जाति की राजनीति में किस को फायदा

इस देश में शादीब्याह में जिस तरह जाति का बोलबाला है वैसा ही राजनीति में भी है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ मिल यादवोंपिछड़ों को दलितों के साथ जोड़ने की कोशिश की थी पर चल नहीं पाई. दूल्हे को शायद दुलहन पसंद नहीं आई और वह भाजपा के घर जा कर बैठ गया. अब दोनों समधी तूतू मैंमैं कर रहे हैं कि तुम ने अपनी संतान को काबू में नहीं रखा.

इस की एक बड़ी वजह यह रही कि दोनों समधियों ने शादी तय कर के मेहनत नहीं की कि दूल्हेदुलहन को समझाना और पटाना भी जरूरी है. दूसरी तरफ गली के दूसरी ओर रह रही भाजपा ने अपनी संतान को दूल्हे के घर के आगे जमा दिया और आतेजाते उस के आगे फूल बरसाने का इंतजाम कर दिया, रोज प्रेम पत्र लिखे जाने लगे, बड़ेबड़े वायदे करे जाने लगे कि चांदतारे तोड़ कर कदमों में बिछा दिए जाएंगे. वे दोनों समधी अपने घर को तो लीपनेपोतने में लगे थे और होने वाले दूल्हेदुलहन पर उन का खयाल ही न था कि ये तो हमारे बच्चे हैं, कहना क्यों नहीं मानेंगे?

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अब दूल्हा भाग गया तो दोष एकदूसरे पर मढ़ा जा रहा है. यह सांप के गुजर जाने पर लकीर पीटना है. मायावती बेवकूफी के बाद महाबेवकूफी कर रही हैं. यह हो सकता है कि पिछड़ों ने दलितों को वोट देने की जगह भाजपा को वोट दे दिया जो पिछड़ों को दलितों पर हावी बने रहने का संदेश दे रही थी.

इस देश की राजनीति में जाति अहम है और रहेगी. यह कहना कि अचानक देशभक्ति का उबाल उबलने लगा, गलत है. जाति के कारण हमारे घरों, पड़ोसियों, दफ्तरों, स्कूलों में हर समय लकीरें खिंचती रहती हैं. देश का जर्राजर्रा अलगअलग है. ब्राह्मण व बनियों में भी ऊंचनीच है. कुंडलियों को देख कर जो शादियां होती हैं उन में न जाने कौन सी जाति और गोत्र टपकने लगते हैं.

जाति का कहर इतना है कि पड़ोसिनें एकदूसरे से मेलजोल करने से पहले 10 बार सोचती हैं. प्रेम करने से पहले अगर साथी का इतिहास न खंगाला गया हो तो आधे प्रेम प्रसंग अपनेआप समाप्त हो जाते हैं. अगर जाति की दीवारें युवकयुवती लांघ लें तो घर वाले विरोध में खड़े हो जाते हैं. घरघर में फैला यह महारोग है जिस का महागठबंधन एक छोटा सा इलाज था पर यह नहीं चल पाया. इसका मतलब यह नहीं कि उसे छोड़ दिया जाए.

देश को जाति की दलदल से निकालने के लिए जरूरी है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपना अहंकार छोड़ें और पिछड़े और दलित अपनी हीनभावना को. अखिलेश यादव और मायावती ने प्रयोग किया था जो अभी निशाने पर नहीं बैठा पर उन्होंने बहुत देर से और आधाअधूरा कदम उठाया. इस के विपरीत जाति को हवा देते हुए भाजपा पिछले 100 सालों से इसे हिंदू धर्म की मूल भावना मान कर अपना ही नहीं रही, हर वर्ग को सहर्ष अपनाने को तैयार भी कर पा रही है.

अखिलेश यादव और मायावती ने एक सही कदम उठाया था पर दोनों के सलाहकार और आसपास के नेता यह बदलाव लाने को तैयार नहीं हैं.

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भीड़ को नहीं है किसी का डर

मामला परशुराम के पिता का पुत्रों को मां का वध करने का हो, अहिल्या का इंद्र के धोखे के कारण अपने पति को छलने का या शंबूक नाम के एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर राम के हाथों वध करने का, हमारे धर्म ग्रंथों में तुरंत न्याय को सही माना गया है और उस पर धार्मिक मुहर लगाई गई है. यह मुहर इतनी गहरी स्याही लिए है कि आज भी मौबलिंचिंग की शक्ल में दिखती है. असम में तिनसुकिया जिले में भीड़ ने पीटपीट कर एक पति व उस की मां को मार डाला, क्योंकि शक था कि उस ने अपनी 2 साल की बीवी और 2 महीने की बेटी को मार डाला.

मजे की बात तो यह है कि जब पड़ोसी और मृतक बीवी के घर वाले मांबेटे की छड़ों से पिटाई कर रहे थे, लोग वीडियो बना कर इस पुण्य काम में अपना साथ दे रहे थे.

देशभर में इस तरह भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने और भीड़ में खड़े लोगों का वीडियो बनाना अब और ज्यादा बढ़ रहा है, क्योंकि शासन उस तुरंत न्याय पर नाकभौं नहीं चढ़ाता. गौरक्षकों की भीड़ों की तो सरकारी तंत्र खास मेहमानी करते हैं. उन्हें लोग समाज और धर्म का रक्षक मानते हैं.

तुरंत न्याय कहनेसुनने में अच्छा लगता है पर यह असल में अहंकारी और ताकतवर लोगों का औरतों, कमजोरों और गरीबों पर अपना शासन चलाने का सब से अच्छा और आसान तरीका है. यह पूरा संदेश देता है कि दबंगों की भीड़ देश के कानूनों और पुलिस से ऊपर है और खुद फैसले कर सकती है. यह घरघर में दहशत फैलाने का काम करता है और इसी दहशत के बल पर औरतों, गरीबों, पिछड़ों और दलितों पर सदियों राज किया गया है और आज फिर चालू हो गया है.

जब नई पत्नी की मृत्यु पर शक की निगाह पति पर जाने का कानून बना हुआ है तो भीड़ का कोई काम नहीं था कि वह तिनसुकिया में जवान औरत की लाश एक टैंक से मिलने पर उस के पति व उस की मां को मारना शुरू कर दे. यह हक किसी को नहीं. पड़ोसी इस मांबेटे के साथ क्यों नहीं आए, यह सवाल है.

लगता है हमारा समाज अब सहीगलत की सोच और समझ खो बैठा है. यहां किसी लड़केलड़की को साथ देख कर पीटने और लड़के के सामने ही लड़की का बलात्कार करने और उसी समय उस का वीडियो बनाने का हक मिल गया है.

यहां अब कानून पुलिस और अदालतों के हाथों से फिसल कर समाज में अंगोछा डाले लोगों के हाथों में पहुंच गया है, जो अपनी मनमानी कर सकते हैं. पिछले 100-150 साल के समाज सुधार और कानून के सहारे समाज चलाने की सही समझ का अंतिम संस्कार जगहजगह भीड़भड़क्के में किया जाने लगा है. यह उलटा पड़ेगा पर किसे चिंता है आज. आज तो पुण्य कमा लो.

