भूपेश बघेल की “गोबर गणेश” सरकार!

भूपेश सरकार का एक निर्णय आज छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में चर्चा का सबब बना हुआ है. यही नहीं छत्तीसगढ़ से बाहर देश भर में लोग इसका मजाक और मीम बना रहे हैं. यह निर्णय है गोधन के “गोबर” खरीदी का. भूपेश बघेल स्वयं को एक गांव किसान का लड़का कहने में फक्र महसूस करते हैं और मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उन्होंने निरंतर स्वयं को एक आम छत्तीसगढ़िया मानुष सिद्ध करने का प्रयास किया है. कई योजनाएं छत्तीसगढ़ की अस्मिता से जुड़ी हुई हैं.

अब जब उन्होंने गोबर को 1रूपये 50 पैसे किलो खरीदने का ऐलान किया है विपक्ष भाजपा सहित एक बड़े वर्ग ने उनके इस निर्णय पर व्यंग बाण छोड़ने शुरू कर दिए हैं. जिसमें सरकार के गोबर खरीदी के निर्णय का माखौल उड़ाया गया है .भूपेश सरकार की इस बहुचर्चित पहल का क्या परिणाम सामने आएगा यह आने वाला वक्त बताएगा मगर राजनीति की बिसात पर चौपड़ बिछ चुकी है. यह अहम कदम भूपेश बघेल के लिए मील का पत्थर सिद्ध होने जा रहा है. अगर सफल हुआ तो वाह वाह! और असफल हुआ तो एक ऐसा तमगा जो वर्षों वर्ष लोग याद करेंगे और भूपेश बघेल की हंसी तो  उड़ेगी ही.

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मजाक- दर मजाक

मुख्यमंत्री के रूप में भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ को छत्तीसगढ़ की अपनी पहचान विकसित करने की कोशिश की है. पहले पहल उन्होंने नारा दिया,- ‘नरवा गरवा घुरवा बाड़ी’ का  यह नारा एक मुख्यमंत्री के रूप में आम जनता के लिए संदेश बन जाता लोग अपनाते तो प्रदेश का भला होता. मगर भूपेश बघेल ने आगे आकर इसे सरकारी अधोवस्त्र पहना कर खड़ा कर दिया. गांव गांव में नरवा गरवा घुरवा बाड़ी के नारे चस्पां  हो गए मगर जमीन पर हकीकत में कुछ नहीं दिखता. गौठान बना दिए गए भूपेश बघेल बड़े उत्साहित स्वयं गांव गांव पहुंचते और उद्घाटन करते मगर गोठान बनने के बाद करोड़ों रुपए खर्च के बाद किसी भी गोठान का कोई लाभ लोगों को नहीं मिल रहा है.

सरकारी धन और मशीनरी का जैसा दुरुपयोग भूपेश बघेल के नेतृत्व में दिखाई देता है वह पीड़ादायक है. यह एक योजना जब जमीन पर अंतिम सांसे ले रही है भूपेश बघेल ने गोबर खरीदी की योजना लांच कर दी है जिसका मजाक कुछ ऐसे उड़ रहा है.

पहला – छत्तीसगढ़ दुनिया का पहला ऐसा राज्य जहां चावल सस्ता और गोबर महंगा- चावल 1रूपये किलो गोबर 1.5 रुपए किलो .

दूसरा – सीजी  पीएससी प्री में 140 प्लस कट आफ आने और क्लियर नहीं होने से हतोत्साहित छात्रों में राज्य सरकार के द्वारा गोबर खरीदने के निर्णय ने उम्मीद की नई किरण जगा दी है.

कई छात्र अब सीजी पीएससी की तैयारी ना करके गोबर बीनने का काम करने की सोच रहे हैं उत्साहित युवाओं  ने पटाखे फोड़े.

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तीसरा – राज्य सरकार भविष्य में – गोबर बिनइया, दुध दुहैया ,गोबरहीन इत्यादि पदों का सृजन करके, वैकेंसी निकालने की सोच रही है. चौथा- नरवा गरवा अऊ बाड़ी, सबला गोबर बिनना है संगवारी।

पढ़ाई को दो कुर्बानी…

गोबर खरीदी के निर्णय के बाद विपक्ष भाजपा के नेता भूपेश बघेल सरकार पर मानो पिल पड़े  है. सबसे ज्यादा आक्रमक हुए भाजपा की विगत डॉ. रमन सरकार के मंत्री रहे अजय चंद्राकर उन्होंने ट्वीट कर भूपेश बघेल की गोबर खरीदी नीति पर वज्र प्रहार किया उन्होंने लिखा – “ पढ़ाई को दो कुर्बानी, गोबर बिनवाने की तुमसे भूपेश सरकार ने अब ठानी” अजय चंद्राकर ने सोशल मीडिया के माध्यम से भूपेश बघेल सरकार पर तंज कसते हुए गोबर योजना पर सवाल खड़े कर दिए हैं.  जिससे कांग्रेस बौखला गई है और प्रवक्ता भाजपा के 15 वर्ष की नीतियों पर तंज कस सवाल खड़े कर रहे हैं . नेताओं की शह पर कांग्रेस कार्यकर्ता हुंकार भर रहे हैं कि अजय चंद्राकर के खिलाफ थाने में एफ आई आर दर्ज करवाई जाएगी तो पलट कर अजय चंद्राकर ने कहा है,- थाने में क्या, इटली में रिपोर्ट दर्ज करवाओ.

मगर लाख टके का सवाल यह है की गोबर खरीदने का ख्याल छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार ने ऐसी स्थिति में किया है जब उसके दरबार में  रुचिर गर्ग जैसे अनेक बुद्धिजीवी रत्न हैं.

डेढ़ वर्ष के अल्प समय में छत्तीसगढ़ में कई सरकारी नीतियों से हवा निकल रही है. गोठान इसका ज्वलंत उदाहरण है जहां एक भी गाय का बसेरा नहीं है और यह योजना मुंह चिढाते हुए जुगाली कर रही है. ऐसे में प्रदेश को ऊर्जा, शिक्षा, उद्योग के क्षेत्र में अपने पैरों पर खड़ा करने की जगह आम लोगों को भ्रमित करने वाली, पीछे धकेलने वाली योजनाओं से प्रदेश का भविष्य क्या होगा यह अभी से दिखाई देने लगा है.

वायरसी मार के शिकार कुम्हार

लेखक- डा. सत्यवान सौरभ

नोवल कोरोना वायरस  के चलते लागू किए गए लौकडाउन ने  मिट्‌टी बरतन बनाने वाले कारीगरों के सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है. इन कारीगरों ने मिट्टी के बरतन बना कर रखे लेकिन बिक्री न होने की वजह से इन के लिए खाने के लाले पड़ गए हैं. लौकडाउन के चलते न तो चाक (बरतन बनाने का उपकरण) चल रहा है और न ही दुकानें खुल रही हैं. घर व चाक पर बिक्री के लिए पड़े मिट्टी के बरतनों की इन्हें रखवाली अलग करनी पड़ रही है. देशभर में प्रजापति समाज के लोग मिट्टी के बरतन बनाने का काम करते हैं.

लौकडाउन ने इन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. इन के बरतनों की बिक्री नहीं हो रही है. महीनों की मेहनत घर के बाहर पड़ी है. इन हालात में परिवार का गुजारा करना मुश्किल हो गया है. गरमी के सीजन को देखते हुए बरतन बनाने वालों ने बड़ी संख्या में मटके बनाए. डिजाइनर टोंटी लगे मटकों के साथ छोटी मटकी और गुल्लक, गमले भी तैयार किए. दरअसल,  आज भी ऐसे लोग हैं जो मटके के पानी को प्राथमिकता देते हैं. मगर इस बार इन को घाटा हो गया. इन का परिवार कैसे गुजरबसर करेगा. कोई भी मटके खरीदने नहीं आ रहा है. धंधे से जुड़े लोगों ने ठेले पर रख कर मटके बेचने भी बंद कर दिए हैं.

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मिट्टी के बरतनों के जरिए अपनी आजीविका चलने वाले कुशल श्रमिकों के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल से देशभर के प्रजापति समाज के लोगों के लिए एक आस जगी है, जिस के अनुसार राज्य के हर प्रभाग में एक माइक्रो माटी कला कौमन फैसिलिटी सेंटर (सीएफसी) का गठन किया जाएगा.  सीएफसी की लागत 12.5 लाख रुपए होगी, जिस में सरकार का योगदान 10 लाख रुपए का होगा. शेष राशि समाज या संबंधित संस्था को वहन करनी होगी. भूमि, यदि संस्था या समाज के पास उपलब्ध नहीं है, तो ग्रामसभा द्वारा प्रदान की जाएगी. हर केंद्र में गैसचालित भट्टियां, पगमिल, बिजली के बरतनों की चक और पृथ्वी में मिट्टी को संसाधित करने के लिए अन्य उपकरण होंगे. श्रमिकों को एक छत के नीचे अपने उत्पादों को विकसित करने के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध होंगी. इन केंद्रों के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा.

खादी और ग्रामोद्योग विभाग का यह बहुत अच्छा प्रयास है. यदि उत्पाद गुणवत्ता के हैं और उन की कीमतें उचित हैं, तो बाजार में उन के लिए अच्छी मांग होगी. इस से व्यापार से जुड़े लोगों के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर बढ़ेंगे. इस के अलावा, तालाबों से मिट्टी उठाने से बाद की जलसंग्रहण क्षमता बढ़ जाएगी. इन उत्पादों को पौलिथीन का विकल्प बनने से पौलिथीन संदूषण को भी रोका जा सकेगा. कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए किए गए लौकडाउन से लगभग हर क्षेत्र में कामकाज बिलकुल ठप पड़ा है.

केंद्र सरकार छोटे, मझोले और कुटीर उद्योगों के लिए स्पेशल पैकेज की घोषणा कर के उन को जीवित रखने का प्रयास भले कर रही है. लेकिन, अस्पष्टता और सही दिशानिर्देश के अभाव में बहुत राहत मिलती नहीं दिख रही है. देश में बहुत से ऐसे वर्ग हैं जिन पुश्तैनी धंधा रहा है और कई जातियां ऐसी भी है जो विशेष तरह का काम कर के अपना जीवनयापन करती हैं, जैसे माली, लोहार, कु्म्हार, दूध बेचने वाले ग्वाला, दर्जी, बढ़ई, नाई, पत्तलदोने का काम कर के जीवनयापन करने वाले मुशहर जाति के लोग. ये ऐसे लोग हैं जिन का कामकाज लौकडाउन से सब से अधिक प्रभावित हुआ है. सरकार ने बड़े व मझोले कारोबारियों के लिए तो काफी कुछ दे दिया है, लेकिन उपर्युक्त लोगों के लिए सरकार की तरफ से कोई विशेष राहत का ऐलान नहीं किया गया है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र ने मोदी देश को संबोधित करते हुए आत्मनिर्भर भारत बनाने पर जो दिया. उन्होंने देश को आगे बढ़ाने के लिए एमएसएमई को फौरीतौर पर राहत देने की घोषणा की. लेकिन, बजट का निर्धारण करना वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पर छोड़ दिया. साथ ही, उन्होंने लोकल के प्रति वोकल होने की बात जरूर की लेकिन लौकडाउन से प्रभावित होने वाले ऐसे लोगों के बारे में जिक्र नहीं किया जिन की रोजीरोटी खुद के कारोबार और हुनर पर निर्भर है. लौकडाउन से उन के ऊपर गहरा असर हुआ है. ऐसे लोगों के पास बचत भी बहुत अधिक नहीं होती है कि वे अपनी जमापूंजी खर्च कर के घरखर्च चला सकें. ऐसे लोग हर रोज कमाते हैं, जिस से उन के खाने का इंतजाम हो पाता है. अब लौकडाउन हो जाने से उन का कामकाज बिलकुल बंद हो गया है. ऐसे में सरकार को इन लोगों के लिए कुछ न कुछ अलग से उपाय करना चाहिए, ताकि उन का जीवन भी सुचारु रूप से चल सके.

आज जब भारत के गांव बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं तो गांवों के परंपरागत व्यवसायों को भी नया रूप दिए जाने की जरूरत है. गुजरात के राजकोट निवासी मनसुख भाई ने कुछ ऐसा ही नया करने का बीड़ा उठाया है. पेशे से कुम्हार मनसुख ने अपने हुनर और इनोवेटिव आइडिया का इस्तेमाल कर के न सिर्फ अच्छा बिजनेस स्थापित किया, बल्कि नेशनल अवार्ड भी हासिल किया. आज उन के नाम और काम की तारीफ भारत ही नहीं, दुनिया में हो रही है. उन के मिट्टी के बरतन विदेशों में भी बिक रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने उन्हें ‘ग्रामीण भारत का सच्चा वैज्ञानिक’ कहा था. एक अन्य पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उन्हें सम्मानित करते हुए कहा था कि ग्रामीण भारत के विकास के लिए उन के जैसे साहसी और नवप्रयोगी लोगों की जरूरत है. आज वे उद्यमियों के लिए एक मिसाल हैं.

कुछ लोग गांवों के परंपरागत व्यवसाय के खत्म होने की बात करते हैं, जो गलत है. अभी भी हम ग्रामीण व्यवसाय को जिंदा रख सकते हैं, बस, उस में थोड़ी सी तबदीली करने की जरूरत है. भारत के गांव अब नई तकनीक और नई सुविधाओं से लैस हो गए हैं. भारत के गांव बदल रहे हैं, इसलिए अपने कारोबार में थोड़ा सा बदलाव करने की जरूरत है. नई सोच और नए प्रयोग के जरिए ग्रामीण कारोबार को बरकरार रखा जा सकता है और उस के जरिए अपनी जीविका चलाई जा सकती है.

