नादानियां- भाग 1: उम्र की इक दहलीज

प्रथमा की शादी को 3 साल हो गए हैं. कितने अरमानों से उस ने रितेश की जीवनसंगिनी बन कर इस घर में पहला कदम रखा था. रितेश से जब उस की शादी की बात चल रही थी तो वह उस की फोटो पर ही रीझ गई थी. मांपिताजी भी संतुष्ट थे क्योंकि रितेश 2 बहनों का इकलौता भाई था और दोनों बहनें शादी के बाद अपनेअपने घरपरिवार में रचीबसी थीं. सासससुर भी पढ़ेलिखे व सुलझे विचारों के थे.

शादी से पहले जब रितेश उसे फोन करता था तो उन की बातों में उस की मां यानी प्रथमा की होने वाली सास एक अहम हिस्सा होती थी. प्रथमा प्रेमभरी बातें और होने वाले पति के मुंह से खुद की तारीफ सुनने के लिए तरसती रह जाती थी और रितेश था कि बस, मां के ही गुणगान करता रहता. उसी बातचीत के आधार पर प्रथमा ने अनुमान लगा लिया था कि रितेश के जीवन में उस की मां का पहला स्थान है और उसे पति के दिल में जगह बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.

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शादी के बाद हनीमून की योजना बनाते समय रितेश बारबार हरिद्वार, ऋ षिकेश, मसूरी जाने का प्लान ही बनाता रहा. आखिरी समय तक वह अपनी मम्मीपापा से साथ चलने की जिद करता रहा. प्रथमा इस नई और अनोखी जिद पर हैरान थी क्योंकि उस ने तो यही पढ़ा व सुना था कि हनीमून पर पतिपत्नी इसलिए जाते हैं ताकि वे ज्यादा से ज्यादा वक्त एकदूसरे के साथ बिता सकें और उन की आपसी समझ मजबूत हो. मगर यहां तो उलटी गंगा बह रही है. मां के साथ तीर्थ पर ही जाना था तो इसे हनीमून का नाम देने की क्या जरूरत है. खैर, ससुरजी ने समझदारी दिखाई और उन्हें हनीमून पर अकेले ही भेजा.

स्मार्ट और हैंडसम रितेश का फ्रैंडसर्किल बहुत बड़ा है. शाम को औफिस से घर आते ही जहां प्रथमा की इच्छा होती कि वह पति के साथ बैठ कर आने वाले कल के सपने बुने, उस के साथ घूमनेफिरने जाए, वहीं रितेश अपनी मां के साथ बैठ कर गप मारता और फिर वहां से दोस्तों के पास चला जाता. प्रथमा से जैसे उसे कोई मतलब ही नहीं था. रात लगभग 9 बजे लौटने के बाद खाना खा कर वह सो जाता. हां, हर रात वह सोने से पहले प्रथमा को प्यार जरूर करता था. प्रथमा का कोमल हृदय इस बात से आहत हो उठता, उसे लगता जैसे पति ने उसे सिर्फ अपने बिस्तर में ही जगह दी है, दिल में नहीं. वह केवल उस की आवश्यकतापूर्ति का साधन मात्र है. ऐसा नहीं है कि उस की सास पुरानी फिल्मों वाली ललिता पंवार की भूमिका में है या फिर वह रितेश को उस के पास आने से रोकती है, बल्कि वह तो स्वयं कई बार रितेश से उसे फिल्म, मेले या फिर होटल जाने के लिए कहती. रितेश उसे ले कर भी जाता है मगर उन के साथ उस की मां यानी प्रथमा की सास जरूर होती है. प्रथमा मन मसोस कर रह जाती, मगर सास को मना भी कैसे करे. जब पति खुद चाहता है कि मां उन के साथ रहे तो फिर वह कौन होती है उन्हें टोकने वाली.

कई बार तो उसे लगता कि पति के दिल में उस का एकछत्र राज कभी नहीं हो सकता. वह उस के दिल की रानी सास के रहते तो नहीं बन सकती. उस की टीस तब और भी बढ़ जाती है जब उस की बहन अपने पति के प्यार व दीवानगी के किस्से बढ़ाचढ़ा कर उसे बताती कि कैसे उस के पति अपनी मां को चकमा दे कर और बहाने बना कर उसे फिल्म दिखाने ले जाते हैं, कैसे वे दोनों चांदनी रातों में सड़कों पर आवारगी करते घूमते हैं और चाटपकौड़ी, आइसक्रीम का मजा लेते हैं. प्रथमा सिर्फ आह भर कर रह जाती. हां, उस के ससुर उस के दर्द को समझने लगे थे और कभी बेकार में चाय बनवा कर, पास बैठा कर इधरउधर की बातें करते तो कभी टीवी पर आ रही फिल्म को देखने के लिए उस से अनुरोध करते.

दिन गुजरते रहे, वह सब्र करती रही. लेकिन जब बात सिर से गुजरने लगी तो उस ने एक नया फैसला कर लिया अपनी जीवनशैली को बदलने का. प्रथमा को मालूम था कि राकेश मेहरा यानी उस के ससुरजी को चाय के साथ प्याज के पकौड़े बहुत पसंद हैं, हर रोज वह शाम की चाय के साथ रितेश की पसंद के दूसरे स्नैक्स बनाती रही है और कभीकभी रितेश के कहने पर सासूमां की पसंद के भी. मगर आज उस ने प्याज के पकौड़े बनाए. पकौड़े देखते ही राकेश के चेहरे पर लुभावनी सी मुसकान तैर गई.

प्रथमा ने आज पहली बार गौर से अपने ससुरजी को देखा. राकेश की उम्र लगभग 55 वर्ष थी, मगर दिखने में बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व है उन का. रितेश अपने पापा पर ही गया है, यह सोच कर प्रथमा के दिल में गुदगुदी सी हो गई.

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राकेश ने जीभर कर पकौड़ों की तारीफ की और प्रथमा से बड़े ही नाटकीय अंदाज में कहा, ‘‘मोगाम्बो खुश हुआ. अपनी एक इच्छा बताओ, बच्ची. कहो, क्या चाहती हो?’’ प्रथमा खिल उठी. फिलहाल तो उस ने कुछ नहीं मांगा मगर आगे की रणनीति मन ही मन तय कर ली. 2 दिनों बाद उस ने राकेश से कहा, ‘‘आज यह बच्ची आप से आप का दिया हुआ वादा पूरा करने की गुजारिश करती है. क्या आप मुझे कार चलाना सिखाएंगे?’’

‘‘क्यों नहीं, अवश्य सिखाएंगे बालिके,’’ राकेश ने कहा. जब वे बहुत खुश होते हैं तो इसी तरह नाटकीय अंदाज में बात करते हैं. अब हर शाम औफिस से आ कर चायनाश्ता करने के बाद राकेश प्रथमा को कार चलाना सिखाने लगा. जब राकेश उसे क्लच, गियर, रेस और ब्रेक के बारे में जानकारी देता तो प्रथमा बड़े मनोयोग से सुनती. कभीकभी घुमावदार रास्तों पर कार को टर्न लेते समय स्टीयरिंग पर दोनों के हाथ आपस में टकरा जाते. राकेश ने इसे सामान्य प्रक्रिया समझते हुए कभी इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया मगर प्रथमा के गाल लाल हो उठते थे.

Family Story- नादानियां: उम्र की इक दहलीज

रिश्तों की परख: भाग 2

लेखका- शैलेंद्र सिंह परिहार

वार्षिक परीक्षा समाप्त होते ही मैं नानीजी के पास आ गई. रिजल्ट आया तो मैं फर्स्ट डिवीजन में पास हुई थी. गणित में अच्छे नंबर मिले थे. मैं अपने रिजल्ट से संतुष्ट थी. कुछ दिनों बाद कमल का भी रिजल्ट आया था. उसे मैरिट लिस्ट में दूसरा स्थान मिला था. उसे बधाई देने के लिए मेरा मन बेचैन हो रहा था. मैं जल्द ही नानी के घर से वापस लौट आई थी. कमल से मिली लेकिन उसे प्रसन्न नहीं देखा. वह दुखी मन से बोला था, ‘नहीं स्नेह, मैं पीछे नहीं रहना चाहता हूं, मुझे पहली पोजीशन चाहिए थी.’

वह कालिज पहुंचा और मैं 11वीं में. मैं ने अपनी सुविधानुसार कामर्स विषय लिया और उस ने आर्ट. अब उसे आई.ए.एस. बनने की धुन सवार थी.

‘आप को इस तरह विषय नहीं बदलना चाहिए था,’  मौका मिलते ही एक दिन मैं ने उसे समझाना चाहा.

‘मैं आई.ए.एस. बनना चाहता हूं और गणित उस के लिए ठीक विषय नहीं है. पिछले सालों के रिजल्ट देख लो, साइंस की तुलना में आर्ट वालों का चयन प्रतिशत ज्यादा है.’

