कोरोना के नाम पर प्राइवेट पार्ट का भी टैस्ट

पूरे देश में कोरोना महामारी पूरी तरह से फैल चुकी है. सब से ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र इस से बुरी तरह जूझ रहा है, क्योंकि यहां कोरोना के 4 लाख से ज्यादा मरीज हैं और डेढ़ लाख ऐक्टिव हैं. ऐसे में कोरोना योद्धा कहलाए जाने वाले कर्मी जिन का हम ने थाली बजा कर सम्मान किया था, की करतूतें शर्मसार करने वाली हैं. जैसे कि महाराष्ट्र के अमरावती जिले में हुआ, जहां नाक और मुंह से सैंपल लेने के बाद एक महिला को कोरोना पौजिटिव रिपोर्ट बता कर दोबारा बुलाया और उस के प्राइवेट पार्ट का जबरन टैस्ट कर डाला.

भले ही जगहजगह कोरोना को ले कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, मुहिम चलाई जा रही है, घर पर रहने को कहा जा रहा है और कहा यह भी जा रहा है जब तक जरूरी न हो, घर से बाहर न निकलें. फिर भी ऐसी घटनाएं दिल को झकझोर जाती हैं.

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राज्य सरकार द्वारा लौकडाउन में ढील मिलने पर लोग अपने काम पर जा रहे हैं, सामाजिक दूरी जैसे नियमों का पालन कर रहे हैं, पर कोरोना मरीज मिलने पर सभी की टैस्टिंग की जा रही है. जरूरी हिदायतें दी जा रही हैं और घर पर ही क्वारंटीन होने को कहा जा रहा है जब तक स्थिति गंभीर न हो.

सुनने में तो यही आया है कि अभी तक कोरोना का टैस्ट मुंह और नाक से ही लिया जाता रहा है, पर कोरोना टैस्ट के नाम पर जबरन प्राइवेट पार्ट का टैस्ट करना लैब वाले को भारी पड़ गया. वजह, युवती ने थाने में शिकायत जो कर दी थी और वह पकड़ में आ गया.

28 जुलाई, 2020 को यह अजीबोगरीब मामला महाराष्ट्र के अमरावती में हुआ. यहां लैब में कोरोना टैस्ट के नाम पर लैब टैक्नीशियन ने करतूत ही कुछ ऐसी कर दी कि हर कोई सुन कर हैरान है. साथ ही, इनसानियत को शर्मसार करने वाली है कि कोरोना टैस्ट के नाम पर लैब वाला इतनी नीचता की हद तक भी जा सकता है.

कोरोना जांच कराने आई युवती की नाक से नहीं, बल्कि जबरन उस के प्राइवेट पार्ट से सेंपल लिया गया और उस में छेड़छाड़ की गई. पहले तो युवती समझ ही नहीं पाई कि क्या हो रहा है और टैस्ट का विरोध नहीं कर पाई. पर बाद में जानकारी मिलने पर वह समझ गई कि लैब कर्मी ने उसे झांसे में लिया है.

पीड़िता ने बताया कि स्वाब  लेने के बाद आरोपी ने उसे फिर से बुलाया और कहा कि तुम्हारी कोरोना रिपोर्ट पौजिटिव आई है, इसलिए उन्हें यूरिनल टैस्ट भी कराना होगा.

इस घटना की जानकारी पीड़िता ने सब से पहले अपने भाई को दी. शक होने पर भाई ने इस बारे में डाक्टरों से बातचीत की. डाक्टरों ने बताया कि कोरोना टैस्ट के लिए ऐसा कोई परीक्षण नहीं होता है. इस के बाद महिला ने बडनेरा पुलिस को सारी बात बताई. पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया.

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पुलिस ने आरोपी टैक्नीशियन का नाम अल्पेश अशोक देशमुख बताया. उस के खिलाफ बलात्कार, एट्रोसिटी और आईटी ऐक्ट के तहत मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया. पुलिस अब यह जांच कर रही है कि आरोपी ने इस से पहले कितनी महिलाओं के साथ ऐसी हरकत की.

जानकारी के मुताबिक, 24 साला लड़की अमरावती में अपने भाई के साथ रहती है और एक मौल में जौब करती है. मौल में काम करने वाला एक मुलाजिम 24 जुलाई को कोरोना पौजिटिव पाया गया. उस कर्मचारी के कोरोना पौजिटिव पाए जाने के बाद 28 जुलाई को उस के साथ काम करने वाले सभी 20-25 कर्मचारियों को अमरावती के ट्रामा केयर टेस्टिंग लैब में कोरोना टेस्ट के लिए बुलाया गया था, जिस में यह महिला भी गई थी. लैब के टैक्नीशियन ने मौके का फायदा उठाते हुए महिला के साथ शर्मनाक घटना को अंजाम दिया.

राज्य की महिला एवं बाल विकास मंत्री यशोमति ठाकुर ने इस घटना पर हैरानी जताई और कहा कि टैक्नीशियन के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जाएगी.

आरोपी अल्पेश देशमुख की सोच वाकई शर्मसार करने वाली है. फिलहाल तो वह पुलिस के शिकंजे में है, पर अब तक न जाने कितनी औरतों व लड़कियों के साथ कोरोना टैस्ट के नाम पर ऐसा किया होगा, यह भी जांच का विषय है. वहीं उस के साथ काम करने वाले और भी लैब टैक्नीशियन होंगे, जो ऐसी घटनाओं को अंजाम देते होंगे.

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यह तो समय ही बताएगा कि अल्पेश के साथ कोर्ट क्या फैसला लेता है, पर सभी को ऐसी घटनाओं से सबक लेने की जरूरत है. ऐसा जानकारी की कमी के चलते हुआ. अगर जानकारी होती तो ऐसी घटना को अंजाम नहीं दिया जा सकता.
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फोटो सलाह – 1.कोरोना टैस्टिंग लैब में लड़की का टैस्ट
2. मुंह छिपाती लड़की

कोरोना महामारी: मोदी सरकार के लिए आपदा में अवसर का मौका

लेखक- सोनाली ठाकुर

कोरोना महामारी में लॉकडाउन लगने के बाद प्रवासी मजदूरों को उनको घर भेजने में राज्य और केंद्र सरकार में सियासी उठा-पठक के बीच रेलव ने बताया कि श्रमिक ट्रेनों से रेलवे ने 428 करोड़ रूपए कमाए. दरअसल, ये आंकड़े आरटीआई कार्यकर्ता अजय बोस की याचिका पर रेलवे ने दिए थे. इन आंकड़ों से पता चलता है कि 29 जून तक रेलवे ने 428 करोड़ रुपये कमाए और इस दौरान 4,615 ट्रेनें चलीं. इसके साथ ही जुलाई में 13 ट्रेनें चलाने से रेलवे को एक करोड़ रुपये की आमदनी हुई.

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स (ICC) के 95 वें सालाना कार्यक्रम को संबोधित किया था. जिसे संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने इस आपदा को अवसर में बदलने वाली बात कही थी. जिस तरह इस महामारी के बीच सरकार ने गरीब मजदूरों से 428 करोड़ रुपए की कमाई की उससे साफ जाहिर होता है कि उन्होंने इस आपदा को अवसर में बदलने वाली बात को सिर्फ कहा ही नहीं अपनाया भी है.

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अब तक दो महीनें से ज्यादा का समय बीत चुका है जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज का ऐलान किया था. साथ ही प्रवासी मजदूरों और किसानों के लिए 30 हजार करोड़ के अतिरिक्त फंड की सुविधा की बात कही थी. इस फंड में उन्होंने प्रवासी मजदूरों को दो महीनों के लिए बिना राशन कार्ड के मुफ्त अनाज देने की बात कही. जिसमें मजदूरों पर 3500 करोड़ रुपए का खर्च बताया गया. जिसके तहत आठ करोड़ प्रवासी मजदूरों के लाभान्वित होने की बात कही गई. लेकिन ये सभी बड़े-बड़े वादे जमीनी स्तर पर खोखले नजर आ रहे है. देखा जाए तो, यह आर्थिक पैकेज दर दर की ठोकरें खा रहे मजदूरों और अपना सबकुछ गंवा चुके किसानों के साथ एक क्रूर और भद्दा मजाक से ज्यादा कुछ नहीं है.

अन्य देशों के मुकाबले भारत का आर्थिक पैकेज बेहद कमजोर कोरोना काल के तहत अगर हम अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं से भारत की अर्थव्यवस्थाओं के आकार के अनुपात में आर्थिक पैकेज की बात करें तो जिस तरह वहां की सरकारों ने अपनी जनता को इस महामारी मे आर्थिक तंगी से बचाया है. उसके मुकाबले हमारा आर्थिक पैकेज बेहद कमजोर है.

अमेरिका

वैश्विक स्तर पर अमेरिका ने सबसे बड़ा आर्थिक पैकेज अपनी अर्थव्यवस्था के लिए जारी किया है. अमेरिका ने करीब 30 करोड़ लोगों के लिए 2 ट्रिलियन डॉलर यानी कुल 151 लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज जारी किया है. यह भारत के कुल बजट के लगभग 5 गुना ज्यादा है. ये पैकेज के तहत अमेरिका के आम नागरिकों को डायेरेक्ट पेमेंट के तहत मदद दी जाएगी.

जर्मनी

इसके अलावा जर्मनी ने कोरोना वायरस के आर्थिक प्रभाव को कम करने के लिए हर परिवारों को प्रति बच्चा 300 यूरो (यूएस $ 340) देने का एलान किया है. जिसे सितंबर और अक्टूबर में दो किस्तों में भुगतान किया जाएगा.

