे पहले भी ‘जोधा अकबर’ और ‘मोहन जोदाड़ो’ जैसी फिल्में बना चुके हैं. पर इस बार वह 1761 की पानीपत की तीसरी लड़ाई पर फिल्म लेकर आए हैं, जिसके संबंध में हर किसी को पता है कि आततायी व लुटेरे अति क्रूर अफगानी शासक अहमद शाह अब्दाली से मराठा परास्त हुए थे. मगर निर्देशक आशुतोश गोवारीकर अपनी इस फिल्म में पानीपत के उस तीसरे युद्ध में मराठाओं के परास्त होने की वजहों के साथ शौर्य, जांबाजी, प्रेम, बलिदान की गाथा को पिरोया है.

कहानीः

फिल्म शुरू होती है सदाशिव राव भाऊ (अर्जुन कपूर) द्वारा उदगीर के निजाम को परास्त कर विजयी होकर लौटने और नाना साहेब पेशवा के दरबार में उनके सम्मान से. सदाशिव राव भाउ अपने चचेरे भाई नाना साहब पेशवा (मोहनीश बहल) की सेना का जांबाज पेशवा है. अपने सम्मान के दौरान सदाशिव दरबार मे ही उदयगीर की सेना स जुड़े इस इब्राहिम खान गार्डी (नवाब शाह) को कुछ विरोधों के बावजूद मराठा सेना का हिस्सा बनाने की घोषणा करता है.

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उदगीर के निजाम को परास्त करने के बाद दरबार में सदाशिव राव भाऊ के बढ़ते रसूख और ख्याति से पेशवा की पत्नी गोपिका बाई (पद्मिनी कोल्हापुरे) इस बात को लेकर असुरक्षित हो जाती हैं कि कहीं गद्दी का वारिश सदाशिव न बन जाए. वह अपने पुत्र विश्वास राव (अभिषेक निगम) को गद्दीन शीन देखना चाहती हैं. इसी के चलते सदाशिव के प्रभाव को कम करने के लिए उसे युद्ध से हटाकर धनमंत्री बना दिया जाता है.

उधर राज वैद्य की बेटी पार्वती बाई (कृति सेनन) सदाशिव से प्रेम करने लगी है, वह उनके शरीर पर लगी चोट पर दवा लगाते हुए अपने प्रेम का इजहार भी कर देती है. और जल्द ही वह विवाह के बंधन में बंध जाते हैं. तभी दिल्ली की गद्दी को हथियाने के लिए नजीब उद्दौला (मंत्रा) अफगानिस्तान के बादशाह अहमद शाह अब्दाली (संजय दत्त) के साथ हाथ मिलाता है. ऐसे समय में दिल्ली की गद्दी और देश को बचाने के लिए मराठा सेना का नेतृत्व सदाशिव राव भाऊ को सौंपा जाता है.

सदाषिव राव, शुजाउद्दौला (कुनाल कपूर) व अन्य राजाओं के साथ नजीब उद्दौल व अहमद शाह अब्दाली के खिलाफ मोर्चा खोल देते हैं. पानीपत के मैदान में सदाशिव और अब्दाली की जंग के बीच वीरता और शौर्यता के साथ-साथ विश्वासघात की कहानी सामने आती है. पर इस युद्ध में विश्वास राव व सदाशिव के साथ तकरबीन डेढ़ लाख सैनिक मारे जाते हैं और अहमद शाह अब्दाली की जीत होती है.

निर्देशनः

फिल्मकार आशुतोष गोवारीकर ने इतिहास के उस जटिल अध्याय को चुना है, जहां सत्ता के लिए पीठ पर खंजर भोंकना आम बात थी. पेशवा शाही की अंदरूनी राजनीति के साथ-साथ दिल्ली की जर्जर होती स्थिति और अपने निजी स्वार्थों के लिए देश की सुरक्षा को दांव पर लगाने वाले राजाओं के साथ आशुतोश ने उन वीरों की शौर्यगाथा का भी चित्रण किया है, जो देश की आन-बान के लिए शहीद हो गए थे.

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ऐतिहासिक विषयों पर फिल्म बनाते समय आषुतोश गोवारीकर का सारा ध्यान भव्य सेट और कास्ट्यूम पर ही रहता है. जिसके चलते वह इस बार काफी चूक गए हैं. एडीटर कई जगह मात खा गए. फिल्म बेवजह लंबी होने के साथ ही धीमी गति से आगे बढ़ती है. पानीपत पहुंचते पहुंचते इंटरवल हो जाता है.

