बेदर्द सरकार पेट पर पड़ी मार

आज भी बहुत से कामधंधे और कारोबार ऐसे हैं, जो सालभर न चल कर एक खास सीजन में ही चलते हैं और इन कारोबारों से जुड़े लोग इसी सीजन में कमाई कर अपने परिवार के लिए सालभर का राशनपानी जमा कर लोगों का पेट पाल लेते हैं. पर लगातार दूसरे साल कोरोना महामारी ने इन कारोबारियों पर रोजीरोटी का संकट पैदा कर दिया है.

हमारे देश में सब से ज्यादा शादीब्याह अप्रैल से जुलाई महीने तक होते हैं. इस वैवाहिक सीजन में कोरोना की मार से टैंट हाउस, डीजे, बैंडबाजा, खाना बनाने और परोसने वाले, दोनापत्तल बनाने वाले लोग सब से ज्यादा प्रभावित हुए हैं.

सरकारी ढुलमुल नीतियां भी इस के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं. पूरे मध्य प्रदेश में अप्रैल महीने में लौकडाउन लागू कर दिया, जबकि दमोह जिले में विधानसभा उपचुनाव के चलते सरकार बड़ी सभाओं और रैलियों में मस्त रही. सरकार की इन ढुलमुल नीतियों की वजह से लोगों का गुस्सा आखिरकार फूट ही पड़ा.

दमोह में उमा मिस्त्री की तलैया पर  चुनावी सभा संबोधित करने पहुंचे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का  डीजे और टैंट हाउस वालों ने खुला विरोध कर दिया. मुख्यमंत्री को इन लोगों ने जो तख्तियां दिखाईं, उन पर बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा था :

‘चुनाव में नहीं है कोरोना,

शादीविवाह में है रोना.

चुनाव का बहिष्कार,

पेट पर पड़ रही मार.’

आंखों पर सियासी चश्मा चढ़ाए मुख्यमंत्री को इन लोगों का दर्द समझ नहीं आया. लोगों के गुस्से की यही वजह भाजपा उम्मीदवार राहुल लोधी की हार का सबब बनी.

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पिछले साल के लौकडाउन से सरकार ने कोई सबक नहीं लिया और न ही कोरोना से लड़ने के लिए कोई माकूल इंतजाम किए. मध्य प्रदेश के गाडरवारा तहसील के सालीचौका रोड के बाशिंदे दिनेश मलैया अपनी पीड़ा बताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा टैंट डैकोरेशन का काम है, जिसे मैं घर से ही चलाता हूं, लेकिन इस कोरोना बीमारी के चलते पिछले साल सरकार के लगाए हुए लौकडाउन में पूरा धंधा चौपट हो गया.

‘‘पिछले साल का नुकसान तो जैसेतैसे सहन कर लिया, लेकिन इस साल फिर वही बीमारी और लौकडाउन ने तंगहाली ला दी है. इस साल शादियों के सीजन को देखते हुए कर्ज ले कर टैंट डैकोरेशन का सामान खरीद लिया था, पर लौकडाउन की वजह से धंधा चौपट हो गया.’’

साईंखेड़ा के रघुवीर और अशोक वंशकार का बैंड और ढोल आसपास के इलाकों में जाना जाता है, लेकिन पिछले 2 साल से शादियों में बैंडबाजा की इजाजत न होने से उन के सामने रोजीरोटी का संकट खड़ा हो गया है.

वे कहते हैं कि सरकार और उन के मंत्री व विधायक सभाओं और रैलियों में तो हजारों की भीड़ जमा कर सकते हैं, पर 10-15 लोगों की बैंड और ढोल बजाने वाली टीम से उन्हें कोरोना फैलने का खतरा नजर आता है.

दोनापत्तल का कारोबार करने वाले नरसिंहपुर के ओम श्रीवास बताते हैं, ‘‘मार्च के महीने में ही बड़ी तादाद में दोनापत्तल बनवा कर रख लिए थे, पर अप्रैल महीने में लौकडाउन के चलते शादियों में 20 लोगों के शामिल होने की इजाजत मिलने से दोनापत्तल का कारोबार ठप हो गया.’’

शादीब्याह में भोजन बनाने का काम करने वाले राकेश अग्रवाल बताते हैं कि उन के साथ 50 से 60 लोगों की टीम रहती है, जो खाना बनाने और परोसने का काम करती है, लेकिन इस बार इन लोगों को खुद का पेट भरने का कोई काम नहीं मिल रहा है.

शादियों में मंडप की फूलों से डैकोरेशन करने वाले चंदन कुशवाहा ने तो कर्ज ले कर फूलों की खेती शुरू की थी. चंदन को उम्मीद थी कि उन के खेतों से निकले फूलों से वे शादियों में डैकोरेशन कर खूब पैसा कमा लेंगे, पर कोरोना महामारी के चलते सरकार ने जनता कर्फ्यू लगा कर उन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

हाथ ठेला पर सब्जी और फल बेचने वालों का बुरा हाल है. लौकडाउन में वे अपने परिवार के लिए भोजनपानी की तलाश में कुछ करना चाहते हैं, तो पुलिस की सख्ती उन्हे रोक देती है. हाथ ठेला लगाने वाले ये विक्रेता गांव से सब्जी खरीद कर लाते हैं और दिनभर की मेहनत से उन्हें सिर्फ 200-300 रुपए ही मिल पाते हैं.

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रायसेन जिले के सिलवानी में नगरपरिषद के सीएमओ ने जब एक फलसब्जी बेचने वाले का हाथ ठेला पलट दिया, तो उस का गुस्सा फूट पड़ा और मजबूरन उसे सीएमओ से गलत बरताव करना पड़ा.

यही समस्या दिहाड़ी मजदूरों की भी है, जिन्हें लौकडाउन की वजह से काम नहीं मिल पा रहा है और उन के बीवीबच्चे भूख से परेशान हैं. दिहाड़ी मजदूर रोज कमाते हैं और रोज राशन दुकान से सामान खरीदते हैं, पर राशन दुकान भी बंद हैं.

राजमिस्त्री का काम करने वाले रामजी ठेकेदार का कहना है कि सरकारी ढुलमुल नीतियों की वजह से गरीब मजदूर ही परेशान होता है.

सरकार अभी तक यह नहीं समझ पाई है कि कोरोना वायरस का इलाज लौकडाउन नहीं है, बल्कि सतर्क और जागरूक रह कर उस से मुकाबला किया जा सकता है. पिछले साल से अब तक सरकार अस्पतालों में कोई खास इंतजाम नहीं कर पाई है. जैसे ही अप्रैल महीने  में संक्रमण बढ़ा, तो सरकार ने अपनी नाकामी छिपाने के लिए लौकडाउन  लगा दिया.

सरकार की इस नीति से लाखों की तादाद में छोटामोटा कामधंधा करने वाले लोगों की रोजीरोटी पर जो बुरा असर पड़ा है, उस की भरपाई सालों तक पूरी नहीं हो सकती.

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गोरखधंधा: जनहित याचिकाएं बनाम संघ का एजेंडा

भारतीय जनता पार्टी के नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय आजकल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडा को देशभर में लागू कराने के लिए सड़क  से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक जोर लगा  रहे हैं. कभी उन्हें हिंदुओं के अल्पसंख्यक हो जाने का डर सताता है, तो कभी मुसलिम ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं, इस बात का शक होने लगता है. कभी वे कोर्ट से राष्ट्रीय औसत के बजाय राज्य में किसी समुदाय की आबादी के आधार पर उसे ‘अल्पसंख्यक’ परिभाषित करने के लिए दिशानिर्देश जारी करने की गुजारिश करते हैं, तो कभी वे हिंदुओं की तादाद बचाने के लिए धर्मांतरण को रोकना चाहते हैं.

इतना ही नहीं, कभी वे आबादी पर कंट्रोल के लिए याचिका ले कर कोर्ट पहुंच जाते हैं, तो कभी मुसलिमों में प्रचलित निकाह, हलाला और बहुविवाह प्रथाओं को खत्म करने के लिए याचिका दाखिल कर मांग करते हैं कि मुसलिम समाज में प्रचलित इन प्रथाओं को असंवैधानिक करार दिया जाए.

देश में आबादी के कंट्रोल के लिए  2 बच्चों के मानदंड समेत कुछ उपायों पर अमल के लिए भी उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. यह याचिका उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर की थी. हालांकि इस पर भी कोर्ट ने साफ कह दिया था कि कानून बनाना अदालत का नहीं, बल्कि संसद और विधानमंडल का काम है.

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हालिया याचिका अश्विनी कुमार उपाध्याय ने धर्मांतरण को रोकने के लिए डाली है. उन्हें लगता है कि तरहतरह के लालच और टोनेटोटकों के जरीए हिंदुओं को बहका कर उन का धर्म बदला जा रहा है. दरअसल, ये तमाम परेशानियां वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय की कोई निजी परेशानियां नहीं हैं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडा में जितनी बातें हैं, वही उन की ‘जनहित याचिकाओं’ में नजर आती हैं.

वे अदालतों को औजार की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं और चाहते हैं कि धर्मनिरपेक्ष देश भारत को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इच्छा के मुताबिक एक  हिंदू देश में बदलने के  लिए जो चीजें होनी जरूरी हैं, उन पर देश की सब से बड़ी अदालत अपनी मोहर लगा दे.

