Manohar Kahaniya- गोरखपुर: मोहब्बत के दुश्मन- भाग 2

सौजन्य- मनोहर कहानियां

Writer- शाहनवाज

इस बात की जानकारी अनीश को लग चुकी थी कि दीप्ति को किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. उन के बीच बातचीत अचानक से खत्म हो गई थी. दीप्ति जब अपने कौड़ीराम ब्लौक औफिस पहुंचती तो वहां मौजूद अन्य कर्मचारियों के फोन से अनीश को फोन करती और उसे अपने साथ हो रहे जुल्मोसितम के बारे में बताती.

शुरुआत में तो अनीश ने दीप्ति को धैर्य रख कर काम करने के लिए कहा, लेकिन कुछ दिनों के बाद जब दीप्ति को अनीश से दूरी बरदाश्त नहीं हुई तो उस ने अनीश को उस से शादी कर लेने के लिए कहा.

घर वालों की मरजी के बिना कर ली शादी

एक दिन फोन पर बात करते हुए दीप्ति ने अनीश से कहा, ‘‘देखो अनीश, मुझे पता है कि मेरे घरवाले हम दोनों के इस रिश्ते से खुश नहीं हैं, लेकिन मुझे यह जरूर पता है कि वह अपनी मुझ से बहुत प्यार करते हैं. हो सकता है कि ये कुछ समय की नाराजगी हो लेकिन ये नाराजगी जल्द ही खत्म हो जाएगी.’’

अनीश ने दीप्ति की बातों को बड़े ध्यान से सुना और कहा, ‘‘तुम कह तो ठीक रही हो लेकिन अगर तुम्हारे घरवालों ने हमारी शादी के बाद हमारे रिश्ते को नहीं माना तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी.’’

‘‘नहीं ऐसा नहीं होगा. एक बार हम ने शादी कर ली तो थोड़ी देर ही सही लेकिन वो हमारे इस रिश्ते को मंजूरी दे ही देंगे. और इस के अलावा हमारी शादी हो गई तो कानूनी तरीके से मेरे घरवाले मेरी कहीं और शादी नहीं कर सकते.’’ दीप्ति ने जवाब दिया.

यह सुन कर अनीश को दीप्ति की बातों में दम नजर आया. उस ने कुछ देर सोचा और दीप्ति की शादी की बात को मंजूरी दे दी. इस के कुछ दिनों बाद दीप्ति ने योजना के मुताबिक अपने घरवालों को चकमा दे कर 12 मई, 2019 को अनीश से कोर्टमैरिज कर ली.

कोर्ट मैरिज के बाद दोनों ने चैन की सांस तो ली. लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उन का सुखचैन शादी के बाद छिनने वाला है. 9 दिसंबर, 2019 को अदालत ने दीप्ति और अनीश की शादी को मंजूरी दे दी.

इस का मतलब यह था कि अब दीप्ति और अनीश कानूनी तरीके से एकदूसरे से पतिपत्नी के बंधन में बंध चुके थे.

अदालत की मंजूरी के बाद दीप्ति के घर वालों को उन की शादी के कुछ दिनों के बाद ही उन की कोर्ट मैरिज का पता लग गया था. जिस के बाद उसके घरवालों ने दीप्ति को मानसिक रूप से प्रताडि़त करना शुरूकर दिया.

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शादी के बाद मिश्र परिवार ने दीप्ति को अनीश की जान की धमकियां देने लगे थे. वह दीप्ति से कहते, ‘‘तूने जो गलती कर ली सो कर ली, अभी भी समय है उसे तलाक दे और इस रिश्ते से छुटकारा पा ले, वरना हम ही तुझे इस रिश्ते से छुटकारा दिला देंगे.’’

यह सुन कर दीप्ति खौफ के साए में अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर हो गई थी. हालांकि वह हर दिन औफिस जाती लेकिन उस के मन में अनीश को ले कर डर हमेशा रहने लगा था.

दीप्ति के घर वालों ने दी धमकी

अनीश भी दीप्ति को ले कर हर समय चिंता करने लगा था. अनीश को इस बात का डर सताने लगा था कि दीप्ति के घर वाले उस के साथ कुछ गलत न कर दें. वे दोनों एकदूसरे की चिंता में खोने लगे थे, जिस का असर उन के काम पर भी पड़ने लगा था. वे हर समय एकदूसरे के बारे में सोचते और एकदूसरे के करीब आना चाहते थे.

शादी का पता लगने के बाद दीप्ति को उस के घरवालों द्वारा काफी प्रताडि़त किया जाने लगा. ये प्रताड़ना अकसर मानसिक हुआ करती थी. कभी उस की मां जानकी देवी बीमार होने का नाटक करती तो कभी उस के पिता. उस के पिता अकसर उस के सामने दिल का अटैक आने की नाटक नौटंकी करते और अनीश से तलाक ले लेने को कहते थे. जब दीप्ति अपने घरवालों की बात नहीं मानती तो वे अनीश को जान से मार देने की धमकियां देते थे. दीप्ति के घर वाले उसे दलित समुदाय के लड़के से शादी करने के चलते दीप्ति को कलंक समझते थे.

वह दीप्ति को अकसर कहते थे, ‘‘तूने हमारे परिवार की, खानदान की, ब्राह्मणों की नाक कटा दी है. तुझ जैसी कलंक का पहले पता होता तो तुझे हम ने कोख में ही मार दिया होता.’’

इसी बीच फरवरी, 2021 की शुरुआत में नलिन मिश्र ने अनीश पर अपनी बेटी के बलात्कार करने का आरोप लगाया. यह जान कर दीप्ति को इतना आश्चर्य हुआ कि उस के पिता अपनी बेटी के साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं. लेकिन उन दिनों दीप्ति के घरवालों ने उस को इतना प्रताडि़त किया, उस पर इतना दबाव बनाया कि दीप्ति को अनीश के खिलाफ बयान देना पड़ा.

फिर दीप्ति चली गई अनीश के घर

लेकिन जब अनीश की गिरफ्तारी की नौबत आई तो 20 फरवरी, 2021 को दीप्ति एक बार फिर से अपने घर वालों को चकमा दे कर अनीश के साथ रहने के लिए उस के घर आ गई. दीप्ति के घरवालों ने फिर भी हार नहीं मानी.

उन्होंने स्थानीय पुलिस को अनीश के खिलाफ दीप्ति का अपहरण करने की रिपोर्ट दर्ज करवाई. जिस के बाद अनीश और दीप्ति दोनों ने मिल कर सोशल मीडिया पर एक वीडियो बना कर पोस्ट भी किया, जो वायरल हो गया.

उस वीडियो में दीप्ति ने बताया कि उस का अपहरण नहीं हुआ है और वह अपनी मरजी से अनीश के साथ रह रही है और दोनों ने शादी कर ली है.

कुछ महीनों तक दोनों ने जिंदगी साथ में गुजारी. साथ में काम पर जाते, साथ में काम से वापस आते. लेकिन दोनों के मन से डर का साया कम नहीं हुआ था. इस को ध्यान में रखते हुए अनीश के पिता ने दोनों को सार्वजनिक रूप से शादी करने का उपाय बताया.

उन्होंने उन से कहा कि अगर वे सार्वजनिक तरीके से शादी कर लेंगे तो हो सकता है कि वो लोग उन की शादी को स्वीकार कर लें. उन की बातों का सम्मान करते हुए दोनों ने 28 मई, 2021 के दिन गोरखपुर के महादेव झारखंडी मंदिर में शादी कर ली.

मंदिर में शादी करने के बाद अनीश के घरवालों ने दोनों के लिए गोरखपुर में अवंतिका होटल में एक बड़ा रिसैप्शन भी रखा. इस रिसैप्शन में सिर्फ अनीश के घरवाले और रिश्तेदार ही मौजूद थे. दीप्ति के घर से न तो मंदिर में शादी के समय कोई आया और न ही रिसैप्शन में कोई आया.

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शादी और रिसैप्शन के बाद कुछ दिन ऐसे ही गुजर गए. दीप्ति के घरवालों की तरफ से अब न तो धमकी भरे फोन आते थे और न ही वे दीप्ति को परेशान करते थे.

लेकिन यह बड़ा तूफान आने से पहले की शांति थी. शादी के बाद अनीश के दिलोदिमाग से डर धीरेधीरे कम होने लगा. अनीश पहले के मुकाबले लापरवाह हो गया और बेफिक्री के साथ घूमनेफिरने लगा.

इस चीज को ले कर दीप्ति ने अनीश को कई बार आगाह भी किया था लेकिन अनीश पर उस की इन बातों का असर नहीं होता था. अनीश को लगता था कि यह अपना ही इलाका है तो यहां कोई खतरा नहीं है, लेकिन यह लापरवाही भारी पड़ी.

अनीश पर किया हमला

24 जुलाई, 2021 के दिन अनीश और उस के चाचा देवी दयाल, जोकि उरूवा ब्लौक में ही तैनात ग्राम विकास अधिकारी थे, दोनों दोपहर को गोला थाना क्षेत्र के गोपलापुर चौराहा स्थित पंकज ट्रेडर्स हार्डवेयर की दुकान पर हिसाब करने निकले थे.