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जब हम गांव में कोई कारोबार शुरू करते हैं, उस से सिर्फ हमें ही फायदा नहीं मिलता, बल्कि हमारी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी होती है. हम आत्मनिर्भर बनते हैं और तमाम बेरोजगारों को रोजगार देते हैं. हर व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साथ ही दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करे. उन्हें काम करने के प्रति जागरूक करे. इसी से ग्रामीण भारत के सशक्तीकरण का सपना पूरा होगा.

छत्तीसगढ़ में “भूपेश प्रशासन” ने हाथी को मारा!

छत्तीसगढ़ में वन्य प्राणी संकट में दिख रहे हैं. यह संयोग है या फिर कोई षड्यंत्र की एक सप्ताह में छह: हाथी मृत पाए गए हैं. जिनमें एक हाथी “गणेश” नाम का है जो देशभर में बहुचर्चित है. गणेश पर देश की प्रतिष्ठित पत्रिका मनोहर कहानियां ने  सितंबर 2019 में एक लंबी रिपोर्ट प्रकाशित की थी और बताया था कि किस तरह रायगढ़ के धर्मजयगढ़ में एक ही परिवार के 4 लोगों को गणेश हाथी ने मार डाला था.  छत्तीसगढ़ के कोरबा, रायगढ़ जिला में लगभग 18 लोगों को गणेश हाथी ने हलाक कर डाला.

युवा गणेश के बारे में कहा जा सकता है कि वह सही मायने में एक स्वतंत्र वन्य प्राणी था, जिसने जो  भी गलती से भी उसके  सामने आ गया उसे अपने रास्ते से हटा दिया. और तो और वन विभाग के लाख प्रयासों के बावजूद वह वन विभाग के काबू में कभी नहीं आया. गणेश हाथी ने वन विभाग के द्वारा पैरों में डाली गई मोटी मोटी जंजीर तोड़ डाली. ऐसा शक्तिशाली युवा गणेश विगत दिनों रहस्यमय ढंग से मर जाता है तो प्रश्न उठना लाजमी है कि आखिर गणेश की मृत्यु क्यों और कैसे हो गई? यह मामला दबा ही रह जाता अगर कुछ वन्य प्राणी अधिकारों के लिए लड़ने वाले संवेदनशील लोग हल्ला बोल नहीं करते. अब स्थिति यह है कि छत्तीसगढ़ की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा ने गणेश हाथी को लेकर सवाल उठाया है, जिससे भूपेश सरकार हाशिए में आ गई है .

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नेता प्रतिपक्ष कौशिक आए सामने

‘गणेश’ हाथी की संदेहास्पद मौत पर छत्तीसगढ़ की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा के, नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने कहा है, ‘यह मरा नहीं, मारा गया है, वन अमले ने लिया है बदला’

भाजपा के बड़े नेता और कभी विधानसभा अध्यक्ष रहे वर्तमान में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने जांच करके दोषी अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज करने  की मांग उठाई है. परिणाम स्वरूप कांग्रेस मीडिया विभाग के अध्यक्ष शैलेष नितिन त्रिवेदी ने जैसा कि होता है सरकार का बचाव किया है.

घटना छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिला के धरमजयगढ़ वन मंडल के अंतर्गत घटित हुई है. भाजपा नेता के आरोप के बाद गणेश हाथी की मौत  ने तूल पकड़ लिया है. बीजेपी नेता ने अपने आरोप में कहा है कि यह हाथी मरा नहीं है, बल्कि उसे मारा गया है. वन विभाग को पहले से ही पता था कि यह हाथी गणेश ही है.

नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने कहा है कि वन विभाग ने हाथी से बदला लिया है! उन्होंने कठोर शब्दों का उपयोग करते हुए कहा है-” हाथी की हत्या पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए. केवल अधिकारियों का ट्रांसफर कर खानापूर्ति नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसके जिम्मेदार लोगों पर एफआईआर दर्ज कर उच्च स्तरीय जांच किए जाने की जरूरत है.”

हाथियों की मौत क्या संयोग है??

वनांचल से परिपूर्ण छत्तीसगढ़ मे विगत विगत दस दिनों में छह हाथियों की रहस्यमयी मौत हो गई है. रायगढ़ जिला की धरमजयगढ़ में  18जून को देश के सबसे खतरनाक माने जाने वाले युवा गणेश हाथी की मौत हो गई. वन विभाग के अधिकारियों ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट के आधार पर बताया कि मौत की वजह करंट लगना है.

जब घटना के साक्ष्य  धरमलाल कौशिक तक पहुंचे तो उन्होंने 22 जून को हाथियों की मौत पर बयान देते हुए कहा -” हाथियों की लगातार हो रही मौत सरकार पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है. राज्य में जानबूझकर हाथियों को मारा जा रहा है. किसके इशारे पर यह किया जा रहा है? हाथियों को क्यों मारा जा रहा है? इसका जवाब सरकार ही दे पाएगी. सरकार ने अधिकारियों का ट्रांसफर कर खानापूर्ति कर दिया, जबकि कार्ऱवाई उसे कहते हैं, जहां ऐसे गंभीर कृत्यों पर नीचे से ऊपर तक जिम्मेदारों पर एफआईआर दर्ज किया जाए.”

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इस सख्त बयान के बाद कांग्रेस मीडिया विभाग के प्रमुख शैलेष नितिन त्रिवेदी ने नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक के बयान पर  कहा है कि सनसनीखेज बयान देना ठीक नहीं है, उनका बयान गरिमा के अनुरूप नहीं है. धरमलाल कौशिक बीजेपी के वरिष्ठ नेता हैं, नेता प्रतिपक्ष हैं, लेकिन उन्होंने अपने बयानों में कोई तथ्य पेश नहीं किया है. गणेश हाथी 18 आदिवासियों ग्रामीणों की मौत का जिम्मेदार था उसकी मौत के बाद सरकार ने जिम्मेदार लोगों को हटा दिया है. उन्होंने कहा है हाथियों की मौत की जांच सरकार करा रही है. त्रिवेदी ने भूपेश सरकार का बचाव करते हुए कहा बीजेपी शासन काल में जब से झारखंड और ओडिशा में माइनिंग खुली है, तब से वहां के हाथी छत्तीसगढ़ की ओर विचरण करने लगे हैं. यह हाथी अब आरंग, बारनावापारा के जंगलों तक पहुंच गए हैं. इससे मैन- एलीफेंट कानफ्लिक्ट की स्थिति बन गई है. सरकार ने हाथियों की बसाहट के लिए लेमरू अभ्यारण्य का प्रस्ताव बना लिया है.

एससीबीसी के निकम्मे नेता

अव्वल तो वे अपनी पैदाइश से ही सब से पीछे रहते हैं, लेकिन लौकडाउन के 70 दिनों में देशभर के बीसीएससी (बैकवर्ड व शैड्यूल कास्ट) 70 साल पीछे पहुंच गए हैं, क्योंकि सब से ज्यादा रोजगार इन्हीं से छिना है और इसी तबके के लोगों ने लौकडाउन के दौरान सब से ज्यादा कहर और मुसीबतें झेली हैं.

भूखेप्यासे और गरमी से बेहाल बीसीएससी वाले, जिन्हें सरकारी और सामाजिक तौर पर गरीब कह कर अपनी जिम्मेदारियों से केंद्र और राज्य सरकारों ने पल्ला झाड़ लिया, वे मवेशियों से भी बदतर हालत में सैकड़ोंहजारों मील पैदल भागते रहे, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगनी थी, सो नहीं रेंगी.

जूं रेंगती भी क्यों और कैसे, क्योंकि इन के नेता तो अपने आलीशान एयरकंडीशंड घरों में बैठे काजूकिशमिश चबाते टैलीविजन पर दूसरों के साथ इस भागादौड़ी का तमाशा देख रहे थे. अपनों की हालत देख कर इन का भी दिल नहीं पसीजा तो गैरों को कोसने की कोई वजह समझ नहीं आती, जिन्होंने वही सुलूक किया जो सदियों से करते आए हैं. फर्क इतनाभर रहा कि इस बार उन के पास कोरोना नाम की छूत की बीमारी का बहाना था.

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इक्कादुक्का छोड़ कर देश के किसी बीसीएससी नेता के मुंह से अपने तबके के लोगों के लिए हमदर्दी और हिमायत के दो बोल भी नहीं फूटे.

जिन्हें प्रवासी मजदूर के खिताब से नवाज दिया गया है, उन में से 90 फीसदी बीसीएससी और मुसलमान हैं, ऊंची जाति वालों की तादाद तकरीबन 10 फीसदी है. लेकिन चूंकि केंद्र सरकार और मीडिया दोनों ने इन्हें गरीब कहना शुरू कर दिया था, इसलिए किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया और न जाने दिया गया कि दरअसल भाग रहे ये लोग वे बीसीएससी हैं जिन्हें धार्मिक किताबों में शूद्र और अछूत करार दिया गया है. इन पर खुलेआम जुल्मोसितम ढाने की बातें धर्म की किताबों में बारबार कही गई हैं और कई जगह तो इस तरह की गई हैं मानो इन पर जुल्म न करना दुनिया का सब से बड़ा पाप है.

लौकडाउन में जो जुल्म इन पर किए गए, वे रोजमर्रा के जुल्मों से कम नहीं थे, लेकिन चालाकी यह रही कि कोई खुल कर यह आरोप सीधे ऊंची जाति वालों पर नहीं लगा सका, क्योंकि उन्होंने इस बार न तो किसी बीसीएससी हिंदू को कुएं से पानी भरने से रोका था और न किसी दलित दूल्हे को घोड़ी पर सवार होने पर कूटा था, न ही किसी को मंदिर में दाखिल होने और धर्मकर्म के नाम पर पीटा था.

मुंह मोड़ा मायावती ने

सरकार ने किया कम ढिंढोरा ज्यादा पीटा, पर खुद बीसीएससी के नेता क्या कर रहे थे और बीसीएससी के साथ जो ज्यादातियां हुईं, उन पर खामोश क्यों रहे? इस सवाल का जवाब साफ है कि इन्हें वोट लेने और कुरसी हासिल करने के लिए ही अपने लोगों की सुध आती है. इस के बाद बीसीएससी को उन के हाल पर छोड़ दिया जाता है.

इस की सब से बड़ी मिसाल दलितों की सब से बड़ी नेता मानी जाने वाली बसपा प्रमुख मायावती हैं, जिन की भाजपा से बढ़ती नजदीकियां किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई हैं.

देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से सब से बड़ी तादाद में बीसीएससी तबका पेट पालने के लिए दूसरे राज्यों का रुख करता है, जो कभी बसपा का वोट बैंक हुआ करता था, लेकिन बाद में उस से धीरेधीरे कट कर वह दूसरी पार्टियों को वोट करने लगा. इन में भी भाजपा का नाम सब से ऊपर आता है.

यहां गौरतलब है कि बसपा के संस्थापक कांशीराम ने सवर्णों और उन के जुल्मों के खिलाफ ‘तिलक, तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार’ का नारा दिया था. इसी नारे के चलते बीसीएससी का भरोसा बसपा पर कायम हुआ था और वे नीले झंडे के तले इकट्ठा होने लगे थे.

मायावती इन को एकजुट नहीं रख पाईं. अपने मुख्यमंत्री रहते उन्होंने बीसीएससी के रोजगार या भले के लिए कुछ नहीं किया, इसलिए उत्तर प्रदेश से ये लोग रोजीरोटी की तलाश में बदस्तूर बाहरी राज्यों में जाते रहे.

इस ओर ऐसी कई बातों का फर्क यह पड़ा कि बसपा उत्तर प्रदेश में कमजोर पड़ती गई और जितनी कमजोर पड़ी उतनी ही भाजपा मजबूत होती गई. एक वक्त तो ऐसा भी आया कि मायावती ने भगवा गैंग के सामने घुटने टेक दिए और आज भी हालत यही है.

इस का एहसास जून के दूसरे हफ्ते में भी हुआ, जब जौनपुर और आजमगढ़ में बीसीएससी के लोगों पर हुए जोरजुल्म पर उन्होंने यह कहते हुए अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मान ली कि सरकार फौरन कुसूरवारों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करे.

योगी सरकार ने कार्यवाही कर दी तो 12 जून को मायावती ने योगी और उन की सरकार की फुरती की भी तारीफ कर डाली. ऐसा लगा मानो आदित्यनाथ ने कोई एहसान पीडि़तों पर कर दिया हो और वे मायावती के कहने का ही इंतजार कर रहे थे.

लगता ऐसा भी है कि यह सब सियासी फिक्सिंग है, जिस में आदित्यनाथ और मायावती एकदूसरे की इमेज चमका रहे हैं. दरअसल, इस फिक्सिंग की तह में मायावती की अकूत दौलत है, जो उन्होंने बीसीएससी वोटों का सौदा कर के बनाई है. 18 जुलाई, 2019 को मायावती के मायावी चेहरे का एक घिनौना सच उस वक्त उजागर हुआ था, जब इनकम टैक्स विभाग ने उन के भाई आनंद कुमार का एक प्लाट जब्त किया था, जिस की कीमत 400 करोड़ थी. जब्ती की कार्यवाही बेनामी संपत्ति लेनदेन निषेध अधिनियम 1988 की धारा 24 (3) के तहत की गई थी, जिस में कुसूरवार को 7 साल की कैद की सजा व जायदाद की बाजारी कीमत के हिसाब से 25 फीसदी जुर्माने का इंतजाम है.