गौरतलब है कि ऊंची जाति के हाथों शोषित और मनुवादी व्यवस्था से उकता चुके दलित और आदिवासी लोग बीते कई सालों से बौद्ध, ईसाई या मुसलिम धर्म की ओर खिंच रहे हैं. उन्हें हिंदू धर्म में रोके रखने की कोशिश संघ और भाजपा की है.

यही वजह है कि चुनाव के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह दलितों की ?ांपडि़यों में नजर आने लगते हैं. कहीं उन के पैर पखारते दिखते हैं, तो कहीं उन के साथ पत्तल में खाना खाते नजर आते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही दलित फिर उन के लिए अछूत हो जाते हैं.

इन पाखंडों को अब दलित और आदिवासी समाज अच्छी तरह समझने लगा है. बीते कुछ सालों में बड़ी तादाद में दलितों ने बौद्ध धर्म अपना लिया है. संघ और भाजपा इस बात को ले कर चिंतित हैं और उन की चिंता का हल निकालने के लिए अश्विनी कुमार उपाध्याय जैसे वकील ‘जनहित याचिका’ के जरीए कोर्ट और सरकार के डंडे का इस्तेमाल कर के हिंदू धर्म को बचाने की बेढंगी कोशिशों में जुटे हैं.

यह कैसी ट्रैजिडी है कि सब से बेहतर धर्म को बचाने के लिए अब सरकारी डंडे की जरूरत आ पड़ी है. कोर्ट से गुजारिश की जा रही है कि वह सरकार को निर्देश दे कि वह हिंदू को हिंदू बनाए रखने के लिए कानून बनाए और सजा का प्रावधान करे, लेकिन क्या ऐसा मुमकिन है? बिलकुल नहीं.

अश्विनी कुमार उपाध्याय सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं. उन की हालिया याचिका काला जादू, अंधविश्वास और जबरन धर्मांतरण को ले कर थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 9 अप्रैल, 2021 को यह कह कर खारिज कर दिया कि यह किस तरह की याचिका है?

अश्विनी कुमार उपाध्याय हमेशा उन मुद्दों पर जनहित याचिका दायर करते हैं, जो उन की पार्टी के एजेंडा में सब से ऊपर हैं, जैसे योग, वंदे मातरम, निकाह, हलाला, धर्मांतरण रोकना वगैरह.

सुप्रीम कोर्ट ने 9 अप्रैल, 2021 को अश्विनी कुमार उपाध्याय की जो याचिका खारिज की है, उस में उन्होंने कोर्ट से गुजारिश की थी कि केंद्र और राज्यों को काले जादू, अंधविश्वास और धार्मिक रूपांतरण को कंट्रोल करने, धमकाने, धमकी देने और उपहारों और  पैसे से फायदा पहुंचाने के जरीए कंट्रोल करने के लिए निर्देश देने का कष्ट करें, मगर सुप्रीम कोर्ट में 3 जजों जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऋषिकेश रौय की पीठ ने न सिर्फ उन की याचिका खारिज कर दी, बल्कि वह इस से काफी नाखुश भी दिखी और कह बैठी कि यह किस तरह की याचिका है?

अश्विनी कुमार उपाध्याय चाहते थे कि धर्म का गलत इस्तेमाल रोकने के लिए एक कमेटी बना कर धर्म बदलने से जुड़ा कानून बनाने की संभावना का पता लगाने के लिए निर्देश देने का कष्ट सुप्रीम कोर्ट करे.
उन की याचिका में कहा गया था कि लालच और जोरजबरदस्ती से धर्मांतरण किया जाना न केवल अनुच्छेद 14, 21 और 25 का उल्लंघन है, बल्कि यह संविधान के मूल ढांचे के अभिन्न अंग धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के भी खिलाफ है और जादूटोना, अंधविश्वास और छल से धर्म बदलने पर रोक लगाने में
नाकाम रहे हैं, जबकि अनुच्छेद 51 ए के तहत इस पर रोक लगाना उन की जिम्मेदारी है.

समाज की कुरीतियों के खिलाफ ठोस कार्यवाही कर पाने में नाकामी का आरोप लगाते हुए याचिका में कहा गया कि केंद्र एक कानून बना सकता है, जिस में 3 साल की कम से कम कैद की सजा हो, जिसे 10 साल की सजा तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है.

अश्विनी कुमार उपाध्याय चाहते हैं कि केंद्र राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी धार्मिक समूहों के मामलों से निबटने और उन के बीच धार्मिक भेदभाव का गहराई से स्टडी कराने के लिए हक दे.
याचिका में विधि आयोग को जादूटोना, अंधविश्वास और धर्मांतरण पर 3 महीने के भीतर एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए निर्देश देने की भी गुजारिश की गई थी. उन का मानना है कि  जनसंख्या विस्फोट और छल से धर्मांतरण के चलते 9 राज्यों और केंद्र शासितप्रदेशों में हिंदू अल्पसंख्यक हो गए हैं और दिनोंदिन हालात और खराब होते जा रहे हैं.

इस याचिका के खारिज होने के बाद से ही सोशल मीडिया पर अश्विनी कुमार उपाध्याय के खिलाफ कई कड़ी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं और मिलें भी क्यों न, जिस देश का कानून देश के हर नागरिक को बालिग होने के बाद उस का धर्म और जीवनसाथी चुनने की आजादी देता है, उसे कंट्रोल करने का आदेश भला सुप्रीम कोर्ट कैसे दे सकता है?

माथे पर तिलक लगाने वाले, पत्नी समेत मंदिरमंदिर जा कर पूजा करने वाले, बाबाओं और संतों की संगत करने वाले, उन के आध्यात्मिक विचारों (जिन का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता) से प्रभावित रहने वाले भाजपा नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय किसी दूसरे को उस की आस्था, उस के विश्वास और उस की पसंदनापसंद पर पाबंदी लगाने के लिए कैसे मजबूर कर सकते हैं, यह बात कोर्ट के जेहन में भी जरूर आई होगी.

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दरअसल, अश्विनी कुमार उपाध्याय भाजपा और संघ के एजेंडा को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश में हैं, ताकि भविष्य की राजनीति में उन का सिक्का भी चल निकले, मगर हालिया याचिका पर उन की काफी भद्द पिट रही है.

याचिका खारिज होने के बाद वे अपने फेसबुक पेज पर लिखते हैं, ‘काला जादू, अंधविश्वास और साम, दाम, दंड और भेद द्वारा धर्मांतरण के खिलाफ मेरी पीआईएल खारिज नहीं हुई है, बल्कि मैं ने वापस ली है. मैं अब गृह मंत्रालय, कानून मंत्रालय और विधि आयोग को विस्तृत प्रार्थनापत्र दूंगा. अगर 6 महीने में सरकार ने धर्मांतरण के खिलाफ कानून नहीं बनाया, तो मैं फिर सुप्रीम कोर्ट जाऊंगा.’

अश्विनी कुमार उपाध्याय की इस पोस्ट के जवाब में काफी लोगों ने उन की आलोचना की है. सूर्य विक्रम सिंह लिखते हैं, ‘उपाध्यायजी कभी जिंदगी की मूलभूत जरूरतों पर ध्यान दें, तो कितना अच्छा लगे. मगर, सत्ता की तरह आप भी गुमराह करने में लगे हैं.’

दीपक नागर कहते हैं, ‘हां, हम जानते हैं कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आप की पीआईएल खारिज कर दी है और कहा है कि 18 साल का बालिग इनसान अपने लिए कोई भी धर्म चुन सकता है, यह उस का मूलभूत अधिकार है और इस तरह की पीआईएल सिर्फ ‘चीप पब्लिसिटी’ (घटिया प्रचार) के लिए की जाती है.’
कोरोना काल में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बिलकुल चरमरा गई है, अस्पतालों में मरीजों के लिए बिस्तर, दवाएं, इंजैक्शन नहीं हैं, श्मशान घाटों पर लाशों के ढेर लग रहे हैं, डाक्टर खुद बीमार हो रहे हैं, क्योंकि खुद
को बचाने के लिए जरूरी सुरक्षा किट नहीं हैं.

यह अश्विनी कुमार उपाध्याय को नहीं दिखता. 10 करोड़ लोगों को वैक्सीन देने के बाद अब वैक्सीन का भी टोटा पड़ने लगा है, बेरोजगारी की मार से जनता कराह रही है, नौकरीकारोबार सब ठप हो चुके हैं, प्लेन चलाने वाला पायलट डिलीवरी बौय बन गया है, शिक्षक मनरेगा में मजदूरी कर रहा है, बड़ीबड़ी पोस्ट पर काम कर चुके लोग सब्जी का ठेला खींच रहे हैं, चाय का खोखा खोलने को मजबूर हैं… आखिर देश को इस गड्ढे से निकालने के लिए सरकार क्या कर रही है, क्या इस पर भी कोई जनहित याचिका अश्विनी कुमार उपाध्यायजी डालेंगे?

नरेंद्र मोदी वर्सेज राहुल गांधी:  “खरगोश और कछुए” की नई कहानी

राहुल गांधी ने 18 अप्रैल को ट्वीट करते हुए कहा कि वे पश्चिम बंगाल की चुनावी रैलियों को रद्द कर रहे हैं.

