पति की मार को प्यार समझती पत्नियां

एक तरफ औरतों के हालात में सुधार लाने के लिए दुनियाभर में कोशिशें की जा रही हैं, घरेलू हिंसा को पूरी तरह बंद करने के लिए कोशिशें हो रही हैं, इस के बाद भी हमारे देश में आज भी कुछ पत्नियां पति से पिटाई होने को भी प्यार की बात समझती हैं.

समाज पर मर्दवादी सोच की छाप के चलते कुछ औरतें पति से मार को प्रसाद के रूप में ग्रहण करती हैं. और तो और वे यह सोचती हैं कि अगर उन के पति उन्हें मारतेपीटते नहीं हैं, तो वे उन से प्यार नहीं करते हैं.

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भले ही शारीरिक हिंसा के दौरान पैर, हाथ समेत शरीर के दूसरे अंगों में फ्रैक्चर हो जाए, लेकिन यह बहुत आम बात है. सब से ज्यादा चिंता की बात यह है कि सरकार इस तरह की हिंसा को बंद करने के लिए कानून भी बना चुकी है और सजा का प्रावधान भी है, लेकिन कुछ औरतों या समाज पर इस का कोई असर नहीं पड़ रहा है.

अभी हाल की ही घटना है. कुछ दिनों के लिए मेरा बिहार में रहना हुआ था. वहां अकसर पड़ोस से शाम के समय एक पड़ोसन के चीखनेचिल्लाने की आवाजें आती थीं. एक बार दिन के समय मेरा अपनी उस पड़ोसन से आमनासामना हो गया और धीरेधीरे बोलचाल भी शुरू हो गई. जल्द ही वह पड़ोसन काफी घुलमिल गई. लेकिन मु झे यह जान कर हैरानी हुई कि आज के समय में भी पढ़ेलिखे लोगों में भी यह सोच हो सकती है.

उस पड़ोसन के मुताबिक, अपने पति से रोज की मारपीट की अब उस को आदत हो गई है. ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब पड़ोसन के पति ने उस की धुनाई न की हो.

उस ने अपनी बात को सही साबित करने के लिए यह भी बोला, ‘‘मेरे साथ की कुछ जानकार औरतों को तो लातघूंसों और गालियों का प्रसाद मिलता ही रहता है. 7 साल पहले सिर पर भारी कर्ज उठा कर पिता ने मेरी शादी की थी. 5 तरह की मिठाइयां अलग से बनवाई थीं और अपनी बिरादरी के लिए भोज रखा था. दानदहेज भी खूब दिया था.’’

पिछले 7 सालों में पति ने सिर्फ लिया हो, ऐसा नहीं था. उस ने रचना के शरीर पर ढेरों निशान और 2 बेटियों का तोहफा दे दिया था.

मैं ने पूछा ‘‘क्यों बरदाश्त करती हो इतना?’’

उस पड़ोसन ने बड़ा अजीब सा जवाब दिया, ‘‘हमारी मां, दादी, बूआ, मौसी ने हम लड़कियों को बताया था कि उन के पति उन को कैसे पीटते थे. वे उन का प्यार मान कर गृहस्थी चलाती रहीं. पति खुश रहता है तो घर में बिखराव नहीं होता. वही हम कर रहे हैं. ऐसे घर टूट कर नहीं बिखरते.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह तो पागलपन है.’’

पड़ोसन ने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा, ‘‘मैं अगर पिटाई की खिलाफत करूंगी, तो मेरा पति मु झे छोड़ देगा.’’

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फख्र समझती हैं

इस सिलसिले में जब एक गैरसरकारी संस्था से बात की गई तो पता चला कि पत्नियों की पिटाई कुछ तबकों में इस कदर स्वीकार की जा चुकी है कि इसे दूर करना बेहद मुश्किल हो जाता है. कोईकोई पति तो जितनी बेरहमी से पिटाई करता है, उस की पत्नी सम झती है कि वह उस से उतना ही ज्यादा प्यार करता है. उन को अपने पति से पिटने में कोई शर्म नहीं आती, बस उन की कोशिश रहती है कि घर की बात घर में रहे.

ये औरतें जब आपस में मिलती हैं, तो इस तरह से दिखाती हैं जैसे उन का पति उन्हें कितना प्यार करता है. उन के पति से ज्यादा बढि़या पति शायद किसी दूसरी औरत का हो, जबकि हकीकत में हर औरत एकदूसरे की कहानी जानती है.

तलाक का खौफ

जानकारों का कहना है कि ऐसी औरतें तलाक से बचने के लिए पति के जोरजुल्म को खुशी से सहती हैं. एक

35 साला औरत ने बताया कि उस का पति घर की छोटी से छोटी बातों में दखल देता है और खिलाफत करने पर उसे बेरहमी से पीटता है. कभीकभार

तो इतनी बुरी तरह से मारता है कि पूरा शरीर दर्द से कराह उठता है. लेकिन उसे बिलकुल बुरा नहीं लगता.

‘‘जहां प्यार होगा, वहीं तो तकरार होगी,’’ वह औरत हंसते हुए बोलती है. वह अपने पति से बेहद खुश है.

डर है बेबुनियाद

सीमा नाम की एक औरत का तलाक हो चुका है. हालांकि यह सबकुछ इतना आसान भी नहीं था. उस ने बताया, ‘‘मु झे कुछ दिनों तक क्या महीनों तक यही लगा जैसे सबकुछ खत्म हो चुका है. अब मेरी जिंदगी आगे बढ़ ही नहीं सकती. वह खत्म हो गई है, लेकिन आज मेरा खयाल बदल चुका है.

‘‘आज मैं यह कह सकती हूं कि वक्त चाहे अच्छा हो या फिर बुरा, कुछ न कुछ सिखाता ही है. तलाक ने भी बहुतकुछ सिखाया है.

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‘‘तलाक के बाद सब से बड़ी सीख यह मिली है कि किसी एक इनसान के नहीं होने से दुनिया खत्म नहीं हो सकती.’’

गहरी पैठ

मोबाइल रिपेयर शौप खुली रखने पर खड़े हुए झगड़े में तमिलनाडु के थूथुकुड़ी शहर के एक थाने में 2 जनों, बापबेटे दुकानदारों, की पुलिस थाने में बेहद पिटाई की गई. उन्हें लिटा कर उन के घुटनों पर लाठियां मारी गईं. उन के गुदा स्थल में डंडा डाल दिया गया. उन को घंटों पीटा गया और पुलिस वालों ने बारीबारी कर के पीटा. पुलिस को अपनी हरकतों पर इतना भरोसा था कि अगले दिन उन की झलक भर दिखा कर मजिस्ट्रेट से रिमांड ले कर फिर पीटा गया और उस दिन दोनों की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई.

पुलिस अत्याचार इस देश में तो क्या दुनियाभर में कहीं भी नई बात नहीं है. अमेरिका आजकल मिनियापोलिस नाम के शहर में 20 डौलर के विवाद में फंसे एक काले युवक की गोरे पुलिसमैन के घुटनों के नीचे गरदन दबाने से हुई मौत पर उबल रहा है. हमारे यहां भी पुलिस का वहशीपन वैसा ही है जैसा तानाशाही देशों में या पुलिस को ज्यादा भाव देने वाले देशों में होता है. पुलिस में भरती होने के बाद जो पहला पाठ पढ़ाया जाता है वह बेदर्दी से पीटने का है और उस में न बच्चों को छोड़ा जाता है, न बूढ़ों को और न औरतों को.

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हमारे यहां सोशल मीडिया में तमिलनाडु से बढ़ कर वहशीपन के साथ सड़कों पर हो रही पुलिस के हाथों पिटाई के वीडियो भरे हैं पर कहीं किसी पुलिस वाले के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया जाता. सरकार ही नहीं अदालतें भी पुलिस वालों से डरती हैं और उन्हें खुली छूट देती रहती हैं.

जो बरताव अमेरिका में गोरे पुलिस वाले कालों से करते हैं वैसा ही हमारे यहां ऊंची जातियों के पुलिस वाले निचली जातियों के साथ करते हैं. हर देश का कानून पुलिस के हाथ बांधता है पर लगभग हर देश में चलती है पुलिस की मनमानी ही. पुलिस गरीब या कमजोर को ही नहीं बुरी तरह मारतीपीटती है, वह अपने खिलाफ खड़े हुए किसी के साथ भी बहुत बुरी तरह पेश आ सकती है. थूथुकुड़ी शहर में बापबेटे ने पुलिस वालों पर कुछ कमैंट कस दिया था जिस का बदला लेने के लिए नाडर जाति के इन दुकानदारों को सही सबक सिखाने के लिए पुलिस ने उन की हड्डीपसली इस तरह तोड़ी कि उन की जान ही चली गई.

2019 में कम से कम 1,731 लोग तो पुलिस हिरासत में पिटाई की वजह से मौत के घाट उतारे गए थे. ज्यादा से ज्यादा पुलिस वालों को सस्पैंड किया जाता है या ट्रांसफर किया जाता है. आम जनता आमतौर पर हर देश में पुलिस के वहशीपन पर चुप रहती है कि यही पुलिस उस की सुरक्षा की गारंटी है और यही तरीका है किसी से अपराध उगलवाने का. वैसे भी आम जनता भी अपने झगड़े मारपीट से निबटाने की कला जानती है. बचपन में ही मांबाप पिटाई का सहारा लेने लगते हैं. गलियों में खेल के दौरान और स्कूलों में डीलडौल वालों को धमका कर मारपीट कर के अपनी चलाने की क्लासें लगा दी जाती हैं. घरों में मारपीट आम है, चाहे उस में पुलिस वाला वहशीपन न हो.

पुलिस के वहशीपन के खिलाफ आवाज बड़ी दबी हुई सी उठती है क्योंकि आम जनता और पुलिस के बीच खड़ी अदालतों का रुख पुलिस वालों के बारे में हमेशा नरम ही रहा?है. जमानत तक आमतौर पर आसानी से नहीं मिलती. समाज ने अपने बचाव के लिए पुलिस बनाई थी, पर असल में यह केवल सत्ता को बचाने और खुद को बनाए रखने का काम करती है. इस से छुटकारा मिलना नामुमकिन है.

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चीन के साथ अब चाहे पूरी तरह लड़ाई न हो, झड़पें जरूर होती रहेंगी. हमारी सेना को 24 घंटे मुस्तैदी से बर्फीले तूफानों वाली सीमा पर लगे रहना होगा, जहां पहुंचना भी मुश्किल है और एक रात काटना भी. यह देश के बहादुर जवानों की बदौलत है कि आज देश चीन के साथ आंख से आंख मिला रहा है और हालात कतई 1962 वाले नहीं हैं जब माओ त्से तुंग की भेजी फौजों ने बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया था.