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सतर्क रहना युवती का पहला काम

शराब बलात्कारों का दरवाजा खोलती है, क्योंकि शराब के नशे में न तो लड़कियों को सुध रहती है कि उन के साथ क्या हो रहा है न बलात्कारियों को. देशी एयरलाइनों में काम करने वाली एअरहोस्टेसें अपनेआप में खासी मजबूत होती हैं और यात्रियों से डील करतेकरते उन्हें दिलफेंक लोगों को झिड़कना आता है. उन की ट्रेनिंग ऐसी होती है कि वे छुईमुई नहीं होतीं और उन के मसल्स मजबूत होते हैं.

ऐसे में कोई एअरहोस्टेस पुलिस में शिकायत करे कि उस के साथ बलात्कार हुआ तो यह काफी जोरजबरदस्ती और शराब के साथ नशीली दवा के कारण ही हुआ होगा. हैदराबाद में रहने वाली इस युवती की शिकायत है कि वह कुछ ड्रिंक्स लेने अपने सहयोगी के साथ गई थी और फिर उस के साथ उस के घर चली गई. वहां सहयोगी और 2 अन्य ने उसे बेहोश कर के उस के साथ बलात्कार किया.

इस दौरान उस का मंगेतर और पिता लगातार फोन से संपर्क करने की कोशिश करते रहे और जब सुबह उस के होश आने पर उस ने फोन उठाया और पिता व मंगेतर से बात की तो पुलिस कंप्लेंट फाइल की.

बलात्कार के बारे में अकसर यह कह दिया जाता है कि उस में लड़की की सहमति होगी जो बाद में मुकर गई पर इस पर प्रतिप्रश्न यही है कि यदि उस ने पहले सहमति से अपने सुख के लिए संबंध बनाया तो वह आगे भी संबंध बनाएगी न कि शिकायतें करेगी. वह शिकायत तो तभी करेगी जब उस से जबरदस्ती करी जाए.

यह कुछ ऐसा ही है कि यदि दोनों में से एक दोस्त दूसरे की लंबे दिनों तक आर्थिक सहायता करता रहे पर एक दिन जब वह मना कर दे तो क्या सहायता मांगने वाले के पास देने वाले का पर्स चोरी करने का अधिकार है? हां, शराब के नशे में दोस्त दोस्त का पर्स साफ कर जाए तो संभव है पर यह भी अपराध ही है. पैसे का अपराध छोटा है, शारीरिक अपराध बड़ा है. एक घूंसा मारने पर लोग बदले में दूसरे पर गोली तक चला देते हैं. यह अपने अधिकारों का इस्तेमाल है.

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अपने बारे में सतर्क रहना हर युवती का पहला काम है. यदि उसे किसी से सैक्स संबंध बनाने पर एतराज नहीं है तो उसे खुली छूट है कि वह रात उस के घर जाए, उस के साथ नशा करे. पर यदि किसी कारण उसे किसी युवक दोस्त के साथ रहना पड़े तो शराब का रिस्क तो वह ले ही नहीं सकती. अपनी सुरक्षा पहले अपने हाथ में है. छुईमुई न बनें, पर बेमतलब रिस्क भी न लें. रात अंधेरे में आदमी भी जेब में पर्स और मोबाइल लिए चलने में घबराते हैं, यह न भूलें.

धान खरीदी के भंवर में छत्तीसगढ़ सरकार!

छत्तीसगढ़ की राजनीतिक फिजा में आज सिर्फ एक ही मुद्दा है धान खरीदी और किसान का. छत्तीसगढ़ की सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस ने जो मास्टर स्ट्रोक चला था वह अब धीरे-धीरे कांग्रेस और भूपेश सरकार के लिए बढ़ते सर दर्द और ब्लड प्रेशर का हेतु बन रहा है. कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव से पूर्व धान की खरीदी 2500 रूपये क्विंटल खरीदने और कर्जा मुआफी का वादा किया था. किसानों की कृपा से छत्तीसगढ़ में यह कार्ड चल गया और भूपेश बघेल की सरकार बहुत ताकत के साथ बन गई 67 विधायक चुन लिए गए मगर एक वर्ष बाद जब पुन: खरीफ फसल का समय आया है तो भूपेश सरकार के हाथ पांव फूलने लगे हैं और मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी से रियायते चाहते हैं.

भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री बनते ही जो वादा किया था उसे पूरा करने का ऐलान कर दिया किसानों की जेबें भर गई यही नहीं किसानों को किया गया असीमित कर्जा भी उन्होंने भामाशाह की तरह माफ कर दिया जबकि मध्यप्रदेश में ऐसा नहीं हुआ. छत्तीसगढ़ की आर्थिक स्थिति इन्हीं कारणों से बदतर होती चली गई कर्ज पर कर्ज लेकर भूपेश सरकार एक खतरनाक ‘भंवर’ मे फंसती दिखाई दे रही है. जिसका अंजाम क्या होगा यह मुख्यमंत्री के रूप में एक कुशल रणनीतिक होने के कारण या तो प्रदेश को उबार ले जाएंगे अथवा छत्तीसगढ़ की आने वाले समय में बड़ी दुर्गति होगी यह बताएगा.

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मोदी सरकार से अपेक्षा !

भूपेश बघेल की सरकार किसानों से धान 2500 रूपये क्विंटल में खरीदने को कटिबद्ध है क्योंकि पीछे हटने का मतलब किसानों का रोष और छवि खराब होने की चिंता है .ऐसे में दो ही रास्ते हैं एक छत्तीसगढ़ सरकार शुचिता बरते, सादगी के साथ सिर्फ किसानों के हित साधती रहे और दूसरे दिगर विकास के कामों में ब्रेक लगा दे या फिर केंद्र के समक्ष हाथ पसारे.

भूपेश बघेल की शैली भीख मांगने यानी हाथ पसारने की कभी नहीं रही. भूपेश बघेल को एक आक्रमक छत्तीसगढ़ के चीते के स्वभाव वाला राजनीतिक माना गया है. ऐसे में उनकी सरकार मोदी सरकार के समक्ष हाथ पसारने की जगह सीना तान कर खड़ी हो गई है और केंद्र सरकार से मांग की जा रही है केंद्र को चेतावनी दी जा रही है की धान खरीदी में सहायता करो. छत्तीसगढ़ के एक मंत्री जयसिंह अग्रवाल ने मोदी सरकार को चेतावनी दी केंद्र धान नहीं खरीदेगी तो हम छत्तीसगढ़ से होने वाले कोयले का परिवहन बंद कर देंगे .इस आक्रमकता  से यह दूध की तरह साफ हो चुका है कि भूपेश सरकार, नरेंद्र दामोदरदास मोदी के समक्ष झुकने को तैयार नहीं बल्कि झुकाने की ख्यामख्याली पाले हुए हैं.

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आज होगा आमना सामना

भूपेश बघेल को 14 जनवरी को देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिलने का समय मिला था. छत्तीसगढ़ सरकार ने पूरी तैयारी कर रखी थी की दिल्ली पहुंचकर राष्ट्रपति से मिल केंद्र सरकार को घेरेगे और प्रदेश की जनता के मध्य यह संदेश प्रसारित होगा की केंद्र छत्तीसगढ़ की उपेक्षा कर रही है. मगर ऐन मौके पर चाल पलट गई. राष्ट्रपति भवन से 13 नवंबर की रात को संदेश आ गया की राष्ट्रपति महोदय से मुलाकात को निरस्त कर दिया गया है.