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ब्रिटेन

ब्रिटेन में कोरोना वायरस के चलते कई कंपनियों को वित्तीय दबाव में काम करना पड़ रहा था. ऐसे में ब्रिटेन की सरकार ने उन कर्मचारियों के वेतन का 80 फीसदी हिस्सा कंपनियों को देने की घोषणा की, जिन्हें नौकरी से नहीं निकाला जाएगा. यह फैसला वित्तीय दबाव झेल रही कंपनियों द्वारा कर्मचारियों को नौकरी से न निकालने के चलते लिया गया है.

जापान

जापान प्रत्येक निवासी को एक लाख येन (930 डॉलर) यानी करीब 71,161 रुपये का नकद भुगतान प्रदान करेगा. प्रभावितों लोगों और परिवारों को तीन बार यह राशि प्रदान करने की प्रारंभिक योजना है. आबे ने कहा, हम सभी लोगों को नकदी पहुंचाने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं

इसे देख साफ जाहिर होता है कि सरकार का दिया ये आर्थिक पैकेज नाकाम व्यवस्था व लचर सिस्टम को साफ तौर से दर्शाता है. लॉकडाउन के चलते अपनी रोजीरोटी व जमा-पूंजी गंवा चुके देश के मजदूर पहले ही इस सिस्टम की जानलेवा मार झेल रहे है. जिससे दिखता है कि गरीब लाचार मजदूर की जिंदगी का देश के सिस्टम में कोई मोल नहीं है.

सरकार ने मनरेगा की मज़दूरी में प्रभावी अधिक वृद्धि की अधिसूचना जारी की थी. ऐसा हर साल किया जाता है. लेकिन, ये बढ़ी हुई मज़दूरी उन ग़रीबों के लिए बेकार है, जो लॉकडाउन के शिकार हुए हैं. इस महामारी में जिस तरह प्रवासी मजदूरों ने रोजगार और राशन ना होने पर पलायन किया था इससे सरकार की नाकामी साफ बयां पहले ही हो गई थी.

सरकार ने राहत पैकेज के नाम पर लोगों को केवल वादे दिए है, जमीनी स्तर पर इन योजनाओं का कोई ब्यौरा नहीं हैं कि सरकार ने कितना खर्च किया है. इतना ही नहीं सरकार ने अपने राहत कोष में जमा होने वाली राशि का जिक्र जरूर किया लेकिन इसका कितना फीसदी मजदूरों और बेरोजगारी दर को कम करने के लिए इस्तेमाल किया गया. इसकी कोई जानकारी नहीं है. सरकार केवल योजनाओं को अमीलीजामा पहनाने का काम कर रही हैं.

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महीनों बाद वैनिटी वैन में नजर आई भोजपुरी एक्ट्रेस रानी चटर्जी, सोशल मीडिया पर शेयर की Video

कोरोना वायरस (Corona Virus) जैसी महामारी के चलते लगाए गए लॉकडाउन (Lockdown) की वजह से सभी फिल्मों और सीरियल्स की शूटिंग बंद थी और तो और पूरे देख भर के सिनेमा हॉल भी बंद देखने को मिले. इसी कड़ी में सभी एक्टर्स और एक्ट्रेसेस इतने समय से अपने घर से ही अपने फैंस को एंटरटेन करते दिखाई दिए. सोशल मीडिया के जरिए अपनी फोटोज और वीडियो शेयर कर सभी कलाकार फैंस के एंटरटेनमेंट का पूरा ध्यान रख रहे थे.

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अब जो कि भारत सरकार ने लॉकडाउन के बाद अनलॉक 1 (Unlock 1) और अनलॉक 2 (Unlock 2) में नई गाइडलाइंस की घोषणा की थी तो इसी के चलते अब फिल्मों और सीरियल्स की शूटिंग भी शुरू हो गई है. इसी कड़ी में भोजपुरी इंडस्ट्री (Bhojpuri Industry) की जानी मानी एक्ट्रेस रानी चटर्जी (Rani Chatterjee) इतने समय बाद अपनी वैनिटी वैन में दिखाई दी. रानी चटर्जी ने अपने औफिशियल इंस्टाग्राम अकाउंट (Official Instagram Account) पर अपनी एक फोटो और वीडियो शेयर की है जिसमें वे अपनी वैनिटी वैन में मस्ती करती नजर आ रही हैं.

 

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I am the queen of my world #queen #life #actorlife🎬🎥 #noteasy

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रानी चटर्जी (Rani Chatterjee) अपनी इस फोटो में हमेशा की तरह बेहद ही खूबसूरत लग रही हैं. रानी ने अपनी इस फोटो के कैप्शन में लिखा है कि,- “I am the queen of my world #queen #life #actorlife #noteasy”. इसी के साथ जो भोजपुरी एक्ट्रेस रानी चटर्जी ने अपनी वैनिटी वैन से वीडियो शेयर की थी उसमें वे एक गाने में डांस करती दिखाई दे रही हैं.

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इस वीडियो के कैप्शन में रानी चटर्जी (Rani Chatterjee) ने लिखा कि,- “आ गई हूं मैं रोपोसो एप पर इंडिया का ऐप है तो इंडिया का पैसा इंडिया में ही जाइए और मुझे फॉलो कीजिए #roposo #madebyindia”.

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शूटिंग शुरू होने से पहले ही रुक गई जॉन अब्राहम और इमरान हाशमी की ये फिल्म, जानें क्या रही वजह

निर्माता व निर्देशक संजय गुप्ता (Sanjay Gupta) ने ऐलान किया था कि वह 15 जुलाई से हैदराबाद स्थित रामोजी राव स्टूडियो में अपनी फिल्म “मुंबई सागा” (Mumbai Saga) की शूटिंग शुरू कर देंगे. इस शूटिंग में इमरान हाशमी (Emraan Hashmi) और जॉन अब्राहम (John Abraham) जैसे कलाकारों के साथ 30 क्रू मेंबर्स जाने वाले थे. लेकिन अचानक राष्ट्रीय स्तर पर और आंध्र प्रदेश में कोरोनावायरस (Corona Virus) की बढ़ती संख्या को देखते हुए ऐसा नहीं हो पाया.

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सूत्र बताते हैं कि बिगड़ते हालात को देखते हुए स्वयं जॉन अब्राहम ने ऐसा करने से मना कर दिया जो कि इस फिल्म के सह निर्माता भी हैं. इसी बात को कबूल करते हुए संजय गुप्ता ने कहा है कि उन्होंने शूटिंग शुरू करने के लिए सारी तैयारियां कर ली थी. लेकिन अचानक एक दिन में तीस हजार के करीब कोरोना संक्रमित की संख्या जाहिर होते ही हमने पुनः विचार किया और हैदराबाद जाकर शूटिंग करने के इरादे बदल दिए.

अब संजय गुप्ता अपनी फिल्म “मुंबई सागा ” की शूटिंग मुंबई में ही 15 अगस्त से करने की योजना बना रहे हैं. इस संबंध में फिल्म के निर्माता व निर्देशक संजय गुप्ता ने खंडाला में अपने फार्म हाउस से इंटरव्यू देते हुए कहा- “हमारे लिए कलाकारों और क्रू मेंबर्स की सुरक्षा पहली प्राथमिकता है. हम किसी भी इंसान की जिंदगी के साथ रिस्क नहीं ले सकते. इसलिए अब हमने तय किया है कि हैदराबाद की बजाए मुंबई में ही 15 अगस्त से “मुंबई सागा” की शूटिंग शुरू की जाए, जिसमें जॉन अब्राहम और इमरान हाशमी भी हिस्सा लेंगे. लेकिन यह तारीख भी बदल सकती है. हम मुंबई के एस्सेल स्टूडियो, फिल्म सिटी स्टूडियो अथवा महबूब स्टूडियो में शूटिंग की इजाजत के लिए कोशिश करने वाले हैं.

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हमें 14 दिन स्टूडियो के अंदर यानी कि इन डोर शूटिंग करनी है और 10 दिन स्टूडियो के बाहर शूटिंग करनी है. अब हम महाराष्ट्र सरकार की गाइडलाइंस के अनुरूप फिल्म सिटी स्टूडियो के संचालक के पास  शूटिंग की इजाजत के लिए आवेदन करने वाले हैं. वहां से हमें जैसे ही इजाज़त मिलेगी वैसे ही तारीख तय कर हम शूटिंग शुरू कर देंगे. हमने हमने अपनी तरफ से अपने प्रोडक्शन की सारी तैयारियां और योजना बना रखी है. लेकिन शूटिंग शुरू होने की असली तारीख इजाज़त मिलने के बाद ही तय होगी.”

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Flight for #Chehrein last schedule : Delhi , Poland . I need a gas mask for one and a thick north face jacket for the other .

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आधार कार्ड और पास बुक रख हो रहा व्रत

लेखक- पंकज कुमार यादव

कोरोना महामारी भले ही देश पर दुनिया के लिए त्रासदी बन कर आई है, पर कुछ धूर्त लोगों के लिए यह मौका बन कर आई है और हमेशा से ही ये गिद्ध रूपी पोंगापंथी इसी मौके की तलाश में रहते हैं.

जैसे गिद्ध मरते हुए जानवर के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं, वैसे ही भूखे, नंगे, लाचार लोगों के बीच ये पोंगापंथी उन्हें नोचने को मंडराने लगते हैं. फिर मरता क्या नहीं करता की कहावत को सच करते हुए भूखे लोग, डरे हुए लोग कर्ज ले कर भी पोंगापंथियों का पेट भरने के लिए उतावले हो जाते हैं.

उन्हें लगता है कि ऐसा करने से उन का बीमार बेटा बीमारी से मुक्त हो जाएगा. उन का पति जो पिछले 5 दिनों से किसी तरह आधे पेट खा कर, पुलिस से डंडे खा कर नंगे पैर चला आ रहा है, वह सहीसलामत घर पहुंच जाएगा. फिर भी उन के साथ ऐसा कुछ नहीं होता है. पर कर्मकांड के नाम पर, लिए गए कर्ज का बोझ बढ़ना शुरू हो जाता है.

