गहरी पैठ

दिल्ली में तुगलकाबाद के एक मंदिर को ले कर जमा हुए दलितों के समाचारों को जिस तरह मीडिया ने अनदेखा किया और जिस तरह दलित नेता मायावती ने पहले इस आंदोलन का समर्थन किया और फिर हाथ खींच लिए, साफ करता है कि दलितों के हितों की बात करना आसान नहीं है. ऊंची जातियों ने पिछले 5-6 सालों में ही नहीं 20-25 सालों में काफी मेहनत कर के एक ऐसी सरकार बनाई है जिस का सपना वे कई सौ सालों से देखते रहे हैं और वे उसे आसानी से हाथ से निकलने देंगे, यह सोचना गलत होगा.

दलित नेताओं को खरीदना बहुत आसान है. भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, कम्यूनिस्ट पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल आदि में दलित हैं पर उन के पास न तो कोई पद है और न उन की चलती है. कांशीराम के कारण पंजाब और उत्तर प्रदेश में दलित समर्थक बहुजन समाज पार्टी ने अपनी जगह बनाई पर उस में जल्दी ही ऊंची जातियों की घुसपैठ इस तरह की हो गई कि वह आज ऊंची जातियों का हित देख रही है, दलितों का नहीं.

दलितों की समस्याएं तुगलकाबाद का मंदिर नहीं हैं. वे तो कदमकदम पर समस्याओं से घिरे हैं. उन पर हर रोज अत्याचार होते हैं. उन्हें पढ़नेलिखने पर भी सही जगह नहीं मिलती. ऊंची जातियां उन्हें हिकारत से देखती हैं. उन को जम कर लूटा जाता है. उन का उद्योगों, व्यापारों, कारखानों में सही इस्तेमाल नहीं होता. उन्हें पहले शराब का चसका दिया हुआ था अब धर्म का चसका भी दे दिया गया है. उन्हें भगवा कपड़े पहनने की इजाजत दे कर ऊंची जातियों के मंदिरों में सेवा का मौका दे दिया गया है पर फैसलों का नहीं.

हर समाज में कमजोर वर्ग होते ही हैं. गरीब और अमीर की खाई बनी रहती है. इस से कोई समाज नहीं बच पाया. कम्यूनिस्ट रूस भी नहीं. वहां भी कमजोर किसानों को बराबरी की जगह नहीं मिली. पार्टी और सरकार में उन लोगों ने कब्जा कर लिया था जिन के पुरखे जार राजाओं के यहां मौज उड़ाते थे. कम्यूनिज्म के नाम पर उन्हें बराबरी का ओहदा दे दिया गया पर बराबरी तो जेलों में ही मिली.

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आज भारत में संविधान के बावजूद धर्मजनित एक व्यवस्था बनी हुई है, कायम है और अब फलफूल रही है. दिल्ली का आंदोलन इसी का शिकार हुआ. इसे दबाना पुलिस के बाएं हाथ का काम रहा क्योंकि इस में हल्ला ज्यादा था. पुलिस ने पहले उन्हें खदेड़ा और फिर जैसा हर ऐसी जगह होता है, उन्हें हिंसा करने का मौका दे कर 100-200 को पकड़ लिया. उन के नेता को लंबे दिनों तक पकड़े रखा जाएगा. दलितों का यह आंदोलन ऐसे ही छिन्नभिन्न हो जाएगा जैसे 20-25 साल पहले महेंद्र सिंह टिकैत का किसान आंदोलन छिटक गया था.

जब तक ऊंचे ओहदों पर बैठे दलित आगे नहीं आएंगे और अपना अनुभव व अपनी ट्रेनिंग पूरे समाज के लिए इस्तेमाल न करेंगे, चाहे चुनाव हों या सड़कों का आंदोलन, वे सफल न हो पाएंगे. हां, दलितों को भी इंतजार करना होगा. फिलहाल ऊंची जातियों को जो अपनी सरकार मिली है वह सदियों बाद मिली है. दलितों को कुछ तो इंतजार करना होगा, कुछ तो मेहनत करनी होगी. कोई समाज बिना मेहनत रातोंरात ऊंचाइयों पर नहीं पहुंच सकता.

देशभर में पैसे की भारी तंगी होने लगी है. यह किसी और का नहीं, सरकार के नीति आयोग के वाइस चेयरमैन राजीव कुमार का कहना है. पिछले 70 सालों में ऐसी हालत कभी नहीं हुई जब व्यापारियों, उद्योगों, बैंकों के पास पैसा न हो. हालत यह है कि अब किसी को किसी पर भरोसा नहीं है. सरकार के नोटबंदी, जीएसटी और दिवालिया कानून के ताबड़तोड़ फैसलों से अब देश में कोई कहीं पैसा लगाने को तैयार ही नहीं है और देश बेहद मंदी में आ गया है.

राजीव कुमार ने यह पोल नहीं खोली कि पिछले 2-3 दशकों में जिस तरह पैसा धर्म के नाम पर खर्च किया गया है वह अब हिसाब मांग रहा है. पिछले 5-7 सालों में तो यह खर्च कई गुना बढ़ गया है क्योंकि पहले यह पैसा लोग खुद खर्च करते थे पर अब सरकार भी खर्च करती है.

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कश्मीर में ऐक्शन से पहले सरकार को अमरनाथ यात्रा पर गए लोगों को निकालना पड़ा. हजारों को लौटना पड़ा. पर ये लोग क्या देश को बनाने के लिए गए थे? देश तो खेतों, कारखानों, बाजारों से बनता है. जब आप किसानों को खेतों में मंदिरों को बनवाने को कहेंगे, कारखानों में पूजा करवाएंगे, बाजारों में रामनवमी और हनुमान चालीसा जुलूस निकलवाएंगे तो पैसा खर्च भी होगा, कमाई भी कम होगी ही.

जो समाज निकम्मेपन की पूजा करता है, जो समाज काम को निचले लोगों की जिम्मेदारी समझता है, जो समाज मुफ्तखोरी की पूजा करता है, वह चाहे जितने नारे लगा ले, जितनी बार चाहे ‘जय यह जय वह’ कर ले भूखों मरेगा ही. चीन में माओ ने यही किया था और बरसों पूरी कौम को भूखा मरने पर मजबूर किया था. जब चीन कम्यूनिज्म के पाखंड के दलदल से निकला तो ही चमका.

भारत का गरीब आज काम के लिए छटपटा रहा है. पहली बार उस ने सदियों में आंखें खोली हैं. उसे अक्षरज्ञान मिला है. उसे समझ आया है कि काम की कीमत केवल आधा पेट भरना नहीं, उस से कहीं ज्यादा है. धर्म के नाम पर उस का यह सपना तोड़ा जा रहा है और नतीजा यह है कि वह फिर लौट रहा है दरिद्री की ओर और साथ में पूरे बाजार को डुबा रहा है.

सरकार की कोई भी स्कीम काम करने का रास्ता नहीं बना रही है. सब रुकावटें डाल रही हैं. कश्मीर के नाम पर देश का अरबों रुपया हर रोज बरबाद हो रहा है. अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट दिनोंदिन खर्च कर रहा है. बड़ी मूर्तियां बनाई जा रही हैं. कारखाने न के बराबर लग रहे हैं. उलटे छंटनी हो रही है. पहले अमीरों के उद्योग गाडि़यों के कारखानों में छंटनी हुई अब बिसकुट बनाने वाले भी छंटनी कर रहे हैं. नीति आयोग के राजीव कुमार में इतनी हिम्मत कैसे आ गई कि उन्होंने सरकार की पोल खोल दी. अब उन की छुट्टी पक्की पर जो उन्होंने कहा वह तो हो ही रहा है. अमीरों के दिन तो खराब होंगे पर गरीब भुखमरी की ओर बढ़ चलें तो बड़ी बात न होगी.

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धारा 370: किस तरफ चली कांग्रेस की धारा

कश्मीर में धारा 370 के हटने से वहां के लोगों का कितना भला या बुरा होगा, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी लेकिन कांग्रेस की धारा किस तरफ जा रही है, यह बड़ी चिंता की बात है. उस के नेता एक सुरताल में कतई नहीं दिख रहे हैं.

राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद को छोड़ कर और किसी गैर गांधी परिवार वाले को इस की कमान सौंपने का जो सपना देश की जनता को दिखाया था वह सोनिया गांधी को फिर से अंतरिम अध्यक्ष चुन कर तोड़ दिया गया है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच से लबरेज भारतीय जनता पार्टी मजबूत होती जा रही है.

शनिवार, 10 अगस्त, 2019 को कांग्रेस हैडक्वार्टर में दिनभर मचे घमासान में अध्यक्ष का फैसला नहीं हो सका था. राहुल गांधी को मनाने की पुरजोर कोशिश हुई, पर वे अध्यक्ष न बनने पर अड़े रहे. इस के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी को पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष चुन लिया गया और राहुल गांधी का लंबित चल रहा इस्तीफा भी स्वीकार कर लिया गया.

आज से कई साल पहले भारत की ज्यादातर जनता इस तरह की खबरों पर इतना ज्यादा ध्यान नहीं देती थी, लेकिन राजनीति से जुड़े लोग या विपक्षी दलों वाले ऐसे फेरबदल पर पैनी नजर रखते थे. चूंकि अभी कांग्रेस विपक्ष में है और राहुल गांधी किसी भी तरह से अपनी पार्टी में नई जान नहीं फूंक पा रहे थे इसलिए लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद उन्होंने तकरीबन ऐलान कर दिया था कि अगला अध्यक्ष कोई गैर कांग्रेसी होगा, ताकि जनता यह भरम अपने दिल से निकाल दे कि कांग्रेस का मतलब गांधीनेहरू परिवार ही है.

पर अफसोस, ऐसा हो न सका. पहले तो लोगों ने सोचा कि क्या पता राहुल गांधी ही अपनी जिद छोड़ देंगे या फिर वे प्रियंका गांधी के नाम पर सहमत हो जाएंगे. कुछ के दिमाग में यह भी चल रहा था कि शायद कांग्रेस किसी युवा चेहरे को जनता के सामने ले आए, पर जब कहीं कोई बात नहीं बनी तब सोनिया गांधी को कांटों का हार पहना दिया गया.

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कभी इंदिरा गांधी को ले कर हवा बनाई गई थी कि ‘इंदिरा इज इंडिया’ और अब आज ऐसा ही कुछ सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष बनने के बाद महसूस हुआ है. लेकिन यह बात कांग्रेस के दोबारा फलनेफूलने में बड़ी बाधा साबित हो सकती है.

ऐसा कहने की एक बहुत बड़ी और खास वजह है. अभी जब भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने जम्मूकश्मीर से धारा 370 को हटाया तो इस ज्वलंत मसले पर भी कांग्रेस बंटी हुई दिखाई दी.

गुलाम नबी आजाद ने इस मुद्दे पर बड़ी बेबाकी से अपनी राय रखी थी और लगा था कि कांग्रेस अब इस मसले को हवा दे कर लोगों को यह बताने में कामयाब हो जाएगी कि जबरदस्ती के थोपे गए इस फैसले पर वह जनता के साथ है.

लेकिन बाद में इसी पार्टी के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया समेत कई दूसरे नेताओं जैसे जनार्दन द्विवेदी, भुबनेश्वर कलिता, दीपेंद्र हुड्डा, मिलिंद देवड़ा, कर्ण सिंह और रंजीता रंजन ने धारा 370 पर केंद्र सरकार के फैसले का समर्थन कर दिया था.

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ट्वीट कर के कहा था कि जम्मूकश्मीर और लद्दाख को ले कर उठाए गए कदम और भारत देश में उन के पूरी तरह से एकीकरण का समर्थन करता हूं. संवैधानिक प्रक्रिया का पूरी तरह से पालन किया जाता तो बेहतर होता.