दरअसल,जिस तरह देश में और पश्चिम बंगाल में कोरोना का अति संक्रमण हुआ है उसके मद्देनजर पश्चिम बंगाल में चुनावी रैली आयोजित करना किसी भी तरह से लोकहित में नहीं कहा जा सकता है. राहुल ने देश की इसी मन भावना को , नब्ज को समझ कर के ट्वीट करते हुए जैसे ही या कहा कि वे चुनावी रैलियां कोरोना के मद्देनजर रद्द कर रहे हैं देश में उनका ट्वीट पसंद किया जाने लगा.

ऐसे में भी  जहां भाजपा राहुल गांधी पर आक्रमक हो गई वहीं देशभर में राहुल गांधी के पक्ष में का माहौल दिखाई पड़ रहा है.

अब सवाल यह है कि आगे भाजपा की रणनीति क्या होगी. क्या वह पश्चिम बंगाल के आगामी 3 चरणों का, जो चुनाव बाकी है उसमें प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी की रैलियां अमित शाह की रैलियां आयोजित करने का दुस्साहस कर पाएगी.

देश में जारी पांच राज्य के विधानसभा चुनाव के अब अंतिम समय में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल की चुनाव रैलियां, कोरोना वायरस की भयंकर रूप से फैलाओ के परिप्रेक्ष्य में रद्द करने के साथ ही यह संदेश देशभर में दे दिया है कि   उन्होंने जो निर्णय लिया है वह  आम लोगों के भले के लिए है. राहुल गांधी के इस फैसले की अखबारों में संपादकीय लिखकर और सोशल मीडिया मे प्रशंसा का दौर शुरू हो गया है यह निसंदेह राहुल गांधी का एक साहसिक कदम है और साथ ही देश के सभी राजनीतिक दलों को एक यह सन्देश भी  की देशवासियों मतदाताओं की जान कीमती है, चुनाव में हार और जीत नहीं. और रैलिया बुलाकर जिस तरीके से भीड़ इकट्ठा की जा रही है वह बड़ी ही शर्मनाक है.

आपकी जानकारी में बताते चलें कि कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष

राहुल गांधी ने  अंग्रेजी में ट्वीट करते हुए यह  कहा,- ‘कोविड की स्थिति को देखते हुए मैं पश्चिम बंगाल में अपनी सभी सार्वजनिक रैलियों को स्थगित कर रहा हूं.मैं सभी राजनीतिक नेताओं को सलाह दूंगा कि मौजूदा परिस्थितियों में बड़ी सार्वजनिक रैलियों के आयोजन के परिणामों पर गहराई से विचार करें.’ आगे राहुल गांधी ने हिन्दी में ट्वीट करते हुए लिखा- “कोविड संकट को देखते हुए, मैंने पश्चिम बंगाल की अपनी सभी रैलियां रद्द करने का निर्णय लिया है राजनैतिक दलों को सोचना चाहिए कि ऐसे समय में इन रैलियों से जनता व देश को कितना ख़तरा है.’

राहुल के सामने मोदी की जुबां बंद!

यह देश जानता है कि भाजपा और भाजपा के नेता जो सत्ता का आनंद ले रहे हैं वे राहुल गांधी को फूटी आंख पसंद नहीं करते. लंबे समय से राहुल गांधी को पप्पू का कहकर उनका मजाक उड़ाने का काम भाजपा के शीर्ष नेता करते रहे हैं. ऐसे में राहुल गांधी ने अनेक दफा यह बताया है कि उनकी सोच कितनी गहरी है जिस का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण वर्तमान में देखने को मिल रहा है .

इस घटनाक्रम के पश्चात भाजपा के बड़े नेता कुछ भी बोलने से गुरेज कर रहे हैं. सभी जानते हैं कि कोरोना कोविड-19 का संक्रमण इस समय कितना भीषण है. ऐसे में जो इस देश के नेता है कर्णधार बने हुए हैं अगर पश्चिम बंगाल के कोने कोने में जाकर रेलिया कर रहे हैं, लाखों लोगों की भीड़ जुटा रहे हैं और सत्ता को किसी भी तरीके से प्राप्त कर लेना चाहते हैं, के सामने यह यक्ष प्रश्न है कि सत्ता बड़ी है या आम जनता का जीवन.

पश्चिम बंगाल के इस चुनाव में हो सकता है भाजपा बाजी मार ले मगर आने वाले समय में वह लोगों को क्या जवाब देगी, जब संक्रमण के कारण जाने कितने लोग हलाक हो चुके होंगे. भाजपा अपनी मोटी चमड़ी और आज के अपने ढीट स्वभाव के कारण चाहे कुछ भी कहे, मगर इतिहास में तो भाजपा को जवाब देना ही होगा.

राहुल गांधी ने  एक और ट्वीट के जरिए नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा, जिसमें अपनी पीठ ठोकते हुए  बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि-” रैली में इतनी भीड़ है कि जहां तक उनकी नजर जा रही है, लोग ही लोग दिख रहे हैं.”

इसी संदर्भ में राहुल गांधी ने ट्वीट कर लिखा- “बीमारों और मृतकों की भी इतनी भीड़ पहली बार देखी है!’

राहुल गांधी के टि्वट में जो भाव है उसे आम लोगों ने महसूस किया और वहीं भाजपा के नेता बौखला गए और कहने लगे कि कांग्रेस की हालत पश्चिम बंगाल में तो खराब है, वह तो पिक्चर में ही नहीं है यही कारण है कि  राहुल की रैलिया रद्द की गई है. हो सकता है भाजपा आज आत्मविश्वास में है और अपनी हालत बहुत अच्छी समझ रही है. तो ऐसे में यह निर्णय करने में क्या गुरेज की रैलियां नहीं की जाएं और चुनाव को कोरोना प्रोटोकॉल के तहत लड़ा जाए.

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आपको खबर रहे, पश्चिम बंगाल विधानसभा का कार्यकाल 30 मई को समाप्त हो रहा है. यहां 17 वीं विधानसभा  के लिए  7,34,07,832 वोटर्स उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला 27 मार्च से जारी है. पश्चिम बंगाल में कुल आठ चरणों में चुनाव हैं अब तक पांच चरणों के लिए मतदान हो चुके है और आगामी छठे चरण में 43 सीटों पर 22 अप्रैल को, सातवें चरण में 36 सीटों पर 26 अप्रैल को और आठवें और अंतिम चरण में 35 सीटों पर 29 अप्रैल को मतदान रखा गया है.

राहुल गांधी की भाजपा को धोबी पछाड़!

साधारण रूप से कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जिस तरीके से रैलीयों को रद्द करने की बात कही, उसका सभी और स्वागत किया जा रहा है. वहीं भाजपा आवाक है, मौन है या फिर आक्रमक है जो यह बताता है कि भाजपा हर चीज में राजनीति ढूंढ लेती है या फिर फर्जी राष्ट्रवाद का सहारा लेती है.

राहुल गांधी ने जिस तरीके से अपनी बात कही है उसे लोगों ने पसंद किया है और जब महसूस किया है कि इसमें सद्भावना है राजनीति नहीं और यही राजनीति का मूल तत्व भी है.

आने वाले समय में अगर राहुल गांधी के इस अपेक्षा पर मोदी और अन्य राजनीतिक दल खरे नहीं उतरे और आगे चलकर कोरोना के कारण लोगों का संक्रमण बढ़ा महामारी बढ़ गई तो भाजपा को यह महंगा पड़ेगा.

यहां यह आंकड़े भी दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने जहां अभी तक देश में 143 चुनावी रैलियां की हैं वहीं, अकेले पश्चिम बंगाल में उन्होंने 17 रैलियां को संबोधित किया हैं. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी पश्चिम बंगाल में ताबड़तोड़ रैलियां कर रहे हैं. उन्होंने पश्चिम बंगाल में 17 रैलियां कर चुके हैं.  कांग्रेस के अध्यक्ष रहे राहुल गांधी ने भी रैलियां करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है लेकिन मोदी जी का मुकाबला करने के मामले में वे बहुत पीछे हैं .कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आज दिनांक तक देश में 126 रैलियां की है. हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की तुलना में उन्होंने मात्र तीन रैलियां पश्चिम बंगाल में की है. राहुल गांधी इस चुनाव में अब तक 8 रोड शो कर चुके हैं जबकि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह 20 रोड शो कर चुके हैं.

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मुख्तसर इस “खरगोश कछुआ की दौड़” की नई  कहानी में भले ही भाजपा आगे दिखाएं दे रही है नरेंद्र मोदी अमित शाह बहुत आगे दिखाई दे रहे हैं मगर कोरोना से लड़ने के परिपेक्ष में जिस तरीके से राहुल गांधी ने चुनावी रैलियों से कांग्रेस को पीछे कर लिया है उससे भाजपा के इन  नेताओं की बोलती बंद है.

भाजपा को न तो कुछ करते बन रहा है और न ही कुछ उगलते.

सियासत : कांग्रेस में रार, होनी चाहिए आर या पार

राजनीति में जब मनमुताबिक हालात नहीं होते हैं तो किसी सियासी दल की हालत उस डूबते जहाज की तरह हो जाती है, जिस के चूहे सब से पहले उसे छोड़ कर समुद्र में छलांग लगाते हैं. पर चूहे अगर कद्दावर हों तो जहाज के कप्तान को काटने से भी गुरेज नहीं करते हैं.

आज अगर सरसरी निगाहों से देखा जाए तो कांग्रेस इसी डूबते जहाज सी हो गई है. देश को अपने कई साल के राज से नई दिशा देने वाली कांग्रेस आज खुद दिशाहीन लग रही है. इतनी ज्यादा कि कोई भी छुटभैया नेता उसे ज्ञान बघार देता है.

