कोरोना का कहर और बिहार में चुनाव

ज्यों ज्यों कोरोना का कहर बिहार में बढ़ते जा रहा है उसी रफ्तार से चुनावी सरगर्मी भी बढ़ रही है. सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एन डी ए और महागठबंधन दोनों में आपसी खींचतान शुरू है. अधिक से अधिक सीट लेने के लिए दोनों गठबंधन में सुप्रीमो पर दबाव बनाना जारी है.

एन डी ए में जद यू ,भाजपा और लोजपा के बीच गठबंधन है. वहीं  महागठबंधन में राजद, कांग्रेस, रालोसपा, हम और वी आई पी के बीच गठबंधन है. दोनों गठबंधन में सबकुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है.

एन डी ए गठबंधन में लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान लगातार नीतीश कुमार पर आरोप लगा रहे हैं.अपने दल के कार्यकर्ताओं से सभी सीट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयारी करने की बात भी बोल रहे हैं.

ये भी पढ़ें- भूपेश बघेल की “गोबर गणेश” सरकार!

गठबंधन में कई पार्टी भले ही एक दूसरे से टैग हैं. मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा भाजपा के सुशील कुमार मोदी, रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा,राजद के तेजस्वी यादव,रालोसपा के चिराग पासवान,हम के जीतन राम माँझी के अंदर भी हिलोरें मार रही हैं.

हम पार्टी के संस्थापक जीतन राम माँझी जो यू पी ए गठबंधन में है. वे इस समय नीतीश कुमार की तारीफ करने लगे हैं. इससे इनके ऊपर भी ऊँगली उठने लगी है. ये किसके तरफ कब हो जायेंगे. कहना मुश्किल है.

महागठबंधन में मुख्यमंत्री पद के लिए चुनाव के पूर्व घोषणा का मामला भी आपस में विवाद का कारण बना हुआ है. सभी दल वाले अधिक से अधिक सीट लेने के लिए दबाव बनाने में लगे हुवे हैं.

गरीबो दलितों और प्रबुद्ध वर्ग के लोग जिस वामपंथी दलों से जुड़े हुवे हैं. जैसे कम्युनिस्ट पार्टी,मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और भाकपा माले ये दल भी एन डी ए गठबंधन को हर हाल में हराने के लिए  महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ना चाहते हैं. लेकिन इनलोगों को महागठबंधन में उतना तवज्जो नहीं दिया जाता.अगर वामपंथी दल आपस में गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ते हैं तो उससे  महागठबंधन को ही घाटा होगा क्योंकि इनका जनाधार महागठबंधन के जो वोटर हैं.उन्हीं के बीच में है.पप्पू यादव का जाप पार्टी भी चुनाव मैदान में आने के लिए कमर कसकर तैयार है.जनता की हर तरह की समस्याओं के निदान के लिए जाप पार्टी के प्रमुख पप्पू यादव के साथ उनके कार्यकर्ता सक्रिय दिख रहे हैं. महागठबंधन के साथ ये चुनाव लड़ेंगे या अलग अभी तक मामला स्पष्ट नहीं हो सका है. महागठबंधन के वोटर के बीच वोटों का आपस में बिखराव की संभावना अधिक दिख रही है. अगर एन डी ए गठबंधन से अलग सारे दल आपसी ताल मेल से चुनाव लड़ते हैं. तभी वर्तमान सरकार को चुनौती मिल सकती है.

एन डी ए गठबंधन में भाजपा भले ही जद यू के नीतीश कुमार के साथ है. लेकिन भाजपा के समर्थक की हार्दिक इक्षा यही होती है कि मुख्यमंत्री मेरा अपना हो.

ये भी पढ़ें- छत्तीसगढ़ में “भूपेश प्रशासन” ने हाथी को मारा!

इस चुनाव को लेकर सभी दल डिजीटल माध्यम से प्रचार प्रसार में लगे हुवे हैं. इस खेल में एन डी ए गठबंधन माहिर है.इनके पास संसाधन भी अधिक उपलब्ध है. राज्य चुनाव आयोग से संकेत मिलते ही बिहार की सभी पार्टियाँ चुनाव को लेकर सक्रिय होने लगी है.कोरोना की वजह से राजनीतिक गतिविधि पर रोक है. इस परिस्थिति में सभी दल डिजिटल प्रचार की तैयारी में जुट गए है. बिहार के सभी राजनीतिक दल के लिए चुनौती सिर्फ एक ही है भारतीय जनता पार्टी .सभी दलों को पता है कि डिजिटल प्रचार के मामले में भाजपा को महारत हासिल है. सभी दल वाले इसका काट ढूंढने में लगे हैं.

यह तो स्पष्ट हो गया है कि अगर समय पर चुनाव हुआ तो कोरोना के साये में ही होगा.महामारी के बीच सभी पार्टियाँ डिजिटल माध्यम से प्रचार करने के लिए कमर कसने लगा है. भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता और गृह मंत्री से इस डिजिटल प्रचार का आगाज वर्चुअल रैली के माध्यम से कर चुके हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कार्यकर्ताओं से डिजिटल माध्यम से  संवाद कर चुके हैं. जद यू के महासचिव एवं राज्य सभा सांसद आर सी पी सिंह लगातार सभी संघटनों के साथ फेसबुक लाइव और जूम ऐप के माध्यम से सम्पर्क बनाये हुवे है. जद यू ने अपने तीन मंत्री अशोक चौधरी ,संजय झा और नीरज कुमार को डिजटली मजबूत करने की जिम्मेवारी सौंपी है. इन तीन मंत्रियों को प्रमंडल स्तर की जिम्मेदारी दी गयी है.

सत्तापक्ष के साथ साथ विरोधी दल के नेता तेजस्वी यादव भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं. इनकी टीम भी लगी हुवी है. अपने विधयकों को डिजीटल माध्यम से सक्रिय करने का कार्य तेज गति से चल रहा है. कांग्रेस के बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल और प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा भी कई बार वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये अपने कार्यकर्ताओं के साथ मीटिंग कर चुके हैं.

बी जे पी कोरोना संकट के बीच पी एम के आर्थिक पैकेज की घोषणा को मुद्दा बनाने की तैयारी में है. इसके लिए पार्टी ने पाँच सदस्यीय टीम की घोषणा कर दी है. इसमें उपाध्यक्ष राजेश वर्मा,राजेन्द्र गुप्ता,महामंत्री देवेश कुमार ,मंत्री अमृता भूषण और राकेश सिंह शामिल हैं. ये सभी प्रधानमंत्री के विशेष पैकेज का प्रचार प्रसार हाईटेक तरीके से करेंगे.

प्रवासी मजदूरों के साथ किये गए पुलिसिया जुल्म अत्याचार और अन्याय के खिलाफ विरोधी दल भी आवाज उठायेंगे.

बिहार सरकार द्वारा प्रवासी मजदूरों के साथ की गयी उपेक्षा को नीतीश कुमार किसी रूप से उसपर मरहम लगाना चाहते हैं. जिसका लाभ चुनाव में वोट के रूप में भंजा सकें.देश भर में जब लॉकडाउन की वजह से मजदूर महानगरों में फँस गए तो मुख्यमंत्री ने साफ तौर पर इंकार कर दिया कि मजदूरों को बाहर से नहीं लाया जाएगा.निराश उदास और मजबूर होकर महानगरों से अपने गाँव के लिए ये मजदूर पैदल सायकिल और ट्रकों में जानवर की तरह अपने गांव लौटे.

ये भी पढ़ें- एससीबीसी के निकम्मे नेता

इन मजदूरों के साथ हर जगह पर पुलिस,पदाधिकारी और आमजनों ने भी इनके साथ अमानवीय ब्यवहार किया.यहाँ तक कि इन मजदूरों को एक ब्यक्ति के रूप में नहीं देखकर इन्हें हर जगह कोरोना वायरस के रूप में देखा गया.लोग अपने दरवाजे पर बैठने और चापाकल तक का पानी तक नहीं पीने दिया.नीतीश कुमार अखबारों और टी वी पर ब्यान देते रहे.सभी मजदूरों को रोजगार दिया जाएगा.लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि यहाँ पर रोजगार के कोई अवसर और विकल्प नहीं दिख रहा है.

कोरोना काल मे चुनाव नहीं कराने के लिए विरोधी दल के नेता तेजस्वी यादव और लोजपा के युवा नेता चिराग पासवान ने आवाज उठाया है.पक्ष विपक्ष के बीच आरोप प्रत्यारोप जारी है.अपने अपने दल के नेता टिकट लेने के लिए जुगत भिड़ाने में जोर शोर से जुट गए हैं.

कोरोना के साथ साथ चुनाव की चर्चा पटना से लेकर चौक चौराहों और गांव की गलियों में होने लगा है.

Covid-19 के साइड इफेक्ट : लोगों में बढ़ी डिजिटल कामुकता

लेखक- लोकमित्र गौतम

कोविड-19 के चलते भारत ही नहीं पूरी दुनिया में अब अगर लाॅकडाउन नहीं भी लागू तो भी कामकाजी गतिविधियां लगभग ठप सी पड़ गई हैं. लोग घरों में बैठे हुए हैं. दफ्तर बंद है, फैक्टरियां बंद हैं और शायद दिमाग में भी कुछ नया सोचना बंद है. इसलिए इस गतिहीनता के दौर में लोगों में डिजिटल कामुकता बढ़ गई है.

हालांकि विशेषज्ञों ने कोविड-19 की वजह से साल 2021 में जो बेबी बूम की घोषणा की थी, उसे अब वापस ले लिया है. बावजूद इसके तमाम विशेषज्ञ इस बात पर सहमत है कि लाॅकडाउन के दौरान और उसके बाद अनलाॅक के दौरान तमाम तरह की गतिविधियों में अघोषित कटौती के कारण बड़े पैमाने में पूरी दुनियाभर के कपल्स को साथ रहने का लंबा मौका मिला है. इस वजह से इस पूरे समय में यौन गतिविधियां किसी भी सामान्य समय के मुकाबले कहीं ज्यादा रही हैं. विश्व की सबसे बड़ी कंडोम निर्माता कंपनी कोरेक्स ने अप्रैल के अंत में सार्वजनिक तौरपर स्वीकार किया था कि उसके पास कंडोम का पूरे 2020 के लिए जो स्टाक था, वो खत्म हो गया है.

ये भी पढ़ें- बेफिक्र होकर उठाएं Masturbation का लुत्फ

इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोरोना के चलते यौन गतिविधियों में काफी ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है. सवाल है क्या इससे किसी तरह का नुकसान है? पहले तो लगता था कि बिल्कुल किसी तरह का नुकसान नहीं है, लेकिन लाॅकडाउन के दौरान और उसके बाद आयी तमाम रिपोर्टों से पता चला है कि इस दौरान कितने बड़े पैमाने पर पोर्न मैटर तलाशा और देखा गया है. हालांकि पिछले कुछ महीनों से पूरी दुनिया में अधिकतम लोग अपने घरों में रहे हैं और अब के पहले यह माना जाता रहा है कि घरों में परिवार के बीच पोर्न फिल्मों के देखने का चलन नहीं है, सिर्फ एकांत में ये देखी जाती हैं. लेकिन लाॅकडाउन ने इस राय को बदल दिया है.

लाॅकडाउन के दौरान न सिर्फ पोर्न फिल्में बहुत ज्यादा देखी गई हैं बल्कि बाल यौन शोषण मटेरियल (सीएसएएम-चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज मटेरियल) भी ऑनलाइन बहुत ज्यादा सर्कुलेट हुआ है. इसके कारण पिछले दिनों जब कई तरह की आपराधिक घटनाओं में कमी देखी गई, वहीं बाल यौन अपराधों में काफी इजाफा हुआ है. मध्य प्रदेश में तो एक नौ साल की बच्ची के हाथ पैर बांधकर उससे बलात्कार किया गया और फिर उसकी आंखें फोड़ दी गईं. लॉकडाउन के दौरान सीएसएएम कंटेंट का यूजर एक्सेस बढ़ा है,उसका गंभीर संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय बाल अधिकार सुरक्षा आयोग ने गूगल, ट्विटर, व्हाट्सएप्प और एप्पल इंडिया को नोटिस जारी किये हैं.

गौरतलब है कि भारत में अन्य देशों की तरह ही बाल पोर्न के निर्माण व प्रसार पर पूर्ण प्रतिबंध है. इसका व्हाट्सएप्प या अन्य सोशल मीडिया के जरिये एक-दूसरे को भेजना भी दंडनीय अपराध है. इंग्लैंड व कुछ अन्य देशों में तो बाल पोर्न को रोकने के लिए विशेष विभाग हैं,जिनका काम ऐसी साइट्स को तलाशना, बंद करना व उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करना है. भारत में इस स्तर की चैकसी कम है, फिर भी बाल पोर्न पर काफी हद तक नियंत्रण था, लेकिन लगता है कि कोविड-19 के दौरान ठहर गये कामकाजी जीवन में खुराफाती दिमागों ने इसका चलन बढ़ा दिया है. यह समस्या इस हद तक बढ़ गई है कि कुछ दिन पहले बैडमिंटन कोचिंग का ऑनलाइन लाइव सत्र चल रहा था कि बीच में अचानक पोर्न कंटेंट प्रसारित होने लगा. ऐसा कई बार हुआ. यह कंटेंट जब पहली बार आया तो भारत के राष्ट्रीय बैडमिंटन कोच पी गोपीचंद ने कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए तुरंत अपने को लाइव प्रोग्राम से अलग कर लिया.