तब से अब तक सरकारों ने लगातार चीन से अपनी सुरक्षा की तैयारी की है. ऊंचे पहाड़ों में सड़कें बनाई गई हैं, पुल बने हैं, सुरंगें बनी हैं, हवाई पट्टियां बनी हैं, बैरकें बनी हैं. दिल्ली में बैठे नेता चीन को मनाने में भी लगे रहे कि वह कभी कोई गलत हरकत न करे और लगातार बदलती राजनीति के बावजूद पिछले 2-3 साल से पहले कभी ज्यादा कुछ नहीं हुआ.

चीन का कहना है कि वह कश्मीर के कानूनी ढांचे में संविधान के अनुच्छेद 370 के बदलाव से चिंतित है. उस का यह भी कहना है कि भारतीय फौजों ने कोविड 19 की आड़ में कुछ ज्यादा करना चाहा, पर हकीकत है कि भारत अपनी ही जमीन पर था. हालांकि दूसरे बड़े दलों के साथ हुई एक बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत की जमीन पर कोई घुसपैठ नहीं हुई है, पर यह भी सही नहीं लगता. सैटेलाइट पिक्चरों से साफ है कि जो जमीन अब तक हम अपनी कहते रहे हैं वह शायद हमारे कब्जे में नहीं है. मामला इतना जरूर है कि अब यह ठंडा पड़ने वाला मसला नहीं है.

लड़ाई हमेशा महंगी होती?है. जानें भी जाती हैं, पैसा भी जाता है. हमारे 20 जवान अपनी जान खो चुके हैं, कितने ही घायल हैं. हमें तुरंत सारी दुनिया से फौजी सामान खरीदना पड़ रहा है. चीन से घरेलू सामान, जो सस्ता होता था, अब नहीं आ सकेगा. बहुत सी मशीनें नहीं आ पाएंगी. दवाओं की भारी कमी हो जाएगी.

अगर भारत और चीन के नेता समझदारी से काम लेते तो 260 करोड़ जनता इस बेकार के झगड़े से बच सकती थी. चीन की 130 करोड़ जनता का तो मालूम नहीं, पर हमारी 130 करोड़ जनता को देश की सरहद को बचाने के लिए कुरबानी को तैयार रहना होगा.

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जो 20 जवान अभी शहीद हुए हैं, वे बिहार रैजिमैंट के हैं और उन्होंने चाहे जान दी पर बहादुरी से मुकाबला करा. उम्मीद की जाए कि बिहार रैजिमैंट और देश की कुरबानियों को देश के नेता चुनावों के लिए या जनता का ध्यान भटकाने का जरीया नहीं बनाएंगे. पूरा देश आज सेना के साथ है पर देश के कुरसी पर बैठे नेता देश की सोच रहे हैं, यह भी पक्का होना चाहिए. जिस तरह से इन नेताओं ने बिहार और उत्तर प्रदेश के मजदूरों से लौकडाउन के दौरान बरताव किया है, उस से तो कुछ और ही नजर आता है. नेता राजधानियों में मौज करते रहे, अपनी कोठियों में दुबके रहे और मजदूर भूखेप्यासे दरदर भटकते रहे. यही हाल चीन से 2-2 हाथ में न हो.

आधार कार्ड और पास बुक रख हो रहा व्रत

लेखक- पंकज कुमार यादव

कोरोना महामारी भले ही देश पर दुनिया के लिए त्रासदी बन कर आई है, पर कुछ धूर्त लोगों के लिए यह मौका बन कर आई है और हमेशा से ही ये गिद्ध रूपी पोंगापंथी इसी मौके की तलाश में रहते हैं.

जैसे गिद्ध मरते हुए जानवर के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं, वैसे ही भूखे, नंगे, लाचार लोगों के बीच ये पोंगापंथी उन्हें नोचने को मंडराने लगते हैं. फिर मरता क्या नहीं करता की कहावत को सच करते हुए भूखे लोग, डरे हुए लोग कर्ज ले कर भी पोंगापंथियों का पेट भरने के लिए उतावले हो जाते हैं.

उन्हें लगता है कि ऐसा करने से उन का बीमार बेटा बीमारी से मुक्त हो जाएगा. उन का पति जो पिछले 5 दिनों से किसी तरह आधे पेट खा कर, पुलिस से डंडे खा कर नंगे पैर चला आ रहा है, वह सहीसलामत घर पहुंच जाएगा. फिर भी उन के साथ ऐसा कुछ नहीं होता है. पर कर्मकांड के नाम पर, लिए गए कर्ज का बोझ बढ़ना शुरू हो जाता है.

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कुछ ऐसी ही घटना कोरोना काल में झारखंड के गढ़वा जिले में घटी है. सैकड़ों औरतों के बीच यह अफवाह फैलाई गई कि मायके से साड़ी और पूजन सामग्री मंगा कर अपने आधारकार्ड और पासबुक के साथ सूर्य को अर्घ्य देने से उन के खाते में पैसे आ जाएंगे और कोरोना से मुक्ति भी मिल जाएगी.

यकीनन, इस तरह की अफवाह को बल वही देगा, जिसे अफवाह फैलाने से फायदा हो. इस पूरे मामले में साड़ी बेचने वाले, पूजन सामग्री, मिठाई बेचने वाले और पूजा कराने वाले पोंगापंथी की मिलीभगत है, क्योंकि इस अफवाह से सीधेसीधे इन लोगों को ही फायदा मिल रहा है.

इस अफवाह को बल मिलने के बाद रोजाना सैकड़ों औरतें इस एकदिवसीय छठ पर्व में भाग ले रही हैं. व्रतधारी सुनीता कुंवर, गौरी देवी, सूरती देवी ने बताया कि उन्हें नहीं पता कि किस के कहने पर वे व्रत कर रही हैं, पर उन के मायके से उन के भाई और पिता ने साड़ी और मिठाइयां भेजी हैं. क्योंकि गढ़वा जिले में ही उन के मायके में सभी लोगों ने पासबुक और आधारकार्ड रख कर सूर्य को अर्घ्य दिया है.

सब से चौंकाने वाली बात ये है कि इस अफवाह में सोशल डिस्टैंसिंग की धज्जियां उड़ गई हैं. सभी व्रतधारी औरतें एक लाइन से सटसट कर बैठती?हैं और पुरोहित पूजा करा रहे हैं.

सभी व्रतधारी औरतों में एक खास बात यह है कि वे सभी मजदूर, मेहनतकश और दलित, पिछड़े समाज से आती हैं. उन के मर्द पारिवारिक सदस्य इस काम में उन की बढ़चढ़ कर मदद कर रहे हैं.

एक व्रतधारी के पारिवारिक सदस्य बिगुन चौधरी का कहना है कि अफवाह हो या सच सूर्य को अर्घ्य देने में क्या जाता है.

प्रशासन इस अफवाह पर चुप है, जो काफी खतरनाक है, क्योंकि इस व्रत में वे औरतें भी शामिल हुई हैं, जो दिल्ली, मुंबई या पंजाब से वापस लौटी हैं और जिन पर कोरोना का खतरा हो सकता है.

प्रशासन ने भले ही अपना पल्ला झाड़ लिया हो, पर राज्य में जिस तरह से प्रवासी मजदूरों के आने से कोरोना के केस बढ़ रहे हैं तो चिंता की बात है, क्योंकि मानसिक बीमारी भले ही दलितों, पिछड़ों तक सीमित हो पर कोरोना महामारी सभी को अपना शिकार बनाती है.

सच तो यह है कि दिनरात मेहनत कर मजदूर बाहर से पैसा कमा कर तो आते हैं, पर किसी न किसी पाखंड का शिकार वे हमेशा हो जाते हैं, क्योंकि उन की पत्नी पहले से अमीर और बेहतर दिखाने के चक्कर में धार्मिक आयोजन कर अपने पति की गाढ़ी कमाई का पैसा बरबाद कर देती हैं.

उन्हें लगता है कि ऐसा कर के वे घंटे 2 घंटे ही सही सभी की नजर में आएंगी. वे उन पैसों का उपयोग अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा पर खर्च करना पैसों की बरबादी समझते हैं.

बदहाली में जी रहे उन के बुजुर्गों को अच्छे कपड़े, लजीज व्यंजन व दवा नसीब नहीं होती है, क्योंकि वे मान कर चलते हैं कि बुजुर्गों को खिलानेपिलाने से, नए कपड़े देने से क्या फायदा, जबकि धार्मिक आयोजनों से गांव का बड़ा आदमी भी उन्हें बड़ा समझेंगे.

ऐसे मौके का फायदा पोंगापंथी जरूर उठाते हैं. मेहनतकश मजदूरों को तो बस यही लगता है कि ऐसे धार्मिक आयोजन उन के मातापिता और पूर्वजों ने कभी नहीं किए. वे इस तरह के आयोजनों से फूले नहीं समाते. पर उन्हें क्या पता कि उन के पूर्वजों को धार्मिक आयोजन करना और इस तरह के आयोजन में भाग लेने से भी मना था.

ज्ञान और तकनीक के इस जमाने में जहां हर ओर पाखंड का चेहरा बेनकाब हो रहा है, वहीं आज भी लोग पाखंड के चंगुल में आ ही जा रहे हैं.

साल 2000 के बाद इस तरह की घटनाओं में कमी आ गई थी, क्योंकि दलितपिछड़ों के बच्चे पढ़ने लगे हैं. उन्हें भी आडंबर, अंधविश्वास और आस्था के बीच फर्क दिखाई देने लगा है.

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पर आज भी इस इलाके के दलितों और पिछड़ों के बच्चे स्कूलों में सिर्फ सरकार द्वारा दिए जा रहे मिड डे मील को खाने जाते हैं और जैसे ही बड़े होते हैं, अपने पिता के साथ कमाने के लिए दिल्ली, मुंबई और पंजाब निकल लेते हैं.

इन के बच्चे इसलिए भी नहीं पढ़ पाते हैं, क्योंकि उन को पढ़ाई का माहौल नहीं मिलता. वे सिर्फ बड़ा होने का इंतजार करते हैं, ताकि कमा सकें.

इसी वजह से आज भी इन इलाकों में प्रवासी मजदूरों की तादाद ज्यादा है. 90 के दशक में इन इलाकों में प्रिटिंग प्रैस वाले सस्ते परचे छपवा कर चौकचौराहे पर आतेजाते लोगों के हाथ में परचे थमा देते थे.

उस परचे पर लिखा होता था कि माता की कृपा से परचा आप को मिला है. आप इसे छपवा कर 200 लोगों में बंटवा दो, तो आप का जीवन बदल जाएगा. और अगर परचा फाड़ा या माता की बात की अनदेखी की तो 2 दिन के अंदर आप की या आप के बच्चे की दुर्घटना हो जाएगी.

डर के इस व्यापार में प्रिंटिंग प्रैस वालों ने खूब कमाई की. फिर मिठाई वाले और साड़ी बेचने वाले कैसे पीछे रह सकते थे. झारखंड के पलामू में इस तरह की घटना कोई नई बात नहीं है, बल्कि बहुत दिनों के बाद इस की वापसी हुई है इस नए रूप में. पर मौके का फायदा उठाने वाले लोग वे खास लोग ही हैं.