दरअसल, अनीश पर दुकान का कुछ उधार बकाया था. वही उधार चुकता करने हार्डवेयर की दुकान पर दोनों आए थे. दुकान मालिक हिसाब अभी तैयार कर ही रहा था तभी अनीश के मोबाइल पर एक काल आ गई.

अगले भाग में पढ़ें- दीप्ति ने अपने ही घर वालों के खिलाफ लिखाई रिपोर्ट

आज दिन चढ़या तेरे रंग वरगा- भाग 2

जसप्रीत मुझ से छूट कर मुसकराती हुई नीचे भाग गई.

मैं भी नीचे आ गया. उस की पलकें लाज और प्रेम से बोझिल थीं. तुम बहुत प्यारी हो प्रीत, क्या लिखूं और?

रात के 2 बजे हैं और नींद मेरी आंखों को छोड़ कर वैसे ही जा चुकी है जैसे मेरे और जसप्रीत के बीच 5 दिन पहले का परायापन.

अचानक बारिश होने लगी है. काश, मैं और जसप्रीत अभी छत पर ही होते, वह कहती ‘मेरी सोहणी’ कह कर रुक क्यों गए, कुछ और बोलो न. मैं कहता, कल्पना करो कि तुम धरती और मैं बादल. प्यासी धरती और फिर खूब जोर से बरस जाए बादल. वह कहती यों नहीं, प्यार से कहो, कुछ अलग ढंग से. और मैं उसे कुछ गढ़ कर सुना देता, शायद कुछ ऐसा-

जमीं से लिपट कर बरस रहे आज बादल,

खुशबू में उस की सिमट रहे आज बादल,

करवट ली मौसम ने कैसी अचानक आज,

लिबास बन कर जमीं का मदहोश है बादल.

तुम ने तो मुझे शायर बना दिया प्रीत. आज नींद नहीं आएगी मुझे.

5 जून

कल रात न जाने कब नींद आई, पर आंख सुबह 6 बजे ही खुल गई. आसमान सुनहरा था. मेरे चेहरे को छू रही थी धूप की गुनगुनी सी गरमी और गुलाब के फूल को छू कर आए नर्म हवा के झोंके. मैं पंजाबी में गुनगुना उठा –

‘आज दिन चढ़या तेरे रंग वरगा,

तेरे चुम्मन पिछली संग वरगा,

है किरणा दे विच नशा जेहा,

किसे चिंदे सप्प दे डंग्ग वरगा.’

‘ओह, तो आप शिव कुमार बटालवी को भी पढ़ते हैं?’ पीछे से जसप्रीत की आवाज आई.

‘हां जी, सुना भी है उन्हें. कितना सुंदर लिखते थे वे प्रेम पर,’ मैं मुसकरा दिया.

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‘सिर्फ प्रेम पर थोड़े ही लिखते थे. वे तो जुदाई का दर्द भी जानते थे. तभी तो उन्हें बिरहा का सुलतान कहते हैं,’ जसप्रीत दोनों हाथ पीछे कर आंखें नचाती हुई बोली.

‘जब विरह से सामना होगा तब भी याद कर लेंगे उन्हें. पर अभी तो मोहब्बत के नगमे गाने दो न,’ मैं जसप्रीत के पास जा कर खड़ा हो गया.

‘करो जी इश्कविश्क, सुनाओ जी उन की प्रेम वाली कविता. पर मतलब भी समझते हो या यों ही?’ मुझे चिढ़ाने के अंदाज में हंसती हुई वह बोली.

मैं उस के एकदम करीब पहुंच गया और अपने दोनों हाथों में उसे समेटते हुए बोला, ‘मतलब भी जानते हैं, ऐसे ही थोड़ी गुनगुना रहा था मैं. लो सुनो, आज की सुबह तो बिलकुल तुम्हारे रंग जैसी है, एकदम सुनहरी. और पिछली मुलाकात में हुए चुंबन जैसी गुलाबी महक भी है सुबह में. और….और….आज तो किरणों की छुअन से भी नशा सा हो रहा है, किसी जहरीले सांप का डंक था वो चुंबन… नहीं…चुम्मन…’

मेरे बाहुपाश में जकड़ी जसप्रीत खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘आप तो माहिर हो पंजाबी में भी. हाय, मर जावां.’

जसप्रीत के तन की सुगंध मेरे अंगअंग पर छा रही थी. मैं किसी उन्मादी सा बहकने लगा था, ‘मर तो मैं गया हूं. एक बार फिर डस कर अपने जहर से जिंदा कर दो मुझे,’ कह कर मैं ने उस के अधरों पर अपने होंठों से प्रेम लिख दिया.

जसप्रीत का सुनहरा चेहरा सुर्ख लाल हो गया. मैं इस लाल रंग में रंगा अपनी सुधबुध खो बैठा हूं.

6 जून

जसप्रीत लुधियाना में रहने वाली अपनी कुछ सहेलियों के लिए रेडीमेड सलवारसूट खरीदना चाहती थी. उस ने बताया कि कमला मार्केट में इस प्रकार के कपड़ों की कई दुकानें हैं. मम्मी आज थकी हुई थीं. आंटीजी ने मुझ से आग्रह किया कि जसप्रीत के साथ मैं चला जाऊं. मुझे पता था कि कनाट प्लेस के पास भी कपड़ों की कुछ ऐसी ही दुकानें हैं जनपथ पर. इसलिए हम दोनों वहां चले गए.

अहा, क्या दिन था आज का. चिलचिलाती धूप आज चांदनी से कम नहीं लग रही थी. कनाट प्लेस में घूमते हुए कुल्फी खाने में बहुत आनंद आ रहा था हम दोनों को. कुछ सामान खरीदने के बाद मैं ने उस से पालिका बाजार चलने को कहा.

पालिका बाजार के विषय में जसप्रीत नहीं जानती थी. वातानुकूलित भूमिगत बाजार पहली बार देखा था उस ने. वहां गरमी से तो राहत मिली पर भीड़भाड़ बहुत थी.

बाहर निकल कर हम ने रीगल सिनेमा हौल में फिल्म ‘शराबी’ देखने का निश्चय किया, पर हाउसफुल का बोर्ड देख कर निराश हो गए. फिर आसपास घूमते हुए हम ने रेहड़ी वाले से गन्ने का रस खरीद कर पिया और गोलगप्पे भी खाए, खूब चटखारे ले कर.

शाम तक प्रीत ने वह सब खरीद लिया जो वह लेना चाहती थी. घर आते समय सामान अधिक होने के कारण हम ने बस से न आ कर औटो करना उचित समझा. औटो की तेज गति और जसप्रीत की निकटता का रोमांच. मैं हवा में उड़ा जा रहा था.

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घर पहुंचे तो सभी टीवी पर नजरें गड़ाए औपरेशन ब्लूस्टार का समाचार देख रहे थे. कुछ देर बाद अंकलजी ने कहा कि उन लोगों को लुधियाना के लिए कल ही निकल लेना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि राजनीति के नाम पर फूट डालने वालों को मौका मिल जाए और दंगेफसाद हो जाएं. खरीदारी भी लगभग पूरी हो गई थी उन की.

रात के खाने के बाद मैं जसप्रीत के साथ अपने कमरे में आ गया. हम अपने सपनों को ले कर चर्चा कर रहे थे. जसप्रीत बीएड कर एक अध्यापिका बनना चाहती है. मैं ने इस के लिए उसे खूब मेहनत करने की सलाह दी. मुझे भी लैक्चरर बनने के लिए शुभकामनाएं दीं उस ने.

अपने प्रेम के भविष्य को ले कर हमें एक सुखद एहसास हो रहा था. हम दोनों ही अपने मम्मीपापा की प्रिय संतान हैं, इसलिए विजातीय और अलगअलग धर्मों से होने के बावजूद हमें पूरा यकीन है कि हमारे मातापिता हमें एक होने से नहीं रोकेंगे.

7 जून

चली गई जसप्रीत.

जाने से पहले भावुक हो कर मुझ से बोली, ‘जल्दी ही हमेशा के लिए आ जाऊंगी यहां.’

मैं ने अपनी उदासी छिपाने की कोशिश कर हंसते हुए कहा, ‘जल्दी ही? अभी तो मैं अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हूं और तुम हो कि अपना बोझ मुझ पर लादना चाहती हो.’

उस ने नजरें झुका कर एक

कविता की पंक्तियां बोलते हुए जवाब

दिया-

‘चरणों पर अर्पित है, इस को चाहो तो स्वीकार करो,

यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो.’

‘ओह, सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता,’ मैं मुसकराने की असफल चेष्टा करते हुए बोला.

टैक्सी में बैठते हुए जसप्रीत अपनी रुलाई रोक न पाई और अपने कमरे में वापस आ कर मैं.

4 जुलाई

कई दिनों बाद डायरी खोली है. लिखता भी तो क्या? प्रीत की यादों के सिवा लिखने को था ही क्या मेरे पास.

आज लाइब्रेरी में पुस्तकें लौटाने गया तो यशपाल सर मिल गए. उन्होंने बताया कि केंद्रीय हिंदी संस्थान, हैदराबाद ने एक प्रोजैक्ट के लिए कुछ विद्यार्थियों के नाम मांगे थे उन से. सर ने मेरा नाम भी दिया था. मुझे चयनित कर लिया गया है. 4 महीने के लिए जाना पड़ेगा मुझे वहां पर. इस अनुभव का मुझे विशेष लाभ मिलेगा और पीएचडी के लिए आवेदन करने पर निश्चय ही मुझे प्राथमिकता दी जाएगी.