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कुछ ऐसी ही घटना कोरोना काल में झारखंड के गढ़वा जिले में घटी है. सैकड़ों औरतों के बीच यह अफवाह फैलाई गई कि मायके से साड़ी और पूजन सामग्री मंगा कर अपने आधारकार्ड और पासबुक के साथ सूर्य को अर्घ्य देने से उन के खाते में पैसे आ जाएंगे और कोरोना से मुक्ति भी मिल जाएगी.

यकीनन, इस तरह की अफवाह को बल वही देगा, जिसे अफवाह फैलाने से फायदा हो. इस पूरे मामले में साड़ी बेचने वाले, पूजन सामग्री, मिठाई बेचने वाले और पूजा कराने वाले पोंगापंथी की मिलीभगत है, क्योंकि इस अफवाह से सीधेसीधे इन लोगों को ही फायदा मिल रहा है.

इस अफवाह को बल मिलने के बाद रोजाना सैकड़ों औरतें इस एकदिवसीय छठ पर्व में भाग ले रही हैं. व्रतधारी सुनीता कुंवर, गौरी देवी, सूरती देवी ने बताया कि उन्हें नहीं पता कि किस के कहने पर वे व्रत कर रही हैं, पर उन के मायके से उन के भाई और पिता ने साड़ी और मिठाइयां भेजी हैं. क्योंकि गढ़वा जिले में ही उन के मायके में सभी लोगों ने पासबुक और आधारकार्ड रख कर सूर्य को अर्घ्य दिया है.

सब से चौंकाने वाली बात ये है कि इस अफवाह में सोशल डिस्टैंसिंग की धज्जियां उड़ गई हैं. सभी व्रतधारी औरतें एक लाइन से सटसट कर बैठती?हैं और पुरोहित पूजा करा रहे हैं.

सभी व्रतधारी औरतों में एक खास बात यह है कि वे सभी मजदूर, मेहनतकश और दलित, पिछड़े समाज से आती हैं. उन के मर्द पारिवारिक सदस्य इस काम में उन की बढ़चढ़ कर मदद कर रहे हैं.

एक व्रतधारी के पारिवारिक सदस्य बिगुन चौधरी का कहना है कि अफवाह हो या सच सूर्य को अर्घ्य देने में क्या जाता है.

प्रशासन इस अफवाह पर चुप है, जो काफी खतरनाक है, क्योंकि इस व्रत में वे औरतें भी शामिल हुई हैं, जो दिल्ली, मुंबई या पंजाब से वापस लौटी हैं और जिन पर कोरोना का खतरा हो सकता है.

प्रशासन ने भले ही अपना पल्ला झाड़ लिया हो, पर राज्य में जिस तरह से प्रवासी मजदूरों के आने से कोरोना के केस बढ़ रहे हैं तो चिंता की बात है, क्योंकि मानसिक बीमारी भले ही दलितों, पिछड़ों तक सीमित हो पर कोरोना महामारी सभी को अपना शिकार बनाती है.

सच तो यह है कि दिनरात मेहनत कर मजदूर बाहर से पैसा कमा कर तो आते हैं, पर किसी न किसी पाखंड का शिकार वे हमेशा हो जाते हैं, क्योंकि उन की पत्नी पहले से अमीर और बेहतर दिखाने के चक्कर में धार्मिक आयोजन कर अपने पति की गाढ़ी कमाई का पैसा बरबाद कर देती हैं.

उन्हें लगता है कि ऐसा कर के वे घंटे 2 घंटे ही सही सभी की नजर में आएंगी. वे उन पैसों का उपयोग अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा पर खर्च करना पैसों की बरबादी समझते हैं.

बदहाली में जी रहे उन के बुजुर्गों को अच्छे कपड़े, लजीज व्यंजन व दवा नसीब नहीं होती है, क्योंकि वे मान कर चलते हैं कि बुजुर्गों को खिलानेपिलाने से, नए कपड़े देने से क्या फायदा, जबकि धार्मिक आयोजनों से गांव का बड़ा आदमी भी उन्हें बड़ा समझेंगे.

ऐसे मौके का फायदा पोंगापंथी जरूर उठाते हैं. मेहनतकश मजदूरों को तो बस यही लगता है कि ऐसे धार्मिक आयोजन उन के मातापिता और पूर्वजों ने कभी नहीं किए. वे इस तरह के आयोजनों से फूले नहीं समाते. पर उन्हें क्या पता कि उन के पूर्वजों को धार्मिक आयोजन करना और इस तरह के आयोजन में भाग लेने से भी मना था.

ज्ञान और तकनीक के इस जमाने में जहां हर ओर पाखंड का चेहरा बेनकाब हो रहा है, वहीं आज भी लोग पाखंड के चंगुल में आ ही जा रहे हैं.

साल 2000 के बाद इस तरह की घटनाओं में कमी आ गई थी, क्योंकि दलितपिछड़ों के बच्चे पढ़ने लगे हैं. उन्हें भी आडंबर, अंधविश्वास और आस्था के बीच फर्क दिखाई देने लगा है.

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पर आज भी इस इलाके के दलितों और पिछड़ों के बच्चे स्कूलों में सिर्फ सरकार द्वारा दिए जा रहे मिड डे मील को खाने जाते हैं और जैसे ही बड़े होते हैं, अपने पिता के साथ कमाने के लिए दिल्ली, मुंबई और पंजाब निकल लेते हैं.

इन के बच्चे इसलिए भी नहीं पढ़ पाते हैं, क्योंकि उन को पढ़ाई का माहौल नहीं मिलता. वे सिर्फ बड़ा होने का इंतजार करते हैं, ताकि कमा सकें.

इसी वजह से आज भी इन इलाकों में प्रवासी मजदूरों की तादाद ज्यादा है. 90 के दशक में इन इलाकों में प्रिटिंग प्रैस वाले सस्ते परचे छपवा कर चौकचौराहे पर आतेजाते लोगों के हाथ में परचे थमा देते थे.

उस परचे पर लिखा होता था कि माता की कृपा से परचा आप को मिला है. आप इसे छपवा कर 200 लोगों में बंटवा दो, तो आप का जीवन बदल जाएगा. और अगर परचा फाड़ा या माता की बात की अनदेखी की तो 2 दिन के अंदर आप की या आप के बच्चे की दुर्घटना हो जाएगी.

डर के इस व्यापार में प्रिंटिंग प्रैस वालों ने खूब कमाई की. फिर मिठाई वाले और साड़ी बेचने वाले कैसे पीछे रह सकते थे. झारखंड के पलामू में इस तरह की घटना कोई नई बात नहीं है, बल्कि बहुत दिनों के बाद इस की वापसी हुई है इस नए रूप में. पर मौके का फायदा उठाने वाले लोग वे खास लोग ही हैं.

गांव में बेबस मजदूर

लौकडाउन का 3 महीने से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी सरकार प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के अलावा रोजगार का कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखा पाई है. एक मनरेगा योजना कितने मजदूरों का सहारा बन पाती?

ऐसे में गरीब लोगों का गांव से शहर की ओर जाना मजबूरी बन कर रह गया है. जिस शहर से भूखे, नंगे, प्यासे और डरे हुए लोग भागे थे, अब वे उन्हीं शहरों की ओर टकटकी लगा कर देख रहे हैं. रोजगार के तमाम दावों के बाद भी गांव लोगों का सहारा नहीं बन पाए हैं.

शहरों से वापस लौटते प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक तसवीरें अभी भी भुलाए नहीं भूल रही हैं. गांव आए ये मजदूर वापस शहर जाने की सोच भी सकते हैं, यह उम्मीद किसी को नहीं थी.

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गांव की बेकारी से परेशान प्रवासी मजदूर वापस अब शहरों की तरफ जाने के रास्ते तलाशने लगे हैं. अपने दर्द को भूल कर इन के कदम शहरों की तरफ बढ़ चुके हैं.

मजदूरों को गांव में रोकने और वहीं पर रोजगार देने के वादे पूरी तरह से  झूठे साबित हो गए हैं. बेकारी के हालात का शिकार लोगों के मन से अब कोरोना का डर भी पहले के मुकाबले कम हो चुका है. ऐसे में वे वापस शहर की ओर लौटने लगे हैं.

जान जोखिम में डाल कर गांव से शहर की तरफ मजदूरों के वापस आने की सब से बड़ी वजह जाति और गरीबी है. गांव में गरीब एससी और बीसी तबके के पास न खेती के लिए जमीन है और न ही रहने के लिए घर.

शहरों में थोड़ी सी सुविधाओं के लिए ये मजदूर कोरोना संकट में भी गांव से शहरों की तरफ मुड़ रहे हैं. शहरों में कोरोना का संकट खत्म नहीं हुआ है. मजबूरी में मजदूरों को शहरों की संकरी गलियों में बने दमघोंटू मकानों में ही रहना पड़ेगा. अब फैक्टरियों की मनमानी सहन करते हुए काम करना पड़ेगा.

कोरोना से बचाव के उपाय के नाम पर ज्यादातर फैक्टरियों में केवल दिखावा हो रहा है. दवाओं के छिड़काव से ले कर मास्क और सैनेटाइजर का इस्तेमाल दिखावा भर रह गया है.

बहुत सारे उपायों के बाद जब अस्पतालों में काम करने वाले डाक्टर कोरोना का शिकार हो रहे हैं, तो फैक्टरियों में काम करने वाले मजदूर कैसे बच पाएंगे? अब अगर इन मजदूरों को कोरोना हो गया, तो इन की देखभाल करने वाला भी नहीं मिलेगा.

