लौकडाउन का 3 महीने से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी सरकार प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के अलावा रोजगार का कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखा पाई है. एक मनरेगा योजना कितने मजदूरों का सहारा बन पाती?

ऐसे में गरीब लोगों का गांव से शहर की ओर जाना मजबूरी बन कर रह गया है. जिस शहर से भूखे, नंगे, प्यासे और डरे हुए लोग भागे थे, अब वे उन्हीं शहरों की ओर टकटकी लगा कर देख रहे हैं. रोजगार के तमाम दावों के बाद भी गांव लोगों का सहारा नहीं बन पाए हैं.

शहरों से वापस लौटते प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक तसवीरें अभी भी भुलाए नहीं भूल रही हैं. गांव आए ये मजदूर वापस शहर जाने की सोच भी सकते हैं, यह उम्मीद किसी को नहीं थी.

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गांव की बेकारी से परेशान प्रवासी मजदूर वापस अब शहरों की तरफ जाने के रास्ते तलाशने लगे हैं. अपने दर्द को भूल कर इन के कदम शहरों की तरफ बढ़ चुके हैं.

मजदूरों को गांव में रोकने और वहीं पर रोजगार देने के वादे पूरी तरह से  झूठे साबित हो गए हैं. बेकारी के हालात का शिकार लोगों के मन से अब कोरोना का डर भी पहले के मुकाबले कम हो चुका है. ऐसे में वे वापस शहर की ओर लौटने लगे हैं.

जान जोखिम में डाल कर गांव से शहर की तरफ मजदूरों के वापस आने की सब से बड़ी वजह जाति और गरीबी है. गांव में गरीब एससी और बीसी तबके के पास न खेती के लिए जमीन है और न ही रहने के लिए घर.

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