फिर जो सच सामने आया उस के मुताबिक नोएडा के इस बेशकीमती प्लाट के अलावा आनंद कुमार, उन की पत्नी यानी मायावती की भाभी विचित्रलेखा के पास तकरीबन 1,316 करोड़ रुपए की जायदाद है.

आनंद कुमार कभी नोएडा अथौरिटी में क्लर्क हुआ करता था, फिर वह रातोंरात खरबपति कैसे बन गया? इस सवाल का जवाब भी आईने की तरह साफ है कि 2007 से ले कर 2012 तक मायावती के मुख्यमंत्री रहते इन भाईबहन ने जम कर घोटाले और भ्रष्टाचार कर तबीयत से चांदी काटी.

आनंद कुमार ने अपनी पत्नी विचित्रलेखा के नाम से तकरीबन 49 फर्जी कंपनियां बना रखी थीं, जिन के जरीए वह चारसौबीसी कर जमीनें खरीदता था. नोएडा वाले प्लाट को, जो सैक्टर-94 में है, साल 2011 में महज 6 करोड़ रुपए में उस ने खरीदा था. इस के बाद एक बोगस कंपनी की तरफ से इस का 400 करोड़ रुपए का भुगतान शेयर प्रीमियम की बिना पर किया गया था.

जब इनकम टैक्स विभाग ने आनंद कुमार से इस बाबत पूछा तो उस ने कोई साफ जवाब नहीं दिया था कि यह पैसा आखिर किस का है, इसलिए इसे बेनामी जायदाद मान लिया गया था.

इस के पहले आनंद कुमार तब भी सुर्खियों में आया था, जब नोटबंदी के तुरंत बाद उस ने अपने बैंक खाते में नकद 1 करोड़, 43 लाख रुपए जमा किए थे.

यह और ऐसी कई जायदादें मायावती ने फर्जीवाड़ा करते हुए बनाईं लेकिन अब इन मामलों के कहीं अतेपते नहीं हैं, तो इस की वजह साफ है कि मायावती ने जेल जाने से बचने के लिए मोदीशाह और योगी की तिकड़ी से कांशीराम की मुहिम और बीसीएससी वोटों का सौदा कर डाला है.

विधानसभा और लोकसभा चुनाव के टिकटों की नीलामी के आरोप भी मायावती पर लगते रहे हैं. इस का खुलासा 1 अगस्त, 2019 को खुलेआम एक प्रोग्राम में राजस्थान के बसपा विधायक राजेंद्र गुढ़ा ने यह कहते हुए किया था कि बसपा में टिकट उस को ही दिया जाता है, जो ज्यादा पैसे देता है और अगर कोई उस से बड़ी रकम देने को तैयार हो जाए तो पहले वाले को दरकिनार करते हुए दूसरे को उम्मीदवार बना दिया जाता है.

टिकट बिक्री से मायावती ने कितनी माया एससी वोटरों के समर्थन को बेच कर बनाई, इस का और दूसरे घपलेघोटालों का जिक्र अब कोई नहीं करता क्योंकि फाइलें दबाए रखने के एवज में वे बिक चुकी हैं. कहा तो यह भी जाता है कि जितनी दौलत अकेली मायावती और उन के सगे वालों के पास है, उस का 10वां हिस्सा भी उत्तर प्रदेश क्या हिंदीभाषी राज्यों के तकरीबन

10 करोड़ एससी तबके की कुल जमीनजायदाद मिलाने के बाद भी नहीं है. दौलत की इस हवस का खमियाजा बेचारा बीसीएससी भुगत रहा है, जिस की लौकडाउन के दौरान बदहवासी सभी ने देखी.

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लौकडाउन का समय मायावती के लिए अपनी खोई साख और समर्थन दोबारा हासिल करने का अच्छा मौका था, लेकिन वे पूरे वक्त भाजपा के सुर में सुर मिलाती नजर आईं. जब कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मजदूरों के लिए एक हजार बसों का इंतजाम किया, तब भी मायावती मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ खड़ी थीं. इस पर झल्लाई कांग्रेस ने उन्हें भाजपा का प्रवक्ता तक कह दिया था.

सियासी पंडितों की यह राय माने रखती है कि सियासी वजूद बनाए और बचाए रखने के लिए मायावती अपना बचाखुचा वोट बैंक नहीं खोना चाहती हैं और उन्होंने एससी तबके की कई जातियों की जानबूझ कर इतनी अनदेखी कर दी कि वे भाजपा से जा मिले.

माहिरों की राय में यह भाजपा को सत्ता में बनाए रखने और अपनी दौलत बचाए रखने का एक सौदा है, जो बसपा के दरवाजे ब्राह्मणों के लिए खुलने के बाद से परवान चढ़ा.

अफसोस तो उस वक्त हुआ, जब मायावती लौकडाउन के वक्त में बीसीएससी के हक में न कुछ बोलीं और न ही कर पाईं. 14 अप्रैल को ‘अंबेडकर जयंती’ के दिन ही उन्होंने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों पर मजदूरों की अनदेखी का इलजाम लगाया और एक बात, जो सभी जानते हैं, कह दी कि आज भी जातिवादी सोच नहीं बदली है.

इस दिन भी उन का मकसद बीसीएससी के हक में दिखावे का ज्यादा था, नहीं तो वे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को कोसती नजर आईं कि उन्होंने एससी तबके को लालच दे कर उन के वोट तो ले लिए, लेकिन लौकडाउन में उन्हें भागने से नहीं रोका. यानी उन्हें तकलीफ एससी तबके द्वारा बसपा को दिल्ली में भी नकारे जाने की थी.

उन्होंने यह नहीं सोचा कि खुद इस तबके के लिए ऐसा क्या कारनामा कर दिखाया है, जिस के चलते वे लोग उन की आरती उतारते रहें और पैदल चलने वाले कांवडि़यों पर हैलीकौप्टर से फूलों की बरसात करवाने वाले योगी आदित्यनाथ ने दलित मजदूरों को उत्तर प्रदेश लाने के लिए कहां के हवाईजहाज उड़वा दिए थे, जो वे उन का बचाव करती रहीं, जबकि इस बाबत और जौनपुर व आजमगढ़ के मामलों पर तो उन्हें सब से ज्यादा हमलावर उन्हीं पर होना चाहिए था.

साफ दिख रहा है कि मायावती अब कहने भर की बीसीएससी नेता रह गई हैं, जिन्होंने लौकडाउन में उन के लिए न तो खुद कुछ किया और जो नेता थोड़ाबहुत कर रहे थे, उन्हें भी नहीं करने दिया.

गलतियां अखिलेश की

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव लौकडाउन के दूसरे दिन से ही भाजपा पर हमलावर रहे कि सरकार मजदूरों के लिए कुछ नहीं कर रही है, बेरोजगार नौजवान खुदकुशी कर रहे हैं, सरकार कोरोना पीडि़तों को 10-10 लाख रुपए दे और उत्तर प्रदेश योगी राज में लगातार बदहाल हो रहा है वगैरह.

अखिलेश यादव ने कुछ ऐसे मामलों का भी जिक्र किया, जिन में मजदूरों को अपने घर की औरतों के गहने तक बेचने पड़े थे. उन की सब से अहम घोषणा यह थी कि उत्तर प्रदेश में किसी भी मजदूर की मौत पर सपा एक लाख रुपए का मुआवजा देगी. 19 मई को की गई इस घोषणा के बाद 15 जून तक ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया था, जिस में सपा ने कोई मुआवजा किसी मजदूर को दिया हो. सपा कार्यकर्ताओं पर भी अपने मुखिया की इस अपील का कोई असर नहीं पड़ा कि वे गरीब मजदूरों की मदद करें.

विदेश में पढ़ेलिखे अखिलेश यादव को अपने पिता मुलायम सिंह की तरह जमीनी राजनीति का कोई खास तजरबा नहीं है कि जो मजदूर बाहर पेट पालने जाते हैं, उन में से तकरीबन 30 फीसदी उन पिछड़ी जातियों के होते हैं, जिन के दम पर यादव कुनबे की सियासत परवान चढ़ी थी.

अपनी जवानी के दिनों में मुलायम सिंह यादव बसपा संस्थापक कांशीराम की तरह साइकिल से गांवगांव घूम कर बीसीएससी वालों की सुध लेते हुए उन के दुखदर्द साझा करते थे, इसलिए उन्हें दोनों तबकों का सपोर्ट मिलता रहा था. लेकिन अखिलेश यादव अब सिर्फ पैसे वाले पिछड़ों की राजनीति कर मायावती की तरह ही भाजपा को फायदा पहुंचा रहे हैं. उन की रोज की बयानबाजी कोई रंग नहीं खिलाने वाली, क्योंकि कभी मजदूरों के तलवों के छालों पर मरहम लगाने या उन के कंधे पर हाथ रखने के लिए वे खुद नहीं गए.

सुस्ताते रहे आजाद

चंद्रशेखर आजाद रावण एससी राजनीति में तेजी से उभरता नाम है, जिस से इस समाज को काफी उम्मीदें हैं. इस में कोई शक नहीं है कि नौजवान चंद्रशेखर मायावती के लिए बड़ा सिरदर्द और चुनौती बन चुके हैं, इसलिए कांग्रेस उन पर डोरे भी डाल रही?है, लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि ये उन गलतियों को नहीं दोहरा रहे हैं, जिन के चलते मायावती को एससी तबके ने दिलोदिमाग से उखाड़ फेंका है और एससी ने उन्हें हाथोंहाथ लेना शुरू कर दिया है. इस में भी कोई शक नहीं है कि चंद्रशेखर की ट्रेन अभी छूटी नहीं है, लेकिन लौकडाउन में एससी मजदूर जब कराह रहे थे, तब वे घर में बैठे सुस्ता रहे थे.

अपनी अलग आजाद समाज पार्टी बना चुके भीम आर्मी के इस मुखिया ने लौकडाउन के दिनों में दलितों के लिए कुछ करना तो दूर की बात है, उन से हमदर्दी जताते दो बोल भी नहीं बोले, जिस से एससी मजदूरों को यह लगता कि कोई तो उन के साथ है. कहने को तो भीम आर्मी एससी नौजवानों की फौज?है, जिस ने लौकडाउन में किसी भूखे को रोटी या प्यासे को पानी नहीं दिया, उलटे उस के रंगरूट 13 मई को बिहार के किशनगंज में अपने ही समुदाय के उन लोगों को मारते नजर आए, जो पूजापाठ करने जा रहे थे.

बिलाशक पूजापाठ कोरोना से भी ज्यादा घातक छूत की बीमारी है, जिस की गिरफ्त में एससी तबके को आने से बचना चाहिए, लेकिन मंदिरों में तोड़फोड़ करने से और शिवलिंग के बजाय भीमराव अंबेडकर के पूजनपाठ से एससी तबके का कोई भला होगा या उन में जागरूकता आएगी, इस से इत्तिफाक रखने की कोई वजह नहीं है.

होना तो यह चाहिए था कि एससी तबके की परेशानी के दिनों में चंद्रशेखर और उन की आर्मी दलितों की मदद करती नजर आती. नेतागीरी चमकाने के लिए जरूरी यह भी है कि चंद्रशेखर परेशान हाल एससी के भले के लिए कुछ करते बजाय किसी दलित सैनिक को शहीद का दर्जा दिलाने के लिए बवंडर मचाते. इस से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला.

ये भी गरजे, पर…

भारतीय रिपब्लिकन पार्टी बहुजन महासंघ के अध्यक्ष प्रकाश अंबेडकर को पूरे फख्र से खुद को संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर का पोता कहलाने का हक है. पेशे से वकील प्रकाश अंबेडकर लौकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर खूब गरजे कि सरकार की गलती से हजारों लोगों की जानें गई हैं. लिहाजा, नरेंद्र मोदी पर धारा 302 के तहत हत्या का मामला दर्ज होना चािहए.

उन्होंने सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि उस ने विदेशों से अमीरों के साथसाथ कोरोना आने देने का गुनाह किया है. बकौल प्रकाश अंबेडकर, अगर मजदूरों को वक्त रहते घर भेज दिया जाता तो वे भुखमरी से बच जाते.

देखा जाए तो उन्होंने गलत कुछ नहीं कहा, लेकिन हकीकत में उन्होंने या उन की पार्टी ने भी मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया, दूसरे वे अब मार्क्सवादी किस्म की राजनीति करते हुए मजदूरों को दलित कहने से ही परहेज करने लगे हैं मानो उन के साथ धार्मिक भेदभाव और जाति की बिना पर जुल्म खत्म हो गए हों, जबकि हकीकत उन के ही 9 जून को दिए एक बयान ने उजागर कर दी.

इस दिन प्रकाश अंबेडकर ने नागपुर की तहसील नरखेड़ के गांव पिम्पलधारा के एक एससी कार्यकर्ता अरविंद बसोड़ की संदिग्ध मौत की सीबीआई जांच की मांग की. यह मांग भी उन्होंने ट्वीट के जरीए की, वे खुद पिम्पलधारा की हकीकत जानने और विरोध दर्ज कराने नागपुर तक नहीं आए. बीसीएससी के लोगों का इस डिजिटल हमदर्दी से कोई भला होगा, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं.