मैं उस का तर्क सुन कर खामोश हो गई थी. मेरी बला से, कुछ भी पढ़ो, मुझे क्या करना है लेकिन मैं ने जल्द ही पाया कि मैं उस की तरफ खिंचती जा रही हूं. धीरेधीरे वह मेरे सपनों में भी आने लगा था, मेरे वजूद का एक हिस्सा सा बनता जा रहा था. अकेले में मिलने, उस से बातें करने को दिल चाहता था. समझ नहीं पा रही थी कि मुझे उस से प्यार होता जा रहा है या फिर यह उम्र की मांग है.

वह मेरे सपनों का राजकुमार बन गया था और एक शाम तो मेरे सपनों को एक आधार भी मिल गया था. आंटीजी बातों ही बातों में मेरी मम्मी से बोली थीं, ‘मन में एक बात आई थी, आप बुरा न मानें तो कहूं?’

‘कहिए न,’ मम्मी ने उन्हें हरी झंडी दे दी.

‘आप अपनी बेटी मुझे दे दीजिए, सच कहती हूं मैं उसे अपनी बहू नहीं बेटी बना कर रखूंगी,’ यह सुन मम्मी खामोश हो गई थीं. इतना बड़ा फैसला पापा से पूछे बगैर वह कैसे कर लेतीं. उन्हें खामोश देख कर और आगे बोली थीं, ‘नहीं, जल्दी नहीं है, आप सोचसमझ लीजिए, भाई साहब से भी पूछ लीजिएगा, मैं तो कमल के पापा से पूछ कर ही आप से बात कर रही हूं. कमल से भी बात कर ली है, उसे भी स्नेह पसंद है.’

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उस रात मम्मीपापा में इसी बात को ले कर फिर तकरार हुई थी.

‘क्या कमी है कमल में,’ मम्मी पापा को समझाने में लगी हुई थीं, ‘पढ़नेलिखने में होशियार है, कल को आई.ए.एस. बन गया तो अपनी बेटी राज करेगी.’

‘तुम समझती क्यों नहीं हो,’ पापा ने खीजते हुए कहा था, ‘अभी वह पढ़ रहा है, अभी से बात करना उचित नहीं है. वह आई.ए.एस. बन तो नहीं गया न, मान लो कल को बन भी गया और उसे हमारी स्नेह नापसंद हो गई तो?’

‘आप तो बस हर बात में मीनमेख निकालने लगते हैं, कल को उस की शादी तो करनी ही पड़ेगी, दोनों बच्चों को पढ़ालिखा कर सेटल करना होगा, कहां से लाएंगे इतना पैसा? आज जब बेटी का सौभाग्य खुद चल कर उस के पास आया है तो दिखाई नहीं पड़ रहा है.’

पापा हमेशा की तरह मम्मी से हार गए थे और उन का हारना मुझे अच्छा भी लग रहा था. वह बस, इतना ही बोले थे, ‘लेकिन स्नेह से भी तो पूछ लो.’

‘मैं उस की मां हूं. उस की नजर पहचानती हूं, फिर भी आप कहते हैं तो कल पूछ लूंगी.’

दूसरे दिन जब मम्मी ने पूछा तो मैं शर्म से लाल हो गई थी, चाह कर भी हां नहीं कह पा रही थी. मैं ने शरमा कर अपना चेहरा झुका लिया था. वह मेरी मौन स्वीकृति थी. फिर क्या था, मैं एक सपनों की दुनिया में जीने लगी थी. जब भी वह हमारे घर आता तो छोटे भाई मुझे चिढ़ाते, ‘दीदी, तुम्हारा दूल्हा आया है.’

देखते ही देखते 2 साल का समय गुजर गया, मैं ने भी हायर सेकंडरी पास कर उसी कालिज में दाखिला ले लिया था जिस में कमल पढ़ता था. 1 साल तक एक ही कालिज में पढ़ने के बावजूद हम कभी अकेले कहीं घूमनेफिरने नहीं गए. बस, घर से कालिज और कालिज से सीधे घर. ऐसा नहीं था कि मैं उसे मना कर देती, लेकिन उस ने कभी प्रपोज ही नहीं किया. और मुझे लड़की का एक स्वाभाविक संकोच रोकता था.

ग्रेजुएशन पूरी होने के बाद उसे कंपीटीशन की तैयारी के लिए इलाहाबाद जाना था. सुनते ही मैं सकते में आ गई. उसे रोक भी नहीं सकती थी और जाते हुए भी नहीं देख सकती थी. जिस शाम उसे जाना था उसी दोपहर को मैं उस के घर पहुंची थी. वह जाने की तैयारी कर रहा था. आंटीजी रसोई में थीं. मैं ने पूछा था, ‘मुझे भूल तो न जाओगे?’

उस ने कोई जवाब नहीं दिया था, जैसे मेरी बात सुनी ही न हो. उस की इस बेरुखी से मेरी आंखें भर आई थीं. उस ने देखा और फिर बोला था, ‘यदि कुछ बन गया तो नहीं भूलूंगा और यदि नहीं बन पाया तो शायद…भूल भी जाऊंगा,’ सुनते ही मैं वहां से भाग आई थी.

लगभग 4 माह बाद वह इलाहाबाद से वापस आया था. बड़ा परिवर्तन देखा. हेयर स्टाइल, बात करने का ढंग, सबकुछ बदल गया था. एक दिन कमल ने कहा था, ‘मेरे साथ फिल्म देखने चलोगी?’

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‘क्या,’ मुझे आश्चर्य हुआ था. मन में एक तरंग सी दौड़ गई थी.

‘लेकिन बिना पापा से पूछे…’

‘ओह यार, पापा से क्या पूछना… आफ्टर आल यू आर माई वाइफ…अच्छा ठीक है, मैं पूछ भी लूंगा.’

कमल ने पापा से क्या कहा मुझे नहीं मालूम पर पापा मान गए थे. वह शाम मेरी जिंदगी की एक यादगार शाम थी. 3 से 6 पिक्चर देखी. ठंड में भी हम दोनों ने आइसक्रीम खाई. लौटते समय मैं ने उस से कहा था, ‘तुम्हें इलाहाबाद पहले ही जाना चाहिए था.’

समय गुजरता गया. मैं भी ग्रेजुएट हो गई. सुनने में आया कि कमल का चयन मध्य प्रदेश पी.सी.एस. में नायब तहसीलदार की पोस्ट के लिए हो गया था, लेकिन उस ने नियुक्ति नहीं ली. उस का तो बस एक ही सपना था आई.ए.एस. बनना है. 2 बार उस ने मुख्य परीक्षा पास भी की लेकिन इंटरव्यू में बाहर हो गया.

मेरे पापा का ग्वालियर तबादला हो गया. एक बार फिर हम लोगों को अपना पुराना शहर छोड़ना पड़ा. अंकल और आंटी दोनों ही स्टेशन तक छोड़ने आए थे.

मेरी पोस्ट गे्रजुएशन भी हो चुकी थी, अब तो पापा को सब से अधिक चिंता मेरी शादी की थी. जब भी यू.पी.एस.सी. का रिजल्ट आता वह पेपर ले कर घंटों देखा करते थे. मम्मी उन्हें समझातीं, ‘जहां इतने दिनों तक सब्र किया वहां एकाध साल और कर लीजिए.’

पापा गुस्से में बोले थे, ‘ये सब तुम्हारी ही करनी का फल है. बड़ी दूरदर्शी बनती थीं न…अब भुगतो.’

‘आप वर्माजी से बात तो कीजिए, कोई अपनी जबान से थोड़े ही फिर जाएगा, शादी कर लें, लड़का अपनी तैयारी करता रहेगा.’

‘तुम मुझे बेवकूफ समझती हो,’ पापा गुस्से से चीखे थे, ‘उस सनकी को अपनी बेटी ब्याह दूं, अच्छीखासी पोस्ट पर सलेक्ट हुआ था, लेकिन नियुक्ति नहीं ली. यदि कल को कुछ नहीं बन पाया तो?’

‘ऐसा नहीं है. वह योग्य है, कुछ न कुछ कर ही लेगा. आप की बेटी भूखी नहीं मरेगी.’

पापा दूसरे दिन आफिस से छुट्टी ले कर जबलपुर चले गए. मैं धड़कते हृदय से उन की प्रतीक्षा कर रही थी. 2 दिन बाद लौट कर आए तो मुंह उतरा हुआ था. आते ही आफिस चले गए. पूरे दिन मां और मैं ने प्रतीक्षा की. पापा शाम को आए तो चुपचाप खाना खा कर अपने बेडरूम में चले गए. उन के पीछेपीछे मम्मी भी. मैं उन की बात सुनने के लिए बेडरूम के दरवाजे के ही पास रुक गई थी.

‘क्या हुआ? क्या उन्होंने मना कर दिया?’