भूपेश बघेल सरकार नरेंद्र मोदी से मिलना चाहती थी मगर प्रधानमंत्री कार्यालय से भी लाल झंडी दिखाई दे रही है ऐसे में भूपेश बघेल स्वयं अपने चुनिंदा मंत्रियों के साथ केंद्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान व केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मिलकर आग्रह करेंगे की 85 लाख मैट्रिक टन धान खरीद पर केंद्र समर्थन मूल्य प्रदान करें । 32 लाख मैट्रिक धान का एफ सी  आई गोदाम में रखने की अनुमति दी जाए और समर्थन मूल्य पर बोनस पर केंद्र की लगी रोक को थिथिल किया जाए.

राजनीतिक प्रशासनिक चातुर्य की कमी  !

संपूर्ण प्रकरण पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट हो जाता है की भूपेश बघेल सरकार में जहां राजनीतिक चातुर्य की कमी है वहीं प्रशासनिक दक्षता जैसी दिखाई देनी चाहिए वह भी दृष्टिगोचर नहीं हो रही है. किसानों के खातिर तलवार भांजने वाली छत्तीसगढ़ सरकार यह कैसे भूल गई की विधानसभा में 68 सीटों का तोहफा देने वाली जनता और किसानों ने लोकसभा चुनाव में भूपेश बघेल की ऊंची ऊंची हांकने की हवा निकाल दी और बमुश्किल 11 में 9 सीटों पर दावा करने वाली कांग्रेस को 2 सीटें ही मिल पाई.

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किसानों का संपूर्ण कर्जा माफी करना भी भूपेश सरकार के गले का फंदा बन गया. अगरचे मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार से थोड़ा सबक सिखा होता तो प्रदेश की आर्थिक स्थिति डांवाडोल नहीं होती .वहीं केंद्र सरकार को आंख दिखाने की हिमाकत छत्तीसगढ़ सरकार को उल्टी न पड़ जाए. डॉक्टर रमन सिंह पूर्व मुख्यमंत्री कहते हैं,- केंद्र से सम्मान और विनय के साथ आग्रह करने की जगह जैसे भूपेश बघेल दो-दो हाथ करने का बॉडी लैंग्वेज दिखा रहे हैं यह गरिमा के अनुकूल नहीं है.

छत्तीसगढ़ के मंत्री, धान खरीदी के मुद्दे पर केंद्र को झुकाना चाहते हैं और केंद्र सरकार, भूपेश बघेल को धान के मुद्दे पर निपटाना चाहती है.! देखिए इस सोच में कौन कहां गिरता है और कहां उखडता है.

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जेलों में तड़पती जिंदगी: भाग 2

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मुसलिमों की बात करें, तो इस समुदाय में सजायाफ्ता कैदियों का अनुपात 15.8 फीसदी है, जो आबादी में उन की भागीदारी से थोड़ा सा ज्यादा है.

लेकिन विचाराधीन कैदियों में उन का हिस्सा कहीं ज्यादा 20.9 फीसदी है. सारे दोषसिद्ध अपराधियों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की आबादी क्रमश: 20.9 फीसदी और 13.7 फीसदी है, जिसे काफी ज्यादा कहा जा सकता है.

अगर भारतीय संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों की बात करें, तो विचाराधीन कैदियों को उन के कुसूरवार साबित होने से पहले तक बेकुसूर माना जाता है, लेकिन जेल में बंद किए जाने के दौरान उन पर अकसर मानसिक और शारीरिक जुल्म किए जाते हैं और उन्हें जेल में होने वाली हिंसा का सामना करना पड़ता है.

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इन में से कई तो पारिवारिक, आसपड़ोस और समुदाय के रिश्तों के साथसाथ अकसर अपनी आजीविका भी गंवा देते हैं. इस से भी ज्यादा बड़ी बात यह है कि जेल में बिताया गया समय उन के माथे पर कलंक लगा देता है. यहां तक कि उन के परिवार, सगेसंबंधियों और समुदाय को भी उन की बिना किसी गलती के शर्मिंदगी  झेलनी पड़ती है.

विचाराधीन कैदियों की पहुंच कानूनी प्रतिनिधियों तक काफी कम होती है. कई विचाराधीन कैदी तो काफी गरीब परिवार से होते हैं, जो मामूली अपराधों के आरोपी हैं. अपने अधिकारों की जानकारी न होने और कानूनी मदद तक पहुंच नहीं होने के चलते उन्हें काफी समय तक जेलों में बंद रहना पड़ रहा है.

पैसे और मजबूत सपोर्ट सिस्टम की कमी और जेल परिसर में वकीलों से बातचीत करने की ज्यादा क्षमता न होने के चलते अदालत में अपना बचाव करने की उन की ताकत कम हो जाती है.

ये हालात सुप्रीम कोर्ट के उस ऐतिहासिक फैसले के बावजूद हैं, जिस में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 21 बंदियों को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के तहत निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई का अधिकार देता है.

साल 2005 से प्रभाव में आने वाले अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के अनुच्छेद 436 (ए) के प्रावधानों के बावजूद विचाराधीन कैदियों को अकसर अपनी जिंदगी के कई साल सलाखों के पीछे गुजारने पर मजबूर होना पड़ रहा है.

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इस अनुच्छेद के मुताबिक, अगर किसी विचाराधीन कैदी को उस पर लगे आरोपों के लिए तय अधिकतम कारावास की सजा के आधे समय के लिए जेल में बंद रखा जा चुका है, तो उसे निजी मुचलके पर जमानत के साथ या बिना जमानत के रिहा किया जा सकता है.

यह अनुच्छेद उन आरोपियों पर लागू नहीं होता, जिन्हें मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है. लेकिन जैसा कि प्रिजन स्टैटिस्टिक्स, 2014 दिखाता है, किसी अपराध के लिए भारतीय दंड संहिता के तहत आरोपित 39 फीसदी विचाराधीन कैदियों को आजीवन कारावास या मृत्युदंड की सजा नहीं दी जा सकती थी.

जेलों में अफसरों की 33 फीसदी सीटें खाली पड़ी हैं और सुपरवाइजिंग अफसरों की 36 फीसदी रिक्तियां नहीं भरी गई हैं. मुलाजिमों की भीषण कमी के मामले में दिल्ली की तिहाड़ जेल देश में तीसरे नंबर पर है. इस जेल के भीतर बहाल मुलाजिमों की तादाद जरूरत से तकरीबन 50 फीसदी कम है.

औरत कैदी, मासूम बच्चे

भारत की जेलों में विचाराधीन कैदियों में एक बड़ा तबका औरतों का भी है. वे औरतें जेलों में अकेली नहीं हैं. उन के साथ उन के बच्चे भी इस यातना के बीच पलबढ़ रहे हैं. बात सिर्फ जेल में बंद होने भर की नहीं होती.

पहली नजर में छोटी उम्र के बच्चों का कुसूर सिर्फ इतना है कि उन्हें पता ही नहीं कि उन की मां कुसूरवार है भी या नहीं. इन जेलों में बंद औरतों की सेहत का मुद्दा भी किसी अस्पृश्य विषय की तरह सा लगने लगता है. आखिर वे ‘विचाराधीन’ जो हैं.

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सुबह के 9 बज रहे हैं. नन्हेमुन्ने बच्चों की यह जमात यूनीफौर्म पहने जगदलपुर केंद्रीय कारागार से कतार में निकल रही है. अपनेअपने बस्ते पीठ पर टांगे हुए पास के ही सरकारी स्कूल की तरफ इन का रुख है. वैसे तो ये जेल के बाशिंदे हैं, लेकिन ये यहां सजा नहीं काट रहे हैं. चूंकि ये छोटे हैं, इसलिए ये अपनी माताओं के साथ जेल में रह रहे हैं.