कोरोना संकट ने शहरों में कमाई करने गए लोगों को ‘प्रवासी मजदूर’ बन कर वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया था. सरकार ने इन को रोजगार दिलाने के लिए मनरेगा का सहारा लिया.

मनरेगा योजना के अलावा सरकार के पास रोजगार देने का कोई दूसरा उपाय नहीं है. मनरेगा के अलावा गांव में गरीबों के पास दूसरा काम नहीं है. गांव के लोग नोटबंदी से परेशान थे. गांव में जमीनों के सौदे बंद हो चुके हैं. खेतों में काम करने वालों को मजदूरी नहीं मिल रही है. ज्यादा तादाद में प्रवासी मजदूरों के गांव वापस आने से बेरोजगार लोगों की आबादी बढ़ गई.

बेरोजगारी के अलावा गांव में सुखसुविधाओं और आजादी की भी कमी है. शहरी जिंदगी के आदी हो चुके लोग गांव में वापस तो आ गए थे, पर यहां रहना उन के लिए आसान नहीं रह गया था.

इस से बेकारी के बो झ से कराह रहे गांव और भी दब गए. परिवार के साथ वापस गांव रहने आए लोगों में उन की पत्नी और बच्चों का गांव में तालमेल नहीं बैठ रहा था. कई ने तो पहली बार गांव में इतने ज्यादा दिन बिताए हैं.

पहले होलीदीवाली वगैरह की छुट्टियों में जब ये लोग गांव आते थे, तो घरपरिवार का बरताव कुछ और ही होता था, पर अब यह बदला सा नजर आ रहा है. जिस सरकारी सुविधा के लालच में गांव आए थे, उस की पोल भी यहां खुल चुकी है.

बेकारी के बो झ ने परिवार के बीच तनाव को बढ़ा दिया है. अब ये लोग कोरोना संकट के बावजूद वापस किसी भी तरह से शहर जाने के लिए मजबूर हो गए हैं. प्रवासी मजदूरों के रूप में समाज से इन को जिस तरह की हमदर्दी मिली थी, अब उस की भी कमी है.

लखनऊ के रामपुर गांव में दिनेश का संयुक्त परिवार रहता है. मुंबई से लौकडाउन में गांव आए तो यह सोचा कि अब मुंबई नहीं जाएंगे. यहीं गांव के पास बाजार में कोई दुकान खोल कर काम करेंगे. दिनेश के साथ उस का एक छोटा भाई और बेटा भी काम करता था. अब सब बेरोजगार हो चुके हैं.

इन लोगों की पत्नियां भी मुंबई में रहती थीं. गांव आ कर वे संयुक्त परिवार में रहने लगी हैं. यहां घर में चूल्हे पर खाना बनाना पड़ता है. वैसे, घर में एक गैस का चूल्हा भी है, जिस का इस्तेमाल सिर्फ चाय बनाने के लिए होता है.

मुंबई में ये लोग गैस पर खाना बनाते  थे. अब देशी चूल्हे पर खाना बनाने में औरतों को दिक्कत हो रही है. दिनेश पर पत्नी का दबाव बढ़ने लगा है. मुंबई में दिनेश की फैक्टरी काम शुरू करने वाली है. दिनेश बताते हैं, ‘‘हमें गांव में रोजगार की कोई उम्मीद नहीं है. ऐसे में परिवार में तनाव बढ़ाने से अच्छा है कि हम सब को ले कर मुंबई वापस चले जाएं.’’

बढ़ गई आपसी होड़

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में खेतापुर गांव के रहने वाले रमेश चौरसिया 30 साल पहले गुजरात के सूरत में कमाई करने गए थे. गांव में उन के पास जमीन नहीं थी. गांव में केवल कच्चा घर बना था. वहां न तो कोई कामधंधा था और न ही किसी तरह की इज्जत मिल रही थी.

सूरत में कुछ साल कमाई करने के बाद रमेश ने गांव में पक्की छत और घर बनवा लिया. उन का पूरा परिवार धीरेधीरे सूरत पहुंच कर रहने लगा. रमेश के मांबाप और पत्नी ही गांव में रहते थे. दोनों बेटे रमेश के साथ ही काम करने लगे थे.

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लौकडाउन के दौरान जब रमेश और उन के दोनों बेटे अपने गांव आए, तो यहां रोजगार का कोई साधन नहीं था. मनरेगा योजना में दोनों बेटों को केवल 5-5 दिन काम करने का मौका मिला, जिस से उन को 1-1 हजार रुपए मिले, जो उन की जरूरत के हिसाब से काफी कम थे.

रमेश कहते हैं कि शहर और गांव के रहनसहन में बहुत फर्क है. ऐसे में यहां रहना आसान नहीं है. जिस बेकारी को दूर करने के लिए 30 साल पहले गांव छोड़ कर गए थे, वह अब भी यहां बनी हुई है. इस के अलावा गांव में आपसी लड़ाई झगड़े शहरों के मुकाबले ज्यादा हैं. बाहर से आने वाले लोगों के प्रति गांव के लोगों में कोई हमदर्दी नहीं है.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि इन लोगों के बाहर रहने से गांव के दूसरे लोग इन की जमीन और खेत का इस्तेमाल करते थे, पर अब इन के वापस गांव आने के बाद जमीन और खेत को छोड़ना उन के लिए मुश्किल हो गया है. ऐसे में आपस में तनाव बढ़ गया है.

अपनेअपने गांव से रोजीरोजगार, इज्जत और पैसों की तलाश में जो लोग कमाई करने परदेश गए थे, वे कोरोना के संकट में वापस अपने गांवघर आने को मजबूर हो गए. कोरोना संकट के समय में ‘प्रवासी मजदूर’ का नाम इन की पहचान बन गया.

सरकार की तरफ  से ऐसे दावे किए गए कि प्रवासी मजदूरों को रोजगार के पूरे साधन दिए जाएंगे, पर प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने के नाम पर मनरेगा के अलावा सरकार के पास कोई दूसरा साधन नहीं था.

मनरेगा में एक दिन की मजदूरी के लिए 200 रुपए की दिहाड़ी मिलती है. सरकार ने कोरोना संकट के समय में मनरेगा के काम को बढ़ाने की कोशिश की. प्रवासी मजदूरों के रूप में नए लोगों के गांव आ जाने से मनरेगा में रोजगार घट गया.

गांव में काम के सीमित साधन हैं. जिस गांव में एक काम को 10 लोग करते थे, उसी काम को करने के लिए जब 15 लोग मिल गए तो एक मजदूर के खाते में आने वाले दिनों की तादाद घट गई, जिस से मजदूर के कुल रोजगार के दिनों की तादाद भी घट गई. गांव में पहले से रहने वाले लोगों ने मजदूरी के दिन घटने के लिए इन प्रवासी मजदूरों को जिम्मेदार माना.

मनरेगा की बढ़ी जिम्मेदारी

मनरेगा यानी ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ को साल 2005 में लागू किया गया था. इस के जरीए देश के गांवों में रहने वाले मजदूरों को रोजगार दिया जाता है. पहले इस का नाम ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ था. महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्तूबर, 2009 से इस को मनरेगा के नाम में बदल दिया गया.

इस योजना का मकसद वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के बालिग सदस्यों को 100 दिन का रोजगार मुहैया कराना था. मनरेगा से गांवों में तरक्की के रास्ते खुले थे और गांवों में लोगों की खरीदारी करने की ताकत बढ़ी थी.

इस योजना के तहत गांव में रहने वाली औरतों को भी रोजगार दिया जाता है. 2005 में मनरेगा को शुरू करने का काम कांग्रेस और वामपंथी दलों के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने किया था. फरवरी, 2006 में 200 जिलों से यह योजना शुरू की गई थी और साल 2008 तक यह योजना 593 जिलों में पहुंच गई.  मनमोहन सरकार के बाद साल 2014 में केंद्र में बनी मोदी सरकार ने मनरेगा को दरकिनार करने का काम किया था.

साल 2020 में जब कोरोना का संकट आया और पूरे देश में लौकडाउन किया गया. इस से शहरों से बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर अपनेअपने गांवों को लौटने के लिए मजबूर हुए.

उस समय सब से बड़ी समस्या गांवों में उन को रोजगार देने की आई. गांव में लोगों को रोजगार देने और ग्रामीणों को सहारा देने के लिए मोदी सरकार को उसी मनरेगा का सहारा लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिस की वह बुराई करती थी.

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मोदी सरकार ने मनरेगा के बजट में कटौती की थी. सरकार के समर्थक इस योजना को बेकारी बढ़ाने वाला मानते थे. मनरेगा का विरोध करने वाले मानते थे कि इस योजना से गांव में भ्रष्टाचार और बेकारी बढ़ रही है. इस की वजह पूरी तरह से राजनीतिक थी.

मनरेगा पर राजनीतिक लड़ाई

मनमोहन सरकार की मनरेगा योजना को मोदी सरकार ने कोई अहमियत नहीं दी. इस की वजह राजनीतिक थी. प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार की यह योजना जनता में लोकप्रिय हो गई थी और साल 2009 में भी जनता ने उन को वोट दे कर दोबारा सरकार बनाने की ताकत दे दी थी.

मनमोहन सरकार की जीत में मनरेगा का भी बड़ा हाथ माना जाता है. साल 2014 में केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार ने मनरेगा योजना को हाशिए पर ले जाने का काम किया. इस के बजट में कमी की गई और मनरेगा के होने पर  भी सवाल उठाने शुरू कर दिए. मनरेगा के अप्रभावी होने से भारत के ग्रामीण इलाकों में मंदी का दौर बढ़ने लगा.