‘नहीं…’  पापा कुछ थकेथके से बोले थे, ‘वर्माजी तो आज भी तैयार हैं, लेकिन लड़का नहीं मान रहा है, कहता है आई.ए.एस. बनने के बाद ही शादी करूंगा. हां, वर्माजी ने थोड़े दिनों की और मोहलत मांगी है, लड़के को समझा कर फोन करेंगे.

Crime Story in Hindi: वह नीला परदा- भाग 8: आखिर ऐसा क्या देख लिया था जौन ने?

Writer- Kadambari Mehra

पूर्व कथा

एक रोज जौन सुबहसुबह अपने कुत्ते डोरा के साथ जंगल में सैर के लिए गया, तो वहां नीले परदे में लिपटी सड़ीगली लाश देख कर वह बुरी तरह घबरा गया. उस ने तुरंत पुलिस को सूचना दी. बिना सिर और हाथ की लाश की पहचान करना पुलिस के लिए नामुमकिन हो रहा था. ऐसे में हत्यारे तक पहुंचने का जरिया सिर्फ वह नीला परदा था, जिस में उस लड़की की लाश थी. इंस्पैक्टर क्रिस्टी ने टीवी पर वह नीला परदा बारबार दिखाया, मगर कोई सुराग हाथ नहीं लगा.

एक रोज क्रिस्टी के पास किसी जैनेट नाम की लड़की का फोन आया, जो पेशे से नर्स थी. वह क्रिस्टी से मिल कर नीले परदे के बारे में कुछ बताना चाहती थी.

जैनेट ने क्रिस्टी को जिस लड़की का फोटो दिखाया उस का नाम फैमी था. फोटो में वह अपने 3 साल के बेटे को गाल से सटाए बैठी थी. जैनेट ने बताया कि वह छुट्टियों में अपने वतन मोरक्को गई थी. क्रिस्टी ने मोरक्को से यहां आ कर बसी लड़कियों की खोजबीन शुरू की. आखिरकार क्रिस्टी को फहमीदा नाम की एक महिला की जानकारी मिली. क्रिस्टी फहमीदा के परिवार से मिलने मोरक्को गया. वहां फहमीदा की मां ने लंदन में बसे अपने

2-3 जानकारों के पते दिए. क्रिस्टी को लारेन नाम की औरत ने बताया कि फहमीदा किसी मुहम्मद नाम के व्यक्ति से प्यार करती थी. वह उस के बच्चे की मां बनने वाली थी.

एक रोज लारेन ने क्रिस्टी को बताया कि उस ने मुहम्मद को देखा है. क्रिस्टी और लारेन जब उस जगह पहुंचे तो पता चला कि यह दुकान मुहम्मद की नहीं, बल्कि साफिया की थी, जिस के दूसरे पति का नाम नासेर था. अब सवाल यह उठ रहा था, आखिर साफिया दुकान बेच कर कहां चली गई?

एक रोज डेविड एक कबाब की दुकान पर गया तो अचानक दुकान के मालिक को देख उस के दिमाग में लारेन का बताया हुलिया कुलबुलाने लगा.

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नासेर के बारे में एकएक कर के जो बातें उजागर हो रही थीं, वे उसे कठघरे की तरफ धकेलती जा रही थीं. कांस्टेबल एंडी ने नासेर का पीछा किया तो मालूम पड़ा कि उस की बीवी और 3 बच्चे वहीं रहते हैं. डेविड ने एंडी को उस की बीवी का पीछा करने की सलाह दी. एंडी ने उस की बीवी, दुकान व बच्चों का ब्योरा डेविड को दिया. डेविड ने स्कूल से बच्चे का बर्थसर्टिफिकेट निकलवाया तो कई बातें उजागर हो गईं. डेविड ने नासेर से फहमीदा नाम की औरत का जिक्र किया, तो उस के चेहरे का रंग उड़ गया. मौयरा ने स्कूल के हैडमास्टर की मदद से बच्चे को फैमी का फोटो दिखाया तो बच्चे ने तुरंत उसे पहचान लिया.

अब आगे पढ़ें…

शकूर की तारीफें सुन कर साफिया बहुत खुश हुई. मौयरा ने कहा कि वह उस के घर के वातावरण से परिचित होना चाहती है. साफिया ने झट से उसे बुलावा दे डाला, अगले ही दिन सुबह लंच से पहले.

घर बड़े करीने से सजा था. साफिया ने  मौयरा को बताया कि वह 2 साल पहले ही यहां आई है. इस से पहले वह पति की दुकान के ऊपर फ्लैट में रहती थी. वह दुकान ग्रोसरी की थी.

उस का पिता टर्की से आया था और उस ने काफी अच्छा पैसा बनाया लंदन में. उसी दौरान उस ने एक मोरक्कन मुसलमान से शादी कर ली. वह भी अच्छे घरपरिवार से था, मगर उसे सिगरेट पीने की बुरी लत थी. इसलिए

वह फेफड़े के कैंसर से मर गया. उन की 3 बेटियां थीं.

पति के मरने के बाद साफिया ने उस की फलसब्जी की दुकान संभाली. मगर 3 बच्चों को पालना और दुकान चलाना काफी भारी पड़ता था. कुछ साल बाद उस के पति के रिश्ते का भाई अली नासेर स्टूडैंट वीजा पर लंदन आया. पति का भाई होने के नाते साफिया ने उसे घर में रखा. बाद में उस से शादी कर ली. अली से भी उसे 2 बेटियां हुईं. अली हर हालत में एक लड़का चाहता था ताकि वह अपनी पुश्तैनी जायदाद का हक न खो दे.

‘‘फिर?’’ मौयरा ने पूछा.

साफिया थोड़ा अटकी फिर सोच कर बोली, ‘‘फिर क्या, शकूर आ गया, बस.’’

साफिया की कहानी हूबहू लारेन की बताई कहानी से मिलती थी. मौयरा ने अपने बैग में रखे टेपरिकौर्डर पर उस की सारी बातें रिकौर्ड कर ली थीं.

मौयरा ने आगे पूछा, ‘‘तुम किसी मुहम्मद नाम के आदमी को जानती हो?’’

‘‘वह तो मेरा पहला पति था, जो मर गया.’’

‘‘अली मुहम्मद?’’

‘‘नहीं, मुहम्मद जब्बार नासेर. यह नाम था उस का.’’

‘‘किसी अब्दुल नाम के बच्चे को जानती हो, वह भी मोरक्को से आया है?’’

‘‘नहीं, यहां कोई मोरक्कन नहीं है.’’

‘‘उस की मां का नाम फहमीदा है.’’

‘‘नहीं, मैं नहीं जानती.’’

साफिया की बातचीत एकदम निश्छल लगी.

‘‘तुम्हारी बड़ी बेटियां?’’

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साफिया उदासी को छिपाते हुए बोली, ‘‘वे अलग रहती हैं. दरअसल, मेरे पिता ने उन के लिए अलग से बिजनैस शुरू करवा दिया और फ्लैट खरीद कर दे दिया. दरअसल, ग्रोसरी ही हमारा पुराना धंधा है, जिसे अब वे तीनों मिल कर चलाती हैं और मैं भी वहां जा कर उन की मदद कर आती हूं. ये तीनों छोटे बच्चे मेरे दूसरे पति नासेर की जिम्मेदारी हैं. अब कोई तकरार नहीं.’’

‘‘क्या पहले तकरार होती थी?’’

साफिया मुसकरा कर चुप हो गई.

‘‘नासेर क्या करता है?’’

‘‘उसी दुकान में है मगर डोनर कबाब बेचता है.’’

‘‘फ्लैट में कौन रहता है?’’

‘‘कोई नहीं, पिछले क्रिसमस के बाद उस ने उसे रंगरोगन करवाया था मगर खाली ही पड़ा है.’’

मौयरा ने सारी रिपोर्ट क्रिस्टी को दे दी.

क्रिस्टी सावधान था. लारेन को चकमा दे कर दुकान से निकलने के बाद नासेर का अगला कदम होगा कि वह भाग जाए. क्रिस्टी

ने चारों तरफ से नाकेबंदी कर दी और वह सीधा दुकान पहुंचा. लारेन भी उस के साथ

थी. लारेन ने ऐसा दिखावा किया जैसे वह क्रिस्टी की बीवी हो और वह नासेर को पहचानती ही न हो.

मगर उसे देख कर नासेर का रंग उड़ गया.

क्रिस्टी ने उस से पूछा, ‘‘क्या तुम हमें पसंद नहीं करते?’’

नासेर संभल कर सामान्य होते हुए बोला, ‘‘नहीं, वह बात नहीं. दरअसल, आप की मित्र को देख कर मुझे किसी और का भ्रम हो गया था. आप गोरी चमड़ी के लोग न कभीकभी एकदूसरे से काफी मिलते हो.’’

