एक भावनात्मक शून्य: भाग 3

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‘‘मिन्नी का तो मम्मीपापा जानें… मुझे अपना पता है. बस, शादी नहीं करना चाहता.’’

‘‘मिन्नी के लिए मम्मीपापा क्यों जानें? तुम भाई हो न.’’

‘‘मिन्नी से बात किए मुझे शायद 5-6 साल हो गए. हम आपस में बात ही नहीं करते. तुम तरस रहे हो तुम्हारी कोई बहन होती. मेरी है न, मैं उस से बोलता ही नहीं.’’

मानो आसमान से नीचे गिरा मैं. कानों से सुनी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ. क्या विजय अपनी सगी बहन से बात नहीं करता? लेकिन क्यों? ऐसा क्यों?

‘‘एक वक्त था…मुझे बहुत तकलीफ हुई थी जब मेरी बहन ने इतना बड़ा मजाक मेरे साथ किया था. किसी पराई लड़की के साथ शर्त लगाई थी. मेरा दोष सिर्फ इतना था कि मैं ने उसे किसी के साथ दोस्ती करने से रोका था. कोई था जो अच्छा नहीं था. उन दिनों मिन्नी बी.सी.ए. कर रही थी. उस की सुरक्षा चाहता था मैं. उस के मानसम्मान की चिंता थी मुझे. नहीं मानी तो मैं ने मम्मी से बात की. मान गई थी मिन्नी…उस के साथ दोस्ती तोड़ दी…और उस का बदला मुझ से लिया अपनी एक सहेली से मेरी दोस्ती करा कर.’’

मैं टुकुरटुकुर उस का चेहरा पढ़ता रहा.

‘‘मेरी बहन है न मिन्नी. मुझे कैसी लड़कियां पसंद हैं उसे पता था. बिलकुल उसी रूप में ढाल कर उसे घर लाती रही. मुझे सीधीसादी वह मासूम प्यारी सी लड़की भा गई. मम्मीपापा को भी वह घरेलू लगने वाली लड़की इतनी अच्छी लगी कि उसे बहू बना लेने पर उतारू हो गए. हमारा पूरा परिवार उस पर निछावर था. वह मुझे इतनी अच्छी लगती थी कि मेरी समूल भावनाएं उसी पर जा टिकी थीं.

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‘‘मैं कोई सड़कछाप आशिक तो नहीं था न सोम, ईमानदारी से अपना सब उस पर वार देने को आतुर था. क्या यही मेरा दोष था? क्या प्रेम की भूख लगना अनैतिक था? पूरी श्रद्धा थी मेरे मन में उस के लिए और जिस दिन मैं ने उसे अपने मन की बात कही उस ने खिलखिला कर हंसना शुरू कर दिया. क्षण भर में उस का रूप ऐसा बदला कि मेरी आंखें विश्वास ही नहीं कर पाईं. वह मिन्नी से शर्त जीत चुकी थी.

‘‘ ‘तुम्हारी बहन को किसी से प्रेम हो जाए तो गलत. अब तुम्हें मुझ से प्रेम हो गया तो सही. कैसे दोगले इनसान हो तुम.’ ’’

चुप हो गया विजय कहताकहता. धीरेधीरे बच्ची की आंखों के किनारे पोंछने लगा. सोईसोई भी वह रो रही थी. प्रश्न लिए आंखों में मुझे देखा विजय ने.

‘‘यह बेजबान बच्ची देखी है न, इतना रोई मेरे गले को अपने छोटेछोटे हाथों से कस कर कि मैं पत्थर हूं क्या जो समझ ही न पाऊं? मिन्नी तो मेरा खून है. क्या उसे पता नहीं चल सकता था मैं उस से कितना प्यार करता हूं. दुश्मन था क्या मैं? प्यार कोई तमाशा है क्या जिसे जहां चाहो मोड़ लो. उस का भला चाहा क्या यही मेरा दोष था. वह पल और आज का दिन मेरा मन ही मर गया. अब न मिन्नी के लिए दर्द होता है न अपने लिए ही कोई इच्छा जागती है.’’

रो पड़ा था मैं. स्नेह से विजय का हाथ पकड़ लिया, सोच रहा था…मैं भावुक हूं…मैं हूं जो भावना को सब से ऊपर मानता हूं.

‘‘वह लड़का अच्छा होता तो मैं मिन्नी का साथ देता,’’ विजय पुन: बोला, ‘‘उस की पढ़ाई पूरी हो जाती, कुछ तो भविष्य होता दोनों का. मैं तो नौकरी कर रहा था. शादी की उम्र थी मेरी. मांबाप भी सहमत थे. मैं गलत कहां था जो उस लड़की के मुंह से मुझे दोगला इनसान कहला भेजा. उस की हंसी मैं आज भी भूल नहीं पाता.

‘‘उस के बाद कुछ समझ में आया होगा मिन्नी के. मम्मीपापा ने भी डांटा. मुझ से माफी भी मांगी लेकिन दिल से मैं उसे माफ नहीं कर सका. बहन है राखी पर राखी बांध देती है. भाई हूं न, कहीं भाग तो नहीं सकता. मुसाफिर जैसी लगती है वह मुझे, जैसे सफर में कोई साथ हो. अपनी नहीं लगती. मैं मन को समझाता भी हूं. बुरा सपना समझ सब भूल जाना चाहता हूं लेकिन मन का कोना जागता ही नहीं, सदासदा के लिए मर गया.’’

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‘‘मर गया मत कहो विजय, सो गया कहो. जीवन में सब का एक हिस्सा प्रकृति निश्चित कर देती है. जो लड़की उस ने तुम्हारे लिए बनाई है वह अभी तुम्हारी आंखों के सामने आई ही नहीं तो कैसे तुम्हारा सोया कोना जागे. तुम एक अच्छे ईमानदार इनसान हो. कोई भी ऐसीवैसी तुम्हारी साथी नहीं न हो सकती. तुम्हारे समूल भाव बस उसी के लिए हैं जिन्हें तुम टुकड़ाटुकड़ा कर कहीं भी बिखेरना नहीं चाहते, जिसे भी मिलोगे तुम पूरेपूरे मिलोगे.

‘‘यह पूरापूरा, प्यारा सा मेरा भाई जिसे मिलेगा वह खुद भी तो उतनी ही सच्ची और ईमानदार होगी…और ऐसी लड़कियां आजकल बहुत कम मिलती हैं, बहत कम होती हैं ऐसी लड़कियां. इसलिए कीमती होती हैं लेकिन होती हैं यह एक शाश्वत सत्य है. तुम्हारा हिस्सा तुम्हें मिलेगा यह निश्चित है.’’

टपकने लगी थीं विजय की आंखें. मैं कंधा थपका कर कहने लगा, ‘‘क्या इसीलिए सब से दूरदूर भागते हो? चोर या अपराधी हो क्या तुम? मत भागो सब से दूर. मिन्नी तो सब के साथ घुलमिल कर खुश है और तुम व्यर्थ कटे से हो सब से. हादसा था, हुआ, बीत गया. माफ कर दो बहन को. हो सकता है उसे भी वह लड़का बहुत ज्यादा पसंद हो. प्यार की सीमा जरा अलग और ज्यादा विशाल होती है इतना तो मानते हो न. तुम भाई हो, तुम्हारे प्यार की हद उस सीमा से टकरा गई थी…बस, इतना ही हुआ था. इस में इतना गंभीर होने की क्या जरूरत है. जरा सोचो…माफ कर दो मिन्नी को. तुम्हारा हर सोया कोना जाग उठेगा.’’

सुनता रहा विजय. जैसे उस ने भी बरसों बाद अपना मन खोला था किसी के साथ. बच्ची सहसा उठ कर रोने लगी थी. वही टूटेफूटे शब्द थे, ‘पा…पा…’

‘‘आजा बच्चे मेरे पास.’’

समस्त अनुराग से विजय ने नताशा की मासूम सी गुडि़या बिटिया को पास खींच लिया…चूम कर गले से लिपटा लिया… बड़बड़ाने लगा, ‘क्या होगा इस बच्ची का. हम सब तो परसों चले जाएंगे तब इस का क्या होगा?’

विजय उठ कर कमरे में टहलने लगा था और बच्ची को थपथपा कर सुलाने का प्रयास करने लगा. नताशा भी बच्ची का रोना सुन कर चली आई थी. दोनों मिल कर उसे चुप कराने की कोशिश में थे.

मैं सब सुन कर और देख कर कुछ दुखी था. भावनाओं में जीने वाला इनसान ऐसे ही तो जीता है. कभी अपनी पीड़ा पर परेशान और कभी दूसरे की तकलीफ…दर्द पर दुखी. सत्य है उस की पीड़ा…और यही तो उस की कमाई है. भावुक न हो तो जी ही न पाए.