कुछ साल पहले तक सोनिया गांधी के बेहद करीबी माने जाने वाले जनार्दन द्विवेदी ने तो दो हाथ आगे बढ़ कर इस मुद्दे पर कहा, ‘मैं ने राम मनोहर लोहियाजी के नेतृत्व में राजनीति शुरू की थी. वे हमेशा इस धारा के खिलाफ थे. आज इतिहास की एक गलती को सुधार लिया गया है.’

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भुबनेश्वर कलिता को कश्मीर मुद्दे को ले कर ह्विप जारी करना था लेकिन उन्होंने इस्तीफा दे दिया और कहा कि सचाई यह है कि देश का मिजाज पूरी तरह से बदल चुका है और यह ह्विप देश की जन भावना के खिलाफ है.

भुबनेश्वर कलिता ने जवाहरलाल नेहरू का भी जिक्र किया और कहा कि पंडितजी तो खुद धारा 370 के खिलाफ थे और उन्होंने कहा था कि एक दिन घिसतेघिसते यह खत्म हो जाएगी. आज कांग्रेस की विचारधारा से ऐसा लगता है कि पार्टी खुदकुशी करना चाहती है और मैं इस का भागीदार नहीं बनना चाहता हूं.

ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह राहुल गांधी के बेहद करीब माने जाने वाले हरियाणा के युवा कांग्रेसी नेता दीपेंद्र हुड्डा ने धारा 370 के मुद्दे पर कांग्रेस को गच्चा दे दिया. उन्होंने जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटाने और राज्य को 2 केंद्रशासित प्रदेश के रूप में बांटने के सरकार के कदम का समर्थन करते हुए कहा कि यह फैसला देश की अखंडता और जम्मूकश्मीर के हित में है. हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि यह उन की निजी राय है.

कांग्रेस नेता और पूर्व सांसद रंजीता रंजन ने कहा कि कांग्रेस पार्टी विपक्ष में है लेकिन विपक्ष में होने का मतलब यह नहीं है कि सरकार के हर फैसले का विरोध किया जाए. धारा 370 को हटना ही चाहिए. यह तो पहले से तय था कि धारा 370 को हटाना है. आज अगर उसे हटा दिया गया है तो यह सही फैसला है.

कांग्रेस नेता कर्ण सिंह ने धारा 370 के हटाए जाने पर कहा कि निजी तौर पर मैं इस फैसले के विरोध में नहीं हूं. इस के कई फायदे हैं. हालांकि, मैं इस को ले कर संसद द्वारा अचानक लिए गए फैसले से हैरान हूं. इस का अलगअलग लैवलों पर असर होगा, मेरी पूरे हालात पर नजर है. लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने का मैं स्वागत करता हूं.

साल 1965 में मैं ने खुद भी राज्य के पुनर्गठन की बात कही थी. नए परिसीमन के बाद पहली बार जम्मूकश्मीर रीजन में राजनीतिक शक्ति का सही से बंटवारा होगा.

युवा कांग्रेस नेता मिलिंद देवड़ा ने इस मुद्दे पर कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि धारा 370 को उदार बनाम रूढि़वादी बहस में तबदील कर दिया गया. कांग्रेस पार्टी को अपनी विचारधारा से अलग हट कर इस पर चर्चा करनी चाहिए कि भारत की अखंडता और जम्मूकश्मीर में शांति बहाली कश्मीरी युवाओं को नौकरी और कश्मीरी पंडितों के न्याय के लिए बेहतर क्या है.

भारत पर इतने साल राज करने वाली कांग्रेस की इतनी बुरी हालत कभी नहीं हुई थी. अब जब भाजपा अपना राष्ट्रवादी एजेंडा देश पर थोप देना चाहती है तब अगर इस पार्टी के नेता यों अपने निजी विचार लोगों के सामने रखेंगे तो सोशल मीडिया के इस जमाने में कांग्रेस को और ज्यादा रसातल में जाने से कोई नहीं बचा पाएगा.

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नेताओं में विचारों की यह फूट सोनिया गांधी और राहुल गांधी के माथे पर चिंता की लकीरें बढ़ा रही है. सब से अहम सवाल तो यह है कि जो युवा नेता जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा, दीपेंद्र हुड्डा राहुल गांधी के साथ जुड़ कर ताकतवर हो रहे थे, क्या वे उन के इस्तीफे के बाद कमजोर तो नहीं पड़ गए हैं या वे अपनेअपने राज्य के लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि देशहित से जुड़े धारा 370 के मुद्दे पर वे जनता की भावनाओं का सम्मान करते हैं, ताकि उन की सियासी जमीन न सरक जाए?

कांग्रेस के साथ दिक्कत यह रही कि जम्मूकश्मीर पुनर्गठन बिल पर वह भाजपा को दमदार तरीके से घेर न सकी. गुलाम नबी आजाद और शशि थरूर ने जरूर पार्टी के विचारों को जनता के सामने रखा था और जता दिया था कि देशभक्ति के नाम पर सरकार की मनमानी नहीं चलेगी, पर कांग्रेस के ही नेता अधीर रंजन चौधरी ने इसे भारत का आंतरिक मामला न कहते हुए पूरा खेल ही बिगाड़ दिया जिस से जनता को पता चलता कि क्यों कांग्रेस इस मसले पर अपना विरोध जाहिर कर रही है.

इस सब में एक बात और बेहद जरूरी है कि अब राहुल गांधी के भविष्य का क्या होगा? जो नेता उन के अध्यक्ष बनने के बाद हाशिए पर चले गए थे, वे सोनिया गांधी के दोबारा मजबूत होने से मन ही मन खुश हो रहे होंगे कि उन को अब दोबारा तवज्जुह मिलने लगेगी. अब तो राहुल गांधी के इस तरह अपने पद को छोड़ने के बाद उन की वापसी की राह भी मुश्किल हो जाएगी.

इस का सब से बड़ा फायदा अब प्रियंका गांधी को मिल सकता है, क्योंकि सोनिया गांधी के पास अब विकल्प के रूप में सिर्फ वे ही कांग्रेस का नया चेहरा बचती हैं. अगर सोनिया गांधी ज्यादा समय तक इसी तरह अंतरिम अध्यक्ष पद पर बनी रहीं तो फिर प्रियंका गांधी के लिए कांग्रेस की कमान संभालने में और ज्यादा आसानी रहेगी.

वैसे, अपने एक इंटरव्यू में कांग्रेस नेता शशि थरूर ने बताया कि किस तरह उन्होंने सुझाव दिया है कि चुनाव से कांग्रेस का अध्यक्ष तय किया जाए. उन्होंने इंगलैंड की कंजर्वेटिव पार्टी का उदाहरण देते हुए कहा कि उस की हालत हमारी पार्टी की हालत से भी कमजोर थी. उस हालत में उन्होंने जब चुनाव किया तो उस प्रक्रिया से लोगों के मन में भी कंजर्वेटिव पार्टी को ले कर दिलचस्पी जगी. कांग्रेस में भी ऐसा ही किया जाएगा तो पूरे देश का ध्यान कांग्रेस पर होगा कि कौन जीत रहा है, कौन हार रहा है. कार्यकर्ताओं को भी लगेगा कि अध्यक्ष उन्होंने तय किया है और इस से उन्हें मोटिवेशन मिलेगा.

इस के अलावा पिछले कुछ समय से कांग्रेस में जो गलतियां हुई हैं, उन से इस के नेताओं ने कोई खास सबक लिया नहीं है. उन्होंने सरकार के खिलाफ तो बहुतकुछ कहा, पर वे जनता तक अपना संदेश पहुंचाने में ज्यादा कामयाब नहीं रहे, जबकि भारतीय जनता पार्टी आज के समय में बहुत ज्यादा प्रोफैशनल हो चुकी है. उस के कार्यकर्ता बहुत ज्यादा संगठित हैं. मजबूत सोशल मीडिया सेल है. फंड भी बहुत ज्यादा बढ़ गया है. नरेंद्र मोदी अपनी मार्केटिंग बड़े जबरदस्त तरीके से करते हैं.

कांग्रेस ने इन बातों को हलके में लिया, जबकि उसे भी यह सब करना चाहिए था, लेकिन शायद कांग्रेस को लगा कि उसे मार्केटिंग की जरूरत नहीं है, क्योंकि उस की जनता में बहुत ज्यादा पैठ है और लोग नरेंद्र मोदी को जुमलेबाज समझ कर इन लोकसभा चुनावों में नकार देंगे, पर ऐसा हो न सका.

अब भारतीय जनता पार्टी ने जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटा कर यह जताने की कोशिश की है कि वह जो कहती है, कर के दिखाती है. यह मुद्दा अब कांग्रेस से हैंडल नहीं हो पा रहा है, क्योंकि उस के कई नेता इस फैसले के पक्ष में दिखाई दिए हैं.

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कोढ़ पर खाज तो यह है कि कांग्रेस की इस सियासी बेमेल खिचड़ी को सोशल मीडिया भी चटकारे लेले कर खा रहा है. लोगों को भाजपा से उतना प्रेम नहीं है, जितनी कोफ्त कांग्रेस की वैचारिक टूट से हो रही है. मणिशंकर अय्यर और दिग्विजय सिंह जैसे दिग्गजों का मीडिया के सामने बचकाना रुख अपनाना जनता को कतई रास नहीं आ रहा है. कांग्रेस को इस का सब से ज्यादा नुकसान उन जगहों पर उठाना पड़ सकता है जहां आने वाले समय में राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं.

लालबहादुर शास्त्री के बेटे और कांग्रेसी नेता अनिल शास्त्री ने धारा 370 को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस को चेताते हुए कहा, ‘कांग्रेस को अवश्य ही लोगों के मन को भांपना चाहिए और फिर कोई रुख अख्तियार करना चाहिए. इस मुद्दे पर लोग पूरी तरह से सरकार के साथ हैं. हम ने मंडल (कमीशन) का विरोध किया और उत्तर प्रदेश व बिहार को गंवा दिया और अब भारत को खोने का खतरा मोल नहीं लेना चाहिए.’

अनिल शास्त्री की यह देश गंवाने की चिंता जायज भी है क्योंकि अगर भाजपा अगले कुछ साल और इसी तरह देश पर राज करती रही तो वह राष्ट्रभक्ति के नाम पर ऐसेऐसे बड़े फैसले ले लेगी जो जनता को दिवास्वप्न में रखेंगे और जब तक जनता जागेगी तब तक चिडि़या खेत चुग चुकी होगी. शायद तब तक कांग्रेस की सियासी जमीन भी बंजर हो चुकी होगी, इसलिए कांग्रेस को अपने भीतर लगा यह आपातकाल जल्दी ही हटाना होगा.

प्लास्टिक के बर्तन और जमीन पर बिछौना, जेल में यूं कटी पी. चिदंबरम की पहली रात

“सदा ऐश दौरां दिखाता नहीं, गया वक्त फिर हाथ आता नहीं…” ये शेर है जनाब मीर हसन साहब का. जिसमें वो बताते हैं कि हमेशा वक्त एक जैसा नहीं होता, जो वक्त गुजर जाता है फिर वो लौटकर नहीं आता.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम 14 दिन की न्यायिक हिरासत में हैं. चिदंबरम को तिहाड़ जेल के बैरक नंबर 7 में रखा गया है. कभी इस सेल में उनके बेटे कार्ति चिदंबरम को भी रखा गया था. पी. चिदंबरम के लिए तिहाड़ जेल की दमघोंटू बैरक में रात-दिन गुजार पाना उतना आसान नहीं रहा जितना गृहमंत्री की कुर्सी पर बैठकर इसी तिहाड़ जेल का करोड़ों रुपये का बजट पास कराना आसान था. गुरुवार को शाम ढले जेल की देहरी पर पांव रखते ही उन्हें तिहाड़ जेल की खतरनाक हकीकत से दो-चार करा दिया गया. रुह कंपा देने वाला यह मंजर उनके सामने तब आया जेल के अदना से वार्डर ने उनसे कहा, ‘उल्टे हाथ का अंगूठा स्याही में रंगकर कागज पर लगाओ.’