ये भी पढ़ें- अंग का आकार : क्या बड़ा है तो बेहतर है?

फिलहाल की स्थिति यह है कि आयोग ने ऑनलाइन सीएसएएम की उपलब्धता पर स्वतंत्र जांच आरंभ कर दी थी और जो साक्ष्य मिले थे, उनके आधार पर आयोग ने उक्त ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स को नोटिस जारी किये थे तथा 30 अप्रैल तक जवाब मांगा था. लेकिन बाद में क्या हुआ इसकी कोई खबर नहीं आयी. आयोग इन प्लेटफॉर्म्स से जानना चाहता है कि वह अपने प्लेटफॉर्म्स पर सीएसएएम को रोकने के लिए क्या नीति अपनाये हुए हैं, उन्हें पोर्नोग्राफी व सीएसएएम से संबंधित कितनी शिकायतें मिली हैं और ऐसे मामलों से डील करने की उनकी पालिसी क्या है? आयोग के अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो ने जिन लिंक्स,हैंडल पर इस प्रकार का आपत्तिजनक मटेरियल पाया है,उनकी रिपोर्ट व अन्य जानकारियां केन्द्रीय गृह मंत्रालय के साइबरक्राइम पोर्टल को कानूनी कार्यवाही के लिए फॉरवर्ड कर दिया है.

आयोग ने जो ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स को नोटिस भेजा है उसमें इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फण्ड की ताजा रिपोर्ट का हवाला दिया है,जिसमें सावधान किया गया है कि लॉकडाउन के दौरान बाल पोर्न सर्च में जबरदस्त वृद्धि हुई है, इसलिए आयोग अब इसकी स्वतंत्र जांच कर रहा है. गूगल इंडिया को दिए गये नोटिस में कहा गया है, “जांच के दौरान यह संज्ञान में आया है कि पोर्नोग्राफिक मटेरियल को गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध एप्पस के जरिये एक्सेस किया जा सकता है. इससे बच्चे भी इस प्रकार के मटेरियल को एक्सेस करने लगे हैं. यह भी आशंका है कि इन एप्पस पर सीएसएएमभी उपलब्ध है.” जबकि एप्पल इंडिया को दिए गये नोटिस में आयोग ने कहा कि उसके एप्प स्टोर में उपलब्ध एप्पस के जरिये बहुत आसानी से सीएसएएम व पोर्नोग्राफिक मटेरियल एक्सेस किया जा सकता है जो वहां बहुतायत में मौजूद है.

जांच के दौरान यह भी पाया गया कि बहुत से एन्क्रिप्टेड व्हाट्सएप्प ग्रुप्स में सीएसएएम बहुतायत के साथ उपलब्ध है. व्हाट्सएप्प इंडिया को दिए गये नोटिस में आयोग ने कहा है, “इन ग्रुप्स के लिंक्स को ट्विटर पर विभिन्न हैंडल्स के जरिये प्रचारित किया जाता है. आयोग का यह मानना है कि ट्विटर हैंडल्स पर इन व्हाट्सएप्प ग्रुप्स के लिंक्स का प्रचारित किया जाना गंभीर मामला है.” जबकि ट्विटर इंडिया को दिए गये नोटिस में आयोग ने कहा है, “देखा गया है कि आपकी जो नियम व शर्तें हैं, उनके अनुसार 13 वर्ष व उससे अधिक का व्यक्ति ट्विटर पर अकाउंट खोलने के लिए योग्य है. अगर आप 13 वर्ष की आयु में बच्चों को अकाउंट खोलने की अनुमति दे रहे हैं तो आयोग का मानना है कि आप अन्य यूजर्स को ट्विटर पर पोर्नोग्राफिक मटेरियल, लिंक आदि को प्रकाशित, प्रचारित नहीं करने दे सकते.”

ये भी पढ़ें- पोर्न और सेक्स का खुला बाजार

सीएसएएम व पोर्नोग्राफिक मटेरियल गंभीर आपराधिक मामला है. इस प्रकार के मटेरियल पर रोक लगाना अति आवश्यक है और सुप्रीम कोर्ट अपने कई निर्णयों में इस बात की जरुरत पर बल दे चुका है. इस प्रकार के मटेरियल से समाज में यौन अराजकता का खतरा बना रहता है, मानव तस्करी जैसे अमानवीय अपराध भी अक्सर इसी के कारण होते हैं. किशोरों द्वारा किये गये जो यौन अपराध प्रकाश में आये हैं, उनके पीछे भी अक्सर कारण सीएसएएम ही निकला है. इसलिए इस संदर्भ में खालिस नोटिस से काम नहीं चलेगा बल्कि जिन माध्यमों से सीएसएएम व पोर्नोग्राफिक मटेरियल वितरित व प्रचारित हो रहा है उन पर कड़ी कानूनी कार्यवाही की जाये और किसी भी सूरत में उल्लंघन को बर्दाश्त न किया जाये. इंटरनेट के युग में बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखने का यही एकमात्र तरीका है.

किसान मजदूरों की दुर्दशा : महानगरों की ओर लौटने लगे प्रवासी मजदूर

किसान मजदूरों के जवान बेटे पुनः बिहार और उत्तरप्रदेश के गांवो से महानगरों की ओर लौटने लगे. ठीकेदारों कम्पनी के मैनेजरों का फोन आने लगा. इधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का रोज अखबारों और टी वी पर यह ब्यान सुनने को मिल रहा है कि प्रवासी मजदूरों को हर हाल में रोजगार दिया जाएगा.लेकिन जमीनी सच्चाई अलग है. मुख्यमंत्रीजी आप कहाँ देंगे रोजगार.आपके पास भाषण के सिवा रोजगार देने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है.

किसान मजदूर के बेटे समझ गये हैं कि फजीहत जितनी भी झेलनी पड़े परिवार और अपना पेट भरने के लिए काम तो कहीं न कहीं करना ही पड़ेगा.यहाँ काम मिलना संभव नहीं है ?खेती का हाल और ही बुरा है. खेती में मजदूरी करने के लिए बड़े किसानों के यहाँ सालों भर काम नहीं है. साधरण किसान के बेटे अगर खेती भी करेंगे तो उससे कोई लाभ नहीं है.

ये भी पढ़ें- छुआछूत से जूझते जवान लड़के लड़कियां

हिमाचल प्रदेश के धागा उद्योग फैक्ट्री में काम करनेवाले अजय कुमार और उनकी पत्नी शुष्मा देवी जो लॉक डाउन में कम्पनी बन्द होने की वजह से अपने गृह जिला औरंगाबाद आ गए हैं.शुष्मा देवी ने बतायीं की हम

दोनों वहाँ काम करते थे.हम वहाँ दवा बनाने वाले कम्पनी में डब्बा में दवा भरने का काम करते थे.हमारे पति धागा कम्पनी में काम करते थे.उन्हें 15000 हजार और मुझे 1000 रुपये वेतन मिलता था.दोनों मिलाकर 25000 हजार रुपये मिल जाता था.दो बच्चों को आराम से पढ़ा लिखा रहे थे.प्रतिमहिना उसी में से बचाकर सास ससुर के लिए भी सात आठ हजार महीना भेजते रहते थे.लेकिन इस कोरोना की बीमारी ने तो हमलोगों को बड़ा मुश्किल में डाल दिया.पति के कम्पनी से फोन आ रहा है.पुनः काम पर लौटने के लिए हमलोग मन बना रहे हैं जाने के लिए.यहाँ हमलोग क्या करेंगे ? हमलोग मनरेगा में डेली ढोने और कुदाल चलाने वाला काम नहीं कर सकते.यहाँ और दूसरे चीज में किसी प्रकार का कोई स्कोप नहीं है.

राकेश कुमार गुजरात के राजकोट में टेम्पू फैक्ट्री में वेल्डर का काम करता था.साथ में पत्नी शांति देवी भी रहती हैं.शांति देवी ब्यूटीपार्लर का काम सीखतीं थी.राकेश पाँच वर्ष से इसी फैक्ट्री में काम करता है.दो वर्ष पहले शादी हुवी है.इसी वर्ष होली के बाद पत्नी भी साथ में गयी थी.पति पत्नी आपस में विचार किये की अगर ब्यूटी पार्लर का काम सिख जाती है तो भविष्य में पैसा जमा कर ब्यूटीपार्लर का दुकान खोल सकती है.लेकिन मार्च महीने में ही लॉक डाउन हो गया.जिसकी वजह से जो सपना देखे थे.उसपर पानी फिर गया.जब पति पत्नी से पूछे कि अब आपलोग क्या आगे सोंचें हैं तो दोनों ने बताया कि इस बार जब गाँव आ गए हैं तो धान का रोपण का काम करके फिर वहीं जायेंगे.कम्पनी से आने के लिए फोन आने लगा है.आपलोग यहाँ क्यों नहीं कुछ काम करते तो राकेश ने कहा कि 15000 हजार रुपये महीने का आप ही मुझे कोई काम दिलवा दीजिये.हम यहीं काम करेंगे.यहाँ तो मुझे कोई काम ही नहीं दिखाई पड़ रहा है.

सूरत कपड़ा मिल में काम करने वाला बिजय कुमार बताता है कि हम साड़ी फैक्ट्री में कलर मास्टर का काम करते थे.लॉक डाउन की वजह से कम्पनी बन्द हो गया तो घर आ गये थे.पुनः वहाँ से ठीकेदार फोन कर रहा है. वह भी बिहार का ही है. वह साथ में मेरा रिजर्वेशन कराने के लिए तैयार है. मेरे पास कोई उपाय नहीं है. इसलिए मैं जाने के लिए पुनः तैयार हो गया हूँ.बिहार से मुंबई,हैदराबाद,दिल्ली,लुधियाना की गाड़ियों में मजदूर झुंड के झुंड बाहर जाने के लिए निकल पड़े हैं.

इन मजदूरों में अधिकांशतः दलित और ओ बी सी के युवा हैं. ये युवा मजदूर या मध्यमवर्गीय किसान के बेटे हैं.

ये भी पढ़ें- आशुतोष राणा : गांव की मिट्टी से उपजा कलाकार

आखिर महानगरों की ओर क्यों पलायन करते हैं. बिहार और यू पी के युवा .बिहार और यू पी के गाँवों में किसानों मजदूरों के बेटों को सालों भर काम नहीं मिल पाता.मध्यमवर्गीय किसानों के बेटे को खेती से कोई लाभ नहीं दिखता इसकी वजह से वे महानगरों की ओर रुख करते हैं.किसानों की वास्तविक स्थिति क्या है ? इसे भी समझने की जरूरत है.

अगर किसानों के फसलों का उचित मूल्य मिलने लगे तो बिहार और यू पी के गाँवों से पलायन सदा के लिए रुक जाय. कोई बड़ी योजना परियोजना की जरूरत नहीं है.

तमाम सरकारी दावों के बीच किसानों की स्थिति बद से बदतर होते जा रही है. किसान खेती किसानी छोड़कर अन्य रास्ते की तलाश में हैं.किसान के बच्चे किसी भी हाल में खेती करने के लिए तैयार नहीं हैं. एक समय में कहा जाता था कि उत्तम खेती मध्यम बान, नीच चाकरी भीख निदान यानी खेती  को ऊँच दर्जा प्राप्त था.चाकरी यानी नॉकरी करना भीख माँगने के समान समझा जाता था.लेकिन आज उल्टा हो गया है. नॉकरी करना सर्वश्रेष्ठ हो गया है .खेती करना नीच काम समझा जाने लगा है. आखिर हो भी क्यों नहीं ? क्योंकि खेती किसानी करनेवाले लोगों का परिवार फटेहाली का जिंदगी जीने को मजबूर है. हाड़ तोड़ पूरा परिवार मिहनत करने के बाद भी बच्चों को बेहतर शिक्षा ,स्वास्थ्य ,बेटी को अच्छे घरों में शादी करने से महरूम है.परिवार का अगर कोई सदस्य किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित हो जाता है तो जमीन बेचने और गिरवी रखने के सिवा कोई उपाय नहीं बचता और सूद के चंगुल से निकलना मुश्किल हो जाता है.

किसान भूषण मेहता ने बताया कि मेरा बीस बिगहा जमीन है. खेती अपने से करते हैं. सालों भर पाँच परिवार के साथ साथ मजदूर भी लगा रहता है.अगर सच मायने में देखा जाय तो खेती में इतना लागत लग जाता है कि कुछ भी विशेष नहीं बच पाता. अगर बाढ़ सुखाड़ का मार नहीं झेलना पड़ा और मौसम साथ दिया तो साल में एक लाख रुपये मुश्किल से बच पाता है.साल में इतना पैसा तो पाँच परिवार मजदूरी करके कमा सकता है.बीज,खाद,डीजल का दाम रोजबरोज बढ़ते जा रहा है. गेंहूँ और धान की कीमत उस हिसाब से नहीं बढ़ पा रहा है. सरकारी खरीद का सिर्फ दावा किया जाता है. हम कभी भी कॉपरेटिव के माध्यम से धान नहीं बेंचते. इसलिए कि समय पर पैसे नहीं मिलते.अपना काम धाम छोड़कर ब्लॉक और बैंक का चक्कर लगाना हमारे बस की बात नहीं है. हम सस्ते दाम पर ही सही धान खरीदने वाले को खलिहान से ही धान गेंहूँ बेंच देते हैं. जब मेरे जैसे बीस बीघा की खेती करने वाले कि स्थिति बहुत अच्छी नहीं है तो एक और दो बीघा की खेती करने वाले किसानों की क्या स्थिति होगी.बीमारी और बेटी की शादी में किसानों को या तो खेत बीके या जमीन गिरवी रखे.यह तय है.किसान अपने मेधावी बच्चों को भी ऊँच और तकनीकी शिक्षा महँगी होने के कारण दिलवाने में असमर्थ है.