इसके अलावा कास्ट्यूम पर ध्यान देते समय वीएफएक्स पर कम ध्यान दिया है, जिसके चलते अमहद शाह अब्दाली का दरबार सही ढंग से नहीं उभरा. वीएफएक्स काफी कमजोर है.अहमद शाह अब्दाली के चरित्र को भी फिल्मकार ठीक से रेखांकित नहीं कर पाए. वास्तव में फिल्मकार का सारा ध्यान राष्ट्वाद और मराठा वीरता तक ही रहा. सदाशिव राव और पार्वती बाई की प्रेम कहानी भी ठीक से उभर नहीं पायी. गोपिका बार्ठ के किरदार को भी सही ढंग से चित्रित नहीं किया गया.

फिल्म के कई संवाद मराठी भाषा मे हैं, जिसके चलते गैर मराठी भाषायों को दिक्कत होगी. युद्ध के दृष्य सही ढंग से नही बने हें. एक्शन दृष्य भी कमजोर हैं. अफगानी शासक अहमद शाह अब्दाली जिस तरह का खुंखार दरिंदा था, उस तरह से वह इस फिल्म में नहीं उभरता. सदाशिव राव और अहमद शाह अब्दाली के बीच युद्ध के एक भी दृष्य का न होना कई सवाल खड़े करता है. नितिन देसाई का आर्ट डायरेक्शन और नीता लुल्ला के कौस्ट्यूम ने इस एतिहासिक फिल्म को भव्य बनाने में मदद की हैं. कैमरामैन सी के मरलीधरन बधाई के पात्र हैं.

अभिनयः

सदाशिव राव भाऊ के किरदार में अर्जुन कपूर ने काफी मेहनत की है, मगर एक मराठा योद्धा के रूप मे वह सटीक नही बैठते. पार्वती बाई के किरदार में कृति सैनन खूबसूरत लगी हैं और अपने किरदार के साथ उन्होनें न्याय भी किया है. अहमद शाह अब्दाली के किरदार में संजय दत्त ने जबरदस्त परफौर्मेंंस दी है. विश्वास राव के किरदार में अभिशेक निगम अपनी अभिनय प्रतिभा की छाप छोड़ जाते हैं. सहयोगी कलाकारों में पद्मिनी कोल्हापुरे, मोहनीश बहल, सुहासिनी मुले, नवाब शाह, अभिषेक निगम आदि ने अपनी भूमिकाओं को सही ढंग से निभाया है. जीनत अमान की प्रतिभा को जाया किया गया है.

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शादी के बाद

रजनी को विकास जब देखने के लिए गया तो वह कमरे में मुश्किल से 15 मिनट भी नहीं बैठी. उस ने चाय का प्याला गटागट पिया और बाहर चली गई.

रजनी के मातापिता उस के व्यवहार से अवाक् रह गए. मां उस के पीछेपीछे आईं और पिता विकास का ध्यान बंटाने के लिए कनाडा के बारे में बातें करने लगे. यह तो अच्छा ही हुआ कि विकास कानपुर से अकेला ही दिल्ली आया था. अगर उस के घर का कोई बड़ाबूढ़ा उस के साथ होता तो रजनी का अभद्र व्यवहार उस से छिपा नहीं रहता. विकास तो रजनी को देख कर ऐसा मुग्ध हो गया था कि उसे इस व्यवहार से कुछ भी अटपटा नहीं लगा.

रजनी की मां ने उसे फटकारा, ‘‘इस तरह क्यों चली आई? वह बुरा मान गया तो? लगता है, लड़के को तू बहुत पसंद आई है.’’

‘‘मुझे नहीं करनी उस से शादी. बंदर सा चेहरा है. कितना साधारण व्यक्तित्व है. उस के साथ तो घूमनेफिरने में भी मुझे शर्म आएगी,’’ रजनी ने तुनक कर कहा.

‘‘मुझे तो उस में कोई खराबी नहीं दिखती. लड़कों का रूपरंग थोड़े ही देखा जाता है. उन की पढ़ाईलिखाई और नौकरी देखी जाती है. तुझे सारा जीवन कैनेडा में ऐश कराएगा. अच्छा खातापीता घरबार है,’’ मां ने समझाया, ‘‘चल, कुछ देर बैठ कर चली आना.’’

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रजनी मान गई और वापस बैठक में आ गई.