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यह भावुकता ही तो है जो मनुष्य को जमीन से जोड़ती है. आज हर तीसरा इनसान आज के तेज युग के साथ भागता हुआ कहीं न कहीं अपनी जमीन से कट रहा है और गहरा अवसाद उस का साथी बनता जा रहा है. सोचा जाए तो आज हम कहां जा रहे हैं, हमें ही पता नहीं. कहीं न कहीं तो हमें जमीन से जुड़ना पड़ेगा न. बिना जुड़े हमारा भविष्य हमें एक भावनात्मक शून्य के सिवा कुछ नहीं दे पाएगा…वह चाहे आप हों चाहे हम.

फिल्म रिव्यू: दबंग 3

रेटिंग: दो स्टार

निर्माता: अरबाज खान,सलमान खान और निखिल द्विवेदी

निर्देशकः प्रभु देवा

लेखकः सलमान खान, प्रभु देवा, दिलीप शुक्ला, आलोक उपाध्याय

कलाकारः सलमान खान, किच्चा सुदीप, सोनाक्षी सिन्हा, साई मांजरेकर, अरबाज खान.

अवधिः 2 घंटे 39 मिनट

अमूमन लोग सफल फिल्म की फ्रेंचाइजी के सिक्वअल बनाकर दर्शकों को अपनी तरफ खींचने का काम करते हैं. दर्शक सोचता है कि यह पिछली फिल्म का सिक्वअल है, तो इस बार ज्यादा अच्छी बनी होगी, मगर अफसोस ‘दबंग’ फ्रेंचाइजी के साथ ऐसा नहीं कहा जा सकता.हर सिक्वअल के साथ इसका स्तर गिरता ही जा रहा है. 2010 की सफल फिल्म ‘दबंग’का निर्दैशन अभिनव कष्यप ने किया था.और इस फिल्म ने सफलता के कई रिकार्ड बना डाले थे.उसके बाद इस फिल्म से अभिनव कश्यप को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था.इसका सिक्वअल ‘‘दबंग 2’’ 2012 में आयी थी,जिसे खुद अरबाज खान ने निर्देषित किया था,मगर पहले के मुकाबले यह कमजोर थी.पर सलमान खान के प्रशंसकों ने इसे सफल बना दिया था. अब पूरे सात वर्ष बाद इस फ्रेंचाइजी की अगली फिल्म ‘‘दबंग 3’’आयी है,जिसका निर्देषन सलमान खान के खास प्रभु देवा ने किया है,जो कि ‘दबंग 2’ से भी निचले स्तर की है. वैसे यह ‘दबंग’ सीरीज की प्रिक्वअल फिल्म है.

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कहानीः

‘‘दबंग’’ फ्रेंचाइजी की यह तीसरी फिल्म ‘प्रिक्वअल’ है, इसीलिए  कहानी अतीत में चलती है. फिल्म के शुरू होने पर एक षादी समारोह में पहुंचकर चुलबुल पांडे,माफिया डौन बाली सिंह के लिए काम करने वाले स्थानीय गुंडे द्वारा लूटे गए सोने के जेवर वापस दिलाते हैं. इसी केस के चलते चुलबुल पांडे की मुलाकात बाली सिंह से होती है और उन्हे अपने पुराने घाव याद आते हैं. फिर कहानी अतीत में चली जाती है.
चुलबुल पांडे को याद आता है कि वह धाकड़ पांडे से पुलिस इंस्पेक्टर चुलबुल पांडे कैसे बने थे.फिर खुशी(साईं मांजरेकर)का चुलबुल पांडे(सलमान खान)के संग रोमांस की कहानी षुरू होती है.दरअसल चुलबुल की मां नैनी देवी (डिंपल कपाड़िया) ने खुशी को चुलबुल के भाई मक्खी (अरबाज खान) के लिए पसंद किया था, मगर मक्खी को शादी करने में कोई रुचि नहीं थी.उधर चुलबुल और दहेज परंपरा के खिलाफ जाकर अपनी मंगेतर खुशी को डौक्टर बनाने के लिए कटिबद्ध है, मगर तभी उनके प्यार पर ग्रहण लग जाता है. बाली की नजर खुशी पर पड़ती है और वह खुशी को पाने के लिए उतावला होकर कुछ भी करने पर आमादा है. खुशी के लिए ही धाकड़ बदलते हैं, दुनिया के लिए कुछ अच्छा करने से लेकर एक निश्चित तरीके से अपने धूप का चश्मा लगाने तक,खुशी में सब कुछ शामिल हो जाता है और चुलबुल पांडे बन जाते हैं. मगर बाली सिंह (किच्चा सुदीप )का दिल खुशी पर आ जाता है, इसलिए बाली गुस्से व ईष्र्या के चलते खुशी के साथ उसके परिवार का खात्मा कर देता है. फिर पूरी फिल्म की कहानी चुलबुल पांडे और बाली सिंह के बीच बदला लेने की कहानी बन जाती है.

लेखनः

फिल्म की पटकथा स्वयं अभिनेता सलमान खान ने दूसरे लेखकों के साथ मिलकर लिखा है,इसलिए सलमान खान के प्रशंसक तो ताली बजाएंगे,मगर फिल्म की पटकथा खामियां का पिटारा है.फिल्म में चुलबुल पांडे अपनी पत्नी रज्जो को खुशी के साथ अपनी प्रेम कहानी सुनाते हैं, जबकि रज्जो पांडे और खुशी एक दूसरे से परिचित थीं. यह बहुत अजीब सा है.कुछ अपमान जनक संवाद व दृश्य भी हैं.फूहड़ हास्य दृश्य भी हैं.‘दबंग 3’में कुछ भी नया नही है. इंटरवल से पहले फिल्म काफी धीमी है. फिल्म का सबसे बड़ा नकारात्मक पक्ष इसकी लंबाई है. क्लामेक्स जरुर रोचक बन गया है.

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नाच गानाः

फिल्म के निर्देशक प्रभू देवा मूलतः नृत्य निर्देषक हैं,इसलिए फिल्म में बेवजह छह गाने ठूंसे गए हैं, जो कि फिल्म में लगभग 30 मिनट ले जाते हैं.

निर्देशनः

प्रभू देवा पूरी तरह से विफल रहे हैं. उनका सारा ध्यान सलमान खान को हीरो के रूप में चित्रित करने में ही रहा. उन्होंने फिल्म में वह सब दिखाया है,जो कि सलमान खान के प्रशंसक देखना चाहते हैं. इस चक्कर में वह खुद को दोहराने में भी पीछे नही रहे. फिल्म के तमाम मसालों में प्रभु ने दहेज, नोटबंदी, पानी के सरंक्षण जैसे मुद्दों को भी पिरोया है. सलमान खान ने जब जबभी सामाजिक संदेश जबरदस्ती फिल्म के अंदर पिरोया है तब तब फिल्म बरबाद कर दी.

अभिनयः

सलमान खान को  अभिव्यक्ति की कला में महारत हासिल है.वह अपने चेहरे पर शरारत और प्यार को उतनी ही आसानी से दर्ज कराते हैं,जितना कि यह खून की लालसा और गुस्सा को करते है.
रज्जो पांडे किरदार में सोनाक्षी सिन्हा महज सेक्सी नजर आयी हैं, अन्यथा वह अपने अभिनय से इस फिल्म को डुबाने में कोई कसर बाकी नहीं रखती.
खुशी के किरदार में सांई मांजरेकर जरुर कुछ उम्मीदें जगाती हैं. सुंदर दिखने के साथ कुछ भावनात्मक दृश्यों में सांई मांजरेकर ने अपनी अभिनय प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है.पर उनके किरदार के साथ भी न्याय नही हुआ.
फिल्म के खलनायक बाली सिंह के किरदार में दक्षिण भारतीय अभिनेता किच्चा सुदीप ने जबरदस्त परफार्मेंस दी है. पर फिल्म सलमान खान की है, सलमान खान ने ही पटकथा व संवाद भी लिखे हैं,ऐसे में सुदीप के बाली सिंह के किरदार को ठीक से रेखांकित नह किया गया. वैसे सुदीप इससे पहले बहुभाषी एक्शन ड्रामा वाली फिल्म ‘‘पहलवान’’ में अपने अभिनय का जलवा दिखाकर हिंदी भाषी दर्शर्कों के बीच अपनी पैठ बना चुके हैं.

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एक्शनः

फिल्म के सारे एक्षन दृश्य  अतार्किक और सलमान खान की स्टाइल के ही हैं. मारधाड़, विस्फोट, अति हिंसा सब कुछ है. एक्शन दृश्यों में सलमान खान की उम्र जरुर बाधा बनती है.
यदि आप सलमान खान के धुर प्रशंसक नहीं हैं, तो आपके लिए इस फिल्म को सहन करना मुश्किल है.