अफसर बताते हैं कि इन में से कुछ बच्चों का जन्म जेल में ही हुआ है. यहां 97 औरत कैदी हैं, जिन में से महज 29 विचाराधीन हैं, जबकि बाकी वे हैं जो सजायाफ्ता हैं या फिर विशेष सुरक्षा अधिनियम के तहत बंद हैं.

इन औरत कैदियों के साथ रह रहे 12 बच्चे, अब जेल प्रशासन की ही जिम्मेदारी हैं. इन के रहने, खानेपीने, पढ़ाईलिखाई और सेहत का इंतजाम जेल प्रशासन को ही करना पड़ता है.

जेल के अफसर कहते हैं कि जिन बच्चों की उम्र 6 साल से ऊपर है, उन्हें सरकारी स्कूल के छात्रावास में रखा गया है, जबकि छोटे बच्चे अपनी माताओं के साथ औरतों के वार्ड में ही रह रहे हैं.शशिकला पिछले 6 महीनों से जगदलपुर की जेल में बंद है. उस पर अपने ही पति की हत्या का मामला चल रहा है. लेकिन इस दौरान उस को किसी भी तरह की न्यायिक मदद नहीं मिल पाई है.

इस की वजह वह बताती है कि उस का इस दुनिया में कोई नहीं है. उस की कोई औलाद भी नहीं है. उस से जेल में मिलने भी कोई नहीं आता है. उस का कहना है कि वह अब तक अपने लिए कोई वकील तक नहीं कर पाई है.

आंकड़ों के अनुसार 1,603 औरतें अपने बच्चों के साथ जेलों में हैं. इन के बच्चों की तादाद 1,933 है.

जामिया मिल्लिया इसलामिया यूनिवर्सिटी के ‘सरोजनी नायडू फौर वुमन स्टडीज’ की कानून विशेषज्ञ तरन्नुम सिद्दीकी कहती हैं कि औरतों में तालीम की कमी उन के जेल जाने की सब से बड़ी वजह है. वे मर्दवादी सोच को ही औरतों के खिलाफ दर्ज मामलों की अहम वजह मानती हैं.

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उन का कहना है कि पुलिस में औरतों की तादाद काफी कम है. पुलिस कई बार अपनी इस सोच की वजह से औरतों को उठा कर जेलों में डाल देती है और वहां उन का शोषण भी किया जाता है.

हालांकि, सैंट्रल जेलों के हालात थोड़े बेहतर हैं, लेकिन कई जेलें ऐसी हैं जहां औरत कैदियों को खराब हालत में रखा गया है, जिस से सेहत को ले कर उन्हें काफी सारी परेशानियां  झेलनी पड़ती हैं. कई जेलों में तो उन्हें दूसरी रोजमर्रा की चीजें भी नहीं मिल पाती हैं. उपजेलों या जिला जेलों में बंद ऐसे कैदियों का हाल ज्यादा खराब है.

देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली की जेलें सब से ज्यादा भरी हुई हैं और इन में जेल सिक्योरिटी वालों और सीनियर सुपरवाइजरी मुलाजिमों की भारी किल्लत है. उत्तर प्रदेश, बिहार और  झारखंड जैसे राज्यों की जेलों में सिक्योरिटी वालों के नाम पर सब से कम लोग तैनात हैं. यहां जेलरों, जेल सिक्योरिटी और सुपरवाइजर लैवल पर 65 फीसदी से ज्यादा रिक्तियां हैं.

जेल मुलाजिमों की भारी कमी और जेलों पर क्षमता से ज्यादा बो झ, जेलों के भीतर बड़े पैमाने पर हिंसा और दूसरी आपराधिक गतिविधियों जैसी कई

वजहें कैदियों का फरार होना बनती हैं. अलगअलग घटनाओं में साल 2015 में पंजाब में 32 कैदी जेलों से फरार हो गए, जबकि राजस्थान में ऐसे मामलों की तादाद बढ़ कर 18 हो गई. महाराष्ट्र में 18 कैदी फरार होने में कामयाब रहे.

साल 2015 में हर रोज औसतन 4 कैदियों की मौत हुई. कुलमिला कर 1,584 कैदियों की जेल में मौत हो गई. इन में 1,469 मौतें स्वाभाविक थीं, जबकि बाकी मौतों के पीछे अस्वाभाविक वजह का हाथ माना गया.

अस्वाभाविक मौतों में दोतिहाई यानी 77 खुदकुशी के मामले थे, जबकि 11 की हत्याएं साथी कैदियों द्वारा कर दी गईं. इन में से 9 दिल्ली की जेलों में थे. साल 2001 से साल 2010 के बीच 12,727 लोगों की जेलों के भीतर मौत होने की जानकारी है.

अगर कोई पेशेवर सरगना या कोई सफेदपोश अपराधी जेल के अफसर की मुट्ठी गरम करने को तैयार है, तो वह जेल परिसर के भीतर मोबाइल, शराब और हथियार तक रख सकता है, जबकि दूसरी तरफ सामाजिक व माली तौर पर पिछड़े हुए विचाराधीन कैदियों को सरकारी तंत्र द्वारा उन की बुनियादी गरिमा से भी वंचित रखा जा सकता है, इसलिए इस में कोई हैरानी की बात नहीं कि जेल महकमा देश के उन कुछ निर्वाचित प्रतिनिधियों की पसंद रहा है, जिन के खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं.

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मजबूत ह्विसिल ब्लोवर प्रोटैक्शन ऐक्ट की गैरमौजूदगी और जेलों पर जरूरत से ज्यादा बो झ और मुलाजिमों की भारी कमी के चलते भारतीय जेलें राजनीतिक रसूख वाले अपराधियों के लिए एक आरामगाह और कमजोर विचाराधीन कैदियों के लिए नरक के समान बनी रहेंगी. मीडिया में कभीकभार  मचने वाले शोरशराबे का इस पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

भारत में हर साल बर्बाद किया जाता है इतना भोजन, वहीं 82 करोड़ लोग सोते हैं भूखे

कुछ दिनों पहले ही एक ऐसी सूची जारी की गई जिसने भारत को शर्मिंदा कर दिया. भारत एशिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है और दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी लेकिन ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत दक्षिण एशिया में भी सबसे नीचे है. वैश्विक भुखमरी सूचकांक यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में दुनिया के 117 देशों में भारत 102वें स्थान पर रहा है.

यह जानकारी साल 2019 के इंडेक्स में सामने आई है. वेल्थहंगरहिल्फे एंड कन्सर्न वल्डवाइड द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया के उन 45 देशों में शामिल है जहां ‘भुखमरी काफी गंभीर स्तर पर है.’ साल 2015 में भूखे भारतीयों की संख्या 78 करोड़ थी और अब 82 करोड़. यानी जिस आंकड़े को घटना चाहिए वो बढ़ रहे हैं.

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जीएचआई में भारत का खराब प्रदर्शन लगातार जारी है. साल 2018 के इंडेक्स में भारत 119 देशों की सूची में 103वें स्थान पर था. इस साल की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2017 में इस सूचकांक में भारत का स्थान 100वां था लेकिन इस साल की रैंक तुलनायोग्य नहीं है.