कागज पर अंगूठा लगाने की प्रक्रिया के दौरान जेल की देहरी (ड्यूढ़ी) पर जेल और सीबीआई की टीम दोनों के अधिकारी मौजूद थे. यही वह वक्त था जब विचाराधीन हाईप्रोफाइल कैदी पी. चिदंबरम को सीबीआई की टीम जेल स्टाफ के हवाले करने संबंधी तमाम कानूनी और कागजाती खानापूर्ति कर रही थी. कैदी के लेन-देन के वक्त ही जेल स्टाफ पी. चिदंबरम से उनके परिवार वालों के नाम, पते, उम्र, संपर्क इत्यादि का ब्योरा पूछकर जेल रिकौर्ड में दर्ज किया. जेल में उनसे मिलने कौन-कौन आयेगा? उन तमाम संबंधित नामों की तालिका या ब्योरा भी चिदंबरम को जेल में प्रवेश के वक्त ही देना पड़ा.

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पी. चिदंबरम की उम्र 70 साल से ऊपर है. लिहाजा ऐसे में जेल पहुंचते ही जेल के चिकित्सक द्वारा उनका मेडिकल चैकअप किया गया. साथ ही संभव है कि मामला हाईप्रोफाइल होने के चलते किसी भी आपात स्थिति के लिए रात भर जेल में चिकित्सक को रोक लिया जाए, ताकि रात में रक्तचाप बगैरह की जांच तुरंत की जा सके.”

इसी जेल सूत्र के मुताबिक, “अमूमन पी. चिंदबरम जैसे हाईप्रोफाइल कैदी जब पहली बार जेल पहुंचते हैं तो उन्हें सबसे ज्यादा शिकायत रक्तचाप की ही अक्सर देखने में आई है. वे पहले से ही जांच एजेंसियों की पूछताछ से थके-हारे होते हैं. रही सही कसर तिहाड़ जेल में पहली बार रात काटने का भय पूरी कर देता है.”

जेल के एक सूत्र ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया, “गुरुवार रात जेल पहुंचने के वक्त भी जेल चिकित्सकों ने चिदंबरम का स्वास्थ्य परीक्षण किया था, मगर उस वक्त उन्होंने इस हाईप्रोफाइल कैदी को सोने के लिए लकड़ी के तख्त की संस्तुति नहीं की थी. ऐसे में जेल जाने वाले देश के पहले पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम को जेल की कोठरी में पहली रात जमीन पर कंबलों को सहारे काटनी पड़ी.”

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चिदंबरम की पहली रात जेल में जैसे-तैसे कट गई. सुबह होते ही उन्होंने कोठरी के बाहर निकल कर थोड़े खुले वातावरण में खुली हवा लेने की इच्छा जाहिर की, तो जेल की सुरक्षा में तैनात वार्डन्स ने कोठरी के बाहर निकल कर टहलने की अनुमति उन्हें दे दी.”

चिदंबरम ने शुक्रवार सुबह जेल में बना नाश्ता ही लेने की इच्छा जताई. पूर्वाह्न् में जेल चिकित्सकों ने उनकी दुबारा स्वास्थ्य जांच की. इसी जांच के बाद चिकित्सकों ने जेल प्रशासन को आदेश दिया कि चिदंबरम को सोने के लिए लकड़ी का तख्त मुहैया कराया जाए.” जेल चिकित्सकों की सलाह के मुताबिक आज (शुक्रवार) लकड़ी का तख्त उन्हें (चिदंबरम) उपलब्ध करा दिया गया है.”

ममता की ओर झुकते नीतीश?

इस बीच ऐसी अटकलें भी तेज हुई थीं कि नीतीश कुमार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सरकार की बहुत ज्यादा बुराई करने को ले कर अजय आलोक से नाराज थे.

अजय आलोक ने पार्टी की राज्य इकाई के प्रमुख वशिष्ठ नारायण सिंह को संबोधित करते हुए अपने इस्तीफे में लिखा था, ‘मैं आप को पत्र लिख कर यह सूचित कर रहा हूं कि मैं पार्टी प्रवक्ता के पद से इस्तीफा दे रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है कि मैं पार्टी के लिए अच्छा काम नहीं कर रहा हूं. मैं यह अवसर देने के लिए आप का और पार्टी का धन्यवाद करता हूं लेकिन कृपया मेरा इस्तीफा स्वीकार करें.’

बता दें कि अपने एक ट्वीट में अजय आलोक ने पहले भी जद (यू) के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर की कंपनी के ममता बनर्जी के लिए चुनाव प्रचार की कमान संभालने पर सवाल उठाए थे.

अजय आलोक पटना के मशहूर डाक्टर गोपाल प्रसाद सिन्हा के बेटे हैं. आलोक अपने कालेज के दिनों से राजनीति में सक्रिय थे. उन्होंने साल 2012 में जद (यू) को जौइन किया था.

सांसद के घर कुर्की का आदेश

वाराणसी. इन लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की घोसी लोकसभा सीट से बहुजन समाज पार्टी के नेता अतुल राय सांसद बने थे, लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान एक छात्रा ने उन पर यह कहते हुए रेप का आरोप लगाया था कि अतुल ने उसे अपनी पत्नी से मिलाने के लिए अपने आवास पर बुलाया था और इस के बाद रेप किया था.

उस पीडि़ता का कहना है कि अतुल राय ने उसे जान से मारने की धमकी भी दी, जबकि अतुल राय का कहना है कि वह छात्रा उन के औफिस आ कर चुनाव लड़ने के नाम पर चंदा लेती थी और चुनाव में उम्मीदवार बनने के बाद उन्हें ब्लैकमेल करने की कोशिश की गई.

छात्रा के आरोप के बाद न्यायिक मैजिस्ट्रेट ने अतुल राय की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए थे. वे जमानत के लिए हाईकोर्ट तक गए, लेकिन उन्हें जमानत नहीं मिली, तो वे फरार हो गए जिस के चलते 14 जून को पुलिसप्रशासन ने उन के घर पर कुर्की का नोटिस लगा दिया.

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बिजली के बहाने भिड़ंत

भोपाल. मध्य प्रदेश में बिजली की कटौती को ले कर विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के एक नेता का सोशल मीडिया पर लंगर डाल कर बिजली गुल करने वाले लड़कों की भरती का इश्तिहार सामने आने से कांग्रेस और उस में तकरार और ज्यादा बढ़ गई.

दरअसल, दमोह जिले के मीडिया प्रभारी मनीष तिवारी ने 12 जून को सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डाला था, ‘विज्ञापन-बिजली गोल कराने वाले लड़कों की आवश्यकता है. नोट-लंगर डालने में ऐक्सपर्ट हों. संपर्क करें बीजेपी दमोह.’

इस मसले पर प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष के मीडिया समन्वयक नरेंद्र सलूजा ने कहा, ‘प्रदेश में भाजपा के लोग बिजली गुल कराने की एक बड़ी साजिश चला रहे हैं. बिजली गुल कराने के लिए टीम लगाई जा रही है.’

 राजस्थान कांग्रेस में रार

जयपुर. राजस्थान में सत्ता का सुख भोग रही कांग्रेस पार्टी में खेमेबंदी अब खुल कर सामने आ रही है. इस खेमेबाजी की एक तरफ वहां के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हैं, तो दूसरी तरफ उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट.

दरअसल, दौसा जिले के भंडाना इलाके में मंगलवार, 11 जून को सचिन पायलट के पिता व केंद्रीय मंत्री रह चुके राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर कराई गई एक प्रार्थना सभा में सरकार के 15 मंत्रियों समेत 62 विधायक पहुंचे थे, लेकिन मुख्यमंत्री नहीं आए थे. उन्होंने ट्विटर के जरीए राजेश पायलट को श्रद्धांजलि दी थी.

इस के ठीक एक दिन बाद जब अशोक गहलोत जयपुर में एमएसएमई के एक पोर्टल की शुरुआत कर रहे थे तो कई बड़े मंत्री जयपुर में होने के बावजूद वहां नहीं गए थे.

कैप्टन ने कन्नी काटी

चंडीगढ़. पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में शनिवार, 15 जून को हुई नीति आयोग की बैठक में भाग लेने नहीं गए.

कैप्टन अमरिंदर सिंह के बैठक में शामिल न होने की वजह उन का बीमार होना बताई गई, जबकि वे पूरा एक हफ्ता हिमाचल प्रदेश में अपने फार्महाउस पर छुट्टियां बिता कर पंजाब लौटे थे.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह देश के ऐसे दूसरे मुख्यमंत्री थे जो इस खास बैठक में शामिल होने नहीं गए.

गरमाई धरने की सियासत

बैंगलुरु. जेएसडब्लू जमीन सौदे में धांधली का आरोप लगाते हुए कर्नाटक भाजपा के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री रह चुके बीएस येदियुरप्पा और दूसरे नेताओं ने 14 जून को बैंगलुरु में पूरी रात धरनाप्रदर्शन किया जिस से एचडी कुमारस्वामी की राज्य सरकार कठघरे में आ गई.

यह मामला जेएसडब्लू स्टील कंपनी की बेल्लारी में 3,667 एकड़ जमीन की बिक्री का है. भाजपा ने आरोप लगाया कि जेएसडब्लू को सस्ती दर पर जमीन अलौट करने का फैसला सरकार ने जानबूझ कर किया है. ऐसा कर के सरकार अपनी झोली भरने का काम करना चाहती है, क्योंकि उसे राज्य में अपनी सरकार गिरने का डर है.

केजरीवाल ने उठाया मुद्दा

नई दिल्ली. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 15 जून को नीति आयोग की बैठक में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मुद्दा उठाया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में उन्होंने कहा, ‘दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए जिस का वादा सालों से किया जा रहा है लेकिन लगातार केंद्र सरकारें इनकार करती रही हैं.’

आम आदमी पार्टी ने हालिया लोकसभा चुनाव में भी दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने का मुद्दा उठाया था. उस का कहना है कि केंद्र की दखलअंदाजी की वजह से वह अपनी योजनाओं को असरदार तरीके से लागू करने में कामयाब नहीं हो पा रही?है.

 मूर्ति पर हुई गिरफ्तारी

हैदराबाद. मंगलवार, 17 जून को कांग्रेस के सांसद रह चुके 2 बड़े नेताओं वी. हनुमंथा राव, हर्ष कुमार और उन के समर्थकों को तब गिरफ्तार कर लिया गया जब वे शहर के पंजागुट्टा चौराहे पर भीमराव अंबेडकर की मूर्ति लगाने की कोशिश कर रहे थे.

दरअसल, अप्रैल महीने में ग्रेटर हैदराबाद  नगरनिगम ने ‘अंबेडकर जयंती’ से एक दिन पहले ‘जय भीम सोसाइटी’ द्वारा अंबेडकर की मूर्ति को स्थापित किए जाने के बाद उस जगह से हटा दिया था. बाद में वह मूर्ति टूटीफूटी हालत में कूड़े में मिली थी, जिस का दलित संगठनों ने कड़ा विरोध जताया और इस के जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्यवाही की मांग की.

ग्रेटर हैदराबाद नगरनिगम के अधिकारियों ने कहा कि मूर्ति को बिना इजाजत लिए लगाया गया था, इसलिए हटा दिया गया.

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नेता के सामने पी लिया जहर

मुंबई. 15 जून को महाराष्ट्र के ऊर्जा राज्यमंत्री एमएम येरावर के सामने एक किसान ने जहर पी कर जान देने की कोशिश की. दरअसल, बुलढाणा में एक कार्यक्रम के दौरान ऊर्जा राज्यमंत्री मंच पर मौजूद थे, तभी ईश्वर खारटे नाम के एक किसान ने वहां सब के सामने कीटनाशक पी कर जान देने की कोशिश की.