दिल्ली-लखनऊ में हिंसा आर या पार, नागरिकता बिल पर बवाल

19 दिसंबर की दिल्ली की ये हिंसा इस कदर हावी हो गई की लोगों के मन में डर बैठ गया है. लोग सहम रहे हैं. इस हिंसा को देख तो यही लगता है कि अब तो दिल्ली की ये हिंसा आर या पार. इस बढ़ती हिंसा के चलते राजधानी दिल्ली के कई मेट्रो स्टेशनों को बंद कर दिया गया, जिसमें भगवान दास, राजीव चौक, जनपथ, वसंत विहार, कल्याण मार्ग, मंडी हाउस, खान मार्केट, जामा मस्जिद, लालकिला, जामिया विश्वनिद्याल, मुनेरका, केंदीय सचिवालय, चांदनी चौक, शाहीन बाग ये सभी मेट्रो स्टेशन शामिल हैं.

लालकिला, मंडीहाउस समेत कई ऐसे क्षेत्र हैं दिल्ली के जहां पर गुरुवार को उग्र प्रदर्शनकारियों ने जमकर प्रदर्शन किया और जगह-जगह पर आगजनी, तोड़-फोड़, पथराव किया. पुलिस को लाठीचार्ज करनी पड़ी, आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े. ऐसा नहीं है कि इस प्रदर्शन में केवल विद्यार्थी ही शामिल हैं बल्कि इस प्रदर्शन में कुछ नेता भी शामिल हैं. एक खबर के मुताबिक इतिहासकार रामचंद्र गुहा और बेंगलुरु में लेखक को तो हिरासत में लिया गया साथ ही योगेंद्र यादब, उमर खालिद, संदीप दीक्षित, प्रशांत भूषण जैसे नेताओं को भी हिरासत में लिया गया है.

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ये सभी नेता नागरिकता बिल को लेकर प्रदर्शन में शामिल है. मेंट्रो के बंद हो जाने के कारण आम जनता को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि लोगों को आवाजाही में दिक्कत हो रही है. तो वहीं राजधानी दिल्ली में कई इलाकों में इंटरनेट सेवा को बंद कर दिया गया है. कालिंग सुविधा बंद कर दी गई है. एसएमएस तक पर रोक लगा दी गई है. ताकि हिंसा को बढ़ावा देने वाले कुछ अवांछनीय तत्व जो अफवाह फैला रहे हैं वो ना कर पाए. लेकिन ऐसे में उन क्षेत्रों में रहने वाले आम नागरिक परेशानी उठा रहे हैं.

इधर जामिया हिंसा को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी करते हुए कहा कि इस पर सुनवाई अब चार फरवरी को होगी. एक तरफ दिल्ली में हिंसा उग्र होती जा रही है तो वहीं गुरुवार को लखनऊ में भी हिंसा अपने चरम पर पहुंचता हुआ नजर आया. वहां पर प्रदर्शनकारी उग्र हो उठे. कई जगहों पर आगजनी, तोड़फोड़ की और इतना ही नहीं बल्कि एक ओबी वैन को भी आग के हवाले कर दिया. कई गाड़ियां धू-धू कर जल रहीं थीं. रोडवेज बसों को भी आग के हवाले कर दिया.

हालांकि जहां पर भी सार्वजनिक संपत्ति को प्रदर्शनकारियों ने नुकसान पहुंचाया है वहां पर सरकार कड़ा रुख अपनाते हुए सख्त कार्रवाई करेगी. लखनऊ के डालीगंज इलाके में हिंसा इतनी तेज हो गई कि पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा और आंसू गैस के गोले भी छोड़ने पड़ें. लखनऊ के इस बढ़ती हिंसा में दो पुलिस बूथ भी बुरी तरह से स्वाहा हो गए. वहां पर इस हिंसा को देखते हुए इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई है. हिंसा का ये रूप देखकर कोई भी सहम जाए. पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच में झड़प हो रही है. प्रदर्शनकारी पुलिस पर उल्टा पथराव करने पर उतारू हैं.

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खबरों के मुताबिक सीएम योगी इन सब को देख कर काफी नाराज हैं और उन्होंने कहा है कि जो भी उपद्रवी सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं उन सबको भरपाई करनी पड़ेगी. उन पर सख्त कार्रवाई की जाएगी. उन्होंने इस इस पर चर्चा के लिए बैठक भी बुलाई है. शायद ये कड़ा रुख अपनाना जरूरी भी था. उपद्रवीयों ने लखनऊ में 20 बाइक, 10 कार व 3 बसों को जला डाला. इतना ही नहीं कवर करने के लिए गई चार मीडियो ओबी वैन को भी आग के हवाले कर दिया. ना जाने ये प्रदर्शन कब तक चलेगा और देश को कब तक इसमें जलना पड़ेगा, क्योंकि ये हिंसा बहुत ही खतरनाक रूप लेती जा रही है और सरकार को जल्द ही इस पर कोई कड़ा रूख अपनाना होगा.

‘कार्तिक’ के लिए ‘नायरा’ और ‘वेदिका’ का होगा आमना-सामना, नए प्रोमो में दिखा ट्विस्ट

सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में ‘नायरा-कार्तिक’ को अलग करने के लिए ‘वेदिका’ की चालें खत्म होने का नाम ही नही ले रही है. वहीं ‘वेदिका’ इस हद तक बढ़ गई है कि वह अब सभी के सामने ‘नायरा’ के खिलाफ चालें चल रही है. आइए आपको बताते हैं अब क्या करेगी ‘वेदिका’ आगे…

‘वेदिका’ संगीत सेरेमनी में डाल चुकी है अंड़चने

पिछले एपिसोड में आपने देखा कि ‘नायरा’ को झूठ कहकर की एकेडमी भेजती है. साथ ही उसे लंबे रास्ते से ले जाने की कोशिश करती है.


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प्रोमो में दिखाया नया ट्विस्ट

लेटेस्ट प्रोमो की बात की जाए तो उसमें ‘वेदिका’ और ‘नायरा’ ‘कार्तिक’ के लिए भिड़ते हुए दिखाया गया है. प्रोमो में दरअसल, ‘नायरा और कार्तिक’ एक-दूसरे से शादी करने की प्लानिंग कर रहे हैं लेकिन घर में लौट चुकी ‘वेदिका’ इनके खिलाफ है. वो नहीं चाहती है कि ‘कार्तिक-नायरा’ एक-दूसरे के हो जाएं. वहीं, ‘नायरा’ भगवान के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही है, इसी दौरान ‘वेदिका’ वहां पहुंच जाती है. ‘वेदिका’, ‘नायरा’ से कहती है कि वो चाहें ‘कार्तिक’ के लिए कितनी भी पूजा कर ले लेकिन वो केवल उसका है. ‘नायरा’, ‘वेदिका’ को जवाब देते हुए कहती है कि, वो ‘कार्तिक’ के लिए नहीं बल्कि उसी के लिए पूजा कर रही थी. ‘नायरा’, ‘वेदिका’ को इसी दौरान यह भी कहती है कि वो जल्द ही समझ जाएगी कि ‘कार्तिक’ उसे शेरनी क्यों कहता है ?

‘वेदिका’ की सच्चाई आएगी ‘नायरा’ के सामने

अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि ‘नायरा’ के सामने ‘वेदिका’ की सच्चाई आ जाएगी और वह आमने-सामने एक-दूसरे पर वार करेंगे.

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बता दें, इससे पहले भी ‘कार्तिक और नायरा’ की शादी की रस्मों में अड़चने डालने के लिए ‘वेदिका’ ‘नायरा’ के लहंगे में आग लगाते हुए नजर आ चुकी है. अब देखना ये है कि क्या ‘नायरा’ ‘वेदिका’ के बुरे इरादों को नाकामयाब कर पाएगी.

अजनबी: भाग 2

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भारती ने तब प्रीति की तरफ देखा था. कितनी जल्दी स्थिति से समझौता करने की बात सोच लेती है यह.

फिर आननफानन में आपरेशन के लिए 2 दिन बाद की ही तारीख तय हो गई थी.

अजय का फिर फोन आ गया था.

‘‘भारती, मुझे टूर पर निकलना है, इसलिए कोशिश तो करूंगा कि उस दिन तुम्हारे पास पहुंच जाऊं पर अगर नहीं आ पाऊं तो तुम डाक्टर से मेरी बात करा देना.’’

हुआ भी यही. आपरेशन करने से पहले डाक्टर प्रभा की फोन पर ही अजय से बात हुई, क्योंकि उन्हें अजय की अनुमति लेनी थी. सबकुछ सामान्य था पर एक अजीब सी शून्यता भारती अपने भीतर अनुभव कर रही थी. आपरेशन के बाद भी वही शून्यता बनी रही.

शरीर का एक महत्त्वपूर्ण अंग निकल जाने से जैसे शरीर तो रिक्त हो गया है, पर मन में भी एक तीव्र रिक्तता का अनुभव क्यों होने लगा है, जैसे सबकुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं है उस के पास.

‘‘दीदी, आप चुप सी क्यों हो गई हैं, आप के टांके खुलते ही डाक्टर आप को दिल्ली जाने की इजाजत दे देंगी. बड़ी गाड़ी का इंतजाम हो गया है. स्कूल के 2 बाबू भी आप के साथ जाएंगे. अजयजी से भी बात हो गई है,’’ प्रीति कहे जा रही थी.