जसप्रीत तो 15 जुलाई से पहले आएगी नहीं होस्टल वापस. मैं तो तब तक हैदराबाद चला जाऊंगा. उसे पत्र या टैलीफोन द्वारा सूचित करने के उद्देश्य से मम्मी के पास जा कर जसप्रीत के घर का पता और फोन नंबर मांगा तो उन के माथे पर बल पड़ गए. वे जानना चाहती थीं कि मैं अपने हैदराबाद जाने की सूचना जसप्रीत को क्यों देना चाहता हूं? जब मैं ने उन्हें अपनी भावनाओं से अवगत कराया तो मेरी आशा के उलट वे नाराज हो गईं. मुझे डांट लगाती हुई बोलीं, ‘तुझे भी जमाने की हवा लग गई?’

जब मैं इस विषय में खुल कर उन से चर्चा करने लगा तो वे कल पापा के सामने बात करेंगे. कह कर चुपचाप चली गईं. पापा आज औफिस के काम से मेरठ गए हैं, देर रात में लौटेंगे.

5 जुलाई

कभी सोचा भी नहीं था मैं ने कि पापा मेरे और प्रीत के रिश्ते को ले कर इतने नाराज हो जाएंगे. वे मुझ से ऐसे बरताव करने लगे जैसे मैं ने चोरी की हो.

‘यह क्या तमाशा है? अपनी जात में लड़कियों का अकाल पड़ गया है क्या?’ त्योरियां चढ़ा कर पापा सुबहसुबह मुझ से बोले.

‘पापा, मैं उस से प्यार करता हूं.’

‘एक हफ्ता रहे उस के साथ

और प्यार? इसे प्यार नहीं कुछ और ही कहते हैं.’

‘क्या कहते हैं इसे पापा?’

‘बुरी नजर. शर्म नहीं आती तुझे?’ पापा गुस्से से चिल्लाए.

‘जसप्रीत भी प्यार करती है मुझ से,’ मैं भी तेज आवाज में बोला.

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मेरे इस तरह जवाब देने से पापा कहीं और क्रोधित न हो जाएं, यह सोच कर मम्मी बीच में आ गईं.

‘बेटा, तू बड़ा भोला है, वह तुझ से दो मीठे बोल बोली और तू प्यार समझ बैठा. वह सबकुछ भूल भी चुकी होगी अब तक,’ मम्मी बोलीं.

‘नहीं, मुझे यकीन है जसप्रीत पर,’ मैं अपनी बात पर अड़ा हुआ था.

‘लुधियाना से लौट कर तेरे साथ घूमनेफिरने के लिए कर रही होगी, प्यार का नाटक. यहां जसप्रीत की जानपहचान वाला तो कोई रहता नहीं. हमारे तो रिश्तेदार भरे पड़े हैं दिल्ली

में. मिलना भी मत उस से. हमारी

इज्जत मिट्टी में मिलाएगा?’ पापा जोर से चिल्लाए.

‘ठीक है पापा, अभी नहीं घूमूंगा उस के साथ. पर शादी के बाद तो घूम सकता हूं, फिर तो कोई एतराज नहीं होगा किसी रिश्तेदार को?’

‘फिर वही बेवकूफी. क्या कमी है तुझ में कि कोई अपनी लड़की नहीं देगा? और फिर भी तुझे हमारी बात नहीं माननी है तो समझ ले कि मर गए हम तेरे लिए,’ किसी फिल्मी पिता की तरह बोल कर पापा ने बात खत्म की.

मैं अपने कमरे में वापस आ गया. सोच रहा हूं कि हैदराबाद न जाऊं.

पर ऐसा मौका हाथ से जाने भी नहीं

दे सकता.

ठीक है. चला जाता हूं. आ कर मिलता हूं जसप्रीत से. शायद उस के मम्मीपापा मना लेंगे मेरे पापामम्मी को.

6 जुलाई

आज मैं जसप्रीत के होस्टल गया. अच्छा हुआ कि उस की रूममेट, शालिनी छुट्टियां बिता कर आ चुकी थी वहां. एक पत्र उस को दे दिया मैं ने जसप्रीत के लिए. उस में ज्यादा न लिख कर केवल अपने जाने की बात लिख दी थी.

अब इस डायरी में हैदराबाद से लौट कर ही कुछ लिखूंगा.

20 नवंबर

मैं कितना प्रसन्न था कल हैदराबाद से लौटने पर. सोचा था कुछ देर बाद ही जसप्रीत से मिलने होस्टल जाऊंगा. पर उस समय मैं अवाक रह गया जब मम्मी ने मुझे जसप्रीत की शादी का कार्ड दिखाया. डाक से मिला था उन्हें वह कार्ड. यकीन ही नहीं हुआ मुझे.

जसप्रीत के विवाह की शुभकामनाएं देने के बहाने मैं एक बार लुधियाना जा कर इस बारे में जानना चाहता था. पर मम्मीपापा नहीं माने. उन का कहना था कि 31 अक्तूबर को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में जो माहौल बना है उसे देखते हुए वे मुझे पंजाब जाने की अनुमति नहीं दे सकते.

जब अपने घर में ही लोग धर्म और जाति को ले कर इतना भेदभाव करते हैं तो देश में सौहार्दपूर्ण वातावरण की आशा क्यों?

21 नवंबर

मैं जसप्रीत के होस्टल जा कर शालिनी से मिला. उस ने बताया कि जसप्रीत जुलाई में लुधियाना से वापस आ गई थी. शालिनी ने मेरा पत्र भी दे दिया था प्रीत को. पर अगस्त में ही उस के पापा उसे वापस लुधियाना ले गए थे. शालिनी भी नहीं जानती थी कि प्रीत का विवाह हो गया.

क्या कहूं मैं अब? उसे तो भूल नहीं सकता कभी. मेरे लिए तो प्रीत के साथ बिताए वे 7 दिन ही सात जन्मों के बराबर थे. जसप्रीत, तुम ही हो मेरी सात जन्मों की साथी. किसी और की क्या जरूरत है अब मुझे?

कभी मिले तो पहचान लोगी न? खुश रहना हमेशा.

इतना पढ़ने के बाद हर्षित रुक गया. उस ने पन्ने पलटे पर इस के बाद डायरी में कुछ नहीं लिखा था.

‘‘तो सर कभी मिलीं जसप्रीतजी आप से आ कर?’’ साक्षी ने निराश हो कर पूछा.

‘‘आप ने क्यों नहीं कर ली शादी जब उन्होंने ही आप को धोखा दे दिया,’’ अमन के कहते ही दीपेश और हर्षित ने भी सहमति में अपना सिर हिला दिया.

प्रशांत सर ने पास रखा लकड़ी का डब्बा खोला और एक कागज साक्षी की ओर बढ़ा दिया और बोले, ‘‘मेरे हैदराबाद से लौटने के लगभग 2 वर्षों बाद अंकलजी हमारे घर आए थे. मैं मिल नहीं पाया था उन से, क्योंकि तब मैं जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहा था और प्रतिदिन होने वाली भागदौड़ से बचने के लिए होस्टल में रह रहा था. लो, पढ़ो यह पत्र.’’

एक सफेद लिफाफा जो लगभग पीला पड़ चुका था. भेजने वाले का नाम-सतनाम सिंह और पाने वाले की जगह लिखा था- प्रशांत पुत्तर के वास्ते. उस लिफाफे से कागज को निकाल कर साक्षी ने पढ़ना शुरू किया-

नई दिल्ली,

14.10.1986

प्रशांत, मेरे बच्चे,

लंबी उमर हो तेरी.

आज मैं आप के घर पर आया हुआ हूं. मिलना चाहता था एक बार आप से. यहां पहुंचा तो पता लगा कि आप गए हुए हो पीएचडी करने. मैं खत लिख कर आप के पापा को दे दूंगा.

पिछली बार जब मेरा परिवार आप के घर आया था, तब कितने खुश थे हम सब. बस यों समझ लो कि मेरे जीवन की सारी खुशियां यहीं छूट गई थीं. मुसकराना भी भूल गया मैं तो उस के बाद.

मेरे भतीजे की शादी के टाइम पर एक रिश्ता आया था हमारी प्रीत के वास्ते. लड़का कनाडा में रहता था, पर उस वक्त वह शादी अटैंड करने आया हुआ था.

जसप्रीत ने इस रिश्ते के लिए इनकार कर दिया. मेरा पूरा परिवार तो हिल गया था यह सुन कर कि वह आप को पसंद करती थी. खानदान में कभी किसी ने सिख धर्म को छोड़ कर कहीं ब्याह नहीं किया था अपने बच्चों का.

लड़का अपने घरवालों के साथ 2 महीनों के लिए ही था इधर. हम ने जसप्रीत की मरजी के खिलाफ उस लड़के से जसप्रीत की शादी करने का प्रोग्राम बना लिया. जसप्रीत ने बहुत विनती की हम से कि आप के हैदराबाद से आने तक हम इंतजार करें, आप से बात कर के ही कोई फैसला लें.