हालिया बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार को ले कर अब इसी पार्टी में बगावत के सुर सुनाई दे रहे हैं. इस के वरिष्ठ नेता और नामचीन वकील कपिल सिब्बल ने जैसे ही इस के शीर्ष नेतृत्व पर सवाल उठाए कि पार्टी की भीतरी कलह एक बार फिर सामने आ गई.

पर इसे भितरघात बताते हुए राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कपिल सिब्बल को ही निशाने पर ले लिया और साथ ही दूसरे नेता सलमान खुर्शीद ने कपिल सिब्बल को ही ‘डाउटिंग थौमस’ करार दे दिया.

दरअसल, ‘डाउटिंग थौमस’ उस आदमी को कहते हैं जो किसी भी चीज पर यकीन करने से इनकार करता है जब तक कि वह खुद न अनुभव करे या सुबूत न हो. इतना ही नहीं, सलमान खुर्शीद ने एक इंटरव्यू में कपिल सिब्बल को पार्टी छोड़ने तक की सलाह दे दी.

एक न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में सलमान खुर्शीद ने कपिल सिब्बल की तरफ इशारा करते हुए कहा कि अगर आप पार्टी में हैं और चीजों को खराब कर रहे हैं तो सब से अच्छा यही है कि आप पार्टी छोड़ दें.

सिब्बल का दुखती रग पर हाथ

सवाल यह है कि कपिल सिब्बल ने ऐसा क्या कहा कि कांग्रेस के दूसरे नेता उन पर हावी हो गए? दरअसल, कपिल सिब्बल ने एक इंगलिश अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में कथित तौर पर कहा था कि ऐसा लगता है कि पार्टी नेतृत्व ने शायद हर चुनाव में पराजय को ही अपनी नियति मान लिया है… बिहार ही नहीं, उपचुनावों के नतीजों से भी ऐसा लग रहा है कि देश के लोग कांग्रेस पार्टी को प्रभावी विकल्प नहीं मान रहे हैं.

अपनी पार्टी को कठघरे में खड़ा करने वाले कपिल सिब्बल अकेले ही नहीं हैं, उन के साथसाथ कांग्रेस महासचिव तारिक अनवर ने भी कथित तौर पर कहा था कि बिहार चुनाव को ले कर पार्टी को आत्मचिंतन करना चाहिए.

एक हिंदी अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में तारिक अनवर ने बिहार विधानसभा चुनाव पर कांग्रेस के प्रदर्शन पर कहा, ‘इस का जायजा लेना होगा कि हम लोगों से कहां चूक हो रही है. यह भी हो सकता है कि लंबे वक्त तक सत्ता में बने रहने से हमारे जो स्टेट लीडर हैं, वे आलसी हो गए हों, काम करने की ताकत न रही हो. इस खुशफहमी से बाहर निकलना होगा कि गांधी परिवार से कोई आएगा और हम जीत जाएंगे. ऐसा नहीं चलने वाला…’

तारिक अनवर की चिंता जायज है, पर यह भी कड़वा सच है कि कांग्रेस आज भी गांधी परिवार के इर्दगिर्द ही सिमटी दिखाई देती है और अगर कोई अपना ही इस परिवार पर उंगली उठाता है, तो उसे ‘डाउटिंग थौमस’ करार दे दिया जाता है.

फिर दिक्कत क्या है

ऐसा नहीं है कि जनता को गांधी परिवार से कोई दुश्मनी है या इस पार्टी में बड़े कद के नेताओं की कमी हो गई है, पर इतना जरूर है कि फिलहाल इस पार्टी का कोई भी पासा सही नहीं पड़ रहा है.

इस की एक खास वजह यह है कि कांग्रेस यह नहीं फैसला कर पा रही है कि वह अपने वोटरों का दिल जीतने के लिए दो नावों की सवारी का करतब कब तक करेगी. दो नावों की सवारी का मतलब है अपनी धर्मनिरपेक्षता पर अडिग रहना या सौफ्ट हिंदुत्व का राग अलापना.

पिछले कुछ साल में भारतीय जनता पार्टी लोगों के दिमाग में यह भरने में कामयाब रही है कि वह इस देश में हिंदुत्व की हिफाजत करने वाली एकलौती पार्टी है और तीन तलाक कानून, धारा 370, राम मंदिर पर लिए गए उस के फैसले ने देश में हिंदूमुसलिम तबके के बीच एक लकीर खींच दी है, जिसे मिटाने में कांग्रेस के हाथपैर फूल रहे हैं. वह अगर मुसलिम समाज के हित की बात करती है तो हिंदू समाज की नाराजगी झेलती है और अगर सौफ्ट हिंदुत्व की तरफ जाती है तो मुसलिमों से दूर हो जाती है.

बिहार में दिखा असर

हालांकि बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस तेजस्वी यादव के राष्ट्रीय जनता दल के साथ महागठबंधन की मजबूत साथी थी और उसे 70 सीटें भी दी गई थीं, पर वह उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं ला पाई. हाल यह हुआ कि हाथ आया पर मुंह को न लगा. यह महागठबंधन 12 जरूरी सीटों से पिछड़ गया और विपक्ष बन कर रह गया.

बाद में सब से बड़ा सवाल यही उभरा कि क्या कांग्रेस को 70 सीटें दी जानी चाहिए थीं? 70 सीटों में से महज 19 सीटें जीत कर कांग्रेस ने कोई कारनामा नहीं किया था. लिहाजा, उसे ही महागठबंधन की कमजोर कड़ी माना गया.

बिहार में कांग्रेस मुसलिमों को रिझाने में पूरी तरह नाकाम रही. उस ने असद्दुदीन ओवैसी को कम आंका या जानबूझ कर उन्हें नजरअंदाज किया, यह अलग सवाल है, पर खुद अपनी 70 सीटों में से उस ने महज 12 सीटों पर मुसलिम उम्मीदवार उतारे थे. उस ने खुद को तो मुसलिमों की हिमायती बताया पर ओवैसी को भाजपा का एजेंट बताते हुए उस पर खूब वार किए.

उधर, असदुद्दीन ओवैसी के पास खोने को कुछ नहीं था, लिहाजा उन्होंने भी कांग्रेस को यह कहते हुए खूब आड़े हाथ लिया कि अपने को सैकुलर कहने वाले दूसरे दलों को मुसलमानों के वोट तो अच्छे लगते हैं, पर उन की दाढ़ी और टोपी उन्हें पसंद नहीं.

जब बिहार में ओवैसी ने अपने खाते में 5 सीटें कर लीं, तो सियासी गलियारों में यह सुगबुगाहट शुरू हो गई कि क्या मुसलिम समाज का कांग्रेस या तथाकथित सैकुलर दलों से मोह भंग हो रहा है? कहीं ओवैसी में उन्हें अपना रहनुमा तो नहीं दिखाई दे रहा है? और अगर ऐसा है तो पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में कुछ अलग ही रंगत देखने को मिलेगी, जो कांग्रेस जैसे सैकुलर दलों के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है.

पर अभी भी कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ा है. कांग्रेस को दूसरे दलों की ताकत के साथसाथ अपनी अंदरूनी कमियों पर भी गंभीरता से सोचना होगा. अगर उसे गांधी परिवार की जरूरत है तो वह इस बात को खुल कर स्वीकार करे, जिस से राहुल गांधी को नई ताकत मिलेगी. बाकी नेताओं को भी आपसी निजी रंजिश भुला कर एकजुट होना होगा. उन्हें अपने नेतृत्व पर सवाल उठाने का पूरा हक है, पर अगर कोई दूसरा मजबूत विकल्प नहीं है तो जो सामने है, उस में वे अपनी आस्था बनाएं और मजबूती के साथ जनता के सामने जाएं. बिल्ली देख कर कबूतर की तरह अपनी आंखें बंद करने से समस्या का हल नहीं होगा. आरपार की ही लड़ाई सही, पूरी ताकत से लड़ें, फिर नतीजा चाहे कुछ भी रहे.

कोरोना महामारी: मोदी सरकार के लिए आपदा में अवसर का मौका

लेखक- सोनाली ठाकुर

कोरोना महामारी में लॉकडाउन लगने के बाद प्रवासी मजदूरों को उनको घर भेजने में राज्य और केंद्र सरकार में सियासी उठा-पठक के बीच रेलव ने बताया कि श्रमिक ट्रेनों से रेलवे ने 428 करोड़ रूपए कमाए. दरअसल, ये आंकड़े आरटीआई कार्यकर्ता अजय बोस की याचिका पर रेलवे ने दिए थे. इन आंकड़ों से पता चलता है कि 29 जून तक रेलवे ने 428 करोड़ रुपये कमाए और इस दौरान 4,615 ट्रेनें चलीं. इसके साथ ही जुलाई में 13 ट्रेनें चलाने से रेलवे को एक करोड़ रुपये की आमदनी हुई.

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स (ICC) के 95 वें सालाना कार्यक्रम को संबोधित किया था. जिसे संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने इस आपदा को अवसर में बदलने वाली बात कही थी. जिस तरह इस महामारी के बीच सरकार ने गरीब मजदूरों से 428 करोड़ रुपए की कमाई की उससे साफ जाहिर होता है कि उन्होंने इस आपदा को अवसर में बदलने वाली बात को सिर्फ कहा ही नहीं अपनाया भी है.