‘‘मुझे भी तुम सारे मोरक्कन एकजैसे लगते हो.’’

सुन कर नासेर जोरजोर से हंसने लगा, मगर उस की घबराहट छिपी नहीं रही. क्रिस्टी ने लारेन को अभी तक नहीं बताया था कि फैमी गायब थी. मगर उस का शक एकदम पक्का हो गया कि नासेर अपराधी है. सिवा उसे हिरासत में ले कर सवालजवाब करने के, क्रिस्टी के पास दूसरा चारा नहीं बचा था.

नासेर और साफिया दोनों की इंक्वायरी अलगअलग तरीकों से की गई थी. दोनों को जरा भी शक नहीं हुआ कि यह सब तहकीकात एक ही गुत्थी को सुलझाने का प्रयास था. साफिया ने नासेर को मनोवैज्ञानिक टीचर के बारे में सब बताया मगर नासेर अपनी ही परेशानी में उलझा रहा.

लारेन को देखने के बाद वह बदहवास हो गया था. हालांकि लारेन ने उसे जरा भी यह एहसास नहीं होने दिया कि वह उसे पहचानती है. साफिया से बहाना बना कर वह अगले दिन चंपत हो गया. साफिया अपने दूर के किसी रिश्तेदार को दुकान खोलने के लिए कह कर स्वयं अपनी दुकान में चली गई.

क्रिस्टी इस के लिए तैयार था. जिस टे्रन से नासेर भागा वह उसी पर चढ़ गया. उस की तैनात की हुई पुलिस फोर्स ने उसे नासेर के स्टेशन पर गाड़ी पकड़ने की इत्तला तुरंत दे दी थी. अगले स्टेशन पर क्रिस्टी उस में चढ़ा और ऐसा दिखाया, जैसे यह इत्तफाक हो. नासेर उसे देख कर बेबसी से मुसकराया और उस से पूछा कि आप कहां तक जाएंगे?

क्रिस्टी ने कहा कि जहां तक यह टे्रन जाएगी.

मुझे तो पास ही जाना है, कह कर नासेर फटाफट अगले ही स्टेशन पर उतर गया.

मगर जैसे ही वह उतरा, क्रिस्टी ने इंटरकाम पर पुलिस को आगाह कर दिया. लंदन के बाहरी इलाकों में छोटे शहरों में उतरने वाले इक्केदुक्के लोग ही होते हैं. नासेर का पीछा करना आसान नहीं तो दुष्कर भी नहीं था.

State Of Siege Temple Attack Review: निराश करती हैं अक्षरधाम हमले पर बनी ये फिल्म

रेटिंगः दो़ स्टार

निर्माता: अभिमन्यू सिंह

लेखकः  विलियम बॉर्थविक और सिमॉन

फैंटाउजो

निर्देशकः केन घोष

कलाकारः अक्षय खन्ना, विवेक दहिया, प्रवीन डब्बास, समीर सोनी, गौतम रोड़े,मीर

सरवर,मंजरी फणनीस, अक्षय ओबेरॉय और अभिमन्यु सिंह

अवधि: एक घंटा पचास मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5

2002 में गुजरात के अक्षर धाम मंदिर पर जो आतंकवादी हमला हुआ था, उसी सत्य घटनाक्रम से प्रेरित होकर निर्देशक केन घोष व क्रिएटर अभिमन्यू सिंह एक फिल्म ‘‘स्टेट आफ सीएज’’लेकर आए हैं. यॅूं तो निर्माता व निर्देशक की तरफ से इसे काल्पनिक कहानी बतायी गयी है.

कहानीः

फिल्म की कहानी 2001 से शुरू होती है जहां एनएसजी कमांडो मेजर हनुत सिंह(अक्षय खन्ना) अपनी टीम के साथ मिनिस्टर की बेटी को बचाने जाते हैं. रोहित बग्गा (विवेक दहिया) जो हनुत को खास पसंद नहीं करता, जबकि समीर (गौतम रोड़े) हनुत का अच्छा दोस्त है.यहां मंत्री की बेटी को बचाने की मुहीम में अपने वरिष्ठ कर्नल एम.एस. नागर (प्रवीण डबास) के आदेश को नजरंदाज एनएसजी कमांडो मेजर हनुत सिंह पाकिस्तानी आतंकवादी अबू हाजमा को जिंदा पकड़ने के चक्कर में अपने एक साथी को खोने के साथ ही खुद घायल हो गए थे. अबू हाजमा को पकड़ नही पाए,जबकि बिलाल भारत की जेल पहुंच चुका था.अब अबू हाजमा नए आतंकवादियों को तैयार कर 2002 में फारुख उमर, हनीफ सहित चार लोगों को गुजरात में अहमदाबाद के कृष्णा धाम मंदिर पर हमला करने भेजता है, उसी वक्त वहीं एक होटल में मंत्री चोकसी का कार्यक्रम हो रहा है, जहां सारी एनएसजी फौज लगी हुई है. मंदिर के अंदर पुजारी, सैकड़ों भक्त के साथ साथ मंदिर के ऑडीटोरियम में स्कूल के कई बच्चे व षिक्षक मौजूद हैं. तभी चार आतंकवादी पहुंचकर अंधाधुंध गोलियां बरसाने लगते हैं. चारों आतंकवादी मंदिर के अंदर अलग अलग जगह पर पहुंचकर लोगों को जीवित बचे लोगों को बंधक बना लेते हैं.

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उसके बाद पाकिस्तान से अबू हाजमा भारत सरकार से बिलाल की रिहाई की मांग करता है. कृष्णा धाम मंदिर में लोगों के मरने की खबरें सुनकर भारत के प्रधानमंत्री बिलाल को छोड़ने का ऐलान कर देते हैं.उधर एनएसजी कमांडों के मेजर हनुत सिंह जिद करके कुछ साथियों के साथ कृष्णा धाम मंदिर पहुॅचकर कुछ लोगों को जिंदा मंदिर से बाहर निकालने में कामयाब होने के साथ ही दो आतंकवादियों को खत्म करने में सफल होते हैं. पर फिर मेजर हनुत सिंह घायल हो जाते है.कर्नल सिंह अब हनुत सिंह की जगह दूसरे कमांडो को नेतृत्व करने की जिम्मेदारी देते है.मगर हालात बिगड़ते देख हनुत सिंह पुनः मंदिर के अंदर जाते हैं.अंततः अन्य दो आतंकवादी मारे जाते हैं, उधर उरी के आसपास के एलओसी पर बिलाल को छोड़ने गए सैनिकों इसकी खबर मिलती है, तो वह बिलाल से वापस चलने के लिए कहते हंै,पर वह पाकिस्तान की तरफ भागता है, तब एक सैनिक उसे मौत के घाट उतार देता है.

लेखन व निर्देशन:

लेखन व निर्देशन की अति कमजोर कड़ियों के चलते फिल्म अपनी दमदार शुरूआत के चंद मिनटों बाद ही फुसफुसा पटाखा हो जाती है. फिल्म में निर्देशक केन घोष पूरी तरह से भ्रमित है,ऐ सा नहीं कहा जा सकता बल्कि उन्होंने जानबूझकर ऐसे दृष्य गढ़े हैं. कहानी जब गुजरात पहुंचती है, तो लेखक व निर्देषक ने दिखाया है कि मंदिर के अंदर आतंकवादियों के चंगुल से अपने बेटे को बचाने के लालच में मंदिर प्रांगण के पास दुकान चला रहा एक हिंदू पिता आतंकवादियों को एनसीजी कमांडों की हर गतिविधि की जानकारी फोन पर देते हैं.

आखिर इस तरह के दृश्यों से वह क्या संकेत देना चाहते हैं? इतना ही नही भारत के किसी भी एनएसजी कमांडो के शौर्य के सामने एक भी आतंकवादी ठहर नही सकता, मगर फिल्मकार ने एक आतंकवादी के सामने मेजर हनुत सिंह को कमजोर दिखाया,क्या इस पर हर किसी को आपत्ति होनी चाहिए? फिल्म में भारत व पाकिस्तान की राजनीति को भी गलत अंदाज में पेष किया गया है. 19 वर्ष पहले अक्षरधाम पर हुए आतंकवादी हमले ने पूरे देष में भूकंप ला दिया था,मगर केन घोष ने उस पर फिल्म तो बनायी,मगर डरकर ‘अक्षरधाम’को ‘कृष्णधाम’ कर दिया. ऐसा क्यो?इसकी एक मात्र वजह यह है कि वर्तमान समय में हमारे फिल्मकार सच कहने की हिम्मत खो चुके हैं.2002 के आतंकवादी हमले मे तीस लोगो ने अपनी जिंदगी खोयी थी, ऐसे में कोई भी फिल्मकार इसे कमतर कैसे आंका सकता है. तभी तो केन घोष ने मध्य का रास्ता चुनते हुए फिल्म में ‘अच्छा मुस्लिम’और ‘देषद्रोही हिंदू’को मिश्रित कर दिया. फिल्म में मंदिर का एक मुस्लिम सफाई कर्मी मोहसिन (चंदन रॉय), का आतंकवादियो के सामने दिया गया मानवता का भाषण सिर्फ निराष ही करता है. मोहसिन, एक हत्यारे (अभिलाष चैधरी) से कहता है- ‘‘मैं एक मुसलमान हूं लेकिन मैं आपके जैसा नहीं हूं,’’ फिल्म ‘‘स्टेट आफ सीजः मंदिर अटैक’’की षुरूआत में जब एक वतन परस्त कमांडो मेजर हनुत सिंह अपने वरिष्ठ के आदेष का उल्लंघन कर अपने चंद साथियों के सेाथ मिशन पर आगे बढ़ता है, तो लगता है कि फिल्म सही दिशा में जा रही है. मगर दस मिनट बाद कहानी गुजरात पहुंचते ही फिल्म धीरे धीरे बिखरती चली जाती है.