नहीं माने हम लोग. पर क्या मिला उस जोरजबरदस्ती से हमें? आनंद कारज वाला घर अफसोस में बदल गया. बरात आने से पहले ही घर की छत से कूद गई जसप्रीत. 3 हफ्ते तक कोमा में रहने के बाद होश में तो आ गई वह, पर गरदन से नीचे का हिस्सा बेकार हो गया. सब समझती है, थोड़ाबहुत बोल भी लेती है पर, पुत्तर, उस के हाथपैर किसी काम के नही रहे. महसूस भी कुछ नहीं होता उसे गरदन के नीचे से पैरों तक. आप की आंटीजी सतवंत तो उस की हालत देख ही नहीं सकीं और पिछले साल चली गईं यह दुनिया छोड़ कर.

अंधे हो गए थे हम लोग. हमारी आंखों पर धर्म का परदा पड़ा था. हम नहीं समझ सके आप दोनों को. मेरे बच्चे, मैंनू माफ कर देना. वरना चैन से मर नहीं पाऊंगा.

आप का अंकलजी,

सतनाम सिंह.

अब मैं समझ गई हूं: रिमू का परिवार इतना अंधविश्वासी क्यों था

विवाह किसी कुंडलीवुंडली से नहीं, बल्कि दो लोगों की परस्पर समझदारी से सफल और असफल होते हैं. बातबात में अपनी आधुनिकता का प्रदर्शन करने वाले रिमू के परिवार का इतना अंधविश्वासी होना अमन के लिए किसी आश्चर्य से कम न था. एक दिन तो…

मैं एक लड़की को पसंद करता हूं लेकिन उससे बात करने से डरता हूं, क्या करूं?

सवाल

मैं 12वीं क्लास में हूं. मेरी क्लास में एक लड़की है जिसे मैं बहुत पसंद करता हूं. वह बहुत सुंदर है और क्लास में सब से अलग है. मैं पढ़ने में अच्छा हूं लेकिन दिखने में उस की बराबरी कभी नहीं कर सकता. मेरी क्लास में मुझ से भी ज्यादा स्मार्ट लड़के हैं. मैं उस लड़की से बात करना चाहता हूं लेकिन उस ने मुझे मना कर दिया या मेरा मजाक उड़ाया तो मुझे बहुत बुरा लगेगा. मैं उस के लायक कैसे बनूं या ऐसा क्या करूं कि वह भी मुझे पसंद करने लगे.

जवाब

इस उम्र में क्रश आना और लड़की से बात करने का मन होना आम है. लेकिन यह प्यारव्यार सीरियस लेने की उम्र नहीं है. आप उस लड़की से हायहैलो कर सकते हैं लेकिन अगर आप इस से ज्यादा कुछ चाहते हैं तो आप यकीनन बेवकूफी कर लेंगे. खुद को किसी और के लिए बदलना या मजाक उड़वाने से डरना ही यह हिंट है कि आप को फिलहाल पीछे हट जाना चाहिए. अपनी पढ़ाई पर फोकस कीजिए और उसी पर ध्यान लगाइए.

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कोई आप को पसंद करे तो आप की काबिलीयत और गुणों के लिए करे, न कि आप के लुक्स या शक्लसूरत पर. उस लड़की को आप से बात करने का मन होगा, तो कभी न कभी जरूर कर लेगी. इस से ज्यादा इस पर ध्यान दे कर आप अपना नुकसान ही कर लेंगे.

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अब मैं समझ गई हूं- भाग 1: रिमू का परिवार इतना अंधविश्वासी क्यों था

आज हमारे विवाह की 5वीं वर्षगांठ थी. वैवाहिक जीवन के ये 10 वर्ष मेरे लिए किसी चुनौती से कम न थे क्योंकि इन सालों में अपने वैवाहिक जीवन को सफल बनाने के लिए मैं ने कसर नहीं छोड़ी थी. खुशी इस बात की भी थी कि मैं अपनी पत्नी को भी अपने रंग में ढालने में सफल हो गया था.

इन चंद वर्षों में मैं यह भी सम?ा गया था कि बचपन में बच्चों को दिए गए संस्कारों को बदलना कितना मुशकिल होता है. आप को बता दूं कि रिमू यानी मेरी पत्नी रीमा मेरी बचपन की मित्र थी. उस से विवाह होना मेरे लिए बहुत बड़ी खुशी की बात थी. जिस से आप प्यार करते हो उसी को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करना जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि तो कहा ही जा सकता है.

रीमा मेरा पहला प्यार थी. जब हम एकदूसरे को टूट कर चाहने लगे थे तब हमें स्वयं ही पता नहीं था कि हमारे प्यार का भविष्य क्या होगा परंतु फिर भी चांदनी रात के दूधिया उजाले में एकदूसरे का हाथ थामे हम दोनों घंटों बैठे रहते थे. रीमा की कोयल स्वरूप मधुर वाणी से ?ारते हुए शब्दरूपी फूलों जैसी उस की बातें मेरा मन मोह  लेती थीं.

तब मैं ग्रेजुएशन कर रहा था, जब रीमा का परिवार हमारे पड़ोस में रहने आया था. उस का घर मेरे घर से 10 कदम की दूरी पर ही था. उस दिन मैं जब कालेज से लौटा तो अपने घर से कुछ दूरी पर सामान से लदा ट्रक खड़ा देख कर चौंक गया था. तेज कदमों से अंदर जा कर मां से पूछा, ‘‘मां, यह सामान किस का है? कौन आया है रहने?’’

‘‘मु?ो क्या पता किस का है? तू भी फालतू की बातों में अपना दिमाग खराब मत कर, खाना तैयार है चुपचाप खा ले.’’

कह कर मां अपने काम में व्यस्त हो गई. पर मेरा मन तो न जाने क्यों उस ट्रक में ही उल?ा था. सो, मैं अपने कमरे की खिड़की से ?ांकने लगा. तभी वहां एक कार आ कर रुकी और उस में से पतिपत्नी और 2 बेटियां उतरी थीं. बड़ी बेटी लगभग 20 और छोटी 15 वर्ष की रही होगी.

गोरीचिट्टी, लंबी उस कमसिन नवयुवती को देख कर मैं ने मन ही मन कहा, ‘लगता है कुदरत ने इसे बड़ी ही फुरसत में बनाया है. क्या बला की खूबसूरती पाई है.’

उस के बारे में सोच कर ही मेरा मन सौसौ फुट ऊपर की छलांग लगाने लगा था. उस के बाद तो मेरा युवामन न पढ़ने में लगता और न ही अन्य किसी काम में. खैर, जिंदगी तो जीनी ही थी. अब मैं अकसर अपने कमरे की उस खिड़की पर बैठने लगा था, बस, उस की एक ?ालक पाने के लिए. कभी तो ?ालक मिल जाती थी पर कभी पूरे दिन में एक बार भी नहीं.

लगभग एक माह बाद जब मैं अपने कालेज की लाइब्रेरी से बाहर आ रहा था तो अचानक लाइब्रेरी के अंदर आते उसे देखा.  बस, लगा मानो जीवन सफल हो गया. सहसा अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. एक बार फिर उसे घूर कर देखा और आश्वस्त होते ही मैं ने वापस अपने कदम लाइब्रेरी की ओर मोड़ दिए थे. अंदर जा कर उस की बगल की सीट पर बैठ गया था. कुछ देर तक अगलबगल ?ांकने के बाद मैं ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ा दिया था.

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‘‘हैलो, माईसैल्फ अमन जैन, स्टूडैंट औफ बीएससी थर्ड ईयर.’’

‘‘हैलो, आई एम रीमा गुप्ता, स्टूडैंट औफ बीएस फर्स्ट ईयर. अभी कल ही मेरा एडमिशन हुआ है.’’

उस ने मु?ो अपना परिचय देते सकुचाते हुए कहा था, ‘‘पापा के ट्रांसफर के कारण मेरा एडमिशन कुछ लेट हुआ है. क्या आप नोट्स वगैरह बनाने में मेरी कुछ मदद कर देंगे?’’

‘‘व्हाई नौट, एनीटाइम. वैसे मेरा घर तुम्हारे घर के नजदीक ही है,’’ मैं ने दो कदम आगे रह कर कहा था और इस तरह हमारी प्रथम मुलाकात हुई थी.

नोट्स के आदानप्रदान के साथ ही हम कब एकदूसरे को दिल दे बैठे थे, हमें ही पता नहीं चला था. ग्रेजुएशन के बाद मैं राज्य प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने लगा था और वह पोस्ट ग्रेजुएशन की. उस से मिलना तपती धूप में एसी की ठंडी हवा का एहसास कराता था.

2 वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद मेरा चयन जिला खाद्य अधिकारी के पद के लिए हो गया था. जिस दिन मु?ो अपने चयन की सूचना मिली, मैं बहुत खुश था और शाम का इंतजार था क्योंकि हम दोनों पास के पार्क में लगभग रोज ही मिलते थे.

उस दिन भी मैं नियत समय पर पहुंच गया था. पर आज मेरी रिमू नहीं आई थी. लगभग एक घंटे तक इंतजार करने के बाद मैं मायूस हो उठा और वापस जाने के लिए कदम बढ़ाए ही थे कि अचानक सामने से मु?ो वह आती दिखाई दी.

‘‘अरे आज इतनी लेट क्यों? और यह मेरा गुलाब मुर?ाया हुआ क्यों है?’’ मेरे इतना कहते ही वह मु?ा से लिपट गई थी.