अंधविश्वास की बलि चढ़ती महिलाएं

छत्तीसगढ़ देश दुनिया का एक अजूबा राज्य है. दरअसल, छत्तीसगढ़ का ज्यादातर हिस्सा वन प्रांतर है, यहां बस्तर है, अबूझमाड़ है. यहां सरगुजा का पिछड़ा हुआ अंचल है तो रायगढ़ मुंगेली आदि जिलों की गरीब बेबस लाचार आवाम का रहवास भी.

यहां शिक्षा का स्तर निम्नतम है वहीं जीवन स्तर भी बेहद निम्न. छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पश्चात जिस विकास और उजाले की उम्मीद यहां की आवाम कर रही थी उसका कहीं पता नहीं है. और आज भी दशकों पूर्व जैसा माहौल है आज भी यहां अंधविश्वास में महिलाओं की छोटी सी बात पर बेवजह हत्या हो जाती है. हाल ही में अंधविश्वास और टोना टोटका का एक मामला राज्य के रायगढ़ जिला के पास थाना पूंजीपथरा के बिलासखार में घटित हुआ. पत्नी की तबियत खराब रहने पर जादू टोने की शंका में 50 वर्षीय मीरा बाई की मुदगल (लकड़ी के गदा) से सिर में मार कर हत्या कर दी गई और यही नहीं घटना के बाद शव को जला दिया. बाद में घटना की रिपोर्ट मृतका के भाई किर्तन राठिया निवासी ग्राम पानीखेत द्वारा सात जुलाई को दर्ज करायी.

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पुलिस  बताती है कथित आरोपी राजू की पत्नी की तबीयत खराब रहती थी तब राजू शंका करता था कि मीराबाई जादू टोना करती है. छह जुलाई को राजू की पत्नी की तबीयत खराब होने पर राजू गुस्से में आकर घर में रखें लकड़ी के मुगद्ल गदा से महिला के सिर में ताबड़तोड़ वार कर हत्या कर  देता है. यहां अंधविश्वास में महिलाओं की अक्सर क्रूरतम  हत्या हो जाती है और शासन-प्रशासन सिर्फ औपचारिकता निभाता हुआ आंखें मूंदे हुए हैं.

अंधविश्वास का संजाल

छत्तीसगढ़ आसपास के अनेक राज्यों में जहां आदिवासी बाहुल्य हैं अंधविश्वास को लेकर के महिलाओं की हत्या हो जाती है.छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्य झारखंड के साहिबगंज जिले के राधानगर थाना क्षेत्र की मोहनपुर पंचायत के मेंहदीपुर गांव की मतलू चाैराई नामक एक 60 वर्षीय महिला की हत्या डायन बताकर कर दी गई. जिस व्यक्ति ने हत्या की उसे यह शक था कि इसने उसके बेटे को जादू टोना कर मारा है. महिला की हत्या गांव के सकल टुडू ने विगत  7 जुलाई को गला काट कर की और दुस्साहसिक  ढंग से और धड़ से कटे सिर को लेकर बुधवार 8 जुलाई की सुबह वह थाने पहुंच गया.

पुलिस बताती है कि कि आरोपी का 25 वर्षीय बेटा साधिन टुडू बीमार था. उसे सर्दी खांसी थी और सोमवार 6 जुलाई की शाम उसकी मौत हो गई. उसकी मौत के बाद गांव में यह अफवाह फैल गई कि जादू टोना कर मतलू चाैराई ने उसकी जान ले ली. इसके बाद साधिन का पिता अपने बेटे का अंतिम संस्कार करने के बजाय महिला की हत्या तय करने का ठान लिया. उसने मंगलवार 7 जुलाई की रात मतलू की गर्दन काट कर हत्या कर दी और कट हुआ सिर लेकर अगली सुबह राधानगर थाना पहुंच गया.

इससे पहले हाल में ही रांची जिले के लापुंग में दो भाइयों ने मिल कर अपनी चाची की डायन होने के संदेह में हत्या कर दी थी. रांची जिले के लापुंग थाना क्षेत्र के चालगी केवट टोली की रहने वाली 56 वर्षीया फुलमरी होनो की हत्या शनिवार 4 जुलाई को उनके दो भतीजों ने धारदार हथियार से कर दी. जहां तक छत्तीसगढ़ की बात है ऐसा कोई महीना नहीं व्यतीत होता जब कुछ पुरुष और महिलाओं की तंत्र मंत्र के नाम पर हत्या नहीं हो जाती.

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आवश्यकता जागरूकता की

छत्तीसगढ़ सहित देश में ऐसे अंधविश्वास के खिलाफ जागरूकता की दरकार अभी भी बनी हुई है इसके लिए छत्तीसगढ़ में टोनही अधिनियम बनाया गया है मगर वह भी कागजों में सिमटा हुआ है ऐसे में लगभग तीन दशक से अंधविश्वास और तंत्र मंत्र के खिलाफ जागरूकता फैला रहे डॉक्टर दिनेश मिश्रा की पहल एक आशा की किरण जगाती है.

डॉ. दिनेश मिश्र  के अनुसार  अंधविश्वास में  की गई ये हत्याएं अत्यंत शर्मनाक व दुःखद हैं. जादू टोने जैसे मान्यताओं का कोई अस्तित्व नहीं है और कोई महिला डायन/टोनही नहीं होती. यह अंधविश्वास है, जिस पर ग्रामीणों को भरोसा नहीं करना चाहिए. विभिन्न बीमारियों के अलग-अलग कारण व लक्षण होते हैं. संक्रमण, कुपोषण, दुर्घटनाओं से लोग अस्वस्थ होते है, जिसका सही परीक्षण एवं उपचार किया जाना चाहिए. किसी भी बैगा, गुनिया के द्वारा फैलाये भ्रम व अंधविश्वास में पड़ कर कानून हाथ में नहीं लेना चाहिए. मगर सच तो यह है कि शासन, प्रशासन व छत्तीसगढ़ की सामाजिक संस्थाएं हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई हैं और महिलाएं अंधविश्वास की चपेट में आकर मारी जा रही है.

धर्म के नाम पर औरतों को भरमाता सोशल मीडिया

हाल ही में भारत ने चीन के मशहूर एप ‘टिकटौक’ पर बैन लगा दिया है. अब इस से भारत को कितना फायदा होगा या नुकसान, यह हमारा मुद्दा नहीं है, बल्कि हम तो उस बात से चिंतित हैं, जो सदियों से भारतीय समाज को धर्म के नाम पर घोटघोट कर पिलाई गई है खासकर औरतों को कि अगर वे अपने पति की सेवा करेंगी तो घर में बरकत होगी, बरकत ही नहीं छप्पर फाड़ कर रुपया बरसेगा. इस पूरे प्रपंच में धन की देवी लक्ष्मी और विष्णु का उदाहरण दिया जाता है और साथ ही उन छोटे देवता रूपी ग्रहों का सहारा लिया जाता है, जो अगर अपनी चाल टेढ़ी कर दें तो अच्छेखासे इनसान की जिंदगी में कयामत आ जाए.

पहले हम सोशल मीडिया के समुद्र में तैर रहे एक छोटे से वीडियो की चर्चा करेंगे, जो देखने में एकदम आम सा लगेगा, पर वह हमारी बुद्धि को भ्रष्ट करने की पूरी ताकत रखता है. एक मजेदार बात यह कि वह अलगअलग लोगों द्वारा अलगअलग घरों और माहौल में बनाया गया है, पर अंधविश्वास का जहर पूरे असर के साथ हमारे दिमाग में भर देता है.

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वीडियो की शुरुआत कुछ इस तरह होती है कि एक साधारण से कमरे में एक पलंग बिछा है और उस पर एक ठीकठाक रूपरंग की शादीशुदा औरत बैठी अपने पति के पैर दबा रही है.

अगर कमरे की बात करें तो यह एक लोअर मिडिल क्लास परिवार का लगता है, जहां उस औरत के बगल में एक टेबल फैन रखा हुआ है और पलंग भी ज्यादा महंगा नहीं है. वह औरत जिस आदमी के पैर दबा रही है उस का चेहरा नहीं दिखाया गया है, पर जिस तरह से वह औरत उस आदमी के पैर दबा रही है, वह एक ‘राजा बाबू’ टाइप आदमी ज्यादा लग रहा है.

अब आप पूछेंगे कि भाई इस वीडियो में खास क्या है? तो खास यह है कि वीडियो में जिस औरत का प्रवचननुमा ज्ञान सुनाई दे रहा है, वह है असली मुद्दे की जड़.

दरअसल, जब वह औरत अपने पति के पैर दबा रही होती है, तो बैकग्राउंड में किसी औरत की आवाज सुनाई देती है, ‘हरेक पत्नी को अपने पति के पैर रोज दबाने चाहिए. इस का कारण यह है कि मर्दों के घुटनों से ले कर उंगली तक का भाग शनि होता है और स्त्री की कलाई से ले कर उंगली तक का भाग शुक्र होता है. जब शनि का प्रभाव शुक्र पर पड़ता है तो धन की प्राप्ति के योग बनते हैं. आप ने अकसर देखा होगा तसवीरों में कि लक्ष्मीजी विष्णुजी के पैर दबाती हैं.’

इसी तरह का एक और वीडियो परखते हैं. यह सीन भी तकरीबन पहले सीन की तरह ही है, पर किरदारों के साथसाथ माहौल बदल गया है और स्क्रिप्ट के संवाद भी. इस सीन में दिखाई गई खूबसूरत औरत ने किसी सैलून से अपने बाल कलर करा रखे हैं और वह मौडर्न कपड़े पहने हुए है. हाथ पर टैटू बना है और कलाई पर स्मार्ट वाच बंधी है. घर भी अच्छाखासा लग रहा है. पर पलंग के बदले पत्नी सोफे पर बैठी अपने पति के पैर दबा रही है.

लगे हाथ बैकग्राउंड से आती आवाज का भी लुत्फ उठा लेते हैं. औरत बोल रही है, ‘मेरे पति हैं मेरा गुरूर. मुझ को अपनी पलकों पर बैठाते हैं, दिनभर मेहनत कर के कमाते हैं, पर मेरी हर फरमाइश पर दोनों हाथों से लुटाते हैं. शाम को जब थकेहारे घर आते हैं, फिर भी मुझे देख कर मुसकराते हैं.’

इन दोनों वीडियो में पत्नी अपने पति के पैर दबा रही है. वैसे, किसी के पैर दबाने में कोई बुराई नहीं है, पर जिस तरह से औरत को मर्द के पैर दबाते दिखाया गया है, वह बड़ा सवाल खड़ा करता है कि आज के जमाने में जहां औरतें किसी भी तरह से मर्दों से कम नहीं हैं, वहां इस तरह के वीडियो बनाने और दिखाने का मकसद क्या हो सकता है?