आज किसानों की स्थिति बदतर क्यों होते जा रही है. इसका मूल कारण है खेती में लागत मूल्य दिनों दिन तेज गति से बढ़ते जा रहा है.किसानों द्वारा उत्पादित फसलों और शब्जियों का उचित मूल्य नहीं मिल पाना है. विगत दस वर्षों में कृषि में लागत तीन गुना तक बढ़ गया है. लेकिन उपज की कीमतों में दोगुना भी बढ़ोतरी नहीं हुवी है.

ये भी पढ़ें- वायरसी मार के शिकार कुम्हार

सिर्फ किसानों के उपज का वास्तविक दाम मिल जाय तो किसानों को अलग से किसी प्रकार की कोई राहत की जरूरत नहीं है.

किसानों के नेता नागेश्वर यादव ने बताया कि 1971 में 10 ग्राम सोना का मूल्य 193 रुपये था.उस समय एक क्विटल गेहूं का दाम 105 रुपये था.10 ग्राम सोना खरीदने के लिए एक क्विंटल 83 किलो गेहूँ बेंचने की जरूरत थी.आज सोना का मूल्य 10 ग्राम का 50 हजार रुपये है. गेहूँ 2000 रुपये प्रति क्विंटल है.10 ग्राम सोना खरीदने के लिए आज 25 क्विंटल गेहूँ बेंचने पड़ेगा.इससे बाजार आधारित वस्तु का मूल्य और किसानों द्वारा उपजाए गए .अनाजों का मूल्य का सहज आकलन कर सकते हैं.

पहले खेती किसानी हल बैल,रेहट,लाठा कुंडी के माध्यम से होता था.डीजल की कोई जरूरत नहीं होती थी.आज के तारीख में खेत की जुताई कटाई करने के लिए ट्रैक्टर की जरूरत पड़ती है.सिंचाई करने के लिए डीजल इंजन की जरूरत है. डीजल का दाम लगातार बढ़ने से किसानों की स्थिति अत्यंत दैनीय हो गयी है.बीज,उर्वरक,कीटनाशक सभी की कीमत लगातार बढ़ते जा रही है.

किसानों का बैंक से लिये गए लोन को माफ करने की बात बार बार होती है. किसानों का सिर्फ लोन माफ करना इसका निदान नहीं है. सरकार माफ भी नहीं करना चाहती.क्योंकि देश पर अतिरिक्त भार पड़ने का राग अलापा जाता है. देश के उद्योगपतियों का लोन आराम से माफ कर दिया जाता है.बैंकों की खराब स्थिति किसानों के चलते नहीं बल्कि सरकार और पूंजीपतियों के गठजोड़ की वजह से हुवी है. बिजय माल्या 18000 करोड़,नीरव मोदी 11400 करोड़,भाई चौकसी 2000 करोड़,ललित मोदी कितना का चूना लगाया आमलोगों को पता तक नहीं.ये पूंजीपति सरकार की मिलीभगत से देश का बंटाढार कर दिया.

जो किसान पूरे देश का पेट भरता है. वह खुद पूरे परिवार अभावों में रहते हुवे आत्महत्या तक करने के लिए विवश है.

एक समय था जब 45 करोड़ जनता का पेट भरने के लिए भी किसान अन्न नहीं उपजा पाता था.हमें अमेरिका से गेहूँ का आयात करने पड़ता है. आज हरित क्रांति और वैज्ञानिकों की देन की वजह से 130 करोड़ लोगों को किसान अन्न उपलब्ध करा रहा है. फिर भी किसान कर्ज में दबा है और आत्महत्या तक करने के लिए विवश है.

ये भी पढ़ें- ससुराल में पूरे हुए रूपा के सपने

देश भर से इस तरह की खबरें आते रहती है. टमाटर,कद्दू,प्याज ,लहसुन ,आलू का उचित मूल्य नहीं मिलने की वजह से किसान सड़कों पर फेंकने के लिए विवश हो जाते हैं.देश का अर्थब्यवस्था तभी कायम रह पाएगा जब  किसानों के द्वारा उपजाये गये फसलों का उचित मूल्य मिलेगा.किसान सम्मान योजना जैसे लॉली पॉप से देश के किसानों का निदान नहीं होने वाला है.

Lockdown के चलते इन एक्ट्रेसेस ने डांस कर फैन्स को किया एंटरटेन, देखें Video

कोरोना के चलते अब Lockdown 3.0 खत्म हो चुका है और अब भारत में Lockdown 4.0 चालू हो चुका है इसी बीच सोशल मीडिया पर सिनेमा जगत से जुड़ी कई एक्ट्रेस का घरों में डांस करने का वीडियो वायरल हो रहा है.

बौलीवुड और टीवी एक्ट्रेस Lockdown के चलते अपने घरों में रहते हुए अलग अलग तरीकों से खुद को व्यस्त रखनें का प्रयास कर रहीं हैं जिससे वह अपनें आप को फिट रख पायें. इस लिस्ट में कई एक्ट्रेस का नाम शामिल हैं जो डांस के जरिये खुद को फिट रखनें का प्रयास कर रहीं हैं.

ये भी पढ़ें- ये American Pornstar रामगोपाल वर्मा की इस फिल्म से बौलीवुड में कर रही है डेब्यू, देखें Photos

नुसरत भरुचा (Nusrat Bharucha)

 

View this post on Instagram

 

Everybody has their coping mechanisms & mine is- Music ❤️ & if there is Music, I will Dance! Anytime, Anywhere.. Gets me going 😇

A post shared by nushrat (@nushratbharucha) on

इसमें जो पहला नाम है वह है नुसरत भरुचा (Nusrat Bharucha) का. उन्होंने अपने इन्स्टाग्राम एकाउंट पर एक वीडियो शेयर किया है जिसमें वह जमकर डांस करती नजर आ रहीं हैं. डांस वाले इस वीडियो पर उनके फैन्स के खूब रियक्शन मिल रहे है.

बीते दिनों नुसरत भरुचा (Nusrat Bharucha) नें सोशल मीडिया पर अपने कई बिकनी फोटोज और वीडियो शेयर कर सनसनी फैला दी थी. उनके इस बिकनी फोटोज और वीडियोज को लाखों बार देखा जा चुका है.

ये भी पढ़ें- एक बार फिर King Khan की बेटी सुहाना का सामने आया बोल्ड अवतार, ‘Mannat’ से शेयर की ऐसी Photos

नुसरत अब तक कई फिल्मों में नजर आ चुकी हैं. उन्होंने ‘जय संतोषी मां’ (Jai Santoshi Maa) के जरिये सिनेमा जगत में डेब्यू किया था. इसके बाद वह ‘कल किसने देखा’ (Kal Kisne Dekha), ‘लव सेक्स और धोखा’ (Love, Sex aur Dhokha), ‘प्यार का पंचनामा’ (Pyaar Ka Punchnama), ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ (Sonu Ke Titu Ki Sweety) जैसी फिल्मों में काम किया.

एली अवराम (Elli Avram)

 

View this post on Instagram

 

Balance is the Key. (Press IGTV)

A post shared by Elisabet Elli AvrRam (@elliavrram) on

स्वीडिश मूल की भारतीय बौलीवुड अभिनेत्री एली अवराम (Elli Avram) नें अपने इन्स्टाग्राम एकाउंट पर एक डांस वीडियो शेयर किया है जो कि जमकर वायरल हो रहा है. इस वीडियो में वह स्लो मोशन में डांस करती नजर आ रही हैं. उनके द्वारा किये गए डांस स्टेप्स और अदाओं को सोशल मीडिया पर जम कर तारीफ मिल रही है.

ये भी पढ़ें- Lockdown 3.0 में Richa Chadha नें बेली डांस कर बनाया फैन्स को दीवाना, देखें Video

एली एवराम (Elli Avram) नें फिल्म ‘मिकी वायरस’ (Mickey Virus) से बौलीवुड में डेब्यू किया था. एली रियलिटी शो बिग बौस सीजन 7 की प्रतिभागी भी रह चुकी हैं. वह एक्टर कपिल शर्मा (Kapil Sharma) के साथ “किस किसको प्यार करूं” (Kis Kisko Pyaar Karoon) में भी नजर आ चुकी हैं.

एरिका फर्नांडिस (Erica Jennifer Fernandes)

 

View this post on Instagram

 

🕺🏻 #tiktok #instagood #Instagram #dance

A post shared by ERICA JENNIFER FERNANDES (@iam_ejf) on

टीवी एक्ट्रेस एरिका फर्नांडिस (Erica Jennifer Fernandes) भी Lockdown के खूब मजा लेती नजर आ रहीं हैं. उन्होंने भी अपनें इन्स्टाग्राम एकाउंट पर डांस करते हुए का वीडियो शेयर किया है जिसमें वह टिक टौक  (Tik Tok) पर लचीली कमर से बेली डांस करती नजर आ रही हैं. एरिका सीरियल ‘कुछ रंग प्यार के ऐसे भी’ (Kuch Rang Pyaar Ke) में डा. सोनाक्षी बोस और कसौटी जिंदगी के (Kasautii Zindagi Kay) में प्रेरणा शर्मा रूप में यादगार किरदार के लिए जानी जाती हैं.

ये भी पढ़ें- Lockdown के बीच सलमान और जैकलीन का ‘Tere Bina’ सौंग हुआ रिलीज, देखें Video

 

View this post on Instagram

 

Naaaaaa😜 ————————————— #ElliAvrRam #yourstruly

A post shared by Elisabet Elli AvrRam (@elliavrram) on

वायरसी मार के शिकार कुम्हार

लेखक- डा. सत्यवान सौरभ

नोवल कोरोना वायरस  के चलते लागू किए गए लौकडाउन ने  मिट्‌टी बरतन बनाने वाले कारीगरों के सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है. इन कारीगरों ने मिट्टी के बरतन बना कर रखे लेकिन बिक्री न होने की वजह से इन के लिए खाने के लाले पड़ गए हैं. लौकडाउन के चलते न तो चाक (बरतन बनाने का उपकरण) चल रहा है और न ही दुकानें खुल रही हैं. घर व चाक पर बिक्री के लिए पड़े मिट्टी के बरतनों की इन्हें रखवाली अलग करनी पड़ रही है. देशभर में प्रजापति समाज के लोग मिट्टी के बरतन बनाने का काम करते हैं.

लौकडाउन ने इन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. इन के बरतनों की बिक्री नहीं हो रही है. महीनों की मेहनत घर के बाहर पड़ी है. इन हालात में परिवार का गुजारा करना मुश्किल हो गया है. गरमी के सीजन को देखते हुए बरतन बनाने वालों ने बड़ी संख्या में मटके बनाए. डिजाइनर टोंटी लगे मटकों के साथ छोटी मटकी और गुल्लक, गमले भी तैयार किए. दरअसल,  आज भी ऐसे लोग हैं जो मटके के पानी को प्राथमिकता देते हैं. मगर इस बार इन को घाटा हो गया. इन का परिवार कैसे गुजरबसर करेगा. कोई भी मटके खरीदने नहीं आ रहा है. धंधे से जुड़े लोगों ने ठेले पर रख कर मटके बेचने भी बंद कर दिए हैं.

ये भी पढ़ें- ससुराल में पूरे हुए रूपा के सपने

मिट्टी के बरतनों के जरिए अपनी आजीविका चलने वाले कुशल श्रमिकों के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल से देशभर के प्रजापति समाज के लोगों के लिए एक आस जगी है, जिस के अनुसार राज्य के हर प्रभाग में एक माइक्रो माटी कला कौमन फैसिलिटी सेंटर (सीएफसी) का गठन किया जाएगा.  सीएफसी की लागत 12.5 लाख रुपए होगी, जिस में सरकार का योगदान 10 लाख रुपए का होगा. शेष राशि समाज या संबंधित संस्था को वहन करनी होगी. भूमि, यदि संस्था या समाज के पास उपलब्ध नहीं है, तो ग्रामसभा द्वारा प्रदान की जाएगी. हर केंद्र में गैसचालित भट्टियां, पगमिल, बिजली के बरतनों की चक और पृथ्वी में मिट्टी को संसाधित करने के लिए अन्य उपकरण होंगे. श्रमिकों को एक छत के नीचे अपने उत्पादों को विकसित करने के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध होंगी. इन केंद्रों के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा.

खादी और ग्रामोद्योग विभाग का यह बहुत अच्छा प्रयास है. यदि उत्पाद गुणवत्ता के हैं और उन की कीमतें उचित हैं, तो बाजार में उन के लिए अच्छी मांग होगी. इस से व्यापार से जुड़े लोगों के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर बढ़ेंगे. इस के अलावा, तालाबों से मिट्टी उठाने से बाद की जलसंग्रहण क्षमता बढ़ जाएगी. इन उत्पादों को पौलिथीन का विकल्प बनने से पौलिथीन संदूषण को भी रोका जा सकेगा. कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए किए गए लौकडाउन से लगभग हर क्षेत्र में कामकाज बिलकुल ठप पड़ा है.