अस्त होते उदित राज

आजकल कांग्रेसी प्रवक्ता बन गए उदित राज एससी तबके के पढ़ेलिखे और सब से बुद्धिमान नेता माने जाते हैं, जिन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने खेमे में मिला लिया था. 2019 में उन्हें भाजपा ने टिकट नहीं दिया तो वे कांग्रेस में शामिल हो गए.

भाजपा छोड़ते वक्त उन्होंने उसे एससी विरोधी करार देते हुए पानी पीपी कर कोसा था, लेकिन अप्रैलमई के महीने में जब घर भागते एससी भूखप्यास से बेहाल थे, तब उदित राज भी खामोश थे और जो वे बोल रहे थे उस के कोई माने नहीं थे. मसलन यह कि अयोध्या, जहां आलीशान राम मंदिर बन रहा है, वह बौद्ध स्थल था. मायावती की तरह यह जरूर उन्होंने कहा कि लौकडाउन का सब से बुरा असर एससी पर पड़ रहा है और घर लौटने के बाद मजदूर जमींदारों और साहूकारों की गुलामी ढोने के लिए मजबूर हो जाएंगे.

अब तक एससी कोई शाही जिंदगी नहीं जी रहे थे और न ही उदित राज ने उन्हें गुलामी के इस दलदल से बाहर निकालने के लिए कुछ किया, उलटे जब भी मौका मिला अपने एससी होने का फायदा कुरसी के लिए उठाया.

उदित राज जैसे नेताओं को सोचना यह चाहिए कि ब्राह्मणों ने बुद्ध को दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया था और जब वश नहीं चला तो उन्हें अवतार कह कर पूजना शुरू कर दिया था. उस के बाद से पूरा एससी समाज ठोकरें खा रहा है और उस के नेता बौद्ध मंदिरों की बात कर रहे हैं, जिस के अपने अलग पंडेपुजारी होने लगे हैं.

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ऐसी तमाम हकीकत से मुंह मोड़े रहने वाले उदित राज की बीसीएससी के लोगों के लिए खुद कुछ न कर पाने की खीज 12 जून को खुल कर सामने आई, जब उन्होंने फिल्म कलाकार सोनू सूद के किए गए काम पर सवाल उठाते हुए सीबीआई जांच की मांग कर डाली. बकौल उदित राज, सोनू सूद के पीछे कोई और है.

सोनू सूद ने तो सवर्ण होते हुए भी मजदूरों के लिए काफीकुछ कर डाला, लेकिन क्या उदित राज एक मजदूर को भी घर पहुंचा सके? इस सवाल का जवाब वे शायद ही दे पाएं, फिर किस मुंह से वे किसी और के किए को चैलेंज कर रहे हैं?

रामदास आठवले बने भोंपू

महाराष्ट्र के दलित नेता और रिपब्लकिन पार्टी के मुखिया रामदास आठवले इन दिनों भाजपा के भोंपू बने हुए हैं, क्योंकि वह उन्हें केंद्र में मंत्री बनाए हुए है. बजाय यह मानने और कहने के कि न केवल लौकडाउन, बल्कि उस से पहले से भी एससी बदहाल रहे हैं, उन्होंने सरकार की तारीफों में कसीदे गढ़ते हुए झूठ बोलने के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पछाड़ दिया.

बकौल रामदास आठवले, बीसीएससी के लिए मोदी सरकार ने बहुत काम किए हैं. बात खोखली न लगे इसलिए उन्होंने मुद्रा योजना, जनधन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना और उज्ज्वला योजनाओं के नाम गिना दिए.

अगर गरीबों को इन योजनाओं से कुछ मिला होता या मिल रहा होता तो वे रोजीरोटी के जुगाड़ के लिए इधरउधर भागते ही क्यों? इस सवाल का जवाब रामदास आठवले तो क्या एससी तबके का रहनुमा बना कोई नेता नहीं दे सकता.

भोंपू नंबर 2

रामदास आठवले के बाद लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान दूसरे कद्दावर एससी नेता हैं, जिन्हें भाजपा अपनी गोद में बैठाए हुए है. लौकडाउन के दौरान वे भी घर में पड़ेपड़े बहैसियत खाद्य मंत्री बयानबाजी करते रहे कि 8 करोड़ मजदूरों को 2 महीने तक मुफ्त राशन देने में कोई परेशानी नहीं आएगी.

जाहिर है, अप्रैल और मई के महीने में प्रवासी मजदूरों की भूख रामविलास पासवान को भी नजर नहीं आई, इस के पहले कभी आई थी ऐसा कहने की भी कोई वजह नहीं है. निजी तौर पर उन्होंने या उन की पार्टी ने एससी के लिए कुछ नहीं किया, यह जरूर हर किसी को नजर आया.

जिन एससी वोटों की सीढ़ी चढ़ कर रामविलास पासवान सत्ता की छत तक बेटे चिराग पासवान के साथ पहुंचे हैं, उन वोटों की सौदेबाजी उन्होंने बिहार चुनाव सिर पर देख कर फिर शुरू कर दी है. अफसोस वाली बात यह है कि अपनी तरफ से एक दाना भी उन्होंने किसी एससी को नहीं दिया.

भाजपा को मायावती की तरह मजबूती देने वाले रामविलास पासवान 12 जून को आरक्षण के एक मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर भी एक बेतुकी बात यह कह बैठे कि आरक्षण को ले कर अब सभी बीसीएससी दलों को साथ आ जाना चाहिए.

गौरतलब है कि अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को मौलिक अधिकार मानने से इनकार कर दिया है, जिस से आरक्षित तबकों के मन में बैठा यह शक यकीन में बदलता जा रहा है कि भाजपा आरक्षण को खत्म करना चाह रही है.

रामविलास पासवान को कहना तो यह चाहिए था कि सभी बीसीएससी वाले एकजुट हो जाएं और सोचना यह चाहिए था कि अगर बीसीएससी की हिमायती पार्टियां एक होतीं तो इतनी सारी पार्टियां होती ही क्यों?

नहीं दिखे कन्हैया कुमार

पिछड़े तबके के हमदर्द माने जाने वाले नेता कन्हैया कुमार को बेहतर मालूम होगा कि प्रवासी मजदूरों में खासी तादाद छोटी जाति वाले पिछड़ों की भी रहती है. अतिपिछड़ों और एससी की हालत और हैसियत में कोई खास फर्क नहीं होता है. लौकडाउन में जब इस तबके के लोग भी भाग रहे थे, तब कन्हैया कुमार मीडिया वालों को इंटरव्यू देते हुए जबान बघार रहे थे कि जो हो रहा है, गलत है. सोशल मीडिया के जरीए उन्होंने मजदूरों की बदहाली पर चिंता जताई, लेकिन खुद मैदान में जा कर कुछ नहीं किया.

क्यों नहीं किया? इस सवाल का जवाब कतई हैरान नहीं करता, बल्कि एक हकीकत बयां करता है कि बीसीएससी तबका क्यों सदियों से लौकडाउन सरीखी जिंदगी जी रहा है और उस के नेता दौलत और शोहरत मिलते ही अपने ही लोगों के साथ ऊंची जाति वालों जैसा बरताव करने लगते हैं.

इन की हरमुमकिन कोशिश यह रहती है कि बीसीएससी तबका अगर वाकई जागरूक और गैरतमंद हो गया तो इन को अपनी दुकानों के शटर गिराने पड़ जाएंगे, इसलिए बातें बढ़चढ़ कर करो, लेकिन हकीकत में कुछ मत करो, क्योंकि धर्म और उस के ठेकेदारों ने यही इंतजाम कर रखे हैं.

यहां बताए बड़े नेता ही नहीं, बल्कि और भी छोटेबड़े नेता हैं, जो चाहते तो अपनों की मदद कर सकते थे, खासतौर से वे जिन के हाथ में सत्ता थी. इन में एक अहम नाम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का है.

लेकिन वे 84 दिनों तक अपने ही घर में बंद रहते हुए चुनावी जोड़तोड़ और तैयारियों में जुटे रहे. जिन तबकों के वोटों से बिहार में सरकार बनती है, उन के लिए उन्होंने घर से बाहर पैर रखना भी मुनासिब नहीं समझा.

इस पर जब राजद नेता तेजस्वी यादव ने तंज कसा तो जवाब में उन्होंने सफाई दी कि लौकडाउन में सभी को घर रहने की हिदायत थी. यह जवाब उन लाखों मजदूरों के भागने पर उन्हें जाने क्यों नहीं सूझा.

लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष और अपने जमाने के धाकड़ नेता रहे जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, भाजपा सांसद संजय पासवान सहित छेदी पासवान और भोला पासवान ने भी अपने तबके के लोगों की कोई मदद नहीं की.

यही हाल कांग्रेसी खेमे के नामी एससी नेताओं मुकुल वासनिक, पीएल पुनिया, कुमारी शैलजा, मल्लिकार्जुन खडगे और भालचंद्र मुंगेकर का रहा.

भाजपा के दिग्गज एससी नेता थावर चंद्र गहलोत, नरेंद्र जाधव, अर्जनराम मेघवाल और जितेंद्र सोनकर जैसे दर्जनों नेता खुद इतनी हैसियत और कूवत रखते हैं कि अगर एससी के लिए कुछ ठान लेते तो फिल्म हीरो सोनू सूद के हिस्से की वाहवाही लूट सकते थे, लेकिन इन में न तो जज्बा था और न ही जज्बात थे, इसलिए ये इतमीनान से गरीबों के भागते कारवां का गुबार देखते रहे.

तेजी से नाम कमाने वाले पिछड़े तबके के युवा नेता जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल भी मुंह चलाते नजर आए. इन्होंने भी अपने पैरों को तकलीफ  नहीं दी.

यह कहता है धर्म

लौकडाउन के दौरान बीसीएससी की जो बेबसी, बदहाली और उन के ही नेताओं की बेरुखी उजागर हुई, उस का कनैक्शन धार्मिक किताबों में लिखी गई बातों से भी?है जिन के हिसाब से समाज आज भी चलता है.

इन में से कुछेक पर नजर डालें तो बहुत सी बातें साफ हो जाती हैं. ‘मनुस्मृति’ वह धार्मिक किताब है, जिस के मुताबिक हिंदू समाज जीता है और जिस के चलते भगवा गैंग पर यह इलजाम लगता रहता है कि वह मनुवाद थोपना चाहती है और इस के लिए संविधान मिटाने पर भी आमादा है.

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इस में लिखी इन कुछ बातों पर नजर डालें तो तसवीर कुछ यों बनती है :

विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।

शुश्रुषैव तु शुद्रस्य धर्मों नैश्रेयस: पर:।।  (अध्याय 9, श्लोक 333)

यानी शूद्र का धर्म ही वेद के जानने वाले विद्वान, यशस्वी एवं गृहस्थ ब्राह्मणों की सेवा करना है.

शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्योधनसञ्चय:।

शूद्रो हि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव बाधते।। (अध्याय 10, श्लोक 126)

यानी समर्थ होने पर भी शूद्र को धन संचय में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि धनवान हो जाने पर शूद्र ब्राह्मण को कष्ट पहुंचाने लगता है, जिस से उस का और अध:पतन होता है.

उच्छिष्टमन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च।

पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदा:।। (अध्याय 10, श्लोक 122)

यानी शूद्र सेवक को खानेपीने से बचा अन्न, पुराने वस्त्र, बिछाने के  लिए धान का पुआल और पुराने बरतन देने चाहिए.

विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीर्त्यते।

यदतोऽन्यद्धि कुरुते तद्भवत्यस्य निष्फलम्।। (अध्याय 10, श्लोक 120)

यानी ब्राह्मणों की सेवा करना शूद्र के सभी कर्मानुष्ठानों से अतिविशिष्ट कार्य है. इस के अतिरिक्त शूद्र जोकुछ भी करता है, वह सब निष्फल होता है.

ऐसी कई हिदायतों से धार्मिक किताबें भरी पड़ी हैं, जिन में ऊपर लिखी बातों का तरहतरह से दोहराव भर है कि शूद्र ऊंची जाति वालों खासतौर से ब्राह्मणों की सेवा करने के लिए ही ब्रह्मा के पैर से पैदा हुआ है. उसे पैसा इकट्ठा करने का हक नहीं है. उसे सजधज कर रहने यानी साफसुथरे रहने का भी हक नहीं है और न ही खुश होने का हक है. हिदायतें तो ये भी हैं कि जो शूद्र इन बातों को मानने से इनकार करे, वह सजा का हकदार होता है.

अपनी बदहाली दूर न कर पाने वाले बीसीएससी तबके को यह लगने लगा है कि भगवान का पूजापाठ करो, इस से सारे पाप धुल जाएंगे तो उन्होंने अपने मंदिर बना कर धर्मकर्म करना शुरू कर दिया. काली, भैरों और शनि के छोटे मंदिर दलित बस्तियों में इफरात से बन गए हैं लेकिन दलितों की हालत ज्यों की त्यों है, उलटे उन्हें भी मंदिर में पूजापाठ करने और दानदक्षिणा की लत लग गई है, जिस से वे और गरीब हो रहे हैं.

सवर्णों की मोहताजी

ज्यादतियों और भेदभाव वाली इन्हीं धार्मिक किताबों का विरोध करते कुछ पढ़ेलिखे दलित अपने तबके के नेता तो बन जाते हैं, लेकिन जब उन्हें दौलत और शोहरत मिलने लगती हैं, तो वे उन्हें बनाए रखने के लिए कहने भर को विरोध करते हैं.