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दरअसल, यह सब उन पोंगापंथियों की चाल है, जो नहीं चाहते हैं कि औरतों को वाकई मर्दों के बराबर समझा जाए, इसलिए उन्हें धर्म की चाशनी में डुबो कर ज्ञान दिया जाता है कि पुराणों में जो लिखा है वह ब्रह्मवाक्य है और जब धन की देवी लक्ष्मी अपने नाथ विष्णु के पैर दबा कर पूरी दुनिया के धन की मालकिन बन सकती हैं, तो आप भी अपने पति के पैर दबा कर धन के घर आने का रास्ता तो बना ही सकती हैं.

यहां पर लक्ष्मी और विष्णु का ही उदाहरण ही नहीं लिया गया है, बल्कि 2 ग्रहों शनि और शुक्र का भी मेल मिलाया जाता है. हमारे दिमाग में भर दिया गया है कि शनि और शुक्र जैसे तमाम ग्रह बड़े मूडी होते हैं, उन्होंने जरा सी भी चाल टेढ़ी की नहीं, हमारी शामत आ जाएगी. ऐसा भरम फैला दिया गया है कि औरत को लगे अगर वह अपने हाथों से पति परमेश्वर के पैर नहीं दबाएगी तो लक्ष्मी रूठ जाएगी.

पर ऐसा कैसे हो सकता है? अगर हर पत्नी के हाथों में शुक्र की ताकत और उस के पति के पैरों में शनि का वास है और उन के मेल से घर में धनवर्षा होती है, तो फिर सब को शादी के बाद यही काम करना चाहिए. पति पलंग तोड़े और पत्नी अपने हाथों से उस के पैर दबाए. घर की सारी तंगी दूर हो जाएगी. जब पैसा अंटी में होगा तो कोई क्लेश भी नहीं होगा. हर तरफ खुशहाली का माहौल होगा और हर दिन त्योहार सा मनेगा.

दूसरा वीडियो धर्म के अंधविश्वास को तो बढ़ावा नहीं देता है, पर यह दिखाता है कि पति चाहे कैसा भी हो, अगर वह किसी औरत यानी अपनी पत्नी को पाल रहा है तो उस के पैर ही नहीं दबाने हैं, बल्कि उन्हें अपने सिरमाथे पर लगा कर रखना है, जिस से वह हमेशा आप पर दोनों हाथों से रुपए लुटाता रहे.

इन दोनों वीडियो की गंभीरता इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि इन में दिखाई गई औरतें पढ़ीलिखी लग रही हैं और शहर में रहती हैं. पक्का मकान है और दूसरी सुखसुविधाएं भी मौजूद हैं. हो सकता है वे खुद भी कमाई करती हों या फिर गृहिणी ही सही, लेकिन देहाती और अनपढ़ तो कतई नहीं हैं.

जब इस तरह की औरतों को ही औरतों की तरक्की का दुश्मन दिखाया जाए तो समझ लीजिए, मामला आप को उलझाने के लिए बुना गया है. जब से धर्म की हिमायती सरकार इस देश में आई है, सनातन के नाम पर उस हर चीज को खूबसूरती के साथ पेश किया जाने लगा है, जो तर्क की कसौटी पर कहीं नहीं टिकती है. सीधी सी बात है कि आज के महंगाई के जमाने में पत्नी अपने पति के पैर दबा कर या उस के चरण अपने माथे पर लगा कर घर को धनवान या खुशहाल नहीं बना सकती है, पर अगर वह पति की तरह अपने कंधे पर लैपटौप टांग कर किसी मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी करती है तो परिवार में दोहरी कमाई का सुख जरूर दे सकती है. अगर वह हाउस वाइफ है तो क्या हुआ, घर को सजासंवार कर रख सकती है, घर का हिसाबकिताब अपने हाथ में ले कर पति की चिंता को आधा कर सकती है.

चलो मान लिया कि पति थकाहारा घर आया है और चाहता है कि कोई उस के पैर दबा कर थकान मिटा दे, तो एक अच्छे जीवनसाथी की तरह उस की यह फरमाइश पूरी करने में कोई हर्ज नहीं है. पर अगर ऐसा ही पत्नी चाहती है तो पति को भी अपनी पत्नी के पैर दबाने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए. इस से शुक्र और शनि जैसे ग्रह नाराज हो जाएंगे, यह तो पता नहीं पर पतिपत्नी का प्यार जरूर बढ़ जाएगा. धनवर्षा न सही प्यार की बारिश जरूर हो जाएगी.

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किसान मजदूरों की दुर्दशा : महानगरों की ओर लौटने लगे प्रवासी मजदूर

किसान मजदूरों के जवान बेटे पुनः बिहार और उत्तरप्रदेश के गांवो से महानगरों की ओर लौटने लगे. ठीकेदारों कम्पनी के मैनेजरों का फोन आने लगा. इधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का रोज अखबारों और टी वी पर यह ब्यान सुनने को मिल रहा है कि प्रवासी मजदूरों को हर हाल में रोजगार दिया जाएगा.लेकिन जमीनी सच्चाई अलग है. मुख्यमंत्रीजी आप कहाँ देंगे रोजगार.आपके पास भाषण के सिवा रोजगार देने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है.

किसान मजदूर के बेटे समझ गये हैं कि फजीहत जितनी भी झेलनी पड़े परिवार और अपना पेट भरने के लिए काम तो कहीं न कहीं करना ही पड़ेगा.यहाँ काम मिलना संभव नहीं है ?खेती का हाल और ही बुरा है. खेती में मजदूरी करने के लिए बड़े किसानों के यहाँ सालों भर काम नहीं है. साधरण किसान के बेटे अगर खेती भी करेंगे तो उससे कोई लाभ नहीं है.

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हिमाचल प्रदेश के धागा उद्योग फैक्ट्री में काम करनेवाले अजय कुमार और उनकी पत्नी शुष्मा देवी जो लॉक डाउन में कम्पनी बन्द होने की वजह से अपने गृह जिला औरंगाबाद आ गए हैं.शुष्मा देवी ने बतायीं की हम

दोनों वहाँ काम करते थे.हम वहाँ दवा बनाने वाले कम्पनी में डब्बा में दवा भरने का काम करते थे.हमारे पति धागा कम्पनी में काम करते थे.उन्हें 15000 हजार और मुझे 1000 रुपये वेतन मिलता था.दोनों मिलाकर 25000 हजार रुपये मिल जाता था.दो बच्चों को आराम से पढ़ा लिखा रहे थे.प्रतिमहिना उसी में से बचाकर सास ससुर के लिए भी सात आठ हजार महीना भेजते रहते थे.लेकिन इस कोरोना की बीमारी ने तो हमलोगों को बड़ा मुश्किल में डाल दिया.पति के कम्पनी से फोन आ रहा है.पुनः काम पर लौटने के लिए हमलोग मन बना रहे हैं जाने के लिए.यहाँ हमलोग क्या करेंगे ? हमलोग मनरेगा में डेली ढोने और कुदाल चलाने वाला काम नहीं कर सकते.यहाँ और दूसरे चीज में किसी प्रकार का कोई स्कोप नहीं है.

राकेश कुमार गुजरात के राजकोट में टेम्पू फैक्ट्री में वेल्डर का काम करता था.साथ में पत्नी शांति देवी भी रहती हैं.शांति देवी ब्यूटीपार्लर का काम सीखतीं थी.राकेश पाँच वर्ष से इसी फैक्ट्री में काम करता है.दो वर्ष पहले शादी हुवी है.इसी वर्ष होली के बाद पत्नी भी साथ में गयी थी.पति पत्नी आपस में विचार किये की अगर ब्यूटी पार्लर का काम सिख जाती है तो भविष्य में पैसा जमा कर ब्यूटीपार्लर का दुकान खोल सकती है.लेकिन मार्च महीने में ही लॉक डाउन हो गया.जिसकी वजह से जो सपना देखे थे.उसपर पानी फिर गया.जब पति पत्नी से पूछे कि अब आपलोग क्या आगे सोंचें हैं तो दोनों ने बताया कि इस बार जब गाँव आ गए हैं तो धान का रोपण का काम करके फिर वहीं जायेंगे.कम्पनी से आने के लिए फोन आने लगा है.आपलोग यहाँ क्यों नहीं कुछ काम करते तो राकेश ने कहा कि 15000 हजार रुपये महीने का आप ही मुझे कोई काम दिलवा दीजिये.हम यहीं काम करेंगे.यहाँ तो मुझे कोई काम ही नहीं दिखाई पड़ रहा है.

सूरत कपड़ा मिल में काम करने वाला बिजय कुमार बताता है कि हम साड़ी फैक्ट्री में कलर मास्टर का काम करते थे.लॉक डाउन की वजह से कम्पनी बन्द हो गया तो घर आ गये थे.पुनः वहाँ से ठीकेदार फोन कर रहा है. वह भी बिहार का ही है. वह साथ में मेरा रिजर्वेशन कराने के लिए तैयार है. मेरे पास कोई उपाय नहीं है. इसलिए मैं जाने के लिए पुनः तैयार हो गया हूँ.बिहार से मुंबई,हैदराबाद,दिल्ली,लुधियाना की गाड़ियों में मजदूर झुंड के झुंड बाहर जाने के लिए निकल पड़े हैं.

इन मजदूरों में अधिकांशतः दलित और ओ बी सी के युवा हैं. ये युवा मजदूर या मध्यमवर्गीय किसान के बेटे हैं.

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आखिर महानगरों की ओर क्यों पलायन करते हैं. बिहार और यू पी के युवा .बिहार और यू पी के गाँवों में किसानों मजदूरों के बेटों को सालों भर काम नहीं मिल पाता.मध्यमवर्गीय किसानों के बेटे को खेती से कोई लाभ नहीं दिखता इसकी वजह से वे महानगरों की ओर रुख करते हैं.किसानों की वास्तविक स्थिति क्या है ? इसे भी समझने की जरूरत है.

अगर किसानों के फसलों का उचित मूल्य मिलने लगे तो बिहार और यू पी के गाँवों से पलायन सदा के लिए रुक जाय. कोई बड़ी योजना परियोजना की जरूरत नहीं है.

तमाम सरकारी दावों के बीच किसानों की स्थिति बद से बदतर होते जा रही है. किसान खेती किसानी छोड़कर अन्य रास्ते की तलाश में हैं.किसान के बच्चे किसी भी हाल में खेती करने के लिए तैयार नहीं हैं. एक समय में कहा जाता था कि उत्तम खेती मध्यम बान, नीच चाकरी भीख निदान यानी खेती  को ऊँच दर्जा प्राप्त था.चाकरी यानी नॉकरी करना भीख माँगने के समान समझा जाता था.लेकिन आज उल्टा हो गया है. नॉकरी करना सर्वश्रेष्ठ हो गया है .खेती करना नीच काम समझा जाने लगा है. आखिर हो भी क्यों नहीं ? क्योंकि खेती किसानी करनेवाले लोगों का परिवार फटेहाली का जिंदगी जीने को मजबूर है. हाड़ तोड़ पूरा परिवार मिहनत करने के बाद भी बच्चों को बेहतर शिक्षा ,स्वास्थ्य ,बेटी को अच्छे घरों में शादी करने से महरूम है.परिवार का अगर कोई सदस्य किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित हो जाता है तो जमीन बेचने और गिरवी रखने के सिवा कोई उपाय नहीं बचता और सूद के चंगुल से निकलना मुश्किल हो जाता है.