तो क्या अजय उसे लेने भी नहीं आ रहे. भारती चाह कर भी पूछ नहीं पाई थी.

उधर प्रीति का बोलना जारी था, ‘‘दीदी, आप चिंता न करें…भरापूरा परिवार है, सब संभाल लेंगे आप को, परेशानी तो हम जैसे लोगों की है जो अकेले रह रहे हैं.’’

पर आज भारती प्रीति से कुछ नहीं कह पाई थी. लग रहा था कि जैसे उस की और प्रीति की स्थिति में अधिक फर्क नहीं रहा अब.

हालांकि अजय के औपचारिक फोन आते रहे थे, बच्चों ने भी कई बार बात की पर उस का मन अनमना सा ही बना रहा.

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अभी सीढि़यां चढ़ने की मनाही थी पर दिल्ली के फ्लैट में लिफ्ट थी तो कोई परेशानी नहीं हुई.

‘‘चलो, घर आ गईं तुम…अब आराम करो,’’ अजय की मुसकराहट भी आज भारती को ओढ़ी हुई ही लग रही थी.

बच्चे भी 2 बार आ कर कमरे में मिल गए, फिर रोहित को दोस्त के यहां जाना था और रश्मि को डांस स्कूल में. अजय तो खैर व्यस्त थे ही.

नौकरानी आ कर उस के कपड़े बदलवा गई थी. फिर वही अकेलापन था. शायद यहां और वहां की परिस्थिति में कोई खास फर्क नहीं था, वहां तो खैर फिर भी स्कूल के स्टाफ के लोग थे, जो संभाल जाते, प्रीति एक आवाज देते ही नीचे आ जाती पर यहां तो दिनभर वही रिक्तता थी.

बच्चे आते भी तो अजय को घेर कर बैठे रहते. उन के कमरे से आवाजें आती रहतीं. रश्मि के चहकने की, रोहित के हंसने की.

शायद अब न तो अजय के पास उस से बतियाने का समय है न पास बैठने का, और न ही बच्चों के पास. आखिर यह हुआ क्या है…2 ही दिन में उसे लगने लगा कि जैसे उस का दम घुटा जा रहा है. उस दिन सुबह बाथरूम में जाने के लिए उठी थी कि पास के स्टूल से ठोकर लगी और एक चीख सी निकल गई थी. दरवाजे का सहारा नहीं लिया होता तो शायद गिर ही पड़ती.

‘‘क्या हुआ, क्या हुआ?’’ अजय यह कहते हुए बालकनी से अंदर की ओर दौडे़.

‘‘कुछ नहीं…’’ वह हांफते हुए कुरसी पर बैठ गई थी.

‘‘भारती, तुम्हें अकेले उठ कर जाने की क्या जरूरत थी? इतने लोग हैं, आवाज दे लेतीं. कहीं गिर जातीं तो और मुसीबत खड़ी हो जाती,’’  अजय का स्वर उसे और भीतर तक बींध गया था.

‘‘मुसीबत, हां अब मुसीबत सी ही तो हो गई हूं मैं…परिवार, बच्चे सब के होते हुए भी कोई नहीं है मेरे पास, किसी को परवा नहीं है मेरी,’’ चीख के साथ ही अब तक का रोका हुआ रुदन भी फूट पड़ा था.

‘‘भारती, क्या हो गया है तुम्हें? कौन नहीं है तुम्हारे पास? हम सब हैं तो, लगता है कि इस बीमारी ने तुम्हें चिड़चिड़ा बना दिया है.’’

‘‘हां, चिड़चिड़ी हो गई हूं. अब समझ में आया कि इस घर में मेरी अहमियत क्या है… इतना बड़ा आपरेशन हो गया, कोई देखने भी नहीं आया, यहां अकेली इस कमरे में लावारिस सी पड़ी रहती हूं, किसी के पास समय नहीं है मुझ से बात करने का, पास बैठने का.’’

‘‘भारती, अनावश्यक बातों को तूल मत दो. हम सब को तुम्हारी चिंता है, तुम्हारे आराम में खलल न हो, इसलिए कमरे में नहीं आते हैं. सारा ध्यान तो रख ही रहे हैं. रही बात वहां आने की, तो तुम जानती ही हो कि सब की दिनचर्या है, फिर नौकरी करने का, वहां जाने का निर्णय भी तो तुम्हारा ही था.’’

इतना बोल कर अजय तेजी से कमरे के बाहर निकल गए थे.

सन्न रह गई भारती. इतना सफेद झूठ, उस ने तो कभी नौकरी की इच्छा नहीं की थी. ब्याह कर आई तो ससुराल की मजबूरियां थीं, तंगहाली थी. 2 छोटे देवर, ननद सब की जिम्मेदारी अजय पर थी. सास की इच्छा थी कि बहू पढ़ीलिखी है तो नौकरी कर ले. तब भी कई बार हूक सी उठती मन में. सुबह से शाम तक काम से थक कर लौटती तो घर के और काम इकट्ठे हो जाते. अपने स्वयं के बच्चों को खिलाने का, उन के साथ खेलने तक का समय नहीं होता था, उस के पास तो दुख होता कि अपने ही बच्चों का बालपन नहीं देख पाई.

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फिर यह बाहर की पोस्ंिटग, उस का तो कतई मन नहीं था घर छोड़ने का. यह तो अजय की ही जिद थी, पर कितनी चालाकी से सारा दोष उसी के माथे मढ़ कर चल दिए.

इच्छा हो रही थी कि चीखचीख कर रो पड़े, पर यहां तो सुनने वाला भी कोई नहीं था.

पता नहीं बच्चों से भी अजय ने क्या कहा था, शाम को रश्मि और रोहित उस के पास आए थे.

‘‘मम्मी, प्लीज आप पापा से मत लड़ा करो. सुबह आप इतनी जोरजोर से चिल्ला रही थीं कि अड़ोसपड़ोस तक सुन ले. कौन कहेगा कि आप एक संभ्रांत स्कूल की प्रिंसिपल हो,’’ रोहित कहे जा रहा था, ‘‘ठीक है, आप बीमार हो तो हम सब आप का ध्यान रख ही रहे हैं. यहां पापा ही तो हैं जो हम सब को संभाल रहे हैं. आप तो वैसे भी वहां आराम से रह रही हो और यहां आ कर पापा से ही लड़ रही हो…’’

विस्फारित नेत्रों से देखती भारती सोचने लगी कि अजय ने बच्चों को भी अपनी ओर कर लिया है. अकेली है वह… सिर्फ वह…

उतरन: भाग 2

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लेखिका- रेखा विनायक नाबर

‘‘मांबाबूजी, शर्मिला के पिता को कुछ नहीं मालूम. उन्हें बताना चाहिए. मैं खुद जा कर बताता हूं.’’

‘‘मैं भी आता हूं.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मां अभी आने की स्थिति में नहीं हैं. उन्हें अकेला भी छोड़ना ठीक नहीं. मैं अकेले ही हो आता हूं. कठिन लग रहा है, लेकिन यह घड़ी मु?ो ही संभालनी होगी.’’

मैं दबेपांव भाभी के घर गया.

‘‘आओ बेटा, और प्रसाद कब आ रहे हैं?’’

‘‘नहीं, मैं किसी और काम से आप के यहां आया हूं.’’

‘‘हांहां, बोलो, कुछ प्रौब्लम है क्या?’’

‘‘हां…हां, बहुत कठिन समस्या है. भैया अमेरिका चले गए.’’

‘‘क्या? लेकिन कल रात ही शमु का फोन आया था, उस ने तो कुछ नहीं कहा. यों अचानक कैसे तय किया?’’

‘‘नहीं, वे अकेले ही चले गए.’’

‘‘और शमु?’’

फिर मैं ने उन्हें सारी हकीकत बयान की. वे क्रोध से लाल हो गए. क्रोध से उन का शरीर कांप रहा था. उन्हें भी मैं ने गहनों के बारे में कुछ नहीं बताया.

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‘‘हरामखोर, मेरी इकलौती बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. सामने होता तो गोली से उड़ा देता. मैं छोड़ं ूगा नहीं उसे.’’

उन को संभालने के लिए शर्मिला की मां आगे आईं, ‘‘आप शांत हो जाइए. यह लीजिए पानी पीजिए. संकट की घड़ी है. हमें पहले शमु को संभालना चाहिए. यह कैसा पहाड़ टूट पड़ा मेरी बेटी पर. है कहां है वह?’’

‘‘वे बेंगलुरु में होटल में हैं, मैं उन्हें लेने जा रहा हूं.’’

‘‘नहीं, हम दोनों उसे ले कर आते हैं. शमु से एक बार बात कर लेते हैं.’’

मैं ने शर्मिला के मोबाइल पर फोन लगाया.