वैश्विक भुखमरी सूचकांक लगातार 13वें साल तय किया गया है. इसमें देशों को चार प्रमुख संकेतकों के आधार पर रैंकिग दी जाती है – अल्पपोषण, बाल मृत्यु, पांच साल तक के कमजोर बच्चे और बच्चों का अवरुद्ध शारीरिक विकास.

इस सूचकांक में भारत का स्थान अपने कई पड़ोसी देशों से भी नीचे है. इस साल भुखमरी सूचकांक में जहां चीन 25वें स्थान पर है, वहीं नेपाल 73वें, म्यांमार 69वें, श्रीलंका 66वें और बांग्लादेश 88वें स्थान पर रहा है. पाकिस्तान को इस सूचकांक में 94वां स्थान मिला है. जीएचआई वैश्विक, क्षेत्रीय, और राष्ट्रीय स्तर पर भुखमरी का आकलन करता है. भूख से लड़ने में हुई प्रगति और समस्याओं को लेकर हर साल इसकी गणना की जाती है.

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जीएचआई को भूख के खिलाफ संघर्ष की जागरूकता और समझ को बढ़ाने, देशों के बीच भूख के स्तर की तुलना करने के लिए एक तरीका प्रदान करने और उस जगह पर लोगों का ध्यान खींचना जहां पर भारी भुखमरी है, के लिए डिजाइन किया गया है.इंडेक्स में यह भी देखा जाता है कि देश की कितनी जनसंख्या को पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिल रहा है. यानी देश के कितने लोग कुपोषण के शिकार हैं.

ये तो रही महज आंकड़ों की बात. अब हम कुछ जमीनी स्तर पर भी इसकी पड़ताल कर लें. भारत में भले ही विकास के नए आयामों को छू रहा है लेकिन विश्व पटल में ऐसे आंकड़े हमारी सारे किए कराए पर पानी फेर देते हैं. भले ही आप अमेरिका के ह्यूस्टन की तस्वीर देखकर ये सोच रहे हों कि विदेशों में भी भारत का डंका बज रहा है. लेकिन वहीं आप का देश भुखमरी में एशिया में सबसे नीचे हैं. आप उन देशों से भी पीछे हैं तो किसी भी तरह भारत से मुकाबले करने के काबिल है ही नहीं.

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भारत 2010 में 95वें नंबर पर था और 2019 में 102वें पर आ गया. 113 देशों में साल 2000 में जीएचआई रैंकिंग में भारत का रैंक 83वां था और 117 देशों में भारत 2019 में 102वें पर आ गया.

एक तरफ तो ये आंकड़ा और दूसरी तरफ एक और आंकड़ा देखिए. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 40 फ़ीसदी खाना बर्बाद हो जाता है. इन्हीं आंकड़ों में कहा गया है कि यह उतना खाना होता है जिसे पैसों में आंके तो यह 50 हज़ार करोड़ के आसपास पहुंचेगा. विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया का हर 7वां व्यक्ति भूखा सोता है.

विश्व भूख सूचकांक में भारत का 67वां स्थान है. देश में हर साल 25.1 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है लेकिन हर चौथा भारतीय भूखा सोता है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियां वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं.

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जेलों में तड़पती जिंदगी: भाग 1

मोहम्मद आमिर खान

दिल्ली का रहने वाला मोहम्मद आमिर खान पायलट बन कर अपने कैरियर में ऊंची उड़ान भरना चाहता था, मगर उस के सपनों की उड़ान वक्त से पहले जमीन पर आ गई. 14 साल तक जेल में रहने के बाद अब वह टूट चुका है.

मोहम्मद आमिर खान उस शाम को आज भी नहीं भूला है, जब वह अपनी मां के लिए दवा लेने घर से निकला था. उस का कहना है कि उसी दौरान पुलिस ने उसे रास्ते से ही पकड़ लिया था. तब वह महज 18 साल का था.

बाद में मोहम्मद आमिर खान पर बम धमाके करने, आतंकी साजिश रचने और देश के खिलाफ होने जैसे संगीन आरोप लगाए गए थे.

18 साल की उम्र में ही मोहम्मद आमिर खान 19 मामलों में उल झ गया था. अब उस के सामने थी एक लंबी कानूनी लड़ाई. उस का कहना है कि बेकुसूर करार दिए जाने के बाद जेल में कटे उस की जिंदगी के बेशकीमती सालों की भरपाई आखिर कौन करेगा? वह अपनी जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने की कोशिश कर रहा?है, मगर सवाल है कि उसे दोबारा बसाने की जिम्मेदारी कौन लेगा?

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मोहम्मद आमिर खान के मुताबिक, वह तमाम नेताओं के साथसाथ राष्ट्रपति से भी मिल चुका है, मगर उसे आश्वासनों के अलावा कुछ नहीं मिला.

जेल में मोहम्मद आमिर खान के 14 साल ही नहीं बीते, बल्कि उस के सारे सपने भी बिखर गए. जब वह जेल से निकला तो उस के पिता की मौत हो चुकी थी. सदमे में डूबी उस की मां अब कुछ बोल नहीं पाती हैं. उन की आवाज हमेशा के लिए चली गई है.

इमरान किरमानी

कश्मीर के हंदवाड़ा इलाके के रहने वाले 34 साला इमरान किरमानी को साल 2006 में दिल्ली पुलिस की एक विशेष सैल ने मंगोलपुरी इलाके से गिरफ्तार किया था.

इमरान पर आरोप था कि वह दिल्ली में आत्मघाती हमला करने की योजना बना रहा था, मगर पौने 5 साल बाद अदालत ने उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया.

इमरान किरमानी ने जयपुर से एयरक्राफ्ट मेकैनिकल इंजीनियरिंग की डिगरी हासिल की है. जब उसे दिल्ली में गिरफ्तार किया गया, तब वह एक निजी कंपनी में नौकरी कर रहा था.

जेल में बिताए अपनी जिंदगी के 5 सालों को याद करते हुए इमरान किरमानी कहता है, ‘‘बरी तो अदालत ने कर दिया, लेकिन सब से बड़ा सवाल यह है कि मेरे 5 साल जो जेल में बीत गए, उन्हें कौन वापस करेगा?’’

इमरान किरमानी को इस बात का भी काफी सदमा है कि जिस वक्त वह अपना भविष्य बनाने निकला था, उसी वक्त उसे जेल में डाल दिया गया और वह भी बिना किसी कुसूर के. वह कहता है, ‘‘जो मेरे साथ पढ़ाई करते थे, काम करते थे, वे आज बहुत तरक्की कर चुके हैं. मैं भी करता, लेकिन मेरा कीमती समय जेल में ही बरबाद हो गया.’’

इमरान किरमानी अब अपने गांव के एक स्कूल में पढ़ाता है. उसे सरकार से किसी मदद की उम्मीद नहीं है और न ही वह इस के लिए सरकार के पास जाने के लिए तैयार है.

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फारूक अहमद खान

हाल ही में इंजीनियर फारूक अहमद खान को भी 19 साल बाद अदालत ने सभी आरोपों से बरी कर दिया है. उस पर दिल्ली में बम धमाका करने की योजना बनाने का आरोप लगा था.

अनंतनाग, कश्मीर के फारूक अहमद खान को स्पैशल टास्क फोर्स ने 23 मई, 1996 को उस के घर से गिरफ्तार किया था. गिरफ्तारी के वक्त 30 साल का फारूक अहमद खान पब्लिक हैल्थ इंजीनियरिंग महकमे में जूनियर इंजीनियर के पद पर काम करता था.