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अब तक दो महीनें से ज्यादा का समय बीत चुका है जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज का ऐलान किया था. साथ ही प्रवासी मजदूरों और किसानों के लिए 30 हजार करोड़ के अतिरिक्त फंड की सुविधा की बात कही थी. इस फंड में उन्होंने प्रवासी मजदूरों को दो महीनों के लिए बिना राशन कार्ड के मुफ्त अनाज देने की बात कही. जिसमें मजदूरों पर 3500 करोड़ रुपए का खर्च बताया गया. जिसके तहत आठ करोड़ प्रवासी मजदूरों के लाभान्वित होने की बात कही गई. लेकिन ये सभी बड़े-बड़े वादे जमीनी स्तर पर खोखले नजर आ रहे है. देखा जाए तो, यह आर्थिक पैकेज दर दर की ठोकरें खा रहे मजदूरों और अपना सबकुछ गंवा चुके किसानों के साथ एक क्रूर और भद्दा मजाक से ज्यादा कुछ नहीं है.

अन्य देशों के मुकाबले भारत का आर्थिक पैकेज बेहद कमजोर कोरोना काल के तहत अगर हम अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं से भारत की अर्थव्यवस्थाओं के आकार के अनुपात में आर्थिक पैकेज की बात करें तो जिस तरह वहां की सरकारों ने अपनी जनता को इस महामारी मे आर्थिक तंगी से बचाया है. उसके मुकाबले हमारा आर्थिक पैकेज बेहद कमजोर है.

अमेरिका

वैश्विक स्तर पर अमेरिका ने सबसे बड़ा आर्थिक पैकेज अपनी अर्थव्यवस्था के लिए जारी किया है. अमेरिका ने करीब 30 करोड़ लोगों के लिए 2 ट्रिलियन डॉलर यानी कुल 151 लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज जारी किया है. यह भारत के कुल बजट के लगभग 5 गुना ज्यादा है. ये पैकेज के तहत अमेरिका के आम नागरिकों को डायेरेक्ट पेमेंट के तहत मदद दी जाएगी.

जर्मनी

इसके अलावा जर्मनी ने कोरोना वायरस के आर्थिक प्रभाव को कम करने के लिए हर परिवारों को प्रति बच्चा 300 यूरो (यूएस $ 340) देने का एलान किया है. जिसे सितंबर और अक्टूबर में दो किस्तों में भुगतान किया जाएगा.

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ब्रिटेन

ब्रिटेन में कोरोना वायरस के चलते कई कंपनियों को वित्तीय दबाव में काम करना पड़ रहा था. ऐसे में ब्रिटेन की सरकार ने उन कर्मचारियों के वेतन का 80 फीसदी हिस्सा कंपनियों को देने की घोषणा की, जिन्हें नौकरी से नहीं निकाला जाएगा. यह फैसला वित्तीय दबाव झेल रही कंपनियों द्वारा कर्मचारियों को नौकरी से न निकालने के चलते लिया गया है.

जापान

जापान प्रत्येक निवासी को एक लाख येन (930 डॉलर) यानी करीब 71,161 रुपये का नकद भुगतान प्रदान करेगा. प्रभावितों लोगों और परिवारों को तीन बार यह राशि प्रदान करने की प्रारंभिक योजना है. आबे ने कहा, हम सभी लोगों को नकदी पहुंचाने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं

इसे देख साफ जाहिर होता है कि सरकार का दिया ये आर्थिक पैकेज नाकाम व्यवस्था व लचर सिस्टम को साफ तौर से दर्शाता है. लॉकडाउन के चलते अपनी रोजीरोटी व जमा-पूंजी गंवा चुके देश के मजदूर पहले ही इस सिस्टम की जानलेवा मार झेल रहे है. जिससे दिखता है कि गरीब लाचार मजदूर की जिंदगी का देश के सिस्टम में कोई मोल नहीं है.

सरकार ने मनरेगा की मज़दूरी में प्रभावी अधिक वृद्धि की अधिसूचना जारी की थी. ऐसा हर साल किया जाता है. लेकिन, ये बढ़ी हुई मज़दूरी उन ग़रीबों के लिए बेकार है, जो लॉकडाउन के शिकार हुए हैं. इस महामारी में जिस तरह प्रवासी मजदूरों ने रोजगार और राशन ना होने पर पलायन किया था इससे सरकार की नाकामी साफ बयां पहले ही हो गई थी.

सरकार ने राहत पैकेज के नाम पर लोगों को केवल वादे दिए है, जमीनी स्तर पर इन योजनाओं का कोई ब्यौरा नहीं हैं कि सरकार ने कितना खर्च किया है. इतना ही नहीं सरकार ने अपने राहत कोष में जमा होने वाली राशि का जिक्र जरूर किया लेकिन इसका कितना फीसदी मजदूरों और बेरोजगारी दर को कम करने के लिए इस्तेमाल किया गया. इसकी कोई जानकारी नहीं है. सरकार केवल योजनाओं को अमीलीजामा पहनाने का काम कर रही हैं.

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भाभी जी पापड़ का सच

पहले तो लगा कि वे अन्नू या अंगूरी भाभी की बात कर रहे हैं लेकिन सैकड़ों बार दर्जनों एंगल से गौर से देखने के बाद भी उस वीडियो में किसी भाभी के दर्शन नहीं हुए , हाँ इतना जरूर समझ आ गया कि जो पेकेट हाथ में लिए वे कोरोना को मारने का दावा कर रहे हैं उसमें पापड़ ही है और पापड़ के सिवा कुछ नहीं है . इस दिलचस्प और बेहूदे वाकिये के तीन पहलू हैं पहला भाभीजी दूसरा पापड़ और तीसरा कोरोना नाम का वायरस .  लेकिन आम और औसत भारतीय देवरों की तरह मेरी दिलचस्पी सिर्फ भाभीजी में थी है और रहेगी कि आखिर वह खुशकिस्मत भाभी है कौन जिसके पापड़ों का प्रचार एलएलबी और एमबीए पास केन्द्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल कर रहे हैं जो शायद फिलीपींस यूनिवर्सिटी में पढ़कर आया मंत्रिमंडल का पहला सदस्य है .

देश के लोग उनके मुरीद इसलिए हुए थे कि वे साधारण परिवार के हैं और बचपन में अपने पिता के साथ बुनकरी का काम करते थे लेकिन पढ़ाई में वे अव्वल रहे और उद्ध्योग विभाग के आला अफसर बन गए फिर सरकार ने उन्हें प्रमोशन देते आईएएस के समकक्ष ला दिया . कई  सरकारी अधिकारियों की तरह महज सेवा करने के मकसद से अर्जुन मेघवाल भी व्हाया भाजपा  राजनीति में आ गए और बीकानेर से तीसरी बार जीते तो उन्हें मंत्री पद से भी नवाज दिया गया. चूँकि करने कुछ ख़ास है नहीं इसलिए वे भाभीजी पापड़ के ब्रांड एम्बेसडर बन गए.

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मुझे उन पर गर्व हो आया कि विदेश जाकर भी वे अपने और अपनी पार्टी के संस्कार नहीं भूले यही हमारी असली पहचान भी है कि सात समुन्दर पार जाते हैं तो हम अपने झोले में आलू की सब्जी ,  पूरी अचार और बेग में रामायण गीता जरूर ठूंसते हैं जिससे कि मांसाहार और विदेशी सुन्दरियों के  दैहिक आकर्षण से बचे रहें .  लेकिन 8 – 10 दिन बाद ही ये दोनों व्रत खंडित हो जाते हैं . फिर जब ब्रह्मचर्य और एक पत्नी व्रत की बलि चढ़ाकर देश वापस आते हैं तो गंगा जी में डुबकी लगाकर पुनः पवित्र होकर राम राम श्याम श्याम करने भजने लगते हैं  . मनु महाराज ऐसे ही मौकों के लिए डिस्काउंट दे गए हैं कि पुरुष तो स्नान मात्र से शुद्ध हो जाता है .

खैर बात बीकानेर की अनाम भाभीजी के पापड़ की जो रातों रात इतना मशहूर हो गया कि उसकी डिस्ट्रीब्यूटरशिप के लिए लोग कोई भी कीमत चुकाने तैयार हैं . इसका उत्पादक जो भी हो विज्ञापनों पर लाखों करोड़ों रु खर्च करने के बाद भी पापड़ ही बेलता रहता उन्हें बेच नहीं पाता क्योंकि प्रतिस्पर्धा के चलते बाजार पहले से ही तरह तरह के पापड़ों से भरा पड़ा है और फुटकर दुकानदार भी नए ब्रांड का पापड़ रखने तैयार नहीं होता .लेकिन भाभीजी पापड़ की बात निराली है जिसका विज्ञापन नई शैली में हुआ कि यह कोरोना किलर है .

अर्जुन मेघवाल का मजाक बना रहे लोग नादान हैं जो यह नहीं समझ पा रहे कि हम पापड़ों के जरिये भी न केवल आत्मनिर्भर हो सकते हैं बल्कि 5 ट्रिलियन डालर बाली अर्थव्यवस्था का लक्ष्य भी छू सकते हैं . अपने मन की बात में 26 जुलाई को खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आत्मनिर्भर होने की जिद दोहराते मधुबनी के डिजायनर मास्कों और लद्दाख में पैदा होने बाले खुबानी फल का जिक्र किया लेकिन जाने क्यों वे यह नहीं बता पाए कि हम वेंटिलेटर क्यों नहीं बना पा रहे . अब बात समझने की है कि यह नए ज़माने का आर्थिक ज्ञान है जिसमें आत्मनिर्भरता बड़े बड़े कारखानों , भारी भरकम उद्ध्योगों और बांधों से नहीं बल्कि मंदिरों पीपीई किटों मास्कों और अब पापड़ों से आएगी ( चाय पकोड़ों से तो पहले ही आ चुकी है ) . इस बाबत हर कोई अपने अपने तरीके से प्रचार भी कर रहा है .