केंद्र सरकार छोटे, मझोले और कुटीर उद्योगों के लिए स्पेशल पैकेज की घोषणा कर के उन को जीवित रखने का प्रयास भले कर रही है. लेकिन, अस्पष्टता और सही दिशानिर्देश के अभाव में बहुत राहत मिलती नहीं दिख रही है. देश में बहुत से ऐसे वर्ग हैं जिन पुश्तैनी धंधा रहा है और कई जातियां ऐसी भी है जो विशेष तरह का काम कर के अपना जीवनयापन करती हैं, जैसे माली, लोहार, कु्म्हार, दूध बेचने वाले ग्वाला, दर्जी, बढ़ई, नाई, पत्तलदोने का काम कर के जीवनयापन करने वाले मुशहर जाति के लोग. ये ऐसे लोग हैं जिन का कामकाज लौकडाउन से सब से अधिक प्रभावित हुआ है. सरकार ने बड़े व मझोले कारोबारियों के लिए तो काफी कुछ दे दिया है, लेकिन उपर्युक्त लोगों के लिए सरकार की तरफ से कोई विशेष राहत का ऐलान नहीं किया गया है.

ये भी पढ़ें- नारी दुर्दशा का कारण धर्मशास्त्र और पाखंड

प्रधानमंत्री नरेंद्र ने मोदी देश को संबोधित करते हुए आत्मनिर्भर भारत बनाने पर जो दिया. उन्होंने देश को आगे बढ़ाने के लिए एमएसएमई को फौरीतौर पर राहत देने की घोषणा की. लेकिन, बजट का निर्धारण करना वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पर छोड़ दिया. साथ ही, उन्होंने लोकल के प्रति वोकल होने की बात जरूर की लेकिन लौकडाउन से प्रभावित होने वाले ऐसे लोगों के बारे में जिक्र नहीं किया जिन की रोजीरोटी खुद के कारोबार और हुनर पर निर्भर है. लौकडाउन से उन के ऊपर गहरा असर हुआ है. ऐसे लोगों के पास बचत भी बहुत अधिक नहीं होती है कि वे अपनी जमापूंजी खर्च कर के घरखर्च चला सकें. ऐसे लोग हर रोज कमाते हैं, जिस से उन के खाने का इंतजाम हो पाता है. अब लौकडाउन हो जाने से उन का कामकाज बिलकुल बंद हो गया है. ऐसे में सरकार को इन लोगों के लिए कुछ न कुछ अलग से उपाय करना चाहिए, ताकि उन का जीवन भी सुचारु रूप से चल सके.

आज जब भारत के गांव बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं तो गांवों के परंपरागत व्यवसायों को भी नया रूप दिए जाने की जरूरत है. गुजरात के राजकोट निवासी मनसुख भाई ने कुछ ऐसा ही नया करने का बीड़ा उठाया है. पेशे से कुम्हार मनसुख ने अपने हुनर और इनोवेटिव आइडिया का इस्तेमाल कर के न सिर्फ अच्छा बिजनेस स्थापित किया, बल्कि नेशनल अवार्ड भी हासिल किया. आज उन के नाम और काम की तारीफ भारत ही नहीं, दुनिया में हो रही है. उन के मिट्टी के बरतन विदेशों में भी बिक रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने उन्हें ‘ग्रामीण भारत का सच्चा वैज्ञानिक’ कहा था. एक अन्य पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उन्हें सम्मानित करते हुए कहा था कि ग्रामीण भारत के विकास के लिए उन के जैसे साहसी और नवप्रयोगी लोगों की जरूरत है. आज वे उद्यमियों के लिए एक मिसाल हैं.

कुछ लोग गांवों के परंपरागत व्यवसाय के खत्म होने की बात करते हैं, जो गलत है. अभी भी हम ग्रामीण व्यवसाय को जिंदा रख सकते हैं, बस, उस में थोड़ी सी तबदीली करने की जरूरत है. भारत के गांव अब नई तकनीक और नई सुविधाओं से लैस हो गए हैं. भारत के गांव बदल रहे हैं, इसलिए अपने कारोबार में थोड़ा सा बदलाव करने की जरूरत है. नई सोच और नए प्रयोग के जरिए ग्रामीण कारोबार को बरकरार रखा जा सकता है और उस के जरिए अपनी जीविका चलाई जा सकती है.

ये भी पढ़ें- भारतमाला परियोजना: बेतरतीब योजनाओं के शिकार किसान

जब हम गांव में कोई कारोबार शुरू करते हैं, उस से सिर्फ हमें ही फायदा नहीं मिलता, बल्कि हमारी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी होती है. हम आत्मनिर्भर बनते हैं और तमाम बेरोजगारों को रोजगार देते हैं. हर व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साथ ही दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करे. उन्हें काम करने के प्रति जागरूक करे. इसी से ग्रामीण भारत के सशक्तीकरण का सपना पूरा होगा.

एससीबीसी के निकम्मे नेता

अव्वल तो वे अपनी पैदाइश से ही सब से पीछे रहते हैं, लेकिन लौकडाउन के 70 दिनों में देशभर के बीसीएससी (बैकवर्ड व शैड्यूल कास्ट) 70 साल पीछे पहुंच गए हैं, क्योंकि सब से ज्यादा रोजगार इन्हीं से छिना है और इसी तबके के लोगों ने लौकडाउन के दौरान सब से ज्यादा कहर और मुसीबतें झेली हैं.

भूखेप्यासे और गरमी से बेहाल बीसीएससी वाले, जिन्हें सरकारी और सामाजिक तौर पर गरीब कह कर अपनी जिम्मेदारियों से केंद्र और राज्य सरकारों ने पल्ला झाड़ लिया, वे मवेशियों से भी बदतर हालत में सैकड़ोंहजारों मील पैदल भागते रहे, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगनी थी, सो नहीं रेंगी.

जूं रेंगती भी क्यों और कैसे, क्योंकि इन के नेता तो अपने आलीशान एयरकंडीशंड घरों में बैठे काजूकिशमिश चबाते टैलीविजन पर दूसरों के साथ इस भागादौड़ी का तमाशा देख रहे थे. अपनों की हालत देख कर इन का भी दिल नहीं पसीजा तो गैरों को कोसने की कोई वजह समझ नहीं आती, जिन्होंने वही सुलूक किया जो सदियों से करते आए हैं. फर्क इतनाभर रहा कि इस बार उन के पास कोरोना नाम की छूत की बीमारी का बहाना था.

ये भी पढ़ें- भूपेश सरकार का कोरोना काल

इक्कादुक्का छोड़ कर देश के किसी बीसीएससी नेता के मुंह से अपने तबके के लोगों के लिए हमदर्दी और हिमायत के दो बोल भी नहीं फूटे.

जिन्हें प्रवासी मजदूर के खिताब से नवाज दिया गया है, उन में से 90 फीसदी बीसीएससी और मुसलमान हैं, ऊंची जाति वालों की तादाद तकरीबन 10 फीसदी है. लेकिन चूंकि केंद्र सरकार और मीडिया दोनों ने इन्हें गरीब कहना शुरू कर दिया था, इसलिए किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया और न जाने दिया गया कि दरअसल भाग रहे ये लोग वे बीसीएससी हैं जिन्हें धार्मिक किताबों में शूद्र और अछूत करार दिया गया है. इन पर खुलेआम जुल्मोसितम ढाने की बातें धर्म की किताबों में बारबार कही गई हैं और कई जगह तो इस तरह की गई हैं मानो इन पर जुल्म न करना दुनिया का सब से बड़ा पाप है.

लौकडाउन में जो जुल्म इन पर किए गए, वे रोजमर्रा के जुल्मों से कम नहीं थे, लेकिन चालाकी यह रही कि कोई खुल कर यह आरोप सीधे ऊंची जाति वालों पर नहीं लगा सका, क्योंकि उन्होंने इस बार न तो किसी बीसीएससी हिंदू को कुएं से पानी भरने से रोका था और न किसी दलित दूल्हे को घोड़ी पर सवार होने पर कूटा था, न ही किसी को मंदिर में दाखिल होने और धर्मकर्म के नाम पर पीटा था.

मुंह मोड़ा मायावती ने

सरकार ने किया कम ढिंढोरा ज्यादा पीटा, पर खुद बीसीएससी के नेता क्या कर रहे थे और बीसीएससी के साथ जो ज्यादातियां हुईं, उन पर खामोश क्यों रहे? इस सवाल का जवाब साफ है कि इन्हें वोट लेने और कुरसी हासिल करने के लिए ही अपने लोगों की सुध आती है. इस के बाद बीसीएससी को उन के हाल पर छोड़ दिया जाता है.

इस की सब से बड़ी मिसाल दलितों की सब से बड़ी नेता मानी जाने वाली बसपा प्रमुख मायावती हैं, जिन की भाजपा से बढ़ती नजदीकियां किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई हैं.

देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से सब से बड़ी तादाद में बीसीएससी तबका पेट पालने के लिए दूसरे राज्यों का रुख करता है, जो कभी बसपा का वोट बैंक हुआ करता था, लेकिन बाद में उस से धीरेधीरे कट कर वह दूसरी पार्टियों को वोट करने लगा. इन में भी भाजपा का नाम सब से ऊपर आता है.

यहां गौरतलब है कि बसपा के संस्थापक कांशीराम ने सवर्णों और उन के जुल्मों के खिलाफ ‘तिलक, तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार’ का नारा दिया था. इसी नारे के चलते बीसीएससी का भरोसा बसपा पर कायम हुआ था और वे नीले झंडे के तले इकट्ठा होने लगे थे.

मायावती इन को एकजुट नहीं रख पाईं. अपने मुख्यमंत्री रहते उन्होंने बीसीएससी के रोजगार या भले के लिए कुछ नहीं किया, इसलिए उत्तर प्रदेश से ये लोग रोजीरोटी की तलाश में बदस्तूर बाहरी राज्यों में जाते रहे.

इस ओर ऐसी कई बातों का फर्क यह पड़ा कि बसपा उत्तर प्रदेश में कमजोर पड़ती गई और जितनी कमजोर पड़ी उतनी ही भाजपा मजबूत होती गई. एक वक्त तो ऐसा भी आया कि मायावती ने भगवा गैंग के सामने घुटने टेक दिए और आज भी हालत यही है.

इस का एहसास जून के दूसरे हफ्ते में भी हुआ, जब जौनपुर और आजमगढ़ में बीसीएससी के लोगों पर हुए जोरजुल्म पर उन्होंने यह कहते हुए अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मान ली कि सरकार फौरन कुसूरवारों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करे.

योगी सरकार ने कार्यवाही कर दी तो 12 जून को मायावती ने योगी और उन की सरकार की फुरती की भी तारीफ कर डाली. ऐसा लगा मानो आदित्यनाथ ने कोई एहसान पीडि़तों पर कर दिया हो और वे मायावती के कहने का ही इंतजार कर रहे थे.

लगता ऐसा भी है कि यह सब सियासी फिक्सिंग है, जिस में आदित्यनाथ और मायावती एकदूसरे की इमेज चमका रहे हैं. दरअसल, इस फिक्सिंग की तह में मायावती की अकूत दौलत है, जो उन्होंने बीसीएससी वोटों का सौदा कर के बनाई है. 18 जुलाई, 2019 को मायावती के मायावी चेहरे का एक घिनौना सच उस वक्त उजागर हुआ था, जब इनकम टैक्स विभाग ने उन के भाई आनंद कुमार का एक प्लाट जब्त किया था, जिस की कीमत 400 करोड़ थी. जब्ती की कार्यवाही बेनामी संपत्ति लेनदेन निषेध अधिनियम 1988 की धारा 24 (3) के तहत की गई थी, जिस में कुसूरवार को 7 साल की कैद की सजा व जायदाद की बाजारी कीमत के हिसाब से 25 फीसदी जुर्माने का इंतजाम है.

फिर जो सच सामने आया उस के मुताबिक नोएडा के इस बेशकीमती प्लाट के अलावा आनंद कुमार, उन की पत्नी यानी मायावती की भाभी विचित्रलेखा के पास तकरीबन 1,316 करोड़ रुपए की जायदाद है.

आनंद कुमार कभी नोएडा अथौरिटी में क्लर्क हुआ करता था, फिर वह रातोंरात खरबपति कैसे बन गया? इस सवाल का जवाब भी आईने की तरह साफ है कि 2007 से ले कर 2012 तक मायावती के मुख्यमंत्री रहते इन भाईबहन ने जम कर घोटाले और भ्रष्टाचार कर तबीयत से चांदी काटी.

आनंद कुमार ने अपनी पत्नी विचित्रलेखा के नाम से तकरीबन 49 फर्जी कंपनियां बना रखी थीं, जिन के जरीए वह चारसौबीसी कर जमीनें खरीदता था. नोएडा वाले प्लाट को, जो सैक्टर-94 में है, साल 2011 में महज 6 करोड़ रुपए में उस ने खरीदा था. इस के बाद एक बोगस कंपनी की तरफ से इस का 400 करोड़ रुपए का भुगतान शेयर प्रीमियम की बिना पर किया गया था.