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फिल्म का क्लायमेक्स बहुत ढीला है. फिल्म के कुछ दृश्य अविश्वसनीय है. मसलन-एनएसजी कमांडो जब अपनी ड्यूटी पर है, तब वह अपना मोबाइल फोन साथ में ले जाते हैं और अपनी पत्नी से मोबाइल पर बात करते हैं. पर क्या ऐसा संभव है? कहानी सत्य घटनाक्रम पर आधारित होने के बावजूद उसका पूरा मुंबई मसाला फिल्मीकरण कर दिया गया है. लेखक व निर्देशक ने हनुत सिंह सहित कई किरदारों को सही ढंग से गढ़ा ही नही है.फिल्म में लोग मरते हैं,गोलियां चलती हैं, मगर दर्शकों के मन में आतंकवादियों के प्रति गुस्से का भाव नही पैदा कर पाती.

फिल्म में मानवता का संदेष भी दिया गया है.मंदिर का ही एक पुजारी अंत में मृत आतंकवादियों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हुए एक संवाद कहते हैं-‘‘हिंसा हर समाज को तोड़ने का काम करती है.’’मगर यह फिल्म सांप्रदायिका संघर्ष रोकने का कोई संदेश नहीं देती.

अभिनयः

एनएसजी कमांडो हनुत सिंह के किरदार में अक्षय खन्ना ने बेहतरीन अभिनय किया है.मगर लेखक व निर्देषक ने उनके चरित्र को सही ढंग से गढ़ा ही नही. अक्षय खन्ना उत्कृष्ट कलाकार हैं.ऐसे में उन्हे किरदार चयन करते समय सावधानी बरतनी चाहिए. अक्षय खन्ना के अलावा फिल्म के सभी कलाकारों ने महज अपनी ड्यूटी ही निभायी है.

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लोग हैं कि जीने नहीं देते: बॉलीवुड एक्ट्रेसेस को टारगेट करते लोग

साल 1991 में आई फिल्म ‘लम्हे’ एक ऐसी प्रेम कहानी थी, जिसे भारतीय दर्शकों ने सिरे से नकार दिया था. वजह, हीरो अनिल कपूर श्रीदेवी से प्यार करता है, पर वह किसी दूसरे आदमी से शादी कर लेती है.

बाद में जब श्रीदेवी और उस के पति की मौत हो जाती है तो उन की बेटी, जो श्रीदेवी ही है, अपने से कहीं ज्यादा बड़े अनिल कपूर से प्यार करने लगती है. पहले तो अनिल कपूर को श्रीदेवी की यह हरकत बचकानी लगती है, पर आखिर में वह उस से शादी कर लेता है.

दर्शकों को यही बेमेल प्यार रास नहीं आया और उन्होंने यश चोपड़ा की इस बेहतरीन फिल्म को उतनी ज्यादा कमाई नहीं करने दी, जितनी उम्मीद की जा रही थी. हालांकि, इस फिल्म को नैशनल अवार्ड के साथसाथ 5 फिल्म फेयर अवार्ड भी मिले थे.

यह तो हुई फिल्मी बात और कई साल पुरानी भी, पर आज जब हम और ज्यादा एडवांस हो गए हैं, तब भी ऐसे किसी बेमेल प्यार को मन से स्वीकार नहीं कर पाते हैं.

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अर्जुन कपूर और मलाइका अरोड़ा को ही ले लें. मलाइका अरोड़ा तलाकशुदा हैं और उम्र में अर्जुन कपूर से बड़ी हैं, इस के बावजूद वे दोनों साथ हैं. पर जनता है कि उन्हें जीने नहीं देती है. हाल ही में जब वे दोनों एक फोटो में साथसाथ दिखे, तो लोगों ने उन्हें सोशल मीडिया पर खूब भलाबुरा कहा.

दरअसल, किसी ने अर्जुन कपूर और मलाइका अरोड़ा के एक फोटो को अपने इंस्टाग्राम पर शेयर किया था, जिस में वे दोनों कार में बैठते दिख रहे थे. इस फोटो पर लोगों ने इतने घटिया कमैंट्स किए कि बहुत से मैसेज को तो पढ़ा भी नहीं जा सकता.

इस जोड़े को ‘चप्पल से मारने’ की बात लिखी गई, तो कुछ ने अर्जुन कपूर को ‘घर तोड़ू’, ‘बुड्ढी के साथ अर्जुन बुड्ढा हो गया’, ‘मांबेटे’ जैसे घटिया कमैंट्स किए.

भले ही मलाइका अरोड़ा बिंदास हो कर अपनी जिंदगी जीती हैं और लोगों की वाहियात बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देती हैं, पर उन में भी एक औरत का दिल है और साथ ही वे मां भी हैं, इसलिए ऐसी बातों का उन के मन पर बुरा असर जरूर पड़ता है, तभी तो उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि आज भी भारतीय समाज में तलाकशुदा औरत का आगे बढ़ना बहुत मुश्किल है, जबकि मर्दों के लिए नए रिश्ते में जाना और नौर्मल जिंदगी जीना बहुत आसान है.

मलाइका अरोड़ा की यह बात सौ फीसदी सच है कि भारतीय दकियानूसी समाज में किसी तलाकशुदा औरत का अपने मन से जिंदगी गुजरना बड़ा ही मुश्किल काम है. पर हमारे यहां तो उस औरत को भी ताने सुना दिए जाते हैं, जो न तो तलाकशुदा है और न ही बिना शादी किए किसी मर्द के साथ रहती है.

खूबसूरत हीरोइन प्रियंका चोपड़ा की शादी को भी लोग आज तक नहीं पचा पाए हैं. उन्होंने हौलीवुड के पौप स्टार और फिल्म कलाकार निक जोनस से शादी की थी, जो उम्र में उन से काफी छोटे हैं. लोगों को यह बात भी हजम नहीं हुई और उन्होंने उन्हें ‘ग्लोबल स्कैम आर्टिस्ट’ कहा, तो कुछ ने इस जोड़ी की ‘मांबेटे’ से तुलना कर दी. कुछ ने तो यह तक कहा कि पीसी यानी प्रियंका चोपड़ा ने निक जोनस के ‘पैसे देख कर’ शादी की है.

ऐसी ही कई ऊलजुलूल बातों पर प्रियंका चोपड़ा का कहना है कि अपने से उम्र में छोटे लड़के से शादी करने पर उन्हें आज भी बातें सुनने को मिल जाती हैं. फिलहाल वे खुद को इस से प्रभावित नहीं होने देतीं और अपने व निक के रिश्ते को बेहतर बनाने पर फोकस करती हैं.

ऐसा क्यों होता है कि समाज किसी तलाकशुदा या उम्र में बड़ी औरत या लड़की को अपनी मरजी से जीवनसाथी चुनने की आजादी नहीं देता है, जबकि कानून उन के साथ होता है? यहां पर आजादी से मतलब यह है कि लोगों को दूसरों की जिंदगी में  झांकने की इजाजत किस ने दी?

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इस सवाल का जवाब यह है कि लोग खासकर मर्द समाज किसी ऐसी औरत या लड़की को हंसते हुए नहीं देख सकता, जो उन की नजर में ‘पवित्र’ नहीं है. विधवा, तलाकशुदा या उम्र में बड़ी लड़की को इतने ज्यादा गुणों वाला जीवनसाथी कैसे मिल सकता है, यह बात मर्दों को हजम ही नहीं होती है.

एक और मामला देखते हैं, जिस में लड़की न तलाकशुदा है, न विधवा है और न ही उस ने अपने से कम उम्र के मर्द से शादी की है, पर फिर भी लोगों ने सोशल मीडिया पर खूब खरीखोटी सुनाई.