किसान भूषण मेहता ने बताया कि मेरा बीस बिगहा जमीन है. खेती अपने से करते हैं. सालों भर पाँच परिवार के साथ साथ मजदूर भी लगा रहता है.अगर सच मायने में देखा जाय तो खेती में इतना लागत लग जाता है कि कुछ भी विशेष नहीं बच पाता. अगर बाढ़ सुखाड़ का मार नहीं झेलना पड़ा और मौसम साथ दिया तो साल में एक लाख रुपये मुश्किल से बच पाता है.साल में इतना पैसा तो पाँच परिवार मजदूरी करके कमा सकता है.बीज,खाद,डीजल का दाम रोजबरोज बढ़ते जा रहा है. गेंहूँ और धान की कीमत उस हिसाब से नहीं बढ़ पा रहा है. सरकारी खरीद का सिर्फ दावा किया जाता है. हम कभी भी कॉपरेटिव के माध्यम से धान नहीं बेंचते. इसलिए कि समय पर पैसे नहीं मिलते.अपना काम धाम छोड़कर ब्लॉक और बैंक का चक्कर लगाना हमारे बस की बात नहीं है. हम सस्ते दाम पर ही सही धान खरीदने वाले को खलिहान से ही धान गेंहूँ बेंच देते हैं. जब मेरे जैसे बीस बीघा की खेती करने वाले कि स्थिति बहुत अच्छी नहीं है तो एक और दो बीघा की खेती करने वाले किसानों की क्या स्थिति होगी.बीमारी और बेटी की शादी में किसानों को या तो खेत बीके या जमीन गिरवी रखे.यह तय है.किसान अपने मेधावी बच्चों को भी ऊँच और तकनीकी शिक्षा महँगी होने के कारण दिलवाने में असमर्थ है.

आज किसानों की स्थिति बदतर क्यों होते जा रही है. इसका मूल कारण है खेती में लागत मूल्य दिनों दिन तेज गति से बढ़ते जा रहा है.किसानों द्वारा उत्पादित फसलों और शब्जियों का उचित मूल्य नहीं मिल पाना है. विगत दस वर्षों में कृषि में लागत तीन गुना तक बढ़ गया है. लेकिन उपज की कीमतों में दोगुना भी बढ़ोतरी नहीं हुवी है.

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सिर्फ किसानों के उपज का वास्तविक दाम मिल जाय तो किसानों को अलग से किसी प्रकार की कोई राहत की जरूरत नहीं है.

किसानों के नेता नागेश्वर यादव ने बताया कि 1971 में 10 ग्राम सोना का मूल्य 193 रुपये था.उस समय एक क्विटल गेहूं का दाम 105 रुपये था.10 ग्राम सोना खरीदने के लिए एक क्विंटल 83 किलो गेहूँ बेंचने की जरूरत थी.आज सोना का मूल्य 10 ग्राम का 50 हजार रुपये है. गेहूँ 2000 रुपये प्रति क्विंटल है.10 ग्राम सोना खरीदने के लिए आज 25 क्विंटल गेहूँ बेंचने पड़ेगा.इससे बाजार आधारित वस्तु का मूल्य और किसानों द्वारा उपजाए गए .अनाजों का मूल्य का सहज आकलन कर सकते हैं.

पहले खेती किसानी हल बैल,रेहट,लाठा कुंडी के माध्यम से होता था.डीजल की कोई जरूरत नहीं होती थी.आज के तारीख में खेत की जुताई कटाई करने के लिए ट्रैक्टर की जरूरत पड़ती है.सिंचाई करने के लिए डीजल इंजन की जरूरत है. डीजल का दाम लगातार बढ़ने से किसानों की स्थिति अत्यंत दैनीय हो गयी है.बीज,उर्वरक,कीटनाशक सभी की कीमत लगातार बढ़ते जा रही है.

किसानों का बैंक से लिये गए लोन को माफ करने की बात बार बार होती है. किसानों का सिर्फ लोन माफ करना इसका निदान नहीं है. सरकार माफ भी नहीं करना चाहती.क्योंकि देश पर अतिरिक्त भार पड़ने का राग अलापा जाता है. देश के उद्योगपतियों का लोन आराम से माफ कर दिया जाता है.बैंकों की खराब स्थिति किसानों के चलते नहीं बल्कि सरकार और पूंजीपतियों के गठजोड़ की वजह से हुवी है. बिजय माल्या 18000 करोड़,नीरव मोदी 11400 करोड़,भाई चौकसी 2000 करोड़,ललित मोदी कितना का चूना लगाया आमलोगों को पता तक नहीं.ये पूंजीपति सरकार की मिलीभगत से देश का बंटाढार कर दिया.

जो किसान पूरे देश का पेट भरता है. वह खुद पूरे परिवार अभावों में रहते हुवे आत्महत्या तक करने के लिए विवश है.

एक समय था जब 45 करोड़ जनता का पेट भरने के लिए भी किसान अन्न नहीं उपजा पाता था.हमें अमेरिका से गेहूँ का आयात करने पड़ता है. आज हरित क्रांति और वैज्ञानिकों की देन की वजह से 130 करोड़ लोगों को किसान अन्न उपलब्ध करा रहा है. फिर भी किसान कर्ज में दबा है और आत्महत्या तक करने के लिए विवश है.

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देश भर से इस तरह की खबरें आते रहती है. टमाटर,कद्दू,प्याज ,लहसुन ,आलू का उचित मूल्य नहीं मिलने की वजह से किसान सड़कों पर फेंकने के लिए विवश हो जाते हैं.देश का अर्थब्यवस्था तभी कायम रह पाएगा जब  किसानों के द्वारा उपजाये गये फसलों का उचित मूल्य मिलेगा.किसान सम्मान योजना जैसे लॉली पॉप से देश के किसानों का निदान नहीं होने वाला है.

छुआछूत से जूझते जवान लड़के लड़कियां

भले ही हम आधुनिक होने के कितने ही दाबे कर लें,मगर दकियानूसी ख्याल और परम्पराओं से हम बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. आज भी समाज के एक बड़े तबके में फैली छुआछूत की समस्या कोरोना रोग से कम नहीं है. छुआछूत केवल गांव देहात के कम पढ़े लिखे लोगों के बीच की ही समस्या नहीं है,बल्कि इसे शहरों के सभ्य और पढ़ें लिखे माने जाने वाले लोग भी पाल पोस रहे हैं.सामाजिक समानता का दावा करने वाले नेता भी इन दकियानूसी ख्यालों से उबर नहीं पाए हैं.

जून माह के अंतिम हफ्ते में मध्यप्रदेश में सोशल मीडिया चल रही एक खबर ने सियासी गलियारों में हलचल मचा दी.   रायसेन जिले के एक कद्दावर‌ भाजपा नेता रामपाल सिंह  के घर पर आयोजित किसी कार्यक्रम का फोटो वायरल हो रहा है, जिसमें भाजपा के नेता स्टील की थाली मेंं और डॉ प्रभुराम चौधरी डिस्पोजल थाली में एक साथ खाना खाते दिखाई दे रहे हैं.ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस का दामन छोड़कर भाजपा में शामिल हुए और हाल ही मंत्री बने डॉ प्रभु राम चौधरी अनुसूचित जाति वर्ग से आते हैं हैं. यैसे में सवाल उठ रहे हैं कि प्रभुराम चौधरी को डिस्पोजल थाली में क्यों खाना खिलाया गया. इस घटनाक्रम को मप्र कांग्रेस ने  दलितों का अपमान बताया है.

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सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे इस फोटो में कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुए  डॉ प्रभु राम चौधरी, सिलवानी के भाजपा विधायक रामपाल सिंह, सांची के भाजपा विधायक सुरेंद्र पटवा और भाजपा के संगठन मंत्री आशुतोष तिवारी के साथ भोजन करते हुए दिखाई दे रहे हैं. इसमें बीजेपी के संगठन मंत्री आशुतोष तिवारी स्टील की थाली में भोजन खाते हुए दिखाई दे रहे हैं, लेकिन उनके सामने बैठे डॉ प्रभु राम चौधरी डिस्पोजेबल थाली में खाना खा रहे हैं.  कांग्रेस के पूर्व मंत्री सज्जन सिंह वर्मा का कहना है कि प्रभु राम चौधरी को डिस्पोजेबल थाली में भोजन परोसा जाना अनुसूचित जाति वर्ग का अपमान है. यह  दलितों को लेकर भाजपा की सोच को जाहिर करता है.

समाज में जाति गत भेदभाव कोई नई बात नहीं है. आये दिन देश के अलग-अलग इलाकों में दलितों से छुआछूत रखने और उन पर अत्याचार करने की घटनाएं होती रहती हैं.आज भी गांव कस्बों के सामाजिक ढांचे में ऊंची जाति के दबंगों के रसूख और गुंडागर्दी के चलते दलित और पिछड़े वर्ग के लोग जिल्लत भरी जिंदगी जी रहे हैं.गांवों में होने वाले शादी और रसोई में दलितों को खुले मैदान में बैठकर खाना खिलाया  जाता है और और खाने के बाद अपनी पत्तलें उन्हें खुद उठाकर फेंकना पड़ता है.शिक्षक मानकलाल अहिरवार बताते हैं कि गांवों में मज़दूरी का काम दलित और कम पढ़े लिखे पिछड़ो को करना पड़ता है.  दबंग परिवार के लोग अपने घर के दीगर कामों के अलावा अनाज बोने से लेकर फसल काटने तक के सारे काम करवाते हैं और  बाकी मौकों पर छुआछूत रखते हैं. इस छुआछूत बनाये रखने में  पंडे पुजारी धर्म का भय दिखाते हैं.

ऊंची जाति के दबंग दिन के उजाले में दलितों को अछूत मानते हैं और मौका मिलने पर रात के अंधेरे में दलितों की बहन, बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं. यही हाल अपने आपको श्रेष्ठ समझने वाले पंडितों का भी है,जो दिन में तो कथा,पुराण सुनाते हैं और रात होते ही शराब की बोतलें खोलते हैं.

*कैसे निपटते जवान लड़के लड़कियां*

पुरानी पीढ़ी के लोगों को तो पंडे पुजारियों ने समझा दिया था कि तुम दलित के घर पैदा हुए हो,तो जीवन भर तुम्हें दबंगों की गुलामी करनी होगी. बिना पढे लिखे लोगों ने इसे काफी हद तक स्वीकार कर भी लिया था, लेकिन पढ़ें लिखे जवान लड़के-लड़कियां समाज में  फैली छुआछूत की इस समस्या से ज्यादा जूझ रहे हैं.