दिल्ली हाईकोर्ट ने 4 साल बाद फारूक अहमद खान को लाजपत नगर धमाका मामले से बरी कर दिया था, लेकिन उस के बाद उसे जयपुर और गुजरात में हुए बम धमाकों के मामले में जयपुर सैंट्रल जेल में रखा गया.

जयपुर की एडिशनल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने भी उसे रिहा करने का आदेश दिया और उस के खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों को खारिज कर दिया.

जिंदगी के तकरीबन 20 साल खोने के अलावा फारूक अहमद खान को अपने मुकदमे के खर्च के तौर पर एक मोटी रकम भी गंवानी पड़ी. उस का कहना है कि दिल्ली में मुकदमे के खर्च में 20 लाख रुपए लगे, जबकि जयपुर में 12 लाख रुपए का खर्च उठाना पड़ा.

साल 2000 में जब फारूक अहमद खान के पिता की मौत हुई तो उसे पैरोल पर भी नहीं छोड़ा गया. उस की मां कहती हैं, ‘‘जिस दिन फारूक के अब्बा ने बेटे की जेल की तसवीर देखी थी तो उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उन की मौत हो गई. अब बेटा तो घर आ गया, लेकिन उस के खोए हुए 19 साल कौन लौटाएगा?’’

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मकबूल शाह

कश्मीर के श्रीनगर के लाल बाजार का रहने वाला मकबूल शाह साल 2010 में 14 साल बाद जेल से रिहा हुआ तो उसे लगा कि एक नई जिंदगी मिल गई है.

मकबूल शाह को भी दिल्ली में बम धमाके की साजिश रचने के आरोप में साल 1996 में गिरफ्तार किया गया था. उस वक्त उस की उम्र सिर्फ 14 साल थी.

मकबूल को भी अदालत ने आरोपों से बरी कर दिया, मगर मकबूल शाह को लगता है कि जिन लोगों ने उसे फर्जी मुकदमे में फंसाया था, उन के खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए.

संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत जेलों का रखरखाव और मैनेजमैंट पूरी तरह से राज्य सरकारों का सब्जैक्ट है. हर राज्य में जेल प्रशासन तंत्र चीफ औफ प्रिजंस (कारागार प्रमुख) की देखरेख में काम करता है, जो आईपीएस अफसर होता है.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि जेल की कुल आबादी के 65 फीसदी कैदी अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं. इन में अनुसूचित जाति के 21.7 फीसदी, अनुसूचित जनजाति के 11.5 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग के 31.6 फीसदी हैं.

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व्यवस्था की गड़बड़ी

भारत में जेलें 3 ढांचागत समस्याओं से जू झ रही हैं: एक, जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी, जिस का श्रेय जेल की आबादी में अंडरट्रायल्स (विचाराधीन कैदियों) के बड़े फीसदी को जाता है. 2, कर्मचारियों की कमी. 3, फंड की कमी. इस का नतीजा तकरीबन जानवरों जैसी जिंदगी, गंदगी और कैदियों व जेल अफसर के बीच हिंसक  झड़पों के तौर पर निकला है.

ठूंसठूंस कर भरे कैदी

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया, 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की कई जेलें कैदियों की तादाद के लिहाज से छोटी पड़ रही हैं. भारतीय जेलों में क्षमता से 14 फीसदी ज्यादा कैदी रह रहे हैं. इस मामले में छत्तीसगढ़ और दिल्ली देश में सब से आगे हैं, जहां की जेलों में क्षमता से दोगुने से ज्यादा कैदी हैं.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक, देशभर की जेलों में 4,19,623 कैदी हैं, जिन में से 17,834 औरतें हैं यानी कुल कैदियों में से 4.3 फीसदी औरतें हैं. ये आंकड़े 2015 के हैं.

साल 2000 में यह आंकड़ा 3.3 फीसदी था यानी 15 साल में औरत कैदियों में एक फीसदी का इजाफा हुआ है. इतना ही नहीं 17,834 में से 11,916 यानी तकरीबन 66 फीसदी औरतें विचाराधीन कैदी हैं.

मेघालय की जेलों में क्षमता से तकरीबन 77.9 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 68.8 फीसदी और मध्य प्रदेश में 39.8 फीसदी ज्यादा कैदी हैं.

उत्तर प्रदेश में विचाराधीन कैदियों की तादाद 62,669 थी. इस के बाद बिहार 23,424 और महाराष्ट्र 21,667 का नंबर था. बिहार में कुल कैदियों के 82 फीसदी विचाराधीन कैदी थे, जो सभी राज्यों से ज्यादा थे.

भारतीय जेलों में बंद 67 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं यानी ऐसे कैदी, जिन्हें मुकदमे, जांच या पूछताछ के दौरान हवालात में बंद रखा गया है, न कि कोर्ट द्वारा किसी मुकदमे में कुसूरवार करार दिए जाने की वजह से.

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अंतर्राष्ट्रीय मानकों के हिसाब से भारत की जेलों में ट्रायल या सजा का इंतजार कर रहे लोगों का फीसदी काफी ज्यादा है. उदाहरण के लिए इंगलैंड में यह 11 फीसदी है, जबकि अमेरिका में 20 फीसदी और फ्रांस में 29 फीसदी है.

साल 2014 में देश के 36 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से 16 में 25 फीसदी से ज्यादा विचाराधीन कैदी एक साल से ज्यादा वक्त से हवालात में बंद थे. जम्मूकश्मीर 54 फीसदी के साथ इस लिस्ट में सब से ऊपर है. उस के बाद गोवा 50 फीसदी और गुजरात 42 फीसदी. उत्तर प्रदेश सब से ऊपर है. यहां विचाराधीन कैदियों की तादाद सब से ज्यादा 18,214 थी.

देश की विभिन्न अदालतों में 31 मार्च, 2016 तक लंबित पड़े मामलों की तादाद 3.1 करोड़ थी, जिसे किसी भी लिहाज से बहुत बड़ा आंकड़ा कहा जा सकता है. ऐसे में यह मान कर चला जा सकता है कि किसी असरदार दखलअंदाजी की गैरमौजूदगी में भारत की जेलें इसी तरह भरी रहेंगी.

साल 2014 के आखिर तक कुल विचाराधीन कैदियों में से 43 फीसदी यानी तकरीबन 1.22 लाख लोग 6 महीने से ले कर 5 साल से ज्यादा वक्त तक विभिन्न हवालातों में बंद थे. इन में से कइयों ने तो जेल में इतना समय बिता लिया है, जितना उन्हें कुसूरवार होने की असली सजा के तौर पर भी नहीं बिताना पड़ता.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के रिकौर्ड के मुताबिक, 2.82 लाख विचाराधीन कैदियों में 55 फीसदी से ज्यादा मुसलिम, दलित और आदिवासी थे.

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साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश की कुल आबादी में इन 3 समुदायों का सम्मिलित हिस्सा 39 फीसदी है. इस में मुसलिम, दलित और आदिवासी क्रमश: 14.3 फीसदी, 16.6 फीसदी और 8.6 फीसदी हैं. लेकिन कैदियों के अनुपात के हिसाब से देखें, जिस में विचाराधीन और कुसूरवार करार दिए गए, दोनों तरह के कैदी शामिल हैं, इन समुदायों के लोगों का कुल अनुपात देश की आबादी में इन के हिस्से से ज्यादा है.