बजट 2020-21 में मनरेगा के लिए 61,500 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया, जबकि 2019-20 में यह बजट 71,001.81 करोड़ रुपए था. महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का बजट तकरीबन 15 फीसदी तक घटा दिया है.

अर्थव्यवस्था की जो हालत है, उस के हिसाब से ग्रामीण क्षेत्रों में आमदनी और मांग बढ़ाए जाने की जरूरत है, लेकिन सरकार ने ग्रामीण विकास मंत्रालय के कुल बजट आवंटन को भी कम कर दिया. बजट 2019-20 का संशोधित अनुमान 1,22,649 करोड़ रुपए था, जबकि बजट 2020-21 में इसे घटा कर 1,20,147.19 करोड़ रुपए कर दिया गया है.

जानकार मानते हैं कि मनरेगा का बजट बढ़ेगा, तो ग्रामीणों तक पैसा पहुंचेगा और उन की अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकता है. मनरेगा के बजट में हर साल 20 फीसदी हिस्सा पुराने रुके हुए भुगतान को करने में निकल जाता है. मनरेगा के बजट में कटौती करने के बाद केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में मामूली बढ़ोतरी की.

साल 2019-20 के बजट में पीएमजीएसवाई के लिए 19,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था. 2020-21 के लिए 19,500 करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान लगाया गया.

पंचायती राज संस्थानों के बजट में भी मामूली सी बढ़ोतरी की गई.

2019-20 में पंचायती राज संस्थानों के लिए 871 करोड़ रुपए का अनुमान लगाया गया था. अब नए बजट में इसे बढ़ा कर 900 करोड़ कर दिया गया है.

गांव में नहीं रोजगार

प्रवासी मजदूरों को गांव में केवल मनरेगा में काम दे कर नहीं रोका जा सकता. गांव में बरसात के मौसम में कामधंधे पूरी तरह से बंद हो जाएंगे. ऐसे में मनरेगा के तहत मिलने वाला काम और भी कम हो जाएगा, जिस से गांव में फैली बेकारी और भी ज्यादा बढ़ जाएगी.

अपने खेतों में काम कर रहे सतीश पाल बताते हैं कि शहरों में जो सुविधा मिलती है, वह गांवों में नहीं है. बिजली और सड़क के बाद भी यहां पर अच्छी तरह से जिंदगी नहीं बिताई जा सकती है. खेतों में काम करने के बाद भी मुनाफा नहीं होता है.

नीलगाय द्वारा और दूसरी तरह के तमाम नुकसान के बाद भी जब फसल अच्छी हो भी जाए, तो उस की सही कीमत नहीं मिलती है. अभी तो सूरत में हमारी फैक्टरी वाले हमें बुला रहे हैं. अगर किसी और ने हमारा काम करना शुरू कर दिया तो वापस काम भी नहीं मिलेगा. ऐसे में कोरोना से डर कर गांव में रहने से अच्छा है कि सूरत में रह कर कोरोना से मुकाबला करें.

प्रवासी मजदूरों को अब लगता है कि शहरों में रहना और काम करना आसान है, जबकि गांव में कोरोना के डर से छिप कर रहना मुश्किल है. उस से आसान है कि शहर जा कर कोरोना से मुकाबला करते हुए रोजगार करें.

दिनेश को इस बात का भी डर है कि अगर फैक्टरियों में काम शुरू होने के बाद मजदूर नहीं पहुंचे तो दूसरे लोगों को काम मिल जाएगा. ऐसे में उन का रोजगार चला जाएगा.

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बहुत सारी उम्मीदों के साथ शहरों से गांव लौटे मजदूर गांव की बेकारी से डर कर वापस शहरों में जाना चाह रहे हैं. ऐसे में साफ है कि प्रवासी मजदूरों को गांव में रोकने के लिए सरकार ने जो दावे किए थे, वे सब फेल होते दिख रहे हैं.

कोरोना का कहर और बिहार में चुनाव

ज्यों ज्यों कोरोना का कहर बिहार में बढ़ते जा रहा है उसी रफ्तार से चुनावी सरगर्मी भी बढ़ रही है. सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एन डी ए और महागठबंधन दोनों में आपसी खींचतान शुरू है. अधिक से अधिक सीट लेने के लिए दोनों गठबंधन में सुप्रीमो पर दबाव बनाना जारी है.

एन डी ए में जद यू ,भाजपा और लोजपा के बीच गठबंधन है. वहीं  महागठबंधन में राजद, कांग्रेस, रालोसपा, हम और वी आई पी के बीच गठबंधन है. दोनों गठबंधन में सबकुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है.

एन डी ए गठबंधन में लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान लगातार नीतीश कुमार पर आरोप लगा रहे हैं.अपने दल के कार्यकर्ताओं से सभी सीट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयारी करने की बात भी बोल रहे हैं.

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गठबंधन में कई पार्टी भले ही एक दूसरे से टैग हैं. मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा भाजपा के सुशील कुमार मोदी, रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा,राजद के तेजस्वी यादव,रालोसपा के चिराग पासवान,हम के जीतन राम माँझी के अंदर भी हिलोरें मार रही हैं.

हम पार्टी के संस्थापक जीतन राम माँझी जो यू पी ए गठबंधन में है. वे इस समय नीतीश कुमार की तारीफ करने लगे हैं. इससे इनके ऊपर भी ऊँगली उठने लगी है. ये किसके तरफ कब हो जायेंगे. कहना मुश्किल है.

महागठबंधन में मुख्यमंत्री पद के लिए चुनाव के पूर्व घोषणा का मामला भी आपस में विवाद का कारण बना हुआ है. सभी दल वाले अधिक से अधिक सीट लेने के लिए दबाव बनाने में लगे हुवे हैं.

गरीबो दलितों और प्रबुद्ध वर्ग के लोग जिस वामपंथी दलों से जुड़े हुवे हैं. जैसे कम्युनिस्ट पार्टी,मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भाकपा माले ये दल भी एन डी ए गठबंधन को हर हाल में हराने के लिए  महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ना चाहते हैं. लेकिन इनलोगों को महागठबंधन में उतना तवज्जो नहीं दिया जाता.अगर वामपंथी दल आपस में गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ते हैं तो उससे  महागठबंधन को ही घाटा होगा क्योंकि इनका जनाधार महागठबंधन के जो वोटर हैं.उन्हीं के बीच में है.पप्पू यादव का जाप पार्टी भी चुनाव मैदान में आने के लिए कमर कसकर तैयार है.जनता की हर तरह की समस्याओं के निदान के लिए जाप पार्टी के प्रमुख पप्पू यादव के साथ उनके कार्यकर्ता सक्रिय दिख रहे हैं. महागठबंधन के साथ ये चुनाव लड़ेंगे या अलग अभी तक मामला स्पष्ट नहीं हो सका है. महागठबंधन के वोटर के बीच वोटों का आपस में बिखराव की संभावना अधिक दिख रही है. अगर एन डी ए गठबंधन से अलग सारे दल आपसी ताल मेल से चुनाव लड़ते हैं. तभी वर्तमान सरकार को चुनौती मिल सकती है.

एन डी ए गठबंधन में भाजपा भले ही जद यू के नीतीश कुमार के साथ है. लेकिन भाजपा के समर्थक की हार्दिक इक्षा यही होती है कि मुख्यमंत्री मेरा अपना हो.

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इस चुनाव को लेकर सभी दल डिजीटल माध्यम से प्रचार प्रसार में लगे हुवे हैं. इस खेल में एन डी ए गठबंधन माहिर है.इनके पास संसाधन भी अधिक उपलब्ध है. राज्य चुनाव आयोग से संकेत मिलते ही बिहार की सभी पार्टियाँ चुनाव को लेकर सक्रिय होने लगी है.कोरोना की वजह से राजनीतिक गतिविधि पर रोक है. इस परिस्थिति में सभी दल डिजिटल प्रचार की तैयारी में जुट गए है. बिहार के सभी राजनीतिक दल के लिए चुनौती सिर्फ एक ही है भारतीय जनता पार्टी .सभी दलों को पता है कि डिजिटल प्रचार के मामले में भाजपा को महारत हासिल है. सभी दल वाले इसका काट ढूंढने में लगे हैं.

यह तो स्पष्ट हो गया है कि अगर समय पर चुनाव हुआ तो कोरोना के साये में ही होगा.महामारी के बीच सभी पार्टियाँ डिजिटल माध्यम से प्रचार करने के लिए कमर कसने लगा है. भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता और गृह मंत्री से इस डिजिटल प्रचार का आगाज वर्चुअल रैली के माध्यम से कर चुके हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कार्यकर्ताओं से डिजिटल माध्यम से  संवाद कर चुके हैं. जद यू के महासचिव एवं राज्य सभा सांसद आर सी पी सिंह लगातार सभी संघटनों के साथ फेसबुक लाइव और जूम ऐप के माध्यम से सम्पर्क बनाये हुवे है. जद यू ने अपने तीन मंत्री अशोक चौधरी ,संजय झा और नीरज कुमार को डिजटली मजबूत करने की जिम्मेवारी सौंपी है. इन तीन मंत्रियों को प्रमंडल स्तर की जिम्मेदारी दी गयी है.

सत्तापक्ष के साथ साथ विरोधी दल के नेता तेजस्वी यादव भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं. इनकी टीम भी लगी हुवी है. अपने विधयकों को डिजीटल माध्यम से सक्रिय करने का कार्य तेज गति से चल रहा है. कांग्रेस के बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल और प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा भी कई बार वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये अपने कार्यकर्ताओं के साथ मीटिंग कर चुके हैं.