‘‘इस की आंख में कीड़ा घुस गया था,’’ विकास की ओर रजनी की मां ने बरफी की प्लेट बढ़ाते हुए कहा.

रजनी ने भी मां की बात रख ली. वह दाएं हाथ की उंगली से अपनी आंख सहलाने लगी.

विकास ने दोपहर का खाना नहीं खाया. शाम की गाड़ी से उसे कानपुर जाना था. स्टेशन पर उसे छोड़ने रजनी के पिताजी गए. विकास ने उन्हें बताया कि उसे रजनी बेहद पसंद आई है. उस की ओर से वे हां ही समझें. शादी 15 दिन के अंदर ही करनी पड़ेगी, क्योंकि उस की छुट्टी के बस 3 हफ्ते ही शेष रह गए थे और दहेज की तनिक भी मांग नहीं होगी.

रजनी के पिता विकास को विदा कर के लौटे तो मन ही मन प्रसन्न तो बहुत थे परंतु उन्हें अपनी आजाद खयाल बेटी से डर भी लग रहा था कि पता नहीं वह मानेगी या नहीं.

पिछले 3 सालों में न जाने कितने लड़कों को उसे दिखाया. वह अत्यंत सुंदर थी, इसलिए पसंद तो वह हर लड़के को आई लेकिन बात हर जगह या तो दहेज के कारण नहीं बन पाई या फिर रजनी को ही लड़का पसंद नहीं आता था. उसे आकर्षक और अच्छी आय वाला पति चाहिए था. मातापिता समझा कर हार जाते थे, पर वह टस से मस न होती. उस रात वे काफी देर तक जागते रहे और रजनी के विषय में ही सोचते रहे कि अपनी जिद्दी बेटी को किस तरह सही रास्ते पर लाएं.

अगले दिन रात को तार वाले ने जगा दिया. रजनी के पिता तार ले कर अंदर आए. तार विकास के पिताजी का था. वे रिश्ते के लिए राजी थे. 2 दिन बाद परिवार के साथ ‘रोकने’ की रस्म करने के लिए दिल्ली आ रहे थे. रजनी ने सुन कर मुंह बिचका दिया. छोटे बच्चों को हाथ के इशारे से कमरे से जाने को कहा गया. अब कमरे में केवल रजनी और उस के मातापिता ही थे.

‘‘बेटी, मैं मानता हूं कि विकास बहुत सुंदर नहीं है पर देखो, कनाडा में कितनी अच्छी तरह बसा हुआ है. अच्छी नौकरी है. वहां उस का खुद का घर है. हम इतने सालों से परेशान हो रहे हैं, कहीं बात भी नहीं बन पाई अब तक. तू तो बहुत समझदार है. विकास के कपड़े देखे थे, कितने मामूली से थे. कनाडा में रह कर भी बिलकुल नहीं बदला. तू उस के लिए ढंग के कपड़े खरीदेगी तो आकर्षक लगने लगेगा,’’ पिता ने समझाया.

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‘‘देख, आजकल के लड़के चाहते हैं सुंदर और कमाऊ लड़की. तेरे पास कोई ढंग की नौकरी होती तो शायद दहेज की मांग इतनी अधिक न होती. हम दहेज कहां से लाएं, तू अपने घर की माली हालत जानती ही है. लड़कों को मालूम है कि सुंदर लड़की की सुंदरता तो कुछ साल ही रहती है और कमाऊ लड़की तो सारा जीवन कमा कर घर भरती है,’’ मां ने भी बेटी को समझाने का भरसक प्रयास किया.

रजनी ने मातापिता की बात सुनी, पर कुछ बोली नहीं. 3 साल पहले उस ने एम.ए. तृतीय श्रेणी में पास किया था. कभी कोई ढंग की नौकरी ही नहीं मिल पाई थी. उस के साथ की 2-3 होशियार लड़कियां तो कालेजों में व्याख्याता के पद पर लगी हुई थीं. जिन आकर्षक युवकों को अपना जीवनसाथी बनाने का रजनी का विचार था वे नौकरीपेशा लड़कियों के साथ घर बसा चुके थे. शादी और नौकरी, दोनों ही दौड़ में वह पीछे रह गई थी.

‘‘देख, कनाडा में बसने की किस की इच्छा नहीं होती. सारे लोग तुझ को देख कर यहां ईर्ष्या करेंगे. तुम छोटे भाईबहनों के लिए भी कुछ कर पाओगी,’’ पिता ने कहा.