आजकल जिसे देखो प्रचार के नए टोटके आजमा रहा है .  हर प्रोडक्ट में इम्युनिटी नाम की बला है जो सरकारी राशन की कृपा से 70 फ़ीसदी हिंदुस्तानियों की इतनी मजबूत है कि वे अनाज में अठखेलियाँ कर रहीं इल्लियाँ तक हजम कर जाते हैं .  बाकी 30 फ़ीसदी गिलोय के फेर में पड़े हैं . हाल तो यह है कि जिन पर कोरोना झपट्टा नहीं मार पा रहा वे गिलोय खा खा कर बीमार पड़ रहे हैं .  हर कोई कह रहा है कि हमारे प्रोडक्ट से वायरस की जुर्रत हमला करने की नहीं होती या हमारे प्रोडक्ट से इम्युनिटी बढ़ती है.

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अब तो अख़बार बाले भी पहले या आखिरी पेज पर मोटे मोटे अक्षरों में लिखने लगे हैं कि हम सिर्फ ख़बरें फैलाते हैं वायरस नहीं .  इसके बाद भी लोग अख़बार नहीं ले रहे और जो ले रहे हैं वे उसे बासा करने धूप में सुखोते हैं फिर सेनेटाईज कर अन्दर लाते हैं . 22 मार्च 2020 के पहले तक यही अख़बार सवर्णों जैसे पूछा जाता था बेचारा अब शूद्रों सरीखा देहरी के बाहर घंटों  अछूत सा पड़ा रहता है .

अभी तो कोरोना मारने बाला पापड़ ही मंत्री जी ने लांच किया है क्योंकि मोदी मंत्रिमंडल में सारे मंत्री दर्शनीय हुंडी हैं . कल को कोरोना मारने बाले या इम्युनिटी बढ़ाने बाले कच्छे बनियान यानी अंडर गारमेंट भी आने लगें तो हैरानी नहीं होनी चाहिए . अदरक , तुलसी , लहसुन , गिलोय , हल्दी और तरह तरह के काढ़ों से कोरोना नहीं मरा तो हम पापड़ ले आये .  उम्मीद है जल्द ही कोरोना मारक दादी , चाची , नानी , दीदी और बीबी छाप बडी , अचार , चटनी , मुरब्बे , सूप ,जेम , सास , चाकलेट , बिस्किट आदि भी आने लगेंगे . इसके बाद कोरोना अगर जरा भी समझदार और स्वाभिमानी होगा तो खुद ख़ुदकुशी कर लेगा .

एक वेक्सीन बनाने के अलावा हमने कोरोना को मारने और भगाने क्या क्या नहीं किया .  हिजड़ों जैसे ताली तक बजा डाली , घर की थालियाँ फोड़ डालीं , दिए जलाये , गौ मूत्र पिया , गोबर तक खा लिया , एक साध्वी सांसद की सलाह पर हनुमान चालीसा भी पढ़ रहे हैं,  ताबीज पहने और यज्ञ हवन तो अभी तक कर रहे हैं लेकिन मुआ नास्तिक कोरोना हमारे पाखंडों से इत्तफाक नहीं रख रहा .  कोई गैरतमंद हिंदूवादी भारतीय वायरस होता तो अब तक घबराकर भाग गया होता लेकिन कोरोना नास्तिक देश से आया है और हमारे धार्मिक पाखंडों की असलियत उजागर करने की विदेशी साजिश है . कोरोना के जरिये हमारा , हमारे धर्म का , संस्कृति का मजाक बनाया जा रहा है .  रोज इससे संक्रमित होने बालों और शहीद होने बालों की तादाद बढ़ रही है . यह जरुर वामपंथी है जो दक्षिणपंथ से नहीं मर रहा .

अब लगता है विष्णु को बहु प्रतीक्षित कल्किअवतार लेना ही पड़ेगा लेकिन उसके पहले 5 अगस्त तक देख लें शायद राम मंदिर शिलान्यास के हल्ले के डर से यह खिसक ले तब तक बीकानेरी भाभीजी का पापड़ खाइए लेकिन यह मत पूछिए कि ये पापड़ बाली भाभीजी हैं कौन और कोई हैं भी की नहीं.

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छत्तीसगढ़ में “भूपेश प्रशासन” ने हाथी को मारा!

छत्तीसगढ़ में वन्य प्राणी संकट में दिख रहे हैं. यह संयोग है या फिर कोई षड्यंत्र की एक सप्ताह में छह: हाथी मृत पाए गए हैं. जिनमें एक हाथी “गणेश” नाम का है जो देशभर में बहुचर्चित है. गणेश पर देश की प्रतिष्ठित पत्रिका मनोहर कहानियां ने  सितंबर 2019 में एक लंबी रिपोर्ट प्रकाशित की थी और बताया था कि किस तरह रायगढ़ के धर्मजयगढ़ में एक ही परिवार के 4 लोगों को गणेश हाथी ने मार डाला था.  छत्तीसगढ़ के कोरबा, रायगढ़ जिला में लगभग 18 लोगों को गणेश हाथी ने हलाक कर डाला.

युवा गणेश के बारे में कहा जा सकता है कि वह सही मायने में एक स्वतंत्र वन्य प्राणी था, जिसने जो  भी गलती से भी उसके  सामने आ गया उसे अपने रास्ते से हटा दिया. और तो और वन विभाग के लाख प्रयासों के बावजूद वह वन विभाग के काबू में कभी नहीं आया. गणेश हाथी ने वन विभाग के द्वारा पैरों में डाली गई मोटी मोटी जंजीर तोड़ डाली. ऐसा शक्तिशाली युवा गणेश विगत दिनों रहस्यमय ढंग से मर जाता है तो प्रश्न उठना लाजमी है कि आखिर गणेश की मृत्यु क्यों और कैसे हो गई? यह मामला दबा ही रह जाता अगर कुछ वन्य प्राणी अधिकारों के लिए लड़ने वाले संवेदनशील लोग हल्ला बोल नहीं करते. अब स्थिति यह है कि छत्तीसगढ़ की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा ने गणेश हाथी को लेकर सवाल उठाया है, जिससे भूपेश सरकार हाशिए में आ गई है .

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नेता प्रतिपक्ष कौशिक आए सामने

‘गणेश’ हाथी की संदेहास्पद मौत पर छत्तीसगढ़ की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा के, नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने कहा है, ‘यह मरा नहीं, मारा गया है, वन अमले ने लिया है बदला’

भाजपा के बड़े नेता और कभी विधानसभा अध्यक्ष रहे वर्तमान में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने जांच करके दोषी अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज करने  की मांग उठाई है. परिणाम स्वरूप कांग्रेस मीडिया विभाग के अध्यक्ष शैलेष नितिन त्रिवेदी ने जैसा कि होता है सरकार का बचाव किया है.

घटना छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिला के धरमजयगढ़ वन मंडल के अंतर्गत घटित हुई है. भाजपा नेता के आरोप के बाद गणेश हाथी की मौत  ने तूल पकड़ लिया है. बीजेपी नेता ने अपने आरोप में कहा है कि यह हाथी मरा नहीं है, बल्कि उसे मारा गया है. वन विभाग को पहले से ही पता था कि यह हाथी गणेश ही है.

नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने कहा है कि वन विभाग ने हाथी से बदला लिया है! उन्होंने कठोर शब्दों का उपयोग करते हुए कहा है-” हाथी की हत्या पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए. केवल अधिकारियों का ट्रांसफर कर खानापूर्ति नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसके जिम्मेदार लोगों पर एफआईआर दर्ज कर उच्च स्तरीय जांच किए जाने की जरूरत है.”

हाथियों की मौत क्या संयोग है??

वनांचल से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ मे विगत विगत दस दिनों में छह हाथियों की रहस्यमयी मौत हो गई है. रायगढ़ जिला की धरमजयगढ़ में  18जून को देश के सबसे खतरनाक माने जाने वाले युवा गणेश हाथी की मौत हो गई. वन विभाग के अधिकारियों ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट के आधार पर बताया कि मौत की वजह करंट लगना है.

जब घटना के साक्ष्य  धरमलाल कौशिक तक पहुंचे तो उन्होंने 22 जून को हाथियों की मौत पर बयान देते हुए कहा -” हाथियों की लगातार हो रही मौत सरकार पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है. राज्य में जानबूझकर हाथियों को मारा जा रहा है. किसके इशारे पर यह किया जा रहा है? हाथियों को क्यों मारा जा रहा है? इसका जवाब सरकार ही दे पाएगी. सरकार ने अधिकारियों का ट्रांसफर कर खानापूर्ति कर दिया, जबकि कार्ऱवाई उसे कहते हैं, जहां ऐसे गंभीर कृत्यों पर नीचे से ऊपर तक जिम्मेदारों पर एफआईआर दर्ज किया जाए.”