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छुआछूत की वजह से दलित नौजवान समाज के ऊंची जाति के लोगों से दूरी रखने लगे हैं.शादी, विवाह और दूसरे खुशी के मौके पर बैंड बाजा बजाने वाले बृजेश बंशकार ने बताया कि   हमसे बैंड बजवाकर लोग खुशियां तो मनाते हैं, लेकिन छुआछूत की भावना रखकर हमारे लिए खाना के लिए अंदर नहीं बुलाते हैं,खुले मैदान और गंदी जगह पर बैठा कर  हमें खाना परोसा जाता है.  आड़ेगांव कला के धोबी  का काम कर रहे  युवा सुरेंद्र रजक ने बताया कि हम घर-घर जाकर लोगों के गंदे कपड़ों के धोने के बाद साफ कपड़े लेकर उनके घर जाते हैं तो हमें घृणा की नजरों से देखते हैं.

हरिओम नाई अपने सेलून पर हजामत बनाने का काम  करते हैं. वे कहते हैं कि यदि हम दलित वर्ग के लोगों की दाढ़ी, कटिंग करते हैं,तो ऊंची जाति के लोग हमारी दुकान पर नहीं आते और हमें भला बुरा भी कहते हैं.  प्रदेश की राजधानी भोपाल में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर संतोष अहरवाल ने बताया कि भोपाल ,इंदौर , जबलपुर जैसे शहरों में भी कहीं ना कहीं जातिगत भेदभाव होता है और रूम किराए पर लेने में भी मशक्कत करनी पड़ती है.मकान मालिक यदि किराये के रूम के आजू बाजू रहता है तो वह जाति पूछकर दलितों को  रुम किराये पर देने मना कर देता है. कालेज पढ़ने वाली पिंकी जाटव बताती हैं कि शहर के कालेज में पढ़ने वाली ऊंची जाति की लड़कियां हमें भाव‌ नहीं देती. सजने संवरने की आस में ब्यूटी पार्लर जाने पर भी जातिगत भेद भाव किया जाता है.

अपनी आंखों में नये सपने लिए नौजवानों  ने छुआछूत की बजह कुछ नौजवानों ने अपने परम्परागत काम धंधे छोड़ दिये हैं,तो क‌ई ने गांव कस्बों से पलायन का रास्ता अख्तियार कर लिया है.

अहमदाबाद की डायमंड फैक्ट्री में काम करने वाले सैकड़ों लोग लौक डाउन में वापस गांव आ तो गए, लेकिन छुआछूत की समस्या के चलते कोई काम धंधा नहीं मिल सका. अब वापस जाने ठेकेदारों के फोन आ रहे हैं,तो वे इज्जत की जिंदगी जीने फिर से गांव छोड़ कर जाने तैयार हो रहे हैं. सूरत में ब्यूटी पार्लर चलाने वाली युवती कंचन चौधरी गांव की युवतियों को ब्यूटी पार्लर का काम सिखाने का हुनर रखती है, परन्तु कस्बों की लड़कियां छुआछूत की बजह से सीखना नहीं चाहती.कंचन कहती हैं कि अब वे भी परिवार के साथ वापस सूरत जाकर अपना काम धंधा संभालेंगी.

दरअसल आज भी गांवों में पुस्तैनी काम कर रहे बसोर, मेहतर, मोची, धोबी,नाई लोगों को दूसरे काम करने की इजाजत नहीं है और पुस्तैनी कामों में छुआछूत आड़े आती है. इनसे बचने की जुगत में नौजवान अपने गांव कस्बों से दूर शहर जाकर मनमर्जी का काम करने लगे हैं.

*विसंगतियों के बावजूद न‌ई उम्मीदें भी*

समाज में फैली छुआछूत की बीमारी के बीच कुछ लोग यैसे भी है ं ,जो समाज को उम्मीद की रोशनी भी दिखा रहे हैं.होशंगाबाद के छोटे से गांव पुरैना के मुकेश बसेडिया लगातार दलित आदिवासी समाज की लड़कियों की शादियां रचाकर छुआछूत दूर करने की अनूठी पहल कर रहे हैं. मुकेश दलित लोगों के साथ छुआछूत नहीं बल्कि समता का व्यवहार करते हैं खान-पान से लेकर आने जाने तक और उनकी मदद करने तत्पर रहते हैं. इस बजह से उन्हें उनकी ब्राम्हण समाज के लोगों के कोप का सामना करना पड़ता है.

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लौक डाउन में मुकेश बसेड़िया ने आदिवासी अंचलों के दर्जनों गांवों में रोज ही राशन पानी से लेकर , मच्छरदानी,दबाईयां पहुंचाई हैं और आदिवासी महिला पुरुषों को बिना किसी जाति गत भेदभाव के  उन्हें हर संभव मदद पहुंचाने का काम किया है.

*दलित बच्चों भी होते हैं जुर्म का शिकार* 

दलितों पर उत्पीड़न के मामले रोज ही समाचार पत्र पत्रिकाओं के किस्से बनते हैं. सरकार समानता और समरसता का ढोल पीट रही है , लेकिन हालात यैसे हैं कि दलित अपनी रोजी-रोटी के लिए समाज का यह व्यवहार भी झेलने मजबूर है.

कभी स्कूलों में दलित बच्चों के साथ छुआछूत का व्यवहार  किया जाता है ,तो कभी उन्हे हेंडपंप पर पानी पीने से रोका जाता है. एक यैसा ही मामला मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले में जुलाई 2019 में आया था ,जहां  ग्राम पंचायत मस्तापुर के प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूल में अनुसूचित जाति,जनजाति के बच्चों को हाथों में मध्याह्न भोजन दिया जा रहा था .छात्रों ने अपनी आपबीती विभाग के अधिकारियों को बताकर कहा था कि स्कूल में भोजन देने वाले स्व.सहायता समूह में राजपूत जाति की महिलाओं को रसोइया रखने के कारण वे  निचली जाति के लड़के लड़कियों से दुआछूत रखती हैं. बच्चों को अछूत मानकर उन्हे हाथ में खाना परोसा जाता है . यदि वे अपने घर से थाली ले जाते हैं ,तो थालियों को बच्चों को खुद ही साफ करना पड़ता है. दलितों को छुआछूत से बचाने बनाये गये तमाम कानून केवल किताबों और भाषणों में सिमटकर रह गये हैं.

इसी प्रकार  अगस्त 2019 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के रामपुर प्राइमरी स्कूल में में एक चौंकाने वाला मामला सामने आया था. यहां पर स्कूल में बच्चों को दिए जाने वाले मिड डे मील में जातिगत भेदभाव के चलते दलित बच्चों को उंची जाति के अन्य बच्चों से अलग बैठाकर भोजन दिया जाता था . रामपुर के प्राइमरी स्कूल में कुछ ऊंची जाति के छात्र खाना खाने के लिए अपने घरों से बर्तन लेकर आते थे और वे अपने बर्तनों में खाना लेकर दलित समुदाय के बच्चों से अलग बैठकर खाना खाते थे . बच्चों के इस भेदभाव का विडियो भी सोशल मीडिया में वायरल हुआ था . महात्मा गांधी की  150 वीं  जयंती मनाने के बाद भी गांधी जी के विचारों और सिद्धांतों का ढिंढोरा तो सरकारों द्वारा खूब पीटा जा रहा है , परन्तु सामाजिक ताने-बाने में दलितों और ऊंची जाति के ठाकुर, पंडितों में जातिगत भेद भाव की लकीर खिंची हुई है.

दलितों के नाम पर राजनीति करने वाली बसपा , गौड़ वाना गणतंत्र, जैसी सियासी पार्टियां भी केवल सोशल मीडिया पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर खामोश हैं.  यैसे में किस तरह यह उम्मीद की जा सकती है कि आजादी के 73 साल बाद भी अंबेडकर के संविधान की दुहाई देने वाला भारत छुआछूत मुक्त हो पायेगा . समाज के ऊंची जाति के लोग आज भी दलितों का मानसिक और शारीरिक शोषण कर उनके हितों से उन्हे बंचित रखे हुए हैं. वे नहीं चाहते कि दलितों के बच्चे पढ़ लिख कर कुछ करें, क्योंकि यैसा होने पर दबंगों के घर नौकरों की तरह काम कौन करेगा? लौक डाउन की वजह से शहरों से गांव लौटे दलित और मजदूरों और उनके पढ़ें लिखे बच्चों के साथ गांव कस्बों में  जातिगत भेदभाव किया जा रहा है. गांव देहात के दलित और मजदूरों के परिवार पेट की भूख की खातिर अपमान का घूंट पीकर अपनी जिंदगी जीने मजबूर हैं.

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बड़ा सवाल यह है कि  नागरिकता कानून के बहाने दूसरे देशों के नागरिकों की प्रताड़ना की चिंता करने वाली सरकार अपने देश के दलितों और मजदूरों के इस उत्पीड़न को आखिर कब खत्म कर पायेगी.

वायरसी मार के शिकार कुम्हार

लेखक- डा. सत्यवान सौरभ

नोवल कोरोना वायरस  के चलते लागू किए गए लौकडाउन ने  मिट्‌टी बरतन बनाने वाले कारीगरों के सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है. इन कारीगरों ने मिट्टी के बरतन बना कर रखे लेकिन बिक्री न होने की वजह से इन के लिए खाने के लाले पड़ गए हैं. लौकडाउन के चलते न तो चाक (बरतन बनाने का उपकरण) चल रहा है और न ही दुकानें खुल रही हैं. घर व चाक पर बिक्री के लिए पड़े मिट्टी के बरतनों की इन्हें रखवाली अलग करनी पड़ रही है. देशभर में प्रजापति समाज के लोग मिट्टी के बरतन बनाने का काम करते हैं.

लौकडाउन ने इन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. इन के बरतनों की बिक्री नहीं हो रही है. महीनों की मेहनत घर के बाहर पड़ी है. इन हालात में परिवार का गुजारा करना मुश्किल हो गया है. गरमी के सीजन को देखते हुए बरतन बनाने वालों ने बड़ी संख्या में मटके बनाए. डिजाइनर टोंटी लगे मटकों के साथ छोटी मटकी और गुल्लक, गमले भी तैयार किए. दरअसल,  आज भी ऐसे लोग हैं जो मटके के पानी को प्राथमिकता देते हैं. मगर इस बार इन को घाटा हो गया. इन का परिवार कैसे गुजरबसर करेगा. कोई भी मटके खरीदने नहीं आ रहा है. धंधे से जुड़े लोगों ने ठेले पर रख कर मटके बेचने भी बंद कर दिए हैं.

