कोटा के इस अस्पताल की दशा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह जरूरी उपकरणों के साथ ही मैडिकल स्टाफ की कमी से भी जूझ रहा है. इतना ही नहीं, जब राज्य सरकार की एक समिति इस अस्पताल का दौरा करने गई तो उस ने वहां सूअर व कुत्ते टहलते हुए देखे.

इस पर हैरत नहीं है कि कोटा के अस्पताल में बड़ी तादाद में नवजात बच्चों की मौत की खबर आने के साथ ही एकदूसरे पर आरोप लगाने की ओछी राजनीति सतह पर आ गई. लेकिन ऐसी राजनीति से बचने की नसीहत वे नहीं दे सकते, जो खुद ऐसा करने का कोई मौका नहीं छोड़ते. आखिर कोई यह कैसे भूल सकता है कि जब उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के एक अस्पताल में कोटा की तरह बच्चों की मौत का मामला सामने आया था तो उस के बहाने राजनीति चमकाने की कैसी भद्दी होड़ मची थी.

सरकारी तंत्र की ढिलाई और लापरवाही को उजागर किया ही जाना चाहिए, लेकिन इसी के साथ कोशिश इस बात की भी होनी चाहिए कि बदहाली के आलम से कैसे छुटकारा मिले? यह कोशिश रहनी चाहिए, क्योंकि यह एक कड़वी सचाई है कि अस्पतालों की तरह स्कूल, सार्वजनिक परिवहन के साधन वगैरह भी बदहाली से दोचार हैं और इस के लिए वह घटिया राजनीति ही ज्यादा जिम्मेदार है, जो हर वक्त दूसरों पर आरोप मढ़ कर अपने फर्ज को पूरा समझने की ताक में रहती है.

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गलत है मौत पर राजनीति

‘‘मैं अपने बच्चे के निमोनिया का इलाज कराने 50 किलोमीटर दूर से आया हूं. रास्ते में इतनी सर्दी थी कि बच्चे की सांसें तेज चल रही थीं. बच्चे की हालत देख कर ही डर लग रहा था.’’

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