अस्पताल ले जाए गए ईश्वर खारटे का आरोप है कि उस के दादा ने साल 1980 में बिजी के कनैक्शन के लिए अर्जी लगाई थी पर उन्हें अब तक कनैक्शन नहीं मिला है, जबकि संबंधित अधिकारी का कहना है कि ईश्वर खारटे ने बकाया जमा नहीं किया है, इसलिए उन्हें कनैक्शन नहीं मिला है.              द्य

 

आम लोगों की सरकार से उम्मीदें

आम लोगों को एक सरकार से बहुत उम्मीदें होती हैं चाहे हर 5 साल बाद पता चले कि सरकार उम्मीदों पर पूरी नहीं उतरी. सरकार चलाने वालों के वादे असल में पंडेपुजारियों की तरह होते हैं कि हमें दान दो, सुख मिलेगा. हमें वोट दो, पैसा बरसेगा. अब के तो जैसे हम लोगों ने पंडेपुजारियों को ही संसद में चुन कर भेजा है.

यह तब पक्का हो गया जब संसद सदस्यों ने लोकसभा में शपथ ली. भाजपा सांसद कभी गुरुओं का नाम लेते, कभी ‘भारत माता की जय’ का नारा बोलते, तो कभी ‘वंदे मातरम’ और ‘जय श्रीराम’ एकसुर में चिल्लाते रहे. यह सीन एक धीरगंभीर लोकसभा का नहीं, एक प्रवचन सुनने के लिए जमा हुई भीड़ का सा लगने लगा था.

भाजपा की यह जीत धर्म के दुकानदारों, धर्म की देन जातिवाद के रखवालों, हिंदू राष्ट्र की सपनीली जिंदगी की उम्मीदें लगाए थोड़े से लोगों की अगुआई वाली पार्टी के अंधे समर्थकों को चाहे अच्छी लगे, पर यह देश में एक गहरी खाई खोद रही हो, तो पता नहीं. जिन्हें हिंदू धर्मग्रंथों का पता है वे तो जानते हैं कि हम किस कंकड़ भरे रास्ते पर चल रहे हैं जहां झंडा उठाने वाले और जयजयकार करने वाले तो हैं, पर काम करने वाले कम हैं. ज्यादातर धर्मग्रंथ, हर धर्म के, चमत्कारों की झूठी कहानियों से भरे हैं. ये कहानियां सुनने में अच्छी लगती हैं पर जब इन को जीवन पर थोपा जाता है तो सिर्फ भेदभाव, डर, हिंसा, लूट, बलात्कार मिलता है. सदियों से दुनियाभर में अगर लोगों को सताया गया है तो धर्म के नाम पर बहुत ज्यादा यह राजा की अपनी तानाशाही की वजह से बहुत कम था.

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पिछले 65 सालों में कांग्रेस का राज भी धर्म का राज था पर ऐसा जिस में हर धर्म को छूट थी कि अपने लोगों को मूर्ख बना कर लूटो. अब यह छूट एक धर्म केवल अपने लिए रखना चाह रहा है और संसद के पहले 2 दिनों में ही यह बात साफ हो रही थी.

दुनिया के सारे संविधानों की तरह हमारा संविधान भी धर्म का हक देता है पर सभी जगह संविधान बनाने वाले भूल गए हैं कि धर्म का दुश्मन नंबर एक जनता का ही बनाया गया संविधान है. यह तो पिछले 300 सालों की पढ़ाई व नई सोच का कमाल है कि दुनिया के लगभग हर देश में एक जनप्रतिनिधि सभा द्वारा बनाया गया संविधान धर्म के भगवान के दिए कहलाए जाने वाले सामाजिक कानून के ऊपर छा गया है. अब भारत में कम से कम यह कोशिश की जा रही है कि हजारों साल पुराना धर्म का आदेश नए संविधान के ऊपर मढ़ दिया जाए. सांसदों का शपथ लेने का पहला काम तो यही दर्शाता है.

उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी अपने वादों को याद रखेगी जो विकास और विश्वास के हैं न कि उन नारों के जो संसद में सुनाई दिए गए.

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जातिवादी सोच का नतीजा है सपा बसपा की हार

लेखक- बापू राऊत

लगता था कि यह गठबंधन भारतीय जनता पार्टी को हरा देगा. इस के पीछे की कहानी भी सटीक और गणनात्मक थी. वह थी गोरखपुर और फूलपुर में हुए लोकसभा के उपचुनावों में इस गठबंधन के उम्मीदवारों की जीत.

ये दोनों जगहें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के गढ़ के तौर पर जानी जाती थीं. गठबंधन के जमीनी, सामाजिक और जातीय आंकड़ों का पलड़ा भाजपा से कहीं ज्यादा भारी था लेकिन लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपाबसपा गठबंधन के जीतने की समाजशास्त्रियों व चुनावी पंडितों की सोच जमीन पर ही रह गई.

आंकड़ों की जांचपड़ताल से पता चलता है कि कांग्रेस से गठबंधन न होने से सपाबसपा को 10 सीटों पर नुकसान हुआ. भाजपा का वोट फीसदी साल 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 42.3 फीसदी से बढ़ कर 50.7 फीसदी हुआ और उसे 62 सीटों पर जीत हासिल हुई, जबकि सपाबसपा का सामूहिक प्रदर्शन खराब रहा.

साल 2019 में सपाबसपा ने जिन सीटों पर चुनाव लड़ा, उन में सपा का वोट शेयर 38.4 फीसदी और बसपा का 40.8 फीसदी था जो कुल वोट शेयर 39.6 फीसदी है.

10 सीटों के साथ बसपा का स्ट्राइक रेट 26.3 फीसदी है, जबकि 5 सीटों के साथ सपा का स्ट्राइक रेट 13.5 फीसदी है. इस से साफ होता है कि समाजवादी पार्टी के वोटरों ने गठबंधन का साथ नहीं निभाया.

चुनाव से पहले जैसे ही सपाबसपा का गठबंधन घोषित हुआ था, वैसे ही भाजपा ने छोटी जातियों पर डोरे डालने शुरू कर दिए थे. उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग में 79 उपजातियां हैं. भाजपा ने यादव जातियों को छोड़ कर कुर्मी (4.5 फीसदी), लोध (2.1 फीसदी), निषाद (2.4 फीसदी), गुर्जर (2 फीसदी), तेली (2 फीसदी), कुम्हार (2 फीसदी), नाई

(1.5 फीसदी), सैनी (1.5 फीसदी), कहार (1.5 फीसदी), काछी (1.5 फीसदी) को सत्ता में भागीदारी के सपने दिखाए. नतीजतन, इन पिछड़ों के भाजपा को 26 से 27 फीसदी वोट मिले. उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों का वोट शेयर 22 से 23 फीसदी है. अनुसूचित जातियों में 65 उपजातियां हैं. यहां पर भी भाजपा ने जाटव को छोड़ कर गैरजाटव पासी (3.2 फीसदी), खटीक (1 फीसदी), धोबी (1.4 फीसदी), कोरी (1.3 फीसदी), बाल्मीकि (1 फीसदी) समुदाय को साथ लिया.

इन जातियों के 9 से 10 फीसदी वोट भाजपा को गए. इस तरह अनुसूचित जाति और पिछड़ों के कुल 37 फीसदी वोट भाजपा को मिले.

ऐसा क्या हुआ कि सपा केवल 5 सीटों और बसपा महज 10 सीटों तक ही सिमट कर रह गईं? 78 फीसदी वाला यह गठबंधन आखिर क्यों हारा? बहुजनवाद की सोच क्यों नहीं चली?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह दिया, कि अंकगणित की जगह कैमिस्ट्री ने काम किया. सच में, क्या मोदीजी की जीत कैमिस्ट्री से हुई है या गठबंधन की हार जातिवादी सोच से?

इस कैमिस्ट्री की वजह कुछ इस तरह है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह मंजे हुए रणनीतिकार हैं. साम, दाम, दंड, भेद, लालच और भावुकता में वे माहिर हैं.

नरेंद्र मोदी की नीति को विरोधी पार्टियां समझ नहीं सकीं. वे अपने गणितीय आंकड़ों में ही मशगूल रहीं. मोदीशाह की जोड़ी ने चुनावी प्रचार में धर्म, हिंदुत्व और मंदिर की राजनीति की. अनुसूचित जाति का हिस्सा रहे वाराणसी के संत रैदासजी के मंदिर में लंगर के लिए नरेंद्र मोदी बैठ गए थे. उन्होंने ‘समरसता भोज’ नाम से अनुसूचित जाति व पिछड़ों के घर भोज के लिए अपने नेताओं को कहा था.

मोदी भले ही दोषियों पर कार्यवाही न करें, लेकिन दलितों की हत्या पर भावुक हो कर रो देते हैं. वे मुसलिमों की लिंचिंग पर चुप रहते हैं. यह हिंदुओं के लिए एक सीधा मैसेज होता?है. वे खुद को गरीब बताते हैं. उन्होंने कुंभ मेले में सफाई मुलाजिमों के पैर धो कर बाल्मीकि समाज को अपनेपन का मैसेज दे दिया.

अमित शाह ने बहराइच में राजभर जाति के राजा सोहेलदेव की मूर्ति का अनावरण किया. उन्होंने सोहेलदेव को हिंदू रक्षक कह कर सोमनाथ मंदिर तोड़ने आए मुसलिम शासकों को हराने का दावा किया. यह कह कर अमित शाह ने पिछड़ों के वोट बैंक को गोलबंद करने का काम किया.

भाजपा ने गैरयादव समुदाय को समाजवादी पार्टी से और गैरजाटव समुदाय को बहुजन समाज पार्टी से तोड़ने की रणनीति बनाई.

भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्य द्वारा अनुसूचित जाति और पिछड़ों के 150 सम्मेलन कराए. चुनाव के समय लंदन में नीरव मोदी को अरैस्ट किया गया. भाजपा ने इस का भी फायदा उठाया. बालाकोट में हुई सैनिकी कार्यवाही को हिंदू राष्ट्रवाद से जोड़ा. इन सारे मुद्दों ने नरेंद्र मोदी को जीत दिलाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी.

भाजपा की जीत में हमेशा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण संघ और दुर्गा वाहिनी जैसे संगठनों का हाथ रहा है. इन संगठनों के कार्यकर्ता कैडर बेस होते हैं और जिस का कैडर मजबूत होता है, उस पार्टी को चुनावों में हराना मुश्किल है. यह भविष्य में भाजपा विरोधियों के लिए बड़ी चुनौती है.

समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में कोई कैडर बेस कार्यकर्ता और सामाजिक संगठन नहीं है. समय आने पर गांधी परिवार को छोड़ सभी कांग्रेसी नेता भाजपा में शामिल हो सकते हैं क्योंकि कांग्रेसी नेताओं के लिए विचारधारा नहीं, बल्कि सत्ता अहम होती है.

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ विभिन्न सामाजिक संस्थानों का कैडर बनाया था. वे फकीर के तौर पर थे, इसीलिए बहुजन समाज उन की छाया बन गया था, लेकिन मायावती द्वारा बसपा को संभालते ही कैडर को खत्म किया गया. राज्यों में जनाधार वाले नेताओं को पदों से हटा दिया गया.

मायावती पर पिछड़ी जाति के नेताओं की अनदेखी करने और ऊंची जाति को बढ़ावा देने का आरोप लगता रहा है. केवल रिजर्व सीटों पर दलितों को टिकट दिया जाता है. बसपा में भाईभतीजावाद का आरोप अकसर लगता रहा है. इन सब का असर चुनावी नतीजों पर होना मुमकिन क्यों नहीं है?

मायावती द्वारा खुद को प्रधानमंत्री पद की दावेदार घोषित करना भी इस गठबंधन की हार की वजह बन गया.