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मिट्टी के बरतनों के जरिए अपनी आजीविका चलने वाले कुशल श्रमिकों के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल से देशभर के प्रजापति समाज के लोगों के लिए एक आस जगी है, जिस के अनुसार राज्य के हर प्रभाग में एक माइक्रो माटी कला कौमन फैसिलिटी सेंटर (सीएफसी) का गठन किया जाएगा.  सीएफसी की लागत 12.5 लाख रुपए होगी, जिस में सरकार का योगदान 10 लाख रुपए का होगा. शेष राशि समाज या संबंधित संस्था को वहन करनी होगी. भूमि, यदि संस्था या समाज के पास उपलब्ध नहीं है, तो ग्रामसभा द्वारा प्रदान की जाएगी. हर केंद्र में गैसचालित भट्टियां, पगमिल, बिजली के बरतनों की चक और पृथ्वी में मिट्टी को संसाधित करने के लिए अन्य उपकरण होंगे. श्रमिकों को एक छत के नीचे अपने उत्पादों को विकसित करने के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध होंगी. इन केंद्रों के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा.

खादी और ग्रामोद्योग विभाग का यह बहुत अच्छा प्रयास है. यदि उत्पाद गुणवत्ता के हैं और उन की कीमतें उचित हैं, तो बाजार में उन के लिए अच्छी मांग होगी. इस से व्यापार से जुड़े लोगों के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर बढ़ेंगे. इस के अलावा, तालाबों से मिट्टी उठाने से बाद की जलसंग्रहण क्षमता बढ़ जाएगी. इन उत्पादों को पौलिथीन का विकल्प बनने से पौलिथीन संदूषण को भी रोका जा सकेगा. कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए किए गए लौकडाउन से लगभग हर क्षेत्र में कामकाज बिलकुल ठप पड़ा है.

केंद्र सरकार छोटे, मझोले और कुटीर उद्योगों के लिए स्पेशल पैकेज की घोषणा कर के उन को जीवित रखने का प्रयास भले कर रही है. लेकिन, अस्पष्टता और सही दिशानिर्देश के अभाव में बहुत राहत मिलती नहीं दिख रही है. देश में बहुत से ऐसे वर्ग हैं जिन पुश्तैनी धंधा रहा है और कई जातियां ऐसी भी है जो विशेष तरह का काम कर के अपना जीवनयापन करती हैं, जैसे माली, लोहार, कु्म्हार, दूध बेचने वाले ग्वाला, दर्जी, बढ़ई, नाई, पत्तलदोने का काम कर के जीवनयापन करने वाले मुशहर जाति के लोग. ये ऐसे लोग हैं जिन का कामकाज लौकडाउन से सब से अधिक प्रभावित हुआ है. सरकार ने बड़े व मझोले कारोबारियों के लिए तो काफी कुछ दे दिया है, लेकिन उपर्युक्त लोगों के लिए सरकार की तरफ से कोई विशेष राहत का ऐलान नहीं किया गया है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र ने मोदी देश को संबोधित करते हुए आत्मनिर्भर भारत बनाने पर जो दिया. उन्होंने देश को आगे बढ़ाने के लिए एमएसएमई को फौरीतौर पर राहत देने की घोषणा की. लेकिन, बजट का निर्धारण करना वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पर छोड़ दिया. साथ ही, उन्होंने लोकल के प्रति वोकल होने की बात जरूर की लेकिन लौकडाउन से प्रभावित होने वाले ऐसे लोगों के बारे में जिक्र नहीं किया जिन की रोजीरोटी खुद के कारोबार और हुनर पर निर्भर है. लौकडाउन से उन के ऊपर गहरा असर हुआ है. ऐसे लोगों के पास बचत भी बहुत अधिक नहीं होती है कि वे अपनी जमापूंजी खर्च कर के घरखर्च चला सकें. ऐसे लोग हर रोज कमाते हैं, जिस से उन के खाने का इंतजाम हो पाता है. अब लौकडाउन हो जाने से उन का कामकाज बिलकुल बंद हो गया है. ऐसे में सरकार को इन लोगों के लिए कुछ न कुछ अलग से उपाय करना चाहिए, ताकि उन का जीवन भी सुचारु रूप से चल सके.

आज जब भारत के गांव बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं तो गांवों के परंपरागत व्यवसायों को भी नया रूप दिए जाने की जरूरत है. गुजरात के राजकोट निवासी मनसुख भाई ने कुछ ऐसा ही नया करने का बीड़ा उठाया है. पेशे से कुम्हार मनसुख ने अपने हुनर और इनोवेटिव आइडिया का इस्तेमाल कर के न सिर्फ अच्छा बिजनेस स्थापित किया, बल्कि नेशनल अवार्ड भी हासिल किया. आज उन के नाम और काम की तारीफ भारत ही नहीं, दुनिया में हो रही है. उन के मिट्टी के बरतन विदेशों में भी बिक रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने उन्हें ‘ग्रामीण भारत का सच्चा वैज्ञानिक’ कहा था. एक अन्य पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उन्हें सम्मानित करते हुए कहा था कि ग्रामीण भारत के विकास के लिए उन के जैसे साहसी और नवप्रयोगी लोगों की जरूरत है. आज वे उद्यमियों के लिए एक मिसाल हैं.

कुछ लोग गांवों के परंपरागत व्यवसाय के खत्म होने की बात करते हैं, जो गलत है. अभी भी हम ग्रामीण व्यवसाय को जिंदा रख सकते हैं, बस, उस में थोड़ी सी तबदीली करने की जरूरत है. भारत के गांव अब नई तकनीक और नई सुविधाओं से लैस हो गए हैं. भारत के गांव बदल रहे हैं, इसलिए अपने कारोबार में थोड़ा सा बदलाव करने की जरूरत है. नई सोच और नए प्रयोग के जरिए ग्रामीण कारोबार को बरकरार रखा जा सकता है और उस के जरिए अपनी जीविका चलाई जा सकती है.

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जब हम गांव में कोई कारोबार शुरू करते हैं, उस से सिर्फ हमें ही फायदा नहीं मिलता, बल्कि हमारी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी होती है. हम आत्मनिर्भर बनते हैं और तमाम बेरोजगारों को रोजगार देते हैं. हर व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साथ ही दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करे. उन्हें काम करने के प्रति जागरूक करे. इसी से ग्रामीण भारत के सशक्तीकरण का सपना पूरा होगा.

ससुराल में पूरे हुए रूपा के सपने

लेखक- डा. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

रूपा यादव की तीसरी जमात में पढ़ते हुए ही 8 साल की अबोध उम्र में शादी हो गई थी. रूपा ने ब्याहता बन कर भी घर का कामकाज करने के साथसाथ अपनी पढ़ाई जारी रखी.

शादी के बाद गौना नहीं होने तक रूपा मायके में पढ़ी और फिर ससुराल वालों ने उसे पढ़ाया. ससुराल में पति और उन के बड़े भाई यानी रूपा के जेठ ने सामाजिक रूढि़यों को दरकिनार करते हुए रूपा की पढ़ाई जारी रखी. पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए दोनों भाइयों ने खेती करने के साथसाथ टैंपो भी चलाया.

रूपा ने ससुराल का साथ मिलने पर डाक्टर बनने का सपना संजोया और 2 साल कोटा में रह कर एक इंस्टीट्यूट से कोचिंग कर के दिनरात पढ़ाई की.

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जयपुर के चैमू क्षेत्र के गांव करेरी की रूपा यादव, जिस ने नीट 2017 में 603 अंक हासिल किए थे, को प्रदेश के सरकारी सरदार पटेल मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया.

ऐसी है कहानी

रूपा यादव गांव के ही सरकारी स्कूल में पढ़ती थी. जब वह तीसरी क्लास में थी, तब उस की शादी कर दी गई. गुडि़यों से खेलने की उम्र में ही वह शादी के बंधन में बंध गई थी. दोनों बहनों की 2 सगे भाइयों से शादी हुई थी. उस के पति शंकरलाल की भी उम्र तब 12 साल की थी. रूपा का गौना 10वीं जमात में हुआ था.

गांव में 8वीं जमात तक का सरकारी स्कूल था, तो वह उस में ही पढ़ी. इस के बाद पास के गांव के एक प्राइवेट स्कूल में दाखिला लिया और वहीं से 10वीं जमात तक की पढ़ाई की.

10वीं जमात का इम्तिहान दिया. जब रिजल्ट आया तब रूपा ससुराल में थी. पता चला कि 84 फीसदी अंक आए हैं. ससुराल में आसपास की औरतों ने घर वालों से कहा कि बहू पढ़ने वाली है, तो इसे आगे पढ़ाओ.

शंकरलाल ने इस बात को स्वीकार कर रूपा का दाखिला गांव से तकरीबन 6 किलोमीटर दूर प्राइवेट स्कूल में करा दिया.

रूपा के 10वीं जमात में अच्छे अंक आए. पढ़ाई के दौरान ही उस के सगे चाचा भीमाराव यादव की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. उन्हें पूरी तरह से उपचार भी नहीं मिल सका था.

इस के बाद ही रूपा ने बायलौजी विषय ले कर डाक्टर बनने का निश्चिय किया. 11वीं जमात की पढ़ाई के दौरान रूपा बहुत कम स्कूल जा पाती थी. वह घर के कामकाज में भी पूरा हाथ बंटाती थी. गांव से 3 किलोमीटर स्टेशन तक जाना होता था. वहां से बस से

3 किलोमीटर दूर वह स्कूल जाती थी. उस के 11वीं जमात में भी 81 फीसदी अंक आए. उस ने 12वीं जमात का इम्तिहान दिया और 84 फीसदी अंक हासिल किए.

बाद में रूपा यादव ने बीएससी में दाखिला ले लिया. बीएससी के पहले साल के साथ एआईपीएमटी का इम्तिहान भी दिया. इस में उस के 415 नंबर आए और 23,000वीं रैंक आई.

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लिया बड़ा फैसला

रूपा के पति व जेठ ने फैसला किया कि जमीन बेचनी पड़ी तो बेच देंगे, लेकिन रूपा को पढ़ाएंगे. रूपा कोटा में पढ़ने गई तो वहां का माहौल आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने वाला था. टीचर बहुत मदद करते थे. कोटा में रह कर एक साल मेहनत कर के रूपा अपने लक्ष्य के बहुत करीब पहुंच गई.

रूपा ने पिछले साल नीट में 506 अंक हासिल किए, लेकिन लक्ष्य से थोड़ी सी दूर रह गई. फिर से कोचिंग करने में परिवार की गरीबी आड़े आ रही थी. परिवार उलझन में था कि कोचिंग कराएं या नहीं. ऐसे में एक कैरियर इंस्टीट्यूट ने रूपा का हाथ थामा और उसे पढ़ाई के लिए प्रेरित किया.

उस संस्थान द्वारा रूपा की 75 फीसदी फीस माफ कर दी गई. सालभर तक उस ने दिनरात मेहनत की और 603 अंक हासिल किए. नीट रैंक 2283 रही. अगर वह कोटा नहीं आती, तो शायद आज बीएससी कर के घर में ही काम कर रही होती.