‘‘अमन, हम अब इतने आगे आ गए हैं कि अब तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है. मेरे घर वाले शादी की बातें कर रहे हैं. क्या तुम मु?ो अपनाओगे?’’ रिमू ने बिना किसी लागलपेट के मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया था और मैं हतप्रभ सा उसे देखता ही रह गया था.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, मैं कब तुम्हारे बिना रह पाऊंगा,’’ कह कर मैं ने उसे अपने सीने से लगा लिया था.

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उस के बाद मेरा सर्विस जौइन करना और रिमू के पापा का ट्रांसफर पास के ही शहर में होना, सबकुछ इतनी जल्दी में हुआ कि कुछ सोचनेविचारने का समय ही नहीं मिला. मैं और रिमू फोन के माध्यम से एकदूसरे से टच में अवश्य थे. मैं ने भी अपनी पत्नी के रूप में सिर्फ रिमू की ही कल्पना की थी.

नौकरी जौइन करने के बाद जब पहली बार मैं घर आया तो मां ने मेरे विवाह की बात की. मैं अपनी मां से प्रारंभ से ही प्रत्येक बात शेयर करता रहा था, सो मां से अपने दिल की बात कह डाली.

‘‘मां, मैं और किसी से विवाह नहीं कर पाऊंगा और जो भी करूंगा आप की अनुमति से ही करूंगा.’’

‘‘कौन लोग हैं वे और क्या करते हैं. किस जाति और धर्म के हैं?’’ मां ने कुछ अनमने से स्वर में पूछा था.

Manohar Kahaniya: खोखले निकले मोहब्बत के वादे- भाग 1

सौजन्य- मनोहर कहानियां

राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद का वसुंधरा इलाका नवधनाढ्यों का ऐसा इलाका है, जहां देश के सभी प्रांतों एवं धर्मों के लोग रहते हैं. दिल्ली व आसपास के इलाकों में सरकारी, गैरसरकारी संस्थानों में काम करने वालों से ले कर कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों से ले कर छोटेबड़े कारोबारी तक इस इलाके में रहते हैं.

मूलरूप से ओडिशा के जगतसिंहपुर के गांव अछिंदा का रहने वाला मनोज उर्फ मनोरंजन 1999 में नई विकसित वसुंधरा कालोनी में रोजीरोटी की तलाश में आया था.

वसुंधरा इलाके में ओडिशा के कुछ लोग पहले से रहते थे. मनोरंजन फोटोग्राफी का काम जानता था. इसलिए उस ने अपने परिचितों की मदद से एक फोटोग्राफर की दुकान पर नौकरी कर ली.

कुछ महीनों में जब वह काम में पारंगत हो गया तो इलाके में कुछ लोगों से उस की जानपहचान हो गई तो उस ने वसुंधरा के सेक्टर-15 में एक दुकान किराए पर ले कर फोटो स्टूडियो खोल लिया.

संयोग से काम भी ठीक चलने लगा. चेहरे पर भोली मुसकान और बातचीत में बेहद सरल और विनम्र स्वभाव के मनोरंजन का काम उस की मेहनत और लगन के कारण जल्द ही चल निकला. मनोरंजन उर्फ मनोज तिवारी जाति से ही ब्राह्मण नहीं था, बल्कि कर्म से भी वह ब्राह्मण ही था. माथे पर तिलक सदकर्मों के कारण क्षेत्र के लोग उसे पंडितजी के नाम से पुकारने लगे.

मनोरंजन के पिता भी ओडिशा में पंडिताई का काम करते हैं. बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी. गांव में अब मातापिता ही रहते हैं. 3-4 साल में उस का कामधंधा ठीकठाक चलने लगा. खूब पैसा कमाने लगा था. वसुंधरा सैक्टर 15 में ही मनोरंजन ने रहने के लिए एक अच्छा फ्लैट भी किराए पर ले लिया.

इसी तरह वक्त तेजी से गुजरने लगा. मनोरजंन के पास अब सब कुछ था. किराए का ही सही एक अच्छा घर था, जिस में सुखसुविधा का हर सामान मौजूद था.

फोटोग्राफी का अच्छा कारोबार चल रहा था, जिस से हर महीने डेढ़ से 2 लाख रुपए कमा लेता था. लेकिन ऐसा कोई नहीं था, जो उस का सुखदुख बांट सके. जिंदगी में कमी थी तो एक जीवनसाथी की, जो उस की तनहा जिंदगी का अकेलापन दूर कर सके. मातापिता ने गांव से बिरादरी की कई लड़कियों की तसवीरें भेजी थीं, लेकिन पता नहीं क्यों कोई भी उस की आंखों को पसंद नहीं आई.

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गाजियाबाद में रहने वाले ओडिशा के परिचितों ने भी मनोरंजन को शादी करने के लिए कई रिश्ते बताए, लेकिन संयोग से यहां भी कोई लड़की उसे पसंद नहीं आई.

दरअसल, मनोरंजन बेहद संवेदनशील और भावुक किस्म का इंसान था. जिंदगी में वही काम करता था, जिस के लिए दिल कहता. अभी तक उस ने जिन लड़कियों को भी देखा था, उन में से कोई भी ऐसी नहीं थी जिसे देख कर उसके दिल में कोई उमंग या खुशी की भावना जगी हो.

इसलिए उसे एक ऐसी लड़की का इंतजार था, जिसे देख कर पहली ही नजर में दिल से आवाज निकले कि हां ये सिर्फ मेरे लिए बनी है.

वक्त तेजी से गुजरता गया. लेकिन 2006 में अचानक एक ऐसा भी दिन आया जब एक लड़की को देख कर उस के दिल से वो आवाज निकली, जिस का उसे इंतजार था.

हुआ यूं कि एक दिन एक लड़की, जिस का नाम गीता यादव था. वह उस के स्टूडियो में फोटो खिंचवाने आई. करीब 20 साल की अल्हड़ उम्र थी और चेहरे पर चंचल मासूमियत देख कर पता नहीं मनोरजन का दिल पहली बार एक अजीब से अहसास के साथ धड़का.

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गीता जब खिलखिला कर हंसती तो उस के गालों के बीच पड़ने वाले डिंपल किसी भी इंसान को उस का दीवाना बना देने के लिए काफी थे.

मूलरूप से इटावा की रहने वाली गीता यादव पिछले 10 सालों से अपने परिवार के साथ किराए के मकान में कनावनी गांव में रहती थी. परिवार में मां शांति के अलावा एक बड़ा भाई था राजेश यादव. भाई एक फैक्ट्री में नौकरी कर के अपनी पत्नी, बच्चे के साथ मां और बहन का पेट पालता था.

अगले भाग में पढ़ें- पहली मुलाकात में हो गया था दीवाना

Diwali Special: जुआ खेलना जेब के लिए हानिकारक है

कहते हैं जुए की लत में जर, जोरू और जमीन, सब दांव पर लग जाते हैं. महाभारत से ले कर आज के भारत में जुए की गंदी लत ने न जाने कितने घरों को बरबाद किया है, कितने घरों में अशांति फैलाई है. क्या आप भी इस की लत में सबकुछ खोने को तैयार हैं?

तीजत्योहारों पर धार्मिक रीतिरिवाजों के नाम पर कई कुरीतियां भी हम ने पाल रखी हैं, जैसे होली पर शराब और भांग का नशा करना और दीवाली पर जुआ खेलना, जिस के पीछे अफवाह यह है कि आप अपनी किस्मत और आने वाले साल की आमदनी आंक सकते हैं. दीवाली पर जुए के पीछे पौराणिक कथा यह है कि इस दिन सनातनियों के सब से बड़े देवता शंकर ने अपनी पत्नी पार्वती के साथ जुआ खेला था, तब से यह रिवाज चल पड़ा.

बात सौ फीसदी सच है कि जिस धर्म के देवीदेवता तक जुआरी हों, उस के अनुयायियों को भला यह दैवीय रस्म निभाने से कौन रोक सकता है. महाभारत का जुए का किस्सा और भी ज्यादा मशहूर है जिस में कौरवों ने पांडवों से राजपाट तो दूर की बात है, उन की पत्नी द्रौपदी तक को जीत लिया था. मामा शकुनी ने ऐसे पांसे फेंके थे कि पांडव बेचारे 12 साल जंगलजंगल भटकते यहांवहां की धूल फांकते रहे थे. महाभारत की लड़ाई, जिस में हजारोंलाखों बेगुनाह मारे गए थे, के पीछे वजह यही जुआ था.

जुए के नुकसान आज भी ज्यों के त्यों हैं, फर्क इतना है कि युग, सतयुग, त्रेता या द्वापर न हो कर कलियुग है और किरदार यानी जुआरी आम लोग हैं जो पांडवों की तरह दांव पर दांव हारे हुए जुआरी की तरह लगाए चले जाते हैं लेकिन सुधरते नहीं. भोपाल के अनिमेश का ही उदाहरण लें जो पुणे में एक सौफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर हैं. पिछले साल दीवाली पर लौकडाउन के चलते घर नहीं आ पाए थे, सो दीवाली अपने किराए के फ्लैट में दोस्तों के साथ मनानी पड़ी. शाम को जम कर जाम छलके, फिर रात 9 बजे के करीब प्रशांत ने जुआ खेलने का प्रस्ताव रिवाज का हवाला देते रखा तो सभी पांचों दोस्तों ने हां कर दी.