भारत की जातिवादी सोच इतनी मजबूत है कि वह आसानी से किसी भी दलित को प्रधानमंत्री बनने नहीं देगी. मायावती प्रधानमंत्री न बनें, इसीलिए यादवों और गैरयादवों ने भाजपा को वोट दिया. इस के साफ संकेत मिलते हैं. संघीय संस्थाओं ने इस का प्रचार भी किया. मायावती के प्रधानमंत्री बनने के डर से यादवों ने समाजवादी पार्टी को भी वोट नहीं दिए.

यही फर्क है अमेरिका और भारत की जनता में. वहां भी जनता बराक ओबामा को अपना राष्ट्रपति बना सकती?है, लेकिन भारत की जनता आज भी ऊंचनीच के दलदल में धंसी हुई

है. भारत की पुरानी जातिवादी सामाजिक संरचना आज भी टस से मस नहीं हुई  है. आने वाले समय में वह और ज्यादा मजबूत बनेगी.

आज भारत का भविष्य अंधेरों से टकरा रहा है. पता नहीं, उजालों के जलते दीए कब बंद कर दिए जाएंगे.

मोतीलाल वोरा बनाम रणछोड़दास गांधी!

छत्तीसगढ़ के निवासी राज्यसभा सदस्य 91 वर्षीय मोतीलाल वोरा को राहुल गांधी के अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से इस्तीफे के पश्चात अंतरिम अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया है. इस राजनीतिक घटनाक्रम के पश्चात जहां उनके गृह राज्य छत्तीसगढ़ में मिठाइयां बटी. वहीं गृह जिला दुर्ग में समर्थकों ने मिठाई बांटी और फटाखे फोड़ कर खुशी जाहिर की . नि:संदेह छत्तीसगढ़ का सम्मान मोतीलाल वोरा ने बढ़ा दिया साथ ही यह संदेश भी की राजनीति जैसे उठापटक के क्षेत्र में निष्ठा, समर्पण भी कोई चीज होती है और कभी-कभी यह आत्मासमर्पण आपको शिखर तक पहुंचा सकता है और यही हुआ भी.

मोतीलाल वोरा कांग्रेस के लंबे समय से कोषाध्यक्ष रहे हैं. सोनिया गांधी के प्रति उनकी निष्ठा असंदिग्ध है. यही कारण है कि नेशनल हेराल्ड मामले में भी वोरा सोनिया गांधी के साथ आरोपी हैं.

17 वी लोकसभा में कांग्रेस जिस तरह बुरी तरह चारों खाने चित्त हो गई उससे कांग्रेस भीतर तक हिल गई है.अध्यक्ष के नाते स्वंयम राहुल गांधी ने यह कल्पना नहीं की थी कि आक्रमक तेवर, राफेल मुद्दा, चौकीदार चोर है के प्रभावी नारों के पश्चात, गांव से लेकर शहर तक नरेंद्र मोदी के प्रति नाराजगी के बावजूद ‘कांग्रेस’ लुढ़क जाएगी. और नरेंद्र मोदी पुनः भारी बहुमत से संसद पहुंच जाएंगे,यही कारण है कि राहुल गांधी 25 मई 2019 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उखड़ गए और कहा मैं इस्तीफा देता हूं .

चार सप्ताह, हो गए पांच !

राहुल गांधी ने 25 मई को इस्तीफा की घोषणा कर कहा था की आप अपना नया ‘अध्यक्ष’ चुन लीजिए. मजे की बात यह की फिर एक माह यानी चार सप्ताह का समय एक तरह से अल्टीमेटम अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उन्होंने दिया और कहा इस वफ्के के भीतर, आप  अपना नया अध्यक्ष ढूंढ ले. मगर कांग्रेस सोती रही . कांग्रेस यह मानने को तैयार ही नहीं कि राहुल गांधी त्यागपत्र दे चुके हैं या दे देंगे या फिर हम आगे की सुधि लें .

…मोह में फंसी कांग्रेस को राहुल और प्रियंका गांधी के अलावा कुछ नजर ही नहीं आ रहा . शायद इसलिए कहावत बनी है सावन के अंधे को सब कुछ हरा हरा ही दिखाई देता है .

चार सप्ताह तक कांग्रेस सुषुप्तावस्था में रही. इस दरम्यान राहुल सदैव की भांति अपना काम करते रहे और एंग्री यंग मैन की भांति बीच बीच में गुर्राते रहे . अशोक गहलोत से लेकर कमलनाथ तक पर तंज कसा . छत्तीसगढ़ में मोहन मरकाम को अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया. मगर सभी खामोश

टकटकी लगाकर उनकी ओर विनम्रता से देखते रहे . ऐसा करते करते 5 सप्ताह बीत गए कांग्रेसी मुख्यमंत्री, नेता, कार्यकर्ता अपील करते रहे मगर राहुल गांधी को शायद नहीं पसीजना था सो नहीं पसीजे. या फिर कहें राजनीतिक अपरिपक्वता के चलते गलतियां करते चले जा रहे हैं.

बुजुर्गवार ! मोतीलाल वोरा क्या करेंगे !

सोनिया गांधी राहुल गांधी ने एक माह तक चिंतन किया . अशोक गहलोत, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट से लेकर सुशील कुमार शिंदे आदि नामों पर बारंबार चिंतन किया कि आखिर किस के कंधे पर ‘कांग्रेस’ की तोप को रखा जाए कौन है ऐसा समर्पित, निष्ठावान. सभी पर तीक्ष्ण दृष्टि डाली गई. मगर कहते हैं न दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक कर पीता है यहां भी यही कुछ घटित हुआ. देश को मालूम है की सोनिया गांधी ने प्रणव मुखर्जी पर बहुत भरोसा किया उन्हें बड़े बड़े पद दिए  द्वितीय नंबर पर सदैव रहे मगर सिर्फ नहीं बनाया तो प्रधानमंत्री. आज प्रणव मुखर्जी नरेंद्र मोदी की गोद में जाकर बैठ गए हैं .उनकी प्रशंसा कर रहे हैं आर एस एस के बुलावे पर दौड़े चले जाते हैं .यह घटनाक्रम सोनिया राहुल गांधी को सालता है. और सचेत भी करता है. इसलिए प्रणव मुखर्जी सृदृश्य दूसरी गलती गांधी परिवार अब नहीं करना चाहता.

यही कारण है कि ठोक बजाकर कांग्रेस पार्टी के सबसे बुजुर्गवार, समर्पित शख्स मोतीलाल वोरा को राहुल गांधी ने अंतरिम अध्यक्ष नियुक्त किया है.अब मोतीलाल वोरा के कंधे पर रखकर राहुल गांधी बंदूक चलाएंगे यह तय है . सवाल है आगे क्या चुनाव कराया जाएगा या फिर कार्यसमिति एक मतेन किसी शख्स को ‘अध्यक्ष’ बनाएगी.

क्या राहुल “कांग्रेस” का देश का हित चाहते हैं ?

संपूर्ण घटनाक्रम का एक ही प्रति प्रश्न है क्या राहुल गांधी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 86 वे अध्यक्ष के रूप में जाते-जाते भी कांग्रेस का हित चाहते हैं या फिर कोई अदृश्य हित है जो गांधी परिवार से जुड़ा हुआ है.

लोकसभा समर मैं पूरी तरह हार के बाद राहुल गांधी और कांग्रेस की आंखे खुल गई है.यह परिवार अब यह समझ और मान रहा  है कि नरेंद्र मोदी   टीम के सामने उनकी एक भी नहीं चलने वाली और कांग्रेस पार्टी दिनोंदिन और मरणासन्न होने वाली है.

नरेंद्र मोदी की नीतियां, हाव भाव, देश के समक्ष विराट स्वरूप ग्रहण कर चुका है . ऐसा मानकर राहुल गांधी परिवार के कदम ठिठक गए हैं .ऐसे में उनके पास तुरुप का पत्ता सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस पार्टी में निर्वाचन का है चुनाव का है. लोकतंत्र में लोकतांत्रिक पद्धति ही ऊर्जा का स्रोत होती है मगर कांग्रेस सिर्फ दरी उठाने वालों की पार्टी बन कर रह गई है योग्य सुयोग्य कार्यकर्ता मन मार कर दरी उठाए जा रहे हैं. अब ऐसे हालात में गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी का हित इसी में है कि चुनाव का ऐलान कर दिया जाता निष्पक्ष चुनाव से नए चेहरे स्वमेव सामने आ जाते.अभी तो अपनी ढपली अपना राग वाले हालात ही बने हुए हैं.

वोरा है या बोरा है

मोतीलाल वोरा नि:संदेह एक वरिष्ठतम कांग्रेस नेता है. 91वर्ष की उम्र में भी सक्रिय हैं. मगर सवाल यह है कि क्या 91 वर्ष के शख्स के पास नवीन ऊर्जा, दृष्टि हो सकती है क्या वह अंतरिम अध्यक्ष रहते हुए ऐसा कोई कमाल कर सकते हैं की कांग्रेस आज मरणासन्न खटिया पर पड़ी कराह रही है के शरीर में नवीन रक्त का संचार कर दे.

साफ-साफ कहा जा सकता है यह राहुल गांधी की एक और बहुत बड़ी चूक है.बुजुर्गवार वोरा जब अविभाजित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री राजीव गांधी की कृपा दृष्टि से बनाए गए थे तब प्रदेश में उनके नाम चुटकुला प्रचलित था कि “आप वोरा हैं या बोरा है !”  बोरा अर्थात बारदाना जिसमें गेहूं, चावल, शक्कर डालकर एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाया जाता है.

मूलतः धौलपुर राजस्थान के निवासी मोतीलाल वोरा छत्तीसगढ़ के दुर्ग के रहवासी हैं सन 72 में पहली दफे विधायक बने अर्जुन सिंह कैबिनेट में शिक्षा मंत्री फिर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, राज्यपाल रहते हुए आप पार्टी के कोषाध्यक्ष भी रहे. कांग्रेस समय के साथ चलने में असमर्थ हो चुकी है. बारंबार गलतियां कर रही है.जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिल रहा है. यह तय है कि राहुल गांधी राजनीति का मैदान छोड़कर नहीं जा रहे हैं जब आप को राजनीति करनी है, भारत की सेवा करनी है तो यह कौन सा तरीका है भाई… पलायन का.

भूपेश क्यों नहीं ‘अध्यक्षी’ छोड़ना चाहते !

और शायद भूपेश बघेल यह भली-भांति जानते हैं कि अध्यक्ष की कुर्सी कांग्रेस पार्टी में सत्ता प्राप्ति का रास्ता होती है यह एक तरह से मुख्यमंत्री को भी कंट्रोल कर सकती है.

यही गुढ रहस्य है कि दिसंबर 2018 में छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री बनने के बाद भी मुख्यमंत्री की कुर्सी के समक्ष तुच्छ पद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी को छोड़ना उन्हें नागवर गुजरा और लगभग छ: माह व्यतीत होने के बाद भी स्वयं आगे आकर ‘अध्यक्षी’ छोड़ने को तैयार नहीं हैं.

देखते ही देखते समय व्यतीत होता जा रहा है कांग्रेस पार्टी अर्श से फर्श को यानी नवंबर के विधानसभा चुनाव के दरम्यान ऊंचाई पर पहुंच कर मई 2019 मैं लोकसभा चुनाव के दरम्यान फर्श पर धड़ाम से गिर कर चारों खाने चित हो चुकी है.मगर कोई कांग्रेसमैन पदाधिकारी दिल्ली मैं बैठे आलाकमान यह चिंतन करने की जहमत नहीं उठा रहे कि आखिर इस सबके पीछे रहस्य क्या है.

 ‘अध्यक्षी’ की हलचल शुरू….