बी जे पी कोरोना संकट के बीच पी एम के आर्थिक पैकेज की घोषणा को मुद्दा बनाने की तैयारी में है. इसके लिए पार्टी ने पाँच सदस्यीय टीम की घोषणा कर दी है. इसमें उपाध्यक्ष राजेश वर्मा,राजेन्द्र गुप्ता,महामंत्री देवेश कुमार ,मंत्री अमृता भूषण और राकेश सिंह शामिल हैं. ये सभी प्रधानमंत्री के विशेष पैकेज का प्रचार प्रसार हाईटेक तरीके से करेंगे.

प्रवासी मजदूरों के साथ किये गए पुलिसिया जुल्म अत्याचार और अन्याय के खिलाफ विरोधी दल भी आवाज उठायेंगे.

बिहार सरकार द्वारा प्रवासी मजदूरों के साथ की गयी उपेक्षा को नीतीश कुमार किसी रूप से उसपर मरहम लगाना चाहते हैं. जिसका लाभ चुनाव में वोट के रूप में भंजा सकें.देश भर में जब लॉकडाउन की वजह से मजदूर महानगरों में फँस गए तो मुख्यमंत्री ने साफ तौर पर इंकार कर दिया कि मजदूरों को बाहर से नहीं लाया जाएगा.निराश उदास और मजबूर होकर महानगरों से अपने गाँव के लिए ये मजदूर पैदल सायकिल और ट्रकों में जानवर की तरह अपने गांव लौटे.

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इन मजदूरों के साथ हर जगह पर पुलिस,पदाधिकारी और आमजनों ने भी इनके साथ अमानवीय ब्यवहार किया.यहाँ तक कि इन मजदूरों को एक ब्यक्ति के रूप में नहीं देखकर इन्हें हर जगह कोरोना वायरस के रूप में देखा गया.लोग अपने दरवाजे पर बैठने और चापाकल तक का पानी तक नहीं पीने दिया.नीतीश कुमार अखबारों और टी वी पर ब्यान देते रहे.सभी मजदूरों को रोजगार दिया जाएगा.लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि यहाँ पर रोजगार के कोई अवसर और विकल्प नहीं दिख रहा है.

कोरोना काल मे चुनाव नहीं कराने के लिए विरोधी दल के नेता तेजस्वी यादव और लोजपा के युवा नेता चिराग पासवान ने आवाज उठाया है.पक्ष विपक्ष के बीच आरोप प्रत्यारोप जारी है.अपने अपने दल के नेता टिकट लेने के लिए जुगत भिड़ाने में जोर शोर से जुट गए हैं.

कोरोना के साथ साथ चुनाव की चर्चा पटना से लेकर चौक चौराहों और गांव की गलियों में होने लगा है.

Covid-19 के साइड इफेक्ट : लोगों में बढ़ी डिजिटल कामुकता

लेखक- लोकमित्र गौतम

कोविड-19 के चलते भारत ही नहीं पूरी दुनिया में अब अगर लाॅकडाउन नहीं भी लागू तो भी कामकाजी गतिविधियां लगभग ठप सी पड़ गई हैं. लोग घरों में बैठे हुए हैं. दफ्तर बंद है, फैक्टरियां बंद हैं और शायद दिमाग में भी कुछ नया सोचना बंद है. इसलिए इस गतिहीनता के दौर में लोगों में डिजिटल कामुकता बढ़ गई है.

हालांकि विशेषज्ञों ने कोविड-19 की वजह से साल 2021 में जो बेबी बूम की घोषणा की थी, उसे अब वापस ले लिया है. बावजूद इसके तमाम विशेषज्ञ इस बात पर सहमत है कि लाॅकडाउन के दौरान और उसके बाद अनलाॅक के दौरान तमाम तरह की गतिविधियों में अघोषित कटौती के कारण बड़े पैमाने में पूरी दुनियाभर के कपल्स को साथ रहने का लंबा मौका मिला है. इस वजह से इस पूरे समय में यौन गतिविधियां किसी भी सामान्य समय के मुकाबले कहीं ज्यादा रही हैं. विश्व की सबसे बड़ी कंडोम निर्माता कंपनी कोरेक्स ने अप्रैल के अंत में सार्वजनिक तौरपर स्वीकार किया था कि उसके पास कंडोम का पूरे 2020 के लिए जो स्टाक था, वो खत्म हो गया है.

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इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोरोना के चलते यौन गतिविधियों में काफी ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है. सवाल है क्या इससे किसी तरह का नुकसान है? पहले तो लगता था कि बिल्कुल किसी तरह का नुकसान नहीं है, लेकिन लाॅकडाउन के दौरान और उसके बाद आयी तमाम रिपोर्टों से पता चला है कि इस दौरान कितने बड़े पैमाने पर पोर्न मैटर तलाशा और देखा गया है. हालांकि पिछले कुछ महीनों से पूरी दुनिया में अधिकतम लोग अपने घरों में रहे हैं और अब के पहले यह माना जाता रहा है कि घरों में परिवार के बीच पोर्न फिल्मों के देखने का चलन नहीं है, सिर्फ एकांत में ये देखी जाती हैं. लेकिन लाॅकडाउन ने इस राय को बदल दिया है.

लाॅकडाउन के दौरान न सिर्फ पोर्न फिल्में बहुत ज्यादा देखी गई हैं बल्कि बाल यौन शोषण मटेरियल (सीएसएएम-चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज मटेरियल) भी ऑनलाइन बहुत ज्यादा सर्कुलेट हुआ है. इसके कारण पिछले दिनों जब कई तरह की आपराधिक घटनाओं में कमी देखी गई, वहीं बाल यौन अपराधों में काफी इजाफा हुआ है. मध्य प्रदेश में तो एक नौ साल की बच्ची के हाथ पैर बांधकर उससे बलात्कार किया गया और फिर उसकी आंखें फोड़ दी गईं. लॉकडाउन के दौरान सीएसएएम कंटेंट का यूजर एक्सेस बढ़ा है,उसका गंभीर संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय बाल अधिकार सुरक्षा आयोग ने गूगल, ट्विटर, व्हाट्सएप्प और एप्पल इंडिया को नोटिस जारी किये हैं.

गौरतलब है कि भारत में अन्य देशों की तरह ही बाल पोर्न के निर्माण व प्रसार पर पूर्ण प्रतिबंध है. इसका व्हाट्सएप्प या अन्य सोशल मीडिया के जरिये एक-दूसरे को भेजना भी दंडनीय अपराध है. इंग्लैंड व कुछ अन्य देशों में तो बाल पोर्न को रोकने के लिए विशेष विभाग हैं,जिनका काम ऐसी साइट्स को तलाशना, बंद करना व उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करना है. भारत में इस स्तर की चैकसी कम है, फिर भी बाल पोर्न पर काफी हद तक नियंत्रण था, लेकिन लगता है कि कोविड-19 के दौरान ठहर गये कामकाजी जीवन में खुराफाती दिमागों ने इसका चलन बढ़ा दिया है. यह समस्या इस हद तक बढ़ गई है कि कुछ दिन पहले बैडमिंटन कोचिंग का ऑनलाइन लाइव सत्र चल रहा था कि बीच में अचानक पोर्न कंटेंट प्रसारित होने लगा. ऐसा कई बार हुआ. यह कंटेंट जब पहली बार आया तो भारत के राष्ट्रीय बैडमिंटन कोच पी गोपीचंद ने कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए तुरंत अपने को लाइव प्रोग्राम से अलग कर लिया.

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फिलहाल की स्थिति यह है कि आयोग ने ऑनलाइन सीएसएएम की उपलब्धता पर स्वतंत्र जांच आरंभ कर दी थी और जो साक्ष्य मिले थे, उनके आधार पर आयोग ने उक्त ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स को नोटिस जारी किये थे तथा 30 अप्रैल तक जवाब मांगा था. लेकिन बाद में क्या हुआ इसकी कोई खबर नहीं आयी. आयोग इन प्लेटफॉर्म्स से जानना चाहता है कि वह अपने प्लेटफॉर्म्स पर सीएसएएम को रोकने के लिए क्या नीति अपनाये हुए हैं, उन्हें पोर्नोग्राफी व सीएसएएम से संबंधित कितनी शिकायतें मिली हैं और ऐसे मामलों से डील करने की उनकी पालिसी क्या है? आयोग के अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो ने जिन लिंक्स,हैंडल पर इस प्रकार का आपत्तिजनक मटेरियल पाया है,उनकी रिपोर्ट व अन्य जानकारियां केन्द्रीय गृह मंत्रालय के साइबरक्राइम पोर्टल को कानूनी कार्यवाही के लिए फॉरवर्ड कर दिया है.

आयोग ने जो ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स को नोटिस भेजा है उसमें इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फण्ड की ताजा रिपोर्ट का हवाला दिया है,जिसमें सावधान किया गया है कि लॉकडाउन के दौरान बाल पोर्न सर्च में जबरदस्त वृद्धि हुई है, इसलिए आयोग अब इसकी स्वतंत्र जांच कर रहा है. गूगल इंडिया को दिए गये नोटिस में कहा गया है, “जांच के दौरान यह संज्ञान में आया है कि पोर्नोग्राफिक मटेरियल को गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध एप्पस के जरिये एक्सेस किया जा सकता है. इससे बच्चे भी इस प्रकार के मटेरियल को एक्सेस करने लगे हैं. यह भी आशंका है कि इन एप्पस पर सीएसएएमभी उपलब्ध है.” जबकि एप्पल इंडिया को दिए गये नोटिस में आयोग ने कहा कि उसके एप्प स्टोर में उपलब्ध एप्पस के जरिये बहुत आसानी से सीएसएएम व पोर्नोग्राफिक मटेरियल एक्सेस किया जा सकता है जो वहां बहुतायत में मौजूद है.