रजनी को अपने छोटे भाईबहनों से बहुत लगाव था. पिताजी अपनी सीमित आय में उन के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे. वह सोचने लगी, ‘अगर वह कनाडा चली गई तो उन के लिए बहुतकुछ कर सकती है, साथ ही विकास को भी बदल देगी. उस की वेशभूषा में तो परिवर्तन कर ही देगी.’ रजनी मां के गले लग गई, ‘‘मां, जैसी आप दोनों की इच्छा है, वैसा ही होगा.’’

रजनी के पिता तो खुशी से उछल ही पड़े. उन्होंने बेटी का माथा चूम लिया. आवाज दे कर छोटे बच्चों को बुला लिया. उस रात खुशी से कोई न सो पाया.

2 सप्ताह बाद रजनी और विकास की धूमधाम से शादी हो गई. 3-4 दिन बाद रजनी जब कानपुर से विकास के साथ दिल्ली वापस आई तब विकास उसे कनाडा के उच्चायोग ले गया और उस के कनाडा के आप्रवास की सारी काररवाई पूरी करवाई.

कनाडा जाने के 2 हफ्ते बाद ही विकास ने रजनी के पास 1 हजार डालर का चेक भेज दिया. बैंक में जब रजनी चेक के भुगतान के लिए गई तो उस ने अपने नाम का खाता खोल लिया. बैंक के क्लर्क ने जब बताया कि उस के खाते में 10 हजार रुपए से अधिक धन जमा हो जाएगा तो रजनी की खुशी की सीमा न रही.

रजनी शादी के बाद भारत में 10 महीने रही. इस दौरान कई बार कानपुर गई. ससुराल वाले उसे बहुत अच्छे लगे. वे बहुत ही खुशहाल और अमीर थे. कभी भी उन्होंने रजनी को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि उस के मातापिता साधारण स्थिति वाले हैं. रजनी का हवाई टिकट विकास ने भेज दिया था. उसे विदा करने के लिए मायके वाले भी कानपुर से दिल्ली आए थे.

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लंदन हवाई अड्डे पर रजनी को हवाई जहाज बदलना था. उस ने विकास से फोन पर बात की. विकास तो उस के आने का हर पल गिन रहा था.

मांट्रियल के हवाई अड्डे पर रजनी को विकास बहुत बदला हुआ लग रहा था. उस ने कीमती सूट पहना हुआ था. बाल भी ढंग से संवारे हुए थे. उस ने सामान की ट्राली रजनी के हाथ से ले ली. कारपार्किंग में लंबी सी सुंदर कार खड़ी थी. रजनी को पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि यह कार उस की है. वह सोचने लगी कि जल्दी ही कार चलाना सीख लेगी तो शान से इसे चलाएगी. एक फोटो खिंचवा कर मातापिता को भेजेगी तो वे कितने खुश होंगे.

कार में रजनी विकास के साथ वाली सीट पर बैठे हुए अत्यंत गर्व का अनुभव कर रही थी. विकास ने कर्कलैंड में घर खरीद लिया था. वह जगह मांट्रियल हवाई अड्डे से 55 किलोमीटर की दूरी पर थी. कार बड़ी तेजी से चली जा रही थी. रजनी को सब चीजें सपने की तरह लग रही थीं. 40-45 मिनट बाद घर आ गया. विकास ने कार के अंदर से ही गैराज का दरवाजा खोल लिया. रजनी हैरानी से सबकुछ देखती रही.

कार से उतर कर रजनी घर में आ गई. विकास सामान उतार कर भीतर ले आया. रजनी को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि इतना आलीशान घर उसी का है. उस की कल्पना में तो घर बस 2 कमरों का ही होता था, जो वह बचपन से देखती आई थी. विकास ने घर को बहुत अच्छी तरह से सजा रखा था. सब तरह की आधुनिक सुखसुविधाएं वहां थीं. रजनी इधरउधर घूम कर घर का हर कोना देख रही थी और मन ही मन झूम रही थी.

विकास ने उस के पास आ कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘आज की शाम हम बाहर मनाएंगे परंतु इस से पहले तुम कुछ सुस्ता लो. कुछ ठंडा या गरम पीओगी?’’ विकास ने पूछा.

रजनी विकास के करीब आ गई और उस के गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘आज की शाम बाहर गंवाने के लिए नहीं है, विकास. मुझे शयनकक्ष में ले चलो.’’

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विकास ने रजनी को बांहों के घेरे में ले लिया और ऊपरी मंजिल पर स्थित शयनकक्ष की ओर चल दिया.

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