प्रदेश में भूपेश बघेल मुख्यमंत्री भी है और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदर यानी अध्यक्ष भी हैं.एक व्यक्ति एक पद सिद्धांत की बातें कांग्रेस में बहुत होती हैं मगर यह हवा हवाई बातें जमीन पर तब ही उतरती है जब बहुत देर हो चुकी होती है.

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अगरचे विधानसभा चुनाव के पश्चात 2018 में मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही भूपेश बघेल स्वयं हो कर अध्यक्ष पद का परित्याग करते तो कांग्रेस की हालत प्रदेश में इतनी पतली नहीं होती,  न ही इतनी शर्मनाक हार का सामना करना पड़ता.ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री और राजनेता के रूप मे भूपेश बघेल का कद भी बढ़ता.लोकसभा में अच्छा प्रतिसाद मिलता तब भी भूपेश बघेल का कद बढ़ जाता की इनके नेत्तव मैं विधानसभा में बेहतरीन परिणाम आए थे और जो नए अध्यक्ष बने हैं वह फ्लॉप हो गए.मगर भूपेश बघेल यह मानकर चल रहे थे कि प्रदेश में कांग्रेस की लहर है उनका जादुई नेत्तव है इसलिए 11 मे 11 सीटें कांग्रेस जीतेगी। मगर हुआ उलट मात्र दो लोकसभा सीटें ही कांग्रेस की झोली में आ पायी.

इधर अब सातवें माह में कांग्रेस की कुंभकरणी निद्रा टूटी है और अब ‘अध्यक्ष’ ढूढां जाने लगा है.

अध्यक्ष ‘डमी’ को क्यों  बनाया जाता है

कांग्रेस की यह फितरत है जब प्रदेश में कोई व्यक्ति सत्तासीन होता है तो संगठन को अपने जेब में रखना चाहता है ताकि सत्ता की रास पर उसका हाथ हो.यही सब प्रथम मुख्यमंत्री रहे अजीत प्रमोद कुमार जोगी के मुख्यमंत्री काल में होता रहा.जोगी जब तलक मुख्यमंत्री थे आलाकमान अध्यक्ष उनके ही रबर स्टांप को तरजीह देती रही.विश्लेषण करें तो आप देखेंगे कि यही कारण था कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की दुर्गति होती चली गई और भाजपा सत्तासीन हो गई.

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अध्यक्ष को डमी रखने का चलन रहा है.इसके लिए कांग्रेस में एक से एक फार्मूले इजाद किए जाते हैं ताकि सबके मुंह बंद हो जाएं.कुछ प्रदेशों में पिछड़ा वर्ग से मुख्यमंत्री हैं तो आदिवासी समुदाय से ‘अध्यक्ष’ ढूंढा जा रहा है ताकि आदिवासी संतुष्ट रहें.इसकी आड़ में डमी शख्स को अध्यक्ष बनाकर प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में बिठा दिया जाएगा और सत्ता का घोड़ा बेधड़क दोड़ता रहे इसका सरअंजाम हो जाएगा ।अगरचे कोई सक्षम तेज तर्रार व्यक्ति प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाएगा तो वह मुख्यमंत्री के कांख दबा कर रखेगा बल्कि हलक में हाथ डालकर रखेगा इसलिए यह नौटंकी खेली जाती है प्रदेश में यही सब चल रहा है पात्र ढूंढे जा रहे हैं.

मैं मैं और मैं ही हावी है!

कांग्रेस पार्टी का यही सच है जिसे दबी जुबान वक्त बे वक्त छोटा या बड़ा नेता स्वीकार करता है यह है मैं और मैं.जो यहां एक दफा एक पद प्राप्त कर लेता है वह सोचता है  मेरे और मेरे परिवार के अलावा कोई दूसरा आदमी यहांआने न पावे.और यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी धीरे-धीरे खत्म होती चली जा रही है.

सत्यनारायण शर्मा अविभाजित मध्यप्रदेश के दरमियान कई पदों पर रहे बातचीत में स्वीकार करते हैं कि पार्टी में सामूहिक नेतृत्व का अभाव है वही आदिवासी नेता बोधराम कंवर के अनुसार कांग्रेस में मैं मैं वाली परंपरा कभी नहीं रही हम आलाकमान के सिपाही हैं.इन्हीं विरोधाभासी सोच के मध्य कांग्रेस की नैय्या डगमगाती हुई आगे बढ़ रही है अब यह प्रदेश की आवाम पाठक तय करें कि जनता के विकास, जनता के उत्थान के लिए बनी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस जनता के हितों को कितना साध रही है और व्यक्तिवाद के घेरे में कितना पीस रही है.

 कांग्रेस आलाकमान भी अंधेरे में !

प्रदेश में अध्यक्ष पद की कवायद अब तेज हो रही है.अगरचे यह अनवरी में निर्णित होता तो लोकसभा में बेहतरीन प्रतिसाद पार्टी को मिलता.मगर कांग्रेस जैसे ही सत्तासीन होती है सभी अपने भाई भतीजो, बेटो को लाइन में लगाने जुट जाती है यही छत्तीसगढ़ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने किया जिसका ज़िक्र राहुल गांधी ने लोकसभा समर में बुरी तरह पराजय के बाद किया.प्रदेश प्रभारी पी.एल. पुनिया ने विधानसभा में जीत क्या दिला दी छत्तीसगढ़ उनका राजप्रसाद बन गया है. कांग्रेस पार्टी को मानो संसार का खजाना मिल गया है आगे सब कुछ  खत्म है !

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शायद यही कारण है कि संगठन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर मौन धारण कर लिया गया. और यही कारण है कांग्रेस रसातल में जा रही है ।कहने को प्रदेश में 67 विधायकों का भारी बहुमत है मगर एकला चलो की नीति के कारण न तो जनता का भला हो रहा है,ना कांग्रेस पार्टी का।हां  विपक्ष अर्थात भाजपा को जीवन मिल रहा है, प्राणवायु मिल रही है और वह अपने पैरों पर अब आगे खड़ी होती चली जा रही है.

मीडिया को मिटाने की चाह

सच लिखा, क्योंकि सत्ता से गलबहियां करना तो मीडिया का काम नहीं है. एक राजनीतिक पत्रकार की भूमिका, जनता की तरफ से सिर्फ जरूरी सवाल करना ही नहीं होता, बल्कि अगर राजनेता सवाल से बचने की कोशिश कर रहा है या तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश कर रहा है, तो उसको दृढ़तापूर्वक चुनौती देना भी होता है. मीडिया का काम है शक करना और सवाल पूछना. सरकार के काम का विश्लेषण करना और जनता को सच से रूबरू कराना. इसीलिए इसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाता है, मगर आज  मीडिया खुद सवालों में घिरा हुआ है. सत्ता ने डराओ, धमकाओ, मारो और राज करो, की नीति के तहत मीडिया की कमर तोड़ दी है. उसकी स्वतंत्रता हर ली है. जो बिका उसे खरीद लिया, जो नहीं बिका उसका दम निकाल दिया. ऐसे में तानाशाही फरमानों से डरे हुए देश में सच की आवाज कौन उठा सकता है? सत्ता से सवाल पूछने की हिम्मत कौन कर सकता है? सरकार के कामों का विश्लेषण करने की हिम्मत किसकी है? सरकार की ओर उंगली उठाने की गुस्ताखी कौन कर सकता है? जिसने की उसे नेस्तनाबूद कर दिया गया. उखाड़ फेंका गया. सलाखों में जकड़ दिया गया. मौत के घाट उतार दिया गया. जी हां, हम उस लोकतांत्रिक देश की बात कर रहे हैं, जहां जनता द्वारा चुनी हुई सरकार से जनता को सवाल पूछने की मनाही है.

आपको जज बी.एच.लोया याद हैं? जज प्रकाश थोंबरे और वकील श्रीकांत खंडेलकर याद हैं? पत्रकार गौरी लंकेश याद हैं? नरेन्द्र दाभोलकर याद हैं? गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी याद हैं? गुजरात दंगे की हकीकत खोलने वाले आईपीएस संजीव भट्ट का क्या हाल हुआ, देखा आपने? इन्होंने सच की राह पर चलने का जोखिम उठाया और सत्ता द्वारा खेत दिये गये. इनके साथ क्या – क्या हुआ वह सच्चाइयां कभी सामने नहीं आईं. सत्ता के डर से सच दफ़ना दिया गया, हमेशा के लिए. सत्ता के स्याह और डरावने सच की अनगिनत कहानियां हैं. मगर इन कहानियों को कौन कहे? जिनको कहना चाहिए वे बिक गये, मारे डर के सत्ता के भोंपू हो गये. जो नहीं बिके, उनका गला घोंट दिया गया. मीडिया यानी लोकतन्त्र का चौथा खम्भा अब पूरी तरह जर्जर हो चुका है. कब ढह जाये कहा नहीं जा सकता.

भारत से लेकर दुनिया का बाप कहलाने वाले देश अमरीका तक में मीडिया पर सत्ता के हंटर बरस रहे हैं. अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने देश के स्थापित अखबारों पर प्रहार कर रहे हैं तो यहां मीडिया की स्वतंत्रता लगभग खत्म हो चुकी है. सत्ताधारियों के डर और दबाव में मीडिया-मालिकों और पत्रकारों के पास बस एक काम बचा है – चाटुकारिता. आज ज्यादातर अखबारों-पत्रिकाओं में जो कुछ छप रहा है या टीवी चैनलों पर जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह सरकार की ‘गौरव-गाथा’ के सिवा कुछ नहीं है. अरबों-खरबों के विज्ञापनों की खैरात बांट कर सत्ता मीडिया से अपने तलुए चटवा रही है, अपनी वाहवाही करवा रही है और लालची, लोलुप मीडिया-मालिक इसे अपना ‘अहो भाग्य’ कह रहे हैं. भारतीय मीडिया का एक धड़ा, जिसे झोली भर-भर कर बख्शीशों से नवाजा गया है, सरकारी भोंपू बना हुआ है. और सख्त कलमों की नोंकें तुड़वा दी गयी हैं. जो तोड़ने पर राजी नहीं हुए उन्हें उनकी कलम के साथ उठा कर संस्थानों से बाहर फेंक दिया गया है.

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आवाज दबाने का अनोखा अंदाज

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल के दिनों में ‘फेक न्यूज अवार्ड्स’ की घोषणा की. अपने खिलाफ अमेरिकी अखबारों में छपने वाली खबरों को झूठी और भ्रामक बताना शुरू कर दिया. अमेरिकी मीडिया की धज्जियां उड़ाने के लिए बकायदा ‘अवॉर्ड्स’ घोषित कर दिये. अपने गुनाह छिपाने के लिए ट्रंप ने ‘सबसे भ्रष्ट और बेईमान’ कवरेज के लिए अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को विजेता घोषित किया. एबीसी न्यूज, सीएनएन, टाइम और वाशिंगटन पोस्ट को भी इन अनोखे अवार्ड में जगह दी और यह साबित करने की कोशिश की कि यह तमाम मीडिया हाउस सरकार के बारे में सिर्फ गलत ही लिखते-छापते हैं. उन्होंने ‘विजेताओं’ की सूची बकायदा रिपब्लिकन नेशनल कमेटी की वेबसाइट पर भी जारी की. जनता की आवाज दबाने का कितना शर्मनाक तरीका है यह. मीडिया पर इस तरह का हमला आश्चर्यजनक है.