‘‘मैं प्रकाश बोल रहा हूं, आप के घर से. आप कैसी हो? लो, बात करो उन से.’’

‘‘शमु, रो मत, धीरज रख. देख मैं उस के साथ ऐसा खेल खेलूंगा कि उसे फूटफूट कर रोना पड़ेगा. हम दोनों आ रहे हैं तु?ो लेने. आखिरी फ्लाइट से निकलते हैं. तब तक खुद का ध्यान रख,’’ शर्मिला के पिताजी बोले.

क्रोध की जगह करुणा ने ले ली. शर्मिला की आंखों से आंसू छलक रहे थे. शर्मिला की मां भी व्याकुल थीं, लेकिन ?ाठमूठ का धीरज दे रही थीं. मेरी मां ने तो बिस्तर पकड़ लिया था. उन के आंसू थम नहीं रहे थे. सब को इतने बड़े दुख में धकेलने वाले निर्दयी भैया से मु?ो घृणा आने लगी. शर्मिला के अपने घर आने पर हम वहां पहुंचे.

‘‘शर्मिला, यह क्या हुआ बेटा,’’ यह बोल कर मां बेहोश हो गईं. बाबूजी शर्मिंदा हो कर उस के सामने हाथ जोड़ रहे थे.

‘‘हम आप के कुसूरवार हैं. ऐसा कुलक्षणी बेटा जना, मु?ो शर्म आती है.’’

शर्मिला के पापा अब तक शांत हो गए थे.

शर्मिला की मां और शर्मिला मेरी मां को सम?ा रहे थे.

‘‘हम सब को यह दुख भोगना था शायद, लेकिन आप खुद को कुसूरवार न सम?ों. मैं उसे पाताल से भी ढूंढ़ कर लाऊंगा और सजा दूंगा. प्रकाश उसे अमेरिका में संपर्क करने का कोई रास्ता है क्या?’’ ‘‘हां पापा, प्रसाद का औफिस का नंबर तो नहीं है पर जहां रहता है वहां का नंबर ट्रेर्स करता हूं.’’

‘‘फोन लगाया था तो पता चला भैया 3 महीने पहले ही अपार्टमैंट छोड़ चुके थे.’’

‘‘हरामखोर, पहले से ही प्लान कर चुका था. उस ने मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. नया बिजनैस शुरू करने के बहाने मेरे पास से 5 लाख रुपए ले गया था.’’

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‘‘हां, मु?ो भी यही कारण बता कर पैसे मांगे, मैं ने पीएफ से 2 लाख रुपए निकाल कर दिए, शर्मिला के गहने भी गायब हुए हैं.’’ मैं ने बताया.

‘‘नीच अमानुष. अब मैं यह हकीकत अखबार में छपवाने वाला हूं. अमेरिका में मेरे कुछ रिश्तेदार हैं, उन को भी खबर दूंगा. सब जगह उस की बदनामी करूंगा.’’

अब बदनामी होगी, इस कारण बाबूजी डर गए.

‘‘देखिए, हमारे बेटे से अक्षम्य अपराध हुआ है. लेकिन जरा धीरज से काम लीजिए. ऐसी घड़ी में सोचविचार कर के निर्णय लीजिए, आप देख ही रहे हो हालात कितने नाजुक हैं और शर्मिला के भविष्य की दृष्टि से भी सोचना चाहिए. बस, एक हफ्ते का समय दीजिए हमें. देखते हैं कुछ हल निकलता है क्या. नहीं तो मानहानि सहने के सिवा और कोई चारा नहीं.’’

वे एक हफ्ता रुकने को राजी हो गए. बड़ी कृपा हुई थी हम पर. गए हफ्ते खुशी की तरंगों पर तैरने वाले हम, आज दुख के सागर में डूब चुके थे. केवल भैया की इस घिनौनी हरकत की वजह से फूल जैसी शर्मिला मुर?ा कर सांवली पड़ गईर् थी. उस ने जैसे न बोलने का प्रण लिया था. हम दोनों सहारा बने, इसलिए मां थोड़ी संभल गईं, वरना उन के लिए सदमा असहनीय था.

‘‘कलमुंहा, बच्ची की जिंदगी की होली कर डाली.’’

‘‘सही कहती हो आप. हम उस के अपराधी हैं. कभी न भरने वाला जख्म है यह.’’ शर्मिला मां से मिल कर गई. आश्चर्य यह था कि दोनों संयम से काम ले रही थीं. एक दिन मैं औफिस से आया तो मांबाबूजी अभीअभी शर्मिला के घर से लौटे थे.

‘‘बाबूजी, उन्होंने बुलाया था क्या?’’

‘‘नहीं, ऐसे ही मिल कर आए, काफी दिन हुए, मिले नहीं थे. शर्मिला को भी देखने को दिल कर रहा था.’’

‘‘सब कुछ ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक ही कहना चाहिए, लेकिन भविष्य के बारे में सोचना जरूरी है.’’

‘‘प्रकाश अभीअभी आए हो न? हाथपांव धो आओ. मैं चाय बनाती हूं. कुछ खा भी लो.’’ मु?ो मां का यह बरताव अजीब लगा.

चायनाश्ता हो गया. हम तीनों वहीं बैठे बातें कर रहे थे. मां मु?ा से कुछ कहना चाहती हैं, ऐसा मैं महसूस कर रहा था. वे बहुत टैंशन में लग रही थीं.

‘‘मां, क्या हुआ, कुछ कहना है क्या, टैंशन में लग रही हो. बताओ अभी, क्यों टैंशन बढ़ा रही हो?’’

‘‘प्रकाश, देखो…हमें ऐसा लगता है, इसलिए सुझाव दे रही हूं. लेकिन सोच कर ही बताना.’’

‘‘क्या सोचना है? क्या सुझाव  दे रही हो? और ऐसे हकला कर क्यों बोल रही हो?’’

आखिरकार बाबूजी ने बड़ी हिम्मत कर बोल ही दिया, ‘‘प्रकाश, हमें लगता है कि तुम शर्मिला को पत्नी के रूप में स्वीकार करो.’’

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ऐसे लग रहा था मानो सारे बदन में बिजली दौड़ रही है. मैं जोर से चिल्लाया. ‘‘यह कैसे हो सकता है? भाभी और पत्नी? नहीं, मैं सोच भी नहीं सकता. आप मुझे  ऐसा सुझाव कैसे दे सकते हो?’’

‘‘प्रकाश बेटे, यह कहते हुए हमें भी अच्छा नहीं लग रहा. हम जानते हैं कि तुम्हारे भी अपने वैवाहिक जीवन के कुछ सपने होंगे. तुम अच्छे पढ़ेलिखे हो, अच्छी तनख्वाह मिलती है तुम्हें. तुम्हें अच्छी लड़की मिल सकती है. लेकिन, हमें शर्मिला के बारे में भी तो सोचना चाहिए. उस की कोई गलती न होते हुए भी उस की जिंदगी यों बरबाद हो गई, और हमें यह देखना पड़ रहा है. अनजाने में हम ही इस के जिम्मेदार हैं न?’’

मां फिर से सिसकसिसक कर रोने लगीं.

‘‘मां, मु?ो सोचने के लिए वक्त चाहिए. यही बोलने के लिए आप उन के यहां हो आए? क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘हम ने बात की उन से. कुछ कहा नहीं उन्होंने. उन्हें भी वक्त चाहिए. फोन करेंगे वे. तुम्हारा कहना क्या है, यह पूछने को कहा है.’’

मेरे पांवतले जमीन खिसक रही थी. जेहन ने काम करना बंद कर दिया था.

‘‘मैं जरा घूम कर आता हूं.’’

‘‘इस वक्त?’’

‘‘हां.’’

दूर बगीचे तक घूम कर आया. तब कहीं थोड़ा सुकून महसूस हुआ. मेरे लौटने तक मांबाबूजी चिंता कर रहे थे. खाना गले के नीचे नहीं उतर रहा था. उठ कर बिस्तर पर लेटा. नींद आने का सवाल ही नहीं था. मेरी वैवाहिक जिंदगी शुरू होते ही खत्म होने वाली थी. भैया के पुराने कपड़े, किताबें इस्तेमाल करने वाला मैं अब उन की त्यागी पत्नी… नहीं, यह नहीं हो सकता. इस प्रस्ताव को नकारना चाहिए. मैं बहुत बेचैन था. लेकिन आंखों के सामने आंसू निगलती मां, शर्मिंदा बाबूजी, क्रोधित शर्मिला के पिता, उन को संभालने की कोशिश करती हुई शर्मिला की मां और जिंदगी के वीरान रेगिस्तान की बालू की तरह शुष्क शर्मिला दिखने लगी. इन सब की नजरें बड़ी आशा से मुझे  देख रही हैं, ऐसा लगने लगा. फिर से एक बार मेरे नसीब में उतरन ही आईर् थी. इस कल्पना से दिल जख्मी हो रहा था. ऐसी स्थिति में मुझे बचपन की एक घटना याद आई.