जानें आगे अगले भाग में…

हर कदम दर्द से कराहती बाल विधवाएं

उस पर भी विडंबना यह है कि ऐसी लड़कियों का दोबारा ब्याह नहीं किया जाता, बल्कि इन का किसी भी उम्र के मर्द से ‘नाता’ कर दिया जाता है. इस के बाद भी इन की जिंदगी में कोई खास सुधार नहीं आता. ये उन मर्दों की पहली पत्नियों के बच्चों का लालनपालन करते हुए अपनी जिंदगी का बो झ ढो रही होती हैं.

गरीबी व परिवार की तंगहाली और पुरातन परपंराओं ने बाल विवाह को बढ़ावा दिया और बड़े लैवल पर बाल विधवाओं को जन्म दिया. राजस्थान के हजारों गांवों में अब भी ऐसी विधवाएं बदकिस्मती का बो झ उठाए अनाम सी जिंदगी जी रही हैं.

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पहले बाल विवाह, अब बाल विधवा, आखिर किस से कहें अपना दर्द… न परिवार ने सुनी और न सरकार ने कोई मदद की… उस पर भी समाज की ‘आटासाटा’ और ‘नाता’ जैसी प्रथाओं ने जिंदगी को नरक बना दिया… पेश हैं बाल विधवाओं की सच्ची दास्तान:

‘आटासाटा’ ने छीना बचपन

नाम सुनीता. 4 साल की उम्र में शादी. एक साल बाद ही विधवा और अब जिंदगीभर विधवा के नाम से ही पहचान बने रहने की पीड़ा.

इस समय 11 साल की सुनीता अजमेर जिले के सरवाड़ गांव के सरकारी स्कूल में 7वीं जमात में पढ़ती है. स्कूल में भी उस की पहचान बाल विधवा के रूप में ही है.

सुनीता के इस हाल के पीछे बाल विवाह जैसी कुप्रथा तो है ही, लेकिन ‘आटासाटा’ का रिवाज भी इस का जिम्मेदार है. इस रिवाज के चलते परिवार बेटे के लिए बहू मांगते हैं और वहीं बेटी के बदले दामाद की फरमाइश करते हैं. जहां यह मांग पूरी होती है, वहीं शादी तय होती है. सुनीता भी इसी रिवाज के जाल में फंस गई.

सुनीता के दादा रामप्रताप 8 साल के पोते की जल्दी शादी कराने के लिए उतावले थे. लड़की भी मिल गई, लेकिन लड़की के घर वाले चाहते थे कि इस के बदले में लगे हाथ परिवार के 7 साल के मुकेश को भी दुलहन मिल जाए.

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सुनीता की बड़ी बहन जसोदा मुकेश से काफी बड़ी थी, इसलिए मुकेश की दुलहन बनने का जिम्मा 4 साल की सुनीता के सिर आ पड़ा. शादी होने के कुछ महीने बाद ही सुनीता विधवा भी हो गई.

शादी के बाद से ही मांबाप के घर रह रही सुनीता को तुरतफुरत उस की ससुराल ले जाया गया, जहां विधवा होने की सारी रस्में उस के साथ पूरी की गईं. उस की नाजुक कलाइयों में मौजूद चूडि़यों को बेरहमी से तोड़ा गया और मांग का सिंदूर मिटा दिया गया.

हर कदम पर पहरा

राजसमंद जिले के रतनाड़ा गांव की 15 साला सुमन की गांव में बाल विधवा के रूप में पहचान है. उसे विधवा हुए 9 साल हो चुके हैं.

रतनाड़ा गांव के पास वाले गांव में रहने वाले उस के पति की मौत तालाब में डूबने से हो गई. पति की मौत के बाद उस के घर वालों ने उसे विधवा का मतलब सम झाया. उसे रंगीन कपड़े और जेवर पहनने से मना किया गया, हंसनेखेलने से मना किया गया, पेटभर खाना खाने से रोका गया. तीजत्योहारों पर सजनेसंवरने और मेलों में घूमने पर पाबंदी लगा दी गई.

इतना ही नहीं, उसे अकेले रहने के लिए जबरन मजबूर किया गया. इन नियमकायदों का पालन नहीं करने पर उसे मारापीटा तक जाने लगा.

शादी और विधवा का मतलब भी नहीं सम झी होगी कि सुमन को फिर किसी दूसरे मर्द के यहां ‘नाते’ पर बैठा दिया गया. जहां वह ‘नाता’ के तहत गई, इस की कोई गारंटी नहीं है कि वहां कितने दिन उसे रखा जाएगा.

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इस पर भी विडंबना यह है कि इस बाल विधवा के ‘नाता’ जाने के दौरान दुलहन को रंगीन जोड़ा तक पहनने की इजाजत नहीं होती है. दूल्हा भी घोड़ी नहीं चढ़ सकता है.

दिलचस्प बात तो यह भी है कि राजस्थान के कई इलाकों में इतना घोर अंधविश्वास है कि नई ससुराल में ‘नाते’ आई बाल विधवाओं का प्रवेश भी रात के अंधेरे में पिछले दरवाजे से कराया जाता है.

‘नाता’ भी नहीं महफूज

टोंक जिले के कल्याणपुरा गांव की रहने वाली प्रेमा का ब्याह कब हुआ, उसे खुद मालूम नहीं. कब वह विधवा हुई, यह भी उसे याद नहीं. ये घटनाएं जिंदगी में तभी घटित हो गईं, जब वह मां की गोद में रहती थी.

20 साल की होने पर प्रेमा के पिता को उस के लिए दूसरा साथी मिला. उस के साथ प्रेमा का ‘नाता’ कर दिया गया. एक साल बाद उस ‘नाते’ के पति ने प्रेमा को अपने साथ नहीं रखा और उसे पिता के पास छोड़ गया.

आज प्रेमा फिर अपने पिता व भाई के साथ रह कर अपनी जिंदगी काट रही है. अब प्रेमा को न तो बाल विधवा कहा जा सकता है और न ही छोड़ी हुई, क्योंकि ‘नाता’ की कहीं कोई मंजूरी नहीं है. ऐसे में सरकार भी उस की कोई मदद नहीं कर सकती. समाज ही आगे आए तो कोई बात बने.

बेघर होने का डर

टोंक जिले के ही दूनी गांव की रहने वाली 22 साला केशंता की शादी 11 साल की उम्र में कर दी गई थी. पड़ोस के ही धारोला गांव के रहने वाले उस के पति रामधन को सांप ने काट लिया था, जिस से उस की मौत हो गई थी. इस से 15 साल की उम्र में ही केशंता बाल विधवा बन गई.

तालीम से दूर केशंता अब अपने पिता के साथ खेतों में काम करती है. बाल विवाह की गलत परंपरा ने केशंता का बचपन छीन लिया. सारी खुशियां और मौजमस्ती से उसे दूर कर दिया.

केशंता को ‘नाता’ भेजने से उस का पिता भी डरता है. केशंता के पिता का मानना है कि ‘नाता’ प्रथा में बेटी  की जिंदगीभर की हिफाजत की गारंटी नहीं है. लड़की को कभी भी बेघर किया जा सकता है.

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बावजूद इस के, केशंता को भी एक न एक दिन ‘नाता’ भेज दिया जाएगा. समाज के तानों और दबाव के आगे पिता भी बेबस है, भले ही बेटी की जिंदगी नरक बन रही हो.

बेटी जीने का सहारा

5 साल की उम्र में शादी हुई और 15 साल की उम्र में मां बन गई. और तो और 17 साल की उम्र में विधवा.