दुनिया का सब से प्रचिलित खेल ‘तीन पत्ती,’ जिस का एक और नाम फ्लैश है, शुरू हुआ तो यों ही था लेकिन खत्म यों ही नहीं हुआ. सुबह होतेहोते अनिमेष एकदो महीने की नहीं, बल्कि पूरे सालभर की सैलरी हार चुका था. 60 हजार तो नकदी गए और तकरीबन 2 लाख अनिमेश ने तुरंत औनलाइन ट्रांसफर किए, बाकी बचे और 2 लाख उस ने 6 महीनों की किस्तों में चुकाए. सालभर की बचत एक  झटके में ठिकाने लग गई.

अनिमेश बताता है कि ये सेविंग के पैसे थे, जिन से वह पापा की मदद करना चाहता था. बड़ी बहन की शादी कभी भी तय हो सकती है, इस के लिए उस ने पापा से कह रखा था कि वह 5 लाख रुपए देगा. दीदी की शादी जल्द हो जाए, यह मनाते रहने वाला यह युवा अब रोज मन्नत मांगता है कि शादी अभी तय न हो क्योंकि वह दोबारा पैसे इकट्ठे कर रहा है जिस में करीब एक साल लगेगा.

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अफसोस उसे है, लेकिन इस बात का ज्यादा है कि उस ने पक्की रन पर बेवजह लंबी चालें चलीं जबकि सामने वाला गुलाम की ट्रेल रख कर खेल रहा था. कई रात उसे नींद नहीं आई. सोते वक्त उसे अपनी पक्की रन और प्रशांत की ट्रेल ही दिखती रही जो चाल डबल किए जा रहा था. तब जाने क्यों उसे यह सम झ नहीं आया कि सामने वाले के पास बड़ा पत्ता हो सकता है. अगली बार के लिए उस ने यह सबक नहीं लिया है कि जो हुआ सो हुआ लेकिन अब जुआ नहीं खेलना है बल्कि वह सोच यह रहा है कि फड़ के पैसे फड़ से ही वसूलेगा.

अब कौन उसे बताए और सम झाए कि महाभारत के जुए में युधिष्ठिर ने भी हर बार यही सोचा था कि बस, इस बार दांव लग जाए, फिर तो पौ बारह है. युधिष्ठिर हार कर भी धर्मराज कहलाया लेकिन अनिमेश जैसे लोगों को क्या कहा जाए जो दिनरात की मेहनत से कमाया पैसा एक रात में गंवा देते हैं पर फिर भी जुए का लालच छोड़ नहीं पाते.

सिगरेट सरीखा ऐब 

इस में शक नहीं कि जुए के खेल का अपना अलग रोमांच है लेकिन यह लत या शौक लगता कैसे है, इस सवाल का जवाब बहुत साफ है कि अधिकतर घरों में दीवाली का जुआ एक तरह से मान्य है. बच्चे हर साल बड़ों को रोशनी के इस त्योहार के दिनों में बड़े चाव से जुआ खेलते देखते हैं तो उन में भी जिज्ञासा पैदा हो जाती है और वे इस खेल के दांवपेंच भी जल्द सीख जाते हैं. बड़े होने पर होस्टल या अपने ही शहर की किसी फड़ पर वे भी भविष्य आजमाने लगते हैं.

यह बिलकुल सिगरेट की लत जैसा काम है जिस का पहला कश चोरीछिपे लिया जाता है. फिर धीरेधीरे यह आदत और फिर लत बन जाती है. चूंकि बड़े खुद गलत होते हैं, इसलिए बच्चों को यह कहते रोक नहीं पाते कि यह गलत है. गलत कहेंगे तो बच्चे के इस सवाल का जवाब वे नहीं दे पाएंगे कि अगर गलत है  तो फिर आप क्यों खेलते हो.

अनिमेष का कहना है कि जब वह छोटा था तो पापा लंबी ब्लाइंड के बाद उस से ही पत्ते खुलवाते थे. इस के पीछे उन का अंधविश्वास यह था कि बच्चा पत्ते खोलेगा तो सामने वाले से बड़े ही निकलेंगे. कभीकभार ऐसा हो भी जाता था तो उन का अंधविश्वास और गहरा जाता

था और अगर हार जाते थे तो समय को कोसते अगली चाल का इंतजार करने लगते थे.

भाग्यवादी और अंधविश्वासी बनाता जुआ

जैसे सिगरेट के नुकसान जानते हुए भी लोग स्मोकिंग करते हैं वैसा ही हाल जुए का है. लोग इस के नुकसान जानते हैं लेकिन इस के भी कश चाल की शक्ल में लगाते जाते हैं. एक हकीकत अनिमेश के उदाहरण से साबित भी होती है कि जुआ शुद्ध भाग्य और अंधविश्वास को पालतापोसता खेल है. अनुमान लगाना सहज मानवीय स्वभाव है. लेकिन हर अनुमान को सच होते देखना निरी बेवकूफी है. जुआ पूरी तरह अनुमान आधारित खेल है, इसलिए इस में रोमांच है.

लेकिन रोमांच से ज्यादा रोल किस्मत नाम की चीज का है जिस की आड़ ले कर इस की लत लगती है. लक्ष्मी अगर पूजा करने से आती होती तो देशदुनिया में कोई गरीब न होता. ठीक इसी तरह अगर किस्मत जुए से चमकती होती तो देश के कोई 30-40 करोड़ लोग बड़े भाग्यवान होते जो दीवाली की रात बतौर रस्म और बतौर लत जुआ खेलते हैं.

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जुआ लोगों को विकट का अंधविश्वासी भी बना देता है जो बुजदिली का दूसरा नाम है. जैसे, क्रिकेट और टैनिस सहित दूसरे खेलों के खिलाडि़यों के अपने मौलिक अंधविश्वास होते हैं कि कोई बल्ला उलटा पकड़ कर मैदान में आता है तो कोई बाएं पैर में पैड पहले बांधता है. इसी तरह जुआरियों के तो लाखों तरह के अंधविश्वास होते हैं. मसलन, कोई मन में गायत्री मंत्र बुदबुदा रहा होता है तो कोई पत्तों को उठाने से पहले उन्हें चूमता है तो कोई पहले उंगलियां चटका कर पत्ते खोलता है.

अब तो इस अंधविश्वासी मानसिकता पर बाकायदा बिजनैस भी करने वाले दुकान खोल कर धंधा करने लगे हैं. जुए में जीतने की शर्तिया तावीज बिकने लगी हैं तो  कहीं सिद्ध बंगाली टाइप बाबा तांत्रिक क्रियाएं कर जुए में जितवाने की गारंटी लेने लगे हैं.

कोई गुरुजी सौ से ले कर 10 हजार रुपए तक जुए में जीतने का मंत्र बताने लगा है तो कई तो शकुनी की तरह कौड़ी यानी ताश के पत्ते भी सिद्ध कर देने लगे हैं. यह बकबास जुआरियों की अंधविश्वासी मानसिकता पर खूब फलफूल रही है. बस, बाजार में जुए का व्रत आना ही बाकी रह गया है कि इस अमावस या पूर्णिमा यह धूत व्रत रखो तो जीत पक्की है.

कैसे बचें 

जुए की महिमा अपरंपार है जिस में जुआरी घंटों प्राकृतिक जरूरतों को दबाए बड़ी लगन से बैठा रहता है. लगातार हारते रहने के बाद भी उस की बुद्धि काम नहीं करती और जीत की उम्मीद में वह बहुतकुछ दांव पर लगा देता है. यह सोचना भी बेमानी है कि जो जीतते हैं, वाकई लक्ष्मी उन पर मेहरबान होती है और वे पैसे का सही इस्तेमाल करते हैं.

जीता हुआ पैसों को फुजूलखर्ची और गलत कामों में लगाता है क्योंकि उसे भी यह एहसास रहता है कि यह पैसा उस ने मेहनत से नहीं कमाया बल्कि जुए में जीता है. अनिमेश से जीतने के बाद प्रशांत ने कोई एक लाख रुपए तो शराबकबाब की पार्टियों में ही उड़ा दिए थे.

अब लाख टके का सवाल यह कि जुए से बचा कैसे जाए? इस के लिए कोई उपाय ढूंढ़ना मुश्किल है सिवा इस के कि दीवाली का कीमती वक्त अपनों के साथ आतिशबाजी चलाते और तरहतरह के पकवान खाते मनाया जाए. किसी फड़ पर जा कर जुआ खेलना एक बड़ा जोखिम वाला काम भी है. अगर पुलिस के छापे में पकड़े गए तो इज्जत तो मिट्टी में मिल ही जाती है, साथ ही 2-3 साल कोर्टकचहरी के चक्कर काटना उस से भी ज्यादा तकलीफदेह तजरबा साबित होता है.

दीवाली का जुआ सिर्फ दीवाली की रात ही नहीं होता, बल्कि 15 दिनों पहले से शुरू हो कर 15 दिन बाद तक चलता है और जो लोग फड़ का आयोजन करते हैं वे पहले से ही माहौल बनाना यानी उकसाना शुरू कर देते हैं कि क्या यार, साल में एक ही तो मौका आता है किस्मत आजमाने का और अगर दोचार हजार हार भी गए तो कोई कंगाल तो नहीं हो जाओगे. तुम तो किस्मत वाले हो, हो सकता है जीत  ही जाओ.

