महानगरों से प्रवासी मजदूरों का बिहार में आने का सिलसिला लगातार जारी है. ये मजदूर दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक समेत कई दूसरे राज्यों से अपने गांव पैदल, रिकशा, साइकिल, ठेला, ट्रक, बस, ट्रेन से आदमी की शक्ल में नहीं बल्कि किसी जानवर से भी बदतर हालात में अपने घर आ रहे हैं.

शहर तो गए थे अपना और परिवार का पेट पालने के लिए, लेकिन वहां तो रोजगार के साथसाथ रोटी के भी लाले पड़ने लगे. जो थोड़ेबहुत पैसे जमा थे सब खत्म हो गए. कंपनी के मालिक, मैनेजर, ठेकेदार ने हाथ खड़े कर दिए. मकान मालिक किराया लेने के लिए मजबूर करने लगा. किराना दुकानदार एक पैकेट बिसकुट भी उधार देने से इनकार करने लगा. ट्रेन, बस सब बंद. भूख से मरने के हालात पैदा होने लगे तो ये कर्मवीर मजदूर, कुछ ऐसे भी जो अपने बीवीबच्चे के साथ इन नगरों में रहते थे, पैदल, साइकिल और ठेला तक से चल दिए.

भूखप्यास से तड़पते, बिना चप्पलजूते के गरमी से तपती सड़कों पर लाखों की तादाद में लोग महानगरों से अपने घरों के लिए जान जोखिम में डाल कर निकल पड़े. ट्रकों ट्रॉलियों में भेड़बकरी की तरह लदे अपनी मंजिल की तरफ. जितने मजदूर उतनी तरह की अलगअलग परेशानियां.

बिहार लौटे कुछ मजदूरों की दिल दहला देने वाली दास्तां सुनिए. दरभंगा जिले के मोहन पासवान गुरुग्राम, हरियाणा में भाड़े का ईरिकशा चलाते थे. लौकडाउन के पहले वे एक हादसे का शिकार हो गए. खाने के लाले पड़ गए और रिकशा मालिक का दबाव बढ़ गया. अब उन्हें गुरुग्राम में रह कर मरने से अच्छा घर जाना उचित लगने लगा. कोई साधन नहीं था. थकहार कर उन की 15 साल की बेटी ज्योति ने साइकिल पर अपने पिता को बैठा कर 1,000 किलोमीटर की दूरी नाप दी और वे सहीसलामत घर पहुंच गए. लोग ताज्जुब करने लगे कि वाह बेटी हो तो ऐसी. लेकिन मरता क्या नहीं करता. इनसान हालात के हिसाब से कुछ ऐसा कर जाता है कि उस पर आसानी से यकीन भी नहीं होता. इस लड़की ने वह कर दिखाया जो बड़ेबड़े ताकतवर लोग भी नहीं कर सकते.

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