रूपा ने लोगों के ताने भी सहे, लेकिन हिम्मत नहीं हारी. तभी तो वह आज यहां तक भी पहुंच पाई है. इस में उस की ससुराल का बहुत बड़ा योगदान रहा है. पहले साल सिलैक्शन नहीं हुआ या तो खुसुरफुसुर होने लगी कि क्यों पढ़ा रहे हो? क्या करोगे पढ़ा कर? घर की बहू है तो काम कराओ.

इस तरह की बातें होने लगी थीं. यही नहीं, कोटा में पढ़ाई के दौरान ससुराल वालों ने खर्चों की भरपाई के लिए उधार पैसे ले कर भैंस खरीदी थी, ताकि दूध दे कर ज्यादा कमाई की जा सके, लेकिन वह भैंस भी 15 दिन में मर गई. इस से तकरीबन सवा लाख रुपए का घाटा हुआ, लेकिन ससुराल वालों ने उसे कुछ नहीं बताया, बल्कि पति व जेठ और मजबूत हो गए. इस से रूपा बहुत प्रोत्साहित हुई और उस ने पढ़ने में बहुत मेहनत की.

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कोटा में रहने व दूसरे खर्च उठाने के लिए पति और जेठ टैंपो चलाने का काम करने लगे, जबकि रूपा रोजाना 8 से 9 घंटे पढ़ाई करती थी. रूपा जब कभी घर जाती है, तो घर का सारा काम भी बड़ी लगन से करती है. सुबहशाम का खाना बनाने के साथसाथ झाड़ूपोंछा लगाना उस की दिनचर्या में शामिल है. इस के साथ ही खेत में खरपतवार हटाने के काम में भी रूपा हाथ बंटाती है.

रूपा ने असाधारण हालात के बावजूद कामयाबी हासिल की है. रूपा की मदद का सिलसिला जारी रखने के लिए एक संस्थान ने उसे एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान 4 साल तक मासिक छात्रावृत्ति देने का फैसला किया है.

भारतमाला परियोजना: बेतरतीब योजनाओं के शिकार किसान

भारतमाता की माला के मोती ही बिखर जाएं वो कैसी भारतमाला? इस पूंजीवादी मॉडल की बेतरतीब योजनाओं में भारत की बुनियाद का तिनकातिनका धरा पर बिखरता जा रहा है. किसान नेमत का नहीं, बल्कि सत्ता की नीयत का मारा है.

भारतमाला परियोजना के तहत बन रही सड़कें किसानों में बगावत के सुर पैदा कर रही है. इस योजना के तहत 6 लेन का एक हाईवे गुजरात के जामनगर से पंजाब के अमृतसर तक बन रहा है, फिर आगे हिमालयी राज्यों तक निर्मित किया जाएगा.

दरअसल बिना ठोस तैयारी के सरकारें योजना तो शुरू कर देती है, मगर बाद में जब इस के दुष्परिणाम सामने आने लगते है तो फिर सरकार सख्ती पर उतरती है और किसान बगावत पर.

जो भूमि अधिग्रहण बिल संसद में पारित किया था, उस के तहत सरकार जमीन का अधिग्रहण करने के बजाय उस मे संशोधन करने पर आमादा है और जब तक संशोधन कर नहीं दिया जाता तब तक इन परियोजनाओं को पूरा करने का सरकार के पास एक ही विकल्प है कि जोरजबरदस्ती के साथ किसानों को दबाया जाएं.

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फरवरी, 2020  में राजस्थान में जालोर के बागोड़ा में किसानों ने इस के खिलाफ स्थायी धरना शुरू किया था. 14 मार्च को इन किसानों ने राजस्थान के सीएम से बात की थी और सीएम ने आश्वस्त किया कि आप की मांगे कानूनन सही है और आप को इंसाफ दिलवाया जाएगा. कोरोना के कारण किसानों ने धरना खत्म कर दिया.

यही काम जालोर से ले कर बीकानेर-हनुमानगढ़ के किसानों ने भी किया था. लॉकडाउन के संकट के बीच किसान तो चुप हो गए,  मगर परियोजना का कार्य कर रही कंपनियों ने जबरदस्ती कब्जा करना शुरू कर दिया.

केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इस परियोजना के संबंध में कहा था कि किसानों को बाजार दर से चार गुना मुआवजा दिया जाएगा. जालोर व बीकानेर के किसान कह रहे है कि हमे मुआवजा 40 से 50 हजार रूपए प्रति बीघा दिया जा रहा है, जब कि बाजार दर 2 लाख रुपये प्रति बीघा है.जिन किसानों ने सहमति पत्र भी नहीं दिया और मुआवजा तक नहीं मिला, उन की भी जमीने जबरदस्ती छीनी जा रही है!

इस योजना का ठेका दो कंपनियों को दिया गया. जामनगर से बाड़मेर तक जो कंपनी यह हाईवे बना रही है, उस को 20 जुलाई तक कार्य पूरा करना है और बाड़मेर से अमृतसर का कार्य जो कंपनी देख रही है, उस को यह कार्य सितंबर 2020 तक पूरा करना है. एक तरफ कंपनियों की समयसीमा है तो दूसरी तरफ किसान है.

समस्या विकास नहीं है, बल्कि असल समस्या बेतरतीब योजनाएं है, गलत नीतियां है, सरकारों की नीयत है.  साल 1951 में भारत की जीडीपी में किसानों का योगदान 57% था और कुल रोजगार का 85% हिस्सा खेती पर निर्भर था.  2011 में जीडीपी में खेती का कुल योगदान 14% रहा और कुल रोजगार का 50% हिस्सा खेती पर निर्भर रहा.

जिस गति से खेती का जीडीपी में योगदान घटा व दूसरे क्षेत्रों ने जगह बनाई, उस हिसाब से रोजगार सृजन नहीं हुए अर्थात खेती घाटे का सौदा बनता गया और खेती पर जो लोग निर्भर थे वो इस सरंचनात्मक बेरोजगारी के शिकार हो गए.

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किसानों के बच्चे कुछ शिक्षित हुए और गांवों से शहरों में रोजगार पाना चाहते थे,  मगर उन को रोजगार मिला नहीं और खुली बेरोजगारी के शिकार हो कर नशे व अपराध की दुनिया में जाने लगे.

भारत की ज्यादातर खेती मानसून पर निर्भर है इसलिए मौसमी बेरोजगारी की मार भी किसानों पर बहुत बुरे तरीके से पड़ी. शहरों में कुछ महीनों के लिए रोजगार तलाशते है और बारिश होती है तो वापिस गांवों में पलायन करना पड़ता है.

किसानों में बेरोजगारी का एक स्वरूप भयानक रूप से नजर आ रहा है, वो छिपी बेरोजगारी है. किसानों के संयुक्त परिवार है और जितने भी लोग है वो खेती पर ही निर्भर है. जहां दो लोगों का काम है वहां 5 लोग खेती में लगे हुए है क्योंकि दूसरी जगह रोजगार मिलता नहीं है.

जब भी किसी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की जाती है तो किसानों में भय का वातावरण फैल जाता है. दूसरी जगह रोजगार मिलता नहीं है व वर्तमान में जिस तरह की वो खेती कर रहे होते है उस के हिसाब से वो कर्ज में दबे हुए ही होते है तो बच्चों को ऐसी तालीम नहीं दिलवा सकते जो कठिन प्रतियोगिताओं में मुकाबला कर सके.

कुल मिलाकर जमीन किसान के जीवनमरण का बिंदु बन जाता है. आग में घी का काम करती है सरकार द्वारा घोषित मुआवजे व पुनर्वास की प्रक्रियाओं को दरकिनार करना. देशभर में किसानों व परियोजना निर्माण में लगी कंपनियों के बीच हमेशा हिंसक झड़पें होती रहती है और आखिर में सरकार सख्ती से कब्जा लेती है और फिर बगावत के सुर शुरू हो जाते है.

किसान नेता अक्सर अपना रोजगार शिफ्ट कर चुके होते है, इसलिए भाषणबाजी के अलावा इन किसानों से उन का सरोकार होता नहीं है. जो नीतियां बनाते है व विधानसभाओं व संसद में पास करते है उन लोगों के पूरे परिवार अपना रोजगार खेती से अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित कर लिया है. ऐसे लग रहा है कि भारत की राजनीतिक जमात की बुनियाद इसी पर टिकी है कि देश के पुरुषार्थ को लूटो और अपने टापू बना लो.

आज कोरोना का संकट है और पूरी दुनिया जूझ रही है. भारत मे इस समय उद्योग/धंधे बंद हो गए. हर तरह का सामान बिकना बंद हो गया, मगर एक बात हम सभी ने गौर से देखी होगी कि सामान सस्ता होने के बजाय महंगा होता गया. कई गुना दाम हो गए मगर अन्न व सब्जियां उसी दर पर मिल रही है क्योंकि इसे किसान पैदा करता है.

आज भी 50% से ज्यादा लोग खेती पर निर्भर है और उन की क्रय शक्ति ही डूबती अर्थव्यवस्था को जिंदा कर सकती है, मगर सत्ता में बैठे लोगों की नीयत देशहित के बजाय निजहित तक सीमित है.  इसलिए देश की बुनियाद बर्बाद करने पर तुले हुए है.

उचित मुआवजा, पुनर्वास जब तक कार्य शुरू करने से पहले नहीं करोगे, तब तक सत्तासीन लोग भविष्य के लिए नागरिक नहीं बगावती तैयार कर रहे है. बंगाल के जलपाई गुड़ी जिले के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में 1967 में कान्हू सान्याल व मजूमदार नाम के दो युवाओं ने भूमि सुधार को ले कर बगावत की थी और आज 14 राज्यों में इसी देश के नागरिक सत्ता के खिलाफ हथियार उठा कर लड़ रहे है.

समस्या को नजरअंदाज कर के सत्ता की  दादागिरी का खामियाजा यह देश पिछले 5 दशक से ज्यादा समय से भुगत रहा है. जब लोकसभा में यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल पारित किया था तब यह समझ जरूर थी कि चाहे विकास की गति धीमी हो मगर ऐसी समस्या देश के सामने भविष्य में निर्मित न हो. अब लगता है कि शाम को टीवी पर भाषण दो और अगली सुबह सबकुछ उसी अनुरूप चलने लगेगा. अक्सर लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता है.

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बीकानेर के किसान आज बहुत परेशान है.सांसद से ले कर विधायक तक सुविधाभोगी है इसलिए अकेले नजर आ रहे है. किसान देश का है मगर किसान का कोई नहीं. अभी तक किसान टूटा नहीं है इसलिए व्यवस्था बदरंग ही सही मगर चल रही है. जिस दिन किसान टूट गए तो समझ लीजिएगा कि देश वापिस देशी एजेंटों के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों जा चुका है.

यह परियोजना मात्र 14 सौ किमी की चमचमाती सड़क नहीं है, बल्कि जहां से गुजरेगी वहाँ के व आसपास के किसानों के सीने में जख्म दे जायेगी जिसे भविष्य में भरा न जा सकेगा.

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