जब इनकम टैक्स विभाग ने आनंद कुमार से इस बाबत पूछा तो उस ने कोई साफ जवाब नहीं दिया था कि यह पैसा आखिर किस का है, इसलिए इसे बेनामी जायदाद मान लिया गया था.

इस के पहले आनंद कुमार तब भी सुर्खियों में आया था, जब नोटबंदी के तुरंत बाद उस ने अपने बैंक खाते में नकद 1 करोड़, 43 लाख रुपए जमा किए थे.

यह और ऐसी कई जायदादें मायावती ने फर्जीवाड़ा करते हुए बनाईं लेकिन अब इन मामलों के कहीं अतेपते नहीं हैं, तो इस की वजह साफ है कि मायावती ने जेल जाने से बचने के लिए मोदीशाह और योगी की तिकड़ी से कांशीराम की मुहिम और बीसीएससी वोटों का सौदा कर डाला है.

विधानसभा और लोकसभा चुनाव के टिकटों की नीलामी के आरोप भी मायावती पर लगते रहे हैं. इस का खुलासा 1 अगस्त, 2019 को खुलेआम एक प्रोग्राम में राजस्थान के बसपा विधायक राजेंद्र गुढ़ा ने यह कहते हुए किया था कि बसपा में टिकट उस को ही दिया जाता है, जो ज्यादा पैसे देता है और अगर कोई उस से बड़ी रकम देने को तैयार हो जाए तो पहले वाले को दरकिनार करते हुए दूसरे को उम्मीदवार बना दिया जाता है.

टिकट बिक्री से मायावती ने कितनी माया एससी वोटरों के समर्थन को बेच कर बनाई, इस का और दूसरे घपलेघोटालों का जिक्र अब कोई नहीं करता क्योंकि फाइलें दबाए रखने के एवज में वे बिक चुकी हैं. कहा तो यह भी जाता है कि जितनी दौलत अकेली मायावती और उन के सगे वालों के पास है, उस का 10वां हिस्सा भी उत्तर प्रदेश क्या हिंदीभाषी राज्यों के तकरीबन

10 करोड़ एससी तबके की कुल जमीनजायदाद मिलाने के बाद भी नहीं है. दौलत की इस हवस का खमियाजा बेचारा बीसीएससी भुगत रहा है, जिस की लौकडाउन के दौरान बदहवासी सभी ने देखी.

ये भी पढ़ें- भूपेश-राहुल और सर्वे का इंद्रजाल 

लौकडाउन का समय मायावती के लिए अपनी खोई साख और समर्थन दोबारा हासिल करने का अच्छा मौका था, लेकिन वे पूरे वक्त भाजपा के सुर में सुर मिलाती नजर आईं. जब कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मजदूरों के लिए एक हजार बसों का इंतजाम किया, तब भी मायावती मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ खड़ी थीं. इस पर झल्लाई कांग्रेस ने उन्हें भाजपा का प्रवक्ता तक कह दिया था.

सियासी पंडितों की यह राय माने रखती है कि सियासी वजूद बनाए और बचाए रखने के लिए मायावती अपना बचाखुचा वोट बैंक नहीं खोना चाहती हैं और उन्होंने एससी तबके की कई जातियों की जानबूझ कर इतनी अनदेखी कर दी कि वे भाजपा से जा मिले.

माहिरों की राय में यह भाजपा को सत्ता में बनाए रखने और अपनी दौलत बचाए रखने का एक सौदा है, जो बसपा के दरवाजे ब्राह्मणों के लिए खुलने के बाद से परवान चढ़ा.

अफसोस तो उस वक्त हुआ, जब मायावती लौकडाउन के वक्त में बीसीएससी के हक में न कुछ बोलीं और न ही कर पाईं. 14 अप्रैल को ‘अंबेडकर जयंती’ के दिन ही उन्होंने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों पर मजदूरों की अनदेखी का इलजाम लगाया और एक बात, जो सभी जानते हैं, कह दी कि आज भी जातिवादी सोच नहीं बदली है.

इस दिन भी उन का मकसद बीसीएससी के हक में दिखावे का ज्यादा था, नहीं तो वे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को कोसती नजर आईं कि उन्होंने एससी तबके को लालच दे कर उन के वोट तो ले लिए, लेकिन लौकडाउन में उन्हें भागने से नहीं रोका. यानी उन्हें तकलीफ एससी तबके द्वारा बसपा को दिल्ली में भी नकारे जाने की थी.

उन्होंने यह नहीं सोचा कि खुद इस तबके के लिए ऐसा क्या कारनामा कर दिखाया है, जिस के चलते वे लोग उन की आरती उतारते रहें और पैदल चलने वाले कांवडि़यों पर हैलीकौप्टर से फूलों की बरसात करवाने वाले योगी आदित्यनाथ ने दलित मजदूरों को उत्तर प्रदेश लाने के लिए कहां के हवाईजहाज उड़वा दिए थे, जो वे उन का बचाव करती रहीं, जबकि इस बाबत और जौनपुर व आजमगढ़ के मामलों पर तो उन्हें सब से ज्यादा हमलावर उन्हीं पर होना चाहिए था.

साफ दिख रहा है कि मायावती अब कहने भर की बीसीएससी नेता रह गई हैं, जिन्होंने लौकडाउन में उन के लिए न तो खुद कुछ किया और जो नेता थोड़ाबहुत कर रहे थे, उन्हें भी नहीं करने दिया.

गलतियां अखिलेश की

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव लौकडाउन के दूसरे दिन से ही भाजपा पर हमलावर रहे कि सरकार मजदूरों के लिए कुछ नहीं कर रही है, बेरोजगार नौजवान खुदकुशी कर रहे हैं, सरकार कोरोना पीडि़तों को 10-10 लाख रुपए दे और उत्तर प्रदेश योगी राज में लगातार बदहाल हो रहा है वगैरह.

अखिलेश यादव ने कुछ ऐसे मामलों का भी जिक्र किया, जिन में मजदूरों को अपने घर की औरतों के गहने तक बेचने पड़े थे. उन की सब से अहम घोषणा यह थी कि उत्तर प्रदेश में किसी भी मजदूर की मौत पर सपा एक लाख रुपए का मुआवजा देगी. 19 मई को की गई इस घोषणा के बाद 15 जून तक ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया था, जिस में सपा ने कोई मुआवजा किसी मजदूर को दिया हो. सपा कार्यकर्ताओं पर भी अपने मुखिया की इस अपील का कोई असर नहीं पड़ा कि वे गरीब मजदूरों की मदद करें.

विदेश में पढ़ेलिखे अखिलेश यादव को अपने पिता मुलायम सिंह की तरह जमीनी राजनीति का कोई खास तजरबा नहीं है कि जो मजदूर बाहर पेट पालने जाते हैं, उन में से तकरीबन 30 फीसदी उन पिछड़ी जातियों के होते हैं, जिन के दम पर यादव कुनबे की सियासत परवान चढ़ी थी.

अपनी जवानी के दिनों में मुलायम सिंह यादव बसपा संस्थापक कांशीराम की तरह साइकिल से गांवगांव घूम कर बीसीएससी वालों की सुध लेते हुए उन के दुखदर्द साझा करते थे, इसलिए उन्हें दोनों तबकों का सपोर्ट मिलता रहा था. लेकिन अखिलेश यादव अब सिर्फ पैसे वाले पिछड़ों की राजनीति कर मायावती की तरह ही भाजपा को फायदा पहुंचा रहे हैं. उन की रोज की बयानबाजी कोई रंग नहीं खिलाने वाली, क्योंकि कभी मजदूरों के तलवों के छालों पर मरहम लगाने या उन के कंधे पर हाथ रखने के लिए वे खुद नहीं गए.

सुस्ताते रहे आजाद

चंद्रशेखर आजाद रावण एससी राजनीति में तेजी से उभरता नाम है, जिस से इस समाज को काफी उम्मीदें हैं. इस में कोई शक नहीं है कि नौजवान चंद्रशेखर मायावती के लिए बड़ा सिरदर्द और चुनौती बन चुके हैं, इसलिए कांग्रेस उन पर डोरे भी डाल रही?है, लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि ये उन गलतियों को नहीं दोहरा रहे हैं, जिन के चलते मायावती को एससी तबके ने दिलोदिमाग से उखाड़ फेंका है और एससी ने उन्हें हाथोंहाथ लेना शुरू कर दिया है. इस में भी कोई शक नहीं है कि चंद्रशेखर की ट्रेन अभी छूटी नहीं है, लेकिन लौकडाउन में एससी मजदूर जब कराह रहे थे, तब वे घर में बैठे सुस्ता रहे थे.

अपनी अलग आजाद समाज पार्टी बना चुके भीम आर्मी के इस मुखिया ने लौकडाउन के दिनों में दलितों के लिए कुछ करना तो दूर की बात है, उन से हमदर्दी जताते दो बोल भी नहीं बोले, जिस से एससी मजदूरों को यह लगता कि कोई तो उन के साथ है. कहने को तो भीम आर्मी एससी नौजवानों की फौज?है, जिस ने लौकडाउन में किसी भूखे को रोटी या प्यासे को पानी नहीं दिया, उलटे उस के रंगरूट 13 मई को बिहार के किशनगंज में अपने ही समुदाय के उन लोगों को मारते नजर आए, जो पूजापाठ करने जा रहे थे.

बिलाशक पूजापाठ कोरोना से भी ज्यादा घातक छूत की बीमारी है, जिस की गिरफ्त में एससी तबके को आने से बचना चाहिए, लेकिन मंदिरों में तोड़फोड़ करने से और शिवलिंग के बजाय भीमराव अंबेडकर के पूजनपाठ से एससी तबके का कोई भला होगा या उन में जागरूकता आएगी, इस से इत्तिफाक रखने की कोई वजह नहीं है.

होना तो यह चाहिए था कि एससी तबके की परेशानी के दिनों में चंद्रशेखर और उन की आर्मी दलितों की मदद करती नजर आती. नेतागीरी चमकाने के लिए जरूरी यह भी है कि चंद्रशेखर परेशान हाल एससी के भले के लिए कुछ करते बजाय किसी दलित सैनिक को शहीद का दर्जा दिलाने के लिए बवंडर मचाते. इस से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला.

ये भी गरजे, पर…

भारतीय रिपब्लिकन पार्टी बहुजन महासंघ के अध्यक्ष प्रकाश अंबेडकर को पूरे फख्र से खुद को संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर का पोता कहलाने का हक है. पेशे से वकील प्रकाश अंबेडकर लौकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर खूब गरजे कि सरकार की गलती से हजारों लोगों की जानें गई हैं. लिहाजा, नरेंद्र मोदी पर धारा 302 के तहत हत्या का मामला दर्ज होना चािहए.

उन्होंने सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि उस ने विदेशों से अमीरों के साथसाथ कोरोना आने देने का गुनाह किया है. बकौल प्रकाश अंबेडकर, अगर मजदूरों को वक्त रहते घर भेज दिया जाता तो वे भुखमरी से बच जाते.

देखा जाए तो उन्होंने गलत कुछ नहीं कहा, लेकिन हकीकत में उन्होंने या उन की पार्टी ने भी मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया, दूसरे वे अब मार्क्सवादी किस्म की राजनीति करते हुए मजदूरों को दलित कहने से ही परहेज करने लगे हैं मानो उन के साथ धार्मिक भेदभाव और जाति की बिना पर जुल्म खत्म हो गए हों, जबकि हकीकत उन के ही 9 जून को दिए एक बयान ने उजागर कर दी.

इस दिन प्रकाश अंबेडकर ने नागपुर की तहसील नरखेड़ के गांव पिम्पलधारा के एक एससी कार्यकर्ता अरविंद बसोड़ की संदिग्ध मौत की सीबीआई जांच की मांग की. यह मांग भी उन्होंने ट्वीट के जरीए की, वे खुद पिम्पलधारा की हकीकत जानने और विरोध दर्ज कराने नागपुर तक नहीं आए. बीसीएससी के लोगों का इस डिजिटल हमदर्दी से कोई भला होगा, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं.

अस्त होते उदित राज

आजकल कांग्रेसी प्रवक्ता बन गए उदित राज एससी तबके के पढ़ेलिखे और सब से बुद्धिमान नेता माने जाते हैं, जिन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने खेमे में मिला लिया था. 2019 में उन्हें भाजपा ने टिकट नहीं दिया तो वे कांग्रेस में शामिल हो गए.

भाजपा छोड़ते वक्त उन्होंने उसे एससी विरोधी करार देते हुए पानी पीपी कर कोसा था, लेकिन अप्रैलमई के महीने में जब घर भागते एससी भूखप्यास से बेहाल थे, तब उदित राज भी खामोश थे और जो वे बोल रहे थे उस के कोई माने नहीं थे. मसलन यह कि अयोध्या, जहां आलीशान राम मंदिर बन रहा है, वह बौद्ध स्थल था. मायावती की तरह यह जरूर उन्होंने कहा कि लौकडाउन का सब से बुरा असर एससी पर पड़ रहा है और घर लौटने के बाद मजदूर जमींदारों और साहूकारों की गुलामी ढोने के लिए मजबूर हो जाएंगे.

अब तक एससी कोई शाही जिंदगी नहीं जी रहे थे और न ही उदित राज ने उन्हें गुलामी के इस दलदल से बाहर निकालने के लिए कुछ किया, उलटे जब भी मौका मिला अपने एससी होने का फायदा कुरसी के लिए उठाया.