ऊंची जाति वाले भी इन्हें गले लगाने लगते हैं, जिस से बड़ी तादाद में बीसीएससी वाले धर्म की हकीकत न समझने लगें. इस से उन्हें लगता है कि वे वाकई छोटी जाति में पैदा होने की सजा भुगत रहे हैं, क्योंकि वे पैदाइशी पापी हैं और जब तक ये पाप धुल नहीं जाएंगे, तब तक उन की हालत नहीं सुधर सकती.

इतना सोचते ही वे अपनी बदहाली को किस्मत मानते हुए तरक्की के लिए हाथपैर मारना बंद कर देते हैं. यही ऊंची जाति वाले चाहते हैं कि बीसीएससी का कभी अपनेआप पर भरोसा न बढ़े, नहीं तो वे गुलामी ढोने से मना करने लगेंगे, इसीलिए उन्हें तरहतरह से बारबार यह एहसास कराया जाता है कि तुम तो दलित हो, तुम्हारे बस का कुछ नहीं. और जब इस साजिश में गाहेबगाहे बीसीएससी नेता भी शामिल हो जाते हैं, तो उन का काम और भी आसान हो जाता है.

गांवदेहात में ऊंची जाति वाले दबंगों के कहर से तो इन्हें शहर जा कर छुटकारा मिल जाता है, लेकिन वे यह नहीं समझ पाते हैं कि जिस की नौकरी वे कर रहे हैं, वह दरअसल में कोई ऊंची जाति वाला ही है. फर्क इतना भर आया है कि खेतों की जगह कारखानों और फैक्टरियों ने ले ली है और जो इन का मालिक है, उस ने धोतीकुरता और जनेऊ की जगह सूटबूट और टाई जैसे शहरी कपड़े पहन लिए हैं.

लौकडाउन में यह बात गौर करने लायक थी कि भाग रहे बीसीएससी को जो थोड़ाबहुत खाना और दूसरी इमदाद मिली, वह सवर्णों ने ही दी थी. इन में से मुमकिन है कि कुछ की मंशा पाकसाफ रही हो, पर हकीकत में इस से मैसेज यही गया कि यह तबका अभी इतना ताकतवर नहीं हो पाया है कि अपने ही तबके के लोगों की मुसीबत के वक्त में मदद कर सके.

दलित नेताओं की पोल तो लौकडाउन में खुली ही, लेकिन खुद बीसीएससी की बेचारगी भी किसी से छिपी नहीं रह सकी.

गहरी पैठ

देशभर से करोड़ों मजदूर जो दूसरे शहरों में काम कर रहे थे कोरोना की वजह से पैदल, बसों, ट्रकों, ट्रैक्टरों, साइकिलों, ट्रेनों में सैकड़ों से हजारों किलोमीटर चल कर अपने घर पहुंचे हैं. इन में ज्यादातर बीसीएससी हैं जो इस समाज में धर्म की वजह से हमेशा दुत्कारेफटकारे जाते रहे हैं. इस देश की ऊंची जातियां इन्हीं के बल पर चलती हैं. इस का नमूना इन के लौटने के तुरंत बाद दिखने लगा, जब कुछ लोग बसों को भेज कर इन्हें वापस बुलाने लगे और लौटने पर हार से स्वागत करते दिखे.

देश का बीसीएससी समाज जाति व्यवस्था का शिकार रहा है. बारबार उन्हें समझाया गया है कि वे पिछले जन्मों के पापों की वजह से नीची जाति में पैदा हुए हैं और अगर ऊंचों की सेवा करेंगे तो उन्हें अगले जन्म में फल मिलेगा. ऊंची जातियां जो धर्म के पाखंड को मानने का नाटक करती हैं उस का मतलब सिर्फ यह समझाना होता है कि देखो हम तो ऊंचे जन्म में पैदा हो कर भगवान का पूजापाठ कर सकते हैं और इसीलिए सुख पा रहे हैं.

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अब कोरोना ने बताया है कि यह सेवा भी न भगवान की दी हुई है, न जाति का सुख. यह तो धार्मिक चालबाजी है. ऐसा ही यूएन व अमेरिका के गोरों ने किया था. उन्होंने बाइबिल का सहारा ले कर गुलामों को मन से गोरों का हुक्म मानने को तैयार कर लिया था. जैसे हमारे बीसीएससी अपने गांव तक नहीं छोड़ सकते थे वैसे ही काले भी यूरोप, अमेरिका में बिना मालिक के अकेले नहीं घूम सकते थे. अगर अमेरिका में कालों पर और भारत में बीसीएससी पर आज भी जुल्म ढाए जाते हैं तो इस तरह के बिना लिखे कानूनों की वजह से. हमारे देश की पुलिस इन के साथ उसी वहशीपन के साथ बरताव करती है जैसी अमेरिका की गोरी पुलिस कालों के साथ करती है.

कोरोना ने मौका दिया है कि ऊंची जातियों को अपने काम खुद करने का पूरा एहसास हो. आज बहुत से वे काम जो पहले बीसीएससी ही करते थे, ऊंची जातियां कर रही हैं. अगर बीसीएससी अपने काम का सही मुआवजा और समाज में सही इज्जत और बराबरी चाहते हैं तो उन्हें कोरोना के मौके को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए.

कोरोना की वजह से आज करोड़ों थोड़ा पढ़ेलिखे, थोड़ा हुनर वाले लोग, थोड़ी शहरी समझ वाले बीसीएससी लोग गांवों में पहुंच गए हैं. ये चाहें तो गांवों में सदियों से चल रहे भेदभाव के बरताव को खत्म कर सकते हैं. इस के लिए किसी जुलूस, नारों की जरूरत नहीं. इस के लिए बस जो सही है वही मांगने की जरूरत है. इस के लिए उन्हें उतना ही समझदार होना होगा जितना वे तब होते हैं जब बाजार में कुछ सामान खरीदते या बेचते हैं. उन्हें बस यह तय करना होगा कि वे हांके न जाएं, न ऊंची जातियों के नाम पर, न धर्म के नाम पर, न पूजापाठ के नाम पर, न ‘हम एक हैं’ के नारों के नाम पर.

आज कोई भी देश तभी असल में आगे बढ़ सकता है जब सब को अपने हक मिलें. सरकार ने अपनी मंशा दिखा दी है. यह सरकार खासतौर पर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार व केंद्र की सरकार इन मजदूरों को गाय से भी कम समझती हैं. इतनी गाएं अगर इधर से उधर जातीं तो ये सरकारें रास्ते में खाना खिलातीं, पानी देतीं. मजदूरों को तो इन्होंने टिड्डी दल समझा जिन पर डंडे बरसाए जा सकते हैं. विषैला कैमिकल डाला जा सकता है.

जैसे देश के मुसलमानों को कई बार भगवा अंधभक्त पाकिस्तानी, बंगलादेशी कह कर भलाबुरा कहते हैं, डर है कि कल को नेपाली से दिखने वालों को भी भक्त गालियां बकने लगें. हमारे भक्तों को गालियां कहना पहले ही दिन से सिखा दिया जाता है. कोई लंगड़ा है, कोई चिकना है, कोई लूला है, कोई काला है, कोई भूरा है. हमारे अंधभक्तों की बोली जो अब तक गलियों और चौराहों तक ही रहती थी, अब सोशल मीडिया की वजह से मोबाइलों के जरीए घरघर पहुंचने लगी है.

सदियों से नेपाल के लोग भारतीय समाज का हिस्सा रहे हैं. उस का अलग राजा होते हुए भी नेपाल एक तरह से भारत का हिस्सा था, बस शासन दूसरे के हाथ में था जिस पर दिल्ली का लंबाचौड़ा कंट्रोल न था. अभी हाल तक भारतीय नागरिक नेपाल ऐसे ही घूमनेफिरने जा सकते थे. आतंकवाद की वजह से कुछ रोकटोक हुई थी.

अब नरेंद्र मोदी सरकार जो हरेक को नाराज करने में महारत हासिल कर चुकी है, नेपाल से भी झगड़ने लगी है. नेपाल ने बदले में भारत के कुछ इलाके को नेपाली बता कर एक नक्शा जारी कर दिया है. इन में कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा शामिल हैं जो हमारे उत्तराखंड में हैं.

नेपाल चीन की शह पर कर रहा है, यह साफ दिखता है, पर यह तो हमारी सरकार का काम था, न कि वह नेपाल की सरकार को मना कर रखती. नेपाल की कम्यूनिस्ट पार्टी हमारी भारतीय जनता पार्टी की तरह अपनी संसद का इस्तेमाल दूसरे देशों को नीचा दिखाने के लिए कर रही है.

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दिल्ली और काठमांडू लड़तेभिड़ते रहें, फर्क नहीं पड़ता, पर डर यह है कि सरकार की जान तो उस की भक्त मंडली में है जो न जाने किस दिन नेपाली बोलने वालों या उस जैसे दिखने वालों के खिलाफ मोरचा खोल ले. ये कभी पाकिस्तान के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ बातें करते रहते हैं, कभी उत्तरपूर्व के लोगों को चिंकी कह कर चिढ़ाते हैं, कभी कश्मीरियों को अपनी जायदाद बताने लगते हैं, कभी पत्रकारों के पीछे अपने कपड़े उतार कर पड़ जाते हैं. ये नेपाली लोगों को बैरी मान लें तो बड़ी बात नहीं.

आज देश में बदले का राज चल रहा है. बदला लेने के लिए सरकार भी तैयार है, आम भक्त भी और बदला गुनाहगार से लिया जाए, यह जरूरी नहीं. कश्मीरी आतंकवादी जम्मू में बम फोड़ेंगे तो भक्त दिल्ली में कश्मीरी की दुकान जला सकते हैं. चीन की बीजिंग सरकार लद्दाख में घुसेगी तो चीन की फैक्टरी में बने सामान को बेचने वाली दुकान पर हमला कर सकते हैं.

इन पर न मुकदमे चलते हैं, न ये गिरफ्तार होते हैं. उलटे इन भक्त शैतानी वीरों को पुलिस वाले बचाव के लिए दे दिए जाते हैं. कल यही सब एक और तरह के लोगों के साथ होने लगे तो मुंह न खोलें कि यह क्या हो रहा है!

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भारतमाला परियोजना: बेतरतीब योजनाओं के शिकार किसान

भारतमाता की माला के मोती ही बिखर जाएं वो कैसी भारतमाला? इस पूंजीवादी मॉडल की बेतरतीब योजनाओं में भारत की बुनियाद का तिनकातिनका धरा पर बिखरता जा रहा है. किसान नेमत का नहीं, बल्कि सत्ता की नीयत का मारा है.

भारतमाला परियोजना के तहत बन रही सड़कें किसानों में बगावत के सुर पैदा कर रही है. इस योजना के तहत 6 लेन का एक हाईवे गुजरात के जामनगर से पंजाब के अमृतसर तक बन रहा है, फिर आगे हिमालयी राज्यों तक निर्मित किया जाएगा.

दरअसल बिना ठोस तैयारी के सरकारें योजना तो शुरू कर देती है, मगर बाद में जब इस के दुष्परिणाम सामने आने लगते है तो फिर सरकार सख्ती पर उतरती है और किसान बगावत पर.

जो भूमि अधिग्रहण बिल संसद में पारित किया था, उस के तहत सरकार जमीन का अधिग्रहण करने के बजाय उस मे संशोधन करने पर आमादा है और जब तक संशोधन कर नहीं दिया जाता तब तक इन परियोजनाओं को पूरा करने का सरकार के पास एक ही विकल्प है कि जोरजबरदस्ती के साथ किसानों को दबाया जाएं.

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फरवरी, 2020  में राजस्थान में जालोर के बागोड़ा में किसानों ने इस के खिलाफ स्थायी धरना शुरू किया था. 14 मार्च को इन किसानों ने राजस्थान के सीएम से बात की थी और सीएम ने आश्वस्त किया कि आप की मांगे कानूनन सही है और आप को इंसाफ दिलवाया जाएगा. कोरोना के कारण किसानों ने धरना खत्म कर दिया.

यही काम जालोर से ले कर बीकानेर-हनुमानगढ़ के किसानों ने भी किया था. लॉकडाउन के संकट के बीच किसान तो चुप हो गए,  मगर परियोजना का कार्य कर रही कंपनियों ने जबरदस्ती कब्जा करना शुरू कर दिया.

केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इस परियोजना के संबंध में कहा था कि किसानों को बाजार दर से चार गुना मुआवजा दिया जाएगा. जालोर व बीकानेर के किसान कह रहे है कि हमे मुआवजा 40 से 50 हजार रूपए प्रति बीघा दिया जा रहा है, जब कि बाजार दर 2 लाख रुपये प्रति बीघा है.जिन किसानों ने सहमति पत्र भी नहीं दिया और मुआवजा तक नहीं मिला, उन की भी जमीने जबरदस्ती छीनी जा रही है!

इस योजना का ठेका दो कंपनियों को दिया गया. जामनगर से बाड़मेर तक जो कंपनी यह हाईवे बना रही है, उस को 20 जुलाई तक कार्य पूरा करना है और बाड़मेर से अमृतसर का कार्य जो कंपनी देख रही है, उस को यह कार्य सितंबर 2020 तक पूरा करना है. एक तरफ कंपनियों की समयसीमा है तो दूसरी तरफ किसान है.

समस्या विकास नहीं है, बल्कि असल समस्या बेतरतीब योजनाएं है, गलत नीतियां है, सरकारों की नीयत है.  साल 1951 में भारत की जीडीपी में किसानों का योगदान 57% था और कुल रोजगार का 85% हिस्सा खेती पर निर्भर था.  2011 में जीडीपी में खेती का कुल योगदान 14% रहा और कुल रोजगार का 50% हिस्सा खेती पर निर्भर रहा.