गौरतलब है कि ट्रंप हमेशा से अपने ट्वीट्स और बड़बोलेपन को लेकर चर्चित रहे हैं. वे हमेशा से मीडिया विरोधी हैं. अपने चुनाव अभियान के दौरान भी उन्होंने जम कर ‘फेक न्यूज’ शब्द का इस्तेमाल किया था. राष्ट्रपति बनने के बाद से वे लगातार मीडिया हाउसों और उनके मालिकों-सम्पादकों पर निशाना साधते रहे हैं. आजकल वे अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के सम्पादक  ए.जी. सल्जबर्जर के पीछे पड़े हुए हैं और प्रिंट मीडिया और जर्नलिज्म पर ताबड़तोड़ हमले कर रहे हैं. वह मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हैं और उसे एक मरता हुआ उद्योग करार देते हैं. ट्रंप वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स पर आरोप लगाते हैं और कहते हैं कि मेरी सरकार अच्छा काम कर रही है, लेकिन यह दोनों अखबार सरकार के अच्छे कामों को भी नकारात्मक तरीके से पेश करते हैं. वह इन अखबारों द्वारा किये गये खुलासों और आरोपों से खुद को बचाने की कोशिश में मीडिया को ‘लोगों का दुश्मन’ करार देते हैं. वे उन सवालों के जवाब नहीं देना चाहते जो सवाल ये अखबार उठा रहे हैं. दरअसल ट्रंप अपने हमेशा सकारात्मक न्यूज कवरेज चाहते हैं और अपने विरोधियों के लिए आलोचनात्मक खबरें. ‘फेक न्यूज’, ‘लोगों का दुश्मन’ जैसे वाक्यों से मीडिया को लगातार कोसना उनका इस लक्ष्य तक पहुंचने का रास्ता है. जो अखबार उनके इस उद्देश्य में बाधा बनते हैं, वह उनके पीछे पड़ जाते हैं. राजनीति के पिच पर ट्रंप रेफरी को हर हाल में अपने पाले में करना चाहते हैं. वह रेफरी के फैसलों को अपने पक्ष में नहीं करना चाहते, बल्कि उनका उद्देश्य रेफरी की विश्वसनीयता को पूरी तरह खत्म कर देना है. और उनकी यह रणनीति काम भी कर रही है, कम से कम ट्रंप के सबसे वफादार समर्थकों के बीच में तो जरूर.

‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के पीछे ट्रंप इसलिए पड़े हुए हैं क्योंकि इस अखबार ने उनकी नाजायज सम्पत्ति और कर चोरी का खुलासा किया था. अखबार ने लिखा था कि ट्रंप ने अपनी मेहनत से कोई सम्पत्ति अर्जित नहीं की, जैसा प्रचार उन्होंने अपने चुनाव के वक्त किया था. ट्रंप और उनके भाई-बहनों को उनके बिल्डर पिता से अथाह सम्पत्ति हासिल हुई है. यह सम्पत्ति नाजायज तरीके से बनायी गयी थी. अखबार कहता है कि  ट्रंप और उनके भाई-बहनों ने अपने पिता से तोहफे में मिली अरबों डॉलर की सम्पत्ति छिपाने के लिए कई फर्जी कम्पनियां बनायीं. यही नहीं ट्रंप ने लाखों रुपये के कर को छिपाने में भी अपने पिता की मदद की थी. जबकि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ट्रंप ने दावा किया था कि उनके पास जो सम्पत्ति है वह उन्होंने अपने दम पर बनायी है और उनके पिता फ्रेड ट्रंप से उन्हें कोई वित्तीय मदद नहीं मिली है. जो गोपनीय दस्तावेज, टैक्स रिटर्न के पेपर्स और अन्य वित्तीय रिकॉर्ड्स न्यूयार्क टाइम्स के पास हैं, उनके मुताबिक ट्रंप को अपने पिता के रियल एस्टेट के साम्राज्य से आज के हिसाब से कम से कम 41.3 करोड़ डॉलर मिले थे और इतनी बड़ी धनराशि उन्हें इसलिए मिली थी क्योंकि ट्रंप ने कर अदा करने से बचने में पिता की मदद की थी. यही नहीं,  ट्रंप ने अपने माता-पिता की रियल एस्टेट की सम्पत्तियों की कम कीमत आंकने की रणनीति बनाने में भी मदद की थी, जिससे जब ये सम्पत्तियां उन्हें तथा उनके भाई-बहनों को हस्तांतरित की गयीं तो काफी हद तक कर कम हो गया. ट्रंप ने पिता से तोहफे में मिली अरबों डॉलर की सम्पत्ति छिपाने के लिए फर्जी कम्पनियां बनायीं और इस तरह सारा ब्लैक मनी वाइट किया गया.

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एक के बाद एक तीन शादियां करने वाले ट्रंप के महिलाओं के साथ भी नाजायज रिश्ते, अश्लील हरकतें और फब्तियां भी किसी से छिपी नहीं हैं. उनकी अश्लील हरकतों की कई कहानियां समय-समय पर अखबारों में उजागर होती रही हैं. डोनाल्ड ट्रंप का एक ऑडियो भी सामने आ चुका है, जिसमें वो महिलाओं के बारे में अभद्र बातें करते सुने गये हैं. ये ऑडियो एक टीवी शो की शूटिंग के दौरान का है. वहीं गैर-धर्म के प्रति उनकी नफरत भी जगजाहिर है. मुसलमानों के प्रति ट्रंप की नफरत उस वक्त जाहिर हुई थी, जब 7 दिसंबर 2015 को डोनाल्ड ट्रंप ने सबसे विवादित बयान दिया. उन्होंने साउथ कैरोलिना में एक चुनावी रैली में कहा था कि मुसलमानों के लिए अमरीका के दरवाजे पूरी तरह बंद कर दिए जाने चाहिए. साथ ही उन्होंने कहा था कि अमेरिका में रहने वाले मुसलमानों के बारे में भी पूरी जांच पड़ताल होनी चाहिए. उन्होंने अपने इस सख्त प्रस्ताव से सिर्फ लंदन के मेयर सादिक खान को ही छूट दी थी. इस पर काफी हंगामा मचा था. आज भी बहुत से लोगों को लगता है कि ट्रंप की मुस्लिम विरोधी छवि पूरी दुनिया के लिए खतरनाक है.

उग्र राष्ट्रवाद के प्रणेता

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दोनों मीडिया विरोधी हैं. दोनों के बीच कई मामलों में काफी समानता है. दोनों के बीच पटती भी खूब है. ट्रंप मोदी को अपना दोस्त बताते नहीं थकते. अमेरिका आने पर उनका शानदार स्वागत-सत्कार करते हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव 2019 की प्रचंड जीत पर बकायदा टेलीफोन करके बधाईयां दीं. तू मेरी खुजा, मैं तेरी खुजाता हूं, वाली दोस्ती है दोनों के बीच. वही अमेरिका, जिसने कभी मोदी को वीजा देने से इन्कार कर दिया था, आज मोदी की राह में पलक-पांवड़े बिछाये हुए है. क्यों? क्योंकि सत्ताशीर्ष पर बैठे दोनों धुरंधरों के मिजाज़ मिलते हैं, व्यवहार मिलते हैं, कर्म मिलते हैं, सोच मिलती है, रवैय्या मिलता है. दोनों अपने आगे पूरी दुनिया को बौना समझते हैं. दोनों अपने मन के मालिक हैं. दोनों सवाल पूछने वालों से नफरत करते हैं. दोनों सच से परहेज करते हैं. दोनों मीडिया को अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहते हैं.

ट्रंप मोदी के बड़े फैन हैं. वे कई मौकों पर प्रधानमंत्री मोदी और भारत की तारीफ भी कर चुके हैं. दोनों गे्रट शो-मैन हैं, अच्छे वक्ता हैं, उन्हें पता है भीड़ को कैसे खुश करना है और विरोधियों को कैसे नीचा दिखाना है. मोदी और ट्रंप- दोनों ही ‘नार्सिसिस्ट’ हैं. नार्सिसिस्ट यानी ऐसे शख्स जो खुद से बेहद प्यार करते हैं. जो अपनी वाक्-प्रतिभा के चलते अपनी कमजोरियों को छिपा सकते हैं. अपनी अलग आदतों के चलते आकर्षक लगते हैं और जनता को आकर्षित कर लेते हैं, मगर उनका मोह मानसिक और शारीरिक रूप से हानि पहुंचाता है. ऐसे लोगों को लगता है कि वे बेहद प्रतिभाशाली हैं और जनता की दिक्कतें दूर करने के लिए ऊपर वाले ने उन्हें धरती पर भेजा है.

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कुछ यही हाल ट्रंप और मोदी का है. अपने चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने भारतीय मूल के वोटरों का दिल जीतने के लिए नरेंद्र मोदी के मशहूर नारे ‘अबकी बार, मोदी सरकार’ की नकल कर अपना नारा बनाया, ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’. मोदी ने आम चुनाव में जनता को ‘अच्छे दिन’ का सपना दिखाया था. ट्रंप ने इसी तर्ज पर अमेरिका को फिर से महान बनाने की अपील जनता से की. ट्रंप और मोदी दोनों पर ही अल्पसंख्यकों के प्रति दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगता रहा है. मोदी ने कोलकाता में अपने एक भाषण के दौरान बांग्लादेशी प्रवासियों पर पाबंदी लगाये जाने की धमकी दी थी. हालांकि उन्होंने एक बार यह भी कहा था कि बांग्लादेशी हिन्दू प्रवासियों का भारत में स्वागत है. दूसरी तरफ ट्रंप के दिल में मुसलमानों और मेक्सिको के प्रवासियों के प्रति नफरत भरी हुई है. चुनाव प्रचार के दौरान ट्रंप ने मुसलमानों को अमेरिका में घुसने से रोकने और मेक्सिको के प्रवासियों को अमेरिका में घुसने से रोकने के लिए बड़ी दीवार बनाये जाने की बात कही थी. इस तरह दोनों पर ही ‘उग्र राष्ट्रवाद’ हावी है. और इस उग्र राष्ट्रवाद की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है मीडिया, जिसको खत्म करना दोनों की प्राथमिकता है.

जवाबदेही तय करने की जरूरत

अब अमेरिकी मीडिया जहां हार मानने को तैयार नहीं है और जिसने एकजुट होकर ट्रंप की जवाबदेही तय करने का फैसला किया है, वहीं भारतीय मीडिया का एक धड़ा, जिसे खूब बख्शीश और मुआवजों से लाद दिया गया है, मोदी का भोंपू बनकर उभरा है. ये अब मोदी की सेना की तरह काम कर रहा है. खूब शोर मचा रहा है और जनता से जुड़े हर मुद्दे, हर सवाल को पीछे ढकेल देता है. यह प्रधानमंत्री के लिए प्रधानमंत्री के कहे अनुसार मनमाफिक इन्टरव्यू प्लैन करता है. उनके मनमाफिक सवाल-जवाब तैयार करता है और उसका खूब प्रचार-प्रसार करता है. वह देशहित से जुड़ा, जनता की समस्याओं से जुड़ा प्रधानमंत्री को असहज करने वाला कोई सवाल नहीं पूछता. कितनी हैरत की बात है कि 26 मई 2014 को कुर्सी पर बैठने के बाद पूरे पांच साल तक मोदी ने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की. जबकि किसी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करना स्वतंत्र मीडिया पर (जिसे वर्तमान सरकार सिकुलर्स और प्रेसिट्यूट्स कहकर पुकारती है) किया जाने वाला एहसान नहीं है, बल्कि यह सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है. सत्ता से सवाल पूछना स्वतंत्र प्रेस का अधिकार है. मगर प्रधानमंत्री मोदी ने इस अधिकार से मीडिया को वंचित रखा. सोशल मीडिया के जरिए मोदी का सम्मानित बुजुर्ग जैसा इकतरफा संवाद और रेडियो पर प्रसारित होने वाला उनका निजी एकालाप, वास्तव में लोकतंत्र और एक स्वतंत्र प्रेस की भूमिका के प्रति निकृष्ट अवमानना के भाव को प्रकट करता है. इसे सवालों से बचने की रणनीति कहा जाता है. जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी, मुख्यधारा के मीडिया के प्रति जिनकी नफरत के बारे में सबको पता है, व्हाइट हाउस (अमेरिकी राष्ट्रपति निवास) में नियमित प्रेस कांफ्रेंस की परम्परा को अभी समाप्त नहीं किया है.