टैलीविजन सीरियल के बाद फिल्मों में अपनी जगह बनाने वाली अंकिता लोखंडे को तो आप जानते ही होंगे, जो एक समय में फिल्म कलाकार सुशांत सिंह राजपूत की गर्लफ्रैंड रही थीं और उन की मौत के बाद वे बहुत दुखी भी हुई थीं.

तब लोगों ने उन की खूब तारीफ की थी, पर बाद में जब अंकिता ने अपने बौयफ्रैंड के साथ सोशल मीडिया पर कुछ तसवीरें शेयर कीं, तब लोगों ने उन्हें आड़े हाथ लेते हुए कहा, ‘सुशांत को इतनी जल्दी भूल गई’, ‘इसलिए सुशांत ने छोड़ दिया था’, ‘सब नौटंकी थी क्या?’ और भी न जाने क्याक्या सुनाया था.

अगर आज अंकिता लोखंडे अपने प्रेमी के साथ खुश हैं, तो सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद अंकिता का उन के लिए शोक मनाना नौटंकी कैसे हो सकता है? वैसे भी तब उन दोनों के बीच ऐसा कोई रिश्ता नहीं था कि वे किसी तरह की नौटंकी करतीं.

उन्होंने सुशांत के साथ अच्छाबुरा वक्त गुजारा था, जिस की यादें वे जिंदगीभर नहीं भूलेंगी और आगे भी सुशांत को ले कर बोलने के लिए आजाद हैं और उन की यह आजादी सोशल मीडिया के चंद चिरकुट छीन नहीं सकते हैं.

ये वे ही लोग होते हैं, जिन की नजर में कोई मर्द बुढ़ापे में भी सेहरा बांध ले तो वह किसी अबला का सहारा कहलाता है. दिलीप कुमार, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, कबीर बेदी, मिलिंद सोमन, शाहिद कपूर, संजय दत्त में क्या समानता है? इन सब की पत्नी उम्र में इन से काफी छोटी हैं. पर किसी मर्दवादी ने चूं तक नहीं की. मिलिंद सोमन और अंकिता कंवर में तो 29 साल का अंतर है, फिर भी वे दोनों एक हुए.

दिक्कत यह है कि लोग अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब यह सम झ लेते हैं कि अब उन्हें किसी के बारे में कुछ  भी लिखनेबोलने का हक हो गया है. वे सोशल मीडिया को अपने बाप की जागीर मान लेते हैं और जानबू झ कर ऐसा लिखते हैं, जो सामने वाले को चुभे. उन की भाषा भी वाहियात होती है.

जब कभी कोई आहत सैलेब्रिटी उन्हें जवाब देता है या अपना गुस्सा जाहिर करता है तो उन के मानो पैसे वसूल हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि वे खुद सैलेब्रिटी बन गए हैं, बदले में चार गालियां पड़ गईं तो क्या फर्क पड़ता है.

पर यह सब होता क्यों है? क्यों लोग फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर वगैरह पर अपनी भड़ास निकालते हैं?

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दरअसल, अगर हम अपनी पौराणिक किताबों को खंगालेंगे तो पता चलेगा कि यह तो हमेशा से होता आया है. ‘महाभारत’ में द्रौपदी को चौसर के खेल में बेच दिया जाता है, तो ‘रामायण’ में एक अदना से आदमी के कहने पर राम अपनी पत्नी सीता को दोबारा से अकेली वन में भेज देते हैं.

बहुपत्नी का तब रिवाज था. हारा हुआ राजा अपनी बेटी का ब्याह जीते हुए राजा से कर देता था, फिर चाहे उस की उम्र लड़की से कितनी ही ज्यादा क्यों न हो. बाली ने तो अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी पर ही कब्जा कर लिया था.

इन बड़ीबड़ी किताबों में विधवा, बां झ औरतों को दुखभरी जिंदगी जीनी पड़ती थी. किसी ने व्यभिचार किया तो सजा मर्द के बजाय औरत को दी जाती थी. ऐसी किताबों का आम जनता पर इतना गहरा असर पड़ा कि भारत में कुछ समय पहले तक विधवा विवाह को अच्छा नहीं माना जाता था. कहींकहीं तो उन्हें पति की लाश के साथ जबरन सती कर दिया जाता था, मतलब चिता में जिंदा  झोंक दिया जाता था. बां झ को सामाजिक कामों से दूर रखा जाता था और उन को ‘डायन’ प्रचारित कर मार दिया जाता था.

आज भी भारत के कुछ राज्यों में बाल विवाह आम है, जहां दो बच्चों को उस उम्र में एकदूसरे से बांध दिया जाता है, जब उन्हें भाईबहन के अलावा किसी और रिश्ते की पहचान तक नहीं होती है.

यही वजह है कि जब कोई औरत अपने मन के मुताबिक जिंदगी गुजारना चाहती है तो लोग उस की इज्जत की धज्जियां उड़ाने में लग जाते हैं. फिर वे यह नहीं देखते कि खुद समाज में उन की क्या औकात है. जिन्हें अपने घर और समाज में कोई नहीं पूछता, वे ही सोशल मीडिया पर तीसमार खां बनते हैं.

हमें तो फख्र होना चाहिए अर्जुन कपूर, निक जोनस के साथसाथ उन तमाम मर्दों पर, जो किसी औरत के अतीत को जान कर भी उन्हें अपनी गर्लफ्रैंड, जीवनसाथी बनाते हैं और मर्द व औरत के कद को बराबर कर देते हैं.

GHKKPM: सई की वजह से भवानी छोड़ेगी घर, आएगा धमाकेदार ट्विस्ट

टीवी सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ (Ghum Hai Kisikey Pyaar Meiin) में इन दिनो हाईवोल्टेज ड्रामा चल रहा है. शो में नए-नए ट्विस्ट आ रहे है, जिससे दर्शकों को एंटरटेनमेंट का डबल डोज मिल रहा है.

शो के बिते एपिसोड मे दिखाया गया कि विराट (Neil Bhatt) सई का दोस्त  आजिंक्य को लेकर काफी परेशान हो जाता है. वह सई को समझाता है कि शादी होने के बाद सई को आजिंक्य से दूर रहना चाहिए. सई इस बात से चिढ़ जाती है. शो के अपकमिंग एपिसोड में नया ट्विस्ट आने वाला है.  आइए जानते हैं कहानी के नए एपिसोड के बारे में.

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शो में दिखाया जा रहा है कि पाखी, विराट और सई को साथ देखकर पाखी जल-भून जाती है.  शो के अपकमिंग एपिसोड में यह दिखाया जाएगा कि सई के झूठ बोलने की वजह से घर के लोग सई को खूब सुनाएंगे. निनाद आरोप कहेगा कि एक दिन सई पूरे परिवार को अपनी उंगली पर नचाएगी.

 

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वह ये भी कहेगा कि वो अब सई के साथ एक छत के नीचे नहीं रह सकता. वह किसी वृद्ध आश्रम में चला जाएगा. तो वहीं भवानी और ओमकार भी निनाद के बात से सहमत हो जाएंगे. निनाद को लगेगा कि घर का कोई न कोई सदस्य उसे रोक ही लेगा लेकिन ऐसा नहीं होने वाला है.

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शो के अपकमिंग एपिसोड में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या सई की वजह से भवानी, ओमकार और निनाद घर छोड़ देंगे?

ऑक्सीजन की उपलब्धता के लिए जीनोम सिक्वेंसिंग में यूपी ने पकड़ी रफ्तार

प्रदेश में कोरोना की तीसरी लहर को ध्‍यान में रखते हुए सरकार ने अस्‍पतालों में सभी पुख्‍ता इंतजाम कर लिए हैं. ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के हर जिले में एक-एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र या जिला अस्पताल में ऑक्सीजन जेनरेटर्स युद्धस्‍तर पर लगाए जा रहे हैं. अस्पतालों में नौ हजार से अधिक पीडियाट्रिक आईसीयू (पीकू) बेड तैयार किए जा चुके हैं. योगी सरकार ने निर्णयों से प्रदेश में अब कोरोना की दूसरी लहर पूरी तौर पर नियंत्रित है. दूसरे प्रदेशों के मुकाबले ‘योगी के यूपी मॉडल’ से संक्रमण पर तेजी से लगाम लगी है. कम समय में कोरोना वायरस के नए वेरिएंट जीनोम सिक्वेंसिंग की तेजी से जांच की जा रही है.

केजीएमयू लखनऊ में 109 सैम्पल की जीनोम सिक्वेंसिंग कराई गई. प्राप्त रिपोर्ट के मुताबिक 107 सैंपल में कोविड की दूसरी लहर वाले पुराने डेल्टा वैरिएंट की पुष्टि ही हुई है, जबकि 02 सैम्पल में कप्पा वैरिएंट पाए गए. दोनों ही वैरिएंट प्रदेश के लिए नए नहीं हैं. प्रदेश में ट्रेसिंग से संक्रमण का प्रसार भी न्यूनतम स्‍तर पर है.