इस तरह की बातों और इस तरह की बातें बनाने वालों से दूर रहना ही बचाव है. नहीं तो जेब खाली होनी तय है. सिगरेट का पहला कश ही उस की लत की शुरुआत होती है. यही थ्योरी जुए पर भी लागू होती है कि एक बार फड़ पर बैठ गए तो पांडव बनने में देर नहीं लगती. इस के बाद भी मन न माने तो शंकर की तरह अपनी पार्वती के साथ जुआ खेलें. इस से घर का पैसा घर में तो रहेगा.

अपने अपने रास्ते- भाग 2: क्या विवेक औऱ सविता की दोबारा शादी हुई?

एक दिन ऐसा भी आया जब दोनों में सभी दूरियां मिट गईं. सविता की औरत को एक मर्द की और विवेक के मर्द को एक औरत की जरूरत थी. अपने प्रौढ़ावस्था के पुराने खयालों के पति की तुलना में विवेक बतरा स्वाभाविक रूप से ताजादम और जोशीला था, दूसरी ओर विवेक बतरा के लिए कम उम्र की लड़कियों के मुकाबले एक अनुभवी औरत से सैक्स नया अनुभव था.

एक रोज सहवास के दौरान विवेक बतरा ने कहा, ‘‘मुझ से शादी करोगी?’’

इस सवाल पर सविता सोच में पड़ गई. विवेक उस से काफी छोटा था. उस को हमउम्र या छोटी उम्र की लड़कियां आसानी से मिल जाएंगी. अपने से उम्र में इतनी बड़ी महिला से वह क्या पाएगा?

‘‘क्या सोचने लगीं?’’ सविता को बाहुपाश में कसते हुए विवेक ने कहा.

‘‘कुछ नहीं, जरा तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार कर रही थी. मैं तुम से उम्र में बड़ी हूं. तलाकशुदा हूं. एक किशोर लड़की की मां हूं. तुम्हें तुम्हारी उम्र की लड़की आसानी से मिल जाएगी.’’

‘‘मैं ने सब सोच लिया है.’’

‘‘फिर भी फैसला लेने से पहले सोचना चाहती हूं.’’

इस के बाद विवेक और सविता काफी ज्यादा करीब आ गए. दोनों में व्यावसायिक संबंध काफी प्रगाढ़ हो गए. विवेक अन्य फर्मों को आयातनिर्यात के आर्डर देने से कतराने लगा, उस की कोशिश थी कि ज्यादा से ज्यादा काम सविता की कंपनी को मिले.

सविता भी उसे पूरी तरजीह देने लगी. उस ने अपने दफ्तर में विवेक के बैठने के लिए एक केबिन बनवा दिया जो उस के केबिन से सटा हुआ था. धीरेधीरे अनेक ग्राहकों को, जो पहले सविता के ग्राहक थे, विवेक अपने केबिन में बुला कर हैंडल करने लगा. आफिस स्टाफ को भी विवेक अधिकार के साथ आदेश देने लगा. मालकिन या मैडम का खास होने के कारण सभी कर्मचारी न चाहते हुए भी उस का आदेश मानने लगे.

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अभी तक विवेक, सविता से हर आर्डर पर कमीशन लेता था. सविता ने उस को कभी अपने व्यापार का हिसाबकिताब नहीं दिखाया था. मगर वह कभी कंप्यूटर से और कभी लेजर बुक्स से भी व्यापार के हिसाबकिताब पर नजर रखने लगा.

अभी तक विवेक फर्म का प्रतिनिधि और एजेंट ही था. उस को किसी सौदे या डील को फाइनल करने का अधिकार न था. ऐसा करने के लिए या तो वह फर्म का पार्टनर बनता या फिर उस के पास सविता का दिया अधिकारपत्र होता मगर एकदम से उस को यह सब हासिल नहीं हो सकता था. जो भी था आखिर वह एक एजेंट भर था, जबकि सविता फर्म की मालकिन थी.

वह एकदम से सविता से पावर औफ अटौर्नी देने को या पार्टनर बनाने को नहीं कह सकता था इसलिए वह अब फिर से सविता से विवाह के लिए कहने लगा था.

‘‘शादी किए बिना भी हम इतने करीब हैं फिर शादी की औपचारिकता की क्या जरूरत है?’’ सविता ने हंस कर कहा.

‘‘मैं चाहता हूं कि आप मेरी होममिनिस्टर कहलाएं. आप जैसी इतनी कामयाब और हसीन खातून का खादिम बनना समाज में बड़ी इज्जत की बात है,’’ विवेक ने सिर नवा कर कहा.

इस पर सविता खिलखिला कर हंस पड़ी. आखिर कोई स्त्री अपने रूपयौवन की प्रशंसा सुन कर खुश ही होती है. उस शाम विवेक उसे एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में खाना खिलाने ले गया. वहीं एक ज्वैलरी शोरूम से हीरेजडि़त एक ब्रेसलेट ले कर भेंट किया तो सविता और भी अधिक खुश हो गई.

उस शाम यह तय हुआ कि सविता 3 दिन के बाद अपना पक्का फैसला सुनाएगी.

इन 3 दिनों के बीच में किसी विदेशी फर्म को एक सौदे के लिए भारत आना था जिसे अभी तक सविता खुद ही हैंडल करती आई थी. विवेक भी इस फर्म के प्रतिनिधि के रूप में सविता के साथ उस फर्म के प्रतिनिधि से मिलना चाहता था.

इस बार का सौदा काफी बड़ा था. दोपहर को सविता के दफ्तर में मिस रोज, जो एक अंगरेज महिला थी, ने सविता और विवेक से बातचीत की. सौदा सफल रहा. विवेक ने भी अपने वाक्चातुर्य का भरपूर उपयोग किया. मिस रोज भी विवेक के व्यक्तित्व से खासी प्रभावित हुई.

फिर कांट्रैक्ट साइन हुआ. सविता कंपनी की मालकिन थी. अत: साइन उसी को करने थे. विवेक खामोशी से सब देखता रहा था.

मिस रोज विदा होने लगी तो सविता ने उस को सौदा फाइनल होने की खुशी में रात के खाने पर एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में आमंत्रित किया. मिस रोज ने खुशीखुशी आना स्वीकार किया.

उस शाम सविता ने आफिस जल्दी बंद कर दिया. फ्लैट पर नहा कर अपनी ब्यूटीशियन के यहां गई. नए अंदाज में मेकअप करवाने के बाद अब सविता और भी दिलकश लग रही थी.

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ब्यूटीपार्लर से निकल कर सविता अपने लवर के पास गई. आज विवेक को उसे अपना पक्का फैसला सुनाना था. ज्वैलर्स के यहां से विवेक को देने के लिए उस ने एक महंगी हीरेजडि़त अंगूठी खरीदी.

मिस रोज ठीक समय पर आ गई. वह नए स्टाइल के स्कर्ट, टौप में थी. उस ने हाईहील के महंगे सैंडिल पहने थे. गहरे रंग के स्कर्र्ट व टौप उस के सफेद दूधिया शरीर पर काफी फब रहे थे.

विवेक बतरा भी गहरे रंग के नए फैशन के इवनिंग सूट में था. अपने गोरे रंग और लंबे कद के कारण वह ‘शहजादा गुलफाम’ लग रहा था.

छोटी छोटी खुशियां- भाग 3: शादी के बाद प्रताप की स्थिति क्यों बदल गई?

Writer- वीरेंद्र सिंह

सुधा की जबान अभी भी कैंची की तरह चल रही थी, ‘‘सुन रहे हो न?’’ सुधा की कर्कश आवाज सुनते ही प्रताप की सोच टूटी. सुधा कह रही थी, ‘‘सुबह उठते ही किचन में घुस जाती हूं. तुम्हारे लिए चायनाश्ता और खाना बनाती हूं. एक दिन रसोई में जाओ तो पता चले. इस गरमी में खाने के साथ खुद सुलगते हुए तुम्हारे लिए रोटियां सेंकती हूं. इतना करने पर भी एहसान मानने के बजाय तुम…’’

प्रताप सिर झुकाए किसी तरह एकएक कौर मुंह में ठूंस रहा था. सुधा की बातों से प्रताप समझ गया था कि अभी तो यह शुरुआत है. पिछली रात भैयाभाभी आए थे. उन्होंने जो बातें की थीं, अभी तो वह मुद्दा पूरी उग्रता के साथ सामने आएगा. कोई बड़ा झगड़ा करने की शुरुआत सुधा छोटी बात से करती थी. उस के बाद मुख्य मुद्दे पर आती थी. प्रताप सुधा की लगभग हर आदत से परिचित हो चुका था.

‘‘और सुनो…’’ दाहिना हाथ आगे बढ़ा कर उंगली प्रताप की आंखों के सामने कर के सुधा तीखे स्वर में बोली, ‘‘मुझ से पूछे बगैर किसी को एक भी पैसा दिया तो मुझ से बुरा कोई न होगा. मुझ से हंस कर बातें करने में तो तुम्हारी नानी मरती है. कल भैयाभाभी आए थे तो किस तरह उछलउछल कर बातें कर रहे थे. मैं भी अनाज खाती हूं, घास नहीं खाती. सबकुछ अच्छी तरह समझती हूं मैं. मकान की मरम्मत करवानी है, इसलिए भिखारियों की तरह पैसा मांगने चले आए थे,’’ भैया ने जो बात कही थी, सुधा ने उस का ताना मारा, ‘‘80 हजार रुपए की जरूरत है. अपने स्टाफ कोऔपरेटिव से लोन दिला दो, तो बड़ी मेहरबानी होगी. हजार रुपए महीने दे कर धीरेधीरे अदा कर दूंगा.’’