जिस गति से खेती का जीडीपी में योगदान घटा व दूसरे क्षेत्रों ने जगह बनाई, उस हिसाब से रोजगार सृजन नहीं हुए अर्थात खेती घाटे का सौदा बनता गया और खेती पर जो लोग निर्भर थे वो इस सरंचनात्मक बेरोजगारी के शिकार हो गए.

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किसानों के बच्चे कुछ शिक्षित हुए और गांवों से शहरों में रोजगार पाना चाहते थे,  मगर उन को रोजगार मिला नहीं और खुली बेरोजगारी के शिकार हो कर नशे व अपराध की दुनिया में जाने लगे.

भारत की ज्यादातर खेती मानसून पर निर्भर है इसलिए मौसमी बेरोजगारी की मार भी किसानों पर बहुत बुरे तरीके से पड़ी. शहरों में कुछ महीनों के लिए रोजगार तलाशते है और बारिश होती है तो वापिस गांवों में पलायन करना पड़ता है.

किसानों में बेरोजगारी का एक स्वरूप भयानक रूप से नजर आ रहा है, वो छिपी बेरोजगारी है. किसानों के संयुक्त परिवार है और जितने भी लोग है वो खेती पर ही निर्भर है. जहां दो लोगों का काम है वहां 5 लोग खेती में लगे हुए है क्योंकि दूसरी जगह रोजगार मिलता नहीं है.

जब भी किसी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की जाती है तो किसानों में भय का वातावरण फैल जाता है. दूसरी जगह रोजगार मिलता नहीं है व वर्तमान में जिस तरह की वो खेती कर रहे होते है उस के हिसाब से वो कर्ज में दबे हुए ही होते है तो बच्चों को ऐसी तालीम नहीं दिलवा सकते जो कठिन प्रतियोगिताओं में मुकाबला कर सके.

कुल मिलाकर जमीन किसान के जीवनमरण का बिंदु बन जाता है. आग में घी का काम करती है सरकार द्वारा घोषित मुआवजे व पुनर्वास की प्रक्रियाओं को दरकिनार करना. देशभर में किसानों व परियोजना निर्माण में लगी कंपनियों के बीच हमेशा हिंसक झड़पें होती रहती है और आखिर में सरकार सख्ती से कब्जा लेती है और फिर बगावत के सुर शुरू हो जाते है.

किसान नेता अक्सर अपना रोजगार शिफ्ट कर चुके होते है, इसलिए भाषणबाजी के अलावा इन किसानों से उन का सरोकार होता नहीं है. जो नीतियां बनाते है व विधानसभाओं व संसद में पास करते है उन लोगों के पूरे परिवार अपना रोजगार खेती से अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित कर लिया है. ऐसे लग रहा है कि भारत की राजनीतिक जमात की बुनियाद इसी पर टिकी है कि देश के पुरुषार्थ को लूटो और अपने टापू बना लो.

आज कोरोना का संकट है और पूरी दुनिया जूझ रही है. भारत मे इस समय उद्योग/धंधे बंद हो गए. हर तरह का सामान बिकना बंद हो गया, मगर एक बात हम सभी ने गौर से देखी होगी कि सामान सस्ता होने के बजाय महंगा होता गया. कई गुना दाम हो गए मगर अन्न व सब्जियां उसी दर पर मिल रही है क्योंकि इसे किसान पैदा करता है.

आज भी 50% से ज्यादा लोग खेती पर निर्भर है और उन की क्रय शक्ति ही डूबती अर्थव्यवस्था को जिंदा कर सकती है, मगर सत्ता में बैठे लोगों की नीयत देशहित के बजाय निजहित तक सीमित है.  इसलिए देश की बुनियाद बर्बाद करने पर तुले हुए है.

उचित मुआवजा, पुनर्वास जब तक कार्य शुरू करने से पहले नहीं करोगे, तब तक सत्तासीन लोग भविष्य के लिए नागरिक नहीं बगावती तैयार कर रहे है. बंगाल के जलपाई गुड़ी जिले के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में 1967 में कान्हू सान्याल व मजूमदार नाम के दो युवाओं ने भूमि सुधार को ले कर बगावत की थी और आज 14 राज्यों में इसी देश के नागरिक सत्ता के खिलाफ हथियार उठा कर लड़ रहे है.

समस्या को नजरअंदाज कर के सत्ता की  दादागिरी का खामियाजा यह देश पिछले 5 दशक से ज्यादा समय से भुगत रहा है. जब लोकसभा में यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल पारित किया था तब यह समझ जरूर थी कि चाहे विकास की गति धीमी हो मगर ऐसी समस्या देश के सामने भविष्य में निर्मित न हो. अब लगता है कि शाम को टीवी पर भाषण दो और अगली सुबह सबकुछ उसी अनुरूप चलने लगेगा. अक्सर लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता है.

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बीकानेर के किसान आज बहुत परेशान है.सांसद से ले कर विधायक तक सुविधाभोगी है इसलिए अकेले नजर आ रहे है. किसान देश का है मगर किसान का कोई नहीं. अभी तक किसान टूटा नहीं है इसलिए व्यवस्था बदरंग ही सही मगर चल रही है. जिस दिन किसान टूट गए तो समझ लीजिएगा कि देश वापिस देशी एजेंटों के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों जा चुका है.

यह परियोजना मात्र 14 सौ किमी की चमचमाती सड़क नहीं है, बल्कि जहां से गुजरेगी वहाँ के व आसपास के किसानों के सीने में जख्म दे जायेगी जिसे भविष्य में भरा न जा सकेगा.

गहरी पैठ

अपने घर को अपनों ने गिराया है. इस देश की आज जो हालत कोरोना की वजह से हो रही है उस के लिए हमारी सरकार ही नहीं, वे लोग भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने धर्म और जाति को देश की पहली जरूरत समझा और फैसले उसी पर लेने के लिए उकसाया. आज अगर कोरोना के कारण पूरे देश में बेकारी फैल रही है तो इस की जड़ों में ?वे फैसले हैं जो सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी के लिए ही नहीं, बहुत तरीके से छोटेछोटे फैसले भी लिए जिन में धर्म के हुक्म सब से ऊपर थे.

लोगों ने 2014 में अगर सत्ता पलटी तो यह सोच कर कि जो हिंदू की बात करेगा वही राज करेगा तो ही देश सोने की चिडि़या बनेगा. यह देश सोने की चिडि़या केवल तब था जब देश पर कट्टरपंथी हिंदू राज ही नहीं कर रहे थे. 1947 से पहले देश में अंगरेजों का राज था. उस से पहले मुगलों का था. उस से पहले शकों, हूणों, बौद्धों का राज था. हां, घरों पर राज हिंदू सोचसमझ का था और वही देश को आगे बढ़ने से रोकता रहा. 2014 में सोचा गया था कि हिंदू राज मनमाफिक होगा, पर इस ने न केवल सारे मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर दिया, दलित, पिछड़े, औरतें चाहे सवर्णों की क्यों न हों, कमजोर कर दिए गए.

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कोरोना ने तो न सिर्फ जख्मों पर लात मारी है, उन को इस तरह खोल दिया है कि आज सारा देश लहूलुहान है. करीब 6 करोड़ मजदूर शहरों से गांवों की ओर जाने लगे हैं. जो लोग 24 मार्च, 2020 को चल दिए थे उन की छठी इंद्री पहले जग गई थी. उन्होंने देख लिया था कि जिस हिंदू कहर से बचने के लिए वे गांवों से भागे थे वह शहरों में पहुंच गया है. महाराष्ट्र में जो मराठी मानुष का नाम ले कर शिव सेना बिहारियों को बाहर खदेड़ना चाहती थी, वह मराठी लोगों के ऊंचे होने के जिद की वजह से था.

आजादी से पहले भी, पर आजादी के बाद, ज्यादा ऊंची जातियों ने शहरों में डेरे जमाने शुरू किए और अपनी बस्तियां अलग बनानी शुरू कीं. गांवों से तब तक दलितों को निकलने ही नहीं दिया था. काफी राजाओं ने तो दलितों पर इस तरह के टैक्स लगा रखे थे कि एक भी जना भाग जाए तो बाकी सब पर जुर्माना लग जाता था. अब ये लोग गांवों से आजादी पाने के लिए शहरों में आए तो शहरों में मौजूद ऊंची जातियों के लोगों ने इन्हें न रहने की जगह दी, न पानी, न पखाने का इंतजाम किया. ये लोग नालों के पास रहे, पहाडि़यों में रहे, बंजर जमीन पर रहे.

1947 से 2014 तक राजनीति में इन की धमक थी क्योंकि ये पार्टियों के वोट बैंक थे. फिर धार्मिक सोच वालों ने मीडिया, सोशल मीडिया, अखबारों, पुलिस पर कब्जा कर लिया. इन्हीं दलितों, पिछड़ों और इन की औरतों को धार्मिक रंग में रंग दिया और इन्हें लगने लगा कि भगवान के सहारे इन का भाग्य बदलेगा. मुसलमानों को डरा दिया गया और हिंदू दलितों को बहका दिया गया कि उन की नौकरियां उन्हें मिल जाएंगी.

पर हमेशा की तरह सरकारी फैसले गलत हुए. 1947 के बाद भारी टैक्स लगा कर सरकारी कारखाने लगाए गए जिन में पनाह मिली निकम्मे ऊंची जातियों के अफसरों, क्लर्कों, मजदूरों को. वे अमीर होने लगे. सरकारी कारखाने चलाने के लिए टैक्स लगे जो गांवों में भूखे किसानों और उन के मजदूरों के पेट काट कर भरे गए. मरते क्या न करते वे शहरों को भागे.

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शहरों में उन्हें बस जीनेभर लायक पैसे मिले. वे कभी उस तरह अमीर नहीं हो पाए जैसे चीन से गए मजदूर अमेरिका में हुए. जाति का चंगुल ऐसा था कि वह शहरों तक गलीगली में पहुंच गया. गरीबों की झुग्गी बस्तियों में शराब, जुए, बीमारी की वजह से गरीबों की जो थोड़ी बचत थी, लूट ली गई. महाजन शहरों में भी पहुंच गए.

कोरोना ने तो बस अहसास दिलाया है कि शहर उन के काम का नहीं. अगर गांवों में ठाकुरों, उन के कारिंदों की लाठियां थीं तो शहरों में माफियाओं और पुलिस का कहर पनपने लगा. जब नौकरी भी न हो, घर भी न हो, इज्जत भी न हो, आंधीतूफान से बचाव भी न हो तो शहर में रह कर क्या करेंगे?

कोरोना ने तो यही अहसास दिलाया है कि धर्म का ओढ़ना उन्हें इस बीमारी से नहीं बचाएगा क्योंकि वे अमीर जो रातदिन पूजापाठ में लगे रहते हैं, कोरोना से नहीं बच पाए हैं. कोरोना की वजह से धर्म की दुकानें बंद हो गई हैं. चाहे छोटामोटा धर्म का व्यापार घरों में चलता रहे. कोरोना की वजह से ऊंची जातियों की धौंस खत्म हो गई है. शायद इतिहास में पहली बार ऊंची जातियों के लोग निचलों की गुलामी को नकारने को मजबूर हुए हैं कि कहीं वे एक अमीर से दूसरे अमीर तक कोरोना वायरस न ले जाएं. कोरोना इन गरीबों को छू रहा है पर ये उसे ऐसे ही ले जा रहे हैं जैसे कांवडि़ए गंगा जल ले जाते हैं जिसे छूने की मनाही है. कोरोना अमीरों में ही ज्यादा फैल रहा है.

कोरोना ने देश की निचलीपिछड़ी जातियों और ऊंची जातियों की औरतों के काम अब ऊंची जाति वालों को खुद करने को मजबूर किया है. अगर देश में हिंदूहिंदू या हिंदूमुसलिम या आरक्षण खत्म करो, एससीएसटी ऐक्ट खत्म करो की आवाजें जोरजोर से नहीं उठ रही होतीं तो लाखोंकरोड़ों मजदूर अपने गांवों की ओर न भागते. इस शोर ने उन्हें समझा दिया था कि वे शहरों में भी अब बचे हुए नहीं हैं. पुलिस डंडों की मार ये ही लोग खाते रहते हैं. 1,500 किलोमीटर चल रहे इन लोगों को ऊंची जातियों के आदेशों पर किस तरह पुलिस ने रास्ते में पीटा है यह साफ दिखाता है कि देश में अभी ऊंची जातियों का दबदबा कम नहीं हुआ है. गिनती में चाहें ऊंची जातियां कम हों पर उन के पास पैसा है, अक्ल है, लाठियां हैं, बंदूकें हैं, जेलें हैं. जब अंगरेज भारत में थे वे कभी भी 20,000 से ज्यादा गोरी फौज नहीं रख पाए थे, उन्हें जरूरत ही नहीं थी. उन के 1,500 आदमी हिंदुस्तान के 50,000 आदमियों पर भारी पड़ते थे.

देश के दलितों, पिछड़ों, गरीब मजदूरों ने कैसे एकसाथ फैसला कर लिया कि उन की जान तो अब गांवों में बच सकती है, यह अजूबा है. यह असल में एक अच्छी बात है. यह पूरे देश को नया पाठ पढ़ा सकता है. अब शहरों में महंगे मजदूर मिलेंगे तो उन्हें ढंग से ट्रेनिंग दी जाएगी. गांवों में जो शहरी काम करते मजदूर पहुंचे हैं, वे जम कर मेहनत से काम भी करेंगे और अपने को लूटे जाने से भी बचा सकेंगे. गांवों में ऊंची दबंग जातियां तो अब न के बराबर बची हैं. वे काम करेंगी तो इन के साथ.