भैया की ड्राइंग अच्छी थी, वे बहुत अच्छे चित्र बनाते थे, और पूरे होने के बाद दोस्तों को दिखाने जाते थे. सारा सामान वैसे ही रखते थे. घर साफ होना चाहिए, इस पर बाबूजी का ध्यान रहता था. फिर मां मु?ो मनाती थीं, ‘प्रकाश, ये सामान जरा उठा कर रख बेटे. वो देखेंगे तो बिगड़ेंगे. मैं ने लड्डू बनाए हैं. मैं लाती हूं तेरे लिए.’

‘मां भैया अपना सामान क्यों खुद नहीं रखते? लड्डू का लालच दे कर आप मुझे  से काम करवाती हो. भैया बिगाड़ेंगे और मैं संवारूंगा, यह अलिखित नियम बनाया है क्या आप ने.’

मां का यह अलिखित नियम मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ा था. जिंदगी के इस मोड़ पर उस के किए अक्षम्य अपराध को मुझे ही सही करना था, मुझे ही अब शर्मिला से शादी करनी थी.

क्यों, क्योंकि वह सिर्फ मेरा बड़ा भाई है, इसलिए.

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एक दु:खी आत्मा से मुलाकात

अगर मेयर बन जाते, विधायक बन जाते या फिर सांसद बन जाते तो सारे दु:ख मिट जाते.जीवन तर जाता.मगर किस्मत में शायद दु:खी रहना ही बदा है.

सुबह सवेरे सामना हो गया. चेहरे पर दुख के बादल उमड़ घुमड़ रहे थे. हमें देखा तो चेहरा और भी सुकुड़ गया बोले, भैया, रोहरानंद! मेरा देश गर्त में जा रहा है ?

रोहरानंद को सहानुभूति उमड़ी-” क्यों भैय्या! क्या हो गया, सब कुछ तो ठीक-ठाक नजर आता है।आखिर क्या हो गया ?”

दु:खी आत्मा मानो तड़फ उठी-” क्या हो गया ? क्या तुम्हें कुछ भी गलत  दृष्टिगोचर नहीं हो रहा ??”

रोहरानंद ने कहा -” ऐसा तो चलता रहता है और ऐसा ही चलता रहेगा .हम जैसे आम आदमी को भला क्या विशिष्ट दृष्टिगोचर होने लगेगा.”

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दु:खी आत्मा ने दु:खी स्वर में कहा- “अगरचे, हम महापौर होते, सांसद होते तो, यह सब कतई नहीं होता जो शहर में इन दिनों हो रहा है.”

रोहरानंद – “क्या अनर्थकारी हुआ है जरा हम भी सुने.”

दु:खी आत्मा- “अगरचे हम महापौर बनते तो शहर का कायाकल्प हो गया होता. विधायक बनते, विधानसभा क्षेत्र का चेहरा बदल देते और अगर सांसद बनते तो संसदीय क्षेत्र का कायाकल्प हो जाता.”

रोहरानंद –  “आप दूसरों को भी  समय  दीजिए, अभी समय ही कितना व्यतीत हुआ है.”

दुखी आत्मा -” एक एक दिन बहुत होता है ,इतना समय क्या कम है.हमें तो एक बार बना दीजिए 4 दिन मे सब ठीक कर कर देंगे.”

रोहरानंद -” अच्छा, 4 दिन क्या 100 दिन  में क्या कुछ चमत्कार कर दिखाते .”

दुखी आत्मा – “देखो!सच तो यह है कि सबसे पहले मैं स्वयं अपना दु:ख दूर करता. चुनाव में एक करोड़ रुपए बहा डाला, उसकी रिकवरी करता.”

रोहरानंद – “अर्थात स्वयं लाल होते, फिर जनता को लाल करते…

दु:खी आत्मा -” भैय्या! क्या बताएं तुम अपने आदमी हो  तुमसे क्या छिपाना. इन दो वर्षों में ही मैं स्वयं सुखी हो ही जाता अपने खासुल खास समर्थकों को भी सुखी कर डालता.तुम्हें भी मालामाल कर डालता.”

रोहरानंद- ( हंसते हुए )” तो फिर आपको महापौर पर विधायक पर बाण छोड़ने का क्या अधिकार है. शहर की किस्मत अच्छी है जो तुम न महापौर हुए. ना विधायक बने.”

दु:खी आत्मा – “नहीं, नहीं ,यह नगर का दुर्भाग्य है भाई . मैं ना दु:खी रहता, न किसी को दु:खी रहने देता.मैं स्वयं तो दोनों हाथों से रुपए समेटता, अपने समर्थकों को भी निहाल कर देता.”

रोहरानंद- “मुझे तो आपकी बात पर राई भर भी एतबार नहीं है, हां अगर जीत जाते तो खुद मालामाल अवश्य हो जाते.”

दु:खी आत्मा -” नहीं, नहीं , मुझ पर विश्वास करो. मैं भ्रष्टाचार करता और जी भर कर करता और सभी नगरवासियों को अपना पिछलग्गू बनाकर दिखा देता.”

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रोहरानंद -” भैय्या! जनता समर्थक यूं ही नहीं बनती, उसके लिए नगर का विकास करना पड़ता है. काम करना पड़ता है. महापौर का दायित्व है नगर की साफ-सफाई,सड़कों की मरम्मत सौन्दरीकरण,जल पानी इत्यादि का ध्यान रखें. जनता तब पिछलग्गू होती है.”

दुखी आत्मा -” जनता यह सब नहीं देखती, जनता सिर्फ मुस्कुराता चेहरा देखती है.तब मैं सदा मुस्कुराता रहता. जनता मुस्कुराता देख स्वयं  मुस्कुराती…”

रोहरानंद – “मगर, तुम्हें देखकर तो कोई भी नहीं कह सकता कि तुमने जिंदगी में कभी मुस्कुराया भी होगा. जब  देखो तुम्हारा मुंह लटका रहता है.

दुखी आत्मा -” ( आर्त स्वर में ) मैं पहले ऐसा नहीं था.”

रोहरानंद – “तुम्हें देख कर लगता है तुम जन्मजात दुखी हो.

दुखी आत्मा -” नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है . पहले मैं भी एक मस्तमौला और खुशगवार मौसम की भांति खुशनुमा इसां था .”

रोहरानंद -” अच्छा, तो यह पराजित होने के पश्चात के हालात हैं…”

दुखी आत्मा- “( गहरी नि:श्वास छोड़कर ) हां, मैं मेयर चुनाव हारने के बाद से ऐसा हो गया हूं.”

रोहरानंद- “भैय्या! अब मुझे तुमसे बड़ी सहानुभूति है.”

दुखी आत्मा – “ऐसा है तो मेरा साथ दो…”

रोहरानंद -“मैं आम आदमी हूं. मैं भला क्या साथ दूं.”

दुखी आत्मा -“मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए, बस एक चीज… सिर्फ एक चीज…

रोहरानंद – “अच्छा चलो, बताओ.”

दु:खी आत्मा -” सिर्फ इतना करो भैय्या! तूम भी मेरी तरह दु:खी हो जाओ .चेहरा लटका लो. चेहरे पर पीड़ा उभार लो .कोई भी देखें तो समझ जाए कि तुम भी दुखी आत्मा हो.”

रोरहरानंद – “( आश्चर्य से ) मगर इससे क्या होगा ?”

दु:खी आत्मा – “मेरी आत्मा को सुकून मिलेगा. मैं एक-एक करके शहर को अपने साथ ऐसे ही दु:खी कर अपना बहुमत बनाऊंगा .और एक दिन मेरे साथ इतने लोग हो जाएंगे की महापौर की कुर्सी हिलने लगेगी.”

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रोहरानंद – “वाह! क्या तरकीब निकाली है. मगर मैं तो धर्म संकट में फंस गया.”

दु:खी आत्मा – “देखो! तुम अपनी जुबां से फिर नहीं सकते, तुमने मेरा साथ देने का वादा किया है.”

रोहरानंद – “मगर, यह तो षड्यंत्र कर रहे हो, मैं भला क्यों साथ दूं. मैं तो आम आदमी हूं. मेरा तुमसे लेना दो न देना एक. अर्थात मुझे क्या लाभ ?”

दु:खी आत्मा – “जिस दिन में बहुमत में आऊंगा, यानी महापौर बनूंगा तुम्हें खुश कर दूंगा.”

रोहरानंद – “मगर, मैं तो आज भी खुश हूं और कल भी था. और मैं जानता हूं तुम कल भी दुखी थे, आज भी हो,और कल भी रहोगे.”