लोकतांत्रिक दुनिया में मोदी एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने आधिकारिक तौर पर सवाल पूछे जाने की प्रथा को अंगूठा दिखा दिया है. उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रेस सलाहकार तक की नियुक्ति नहीं की है, जबकि इसका रिवाज-सा रहा है. भाजपा के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसका पालन किया था. इस पद पर किसी को बैठाये जाने से प्रेस को प्रधानमंत्री  के उनके अनेक वादों के बारे में सवाल पूछने में आसानी होती, मगर जब वादे पूरे ही नहीं करने हैं तो सवाल कैसे पूछने देते?

विदेशी दौरों के वक्त प्रधानमंत्री के हवाई जहाज में पत्रकारों को साथ ले जाने की परंपरा को भी खत्म कर दिया है. जबकि प्रधानमंत्री के सहयात्री होने से संवाददाताओं और संपादकों को प्रधानमंत्री से सवाल पूछने का मौका मिलता था.

गौरतलब है कि मोदी के पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह, जिनका ‘मौनमोहन सिंह’ कहकर मोदी मजाक उड़ाया करते थे, यात्रा के दौरान हवाई जहाज में पत्रकारों के साथ प्रेस कांफ्रेंस किया करते थे. इसमें वे पत्रकारों के तमाम सवालों का जवाब दिया करते थे और ये सवाल पहले से तय या चुने हुए नहीं होते थे. मनमोहन सिंह ने कार्यालय में रहते हुए कम से कम तीन बड़ी प्रेस कांफ्रेंस कीं (2004, 2006, 2010), जिसमें कोई भी शिरकत कर सकता था. जिसमें पत्रकार राष्ट्रीय हित के मसलों पर प्रधानमंत्री से सीधे अहम सवाल पूछ सकते थे.

अमेरिकी राष्ट्रपति भी विदेश दौरों के दौरान अपने साथ मीडिया के दल को लेकर जाते हैं और जरूरी सवाल पूछने के इस मौके को पत्रकारों के लिहाज से काफी सामान्य सी चीज माना जाता है. मगर मोदी को आजाद प्रेस बिल्कुल नहीं सुहाता है. और उनका यह स्वभाव आज का नहीं है. इसका इतिहास 2002 के गुजरात दंगों से ही शुरू होता है. अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके उन्होंने संवाद के परम्परागत माध्यमों को दरगुजर करने की कोशिश की है.

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ऐसे में अब मीडिया घरानों, पत्रकारों और देश के बुद्धिजीवियों को तय करना होगा कि जो बात गुजरात के मुख्यमंत्री रहते चल गयी, और मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पांच साल तक चलती रही, वह क्या आगे भी चलेगी या इस पर कोई कड़ा फैसला लेने की जरूरत है. मीडिया को नहीं भूलना चाहिए कि उसका काम सवाल पूछना है, उसका अस्तित्व ही सवाल पूछने पर टिका हुआ है. लोकतंत्र के चौथे खम्भे को आज पहले खुद से यह सवाल पूछना है कि उसे सत्ता से गलबहियां करनी है या जनता की आवाज बनना है. एकजुट होकर अपनी अपनी स्वतंत्रता को फिर हासिल करना है या टुकड़े-टुकड़े होकर अपना अस्तित्व मिटा देना है. किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में सत्ता पर काबिज सरकार के कामों का मूल्यांकन तभी हो सकता है, जब उस राष्ट्र कर मीडिया स्वतंत्र हो और जिसमें सत्ता से सवाल करने की क्षमता व ताकत हो. अगर मीडिया स्वतंत्र और ताकतवर नहीं है तो आप किन सूचनाओं के आधार पर सरकार का मूल्यांकन कर पाएंगे? मीडिया का अस्तित्व ही सवाल पूछने और सत्ता में बैठे लोगों की जवाबदेही तय करने के लिए है. पत्रकारिता में इसके अलावा बाकी जो कुछ होता है वह जनसम्पर्क की कवायत भर है. सरकार अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के लिए पूरे पन्ने का विज्ञापन देने के लिए आजाद है. बगैर सूचना और सवाल के न मीडिया का कोई अस्तित्व है और न जनता लोकतंत्र की नागरिक कहलाने लायक है.

Edited By- Neelesh Singh Sisodia

मोदी का योग: भूपेश बघेल का बायकाट

प्रदेश में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल केंद्र सरकार विशेषत: नरेंद्र दामोदरदास मोदी के साथ दो-दो हाथ करने की कवायद में लग गए हैं. जिसका प्रत्यक्षीकरण 21 जून संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को प्रदेश की राजधानी रायपुर से लेकर अंबिकापुर, बिलासपुर, कोरबा में स्पष्ट दिखाई दिया. ‘योग’ के प्रति जैसा रवैया भूपेश बघेल सरकार ने दिखाया उससे स्पष्ट हो जाता है कि भूपेश सरकार नरेंद्र मोदी की किसी भी योजना को बढ़ा चढ़ाकर आवाम के बीच नहीं ले जाएगी और न ही छत्तीसगढ़ में उस योजना को हाथों-हाथ लिया जाएगा.

भूपेश बघेल स्वयं रायपुर में नहीं थे. जबकि के प्रोटोकाल के हिसाब से राजधानी रायपुर के मुख्य कार्यक्रम में पदेन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को शिरकत करनी थी मगर वे दिल्ली चले वित्त मंत्रियों की बैठक में वकालत करने चले गए.  इधर छत्तीसगढ़ के प्रमुखतम नेता चरणदास महंत, टी. एस.सिंहदेव, ताम्रध्वज साहू ने भी ‘योगा’ को कोई तवज्जो नहीं दी और प्रदेश मे अंतरराष्ट्रीय योग सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गया.  इसका सीधा संकेत यह है कि छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार नरेंद्र मोदी के किसी भी प्रोजेक्ट को तरजीह नहीं देने वाली है.

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60 लाख लोगों ने किया योगाभ्यास

कहने को छत्तीसगढ़ में 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर 60 लाख लोगों ने एक विश्व रिकार्ड बनाया है.  आपको हंसी आ सकती है आजकल रिकार्ड बनाने का सबको शगल हो चला है मगर इससे गंभीरता कितनी है यह भी दिखाई देनी चाहिए.

पांचवें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर राजधानी रायपुर में मुख्य समारोह हुआ सरदार बलबीर सिंह जुनेजा इनडोर स्टेडियम में 600 स्कूली बच्चे जनप्रतिनिधि गण वरिष्ठ अधिकारियों ने योगाभ्यास किया. और सबसे बड़ी बात यह कि मुख्य अतिथि थे महापौर प्रमोद दुबे व अन्य अतिथि बतौर बृजमोहन अग्रवाल पूर्व मंत्री डा. रमन सरकार.

प्रदेश के इस वृहद कार्यक्रम में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को होना चाहिए था या फिर नंबर दो प्रदेश के गृह मंत्री ताम्रध्वज साहू को. मगर वह भी नदारद रहे, कोई मंत्री या कांग्रेस का विधायक होना चाहिए था मगर सब नदारद रहे. क्योंकि छत्तीसगढ़ के मुखिया भूपेश बघेल ने अधिकारिक रूप से नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. और मोदी के किसी भी आयोजन को एक तरह से तरजीह नहीं देने की लक्ष्मण रेखा खींच दी गई है.  यही कारण है कि देश भर में आयोजित होने वाले योग कार्यक्रम छत्तीसगढ़ मैं फिसड्डी हो गया क्योंकि इसके साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम जुड़ा है. जहां तक विश्व रिकार्ड की बात है तो गोल्डन बुकऔफ वर्ल्ड रिकार्ड का क्या अधिकारिक प्रभाव है यह कोई बताने की शै नहीं है समझने की बात है.

मुख्यमंत्री   भूपेश बघेल का यह स्वभाव है !

डा रमन सिंह पूर्व मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ और वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के स्वभाव में भारी अंतर है. जहां रमन सिंह अपने धुर विरोधियों को भी सम्मान, अपनत्व और विशाल हृदय के साथ तरजीह दिया करते थे वही भूपेश बघेल खुल्लम खेल फारूकाबादी स्वभाव के राजनेता हैं हा तो हा और ना तो ना.  जो ठान लेते हैं करके दिखा देते हैं चाहे परिणाम कुछ भी निकले.

यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में अंतर्राष्ट्रीय योग जो संयुक्त राष्ट्र संघ की धरोहर है 177 देशों में योग दिवस बड़े ही उत्साह के साथ मनाया गया छत्तीसगढ़ में आ कर मोदी के इस अश्वमेघ के घोड़े की रास भूपेश बघेल सरकार ने पकड़ ली और योग को मोदी सरकार का सिंबल मान कर प्रदेश में केंद्रीय जन सूचना के बावजूद मात्र औपचारिक बना दिया गया.

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छत्तीसगढ़ के लिए भूपेश बघेल की सरकार के लिए और शायद प्रदेश की आवाम के लिए यह अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता .

भूपेश बघेल ने किया योगा !

सरकार के जनसंपर्क विभाग ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का योगा करते हुए वीडियो जारी किया है. दरअसल  मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ में नहीं थे उन्होंने दिल्ली स्थित छत्तीसगढ़ भवन में अपने कक्ष में   कुछ योग स्वयं किए और प्रदेश की जनता को योग का सुखद संदेश देते हुए कहा कि स्वास्थ्य के लिए योग अनिवार्य है.

भूपेश बघेल गुरुवार को दिल्ली में थे और केंद्रीय बजट पूर्व राज्यों के वित्त मंत्री के साथ केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण की बैठक में अपने सुझाव व मांगे रखी.

यह सच है कि भूपेश बघेल चाहते तो इस बैठक में राज्य का कोई वरिष्ठ मंत्री शिरकत करने भेजा जा सकता था जैसे दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने शिरकत की या फिर राजधानी रायपुर से अपना प्रतिनिधि भेज सकते थे. मगर ताम्रध्वज साहू ग्रहमंत्री भी व्यस्त हो गए और अन्य कबीना मंत्री भी यह बात पचने वाली नहीं है.  संपूर्ण कयावाद का सीधा सा अभिप्राय है भूपेश बघेल ने योगा का बाय काट किया है.

प्रदेशभर में बायकाट

ऊर्जा नगरी कोरबा में विधानसभा अध्यक्ष डा.चरणदास महंत को योग के प्रमुख कार्यक्रम की बागडोर सौंपी गई थी.  इधर अन्य जिले में मैं भी प्रमुख नेताओं को मुख्य अतिथि बतोर पहुंचना था मगर ऐसा नहीं हुआ.

डा चरणदास महंत अगर योगा कार्यक्रम में पहुंचे कार्यक्रम की गरिमा में वृद्धि होती मगर यहां कार्यक्रम को कोरबा महापौर रेणु अग्रवाल को सौंप दिया गया.

बिलासपुर में विधायक शैलेश पांडे ने मुख्य कार्यक्रम में शिरकत की जबकि वहां प्रभारी जिला मंत्री को सरकार भेज सकती थी.  गृहमंत्री को रविशंकर शुक्ल स्टेडियम कार्यक्रम पहुंचना था मगर वे कहां पहुंचे यह खोज का विषय है.

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इस तरह योग की कवायद में छत्तीसगढ़ में केंद्र और राज्य सरकार के संबंधों पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है यह योग एक संकेत बन कर प्रदेश की राजनीति में मंडरा रहा है और कह रहा है यही हालात रहे तो आने वाले दिनों में भूपेश बघेल शीर्षासन करते केंद्र की सरकार को गरियाते देखे जाएंगे और केंद्र की मोदी सरकार हास्यासन करते हुए संदेश को अनदेखा करेगी और यहां की आवाम अपना सर पीटते हुए दिखेगी.

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