फिर एक लंबी सांस ले कर आगे सुधा बोली, ‘‘कान खोल कर सुन लो, किसी को एक भी रुपया नहीं देना है. अपने भैया को फोन कर के बता दो कि स्टाफ सोसायटी में बात की थी. वहां से अभी लोन नहीं मिल सकता. गोलमोल जवाब देने के बजाय सीधे इनकार कर दो.’’

बड़े भाई के लिए सुधा ने जो बातें कही थीं, सुन कर प्रताप के बाएं हाथ की मुट्ठी कसती जा रही थी. दाहिने हाथ से वह खाना खा रहा था. उस ने कोई जवाब नहीं दिया तो सुधा ऊंची आवाज में बोली, ‘‘सुन रहे हो न तुम? फैक्टरी में फोन कर के साफसाफ मना कर देना,’’ फिर प्रताप की आंखों में आंखें डाल कर धमकीभरे स्वर में बोली, ‘‘यदि यह काम तुम न कर सको तो बोलो, मैं फोन कर के मना कर दूं.’’

मुंह का कौर प्रताप के गले में फंस गया. उसे उतारने के लिए उस ने पानी पिया. वाशबेसिन पर जा कर हाथ धोए और नैपकिन ले कर पोंछने लगा. इतना कहतेकहते जैसे सुधा थक गई थी, इसलिए वह डाइनिंग टेबल के पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई.

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प्रताप मोजेजूते पहनने लगा. सुधा जलती नजरों से उसे ताक रही थी. प्रताप खाना खा रहा होता तो झगड़ा करने में शायद सुधा को कुछ अधिक ही मजा आता था. शुरूशुरू में दोचार बार ऐसा हुआ था तो वह थाली छोड़ कर खड़ा हो गया था. परंतु सुधा पर इस का कोई असर नहीं पड़ा था. पति ने खाना नहीं खाया है, इस बात का उस के लिए कोई महत्त्व नहीं था. धीरेधीरे प्रताप भी ढीठ हो गया था. वह खा रहा हो और सामने खड़ी सुधा कितना भी चीख रही हो, उस पर कोई असर नहीं होता था. वह चुपचाप बैठा खाता रहता था.

प्रताप जूते पहन कर खड़ा हुआ तो सुधा उस के पास आ कर चीखी, ‘‘एक बार फिर कह रही हूं, फोन कर के पैसे के लिए मना कर देना. यदि तुम ने मना नहीं किया, मैं किस तरह मना करूंगी, यह तुम अच्छी तरह जानते हो.’’

प्रताप का मन हुआ कि चटाकचटाक कई तमाचे उस के गोरेगोरे गालों पर जड़ दे. परंतु अगले ही क्षण उस की यह इच्छा म्यान में तलवार की तरह समा गई. 6-7 महीने पहले की घटना याद आ गई. एक छोटी सी बात पर सुधा बड़े भाई के घर पहुंच गई थी. वहां उस ने ऐसा बवाल मचाया था कि पूरा महल्ला इकट्ठा हो गया था. उस ने स्कूटर की चाबी ली और घर के बाहर निकल गया. पिछले आधे घंटे में उस ने जो मानसिक कष्ट झेला था, उस का बदला निकाला दरवाजे से. पूरी ताकत से उस ने भड़ाक से दरवाजा बंद किया.

सीढि़यों से स्कूटर तक पहुंचने में उसे लग रहा था कि दिमाग की नसें फट जाएंगी. सुधा ने जब उस के भाई को भिखारी कहा था तो उस का मन हुआ था कि हंटर ले कर उस पर टूट पड़े, उस की जबान खींच ले. पर यह आक्रोश सिर्फ दिमाग की नसों में तनाव पैदा कर के ही रह गया था.

ससुर का यह फ्लैट तीनमंजिला भवन के फर्स्ट फ्लोर पर था. 15 साल पहले जब यह भवन बना था तो सुधा के पापा ने यह फ्लैट खरीदा था. शादी के बाद प्रताप का कमरा देख कर सुधा ने नाकभौं सिकोड़ा था. भीड़ और गंदगीभरी उस जगह पर सुधा का रहना मुश्किल था. उस ने यह बात अपने पापा से कही. वैसे भी वे लोग कोठी लेने की सोच रहे थे. सुधा की बात सुन कर उन्होंने कोठी खरीद ली थी और फ्लैट सुधा को दे दिया था.

प्रताप ने घड़ी देखी और स्कूटर के पास पहुंच गया. रोज की तरह आज भी स्कूटर के पास कचरा फैला हुआ था. स्कूटर की सीट पर गुटखे का खाली पाउच पड़ा था. रोज इसी तरह उस के स्कूटर पर ऊपर से कचरा फेंका जाता था. प्रताप ने हथेली से स्कूटर की सीट साफ की और ऊपर की ओर देखा. दोनों फ्लैटों की बालकनी में उस समय कोई नहीं था. मन हुआ कि पूरा कचरा एक थैली में भर कर उन के फ्लैटों में फेंक आए और उन्हें चार बातें भी सुना आए. पता नहीं ये लोग आदमी की तरह रहना कब सीखेंगे. परंतु ऐसा वह कर नहीं सकता था. 2-3 मिनट में ही सारा आक्रोश पानी की तरह बह गया, सिर्फ दिमाग की नसें तनी रहीं. प्रताप यहां रहने आया था तो यह बात उस ने सुधा को बताई थी. परंतु बातबात में प्रताप से उलझने वाली सुधा इस मामले में आश्चर्यजनक रूप से चुप रही थी. उस के पापा 15 साल यहां रहे थे. सभी पड़ोसियों से उन के मधुर संबंध थे. शायद पुराने संबंधों की वजह से सुधा कुछ भी कहने को तैयार नहीं थी.

सड़क पर आ कर प्रताप ने स्कूटर की गति बढ़ा दी थी. ब्रांच मैनेजर, दिलीप सिंह का खतरनाक कुत्ते जैसा चेहरा आंखों के सामने तैर उठा तो स्कूटर की गति थोड़ी और बढ़ा दी. इस मैनेजर को भी एक दिन सिखाना पड़ेगा. स्कूटर की गति के साथ प्रताप के विचारों की भी गति तेज हो गई थी. ब्रांच में उस की चमचागीरी करने वाला अशोक पूरे दिन शेयर बाजार का कारोबार करता रहता है. उसे कोई काम नहीं देता. कोई भी काम आ जाता है तो उसी को यह कह कर सौंप देता है, ‘मिस्टर प्रताप, प्लीज, जरा इसे भी कर देना…’

चौराहे पर ट्रैफिक जाम था. वह बेचैन हो उठा. आज गुरुवार है, उसे याद ही नहीं था. वह मन ही मन गालियां देने लगा. चौराहे पर ही शौपिंग सैंटर की एक दुकान में किसी धर्मभीरु ने साईं बाबा का मंदिर बना दिया था. इसलिए गुरुवार को दर्शनार्थियों की वजह से जाम लग जाता था. एक तो फूलमाला वाले पटरी पर दुकान लगा लेते थे, दूसरे, दर्शन करने वाले अपने वाहन इधरउधर खड़े कर देते थे. इधरउधर, तिरछासीधा कर के किसी तरह प्रताप ने चौराहा पार किया. आगे चलने वाले टैंपो काला जहरीला धुआं निकाल रहे थे. धुएं की गंध नाक में घुस रही थी और आंखें जल रही थीं. स्कूटर की गति बढ़ा कर वह आगे निकल गया. परंतु आगे चल कर बसें कुछ इस तरह खड़ी थीं कि आधी से अधिक सड़क बंद थी. इन बसों ने पूरी दिल्ली को परेशान कर रखा है. प्रताप की आंखों के सामने फिर से ब्रांच मैनेजर का चेहरा तैर गया. प्रताप बसों के बीच से स्कूटर निकाल कर आगे बढ़ा. ये बसें रोज इसी तरह परेशान करती हैं, परंतु बस वालों को न सरकार कुछ कहती है न ट्रैफिक पुलिस वाले. प्रताप के दिमाग की नसें तनती ही जा रही थीं.

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आज तो काफी देर हो चुकी है. मैनेजर साहब निश्चित ही बुला कर डांटेंगे. जितना संभव था, प्रताप ने स्कूटर की गति उतनी तेज कर दी. आगे के चौराहे पर उस ने लाइट की ओर देखा. ग्रीन लाइट देख कर उस ने स्कूटर की गति और तेज कर दी. उस चौराहे से 3-4 मिनट में ही वह बैंक पहुंच जाता. उस के आगे ट्रैफिक की भी कोई समस्या नहीं थी. वह बीच चौराहे में पहुंचता, उस से पहले ही पीली बत्ती जल गई. पीली बत्ती देख कर वह ठिठका, तब तक उस के पीछे से एक बस आगे निकल गई. उस ने भी अपना स्कूटर आगे बढ़ा दिया.

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