और शायद भूपेश बघेल यह भली-भांति जानते हैं कि अध्यक्ष की कुर्सी कांग्रेस पार्टी में सत्ता प्राप्ति का रास्ता होती है यह एक तरह से मुख्यमंत्री को भी कंट्रोल कर सकती है.
यही गुढ रहस्य है कि दिसंबर 2018 में छत्तीसगढ़ का मुख्यमंत्री बनने के बाद भी मुख्यमंत्री की कुर्सी के समक्ष तुच्छ पद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी को छोड़ना उन्हें नागवर गुजरा और लगभग छ: माह व्यतीत होने के बाद भी स्वयं आगे आकर 'अध्यक्षी' छोड़ने को तैयार नहीं हैं.
देखते ही देखते समय व्यतीत होता जा रहा है कांग्रेस पार्टी अर्श से फर्श को यानी नवंबर के विधानसभा चुनाव के दरम्यान ऊंचाई पर पहुंच कर मई 2019 मैं लोकसभा चुनाव के दरम्यान फर्श पर धड़ाम से गिर कर चारों खाने चित हो चुकी है.मगर कोई कांग्रेसमैन पदाधिकारी दिल्ली मैं बैठे आलाकमान यह चिंतन करने की जहमत नहीं उठा रहे कि आखिर इस सबके पीछे रहस्य क्या है.
'अध्यक्षी' की हलचल शुरू....
प्रदेश में भूपेश बघेल मुख्यमंत्री भी है और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदर यानी अध्यक्ष भी हैं.एक व्यक्ति एक पद सिद्धांत की बातें कांग्रेस में बहुत होती हैं मगर यह हवा हवाई बातें जमीन पर तब ही उतरती है जब बहुत देर हो चुकी होती है.
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अगरचे विधानसभा चुनाव के पश्चात 2018 में मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही भूपेश बघेल स्वयं हो कर अध्यक्ष पद का परित्याग करते तो कांग्रेस की हालत प्रदेश में इतनी पतली नहीं होती, न ही इतनी शर्मनाक हार का सामना करना पड़ता.ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री और राजनेता के रूप मे भूपेश बघेल का कद भी बढ़ता.लोकसभा में अच्छा प्रतिसाद मिलता तब भी भूपेश बघेल का कद बढ़ जाता की इनके नेत्तव मैं विधानसभा में बेहतरीन परिणाम आए थे और जो नए अध्यक्ष बने हैं वह फ्लॉप हो गए.मगर भूपेश बघेल यह मानकर चल रहे थे कि प्रदेश में कांग्रेस की लहर है उनका जादुई नेत्तव है इसलिए 11 मे 11 सीटें कांग्रेस जीतेगी। मगर हुआ उलट मात्र दो लोकसभा सीटें ही कांग्रेस की झोली में आ पायी.