जीनोम सिक्वेंसिंग की सुविधा से लैस केन्‍द्र की होगी स्‍थापना

कोरोना वायरस के परीक्षण के लिए प्रदेश में जीनोम सिक्वेंसिंग की सुविधा का लगातार विस्‍तार किया जा रहा है. जल्‍द ही प्रदेश में इस सुविधा से लैस केंद्र की स्थापना भी की जाएगी. सरकार ने पहले ही प्रदेश में जीनोम  सिक्वेंसिंग के दायरे को बढ़ाते हुए बीएचयू,  केजीएमयू,  सीडीआरआई,  आईजीआईबी, राम मनोहर लोहिया संस्‍थान में जीनोम परीक्षण की व्यवस्था की है.

15 अगस्‍त तक यूपी में 536 ऑक्‍सीजन प्‍लांट होंगें क्रियाशील 

यूपी ऑक्सीजन उपलब्धता में आत्मनिर्भर हो रहा है. प्रदेश में 536 ऑक्‍सीजन प्‍लांट पर तेजी से काम किया जा रहा है जिसमें से अब तक  146 ऑक्सीजन प्लांट प्रदेश में क्रियाशील हो चुके हैं. प्रदेश में ऑक्सीजन जेनरेटर के जरिए 15 फीसदी ऑक्सीजन की 3300 बेडों पर आपूर्ति हो रही है. विभिन्न औद्योगिक समूहों की ओर से ऑक्सीजन प्लांट, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर उपलब्‍ध कराने में  मदद की गई है. अनेक औद्योगिक समूहों व इकाइयों ने ‘हेल्थ एटीएम’ उपलब्ध कराने के लिए आगे आए हैं. इन अत्याधुनिक मशीनों के जरिए से लोग बॉडी मास इंडेक्स, ब्लड प्रेशर , मेटाबॉलिक ऐज, बॉडी फैट, हाईड्रेशन, पल्स रेट, हाइट, मसल मास, शरीर का तापमान, शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा, वजन सहित कई पैरामीटर की जांच कर सकते हैं.

जनसंख्या संतुलन के लिए समुदाय केंद्रित कार्यक्रमों की है जरूरत: सीएम योगी

करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में जनसंख्या स्थिरीकरण की जरूरतों को देखते हुए, राज्य सरकार नई जनसंख्या नीति घोषित करने वाली है. वर्ष 2021-30 की अवधि के लिए प्रस्तावित नीति के माध्यम से एक ओर जहां परिवार नियोजन कार्यक्रम के अंतर्गत जारी गर्भ निरोधक उपायों की सुलभता को बढ़ाया जाना और सुरक्षित गर्भपात की समुचित व्यवस्था देने की कोशिश होगी, वहीं, उन्नत स्वास्थ्य सुविधाओं के माध्यम से नवजात मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर को कम करने, नपुंसकता/बांझपन की समस्या के सुलभ समाधान उपलब्ध कराते हुए जनसंख्या स्थिरीकरण के प्रयास भी किए जाएंगे.

नवीन नीति में एक अहम बिंदु 11 से 19 वर्ष के किशोरों के पोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य के बेहतर प्रबंधन के अलावा, बुजुर्गों की देखभाल के लिए व्यापक व्यवस्था करना भी है. 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नवीन जनसंख्या नीति 2021-30 जारी करेंगे.

गुरुवार को लोकभवन में नवीन जनसंख्या नीति 2021-30 के संबंध में प्रस्तुतिकरण का अवलोकन करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि, आबादी विस्तार के लिए गरीबी और अशिक्षा बड़ा कारक है. कतिपय समुदाय में भी जनसंख्या को लेकर जागरूकता का अभाव है. ऐसे में समुदाय केंद्रित जागरूकता प्रयास की जरूरत है. प्रदेश की निवर्तमान जनसंख्या नीति 2000-16 की अवधि समाप्त हो चुकी है. अब नई नीति समय की मांग है.

प्रस्तुतिकरण के अवलोकन करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि जनसंख्या स्थिरीकरण के लिए जागरूकता और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ-साथ सभी जरूरी प्रयास किए जाएं.जागरूकता प्रयासों के क्रम में उन्होंने स्कूलों में “हेल्थ क्लब” बनाये जाने के निर्देश भी दिए. साथ ही, डिजिटल हेल्थ मिशन की भावनाओं के अनुरूप नवजातों, किशोरों और वृद्धजनों की डिजिटल ट्रैकिंग की व्यवस्था के भी निर्देश दिए. उन्होंने कहा कि नई नीति तैयार करते हुए सभी समुदायों में जनसांख्यकीय संतुलन बनाये रखने, उन्नत स्वास्थ्य सुविधाओं की सहज उपलब्धता, समुचित पोषण के माध्यम से मातृ-शिशु मृत्यु दर को न्यूनतम स्तर तक लाने का प्रयास होना चाहिए. नई नीति के उद्देश्यों में सतत विकास लक्ष्य के भावना निहित हो.

इससे पहले अपर मुख्य सचिव चिकित्सा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, अमित मोहन प्रसाद ने मुख्यमंत्री को बताया कि प्रस्तावित जनसंख्या नीति प्रदेश में एनएफएचएस-04 सहित अनेक रिपोर्ट के अध्ययन के उपरांत उपरांत तैयार की जा रही है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-05 की रिपोर्ट जल्द ही जारी होने वाली है.  नवीन नीति जनसंख्या स्थिरीकरण के प्रयासों को तेज करने वाली होगी. इसमें 2026 और 2030 तक के लिए दो चरणों में अलग-अलग मानकों पर केंद्रित लक्ष्य निर्धारित किये गए हैं.

पहली महिला Hawker अरीना खान उर्फ पारो

अगर इंसान चाह ले तो उस के लिए कुछ भी असंभव नहीं है. चाहे वह महिला हो या पुरुष. आज महिलाएं वे सारे काम बखूबी कर रही हैं, जिन पर कभी केवल पुरुष अपना अधिकार समझता था. जमीन से ले कर आसमान तक महिलाएं पुरुषों को मात दे रही हैं. ऐसा ही काम जयपुर की अरीना खान उर्फ पारो ने भी किया है. उन्होंने जो काम किया है, उस की बदौलत आज वह भारत की पहली महिला हौकर मानी जा रही है.

जिस समय पूरा शहर मस्ती भरी नींद में सो रहा होता था, उसी समय सर्दी हो या गरमी या फिर बरसात, 9 साल की अरीना खान उर्फ पारो सुबह के 4 बजे उठ जाती और फिर अपने नन्हेनन्हे पैरों से साइकिल के बड़ेबड़े पैडल मारते हुए राजस्थान के शहर जयपुर के गुलाब बाग सेंटर पर पहुंच जाती थी. गुलाब बाग के सेंटर से अखबार ले कर वह बांटने के लिए निकल जाती. पिछले 20 सालों से उस का यह सिलसिला जारी है.

9 साल की उम्र में पारो ने भले ही यह काम मजबूरी में शुरू किया था, पर आज इसी काम की वजह से वह देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में जानी जाती है. एक तरह से यह काम आज उस की पहचान बन गया है. अपने इसी काम की बदौलत आज वह देश की पहली महिला हाकर बन गई है. पारो जिन  लोगों तक अखबार पहुंचाती है, उन में जयपुर का राज परिवार भी शामिल है.

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अरीना खान की 7 बहनें और 2 भाई हैं. मातापिता को ले कर कुल 11 लोगों का परिवार था. इतने बड़े परिवार की जिम्मेदारी उस के पिता सलीम खान उठाते थे. इस के लिए वह सुबह 4 बजे ही उठ जाते थे. जयपुर के गुलाब बाग स्थित सेंटर पर जा कर अखबार उठाते और जयपुर के बड़ी चौपड़, चौड़ा रास्ता, सिटी पैलेस, चांद पुल, दिलीप चौक, जौहरी बाजार और तिरपौलिया बाजार में घूमघूम कर अखबार बांटते थे.

इस के बाद दूसरा काम करते थे. 12 से 14 घंटे काम कर के किसी तरह वह परिवार के लिए दो जून की रोटी और तन के कपड़ों की व्यवस्था कर रहे थे.

अरीना उस समय 9 साल की थी, जब उस के पिता की तबीयत खराब हुई. दरअसल उन्हें बुखार आ रहा था. बुखार आता तो वह मैडिकल स्टोर से दवा ले कर खा लेते और अपने काम के लिए निकल जाते. उन के पास इतना पैसा नहीं था कि वह अपना इलाज किसी अच्छे डाक्टर से कराते. इस का नतीजा यह निकला कि बीमारी उन पर हावी होती गई. वह साधारण बुखार टाइफाइड बन गया.

एक तो बीमारी, दूसरे मेहनत ज्यादा और तीसरे खानेपीने की ठीक से व्यवस्था न होने की वजह से उन का शरीर कमजोर होता गया. एक दिन ऐसा भी आया जब सलीम खान को चलनेफिरने में परेशानी होने लगी.