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ठगी के रंग हजार

ठगी एक ऐसा शब्द है जो हमारे जेहन में हैं मगर इसके  बावजूद हम और हमारे आसपास के लोग अक्सर ठगी का शिकार हो जाते हैं ठगी की दुनिया में एक पहलू मोबाइल टावर लगाने का भी है विगत एक दशक में जाने कितनी बार यह समाचार सुर्खियों में आता रहा है मगर टावर के नाम पर लोग निरंतर ठगे जा रहे हैं इसके गिरोह निरंतर मजबूत होते जा रहे हैं इसी की बानगी छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिल रही है और पुलिस ने इस पर नकेल लगाने  में एक बड़ी सफलता प्राप्त की है.

 

छत्तीसगढ़ की दुर्ग जिला पुलिस ने एक ऐसे गिरोह का भंडाफोड़ किया है जो दिल्ली में बैठकर छतीसगढ़ के विभिन्न नगर कस्बों  में मोबाइल टावर लगाने के नाम पर लोगों को ठगी का शिकार बना चुका हैं. एक सनसनीखेज मामले में एक महिला से आरोपी  62 लाख रूपए ऐंठ चुके थे. पुलिस ने गिरोह के सात सदस्यों को गिरफ्तार किया है, जबकि अभी भी आठ आरोपी पुलिस की गिरफ्त से बाहर है. जिनकी तलाश पुलिस द्वारा सरगर्मी से की जा रही है.

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ठगी की अनंत कथाएं

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिला के  खुर्सीपार की एक बुजुर्ग महिला से इस गिरोह ने लाखों की ठगी की है. पिछले तीन साल में अलग-अलग कहानी व किस्से गढ़ते हुए बुजुर्ग महिला से इस गिरोह ने 62 लाख 2500 रुपए मोबाइल टावर लगाने के नाम पर  भारी रकम ठग ली .सन 2015 से शुरू हुआ यह प्रकरण दिसंबर  2019 तक चला . कभी बीमा पॉलिसी के रुपए निकालने, तो कभी चालान बनाने तो कभी रुपए जारी कराने के नाम पर बुजुर्ग महिला से ठगी होती रही.

इस मामले में पीड़िता महिला  पुलिस अधीक्षक दुर्ग के समक्ष जुलाई माह में शिकायत की. शिकायत पर कार्रवाई करते हुए पुलिस काफी सजगता के साथ अलग-अलग शहरों से सात आरोपियों को गिरफ्तार  करके छत्तीसगढ़ लाई है. वहीं 8 आरोपी अब भी फरार हैं जिनकी तलाश पुलिस द्वारा सरगर्मी से की जा रही है. इस तरह छत्तीसगढ़ में भी मोबाइल टावर के नाम पर ठगी की घटनाएं घटित हो चुकी हैं जिनमें हाल ही में घटित हुई हैं वह यह है-

पहला प्रकरण- आदिवासी जिला कोरबा के पसान थाना अंतर्गत लैगा में मोबाइल टावर लगाने के नाम पर डेढ़ लाख रुपए ठग लिए गए मामला अंततः थाना पहुंचा.

दूसरा प्रकरण -छत्तीसगढ़ के मुंगेली  मोबाइल ठगी के नाम पर अलग-अलग तीन जगहों पर 3 के मामले सामने आए.

तीसरा  प्रकरण- जगदलपुर के थाना क्षेत्रों में चार मामले मोबाइल टावर ठगी के दर्ज हुए कुछ गिरफ्तारियां भी हुई. छत्तीसगढ़ के विभिन्न जगहों पर मोबाइल टावर के नाम पर लोगों को ठगा गया है इसके बावजूद जागृति की कमी की वजह से लोग आज भी निरंतर ठगे जा रहे हैं.

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हाईटेक चुके हैं ठग!

पुलिस अधिकारी ने अजय यादव ने हमारे संवाददाता को बताया कि दिल्ली के यह  ठग दरअसल मानो  पूरी कंपनी चला रहे थे. आरोपियों के पास से बड़ी संख्या में लैंड लाइन फोन, मोबाइल फोन, बीमा प्लान, एटीएम कार्ड, आईकार्ड, मोबाइल डेटा व लेखाजोखा जब्त किया गया. आरोपियों ने बुजुर्ग महिला मनोरमा जैन के अलावा 500 लोगों को अलग-अलग मोबाइल नंबरों से कॉल किया और इनसे भी लाखों रुपए  की रकम ठगी की है.

आरोपियों को पकड़ने के लिए साइबर सेल की टीम लगातार काम कर रही थी. बेहद समझदारी के साथ पीड़िता को आरोपियों के संपर्क में रखा  और उनके द्वारा किए जा रहे कॉल को ट्रेस करती रही. जिसके बाद अंततः पुलिस की टीम आरोपियों तक पहुंची. पुलिस ने आरोपियों को गिफ्ट में लेकर न्यायिक रिमांड पर जेल भेज दिया है.

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मेरे देश के नौजवान

लेखक- शिव शंकर गोयल

इस का ‘आईक्यू’ या ‘ईक्यू’ ही नहीं, बल्कि सब तरह के क्यू ऊंचे होंगे. मसलन:

एक जगह पर किसी समाज का परिचय सम्मेलन हो रहा था. वहां एक छोटा बच्चा खो गया. नहींनहीं, मैं आप को गलत बता गया. बच्चा तो आयोजकों के पास मंच पर था, लेकिन उस के मम्मीपापा कहीं खो गए थे. बच्चा भीड़ देख कर रो रहा था.

एक कार्यकर्ता ने उस बच्चे के मांबाप को ढूंढ़ने की खातिर उस से पूछा, ‘‘बताओ बेटा, तुम्हारा नाम क्या?है?’’

‘‘पप्पू…’’ वह बोला.

‘‘तुम्हारे पिताजी का नाम क्या है?’’ दूसरे कार्यकर्ता ने पूछा.

‘‘पापा…’’ बच्चे ने बताया.

‘‘वे क्या काम करते हैं?’’ पहले कार्यकर्ता ने पूछा.

‘‘जो मम्मी कहती हैं…’’ लड़के ने रोतेरोते बताया.

‘‘तुम कहां रहते हो?’’ दूसरे कार्यकर्ता ने पूछा.

‘‘मम्मी के पास…’’ उस बच्चे ने जवाब दिया.

देखा आप ने… कहते हैं न कि पूत के पांव पालने में दिखाई देते हैं. अब आप ही बताइए कि ऐसे बच्चे बड़े हो कर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता बनने लायक हैं कि नहीं? कोई भी पत्रकार इन से कुछ नहीं उगलवा सकता है.

इतना ही नहीं, समय से पहले होशियारी आ जाने का उदाहरण भी देखते हैं.

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बचपन में हम सभी ने प्यासे कौए की कहानी पढ़ी है. अब भी वही कहानी पढ़ाई जाती है, जो इस तरह है:

एक प्यासा कौआ था. पानी ढूंढ़तेढूंढ़ते उसे एक घड़े में कुछ पानी दिखाई दिया, लेकिन पानी इतना कम था कि उस की चोंच वहां तक नहीं पहुंच सकती थी, इसलिए उस ने घड़े में एकएक कर के कई कंकड़पत्थर ला कर डाले, जिस से घड़े में पानी ऊपर आ गया. तब कौए ने अपनी प्यास बुझाई और फिर वह उड़ गया.

अपने बच्चे को यह कहानी पढ़ते देखा, तो मैं ने उस से पूछा, ‘‘अच्छा बेटा बताओ, इस कहानी से हमें क्या सीख मिलती है?’’

‘‘सीख यही कि खाओपीओ और वहां से खिसक लो,’’ वह बोला.

एक बच्चे से उस के रिश्तेदार ने पूछा, ‘‘बेटे, बड़े हो कर क्या बनोगे?’’

‘‘दांतों का डाक्टर बनूंगा अंकल,’’ बच्चा बोला.

‘‘क्यों? ऐसी क्या बात है, जो तुम दांतों के डाक्टर बनोगे?’’

‘‘अंकल, आंख, कान वगैरह तो 2-2 ही होते हैं, जबकि दांत 32 होते हैं, उस में ज्यादा स्कोप है,’’ लड़का बोला.

इतिहास की क्लास थी. मुगलकाल की पूरी पढ़ाई हो जाने के बाद मास्टरजी ने एक लड़के से पूछा, ‘‘बताओ, अकबर कौन था और वह कब मरा?’’

‘‘अकबर अपने बाप का बेटा था और जब उस की मौत आ गई, तब वह मरा,’’ एक छात्र ने जवाब दिया.

क्या सटीक टैलीग्राफिक जवाब था. ऐसे लोग ही आगे चल कर क्रिकेट के कमेंटेटर बन कर बोलेंगे कि गेंदबाज ने गेंद फेंकी, बल्लेबाज ने शौट लगाया और फील्डर ने गेंद रोकी.

गणित के टीचर ने एक छात्र से पूछा कि एक को एक से कैसे जोड़ें कि 3 हो जाए?

‘‘दोनों की शादी करा दीजिए सर,’’ एक छात्र ने जवाब दिया. अब बताइए कि इस पीढ़ी को आप और क्या पढ़ाना चाहते हैं?