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इस सख्त बयान के बाद कांग्रेस मीडिया विभाग के प्रमुख शैलेष नितिन त्रिवेदी ने नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक के बयान पर  कहा है कि सनसनीखेज बयान देना ठीक नहीं है, उनका बयान गरिमा के अनुरूप नहीं है. धरमलाल कौशिक बीजेपी के वरिष्ठ नेता हैं, नेता प्रतिपक्ष हैं, लेकिन उन्होंने अपने बयानों में कोई तथ्य पेश नहीं किया है. गणेश हाथी 18 आदिवासियों ग्रामीणों की मौत का जिम्मेदार था उसकी मौत के बाद सरकार ने जिम्मेदार लोगों को हटा दिया है. उन्होंने कहा है हाथियों की मौत की जांच सरकार करा रही है. त्रिवेदी ने भूपेश सरकार का बचाव करते हुए कहा बीजेपी शासन काल में जब से झारखंड और ओडिशा में माइनिंग खुली है, तब से वहां के हाथी छत्तीसगढ़ की ओर विचरण करने लगे हैं. यह हाथी अब आरंग, बारनावापारा के जंगलों तक पहुंच गए हैं. इससे मैन- एलीफेंट कानफ्लिक्ट की स्थिति बन गई है. सरकार ने हाथियों की बसाहट के लिए लेमरू अभ्यारण्य का प्रस्ताव बना लिया है.

गहरी पैठ

देशभर से करोड़ों मजदूर जो दूसरे शहरों में काम कर रहे थे कोरोना की वजह से पैदल, बसों, ट्रकों, ट्रैक्टरों, साइकिलों, ट्रेनों में सैकड़ों से हजारों किलोमीटर चल कर अपने घर पहुंचे हैं. इन में ज्यादातर बीसीएससी हैं जो इस समाज में धर्म की वजह से हमेशा दुत्कारेफटकारे जाते रहे हैं. इस देश की ऊंची जातियां इन्हीं के बल पर चलती हैं. इस का नमूना इन के लौटने के तुरंत बाद दिखने लगा, जब कुछ लोग बसों को भेज कर इन्हें वापस बुलाने लगे और लौटने पर हार से स्वागत करते दिखे.

देश का बीसीएससी समाज जाति व्यवस्था का शिकार रहा है. बारबार उन्हें समझाया गया है कि वे पिछले जन्मों के पापों की वजह से नीची जाति में पैदा हुए हैं और अगर ऊंचों की सेवा करेंगे तो उन्हें अगले जन्म में फल मिलेगा. ऊंची जातियां जो धर्म के पाखंड को मानने का नाटक करती हैं उस का मतलब सिर्फ यह समझाना होता है कि देखो हम तो ऊंचे जन्म में पैदा हो कर भगवान का पूजापाठ कर सकते हैं और इसीलिए सुख पा रहे हैं.

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अब कोरोना ने बताया है कि यह सेवा भी न भगवान की दी हुई है, न जाति का सुख. यह तो धार्मिक चालबाजी है. ऐसा ही यूएन व अमेरिका के गोरों ने किया था. उन्होंने बाइबिल का सहारा ले कर गुलामों को मन से गोरों का हुक्म मानने को तैयार कर लिया था. जैसे हमारे बीसीएससी अपने गांव तक नहीं छोड़ सकते थे वैसे ही काले भी यूरोप, अमेरिका में बिना मालिक के अकेले नहीं घूम सकते थे. अगर अमेरिका में कालों पर और भारत में बीसीएससी पर आज भी जुल्म ढाए जाते हैं तो इस तरह के बिना लिखे कानूनों की वजह से. हमारे देश की पुलिस इन के साथ उसी वहशीपन के साथ बरताव करती है जैसी अमेरिका की गोरी पुलिस कालों के साथ करती है.

कोरोना ने मौका दिया है कि ऊंची जातियों को अपने काम खुद करने का पूरा एहसास हो. आज बहुत से वे काम जो पहले बीसीएससी ही करते थे, ऊंची जातियां कर रही हैं. अगर बीसीएससी अपने काम का सही मुआवजा और समाज में सही इज्जत और बराबरी चाहते हैं तो उन्हें कोरोना के मौके को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए.

कोरोना की वजह से आज करोड़ों थोड़ा पढ़ेलिखे, थोड़ा हुनर वाले लोग, थोड़ी शहरी समझ वाले बीसीएससी लोग गांवों में पहुंच गए हैं. ये चाहें तो गांवों में सदियों से चल रहे भेदभाव के बरताव को खत्म कर सकते हैं. इस के लिए किसी जुलूस, नारों की जरूरत नहीं. इस के लिए बस जो सही है वही मांगने की जरूरत है. इस के लिए उन्हें उतना ही समझदार होना होगा जितना वे तब होते हैं जब बाजार में कुछ सामान खरीदते या बेचते हैं. उन्हें बस यह तय करना होगा कि वे हांके न जाएं, न ऊंची जातियों के नाम पर, न धर्म के नाम पर, न पूजापाठ के नाम पर, न ‘हम एक हैं’ के नारों के नाम पर.

आज कोई भी देश तभी असल में आगे बढ़ सकता है जब सब को अपने हक मिलें. सरकार ने अपनी मंशा दिखा दी है. यह सरकार खासतौर पर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार व केंद्र की सरकार इन मजदूरों को गाय से भी कम समझती हैं. इतनी गाएं अगर इधर से उधर जातीं तो ये सरकारें रास्ते में खाना खिलातीं, पानी देतीं. मजदूरों को तो इन्होंने टिड्डी दल समझा जिन पर डंडे बरसाए जा सकते हैं. विषैला कैमिकल डाला जा सकता है.

जैसे देश के मुसलमानों को कई बार भगवा अंधभक्त पाकिस्तानी, बंगलादेशी कह कर भलाबुरा कहते हैं, डर है कि कल को नेपाली से दिखने वालों को भी भक्त गालियां बकने लगें. हमारे भक्तों को गालियां कहना पहले ही दिन से सिखा दिया जाता है. कोई लंगड़ा है, कोई चिकना है, कोई लूला है, कोई काला है, कोई भूरा है. हमारे अंधभक्तों की बोली जो अब तक गलियों और चौराहों तक ही रहती थी, अब सोशल मीडिया की वजह से मोबाइलों के जरीए घरघर पहुंचने लगी है.

सदियों से नेपाल के लोग भारतीय समाज का हिस्सा रहे हैं. उस का अलग राजा होते हुए भी नेपाल एक तरह से भारत का हिस्सा था, बस शासन दूसरे के हाथ में था जिस पर दिल्ली का लंबाचौड़ा कंट्रोल न था. अभी हाल तक भारतीय नागरिक नेपाल ऐसे ही घूमनेफिरने जा सकते थे. आतंकवाद की वजह से कुछ रोकटोक हुई थी.

अब नरेंद्र मोदी सरकार जो हरेक को नाराज करने में महारत हासिल कर चुकी है, नेपाल से भी झगड़ने लगी है. नेपाल ने बदले में भारत के कुछ इलाके को नेपाली बता कर एक नक्शा जारी कर दिया है. इन में कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा शामिल हैं जो हमारे उत्तराखंड में हैं.

नेपाल चीन की शह पर कर रहा है, यह साफ दिखता है, पर यह तो हमारी सरकार का काम था, न कि वह नेपाल की सरकार को मना कर रखती. नेपाल की कम्यूनिस्ट पार्टी हमारी भारतीय जनता पार्टी की तरह अपनी संसद का इस्तेमाल दूसरे देशों को नीचा दिखाने के लिए कर रही है.

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दिल्ली और काठमांडू लड़तेभिड़ते रहें, फर्क नहीं पड़ता, पर डर यह है कि सरकार की जान तो उस की भक्त मंडली में है जो न जाने किस दिन नेपाली बोलने वालों या उस जैसे दिखने वालों के खिलाफ मोरचा खोल ले. ये कभी पाकिस्तान के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ बातें करते रहते हैं, कभी उत्तरपूर्व के लोगों को चिंकी कह कर चिढ़ाते हैं, कभी कश्मीरियों को अपनी जायदाद बताने लगते हैं, कभी पत्रकारों के पीछे अपने कपड़े उतार कर पड़ जाते हैं. ये नेपाली लोगों को बैरी मान लें तो बड़ी बात नहीं.

आज देश में बदले का राज चल रहा है. बदला लेने के लिए सरकार भी तैयार है, आम भक्त भी और बदला गुनाहगार से लिया जाए, यह जरूरी नहीं. कश्मीरी आतंकवादी जम्मू में बम फोड़ेंगे तो भक्त दिल्ली में कश्मीरी की दुकान जला सकते हैं. चीन की बीजिंग सरकार लद्दाख में घुसेगी तो चीन की फैक्टरी में बने सामान को बेचने वाली दुकान पर हमला कर सकते हैं.

इन पर न मुकदमे चलते हैं, न ये गिरफ्तार होते हैं. उलटे इन भक्त शैतानी वीरों को पुलिस वाले बचाव के लिए दे दिए जाते हैं. कल यही सब एक और तरह के लोगों के साथ होने लगे तो मुंह न खोलें कि यह क्या हो रहा है!

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भूपेश सरकार का कोरोना काल

छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार कोरोना अर्थात कोविड-19 को लेकर इतनी मशगूल है कि राजधानी रायपुर से लेकर आम शहरों तक कोरोना को लेकर ऐसे ऐसे मंजर  दिखाई देते हैं की साफ साफ  सवाल किया  जा सकता है कि कोरोना को लेकर सरकार इतनी लचर व्यवस्था  कैसे कर सकती है.