अगर सलीम काम पर न जाते तो परिवार के भूखों मरने की नौबत आ जाती. उन्हें अपनी नहीं, अपने छोटेछोटे बच्चों की चिंता थी. वह अपनी दवा कराए या बच्चों का पेट भरे. जब वह चलनेफिरने से भी मजबूर हो गए तो 9 साल की अरीना अपने अब्बू के साथ अखबार बंटवाने में उन की मदद के लिए जाने लगी. वह पिता की साइकिल में पीछे से धक्का लगाती और अखबार बंटवाने में उन की मदद करती.

किसी तरह घर की गाड़ी चल रही थी कि अचानक एक दिन अरीना के परिवार पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा. बीमारी की वजह से उस के पिता सलीम खान की मौत हो गई.

अब कमाने वाला कोई नहीं था. ऐसी कोई जमापूंजी भी नहीं थी कि उसी से काम चलता. ऐसे में सहानुभूति जताने वाले तो बहुत होते हैं, लेकिन मदद करने वाले कम ही होते हैं. फिर किसी की मदद से कितने दिन घर चलता.

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पिता के मरते ही मात्र 9 साल की नन्ही अरीना समझदार हो गई. उस ने पूरे परिवार की जिम्मेदारी संभाल ली. इस की वजह यह थी कि उसे अपने पिता के अखबार बांटने वाले काम की थोड़ीबहुत जानकारी थी. इस के अलावा वह और कुछ न तो करने के लायक थी और न ही कुछ कर सकती थी.

पारो को पता था कि कहां से अखबार उठाना है और किसकिस घर में देना है. फिर क्या था अरीना उर्फ पारो भाई के साथ गुलाब बाग जा कर पेपर उठाती और घरघर जा कर पहुंचाती.

इस के लिए उसे सुबह 4 बजे उठना पड़ता था. घरघर अखबार पहुंचा कर उसे घर लौटने में 9, साढ़े 9 बज जाते थे.

अरीना जयपुर के गुलाब बाग से अखबार उठा कर चौपड़, चौड़ा रास्ता, सिटी पैलेस, चांद पुल, दिलीप चौक, जौहरी बाजार, तिरपौलिया बाजार इलाके में घरघर जा कर अखबार पहुंचाती थी. इस तरह उसे लगभग 7 किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ता था. वह करीब सौ घरों में अखबार पहुंचाती थी.

शुरूशुरू में अरीना को इस काम में काफी परेशानी हुई. क्योंकि वह 9 साल की बच्ची ही तो थी. उतनी दूर चल कर वह थक तो जाती ही थी, साथ ही उसे यह भी याद नहीं रहता था कि उसे किसकिस घर में अखबार डालना है.

यही नहीं, वह रास्ता भी भूल जाती थी. इस के अलावा उसे इस बात पर भी बुरा लगता था, जब छोटी बच्ची होने की वजह से कोई उसे दया की दृष्टि से देखता था.

बुरे दिनों में मदद करने वाले कम ही लोग होते हैं. फिर भी अरीना के पिता को जानने वाले कुछ लोगों ने उस की मदद जरूर की. इसलिए अरीना सुबह जब अखबार लेने गुलाब बाग जाती तो उसे लाइन नहीं लगानी पड़ती थी. उसे सब से पहले अखबार मिल जाता था. इस के बावजूद उसे परेशान तो होना ही पड़ता था. क्योंकि अखबार बांटने के बाद उसे स्कूल भी जाना होता था.

स्कूल जाने में उसे अकसर देर हो जाती थी. क्योंकि वह अखबार बांट कर 9, साढ़े 9 बजे तो घर ही लौटती थी. उस के स्कूल पहुंचतेपहुंचते एकदो पीरियड निकल जाते थे. उस का पढ़ाई का नुकसान तो होता ही, लगभग रोज ही प्रिंसिपल और क्लास टीचर की डांट भी सुननी पड़ती थी.

उस समय अरीना 5वीं में पढ़ती थी. जब इसी तरह सालों तक चलता रहा तो नाराज हो कर प्रिंसिपल ने उस का नाम काट दिया. इस के बाद अरीना एक साल तक अपने लिए स्कूल ढूंढती रही, जहां वह अपना काम निपटाने के बाद पढ़ने जा सके. वह इस तरह का स्कूल ढूंढ रही थी कि अगर वह देर से भी स्कूल पहुंचे तो उसे क्लास में बैठने दिया जाए.

आखिर रहमानी मौडल सीनियर सेकेंडरी स्कूल ने उस की शर्त पर अपने यहां एडमिशन दे दिया. इस तरह एक बार फिर उस की पढ़ाई शुरू हो गई. अखबार बांटने के बाद वह एक बजे तक अपनी पढ़ाई करती.

स्कूल में अरीना की जो क्लास छूट जाती, उस की पढ़ाई अरीना को खुद ही करनी पड़ती. जिस समय अरीना 9वीं क्लास में थी तो एक बार फिर उस की और उस की छोटी बहन की पढ़ाई में रुकावट आ गई. इस की वजह थी उस की आर्थिक स्थिति.

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अखबार बांटने से उस की इतनी कमाई नहीं हो रही थी कि उस का अपना घर खर्च आराम से चल पाता. जब घर का खर्च ही पूरा नहीं होता था तो पढ़ाई का खर्च कहां से निकालती. खर्च पूरे करने के लिए उस ने एक नर्सिंगहोम में पार्टटाइम नौकरी कर ली.

अब वह सुबह उठ कर अखबार बांटती, फिर स्कूल जाती, उस के बाद नर्सिंगहोम में नौकरी करती. नर्सिंगहोम में वह शाम 6 बजे से रात 10 बजे तक काम करती थी. रात को घर आ कर उसे फिर अपनी पढ़ाई करनी पड़ती. इस तरह उसे हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ रही थी.

अरीना जब बड़ी हो रही थी, सुबह उसे अकेली पा कर लड़के उस से छेड़छाड़ करने लगे थे. पर अरीना इस से जरा भी नहीं घबराई. अगर कोई लड़का ज्यादा पीछे पड़ता या परेशान करता तो अरीना उसे धमका देती. अगर इस पर भी वह नहीं मानता तो अरीना उस की पिटाई कर देती. अब वह किसी से नहीं डरती थी. परिस्थितियां सचमुच इंसान को निडर बना देती हैं.

अरीना अखबार बांटने के साथसाथ पार्टटाइम नौकरी करते हुए पढ़ भी रही थी. कड़ी मेहनत करते हुए उस ने 12वीं पास कर ली. इतने पर भी वह नहीं रुकी. उस ने महारानी कालेज से ग्रैजुएशन किया, साथ ही वह कंप्यूटर भी सीखती रही.

कंप्यूटर सीखने के बाद उसे एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई. लेकिन उस ने अखबार बांटना नहीं बंद किया. सुबह उठ कर वह अखबार बांटती है, उस के बाद लौट कर नहाधो कर तैयार हो कर नौकरी पर जाती है.

इतना ही नहीं, बाकी बचे समय में वह गरीब बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं करती, बल्कि पढ़ाती भी थी. इस के अलावा कई संगठनों के साथ मिल कर गरीब बच्चों के लिए काम भी करना शुरू कर दिया.

अरीना के समाज सेवा के इन कामों को देखते हुए उसे कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं. यही वजह है कि देश की पहली महिला हाकर होने के साथसाथ समाज सेवा करने वाली अरीना को राष्ट्रपति ने भी सम्मानित किया है.

अरीना को जब पता चला कि उस की मेहनत को राष्ट्रपति सम्मानित करने वाले हैं तो उसे बड़ी खुशी हुई. जिसे बयां करने के लिए उस के पास शब्द नहीं थे. उस के पैर मानो जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. पैर जमीन पर पड़ते भी कैसे, छोटी सी उम्र से अब तक उस के द्वारा किया गया संघर्ष सम्मानित जो किया जा रहा था.

अरीना की जो कल तक आलोचना करते थे, आज उसे सम्मान की नजरों से देखते हैं. शायद यह उस के संघर्ष का फल है. लोग आज अपने बच्चों को उस की मिसाल देते हैं. आज अरीना एक तरह से सेलिब्रिटी बन चुकी है. वह जहां भी जाती है, लोग उसे पहचान लेते हैं और उस के साथ सेल्फी लेते हैं.

अरीना ने जो काम कभी मजबूरी में शुरू किया था, आज वही काम उस की पहचान बन चुका है. शायद इसीलिए उस ने अपना अखबार बांटने का काम आज भी बंद नहीं किया है. अरीना की स्थिति को देखते हुए साफ लगता है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता. लड़कियां भी अगर चाह लें तो कोई भी काम कर सकती हैं.

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