उदित राज जैसे नेताओं को सोचना यह चाहिए कि ब्राह्मणों ने बुद्ध को दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया था और जब वश नहीं चला तो उन्हें अवतार कह कर पूजना शुरू कर दिया था. उस के बाद से पूरा एससी समाज ठोकरें खा रहा है और उस के नेता बौद्ध मंदिरों की बात कर रहे हैं, जिस के अपने अलग पंडेपुजारी होने लगे हैं.

ये भी पढ़ें- धरातल पर नदारद हैं सरकारी ऐलान

ऐसी तमाम हकीकत से मुंह मोड़े रहने वाले उदित राज की बीसीएससी के लोगों के लिए खुद कुछ न कर पाने की खीज 12 जून को खुल कर सामने आई, जब उन्होंने फिल्म कलाकार सोनू सूद के किए गए काम पर सवाल उठाते हुए सीबीआई जांच की मांग कर डाली. बकौल उदित राज, सोनू सूद के पीछे कोई और है.

सोनू सूद ने तो सवर्ण होते हुए भी मजदूरों के लिए काफीकुछ कर डाला, लेकिन क्या उदित राज एक मजदूर को भी घर पहुंचा सके? इस सवाल का जवाब वे शायद ही दे पाएं, फिर किस मुंह से वे किसी और के किए को चैलेंज कर रहे हैं?

रामदास आठवले बने भोंपू

महाराष्ट्र के दलित नेता और रिपब्लकिन पार्टी के मुखिया रामदास आठवले इन दिनों भाजपा के भोंपू बने हुए हैं, क्योंकि वह उन्हें केंद्र में मंत्री बनाए हुए है. बजाय यह मानने और कहने के कि न केवल लौकडाउन, बल्कि उस से पहले से भी एससी बदहाल रहे हैं, उन्होंने सरकार की तारीफों में कसीदे गढ़ते हुए झूठ बोलने के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पछाड़ दिया.

बकौल रामदास आठवले, बीसीएससी के लिए मोदी सरकार ने बहुत काम किए हैं. बात खोखली न लगे इसलिए उन्होंने मुद्रा योजना, जनधन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना और उज्ज्वला योजनाओं के नाम गिना दिए.

अगर गरीबों को इन योजनाओं से कुछ मिला होता या मिल रहा होता तो वे रोजीरोटी के जुगाड़ के लिए इधरउधर भागते ही क्यों? इस सवाल का जवाब रामदास आठवले तो क्या एससी तबके का रहनुमा बना कोई नेता नहीं दे सकता.

भोंपू नंबर 2

रामदास आठवले के बाद लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान दूसरे कद्दावर एससी नेता हैं, जिन्हें भाजपा अपनी गोद में बैठाए हुए है. लौकडाउन के दौरान वे भी घर में पड़ेपड़े बहैसियत खाद्य मंत्री बयानबाजी करते रहे कि 8 करोड़ मजदूरों को 2 महीने तक मुफ्त राशन देने में कोई परेशानी नहीं आएगी.

जाहिर है, अप्रैल और मई के महीने में प्रवासी मजदूरों की भूख रामविलास पासवान को भी नजर नहीं आई, इस के पहले कभी आई थी ऐसा कहने की भी कोई वजह नहीं है. निजी तौर पर उन्होंने या उन की पार्टी ने एससी के लिए कुछ नहीं किया, यह जरूर हर किसी को नजर आया.

जिन एससी वोटों की सीढ़ी चढ़ कर रामविलास पासवान सत्ता की छत तक बेटे चिराग पासवान के साथ पहुंचे हैं, उन वोटों की सौदेबाजी उन्होंने बिहार चुनाव सिर पर देख कर फिर शुरू कर दी है. अफसोस वाली बात यह है कि अपनी तरफ से एक दाना भी उन्होंने किसी एससी को नहीं दिया.

भाजपा को मायावती की तरह मजबूती देने वाले रामविलास पासवान 12 जून को आरक्षण के एक मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर भी एक बेतुकी बात यह कह बैठे कि आरक्षण को ले कर अब सभी बीसीएससी दलों को साथ आ जाना चाहिए.

गौरतलब है कि अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को मौलिक अधिकार मानने से इनकार कर दिया है, जिस से आरक्षित तबकों के मन में बैठा यह शक यकीन में बदलता जा रहा है कि भाजपा आरक्षण को खत्म करना चाह रही है.

रामविलास पासवान को कहना तो यह चाहिए था कि सभी बीसीएससी वाले एकजुट हो जाएं और सोचना यह चाहिए था कि अगर बीसीएससी की हिमायती पार्टियां एक होतीं तो इतनी सारी पार्टियां होती ही क्यों?

नहीं दिखे कन्हैया कुमार

पिछड़े तबके के हमदर्द माने जाने वाले नेता कन्हैया कुमार को बेहतर मालूम होगा कि प्रवासी मजदूरों में खासी तादाद छोटी जाति वाले पिछड़ों की भी रहती है. अतिपिछड़ों और एससी की हालत और हैसियत में कोई खास फर्क नहीं होता है. लौकडाउन में जब इस तबके के लोग भी भाग रहे थे, तब कन्हैया कुमार मीडिया वालों को इंटरव्यू देते हुए जबान बघार रहे थे कि जो हो रहा है, गलत है. सोशल मीडिया के जरीए उन्होंने मजदूरों की बदहाली पर चिंता जताई, लेकिन खुद मैदान में जा कर कुछ नहीं किया.

क्यों नहीं किया? इस सवाल का जवाब कतई हैरान नहीं करता, बल्कि एक हकीकत बयां करता है कि बीसीएससी तबका क्यों सदियों से लौकडाउन सरीखी जिंदगी जी रहा है और उस के नेता दौलत और शोहरत मिलते ही अपने ही लोगों के साथ ऊंची जाति वालों जैसा बरताव करने लगते हैं.

इन की हरमुमकिन कोशिश यह रहती है कि बीसीएससी तबका अगर वाकई जागरूक और गैरतमंद हो गया तो इन को अपनी दुकानों के शटर गिराने पड़ जाएंगे, इसलिए बातें बढ़चढ़ कर करो, लेकिन हकीकत में कुछ मत करो, क्योंकि धर्म और उस के ठेकेदारों ने यही इंतजाम कर रखे हैं.

यहां बताए बड़े नेता ही नहीं, बल्कि और भी छोटेबड़े नेता हैं, जो चाहते तो अपनों की मदद कर सकते थे, खासतौर से वे जिन के हाथ में सत्ता थी. इन में एक अहम नाम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का है.

लेकिन वे 84 दिनों तक अपने ही घर में बंद रहते हुए चुनावी जोड़तोड़ और तैयारियों में जुटे रहे. जिन तबकों के वोटों से बिहार में सरकार बनती है, उन के लिए उन्होंने घर से बाहर पैर रखना भी मुनासिब नहीं समझा.

इस पर जब राजद नेता तेजस्वी यादव ने तंज कसा तो जवाब में उन्होंने सफाई दी कि लौकडाउन में सभी को घर रहने की हिदायत थी. यह जवाब उन लाखों मजदूरों के भागने पर उन्हें जाने क्यों नहीं सूझा.

लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष और अपने जमाने के धाकड़ नेता रहे जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, भाजपा सांसद संजय पासवान सहित छेदी पासवान और भोला पासवान ने भी अपने तबके के लोगों की कोई मदद नहीं की.

यही हाल कांग्रेसी खेमे के नामी एससी नेताओं मुकुल वासनिक, पीएल पुनिया, कुमारी शैलजा, मल्लिकार्जुन खडगे और भालचंद्र मुंगेकर का रहा.

भाजपा के दिग्गज एससी नेता थावर चंद्र गहलोत, नरेंद्र जाधव, अर्जनराम मेघवाल और जितेंद्र सोनकर जैसे दर्जनों नेता खुद इतनी हैसियत और कूवत रखते हैं कि अगर एससी के लिए कुछ ठान लेते तो फिल्म हीरो सोनू सूद के हिस्से की वाहवाही लूट सकते थे, लेकिन इन में न तो जज्बा था और न ही जज्बात थे, इसलिए ये इतमीनान से गरीबों के भागते कारवां का गुबार देखते रहे.

तेजी से नाम कमाने वाले पिछड़े तबके के युवा नेता जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल भी मुंह चलाते नजर आए. इन्होंने भी अपने पैरों को तकलीफ  नहीं दी.

यह कहता है धर्म

लौकडाउन के दौरान बीसीएससी की जो बेबसी, बदहाली और उन के ही नेताओं की बेरुखी उजागर हुई, उस का कनैक्शन धार्मिक किताबों में लिखी गई बातों से भी?है जिन के हिसाब से समाज आज भी चलता है.

इन में से कुछेक पर नजर डालें तो बहुत सी बातें साफ हो जाती हैं. ‘मनुस्मृति’ वह धार्मिक किताब है, जिस के मुताबिक हिंदू समाज जीता है और जिस के चलते भगवा गैंग पर यह इलजाम लगता रहता है कि वह मनुवाद थोपना चाहती है और इस के लिए संविधान मिटाने पर भी आमादा है.

ये भी पढ़ें- गुरुजी का नया बखेड़ा

इस में लिखी इन कुछ बातों पर नजर डालें तो तसवीर कुछ यों बनती है :

विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।

शुश्रुषैव तु शुद्रस्य धर्मों नैश्रेयस: पर:।।  (अध्याय 9, श्लोक 333)

यानी शूद्र का धर्म ही वेद के जानने वाले विद्वान, यशस्वी एवं गृहस्थ ब्राह्मणों की सेवा करना है.

शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्योधनसञ्चय:।

शूद्रो हि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव बाधते।। (अध्याय 10, श्लोक 126)

यानी समर्थ होने पर भी शूद्र को धन संचय में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि धनवान हो जाने पर शूद्र ब्राह्मण को कष्ट पहुंचाने लगता है, जिस से उस का और अध:पतन होता है.

उच्छिष्टमन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च।

पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदा:।। (अध्याय 10, श्लोक 122)

यानी शूद्र सेवक को खानेपीने से बचा अन्न, पुराने वस्त्र, बिछाने के  लिए धान का पुआल और पुराने बरतन देने चाहिए.

विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीर्त्यते।

यदतोऽन्यद्धि कुरुते तद्भवत्यस्य निष्फलम्।। (अध्याय 10, श्लोक 120)

यानी ब्राह्मणों की सेवा करना शूद्र के सभी कर्मानुष्ठानों से अतिविशिष्ट कार्य है. इस के अतिरिक्त शूद्र जोकुछ भी करता है, वह सब निष्फल होता है.

ऐसी कई हिदायतों से धार्मिक किताबें भरी पड़ी हैं, जिन में ऊपर लिखी बातों का तरहतरह से दोहराव भर है कि शूद्र ऊंची जाति वालों खासतौर से ब्राह्मणों की सेवा करने के लिए ही ब्रह्मा के पैर से पैदा हुआ है. उसे पैसा इकट्ठा करने का हक नहीं है. उसे सजधज कर रहने यानी साफसुथरे रहने का भी हक नहीं है और न ही खुश होने का हक है. हिदायतें तो ये भी हैं कि जो शूद्र इन बातों को मानने से इनकार करे, वह सजा का हकदार होता है.

अपनी बदहाली दूर न कर पाने वाले बीसीएससी तबके को यह लगने लगा है कि भगवान का पूजापाठ करो, इस से सारे पाप धुल जाएंगे तो उन्होंने अपने मंदिर बना कर धर्मकर्म करना शुरू कर दिया. काली, भैरों और शनि के छोटे मंदिर दलित बस्तियों में इफरात से बन गए हैं लेकिन दलितों की हालत ज्यों की त्यों है, उलटे उन्हें भी मंदिर में पूजापाठ करने और दानदक्षिणा की लत लग गई है, जिस से वे और गरीब हो रहे हैं.

सवर्णों की मोहताजी

ज्यादतियों और भेदभाव वाली इन्हीं धार्मिक किताबों का विरोध करते कुछ पढ़ेलिखे दलित अपने तबके के नेता तो बन जाते हैं, लेकिन जब उन्हें दौलत और शोहरत मिलने लगती हैं, तो वे उन्हें बनाए रखने के लिए कहने भर को विरोध करते हैं.

ऊंची जाति वाले भी इन्हें गले लगाने लगते हैं, जिस से बड़ी तादाद में बीसीएससी वाले धर्म की हकीकत न समझने लगें. इस से उन्हें लगता है कि वे वाकई छोटी जाति में पैदा होने की सजा भुगत रहे हैं, क्योंकि वे पैदाइशी पापी हैं और जब तक ये पाप धुल नहीं जाएंगे, तब तक उन की हालत नहीं सुधर सकती.

इतना सोचते ही वे अपनी बदहाली को किस्मत मानते हुए तरक्की के लिए हाथपैर मारना बंद कर देते हैं. यही ऊंची जाति वाले चाहते हैं कि बीसीएससी का कभी अपनेआप पर भरोसा न बढ़े, नहीं तो वे गुलामी ढोने से मना करने लगेंगे, इसीलिए उन्हें तरहतरह से बारबार यह एहसास कराया जाता है कि तुम तो दलित हो, तुम्हारे बस का कुछ नहीं. और जब इस साजिश में गाहेबगाहे बीसीएससी नेता भी शामिल हो जाते हैं, तो उन का काम और भी आसान हो जाता है.