जांच के दौरान यह भी पाया गया कि बहुत से एन्क्रिप्टेड व्हाट्सएप्प ग्रुप्स में सीएसएएम बहुतायत के साथ उपलब्ध है. व्हाट्सएप्प इंडिया को दिए गये नोटिस में आयोग ने कहा है, “इन ग्रुप्स के लिंक्स को ट्विटर पर विभिन्न हैंडल्स के जरिये प्रचारित किया जाता है. आयोग का यह मानना है कि ट्विटर हैंडल्स पर इन व्हाट्सएप्प ग्रुप्स के लिंक्स का प्रचारित किया जाना गंभीर मामला है.” जबकि ट्विटर इंडिया को दिए गये नोटिस में आयोग ने कहा है, “देखा गया है कि आपकी जो नियम व शर्तें हैं, उनके अनुसार 13 वर्ष व उससे अधिक का व्यक्ति ट्विटर पर अकाउंट खोलने के लिए योग्य है. अगर आप 13 वर्ष की आयु में बच्चों को अकाउंट खोलने की अनुमति दे रहे हैं तो आयोग का मानना है कि आप अन्य यूजर्स को ट्विटर पर पोर्नोग्राफिक मटेरियल, लिंक आदि को प्रकाशित, प्रचारित नहीं करने दे सकते.”

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सीएसएएम व पोर्नोग्राफिक मटेरियल गंभीर आपराधिक मामला है. इस प्रकार के मटेरियल पर रोक लगाना अति आवश्यक है और सुप्रीम कोर्ट अपने कई निर्णयों में इस बात की जरुरत पर बल दे चुका है. इस प्रकार के मटेरियल से समाज में यौन अराजकता का खतरा बना रहता है, मानव तस्करी जैसे अमानवीय अपराध भी अक्सर इसी के कारण होते हैं. किशोरों द्वारा किये गये जो यौन अपराध प्रकाश में आये हैं, उनके पीछे भी अक्सर कारण सीएसएएम ही निकला है. इसलिए इस संदर्भ में खालिस नोटिस से काम नहीं चलेगा बल्कि जिन माध्यमों से सीएसएएम व पोर्नोग्राफिक मटेरियल वितरित व प्रचारित हो रहा है उन पर कड़ी कानूनी कार्यवाही की जाये और किसी भी सूरत में उल्लंघन को बर्दाश्त न किया जाये. इंटरनेट के युग में बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखने का यही एकमात्र तरीका है.

किसान मजदूरों की दुर्दशा : महानगरों की ओर लौटने लगे प्रवासी मजदूर

किसान मजदूरों के जवान बेटे पुनः बिहार और उत्तरप्रदेश के गांवो से महानगरों की ओर लौटने लगे. ठीकेदारों कम्पनी के मैनेजरों का फोन आने लगा. इधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का रोज अखबारों और टी वी पर यह ब्यान सुनने को मिल रहा है कि प्रवासी मजदूरों को हर हाल में रोजगार दिया जाएगा.लेकिन जमीनी सच्चाई अलग है. मुख्यमंत्रीजी आप कहाँ देंगे रोजगार.आपके पास भाषण के सिवा रोजगार देने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है.

किसान मजदूर के बेटे समझ गये हैं कि फजीहत जितनी भी झेलनी पड़े परिवार और अपना पेट भरने के लिए काम तो कहीं न कहीं करना ही पड़ेगा.यहाँ काम मिलना संभव नहीं है ?खेती का हाल और ही बुरा है. खेती में मजदूरी करने के लिए बड़े किसानों के यहाँ सालों भर काम नहीं है. साधरण किसान के बेटे अगर खेती भी करेंगे तो उससे कोई लाभ नहीं है.

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हिमाचल प्रदेश के धागा उद्योग फैक्ट्री में काम करनेवाले अजय कुमार और उनकी पत्नी शुष्मा देवी जो लॉक डाउन में कम्पनी बन्द होने की वजह से अपने गृह जिला औरंगाबाद आ गए हैं.शुष्मा देवी ने बतायीं की हम

दोनों वहाँ काम करते थे.हम वहाँ दवा बनाने वाले कम्पनी में डब्बा में दवा भरने का काम करते थे.हमारे पति धागा कम्पनी में काम करते थे.उन्हें 15000 हजार और मुझे 1000 रुपये वेतन मिलता था.दोनों मिलाकर 25000 हजार रुपये मिल जाता था.दो बच्चों को आराम से पढ़ा लिखा रहे थे.प्रतिमहिना उसी में से बचाकर सास ससुर के लिए भी सात आठ हजार महीना भेजते रहते थे.लेकिन इस कोरोना की बीमारी ने तो हमलोगों को बड़ा मुश्किल में डाल दिया.पति के कम्पनी से फोन आ रहा है.पुनः काम पर लौटने के लिए हमलोग मन बना रहे हैं जाने के लिए.यहाँ हमलोग क्या करेंगे ? हमलोग मनरेगा में डेली ढोने और कुदाल चलाने वाला काम नहीं कर सकते.यहाँ और दूसरे चीज में किसी प्रकार का कोई स्कोप नहीं है.

राकेश कुमार गुजरात के राजकोट में टेम्पू फैक्ट्री में वेल्डर का काम करता था.साथ में पत्नी शांति देवी भी रहती हैं.शांति देवी ब्यूटीपार्लर का काम सीखतीं थी.राकेश पाँच वर्ष से इसी फैक्ट्री में काम करता है.दो वर्ष पहले शादी हुवी है.इसी वर्ष होली के बाद पत्नी भी साथ में गयी थी.पति पत्नी आपस में विचार किये की अगर ब्यूटी पार्लर का काम सिख जाती है तो भविष्य में पैसा जमा कर ब्यूटीपार्लर का दुकान खोल सकती है.लेकिन मार्च महीने में ही लॉक डाउन हो गया.जिसकी वजह से जो सपना देखे थे.उसपर पानी फिर गया.जब पति पत्नी से पूछे कि अब आपलोग क्या आगे सोंचें हैं तो दोनों ने बताया कि इस बार जब गाँव आ गए हैं तो धान का रोपण का काम करके फिर वहीं जायेंगे.कम्पनी से आने के लिए फोन आने लगा है.आपलोग यहाँ क्यों नहीं कुछ काम करते तो राकेश ने कहा कि 15000 हजार रुपये महीने का आप ही मुझे कोई काम दिलवा दीजिये.हम यहीं काम करेंगे.यहाँ तो मुझे कोई काम ही नहीं दिखाई पड़ रहा है.

सूरत कपड़ा मिल में काम करने वाला बिजय कुमार बताता है कि हम साड़ी फैक्ट्री में कलर मास्टर का काम करते थे.लॉक डाउन की वजह से कम्पनी बन्द हो गया तो घर आ गये थे.पुनः वहाँ से ठीकेदार फोन कर रहा है. वह भी बिहार का ही है. वह साथ में मेरा रिजर्वेशन कराने के लिए तैयार है. मेरे पास कोई उपाय नहीं है. इसलिए मैं जाने के लिए पुनः तैयार हो गया हूँ.बिहार से मुंबई,हैदराबाद,दिल्ली,लुधियाना की गाड़ियों में मजदूर झुंड के झुंड बाहर जाने के लिए निकल पड़े हैं.

इन मजदूरों में अधिकांशतः दलित और ओ बी सी के युवा हैं. ये युवा मजदूर या मध्यमवर्गीय किसान के बेटे हैं.

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आखिर महानगरों की ओर क्यों पलायन करते हैं. बिहार और यू पी के युवा .बिहार और यू पी के गाँवों में किसानों मजदूरों के बेटों को सालों भर काम नहीं मिल पाता.मध्यमवर्गीय किसानों के बेटे को खेती से कोई लाभ नहीं दिखता इसकी वजह से वे महानगरों की ओर रुख करते हैं.किसानों की वास्तविक स्थिति क्या है ? इसे भी समझने की जरूरत है.

अगर किसानों के फसलों का उचित मूल्य मिलने लगे तो बिहार और यू पी के गाँवों से पलायन सदा के लिए रुक जाय. कोई बड़ी योजना परियोजना की जरूरत नहीं है.

तमाम सरकारी दावों के बीच किसानों की स्थिति बद से बदतर होते जा रही है. किसान खेती किसानी छोड़कर अन्य रास्ते की तलाश में हैं.किसान के बच्चे किसी भी हाल में खेती करने के लिए तैयार नहीं हैं. एक समय में कहा जाता था कि उत्तम खेती मध्यम बान, नीच चाकरी भीख निदान यानी खेती  को ऊँच दर्जा प्राप्त था.चाकरी यानी नॉकरी करना भीख माँगने के समान समझा जाता था.लेकिन आज उल्टा हो गया है. नॉकरी करना सर्वश्रेष्ठ हो गया है .खेती करना नीच काम समझा जाने लगा है. आखिर हो भी क्यों नहीं ? क्योंकि खेती किसानी करनेवाले लोगों का परिवार फटेहाली का जिंदगी जीने को मजबूर है. हाड़ तोड़ पूरा परिवार मिहनत करने के बाद भी बच्चों को बेहतर शिक्षा ,स्वास्थ्य ,बेटी को अच्छे घरों में शादी करने से महरूम है.परिवार का अगर कोई सदस्य किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित हो जाता है तो जमीन बेचने और गिरवी रखने के सिवा कोई उपाय नहीं बचता और सूद के चंगुल से निकलना मुश्किल हो जाता है.