यह बाल विधवा बूंदी जिले के देवली गांव की संतोष तंवर है. उस पर अपनी जिंदगी के साथसाथ एक बेटी की भी जिम्मेदारी समाज की इस गलत परंपरा ने डाल दी है.

संतोष की बेटी अभी डेढ़दो साल की हुई थी कि उस के पति की एक सड़क हादसे में मौत हो गई. इस समय उम्र के 23वें पड़ाव पर चल रही संतोष जब भी चटक रंग के कपड़े या गहने पहनती है तो गांव की औरतें ताने मारती हैं.

संतोष न दोबारा शादी कर सकती है और न ही ‘नाता’ जा सकती है. ऐसा करने पर उसे अपनी बेटी को ससुराल या अपने पिता के घर छोड़ना पड़ता है. मायके में 3 साल रहने के बाद अब वह ससुराल में ही एक कमरे में रहती है. खेतों में काम करते हुए वह अपना गुजारा कर रही है.

फिलहाल संतोष अपनी बेटी को ही बेटा मान कर तालीम दिला रही है. वह सपना देखती है कि बेटी जब बड़ी हो जाएगी तो उसे जिंदगी में थोड़ा सुकून मिलेगा. मगर सामाजिक तानाबाना ही उसे बदकिस्मती से बाहर आने नहीं देगा. विधवा होने के चलते उसे अपनी ही बेटी की शादी की रस्मों में शामिल नहीं होने दिया जाएगा.

दर्द यहां भी कम नहीं

ऐसा नहीं है कि बाल विवाह के दर्द से नीची व पिछड़ी सम झी जाने वाली जातियों की औरतें ही पीडि़त हैं, बल्कि ऊंची सम झी जाने वाली ब्राह्मण जैसी जातियों की औरतें भी इस गलत परंपरा से पीडि़त हैं.

ब्राह्मण समाज में औरतों के दोबारा ब्याह करने का प्रचलन वैसे ही कम है. शहरी समाज में भले ही बदलाव आ गया हो, लेकिन गंवई इलाकों के हालात जस के तस हैं.

टोंक जिले के पीपलू गांव की रहने वाली 24 साल की खुशबू तिवारी की शादी 15 साल की उम्र में ही हो गई थी और 17 साल की उम्र में विधवा भी हो गई. इस उम्र में वह एक बेटी की मां भी बनी थी. पति की मौत के बाद ससुराल में वह बेटे के साथ अलग रह रही है.

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समाजजाति कोई भी हो, यह समाज  विधवा औरतों का जीना दूभर कर देता है. सम्मान व सहारा देने के बजाय उस का शोषण करने के तरीके खोजता है. खुशबू जिस घर में बहू बन कर गई थी, आज उसे अपनी बेटी के साथ उसी घर में अलग एक कमरे में रहना पड़ रहा है.

अपने ही हुए पराए

सवाई माधोपुर जिले के बौली गांव की रहने वाली 26 साला ममता कंवर का ब्याह 12 साल की उम्र में महिपाल सिंह से हुआ. साल 2017 में उस के पति की मौत थ्रेशर मशीन में फंसने से हो गई. इस से उस पर एक बेटे और 2 बेटियों को पालने की जिम्मेदारी आ गई.

राजपूत समाज में भी विधवाओं को दोबारा ब्याह करने की इजाजत नहीं है. ममता को संतुलित भोजन नहीं दिया जाता, दूधसब्जी पर रोक है.

इतना ही नहीं, ममता के घर से निकलने पर भी पाबंदी लगा दी गई है. राजपूत विधवाओं को काला व कत्थई रंग के कपड़े ही पहनने की इजाजत है.

अपने ही लोगों के बीच एक कैदी की तरह रहने को ये विधवाएं मजबूर हैं. इन के दोबारा ब्याह करने के बारे में सोचना भी परिवार व समाज को गवारा नहीं है.

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संविधान पर खतरा 

आम लोगों को एक सरकार से बहुत उम्मीदें होती हैं चाहे हर 5 साल बाद पता चले कि सरकार उम्मीदों पर पूरी नहीं उतरी. सरकार चलाने वालों के वादे असल में पंडेपुजारियों की तरह होते हैं कि हमें दान दो, सुख मिलेगा. हमें वोट दो, पैसा बरसेगा. अब के तो जैसे हम लोगों ने पंडेपुजारियों को ही संसद में चुन कर भेजा है. यह तब पक्का हो गया जब संसद सदस्यों ने लोकसभा में शपथ ली.

भाजपा सांसद कभी गुरुओं का नाम लेते, कभी ‘भारत माता की जय’ का नारा बोलते, तो कभी ‘वंदे मातरम’ और ‘जय श्रीराम’ एकसुर में चिल्लाते रहे. यह सीन एक धीरगंभीर लोकसभा का नहीं, एक प्रवचन सुनने के लिए जमा हुई भीड़ का सा लगने लगा था. भाजपा की यह जीत धर्म के दुकानदारों, धर्म की देन जातिवाद के रखवालों, हिंदू राष्ट्र की सपनीली जिंदगी की उम्मीदें लगाए थोड़े से लोगों की अगुआई वाली पार्टी के अंधे समर्थकों को चाहे अच्छी लगे, पर यह देश में एक गहरी खाई खोद रही हो, तो पता नहीं.

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जिन्हें हिंदू धर्मग्रंथों का पता है वे तो जानते हैं कि हम किस कंकड़ भरे रास्ते पर चल रहे हैं जहां झंडा उठाने वाले और जयजयकार करने वाले तो हैं, पर काम करने वाले कम हैं. ज्यादातर धर्मग्रंथ, हर धर्म के, चमत्कारों की झूठी कहानियों से भरे हैं. ये कहानियां सुनने में अच्छी लगती हैं पर जब इन को जीवन पर थोपा जाता है तो सिर्फ भेदभाव, डर, हिंसा, लूट, बलात्कार मिलता है.

सदियों से दुनियाभर में अगर लोगों को सताया गया है तो धर्म के नाम पर बहुत ज्यादा यह राजा की अपनी तानाशाही की वजह से बहुत कम था. पिछले 65 सालों में कांग्रेस का राज भी धर्म का राज था पर ऐसा जिस में हर धर्म को छूट थी कि अपने लोगों को मूर्ख बना कर लूटो. अब यह छूट एक धर्म केवल अपने लिए रखना चाह रहा है और संसद के पहले 2 दिनों में ही यह बात साफ हो रही थी.

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दुनिया के सारे संविधानों की तरह हमारा संविधान भी धर्म का हक देता है पर सभी जगह संविधान बनाने वाले भूल गए हैं कि धर्म का दुश्मन नंबर एक जनता का ही बनाया गया संविधान है. यह तो पिछले 300 सालों की पढ़ाई व नई सोच का कमाल है कि दुनिया के लगभग हर देश में एक जनप्रतिनिधि सभा द्वारा बनाया गया संविधान धर्म के भगवान के दिए कहलाए जाने वाले सामाजिक कानून के ऊपर छा गया है. अब भारत में कम से कम यह कोशिश की जा रही है कि हजारों साल पुराना धर्म का आदेश नए संविधान के ऊपर मढ़ दिया जाए.

सांसदों का शपथ लेने का पहला काम तो यही दर्शाता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी अपने वादों को याद रखेगी जो विकास और विश्वास के हैं न कि उन नारों के जो संसद में सुनाई दिए गए.

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