छत्तीसगढ़ में कोरोना को लेकर कोई ठोस रणनीति तैयारी अथवा शासन प्रशासन की गतिविधि नजर नहीं आती. लोगों को मानो भेड़ बकरियों की तरह चरने के लिए छोड़ दिया गया है. कहीं कोई नियम कानून, कायदा दिखाई नहीं देता. यह सारे हालात देखकर  कहा जा सकता है कि भूपेश बघेल सरकार कोरोना  को लेकर ऐसी ऐसी गलतियां कर रही है जो आने वाले समय में जनजीवन पर भारी पड़ सकती हैं. हालांकि छत्तीसगढ़ में कोरोना बेहद काबू में है .मगर जैसी परिस्थितियां निर्मित हुई है, उससे यह अभी भी विस्फोटक रूप ले सकती है. आज जब दुनिया में कोरोना को लेकर हाहाकार मचा हुआ है.हम अपने देश में ही देख रहे हैं कि दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात में किस तरह स्थिति बेकाबू हुई जा रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन असहाय हो चुका है. ऐसे में इस भीषण संक्रमणकारी बीमारी को छत्तीसगढ़ में जिस सहजता  से लिया जा रहा है वह बेहद चिंताजनक है. इस  रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ की जमीनी हकीकत बयां की जा रही है-

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अपने गाल बजाती भूपेश  सरकार!

भूपेश बघेल सरकार निसंदेह प्रारंभिक समय काल में कोरोना को लेकर बेहद अलर्ट थी. शासन प्रशासन चुस्त-दुरुस्त था ऐसा प्रतीत होता था कि इस भयंकर महामारी को बहुत ही गंभीरता से लिया जा रहा है. उस समय काल में सरकार की चहुँ ओर  हो प्रशंसा हो रही थी मीडिया में भी यह संदेश प्रमुख था कि छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार कोविड-19 को लेकर बेहद गंभीर है और सफलता की और आगे बढ़ रही है मगर जैसे-जैसे समय व्यतीत होगा चला गया कोरोना को लेकर के भूपेश बघेल सरकार के हाथ-पांव ठंडे पड़ने लगे. सरकार ने भी बड़ी गंभीरता के साथ गांव और शहरों को लाक डाउन करने में पूरी ताकत झोंक दी और यह स्थिति की सरकार की बिना इजाजत के  कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता था.

उस समय काल में छत्तीसगढ़ में कोरोना काबू में था.इसी दरमियान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने केंद्र सरकार से कोरोना को लेकर के बड़ा पैकेज मांगा या यह 30,000 करोड़ रुपए का था. सरकार लोगों के हित में खड़ी दिखाई दे रही थी मगर छत्तीसगढ़ में साहब गुटका तंबाकू, गुड़ाखू जैसी प्रतिबंधित चीजें हवाओं में उड़ रही थी और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था ऐसा प्रतीत होता था कि मानो छत्तीसगढ़ में सरकार नाम की कोई चिड़िया है ही नहीं. इस दरमियान एक तरफ सरकार अपने गाल बजा रही थी दूसरी तरफ ब्लैक मार्केटिंये और ऐसी महामारियो का लाभ उठाने वाले लोग लाखों-करोड़ों रुपये से अपनी थैलियां भर रहे  थे. जिन पर सरकार का कोई अंकुश नहीं था हां छोटी-छोटी दुकानों के चालान कर रहे थे मगर तब तक वे लाखों रुपए कमा चुके थे.

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कहां है कोरोना विषाणु !

छत्तीसगढ़ में इन दिनों कोरोना कोविड-19 को लेकर सारे दरवाजे खुल चुके हैं .कहीं कोई नियम कानून का पालन नहीं हो रहा है. कोरोना महामारी से जो सबक सरकार को लेने चाहिए सरकार उन्हें नहीं लेना चाहती. और फिर वही ढर्रा शुरू हो गया है जो कोरोना काल के पूर्व था.

छत्तीसगढ़ जैसे पूर्व में था वैसा ही सब कुछ चल रहा है. जबकि पंद्रह  वर्षों बाद भाजपा से मुक्त होकर प्रदेश को एक नया नेतृत्व मिला है. कांग्रेस डेढ़ दशक तक विपक्ष में थी और संघर्ष करती रही मगर ऐसा लगता है कि सत्ता में आने के बाद भाजपा का या कहें सत्ता का रंग कांग्रेस पर भी चढ़ चुका है.  यही कारण है कि इस महामारी का कोई भी सबक कोई भी समीक्षा करके मूलभूत बदलाव सरकार ने शासन प्रशासन की व्यवस्था में करने का कोई प्रयास नहीं किया है शहर की गलियां हो या गांव की आज भी गंदगी के ढेर हैं. जहां से फिर कोई संक्रमण कारी बीमारी फूट  सकती है. महामारी के समय में भी करोड़ों रुपए का गोलमाल होता स्पष्ट दिखाई दिया. शासन-प्रशासन ऐसा है हो गया था लोगों को कोई भी राहत देने का काम छत्तीसगढ़ सरकार करते हुए दिखाई नहीं दी. जो भी प्रयास हुए वह भी “थोथा चना बाजे घना” वाली स्थिति में था. सरकार ने पूरे छत्तीसगढ़ को खोल दिया है कोई भी कहीं भी आ जा सकता है.सोशल डिस्टेंसिंग समाप्त हो चुकी है, फिजिकल डिस्ट्रेसिंग कहीं दिखाई नहीं देती. सड़क के दुकाने, बाजार मे सब कुछ पूर्ववत हो चला है. ऐसे में सवाल यह है कि अगरचे आगे कोरोना का विस्फोट हुआ तो छत्तीसगढ़ सरकार इसे कैसे रोक पाएगी?

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शव-वाहन बना एम्बुलेंस

  • शव-वाहन बना जीवन रक्षक एम्बुलेंस..
  • एम्बुलेंस न मिलने पर शव-वाहन में लाये घायलों को..
  • शव वाहन चालक ने बचाई घायल वृद्धों की जान..
  • सड़क पर पड़े कर रहे थे एम्बुलेंस का इंतज़ार..
  • समय रहते पाहुंचे अस्पताल तो बच गई जान..

कहते हैं कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है और फिर अगर आपका जज्बा आपकी सोच पॉजिटिव हो तो मृत्यु को भी टाला जा सकता है. और बन सकता है मौत का वाहन भी जीवनरक्षक.

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जी हां ऐसा ही कुछ हुआ है मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में जहां एम्बुलेंस ने नहीं शव-वाहन ने लोगों की जानें बचाईं हैं. हमेशा लाशों को ढोने वाले शव-वाहन ने घायलों को समय पर अस्पताल पहुंचाकर उन्हें मौत में मुँह से निकालकर उनकी जान बचाईं हैं.

घायल वृद्ध लक्ष्मणदास और रमेश ने बताया..

मामला छतरपुर शहर सिटी कोतवाली थाना क्षेत्र के राजनगर-खजुराहो रोड का है जहां तेज़ रफ़्तार 2 बाईक सवार आपने-सामने भिड़ गये. जिससे उनमें बैठे 2 वृद्ध गंभीर घायल हो गये जो अचेत अवस्था में सड़क पर पड़े थे उनसे काफी खून बह रहा था. जिन्हें अस्पताल ले जाने के लिए उनके साथी यहां-वहां लोगों से मदद मांग आस्पताल ले जाने की गुहार लगा रहे थे. और लोग भी एम्बुलेंस बुलाने की फिराक में थे तभी राजनगर क्षत्र के प्रतापपुरा गांव में मृतक के शव छोड़कर आ रहा शव-वाहन वहां से गुजरा और उसका चालक गोविंद घायलों को देख रूक गया. और खुद ही घायलों की मदद की बात कही, कि आप लोग मेरे शव-वाहन में इन घायलों को अस्पताल ले चलो क्यों कि एम्बुलेंस को फोन करने और यहां तक आने में 20 से 25 मिनिट लगेंगे, जिससे बेहतर है कि हमारे शव-वाहन में ही इन्हें ले चलो हम 10 से 15 मिनिट में जिला अस्पताल पहुंच जाएंगे और इनका इलाज हो जायेगा और जान बच जायेगी. रूक गये तो बहुत देर हो जायेगी जिससे कुछ भी अनहोनी हो सकती है.

मौजूद लोगों ने ऐसा ही किया शव-वाहन चालक गोविंद की बात मान तत्काल घायलों को शव वाहन में रखवा दिया. जहां घायलों को समय रहते जिला अस्पताल ले जाया गया. और डॉक्टरों ने उनका समय पर ईलाज कर दिया जिससे उनकी जान बच गई.

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मामला चाहे जो भी हो पर इतना तो तय है कि गर समय रहते शव-वाहन ने घायलों को अस्पताल नहीं पहुंचाया होता और वहीं रुककर एम्बुलेंस का इंतज़ार किया होता तो इनकी जानें भी जा सकतीं थीं.

हमेशा मृत लोगों के शवों को लाने ले जाने वाला “शववाहन” इस बार घायलों को अस्पताल लाकर उनका “जीवनरक्षक” वाहन “एम्बुलेंस” बन गया.  इसके लिये प्रसंशा का पात्र शव वाहन का ड्राईवर है.

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