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कैमिस्ट्री के एक मास्टरजी ने क्लासरूम में आ कर छात्रों से कहा, ‘‘तुम में से एक छात्र जा कर लैबोरेटरी से बोतल में तेजाब भर लाए.’’

एक छात्र गया और बोतल में तेजाब भर लाया. मास्टरजी ने अपनी जेब से एक सिक्का निकाल कर बोतल में डाल दिया और सारी क्लास से पूछा, ‘‘अब बताओ कि यह सिक्का तेजाब में घुलेगा या नहीं?’’

सभी छात्रों ने एक आवाज में जवाब दिया, ‘नहीं घुलेगा.’

मास्टरजी सभी छात्रों के जवाब से बहुत खुश हुए और बच्चों से पूछा, ‘‘क्यों नहीं घुलेगा?’’

एक छात्र ने खड़े हो कर बताया, ‘‘मास्टरजी, अगर यह सिक्का तेजाब में घुल जाता, तो आप हमारा सिक्का लेते. आप ने इस में अपना सिक्का डाला, इस का मतलब यह है कि यह तेजाब में नहीं घुल सकता…’’ यह सुन कर मास्टरजी बगलें झांकने लगे.

ऐसी ही उम्र के बच्चे जब कभी अपनी मम्मी या पापा के साथ किसी ‘जिम’ में चले जाते हैं, तो वहां का नजारा देख कर अनायास ही उन के मुंह से निकल पड़ता है, ‘‘अरे, सबकुछ दिखता है.’’

कई साल पहले राज कपूर ने फिल्म ‘जागते रहो’ बनाई थी, जिस में दिखाया गया था कि सफेदपोश लोग रात के अंधेरे में क्याक्या गुल खिलाते रहते हैं. राज कपूर ने सबकुछ दिखा दिया, पर समाज में से कोई कुछ बोला क्या? उलटे, वह फिल्म बौक्स औफिस पर पिट गई. भला कौन अपनी पोल खुलवाना चाहता है?

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शिव सेना का बड़ा कदम

हिंदुत्व को देश पर एक बार फिर से थोप कर पंडेपुजारियों को राजपाट देने की जो छिपी नीति अपनाई गई थी उस में शिव सेना एक बहुत बड़ी पैदल सेना थी जिस के कट जाने का भाजपा को बहुत नुकसान होगा और हो सकता है कि महाराष्ट्र को बहुत फायदा हो.

कोई भी देश या समाज तब बनता है जब कामगार हाथों को फैसले करने का भी मौका मिले. पश्चिमी यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान, कोरिया की सफलता का राज यही रहा है कि वहां गैराज से काम शुरू करने वाले एकड़ों में फैले कारखानों के मालिक बने थे. महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई देश के पैसे वालों की राजधानी है पर जो बदहाली वहां के कामगारों की है कि वे आज भी चालों, धारावी जैसी झोपड़पट्टियों में, पटरियों पर रहने को मजबूर हैं.

महाराष्ट्र और मुंबई का सारा पैसा कैसे कुछ हाथों में सिमट जाता है, यह चालाकी समझना आसान नहीं, पर इतना कहा जा सकता है कि शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन इस के लिए वर्षों से जिम्मेदार है, चाहे सरकार भाजपा की हो या कांग्रेस की. यह बात पार्टी के बिल्ले की नहीं पार्टियों की सोच की है.

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शिव सेना से उम्मीद की जाती है कि वह अब ऐसे फैसले लेगी जो आम कामगारों की मेहनत को झपटने वाले नहीं होंगे. जमीन से निकल कर आए, छोटी सी चाल में जिन्होंने जिंदगी काटी, सीधेसादे लोगों के बीच जो रहे, वे समझ सकते हैं कि उन पर कैसे ऊंचे लोग शासन करते हैं और कैसे चाहेअनचाहे वे उन्हीं के प्यादे बने रहने को मजबूर हो जाते हैं.

पिछड़ों की सरकारें उत्तर प्रदेश व बिहार में भी बनी थीं, पर उस का फायदा नहीं मिला, क्योंकि तब पिछड़ों की कम पढ़ीलिखी पीढ़ी को सत्ता मिली थी. अब उद्धव ठाकरे, उन के बेटे आदित्य ठाकरे, शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले जैसों को उन बाहरी सहायकों की जरूरत नहीं जो जनमानस की तकलीफों को पिछले जन्मों के कर्मों का फल कह कर अनदेखा कर देते हैं. वे रगरग पहचानते होंगे, कम से कम उम्मीद तो यही है.

मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल आदि में भगवाई लहर मंदी हो गई है और महाराष्ट्र का झटका अब फिर मेहनती, गरीबों को पहला मुद्दा बनाएगा. ऐसा नहीं हुआ तो समझ लें कि देश को कभी भूख और बदहाली से आजादी नहीं मिलेगी.

शौचालय का सच

भारत सरकार ने बड़े जोरशोर से शौचालयों को ले कर मुहिम शुरू की थी, पर 5 साल हुए भी नहीं कि शौचालयों की जगह मंदिरों ने ले ली है. अब सरकार को मंदिरों की पड़ी है. कहीं राम मंदिर बन रहा है, कहीं सबरीमाला की इज्जत बचाई जा रही है. कहीं चारधाम को दोबारा बनाया जा रहा है, कहीं करतारपुर कौरिडोर का उद्घाटन हो रहा है.

भाजपा सरकार के आने से पहले 19 नवंबर को 2013 से संयुक्त राष्ट्र संघ ‘वर्ल्ड टौयलेट डे’ मनाने लगा है, जब नरेंद्र मोदी का अतापता भी न था. दुनियाभर में खुले में पाखाना फिरा जाता है, पर भारत इस में उसी तरह सब से आगे है जैसे मंदिरों, मठों में सब से आगे है. भारत की 60-70 करोड़ से ज्यादा आबादी खुले में पाखाना फिरने जाती है और कहने को लाखों शौचालय बन गए हैं, पर पानी की कमी की वजह से अब तो वे जानवरों को बांधने या भूसा भरने के काम में आ रहे हैं.

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शहरों के आसपास कहींकहीं चमकदार शौचालय बन गए हैं, पर अभी पिछले सप्ताह से दिल्ली के ही अमीर बाजारों कनाट प्लेस और अजमल खां रोड पर दीवारों पर पेशाब के ताजे निशान दिख रहे थे. ये दोनों इलाके भाजपा समर्थकों से भरे हैं. हर दुकानदार ने अपनी दुकान में एक छोटा मंदिर बना रखा है, हर सुबह बाकायदा एक पंडा पूजा करने आता है. हर थोड़े दिन के बाद लंगर भी लगता है. पर वर्ल्ड टौयलेट और्गेनाइजेशन बनी थी सिंगापुर में जहां के एक व्यापारी ने ही 2001 में इसे शुरू किया था. सिंगापुर दुनिया का सब से ज्यादा साफ शहर माना जाता है. वहां हर जने की आय दिल्ली के व्यापारियों की आय से भी 30 गुना ज्यादा है. वहां मंदिर न के बराबर हैं. हिंदू तमिलों के मंदिर जरूर दिखते हैं और उन के सामने बिखरी चप्पलें भी और जमीन पर तेल की चिक्कट भी.

सड़क पर पड़ा पाखाना कितना खतरनाक है, इस का अंदाजा इस बात से लगाइए कि 1 ग्राम पाखाने में 10 लाख कीटाणु होते हैं और जहां पाखाना खुले में फिरा जाता है, वहां बच्चे ज्यादा मरते हैं.

भारत सरकार ने खुले में शौच पर जीत पा लेने का ढोल पीट दिया है पर लंदन से निकलने वाली पत्रिका ‘इकौनोमिस्ट’ ने इस दावे को खोखला बताया है. अभी 2 माह पहले ही तो मध्य प्रदेश में 2 बच्चों की पिटाई घर के सामने पाखाना फिरने पर हुई है, वह भी भरी बस्ती में जहां पिछड़ी और दलित जातियों के लोग रहते हैं. मारने वाले का कहना था कि दलितों की हिम्मत कैसे हुई कि उन से ऊंचे पिछड़ों के घरों के सामने फिरने जाए. पिछड़ों की हालत भी ज्यादा बेहतर नहीं हुई है, क्योंकि लाखों बने शौचालयों में पानी ही नहीं है.

यह ढोल जो 2 अक्तूबर को पीटा गया था, यह तो 5,99,000 गांवों के खुद की घोषणा पर टिका था. अब जब शौचालय के मिले पैसे सरपंच ने डकार लिए हों तो वह कैसे कहेगा कि खुले में पाखाना हो रहा है.

जब तक गांवों में घरघर पानी नहीं पहुंचेगा, जब तक सीवर नहीं बनेंगे, खुले में पाखाना होगा ही. दिल्ली की ही 745 बस्तियों में अभी भी सीवर कनैक्शन नहीं है तो 5,99,000 गांवों में से कितनों में सीवर होगा?

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