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कोरोना वायरस दोस्त साबित हो सकता है. शर्त है कि हम धर्म की दुकानों को बंद ही रहने दें. कारखाने खुलें, लूट की पेटियां नहीं.

बंदी के कगार पर मझोले और छोटे कारोबारी

लौकडाउन की वजह से डूबते कारोबारी जगत को अब सरकार से ही राहत की उम्मीद है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके अखिलेश यादव ने कहा कि सरकार को जरूरी एहतियात के साथ कारोबार जगत को पटरी पर लाने के लिए सतर्कता बरतते हुए उपाय करने चाहिए और कारोबारियों की मदद करनी चाहिए.

देश में कारोबार और कारोबारियों की हालत बहुत खराब है. नोटबंदी और जीएसटी की गलत नीतियों से कारोबार जगत उबर भी नहीं पाया था कि कोरोना और लौकडाउन से कारोबार और भी ज्यादा टूट गया और अब यह बंदी के कगार पर पहुंच गया है.

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लखनऊ की युवा कारोबारी रोली सक्सेना ने 3 साल पहले गारमैंट्स का अपना कारोबार शुरू किया था. अपनी छोटी सी दुकान को बड़े शोरूम में बदल दिया था. 40,000 रुपए के किराए पर एक जगह ले कर दुकान शुरू की थी. अचानक नोटबंदी और जीएसटी की वजह से कारोबार में काफी उथलपुथल आ गई.

वे किसी तरह से इन हालात को संभाल रही थीं कि इसी बीच जब कोरोना और लौकडाउन का समय आया, तो कारोबार पूरी तरह बंद हो गया. दुकान के मालिक ने 40,000 रुपए किराए की मांग की. रोली सक्सेना ने किराया देने का तो तय कर लिया, पर यह सोच लिया कि अब वे यह कारोबार नहीं करेंगी.

रोली सक्सेना कहती हैं, ‘‘सरकार कारोबारियों के हालात समझती है. उसे इन की मदद का कोई ऐक्शन प्लान तैयार करना चाहिए, वरना हमारे जैसे न जाने कितने कारोबारी अपना कारोबार बंद कर सड़क पर आ जाएंगे.’’

राहत पैकेज दे सरकार

अखिल भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष संदीप बंसल ने कहा है, ‘‘देश और प्रदेश की सरकार को उन कारोबारियों की चिंता करनी चाहिए, जो मध्यम वर्ग के हैं और जरूरी सेवाओं का कारोबार नहीं करते हैं. ये कारोबारी ऐसी किसी भी सरकारी राहत योजना में भी नहीं आते, जिस से उन को सरकार की मदद मिल सके.

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‘‘होली के समय से ही इन सब का कारोबार नहीं चल रहा है. ये अपने खर्चे और मुलाजिमों की तनख्वाह का इंतजाम तभी कर सकते हैं, जब इन की दुकानें खुलेंगी. जब तक इन कारोबारियों की दुकानें नहीं खुल रही हैं, तब तक ये खुद भुखमरी के कगार पर हैं.

‘‘जो बड़े कारोबारी हैं और सक्षम हैं, वे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री राहत कोष में पैसा दे रहे हैं. तमाम कारोबारी जनता को खाना खिलाने और दूसरी मदद का काम भी कर रहे हैं, इस के बाद भी देश में करोड़ों ऐसे कारोबारी हैं, जो रोज कमाने और खाने वाले हैं.

‘‘सरकार के पास ऐसे कारोबार और उस को करने वाले लोगों के लिए कोई योजना नहीं है. ये कारोबारी अपने कारोबार के बंद होने से परेशान हैं.’’

केंद्र सरकार ने लाखों करोड़ का जो राहत पैकेज दिया है, वह सही हाथों में पहुंचने के बाद ही कारोबारी जगत को उठाने में मदद मिलेगी.

शव-वाहन बना एम्बुलेंस

  • शव-वाहन बना जीवन रक्षक एम्बुलेंस..
  • एम्बुलेंस न मिलने पर शव-वाहन में लाये घायलों को..
  • शव वाहन चालक ने बचाई घायल वृद्धों की जान..
  • सड़क पर पड़े कर रहे थे एम्बुलेंस का इंतज़ार..
  • समय रहते पाहुंचे अस्पताल तो बच गई जान..

कहते हैं कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है और फिर अगर आपका जज्बा आपकी सोच पॉजिटिव हो तो मृत्यु को भी टाला जा सकता है. और बन सकता है मौत का वाहन भी जीवनरक्षक.

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जी हां ऐसा ही कुछ हुआ है मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में जहां एम्बुलेंस ने नहीं शव-वाहन ने लोगों की जानें बचाईं हैं. हमेशा लाशों को ढोने वाले शव-वाहन ने घायलों को समय पर अस्पताल पहुंचाकर उन्हें मौत में मुँह से निकालकर उनकी जान बचाईं हैं.

घायल वृद्ध लक्ष्मणदास और रमेश ने बताया..

मामला छतरपुर शहर सिटी कोतवाली थाना क्षेत्र के राजनगर-खजुराहो रोड का है जहां तेज़ रफ़्तार 2 बाईक सवार आपने-सामने भिड़ गये. जिससे उनमें बैठे 2 वृद्ध गंभीर घायल हो गये जो अचेत अवस्था में सड़क पर पड़े थे उनसे काफी खून बह रहा था. जिन्हें अस्पताल ले जाने के लिए उनके साथी यहां-वहां लोगों से मदद मांग आस्पताल ले जाने की गुहार लगा रहे थे. और लोग भी एम्बुलेंस बुलाने की फिराक में थे तभी राजनगर क्षत्र के प्रतापपुरा गांव में मृतक के शव छोड़कर आ रहा शव-वाहन वहां से गुजरा और उसका चालक गोविंद घायलों को देख रूक गया. और खुद ही घायलों की मदद की बात कही, कि आप लोग मेरे शव-वाहन में इन घायलों को अस्पताल ले चलो क्यों कि एम्बुलेंस को फोन करने और यहां तक आने में 20 से 25 मिनिट लगेंगे, जिससे बेहतर है कि हमारे शव-वाहन में ही इन्हें ले चलो हम 10 से 15 मिनिट में जिला अस्पताल पहुंच जाएंगे और इनका इलाज हो जायेगा और जान बच जायेगी. रूक गये तो बहुत देर हो जायेगी जिससे कुछ भी अनहोनी हो सकती है.

मौजूद लोगों ने ऐसा ही किया शव-वाहन चालक गोविंद की बात मान तत्काल घायलों को शव वाहन में रखवा दिया. जहां घायलों को समय रहते जिला अस्पताल ले जाया गया. और डॉक्टरों ने उनका समय पर ईलाज कर दिया जिससे उनकी जान बच गई.

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मामला चाहे जो भी हो पर इतना तो तय है कि गर समय रहते शव-वाहन ने घायलों को अस्पताल नहीं पहुंचाया होता और वहीं रुककर एम्बुलेंस का इंतज़ार किया होता तो इनकी जानें भी जा सकतीं थीं.

हमेशा मृत लोगों के शवों को लाने ले जाने वाला “शववाहन” इस बार घायलों को अस्पताल लाकर उनका “जीवनरक्षक” वाहन “एम्बुलेंस” बन गया.  इसके लिये प्रसंशा का पात्र शव वाहन का ड्राईवर है.

चीनी सामान का बौयकाट : भक्तो को उकसाने का जरीया

चीनी सामान के बौयकाट के लिये आवाज देना एक साजिश का हिस्सा है. इसके जरीये समय समय पर भक्तों को दुश्मन से लडने के लिये उकसाया जाता है. जिससे भारत की परेशानियों पर बातचीत ना हो सके. कुछ दिन पहले तक चीनी कंपनियों को दावतें दी जा रही थी. एक साल भी नहीं बीता कि अब चीनी कंपनियों के बौयकाट की बात की जा रही है. ऐसा केवल चीन को लेकर ही हो यह सही बात नहीं है. नेपाल के साथ भी यही व्यवहार होता रहता है. दो बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति को भारत बुलाया. उनको भारत यहां घुमाया और यह दिखाने का प्रयास किया कि चीन और भारत के संबंध मजबूत होने से देश को लाभ होगा. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के घर खाना खाने भी प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी गये. उसके बाद पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध खराब हो गये.

केवल देश के बाहर ही नहीं देश के अंदर भी प्रधानमंत्री मोदी की सोच का यही हाल है. कश्मीर में महबूबा मुफ्रती के साथ मिलकर भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाई बाद में कश्मीर में धारा 370 खत्म करने से लेकर उसके विभाजन तक का फैसला ले लिया. व्यवहारिक तौर पर देखा जाये तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के फैसले ऐसे ही होते है. देश की आर्थिक नीतियों को लेकर जीएसटी और नोटबंदी जैसी कामों में भी यही देखा गया कि उनका काम बेहद हडबडी वाला होता है. एक बार जो फैसला हो जाता है उसको ही आगे बढाया जा सकता है. नोटबंदी के समय यह कहा गया कि इससे भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर रोक लगेगी. नोटबंदी की तमाम मुसीबत के बाद भी भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर रोक नहीं लग सकी.

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चीन के राष्ट्रपति का अदभुत स्वागत

चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग अक्टूबर 2019 मे दो दिन के दौरे पर भारत आये थे. उस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मादी ने उनका भव्य स्वागत किया था. दोनो नेताओ की मुलाकात के लिये महाबलीपुरम को चुना गया. तमिलनाडु का महाबलिपुरम समुद्र के किनारे बसा एक खूबसूरत शहर है. महाबलिपुरम का महत्व पल्लव और चोलों के काल में भी बहुत था. यह शहर चीन और दक्षिण एशिया से व्यापार के लिए बड़ा केंद्र था. महाबलीपुरम समुद्र के रास्ते चीन से जुड़ा था. महाबलिपुरम के बंदरगाह से चीनी बंदरगाहों के लिए सामान जाता था. दक्षिण भारतीय समुद्रतटीय महाबलीपुरम शहर में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग और भारत के प्रधानमंत्री की बैठक को इस तरह से दिखाया गया कि इस मुलाकात के बाद दक्षिण पूर्व एशिया और चीन से भारत के व्यापार संबंधों को और मजबूती मिलेगी.

महाबलीपुरम का अपना ऐतिहासिक महत्व भी है. इस शहर को दिखाने के बहाने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी महाभारत काल का वर्णन भी पूरी दुनिया को दिखाना चाहते थे. मीडिया के जरीये दोनो नेताओं की मुलाकात पूरी दुनिया के लोग देख सके इसका पूरा उपाय भी किया गया था. महाबलिपुरम में मुलाकात कम समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग का स्वागत तमिल लिबास में किया. इस दौरान वह वेष्टि यानि सफेद धोती और आधे बाजू वाले सफेद शर्ट पहनी थी और कंधे पर अंगवस्त्रम लिया हुआ था. चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग कैजुएल पोशाक सफेद शर्ट और काले रंग का ट्राउजर पहने थे. दोनों नेताओं ने महाबलीपुरम के मनोरम दृश्यों को देखा इसके अलावा इन दोनो ने महाबलीपुरम में महाभारत कालीन अर्जुन की तपस्या स्थली देखा.

अर्जुन महाभारत काल के एक ऐसे पात्र हैं जिनको सत्ता के अन्याय के खिलाफ भारतीय आध्यात्मिक दर्शन का सबसे दृढ़ लेकिन मानवीय चेहरा माना जाता है. इसी जगह पर अर्जुन ने तपस्या की थी. इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी एक टूरिस्ट गाइड की तरह चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग को सभी चीजों के बार में विस्तार से बता रहे थे. कौन सी आकृति अर्जुन की है कौन सी कृष्ण की और कौन सी युधिष्ठिर और भीम की. ऐसा लग रहा था मानो एक-एक पत्थर की आकृति से प्रधानमंत्री मोदी खुद परिचित हो. महाबलीपुरम में मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अर्जुन तपस्या स्थल के अलावा पंच रथ और शोर मंदिर घुमाया. पंच रथ को ठोस चट्टानों को काटकर बनाया गया है. ये सभी अंखड मंदिर के रूप में मुक्त तौर पर खड़े किए गए हैं. पंच रथ के बीच में एक विशाल हाथी और शेर की प्रतिमाएं भी स्थापित हैं.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को ‘कृष्ण का माखन लड्डू’ दिखाया. ‘कृष्ण का माखन लड्डू’ एक विशाल पत्थर है, जिसकी ऊंचाई 6 मीटर और चैड़ाई करीब 5 मीटर है. इसका वजन 250 टन है. इसी अनोखे गोल पत्थर को कृष्ण के माखन के गोले के नाम से भी जाना जाता है. यहां पर दोनो नेताओं ने तस्वीर भी खिंचाई. मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को लेकर शोर मंदिर भी गये. यह मंदिर यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल की सूची में शामिल है. माना जाता है कि शोर मंदिर सात मंदिरों या सात पैगोडा का हिस्सा है और उनमें से छह समुद्र के नीचे डूबे हुए थे.