किसान भूषण मेहता ने बताया कि मेरा बीस बिगहा जमीन है. खेती अपने से करते हैं. सालों भर पाँच परिवार के साथ साथ मजदूर भी लगा रहता है.अगर सच मायने में देखा जाय तो खेती में इतना लागत लग जाता है कि कुछ भी विशेष नहीं बच पाता. अगर बाढ़ सुखाड़ का मार नहीं झेलना पड़ा और मौसम साथ दिया तो साल में एक लाख रुपये मुश्किल से बच पाता है.साल में इतना पैसा तो पाँच परिवार मजदूरी करके कमा सकता है.बीज,खाद,डीजल का दाम रोजबरोज बढ़ते जा रहा है. गेंहूँ और धान की कीमत उस हिसाब से नहीं बढ़ पा रहा है. सरकारी खरीद का सिर्फ दावा किया जाता है. हम कभी भी कॉपरेटिव के माध्यम से धान नहीं बेंचते. इसलिए कि समय पर पैसे नहीं मिलते.अपना काम धाम छोड़कर ब्लॉक और बैंक का चक्कर लगाना हमारे बस की बात नहीं है. हम सस्ते दाम पर ही सही धान खरीदने वाले को खलिहान से ही धान गेंहूँ बेंच देते हैं. जब मेरे जैसे बीस बीघा की खेती करने वाले कि स्थिति बहुत अच्छी नहीं है तो एक और दो बीघा की खेती करने वाले किसानों की क्या स्थिति होगी.बीमारी और बेटी की शादी में किसानों को या तो खेत बीके या जमीन गिरवी रखे.यह तय है.किसान अपने मेधावी बच्चों को भी ऊँच और तकनीकी शिक्षा महँगी होने के कारण दिलवाने में असमर्थ है.

आज किसानों की स्थिति बदतर क्यों होते जा रही है. इसका मूल कारण है खेती में लागत मूल्य दिनों दिन तेज गति से बढ़ते जा रहा है.किसानों द्वारा उत्पादित फसलों और शब्जियों का उचित मूल्य नहीं मिल पाना है. विगत दस वर्षों में कृषि में लागत तीन गुना तक बढ़ गया है. लेकिन उपज की कीमतों में दोगुना भी बढ़ोतरी नहीं हुवी है.

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सिर्फ किसानों के उपज का वास्तविक दाम मिल जाय तो किसानों को अलग से किसी प्रकार की कोई राहत की जरूरत नहीं है.

किसानों के नेता नागेश्वर यादव ने बताया कि 1971 में 10 ग्राम सोना का मूल्य 193 रुपये था.उस समय एक क्विटल गेहूं का दाम 105 रुपये था.10 ग्राम सोना खरीदने के लिए एक क्विंटल 83 किलो गेहूँ बेंचने की जरूरत थी.आज सोना का मूल्य 10 ग्राम का 50 हजार रुपये है. गेहूँ 2000 रुपये प्रति क्विंटल है.10 ग्राम सोना खरीदने के लिए आज 25 क्विंटल गेहूँ बेंचने पड़ेगा.इससे बाजार आधारित वस्तु का मूल्य और किसानों द्वारा उपजाए गए .अनाजों का मूल्य का सहज आकलन कर सकते हैं.

पहले खेती किसानी हल बैल,रेहट,लाठा कुंडी के माध्यम से होता था.डीजल की कोई जरूरत नहीं होती थी.आज के तारीख में खेत की जुताई कटाई करने के लिए ट्रैक्टर की जरूरत पड़ती है.सिंचाई करने के लिए डीजल इंजन की जरूरत है. डीजल का दाम लगातार बढ़ने से किसानों की स्थिति अत्यंत दैनीय हो गयी है.बीज,उर्वरक,कीटनाशक सभी की कीमत लगातार बढ़ते जा रही है.

किसानों का बैंक से लिये गए लोन को माफ करने की बात बार बार होती है. किसानों का सिर्फ लोन माफ करना इसका निदान नहीं है. सरकार माफ भी नहीं करना चाहती.क्योंकि देश पर अतिरिक्त भार पड़ने का राग अलापा जाता है. देश के उद्योगपतियों का लोन आराम से माफ कर दिया जाता है.बैंकों की खराब स्थिति किसानों के चलते नहीं बल्कि सरकार और पूंजीपतियों के गठजोड़ की वजह से हुवी है. बिजय माल्या 18000 करोड़,नीरव मोदी 11400 करोड़,भाई चौकसी 2000 करोड़,ललित मोदी कितना का चूना लगाया आमलोगों को पता तक नहीं.ये पूंजीपति सरकार की मिलीभगत से देश का बंटाढार कर दिया.

जो किसान पूरे देश का पेट भरता है. वह खुद पूरे परिवार अभावों में रहते हुवे आत्महत्या तक करने के लिए विवश है.

एक समय था जब 45 करोड़ जनता का पेट भरने के लिए भी किसान अन्न नहीं उपजा पाता था.हमें अमेरिका से गेहूँ का आयात करने पड़ता है. आज हरित क्रांति और वैज्ञानिकों की देन की वजह से 130 करोड़ लोगों को किसान अन्न उपलब्ध करा रहा है. फिर भी किसान कर्ज में दबा है और आत्महत्या तक करने के लिए विवश है.

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देश भर से इस तरह की खबरें आते रहती है. टमाटर,कद्दू,प्याज ,लहसुन ,आलू का उचित मूल्य नहीं मिलने की वजह से किसान सड़कों पर फेंकने के लिए विवश हो जाते हैं.देश का अर्थब्यवस्था तभी कायम रह पाएगा जब  किसानों के द्वारा उपजाये गये फसलों का उचित मूल्य मिलेगा.किसान सम्मान योजना जैसे लॉली पॉप से देश के किसानों का निदान नहीं होने वाला है.

Lockdown के चलते इन एक्ट्रेसेस ने डांस कर फैन्स को किया एंटरटेन, देखें Video

कोरोना के चलते अब Lockdown 3.0 खत्म हो चुका है और अब भारत में Lockdown 4.0 चालू हो चुका है इसी बीच सोशल मीडिया पर सिनेमा जगत से जुड़ी कई एक्ट्रेस का घरों में डांस करने का वीडियो वायरल हो रहा है.

बौलीवुड और टीवी एक्ट्रेस Lockdown के चलते अपने घरों में रहते हुए अलग अलग तरीकों से खुद को व्यस्त रखनें का प्रयास कर रहीं हैं जिससे वह अपनें आप को फिट रख पायें. इस लिस्ट में कई एक्ट्रेस का नाम शामिल हैं जो डांस के जरिये खुद को फिट रखनें का प्रयास कर रहीं हैं.

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नुसरत भरुचा (Nusrat Bharucha)

 

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Everybody has their coping mechanisms & mine is- Music ❤️ & if there is Music, I will Dance! Anytime, Anywhere.. Gets me going 😇

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इसमें जो पहला नाम है वह है नुसरत भरुचा (Nusrat Bharucha) का. उन्होंने अपने इन्स्टाग्राम एकाउंट पर एक वीडियो शेयर किया है जिसमें वह जमकर डांस करती नजर आ रहीं हैं. डांस वाले इस वीडियो पर उनके फैन्स के खूब रियक्शन मिल रहे है.

बीते दिनों नुसरत भरुचा (Nusrat Bharucha) नें सोशल मीडिया पर अपने कई बिकनी फोटोज और वीडियो शेयर कर सनसनी फैला दी थी. उनके इस बिकनी फोटोज और वीडियोज को लाखों बार देखा जा चुका है.

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नुसरत अब तक कई फिल्मों में नजर आ चुकी हैं. उन्होंने ‘जय संतोषी मां’ (Jai Santoshi Maa) के जरिये सिनेमा जगत में डेब्यू किया था. इसके बाद वह ‘कल किसने देखा’ (Kal Kisne Dekha), ‘लव सेक्स और धोखा’ (Love, Sex aur Dhokha), ‘प्यार का पंचनामा’ (Pyaar Ka Punchnama), ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ (Sonu Ke Titu Ki Sweety) जैसी फिल्मों में काम किया.

एली अवराम (Elli Avram)

 

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Balance is the Key. (Press IGTV)

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स्वीडिश मूल की भारतीय बौलीवुड अभिनेत्री एली अवराम (Elli Avram) नें अपने इन्स्टाग्राम एकाउंट पर एक डांस वीडियो शेयर किया है जो कि जमकर वायरल हो रहा है. इस वीडियो में वह स्लो मोशन में डांस करती नजर आ रही हैं. उनके द्वारा किये गए डांस स्टेप्स और अदाओं को सोशल मीडिया पर जम कर तारीफ मिल रही है.

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एली एवराम (Elli Avram) नें फिल्म ‘मिकी वायरस’ (Mickey Virus) से बौलीवुड में डेब्यू किया था. एली रियलिटी शो बिग बौस सीजन 7 की प्रतिभागी भी रह चुकी हैं. वह एक्टर कपिल शर्मा (Kapil Sharma) के साथ “किस किसको प्यार करूं” (Kis Kisko Pyaar Karoon) में भी नजर आ चुकी हैं.

एरिका फर्नांडिस (Erica Jennifer Fernandes)

 

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🕺🏻 #tiktok #instagood #Instagram #dance

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टीवी एक्ट्रेस एरिका फर्नांडिस (Erica Jennifer Fernandes) भी Lockdown के खूब मजा लेती नजर आ रहीं हैं. उन्होंने भी अपनें इन्स्टाग्राम एकाउंट पर डांस करते हुए का वीडियो शेयर किया है जिसमें वह टिक टौक  (Tik Tok) पर लचीली कमर से बेली डांस करती नजर आ रही हैं. एरिका सीरियल ‘कुछ रंग प्यार के ऐसे भी’ (Kuch Rang Pyaar Ke) में डा. सोनाक्षी बोस और कसौटी जिंदगी के (Kasautii Zindagi Kay) में प्रेरणा शर्मा रूप में यादगार किरदार के लिए जानी जाती हैं.

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