गांवदेहात में ऊंची जाति वाले दबंगों के कहर से तो इन्हें शहर जा कर छुटकारा मिल जाता है, लेकिन वे यह नहीं समझ पाते हैं कि जिस की नौकरी वे कर रहे हैं, वह दरअसल में कोई ऊंची जाति वाला ही है. फर्क इतना भर आया है कि खेतों की जगह कारखानों और फैक्टरियों ने ले ली है और जो इन का मालिक है, उस ने धोतीकुरता और जनेऊ की जगह सूटबूट और टाई जैसे शहरी कपड़े पहन लिए हैं.

लौकडाउन में यह बात गौर करने लायक थी कि भाग रहे बीसीएससी को जो थोड़ाबहुत खाना और दूसरी इमदाद मिली, वह सवर्णों ने ही दी थी. इन में से मुमकिन है कि कुछ की मंशा पाकसाफ रही हो, पर हकीकत में इस से मैसेज यही गया कि यह तबका अभी इतना ताकतवर नहीं हो पाया है कि अपने ही तबके के लोगों की मुसीबत के वक्त में मदद कर सके.

दलित नेताओं की पोल तो लौकडाउन में खुली ही, लेकिन खुद बीसीएससी की बेचारगी भी किसी से छिपी नहीं रह सकी.

गहरी पैठ

देशभर से करोड़ों मजदूर जो दूसरे शहरों में काम कर रहे थे कोरोना की वजह से पैदल, बसों, ट्रकों, ट्रैक्टरों, साइकिलों, ट्रेनों में सैकड़ों से हजारों किलोमीटर चल कर अपने घर पहुंचे हैं. इन में ज्यादातर बीसीएससी हैं जो इस समाज में धर्म की वजह से हमेशा दुत्कारेफटकारे जाते रहे हैं. इस देश की ऊंची जातियां इन्हीं के बल पर चलती हैं. इस का नमूना इन के लौटने के तुरंत बाद दिखने लगा, जब कुछ लोग बसों को भेज कर इन्हें वापस बुलाने लगे और लौटने पर हार से स्वागत करते दिखे.

देश का बीसीएससी समाज जाति व्यवस्था का शिकार रहा है. बारबार उन्हें समझाया गया है कि वे पिछले जन्मों के पापों की वजह से नीची जाति में पैदा हुए हैं और अगर ऊंचों की सेवा करेंगे तो उन्हें अगले जन्म में फल मिलेगा. ऊंची जातियां जो धर्म के पाखंड को मानने का नाटक करती हैं उस का मतलब सिर्फ यह समझाना होता है कि देखो हम तो ऊंचे जन्म में पैदा हो कर भगवान का पूजापाठ कर सकते हैं और इसीलिए सुख पा रहे हैं.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

अब कोरोना ने बताया है कि यह सेवा भी न भगवान की दी हुई है, न जाति का सुख. यह तो धार्मिक चालबाजी है. ऐसा ही यूएन व अमेरिका के गोरों ने किया था. उन्होंने बाइबिल का सहारा ले कर गुलामों को मन से गोरों का हुक्म मानने को तैयार कर लिया था. जैसे हमारे बीसीएससी अपने गांव तक नहीं छोड़ सकते थे वैसे ही काले भी यूरोप, अमेरिका में बिना मालिक के अकेले नहीं घूम सकते थे. अगर अमेरिका में कालों पर और भारत में बीसीएससी पर आज भी जुल्म ढाए जाते हैं तो इस तरह के बिना लिखे कानूनों की वजह से. हमारे देश की पुलिस इन के साथ उसी वहशीपन के साथ बरताव करती है जैसी अमेरिका की गोरी पुलिस कालों के साथ करती है.

कोरोना ने मौका दिया है कि ऊंची जातियों को अपने काम खुद करने का पूरा एहसास हो. आज बहुत से वे काम जो पहले बीसीएससी ही करते थे, ऊंची जातियां कर रही हैं. अगर बीसीएससी अपने काम का सही मुआवजा और समाज में सही इज्जत और बराबरी चाहते हैं तो उन्हें कोरोना के मौके को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए.

कोरोना की वजह से आज करोड़ों थोड़ा पढ़ेलिखे, थोड़ा हुनर वाले लोग, थोड़ी शहरी समझ वाले बीसीएससी लोग गांवों में पहुंच गए हैं. ये चाहें तो गांवों में सदियों से चल रहे भेदभाव के बरताव को खत्म कर सकते हैं. इस के लिए किसी जुलूस, नारों की जरूरत नहीं. इस के लिए बस जो सही है वही मांगने की जरूरत है. इस के लिए उन्हें उतना ही समझदार होना होगा जितना वे तब होते हैं जब बाजार में कुछ सामान खरीदते या बेचते हैं. उन्हें बस यह तय करना होगा कि वे हांके न जाएं, न ऊंची जातियों के नाम पर, न धर्म के नाम पर, न पूजापाठ के नाम पर, न ‘हम एक हैं’ के नारों के नाम पर.

आज कोई भी देश तभी असल में आगे बढ़ सकता है जब सब को अपने हक मिलें. सरकार ने अपनी मंशा दिखा दी है. यह सरकार खासतौर पर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार व केंद्र की सरकार इन मजदूरों को गाय से भी कम समझती हैं. इतनी गाएं अगर इधर से उधर जातीं तो ये सरकारें रास्ते में खाना खिलातीं, पानी देतीं. मजदूरों को तो इन्होंने टिड्डी दल समझा जिन पर डंडे बरसाए जा सकते हैं. विषैला कैमिकल डाला जा सकता है.

जैसे देश के मुसलमानों को कई बार भगवा अंधभक्त पाकिस्तानी, बंगलादेशी कह कर भलाबुरा कहते हैं, डर है कि कल को नेपाली से दिखने वालों को भी भक्त गालियां बकने लगें. हमारे भक्तों को गालियां कहना पहले ही दिन से सिखा दिया जाता है. कोई लंगड़ा है, कोई चिकना है, कोई लूला है, कोई काला है, कोई भूरा है. हमारे अंधभक्तों की बोली जो अब तक गलियों और चौराहों तक ही रहती थी, अब सोशल मीडिया की वजह से मोबाइलों के जरीए घरघर पहुंचने लगी है.

सदियों से नेपाल के लोग भारतीय समाज का हिस्सा रहे हैं. उस का अलग राजा होते हुए भी नेपाल एक तरह से भारत का हिस्सा था, बस शासन दूसरे के हाथ में था जिस पर दिल्ली का लंबाचौड़ा कंट्रोल न था. अभी हाल तक भारतीय नागरिक नेपाल ऐसे ही घूमनेफिरने जा सकते थे. आतंकवाद की वजह से कुछ रोकटोक हुई थी.

अब नरेंद्र मोदी सरकार जो हरेक को नाराज करने में महारत हासिल कर चुकी है, नेपाल से भी झगड़ने लगी है. नेपाल ने बदले में भारत के कुछ इलाके को नेपाली बता कर एक नक्शा जारी कर दिया है. इन में कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा शामिल हैं जो हमारे उत्तराखंड में हैं.

नेपाल चीन की शह पर कर रहा है, यह साफ दिखता है, पर यह तो हमारी सरकार का काम था, न कि वह नेपाल की सरकार को मना कर रखती. नेपाल की कम्यूनिस्ट पार्टी हमारी भारतीय जनता पार्टी की तरह अपनी संसद का इस्तेमाल दूसरे देशों को नीचा दिखाने के लिए कर रही है.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

दिल्ली और काठमांडू लड़तेभिड़ते रहें, फर्क नहीं पड़ता, पर डर यह है कि सरकार की जान तो उस की भक्त मंडली में है जो न जाने किस दिन नेपाली बोलने वालों या उस जैसे दिखने वालों के खिलाफ मोरचा खोल ले. ये कभी पाकिस्तान के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ बातें करते रहते हैं, कभी उत्तरपूर्व के लोगों को चिंकी कह कर चिढ़ाते हैं, कभी कश्मीरियों को अपनी जायदाद बताने लगते हैं, कभी पत्रकारों के पीछे अपने कपड़े उतार कर पड़ जाते हैं. ये नेपाली लोगों को बैरी मान लें तो बड़ी बात नहीं.

आज देश में बदले का राज चल रहा है. बदला लेने के लिए सरकार भी तैयार है, आम भक्त भी और बदला गुनाहगार से लिया जाए, यह जरूरी नहीं. कश्मीरी आतंकवादी जम्मू में बम फोड़ेंगे तो भक्त दिल्ली में कश्मीरी की दुकान जला सकते हैं. चीन की बीजिंग सरकार लद्दाख में घुसेगी तो चीन की फैक्टरी में बने सामान को बेचने वाली दुकान पर हमला कर सकते हैं.

इन पर न मुकदमे चलते हैं, न ये गिरफ्तार होते हैं. उलटे इन भक्त शैतानी वीरों को पुलिस वाले बचाव के लिए दे दिए जाते हैं. कल यही सब एक और तरह के लोगों के साथ होने लगे तो मुंह न खोलें कि यह क्या हो रहा है!

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

गहरी पैठ

अपने घर को अपनों ने गिराया है. इस देश की आज जो हालत कोरोना की वजह से हो रही है उस के लिए हमारी सरकार ही नहीं, वे लोग भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने धर्म और जाति को देश की पहली जरूरत समझा और फैसले उसी पर लेने के लिए उकसाया. आज अगर कोरोना के कारण पूरे देश में बेकारी फैल रही है तो इस की जड़ों में ?वे फैसले हैं जो सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी के लिए ही नहीं, बहुत तरीके से छोटेछोटे फैसले भी लिए जिन में धर्म के हुक्म सब से ऊपर थे.

लोगों ने 2014 में अगर सत्ता पलटी तो यह सोच कर कि जो हिंदू की बात करेगा वही राज करेगा तो ही देश सोने की चिडि़या बनेगा. यह देश सोने की चिडि़या केवल तब था जब देश पर कट्टरपंथी हिंदू राज ही नहीं कर रहे थे. 1947 से पहले देश में अंगरेजों का राज था. उस से पहले मुगलों का था. उस से पहले शकों, हूणों, बौद्धों का राज था. हां, घरों पर राज हिंदू सोचसमझ का था और वही देश को आगे बढ़ने से रोकता रहा. 2014 में सोचा गया था कि हिंदू राज मनमाफिक होगा, पर इस ने न केवल सारे मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर दिया, दलित, पिछड़े, औरतें चाहे सवर्णों की क्यों न हों, कमजोर कर दिए गए.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

कोरोना ने तो न सिर्फ जख्मों पर लात मारी है, उन को इस तरह खोल दिया है कि आज सारा देश लहूलुहान है. करीब 6 करोड़ मजदूर शहरों से गांवों की ओर जाने लगे हैं. जो लोग 24 मार्च, 2020 को चल दिए थे उन की छठी इंद्री पहले जग गई थी. उन्होंने देख लिया था कि जिस हिंदू कहर से बचने के लिए वे गांवों से भागे थे वह शहरों में पहुंच गया है. महाराष्ट्र में जो मराठी मानुष का नाम ले कर शिव सेना बिहारियों को बाहर खदेड़ना चाहती थी, वह मराठी लोगों के ऊंचे होने के जिद की वजह से था.

आजादी से पहले भी, पर आजादी के बाद, ज्यादा ऊंची जातियों ने शहरों में डेरे जमाने शुरू किए और अपनी बस्तियां अलग बनानी शुरू कीं. गांवों से तब तक दलितों को निकलने ही नहीं दिया था. काफी राजाओं ने तो दलितों पर इस तरह के टैक्स लगा रखे थे कि एक भी जना भाग जाए तो बाकी सब पर जुर्माना लग जाता था. अब ये लोग गांवों से आजादी पाने के लिए शहरों में आए तो शहरों में मौजूद ऊंची जातियों के लोगों ने इन्हें न रहने की जगह दी, न पानी, न पखाने का इंतजाम किया. ये लोग नालों के पास रहे, पहाडि़यों में रहे, बंजर जमीन पर रहे.

1947 से 2014 तक राजनीति में इन की धमक थी क्योंकि ये पार्टियों के वोट बैंक थे. फिर धार्मिक सोच वालों ने मीडिया, सोशल मीडिया, अखबारों, पुलिस पर कब्जा कर लिया. इन्हीं दलितों, पिछड़ों और इन की औरतों को धार्मिक रंग में रंग दिया और इन्हें लगने लगा कि भगवान के सहारे इन का भाग्य बदलेगा. मुसलमानों को डरा दिया गया और हिंदू दलितों को बहका दिया गया कि उन की नौकरियां उन्हें मिल जाएंगी.

पर हमेशा की तरह सरकारी फैसले गलत हुए. 1947 के बाद भारी टैक्स लगा कर सरकारी कारखाने लगाए गए जिन में पनाह मिली निकम्मे ऊंची जातियों के अफसरों, क्लर्कों, मजदूरों को. वे अमीर होने लगे. सरकारी कारखाने चलाने के लिए टैक्स लगे जो गांवों में भूखे किसानों और उन के मजदूरों के पेट काट कर भरे गए. मरते क्या न करते वे शहरों को भागे.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

शहरों में उन्हें बस जीनेभर लायक पैसे मिले. वे कभी उस तरह अमीर नहीं हो पाए जैसे चीन से गए मजदूर अमेरिका में हुए. जाति का चंगुल ऐसा था कि वह शहरों तक गलीगली में पहुंच गया. गरीबों की झुग्गी बस्तियों में शराब, जुए, बीमारी की वजह से गरीबों की जो थोड़ी बचत थी, लूट ली गई. महाजन शहरों में भी पहुंच गए.

