भारतीय जनता पार्टी के नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय आजकल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडा को देशभर में लागू कराने के लिए सड़क  से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक जोर लगा  रहे हैं. कभी उन्हें हिंदुओं के अल्पसंख्यक हो जाने का डर सताता है, तो कभी मुसलिम ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं, इस बात का शक होने लगता है. कभी वे कोर्ट से राष्ट्रीय औसत के बजाय राज्य में किसी समुदाय की आबादी के आधार पर उसे ‘अल्पसंख्यक’ परिभाषित करने के लिए दिशानिर्देश जारी करने की गुजारिश करते हैं, तो कभी वे हिंदुओं की तादाद बचाने के लिए धर्मांतरण को रोकना चाहते हैं.

इतना ही नहीं, कभी वे आबादी पर कंट्रोल के लिए याचिका ले कर कोर्ट पहुंच जाते हैं, तो कभी मुसलिमों में प्रचलित निकाह, हलाला और बहुविवाह प्रथाओं को खत्म करने के लिए याचिका दाखिल कर मांग करते हैं कि मुसलिम समाज में प्रचलित इन प्रथाओं को असंवैधानिक करार दिया जाए.

देश में आबादी के कंट्रोल के लिए  2 बच्चों के मानदंड समेत कुछ उपायों पर अमल के लिए भी उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. यह याचिका उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर की थी. हालांकि इस पर भी कोर्ट ने साफ कह दिया था कि कानून बनाना अदालत का नहीं, बल्कि संसद और विधानमंडल का काम है.

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हालिया याचिका अश्विनी कुमार उपाध्याय ने धर्मांतरण को रोकने के लिए डाली है. उन्हें लगता है कि तरहतरह के लालच और टोनेटोटकों के जरीए हिंदुओं को बहका कर उन का धर्म बदला जा रहा है. दरअसल, ये तमाम परेशानियां वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय की कोई निजी परेशानियां नहीं हैं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडा में जितनी बातें हैं, वही उन की ‘जनहित याचिकाओं’ में नजर आती हैं.

वे अदालतों को औजार की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं और चाहते हैं कि धर्मनिरपेक्ष देश भारत को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इच्छा के मुताबिक एक  हिंदू देश में बदलने के  लिए जो चीजें होनी जरूरी हैं, उन पर देश की सब से बड़ी अदालत अपनी मोहर लगा दे.

गौरतलब है कि ऊंची जाति के हाथों शोषित और मनुवादी व्यवस्था से उकता चुके दलित और आदिवासी लोग बीते कई सालों से बौद्ध, ईसाई या मुसलिम धर्म की ओर खिंच रहे हैं. उन्हें हिंदू धर्म में रोके रखने की कोशिश संघ और भाजपा की है.

यही वजह है कि चुनाव के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह दलितों की ?ांपडि़यों में नजर आने लगते हैं. कहीं उन के पैर पखारते दिखते हैं, तो कहीं उन के साथ पत्तल में खाना खाते नजर आते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही दलित फिर उन के लिए अछूत हो जाते हैं.

इन पाखंडों को अब दलित और आदिवासी समाज अच्छी तरह समझने लगा है. बीते कुछ सालों में बड़ी तादाद में दलितों ने बौद्ध धर्म अपना लिया है. संघ और भाजपा इस बात को ले कर चिंतित हैं और उन की चिंता का हल निकालने के लिए अश्विनी कुमार उपाध्याय जैसे वकील ‘जनहित याचिका’ के जरीए कोर्ट और सरकार के डंडे का इस्तेमाल कर के हिंदू धर्म को बचाने की बेढंगी कोशिशों में जुटे हैं.

यह कैसी ट्रैजिडी है कि सब से बेहतर धर्म को बचाने के लिए अब सरकारी डंडे की जरूरत आ पड़ी है. कोर्ट से गुजारिश की जा रही है कि वह सरकार को निर्देश दे कि वह हिंदू को हिंदू बनाए रखने के लिए कानून बनाए और सजा का प्रावधान करे, लेकिन क्या ऐसा मुमकिन है? बिलकुल नहीं.

अश्विनी कुमार उपाध्याय सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं. उन की हालिया याचिका काला जादू, अंधविश्वास और जबरन धर्मांतरण को ले कर थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 9 अप्रैल, 2021 को यह कह कर खारिज कर दिया कि यह किस तरह की याचिका है?

अश्विनी कुमार उपाध्याय हमेशा उन मुद्दों पर जनहित याचिका दायर करते हैं, जो उन की पार्टी के एजेंडा में सब से ऊपर हैं, जैसे योग, वंदे मातरम, निकाह, हलाला, धर्मांतरण रोकना वगैरह.

सुप्रीम कोर्ट ने 9 अप्रैल, 2021 को अश्विनी कुमार उपाध्याय की जो याचिका खारिज की है, उस में उन्होंने कोर्ट से गुजारिश की थी कि केंद्र और राज्यों को काले जादू, अंधविश्वास और धार्मिक रूपांतरण को कंट्रोल करने, धमकाने, धमकी देने और उपहारों और  पैसे से फायदा पहुंचाने के जरीए कंट्रोल करने के लिए निर्देश देने का कष्ट करें, मगर सुप्रीम कोर्ट में 3 जजों जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऋषिकेश रौय की पीठ ने न सिर्फ उन की याचिका खारिज कर दी, बल्कि वह इस से काफी नाखुश भी दिखी और कह बैठी कि यह किस तरह की याचिका है?

अश्विनी कुमार उपाध्याय चाहते थे कि धर्म का गलत इस्तेमाल रोकने के लिए एक कमेटी बना कर धर्म बदलने से जुड़ा कानून बनाने की संभावना का पता लगाने के लिए निर्देश देने का कष्ट सुप्रीम कोर्ट करे.
उन की याचिका में कहा गया था कि लालच और जोरजबरदस्ती से धर्मांतरण किया जाना न केवल अनुच्छेद 14, 21 और 25 का उल्लंघन है, बल्कि यह संविधान के मूल ढांचे के अभिन्न अंग धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के भी खिलाफ है और जादूटोना, अंधविश्वास और छल से धर्म बदलने पर रोक लगाने में
नाकाम रहे हैं, जबकि अनुच्छेद 51 ए के तहत इस पर रोक लगाना उन की जिम्मेदारी है.

समाज की कुरीतियों के खिलाफ ठोस कार्यवाही कर पाने में नाकामी का आरोप लगाते हुए याचिका में कहा गया कि केंद्र एक कानून बना सकता है, जिस में 3 साल की कम से कम कैद की सजा हो, जिसे 10 साल की सजा तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है.

अश्विनी कुमार उपाध्याय चाहते हैं कि केंद्र राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी धार्मिक समूहों के मामलों से निबटने और उन के बीच धार्मिक भेदभाव का गहराई से स्टडी कराने के लिए हक दे.
याचिका में विधि आयोग को जादूटोना, अंधविश्वास और धर्मांतरण पर 3 महीने के भीतर एक रिपोर्ट तैयार करने के लिए निर्देश देने की भी गुजारिश की गई थी. उन का मानना है कि  जनसंख्या विस्फोट और छल से धर्मांतरण के चलते 9 राज्यों और केंद्र शासितप्रदेशों में हिंदू अल्पसंख्यक हो गए हैं और दिनोंदिन हालात और खराब होते जा रहे हैं.

इस याचिका के खारिज होने के बाद से ही सोशल मीडिया पर अश्विनी कुमार उपाध्याय के खिलाफ कई कड़ी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं और मिलें भी क्यों न, जिस देश का कानून देश के हर नागरिक को बालिग होने के बाद उस का धर्म और जीवनसाथी चुनने की आजादी देता है, उसे कंट्रोल करने का आदेश भला सुप्रीम कोर्ट कैसे दे सकता है?

माथे पर तिलक लगाने वाले, पत्नी समेत मंदिरमंदिर जा कर पूजा करने वाले, बाबाओं और संतों की संगत करने वाले, उन के आध्यात्मिक विचारों (जिन का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता) से प्रभावित रहने वाले भाजपा नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय किसी दूसरे को उस की आस्था, उस के विश्वास और उस की पसंदनापसंद पर पाबंदी लगाने के लिए कैसे मजबूर कर सकते हैं, यह बात कोर्ट के जेहन में भी जरूर आई होगी.

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दरअसल, अश्विनी कुमार उपाध्याय भाजपा और संघ के एजेंडा को कानूनी जामा पहनाने की कोशिश में हैं, ताकि भविष्य की राजनीति में उन का सिक्का भी चल निकले, मगर हालिया याचिका पर उन की काफी भद्द पिट रही है.

याचिका खारिज होने के बाद वे अपने फेसबुक पेज पर लिखते हैं, ‘काला जादू, अंधविश्वास और साम, दाम, दंड और भेद द्वारा धर्मांतरण के खिलाफ मेरी पीआईएल खारिज नहीं हुई है, बल्कि मैं ने वापस ली है. मैं अब गृह मंत्रालय, कानून मंत्रालय और विधि आयोग को विस्तृत प्रार्थनापत्र दूंगा. अगर 6 महीने में सरकार ने धर्मांतरण के खिलाफ कानून नहीं बनाया, तो मैं फिर सुप्रीम कोर्ट जाऊंगा.’

अश्विनी कुमार उपाध्याय की इस पोस्ट के जवाब में काफी लोगों ने उन की आलोचना की है. सूर्य विक्रम सिंह लिखते हैं, ‘उपाध्यायजी कभी जिंदगी की मूलभूत जरूरतों पर ध्यान दें, तो कितना अच्छा लगे. मगर, सत्ता की तरह आप भी गुमराह करने में लगे हैं.’

दीपक नागर कहते हैं, ‘हां, हम जानते हैं कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आप की पीआईएल खारिज कर दी है और कहा है कि 18 साल का बालिग इनसान अपने लिए कोई भी धर्म चुन सकता है, यह उस का मूलभूत अधिकार है और इस तरह की पीआईएल सिर्फ ‘चीप पब्लिसिटी’ (घटिया प्रचार) के लिए की जाती है.’
कोरोना काल में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बिलकुल चरमरा गई है, अस्पतालों में मरीजों के लिए बिस्तर, दवाएं, इंजैक्शन नहीं हैं, श्मशान घाटों पर लाशों के ढेर लग रहे हैं, डाक्टर खुद बीमार हो रहे हैं, क्योंकि खुद
को बचाने के लिए जरूरी सुरक्षा किट नहीं हैं.

यह अश्विनी कुमार उपाध्याय को नहीं दिखता. 10 करोड़ लोगों को वैक्सीन देने के बाद अब वैक्सीन का भी टोटा पड़ने लगा है, बेरोजगारी की मार से जनता कराह रही है, नौकरीकारोबार सब ठप हो चुके हैं, प्लेन चलाने वाला पायलट डिलीवरी बौय बन गया है, शिक्षक मनरेगा में मजदूरी कर रहा है, बड़ीबड़ी पोस्ट पर काम कर चुके लोग सब्जी का ठेला खींच रहे हैं, चाय का खोखा खोलने को मजबूर हैं… आखिर देश को इस गड्ढे से निकालने के लिए सरकार क्या कर रही है, क्या इस पर भी कोई जनहित याचिका अश्विनी कुमार उपाध्यायजी डालेंगे?

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