पर्यटन स्थलों को घुमाने के बाद मोदी और शी जिनपिंग लोकनृत्य और डिनर का आनंद लिया और एक अच्छे मेजबान की तरह से मेहमान को उपहार भी दिया. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को उपहार में तंजावुर की पेंटिंग और नचियारकोइल-ब्रांच अन्नम लैंप दिया. तंजावुर की पेंटिंग में सरस्वती की तस्वीर खींची गई है. इस पेंटिंग को बी लोगनाथन ने तैयार किया है. इसको तैयार करने में 45 दिन का समय लगा. वहीं, नचियारकोइल-ब्रांच अन्नम लैंप को 8 मशहूर कलाकारों ने मिलकर बनाया है. इसको बनाने में 12 दिन का समय लगा. यह विशेष रूप से चीनी राष्ट्रपति के लिये तैयार किये गये थे.

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प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने शी जिनपिंग के सम्मान में तो डिनर रखा था. उसमें साउथ इंडियन थाली परोसी गई. मोदी ने इस नॉनवेज थाली के लिए विशेष निर्देश दिए थे. डिनर मीनू में राजमा, मालाबार लॉबस्टर, कोरी केम्पू, मटन युलरथियाडु, कुरुवेपिल्लई मीन वरुवल, तंजावुर कोझी करी, बीटरूट जिंजर चॉप, पच सुंडकाई, अरिका कोक्सहंबू, अर्चाविता सांभर, बिरयानी, इंडियन ब्रेड, अड प्रधामन, हलवा, आइसक्रीम, चाय और मसाला चाट जैसे लजीज व्यंजन शामिल रहे.

दोस्ती के बहाने कारोबार की बात

प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी और शी जिनपिंग की मुलकात को एक बडा अवसर बताया गया. इस मुलाकात के बहाने अमेरिका को दायरे में रखने का बात कही गई. यह भी बताया गया कि चीन की दोस्ती से पडोसी पाकिस्तान को कमजोर किया जा सकता है. चीन के साथ सीमा विवाद हो हल करने का प्रयास भी बताया गया. यह कहा गया कि चीन भारतीय बाजार को खोना नहीं चाहता है. महाबलिपुरम में दोनों नेताओं के बीच व्यापार असंतुलन और सीमा विवाद पर बातचीत के साथ क्षेत्र मुक्त व्यापार समझौता है, जिसे जल्द से जल्द चीन लागू करवाना चाह रहा है.

इसमें भारत की सहमति होगी तो मंदी के मार झेल रहे चीनी उत्पाद भारतीय बाजार में डंप हो जाएंगे. मोदी सरकार ने देश की जनता को यह बताया था कि भारत का प्रभाव ज्यादा है. इस दोस्ती में भारत का पलडा भारी है. इस दोस्ती के बाद चीन अंतराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की बात नहीं करेगा. एक तरफ मोदी और उनकी टीम चीन के साथ नेहरू की दोस्ती पर सवाल उठाती है तो दूसरी तरफ खुद चीन के साथ दोस्ती की जरूरत के मायने बताती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘हमने मतभेदों को विवेकपूर्ण ढंग से सुलझाने, एक दूसरे की चिंताओं के प्रति संवेदनशीन रहने और उन्हें विवाद का रूप नहीं लेने देने का निर्णय किया है. भारत और चीन पिछले 2,000 साल में ज्यादातर समय वैश्विक आर्थिक शक्तियां रहें हैं और धीरे-धीरे उस चरण की तरफ लौट रहे हैं. हमने मतभेदों को विवेकपूर्ण ढंग से सुलझाने और उन्हें विवाद का रूप नहीं लेने देने का निर्णय किया है. हमने तय किया है कि हम एक-दूसरे की चिंताओं के प्रति संवेदनशील रहेंगे. मोदी ने पिछले साल चीनी शहर वुहान में शी के साथ अपनी पहली अनौपचारिक शिखर वार्ता के परिणामों का जिक्र करते हुए कहा, ‘वुहान की भावना ने हमारे संबंधों को नयी गति एवं विश्वास प्रदान किया. ‘चेन्नई संपर्क’ के जरिए आज से सहयोग का नया युग शुरू होगा. वुहान में पहली अनौपचारिक वार्ता के बाद से दोनों देश के बीच रणनीतिक संचार बढ़ा है.

नवाज शरीफ और मोदी की मुलाकात

2014 से पहले विपक्ष के नेता के रूप में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत पाकिस्तान संबंधों को लेकर कांग्रेस सरकार पर तमाम तरह के आरोप लगाते थे. 2014 का लोकसभा चुनाव जीत कर जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो पाकिस्तान की सरकार के प्रति उनके रूख मंे नरमी आ गई. नवाज शरीफ के साथ उनकी दोस्ती के चर्चे तो पूरी दुनिया में होने लगे थे. ऐसा होता भी क्यों नहीं आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काम ही ऐसा किया था. नवाज शरीफ के जन्मदिन पर 25 दिसंबर 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रूस और अफगानिस्तान की यात्रा से वापस आ रहे थे. अचानक भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विमान लाहौर के आलमा इकबाल इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरा. वहां से वह हेलीकाप्टर के जरीये नवाज शरीफ के रावलपिंडी स्थित घर गए थे. जहां पर नवाज शरीफ के जन्मदिन का सैलीब्रेशन हुआ. मादी ने नवाज शरीफ की मां के पैर छुये और उनसे आर्शिवाद भी लिया. उनको उपहार में कश्मीर की मशहूर पाशमीना शौल तक देकर आये थे. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस तरह अचानक नवाज शरीफ के घर जाने की घटना को विश्व भर में अलग अलग भाव से देखा गया था.

उस समय भारतीय जनता पार्टी की नेता सुषमा स्वराज ने कहा था कि इस मुलाकात के पीछे कहानी बडी लंबी है. नवाज शरीफ की मां चाहती थी कि भारत का कोई मजबूत नेता बने जो दोनो देशो क परेशानियांे को दूर कर सके. इस संबध में नवाज शरीफ की मां और सुषमा स्वराज इस घटना के पहले एक पार्टी में मिले थे. नवाज शरीफ की मंा और सुषमा स्वराज के बीच लबी बातचीत हुई थी. मोदी और नवाज शरीफ जिस मुलाकात को इतना अहम बताया जा गया था वह जल्द ही हवा हांे गई. कुछ दिनों में नवाज शरीफ और मोदी के संबंध खराब हो गये. नवाज शरीफ की बेटी मरियम ने मोदी की आलोचना करते कहा कि वह अपने समकक्ष लोगो का सम्मान नही ंदेते है.

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प्रधानमंत्री इमरान खान का फोन नहीं उठातें. एक तरफ आप बिना किसी तय कार्यक्रम के जन्मदिन की बधाई देने उनके घर पहुच जाये अगले ही दिन दूसरे प्रधानमंत्री का फोन नहीं उठाये.

मोदी शरीफ मुलाकात को बडी रणनीति के रूप में देखा गया था. मोदी ने नवाज शरीफ को अपने शपथ ग्रहण समारोह में भी बुलाया था. नवाज शरीफ के साथ भी मोदी के संबंध अधिक दिनों तक अच्छे नहीं रहे. सार्क देशो की मीटिंग में जब नरेन्द्र मोदी और नवाज शरीफ की मुलकात हुई तो मोदी ने उनको नजर अंदाज किया. नवाज शरीफ जब सामने से गुजरे तो मोदी जी किताबे पढने लगे. प्रधानमंत्री मोदी के साथ सबसे बडी बात यह होती है कि उनके संबंध कब बनते और कब बिगडते है का आकलन कोई नहीं कर सकता है.

महबूबा से रिश्ता पहले बना फिर टूटा

पीडीपी यानि पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट की नेता महबूबा मुफ्रती और भारतीय जनता पार्टी के बीच कभी मधुर संबंध नहीं रहे. वैचारिक स्तर पर कश्मीर की राजनीति को लेकर दोनो दलों में बहुत मतभेद रहे है. 2016 में जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनावों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला. जिसकी वजह से कोई भी पार्टी सरकार नहीं बना सकी. विधानसभा चुनाव में पीडीपी को सबसे अधिक 28 सीटें मिली. दूसरे दलो में भाजपा को 25 सीटे, नेशनल कांफ्रंेस 15 और कांग्रेस को 12 सीटें मिली. सरकार बनाने के लिये कई दलो का आपस में मिलना जरूरी था. किसी को भी इस बात का पता नहीं था कि भाजपा-पीडीपी आपस में मिलकर सरकार बना सकते है. दूसरे दल यही सोचते रहे और तमाम राजनीतिक आकलन को छोडते हुये भाजपा-पीडीपी आपस में मिलकर सरकार बना ली. भाजपा के समर्थन से महबूबा मुफ्रती मुख्यमंत्री बन गई. 2016 में जब यह सरकार बनी और 2018 में जब दोनो दलो का गठबंधन टूटा दोनो हालातों में बहुत फर्क था. सरकार बनाने के समय की मिठास और सरकार टूटने के समय की खटास देखने वाली थी.

जो महबूबा भाजपा को सबसे प्रिय हो गई थी वह अचानक खराब लगने लगी. धारा 370 के मसले पर किसी दल से कोई राय नहीं ली गई. जिस महबूबा के साथ भाजपा सरकार चला रही थी उनको ही कैद करना पड गया. ऐसे में यह बात बारबार साफ होती है कि भाजपा हर फैसला अपने हित में करती है. सहयोगी दलों के हित और संबंधो से उसका कोई मतलब नहीं होता है. भाजपा केवल अपने कार्यकर्ताओं को उकसाने के लिये ऐसे कदम उठाती रहती है. जिससे वह देश के आंतरिक हालातों के बारें में सोंच ना सके. धर्म, पाकिस्तान और चीन जैसे मुददों पर सोचते रहे.

आसान नहीं है चीनी सामानों का बहिष्कार

सोशल मीडिया के प्रचार के जरीये चीनी सामान का बहिष्कार नहीं किया जा सकता है.भारत और चीनी के बीच के कारोबारी रिश्ते विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के अनुसार है. ऐसे में बिना किसी कारण के भारत चीन से आयात करना मना नहीं कर सकता है. भारत से चीन का सालाना व्यापार करीब 55 अरब डॉलर का है. हर भारतीय औसतन बहुत सारी चीजों को अपने इस्तेमाल में लाता है. जो चीन से आयात होती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि भारत में अभी भी कई सामान ऐसे हैं. जिनका भारत में उत्पादन और बिक्री चीनी कंपनियों द्वारा की जाती है.

अगर भारत में चीनी उत्पादों को बेचने पर रोक लगा दी जाए तो एक आम भारतीय के जीवन में काफी मुश्किलें आ सकती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि दिन भर में एक आम भारतीय जो भी सामान अपने लिए प्रयोग में लाता है. उसमें से 80 फीसदी सामान चीन से आयात होता है या फिर भारतीय कंपनियां इनको बेचती हैं. यही नहीं भारत पाकिस्तान की तरह चीन से आयात होने वाले सामान पर 200 फीसदी की ड्यूटी भी नहीं लगा सकता है.

विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के अनुसार कोई भी देश बिना किसी कारण के दूसरे देश से अपने यहां आयात या फिर निर्यात होने वाले उत्पादों पर पूरी तरह से रोक नहीं लगा सकते हैं. इसके साथ ही भारत से चीन को निर्यात होने वाले सामान की मात्रा काफी कम है. अगर सरकार चीनी उत्पादों पर ड्यूटी को बढ़ाने का फैसला भी लेती है. तो इसका असर सबसे ज्यादा आम भारतीयों पर ही पड़ेगा.

व्यापक असर है चीन के कारोबार

2011 में भारत में विदेशी निवेश करने वाले देशों में चीन का स्थान 35 वां था. 2014 में 28 वां हो गया. 2016 मे चीन भारत में निवेश करने वाला 17 वां बड़ा देश बन गया. भारत में विदेश निवेश करने वाले बडे देशों में चीन 10 देशों में शामिल हो गया. भारत के लिए राशि बड़ी है मगर चीन अपने विदेश निवेश का मात्र 0.5 प्रतिशत ही भारत में निवेश करता है. 2011 में चीन ने कुल निवेश 102 मिलियन डॉलर का किया था. 2016 में एक बिलियन का निवेश किया. कई चीनी कंपिनयों के रीजनल अॉफिस अहमदाबाद में है. 2017 में के अनुसार चीन की सात बड़ी फोन निर्माता कंपनियां भारत में फैक्ट्री लगाई. चीन की एक कंपनी है चाइना रेलवे रोलिंग स्टॉक उसको नागपुर मेट्रो के लिए 851 करोड़ का ठेका मिला है. चाइना रोलिंग स्टॉक कंपनी को गांधीनगर-अहमदाबाद लिंक मेट्रो में 10,733 करोड़ का ठेका मिला.

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2016 में गुजरात सरकार ने चीनी कंपनियों से निवेश के लिए 5 बिलियन डॉलर का करार किया. 2015 में कर्नाटक सरकार चीनी कंपनियों के लिए 100 एकड़ जमीन देने के लिए सहमत हो गई. महाराष्ट्र इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने चीन की दो मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी को 75 एकड़ जमीन देने का फैसला किया है. ये कंपनियां 450 करोड़ का निवेश लेकर आएंगी. हरियाणा सरकार ने चीनी कंपनियों के साथ 8 सहमति पत्र पर समझौता किया. यह कंपनियां 10 बिलियन का इंडस्ट्रियल पार्क बनाएंगी स्मार्ट सिटी बनाएंगी. ऐसे हाल में चीन के बहिष्कार की बात पूरी तरह बेमानी है. इससे केवल लोगों को ध्यान ही भटकाया जा सकता है.

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