कोरोना ने तो बस अहसास दिलाया है कि शहर उन के काम का नहीं. अगर गांवों में ठाकुरों, उन के कारिंदों की लाठियां थीं तो शहरों में माफियाओं और पुलिस का कहर पनपने लगा. जब नौकरी भी न हो, घर भी न हो, इज्जत भी न हो, आंधीतूफान से बचाव भी न हो तो शहर में रह कर क्या करेंगे?

कोरोना ने तो यही अहसास दिलाया है कि धर्म का ओढ़ना उन्हें इस बीमारी से नहीं बचाएगा क्योंकि वे अमीर जो रातदिन पूजापाठ में लगे रहते हैं, कोरोना से नहीं बच पाए हैं. कोरोना की वजह से धर्म की दुकानें बंद हो गई हैं. चाहे छोटामोटा धर्म का व्यापार घरों में चलता रहे. कोरोना की वजह से ऊंची जातियों की धौंस खत्म हो गई है. शायद इतिहास में पहली बार ऊंची जातियों के लोग निचलों की गुलामी को नकारने को मजबूर हुए हैं कि कहीं वे एक अमीर से दूसरे अमीर तक कोरोना वायरस न ले जाएं. कोरोना इन गरीबों को छू रहा है पर ये उसे ऐसे ही ले जा रहे हैं जैसे कांवडि़ए गंगा जल ले जाते हैं जिसे छूने की मनाही है. कोरोना अमीरों में ही ज्यादा फैल रहा है.

कोरोना ने देश की निचलीपिछड़ी जातियों और ऊंची जातियों की औरतों के काम अब ऊंची जाति वालों को खुद करने को मजबूर किया है. अगर देश में हिंदूहिंदू या हिंदूमुसलिम या आरक्षण खत्म करो, एससीएसटी ऐक्ट खत्म करो की आवाजें जोरजोर से नहीं उठ रही होतीं तो लाखोंकरोड़ों मजदूर अपने गांवों की ओर न भागते. इस शोर ने उन्हें समझा दिया था कि वे शहरों में भी अब बचे हुए नहीं हैं. पुलिस डंडों की मार ये ही लोग खाते रहते हैं. 1,500 किलोमीटर चल रहे इन लोगों को ऊंची जातियों के आदेशों पर किस तरह पुलिस ने रास्ते में पीटा है यह साफ दिखाता है कि देश में अभी ऊंची जातियों का दबदबा कम नहीं हुआ है. गिनती में चाहें ऊंची जातियां कम हों पर उन के पास पैसा है, अक्ल है, लाठियां हैं, बंदूकें हैं, जेलें हैं. जब अंगरेज भारत में थे वे कभी भी 20,000 से ज्यादा गोरी फौज नहीं रख पाए थे, उन्हें जरूरत ही नहीं थी. उन के 1,500 आदमी हिंदुस्तान के 50,000 आदमियों पर भारी पड़ते थे.

देश के दलितों, पिछड़ों, गरीब मजदूरों ने कैसे एकसाथ फैसला कर लिया कि उन की जान तो अब गांवों में बच सकती है, यह अजूबा है. यह असल में एक अच्छी बात है. यह पूरे देश को नया पाठ पढ़ा सकता है. अब शहरों में महंगे मजदूर मिलेंगे तो उन्हें ढंग से ट्रेनिंग दी जाएगी. गांवों में जो शहरी काम करते मजदूर पहुंचे हैं, वे जम कर मेहनत से काम भी करेंगे और अपने को लूटे जाने से भी बचा सकेंगे. गांवों में ऊंची दबंग जातियां तो अब न के बराबर बची हैं. वे काम करेंगी तो इन के साथ.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

कोरोना वायरस दोस्त साबित हो सकता है. शर्त है कि हम धर्म की दुकानों को बंद ही रहने दें. कारखाने खुलें, लूट की पेटियां नहीं.

अमिताभ बच्चन नें पढ़ी पिता की कविताएं, तो आंखों में छलके आंसू

सदी के महानायक अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) को लेकर ट्रोलर्स ने कोरोना त्रासदी में फंसे लोगों की सहायता के लिए पीएम केयर फंड में सहयोग न करने के चलते तमाम तरीके से उनका मजाक बनाया था और उनकी बुराइयां भी की. लेकिन अमिताभ बच्चन ने हजारों दिहाड़ी मजदूरों को सीधे सहयोग किये जाने की बात कर उन सभी लोगों की बोलती बंद कर दी जो उन्हें ट्रोल कर रहे थे. उन्होंने औल इंडिया फिल्म एंप्लॉइज कन्फेडरेशन से जुड़े एक लाख दिहाड़ी मजदूरों के परिवार की मदद के लिए मासिक राशन मुहैया कराने का ऐलान किया है. अमिताभ बच्चन के कदम से अब चारो ओर उनकी सराहना हो रही है.

इन सबके बीच हर रोज अमिताभ बच्चन के तरह से किसी न किसी वीडियो और पोस्ट के जरिये लोगों में कोरोना से बचाव और निराशा से उबरने के लिए पोस्ट और वीडियो जारी किये जा रहें हैं. इन सभी के बीच अमिताभ बच्चन नें अपने ट्विटर, इन्स्टाग्राम, और फेसबुक एकाउंट पर अपने पिता और मशहूर कवि हरिवंश राय बच्चन के कविताओं की कुछ पंक्तियों को अपने आवाज में रिकार्ड कर शेयर किया है.

ये भी पढ़ें- मुलायम सिंह यादव के जीवन संघर्षों पर बनी बायोपिक फिल्म का टीजर हुआ रिलीज

अमिताभ बच्चन नें अपने पिता के कविता की जिन पंक्तियों को अपनी आवाज में रिकार्ड किया है. वह “है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है.” उन्होंने छः पंक्तियों वाली इस कविता के तीसरे और अंतिम छठी  पंक्ति को रिकार्ड किया है. वीडियो के बैकग्राउंड में उनकी आवाज में रिकार्ड की गई इस इस कविता की पंक्तियां गूंज रहीं हैं. और उनके हाथ में उनके पिता के कविताओं की पुस्तक है जिसे वह पलट कर उसी कविता पर आ जातें हैं. यह पल बहुत ही भावुक करने वाला हैं कभी उनके चहेरे पर मुस्कराहट आ रही है तो कभी आंखों में आँसू. इस वीडियो को देख कर लगता है की अमिताभ बच्चन अपने पिता की यादों में खो से गयें हैं.

अमिताभ बच्चन नें इसी से जुडा वीडियो अपने ट्विटर पर अपलोड कर लिखा है “बाबूजी और उनकी आशा भारी कविता को याद करता हूँ. बाबूजी कवि सम्मेलनों में  ऐसे ही गा के सुनाया करते थे”. (T 3495 – I reminisce my Father and his poem, which expresses hope and strength. The singing is exactly how Babu ji recited it at Kavi Sammelans, which I attended with him).

ये भी पढ़ें- Lockdown के समय पूरी फिल्म इंडस्ट्री आई एक साथ, शौर्ट फिल्म बना कर किया Motivate

उन्होंने अपने इन्स्टाग्राम पोस्ट में लिखा है “इन अकेली घड़ियों में, मैं बाबूजी और उनकी कविता को याद करता हूँ, जो आशा भरी हैं, शक्ति सम्पूर्ण गाने की धुन बिलकुल वैसी है जैसे बाबूजी कवि सम्मेलनों में गा के सुनाया करते थे. मैं उनके साथ होता था” (In these times of isolation I reminisce my Father and his poem , which expresses hope and strength. The singing is exactly how Babu ji recited and sang it at Kavi Sammelans, which I attended with him).

 

View this post on Instagram

 

In these times of isolation I reminisce my Father and his poem , which expresses hope and strength. The singing is exactly how Babu ji recited and sang it at Kavi Sammelans, which I attended with him .. इन अकेली घड़ियों में, मैं बाबूजी और उनकी कविता को याद करता हूँ, जो आशा भरी हैं, शक्ति सम्पूर्ण । गाने की धुन बिलकुल वैसी है जैसे बाबूजी कवि सम्मेलनों में गा के सुनाया करते थे । मैं उनके साथ होता था ।

A post shared by Amitabh Bachchan (@amitabhbachchan) on

अमिताभ बच्चन ने इस कविता को उस समय अपलोड किया है जब कोरोना के चलते ओर निराशा है. ऐसे में इस कविता की यह पंक्तियाँ आशा की किरण पैदा करती है. इस कविता को रिकार्ड करने में उनकी बेटी श्वेता और नातिन का बड़ा हाथ है. जब की जिस वीडियो को अपलोड किया गया है उसे अमिताभ बच्चन ने अपने घर में ही रिकार्ड कराया है जिसे उनके ही फोन से अभिषेक बच्चन ने रिकार्ड किया है. उन्होंने अपने इस वीडियो को फेसबुक एकाउंट पर भी शेयर किया है.

हरिवंश राय बच्चन की वह पंक्तियां जिसे उन्होंने नें गाकर सुनाया है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुस्कुराना कब मना है
है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है.

ये भी पढ़ें- Coronavirus: लोगों को इंस्पायर करने के लिए अक्षय कुमार ने बनाया ये VIDEO, मिला बॉलीवुड का साथ

क्या हवाएं थी कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरे शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है.

बंदी के कगार पर मझोले और छोटे कारोबारी

लौकडाउन की वजह से डूबते कारोबारी जगत को अब सरकार से ही राहत की उम्मीद है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके अखिलेश यादव ने कहा कि सरकार को जरूरी एहतियात के साथ कारोबार जगत को पटरी पर लाने के लिए सतर्कता बरतते हुए उपाय करने चाहिए और कारोबारियों की मदद करनी चाहिए.

देश में कारोबार और कारोबारियों की हालत बहुत खराब है. नोटबंदी और जीएसटी की गलत नीतियों से कारोबार जगत उबर भी नहीं पाया था कि कोरोना और लौकडाउन से कारोबार और भी ज्यादा टूट गया और अब यह बंदी के कगार पर पहुंच गया है.

ये भी पढ़ें- शव-वाहन बना एम्बुलेंस

लखनऊ की युवा कारोबारी रोली सक्सेना ने 3 साल पहले गारमैंट्स का अपना कारोबार शुरू किया था. अपनी छोटी सी दुकान को बड़े शोरूम में बदल दिया था. 40,000 रुपए के किराए पर एक जगह ले कर दुकान शुरू की थी. अचानक नोटबंदी और जीएसटी की वजह से कारोबार में काफी उथलपुथल आ गई.

वे किसी तरह से इन हालात को संभाल रही थीं कि इसी बीच जब कोरोना और लौकडाउन का समय आया, तो कारोबार पूरी तरह बंद हो गया. दुकान के मालिक ने 40,000 रुपए किराए की मांग की. रोली सक्सेना ने किराया देने का तो तय कर लिया, पर यह सोच लिया कि अब वे यह कारोबार नहीं करेंगी.

रोली सक्सेना कहती हैं, ‘‘सरकार कारोबारियों के हालात समझती है. उसे इन की मदद का कोई ऐक्शन प्लान तैयार करना चाहिए, वरना हमारे जैसे न जाने कितने कारोबारी अपना कारोबार बंद कर सड़क पर आ जाएंगे.’’

राहत पैकेज दे सरकार

अखिल भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष संदीप बंसल ने कहा है, ‘‘देश और प्रदेश की सरकार को उन कारोबारियों की चिंता करनी चाहिए, जो मध्यम वर्ग के हैं और जरूरी सेवाओं का कारोबार नहीं करते हैं. ये कारोबारी ऐसी किसी भी सरकारी राहत योजना में भी नहीं आते, जिस से उन को सरकार की मदद मिल सके.

ये भी पढ़ें- अंधविश्वास को बढ़ावा : बिहार में ‘कोरोना माई’ की पूजा

‘‘होली के समय से ही इन सब का कारोबार नहीं चल रहा है. ये अपने खर्चे और मुलाजिमों की तनख्वाह का इंतजाम तभी कर सकते हैं, जब इन की दुकानें खुलेंगी. जब तक इन कारोबारियों की दुकानें नहीं खुल रही हैं, तब तक ये खुद भुखमरी के कगार पर हैं.

‘‘जो बड़े कारोबारी हैं और सक्षम हैं, वे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री राहत कोष में पैसा दे रहे हैं. तमाम कारोबारी जनता को खाना खिलाने और दूसरी मदद का काम भी कर रहे हैं, इस के बाद भी देश में करोड़ों ऐसे कारोबारी हैं, जो रोज कमाने और खाने वाले हैं.

‘‘सरकार के पास ऐसे कारोबार और उस को करने वाले लोगों के लिए कोई योजना नहीं है. ये कारोबारी अपने कारोबार के बंद होने से परेशान हैं.’’

केंद्र सरकार ने लाखों करोड़ का जो राहत पैकेज दिया है, वह सही हाथों में पहुंचने के बाद ही कारोबारी जगत को उठाने में मदद मिलेगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें