गहरी पैठ

अपने कैरियर की शुरुआत से ठाकरे परिवार ने यदि कोई सही फैसला लिया है, तो अब भारतीय जनता पार्टी के साथ बिना मुख्यमंत्री बने सरकार न बनाने का फैसला लिया है. वरना तो यह पार्टी बेमतलब में कभी दक्षिण भारतीयों, कभी बिहारियों, कभी हिंदू पाखंडवादियों के नाम पर हल्ला मचाती रहती थी. शिव सेना का असर महाराष्ट्र में गहरे तक है. महाराष्ट्र की मूल जनता जो पहले खेती करती थी, छोटी कारीगरी करती थी, बाल ठाकरे की नेतागीरी में ही अपना वजूद बना पाई थी.

अफसोस यह है कि 1966 में जन्म से ही शिव सेना भगवा दास की तरह बरताव कर रही है. उस ने वे काम किए जो भारतीय जनता पार्टी सीधे नहीं कर सकती थी. उस ने तोड़फोड़ की नीति अपनाई जिस से वह भगवा एजेंडे का दमदार चेहरा बनी, पर हमेशा भारतीय जनता पार्टी की हुक्मबरदार थी. महाराष्ट्र के मराठे लोग खेती करने वालों में से आते हैं. उन्होंने ही महाराष्ट्र को ऊंचाइयों पर पहुंचाया था. शिवाजी ने ही औरंगजेब से तब दोदो हाथ किए थे, जब उस की सत्ता को चुनौती देने वाला कोई न था. मुगल राज को खत्म करने में मराठों की सेना का बड़ा हाथ था.

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लेकिन शिवाजी के बाद मराठों की नेतागीरी फिर पुरोहितपेशवाओं के हाथों में आ गई. वे ही मराठा साम्राज्य को चलाने लगे थे. 1966 में बाल ठाकरे ने जिस भी वजह से शिव सेना बनाई हो, उस को इस्तेमाल किया गया. उस के लोग महाराष्ट्र के गांवगांव में हैं. वे ही कारखानों की यूनियनों में  झंडा गाड़े रहे. कम्यूनिस्ट आंदोलन को उन्होंने ही हराया, लेकिन वे हरदम चाह कर या अनजाने में सेवक बने रहे. जब मुख्यमंत्री पद एक बार मिला था तो भी भाजपा की कृपा से.

अब 2019 में उद्धव ठाकरे अड़ गए कि वे अपनी कीमत लेंगे. वे केवल मजदूर नहीं हैं जो भाजपा की पालकी उठाएंगे. वे खुद पालकी में बैठेंगे. शिव सेना का मुख्यमंत्री पर हक जमाना सही है, क्योंकि भाजपा की जीत शिव सेना की वजह से हुई है. 2014 में भी भाजपा और शिव सेना अलगअलग लड़ीं, पर भाजपा को 122 सीटें मिली थीं और शिव सेना को 63. भाजपा ने 2019 में मई में लोकसभा चुनावों के बाद एक फालतू का सा मंत्रालय दिल्ली कैबिनेट में दे कर बता दिया था कि उद्धव ठाकरे या नीतीश कुमार की हैसियत क्या है.

कांग्रेस के लिए इस हालत में शिव सेना से समझौते का फैसला करना आसान नहीं है, क्योंकि भाजपा हर तरह से शिव सेना को फुसला सकती है. 6-8 महीने में शिव सेना को मजबूर कर सकती है कि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी या कांग्रेस से किसी बात पर  झगड़ कर फिर भाजपा के खेमे में आ जाए. 11 दिसंबर को कांग्रेस ने फैसले में देर लगाई तो शिव सेना को निराशा हुई, पर जो यूटर्न शिव सेना ले रही है वह आसानी से पचने वाला नहीं है. शिव सेना को यह जताना होगा कि अब तक उस को गुलामों की तरह इस्तेमाल किया गया है. वह महाराष्ट्र की राजा नहीं थी, केवल मुख्य सेवक थी. उम्मीद करें कि यह अक्ल उन और पार्टियों को भी आएगी जो भाजपा के अश्वमेध घोड़े के साथ चल कर अपने को चक्रवर्ती सम झ रही हैं. वे केवल दास हैं, जैसे उन के वोटर हैं.

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देश के सामने असली परेशानी मंदिरमसजिद नहीं है, बेरोजगारी है. यह बात दूसरी है कि आमतौर पर धर्म के नाम पर लोगों को इस कदर बहकाया जा सकता है कि वे रोजीरोटी की फिक्र न कर के अपनी मूर्ति के लिए जान भी दे दें और अपने पीछे बीवीबच्चों को रोताकलपता छोड़ जाएं. जब देश के नेता मंदिर की जीत पर जश्न मना रहे थे, उस समय 15 साल से 35 साल की उम्र के 58 करोड़ लोगों में नौकरी की फिक्र बढ़ रही थी.

इन में से काफी नौकरी के लिए तैयार से हैं और काफी नौकरी पाए हुए हैं. जिन के पास नौकरी है उन्हें पता नहीं कि यह नौकरी कब तक टिकेगी. जिन के पास नहीं है वे अपना पैसा या समय गलियों, खेतों में बेबात गुजारते हैं. इस देश में हर साल 1 से सवा करोड़ नए जवान लड़केलड़कियां पहले नौकरी ढूंढ़ते हैं. क्या इतनी नौकरियां हैं?

देश में बड़े कारखानों की हालत बुरी है. सरकार की सख्ती से बैंकों ने कर्ज देना बंद सा कर दिया है. कभी प्रदूषण के मामले को ले कर, कभी टैक्स के मामले को ले कर कभी सस्ते चीनी सामान के आने से भारतीय बड़े उद्योग न के बराबर चल रहे हैं, लगना तो दूर. अखबार हर रोज उद्योगों, बैंकों, व्यापारों के घाटे के समाचारों से भरे हैं.

छोटे उद्योगों, कारखानों और दुकानों में काफी नौकरियां निकलती हैं. देश के 6 करोड़ छोटे कामों में 14 करोड़ को रोजगार मिला हुआ है, पर इन में से 5 करोड़ लोग तो अपना रोजगार खुद करते हैं. ये खुद काम करने वाले हर तरह की आफत सहते हैं. इन के पास न तो काम करने की सही जगह होती है, न ही कोई नया काम करने का हुनर. इन 6 करोड़ छोटे काम देने वालों में 10 से ज्यादा लोगों को काम देने वाले सिर्फ 8 लाख यूनिट हैं.

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इन 14 करोड़ लोगों को जो काम मिला है वह बड़ी कृपा है पर उन के पास न नया हुनर है, न उन की कोई खास तमन्ना है. वे जेल व कैदियों का सा काम करते हैं. वे इतना न खुद कमा पाते है, न कमा कर मालिक को दे पाते हैं कि कुछ बचत हो, बरकत हो, काम बड़ा हो सके. 50 करोड़ लोग जहां नौकरी पाने के लिए खड़े हों वहां ये 6 करोड़ काम देने वाले क्या कर सकते हैं?

सरकारी नौकरियां देश में कुल 3-4 करोड़ हैं. इस का मतलब हर साल बस 30-40 लाख नए लोगों को काम मिल सकता है. आरक्षण इसी 30-40 लाख के लिए है और उसी को खत्म करने के लिए मंदिर का स्टंट रचा जा रहा है, ताकि लोगों का दिमाग, आंख, कान, मुंह बेरोजगारी से हटाया जा सके और जो नौकरियां हैं, वे भी ऊंचे लोग हड़प जाएं और चूं तक न हो.

दलितों को तो छोडि़ए वे बैकवर्ड जो भगवा गमछा पहने घूम रहे हैं, यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर कोई भी मंदिर उन की नौकरी को पक्का कैसे करेगा. उन्हें लगता है कि भगवान सब की सुनेगा. भगवान सुनता है, पर उन की जो भगवान की झूठी कहानी बनाते हैं, सुनाते हैं, बरगलाते हैं.

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महाराष्ट्र: शरद पवार ने उतारा भाजपा का पानी

कोई नैतिकता, कोई आदर्श, कोई नीति और सिद्धांत नहीं है. जी हां! एक ही दृष्टि मे यह स्पष्ट होता चला गया की महाराष्ट्र में किस तरह मुख्यमंत्री पद और सत्ता के खातिर देश के कर्णधार, आंखो की शरम भी नहीं रखते.

इस संपूर्ण महाखेल मे एक तरह से भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान शीर्षस्थ  मुखिया, प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का शरद पवार ने अपनी सधी हुई चालो से देश के सामने पानी उतार दिया है और क्षण-क्षण की खबर रखने वाली मीडिया विशेषता: इलेक्ट्रौनिक मीडिया सब कुछ समझ जानकर के भी सच को बताने से गुरेज करती रही है.

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नि:संदेह सत्तासीन मोदी और शाह को यह शारदीय करंट कभी भुला नहीं जाएगा क्योंकि अब जब अजित पवार उप मुख्यमंत्री की शपथ अधारी गठबंधन मे भी ले रहे हैं तो यह दूध की तरह साफ हो जाता है की शरद पवार की सहमति से ही अजीत पवार ने देवेंद्र फडणवीस के साथ खेल खेला था.

भूल गये बहेलिए को !

बचपन में एक कहानी, हम सभी ने पढ़ी है, किस तरह एक बहेलिया पक्षी को फंसाने के लिए दाना देता है और लालच में आकर पक्षी बहेलीए के फंदे में फंस जाता है महाराष्ट्र की राजनीतिक सरजमी में भी विगत दिनों यही कहानी एक दूसरे रूपक मे, देश ने देखी. पक्षी तो पक्षी है, उसे कहां बुद्धि होती है. मगर, हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां और उनके सर्वे सर्वा भी ‘पक्षी’ की भांति जाल में फंस जाएंगे, तो यह शर्म का विषय है. शरद पवार नि:संदेह राजनीतिक शिखर पुरुष है और यह उन्होंने सिध्द भी कर दिया.

इस मराठा क्षत्रप में सही अर्थों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की युति को धोबी पछाड़ मारी है.

शरद पवार जानते थे की अमित शाह बाज नहीं आएंगे और सत्ता सुंदरी से परिणय के पूर्व या बाद में बड़ा  खेल खेलेंगे, इसलिए उन्होंने सधी हुई चाल से भतीजे  अजीत पवार को 54 विधायकों के लेटर के साथ फडणवीस के पास भेजा. जानकार जानते हैं की जैसे बहेलिए ने पक्षी फंसाने दाने फेंके थे और पक्षी फस गए थे देवेंद्र फडणवीस और सत्ता की मद में आकर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उस जाल में फस गया. देश ने देखा की कैसे शरद पवार की पॉलिटेक्निकल गेम में फंसकर बड़े-बड़े नेताओं का पानी उतर गया.

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इतिहास में हुआ नाम दर्ज

महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में भगत सिंह कोशियारी और देवेंद्र फडणवीस का इस तरह महाराष्ट्र की राजनीति और इतिहास में एक तरह से नाम दर्ज हो गया. यह साफ हो गया कि 5 वर्षों तक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे देवेंद्र फडणवीस कितने सत्ता के मुरीद हैं की उन्होंने रातों-रात सरकार बनवाने में थोड़ी भी देर नहीं की और जैसी समझदारी की अपेक्षा थी वह नहीं दिखाई.

देश ने पहली बार देखा एक मुख्यमंत्री कैसे 26/11 के शहीदों की शहादत के कार्यक्रम मे अपने उपमुख्यमंत्री अजीत पवार का इंतजार पलक पावडे बिछा कर कर रहे हैं. सचमुच सत्ता की चाहत इंसान से क्या कुछ नहीं करा सकती. इस तरह महाराष्ट्र के सबसे अल्प समय के मुख्यमंत्री के रूप में देवेंद्र फडणवीस का नाम दर्ज हो गया. मगर जिस तरह उनकी भद पिटी वह देश ने होले होले मुस्कुरा कर देखी.

मराठा क्षत्रप शरद भारी पड़े

महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में शरद पवार की धमक लगभग चार दशकों से है. यही कारण है की देश भर में शरद पवार की ठसक देखते बनती है. उन्हें काफी सम्मान भी मिलता है. क्योंकि शरद पवार कब क्या करेंगे कोई नहीं जानता. राजनीति की चौपड़ पर अपनी सधी हुई चाल के कारण वे एक अलग मुकाम रखते हैं.

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सन 78′ में जनता सरकार के दरम्यान 38 वर्षीय शरद पवार ने राजनीति का सधा हुआ  दांव चला था की मुख्यमंत्री बन गए थे. उन्होंने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, जैसी शख्सियतो के साथ राजनीति की क, ख, ग खेली और सोनिया गांधी के रास्ते के पत्थर बन गए थे समय बदला दक्षिणपंथी विचारधारा को रोकने उन्होंने कांग्रेस के साथ नरम रुख अख्तियार किया है और एक अजेय योद्धा के रूप में विराट व्यक्तित्व के साथ मोदी के सामने खड़े हो गए हैं देखिए आने वाले वक्त में क्या वे विपक्ष के सबसे बड़े नेता पसंदीदा विभूति बन कर प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी बनेंगे या फिर…

हे राम! देखिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की दो नावों की सवारी

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस, भाजपा के पद चिन्हों पर चलने को आतुर दिखाई दे रही है. शायद यही कारण है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कैबिनेट ने भाजपा के राम राम जाप को बड़ी शिद्दत के साथ अंगीकार करने में कोताही नहीं की है. और यह जाहिर करना चाहती है, कि राम तो हमारे हैं और हम राम के हैं. कांग्रेस सरकार को, राम मय दिखाने की सोच के तहत, छत्तीसगढ़  सरकार ने  “राम के वनगमन पथ” को सहेजते हुए इन स्थलों का पर्यटन की दृष्टि से विकसित किए जाने का ऐलान किया है, जो इसी सोच का सबब है.

21 नवंबर 2019  को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की अध्यक्षता में हुई मंत्रीपरिषद की बैठक में जो  निर्णय लिया गया, वह एक तरह से भाजपा के बताए  पद चिन्हों  पर चलना है.संपूर्ण कवायद पर निगाह डालें तो पहली ही दृष्टि में यह स्पष्ट हो जाता है कि भूपेश बघेल सरकार की सोच कैसी पंगु है. सबसे बड़ी बात यह है कि भगवान राम करोड़ों वर्ष पूर्व हुए थे. यह मान्यताएं हैं की छत्तीसगढ़ जो कभी  “दंडकारण्य” था, यहां से राम ने गमन किया था. दरअसल, यह सिर्फ और सिर्फ किवंदती एवं मान्यताएं हैं. इसका कोई वैज्ञानिक आधार अभी तक जाहिर नहीं हुआ है. ऐसे में क्या यह  सारी कवायद लकीर का फकीर बनना नहीं होगा. इसके अलावा भी अन्य कई पेंच है जिसका सटीक जवाब कांगेस के पास नहीं होगा, देखिए यह खास  रिपोर्ट-

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 राम के संदर्भ में मान्यताएं बनी आधार

आइए, अब जानते हैं, क्या है  मान्यताएं और “श्रीराम का वनगमन पथ” ….कहा जाता है छत्तीसगढ़ का इतिहास प्राचीन है. त्रेतायुगीन छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम दक्षिण कौसल एवं दण्डकारण्य के रूप में विख्यात था. दण्डकारण्य में भगवान श्रीराम के वनगमन यात्रा की पुष्टि वाल्मीकि रामायण से होती है. शोधकर्ताओं की शोध किताबों से प्राप्त जानकारी अनुसार प्रभु श्रीराम द्वारा अपने वनवास काल के 14 वर्षों में से लगभग 10 वर्ष का समय छत्तीसगढ़ में व्यतीत किया गया था.

छत्तीसगढ़ के लोकगीत में माता सीता जी की पहचान कराने की मौलिकता एवं वनस्पतियों के वर्णन मिलते हैं.  श्रीराम द्वारा उत्तर भारत से दक्षिण में प्रवेश करने के बाद छत्तीसगढ़ में विभिन्न स्थानों पर चैमासा व्यतीत करने के बाद दक्षिण भारत में प्रवेश किया गया था. अतः छत्तीसगढ़ को दक्षिणापथ भी कहा जाता है. मान्यता है छत्तीसगढ़ में कोरिया जिले के भरतपुर तहसील में नदी से होकर जनकपुर नामक स्थान से लगभग 26 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सीतामढ़ी पर चैका नामक स्थल से  श्रीराम ने छत्तीसगढ़ में प्रवेश किया.

इस राम वनगमन पथ के विषय पर शोध का कार्य राज्य में स्थित संस्थान छत्तीसगढ़ स्मिता प्रतिष्ठान रायपुर द्वारा किया गया है। स्थानीय साहित्यकार मनु लाल यादव द्वारा रामायण किताब का प्रकाशन किया गया तथा इसी विषय पर छत्तीसगढ़ पर्यटन में राम वनगमन पथ के नाम से पुस्तक का प्रकाशन किया गया है. श्रीराम ने छत्तीसगढ़ में 10 वर्षों के वनगमन के दौरान लगभग 75 स्थलों का भ्रमण किया था तथा इनमें 51 स्थान ऐसे हैं जहां  श्रीराम ने भ्रमण के दौरान कुछ समय व्यतीत किया था.

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अब इस सब को लेकर के सरकार द्वारा योजना बनाई जा रही है कि लोग आ कर प्रभु राम का वन गमन क्षेत्र का भ्रमण करेंगे जो सीधे-सीधे उन क्षेत्रों के प्राकृतिक और नैसर्गिक भाव को सरकार द्वारा  विकृत  करना  ही होगा. अच्छा हो, प्राचीन मान्यता के अनुरूप जैसी स्थिति है, वही बनी रहे, वहां किसी भी तरह की छेड़-छाड़, नव निर्माण भारतीय पुरातत्व अधिनियम के तहत भी अवैध माना जाएगा.

 भूपेश बघेल भी जपने लगे राम राम!

शायद कांग्रेस पार्टी ने यह मान लिया है कि जिस तरह भाजपा ने राम राम जप कर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी नैया पार लगाई, अब कांग्रेस को भी ऐसा ही करना होगा. अब विकास  का मुद्दा महत्वहीन हो चुका है,अब तो कुर्सी पाना है, तो बस राम राम जप लो. आगामी समय में छत्तीसगढ़ में नगरीय निकाय चुनाव एवं पंचायत चुनाव हैं. ऐसे में राम गमन के मसले को बेतरह से उठाना यह इंगित करता है कि भूपेश सरकार भी छत्तीसगढ़ की आवाम को भगवान राम के नाम पर आकर्षित करना चाहती है. और अपना वोट बैंक और भी ज्यादा मजबूत बनाने के लिए प्रयत्नशील है.

यह होगी विकास की योजना 

छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा  राम वनगमन पथ को पर्यटन की दृष्टि से विकसित किए जाने की कार्य योजना का आगाज कर दिया गया है.इसका उद्देश्य राज्य में आने वाले पर्यटकों के साथ-साथ प्रदेश के लोगों को भी इन राम वनगमन मार्ग स्थलों से परिचित कराना है. इन स्थलों का भ्रमण करने के दौरान पर्यटकों को सुविधा हो सके, इस लिहाज से योजना तैयारी की जा रही है.

राज्य सरकार द्वारा बजट उपलब्ध कराया जाएगा. साथ ही भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय की योजनाओं से भी राशि प्राप्त करने का प्रयास किया जाएगा.इन स्थलों का राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचार प्रसार भी किया जाएगा. पहुंच मार्ग के साथ पर्यटक सुविधा केंद्र, इंटरप्रिटेशन सेंटर, वैदिक विलेज, पगोड़ा, वेटिंग शेड, पेयजल व शौचालय आदि मूलभूत सुविधाएं विकसित की जाएंगी. बताया गया है विकास कार्य शुभारंभ चंद्रपुरी में स्थित माता कौशल्या के मंदिर से किया जाएगा.

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विकास योजना तैयार करने के पूर्व विशेषज्ञों का एक दल सर्वे करेगा. इस तरह भूपेश बघेल ने एक तरह से इस संपूर्ण परियोजना को हरी झंडी दे दी है मगर यह धरातल पर कब कैसे उतरेगा इस पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है क्योंकि सरकारी योजनाएं कागजों पर और अखबारों की सुर्खियों में तो आकर्षित करती हैं मगर हकीकत में उनकी दशा बहुत दयनीय होती है इसका सच जानना हो तो डॉक्टर रमन के कार्यकाल के पर्यटन विकास के ढोल को देखना समझना काफी होगा करोड़ों, अरबों रुपए कि कैसे बंदरबांट बात हो गई और फाइलें बंद पड़ी हैं .

हास्यास्पद पहल- 11 लाख का पुरस्कार!

राम गमन और भगवान राम के नाम पर आप कुछ भी कर ले, सब माफ है. शायद यही सोच भाजपा के बाद अब कांग्रेस भी अपनाती चली जा रही है.

अब वह प्रगतिशील महात्मा  गांधी और जवाहरलाल  नेहरू की कांग्रेस नहीं है. आज की कांग्रेस शायद संघ की हिंदुत्ववादी सोच के पीछे चलने वाली दकियानूसी कांग्रेस बन चुकी है. यही कारण है कि कांग्रेस के पूर्व विधायक और दूधाधारी मठ के प्रमुख महंत राम सुंदर दास ने इसी तारतम्य में यह घोषणा कर दी है कि माता कौशल्या का जन्मदिन की गणना करके जो बताएगा, उसे वह स्वयं अपनी ओर से 11 लाख रुपए का पुरस्कार,सम्मान राशि देंगे.

यही नहीं, भूपेश बघेल के नेतृत्व में कौशल्या माता के मंदिर का जीर्णोद्धार का काम भी शुरू हो गया है. क्योंकि उसके लिए पैसा सरकार नहीं दे सकती, सुप्रीम कोर्ट की बंदिशें है, इसलिए विधायकों ने दो लाख  बीस हजार रुपए मुख्यमंत्री को अपनी ओर से दिया है की मंदिर बनवाया जाए! अर्थात सीधी सी बात है जो काम भाजपा नहीं कर सकी जो काम हिंदुत्ववादी संगठन नहीं कर सके, अब वह अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता करेंगे और यह संदेश देंगे की, हे जनता!आओ हम भी राम भक्त हैं, हमने भी माता कौशल्या का मंदिर बनाया है, हमें भी वोट दो.

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चाहे कुपोषण में बच्चे मरते रहे, आंगनबाड़ियों में स्कूलों में पहुंचने वाला भोजन, खाद्यान्न की लूट चलती रहे, सफाई ना हो, सड़कें न बने, बिजली पैदा ना हो, मगर वोट हमें  ही देना. अगर भूपेश बघेल सरकार और कांग्रेस पार्टी को यह लगता है कि राम नाम जपने से कांग्रेस पार्टी का और प्रदेश का कल्याण हो जाएगा तो राम वन गमन के प्रपंच से अच्छा होगा क्यों न छत्तीसगढ़ का नाम ही बदल दिया जाए और प्राचीन “दंडकारण्य”  रख दिया जाए. इससे कांग्रेस पार्टी की साख और बढ़ जाएगी कि देखो इनमे  भगवान राम के प्रति कितनी श्रद्धा आ गई है!

महुआ के पेड़ का अंधविश्वास

अंधविश्वास की बेडि़यों में समाज के केवल अनपढ़ या निचले और थोड़े ऊंचे तबके के लोग ही नहीं जकड़े हुए हैं, बल्कि अपनी काबिलीयत का दंभ भरने वाले पढ़ेलिखे और ऊंचे तबके के लोग भी इस की गिरफ्त में हैं.

लोगों की आदत कुछ इस तरह हो गई है कि अखबार और पत्रपत्रिकाओं को पढ़ने के बजाय वे सोशल मीडिया में आने वाली खबरों पर यकीन करने लगे हैं. लोग किसी खबर या घटना के सही या गलत होने की पड़ताल न कर के कहीसुनी बातों पर भरोसा कर के भेड़चाल चलने लगे हैं.

इसी भेड़चाल का नजारा नवरात्र के मौके पर मध्य प्रदेश के हिल स्टेशन पिपरिया, पचमढ़ी से लगे सतपुड़ा टाइगर रिजर्व क्षेत्र में देखने को मिला. पिपरिया से तकरीबन 17 किलोमीटर दूर नयागांव ग्राम पंचायत के तहत कोड़ापड़रई गांव के जंगल में एक महुआ के पेड़ को महज छूने भर से लोगों की शारीरिक और मानसिक परेशानियां दूर होने की खबर सोशल मीडिया पर क्या वायरल हुई, हजारों की तादाद में अंधभक्तों की भीड़ वहां जमा होने लगी.

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हमारे देश में गरीबी की एक वजह यह भी है कि यहां लोग कामधंधा छोड़ कर चमत्कारों के पीछे भागने लगते हैं.

महुआ के चमत्कारिक पेड़ का राज जानने के लिए शरद पूर्णिमा के दिन मैं अपने पत्रकार दोस्त के साथ वहां पहुंचा तो वहां का नजारा देख कर हम दंग रह गए. सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच कोरनी और कुब्जा नदी को पार कर हम वहां पहुंच गए.

महुआ के पेड़ के चारों ओर हजारों की तादाद में मर्दऔरतों की भीड़ जमा थी. पेड़ के आसपास नारियल, अगरबत्ती के खाली पैकेट और प्लास्टिक की पन्नियों का ढेर लगा था. लोग अपने हाथों में जलती हुई अगरबत्ती और नारियल ले कर महुआ के पेड़ के चक्कर लगा रहे थे.

उस महुआ पेड़ के पास उसे छोटेछोटे दूसरे पेड़ों की शाखाओं पर लोगों द्वारा अपनी मुराद पूरी होने के लिए धागा, कपड़ा और प्लास्टिक की पन्नी बांधने का सिलसिला चल रहा था. पास जा कर देखा तो उस पेड़ के पास देवीदेवताओं की मूर्तियां और फोटो रखे थे, जिन पर फूल, बेलपत्र और नारियल चढ़ाने के लिए लोग धक्कामुक्की कर रहे थे.

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वहां पर आसपास के पत्रकारों और टैलीविजन चैनलों के प्रतिनिधि भी जमा थे, जो महुआ पेड़ के चमत्कार को बढ़चढ़ कर पेश कर रहे थे.

हम ने वहां मौजूद लोगों से बातचीत का सिलसिला शुरू किया तो पता चला कि नवरात्र के तकरीबन एक हफ्ते पहले एक आदिवासी चरवाहा जंगल में बकरी चराने गया था, जिस को जोड़ों के दर्द के चलते चलनेफिरने में परेशानी होती थी. उस शख्स ने अनजाने ही पेड़ को छू लिया तो उस के जोड़ों की पीड़ा दूर हो गई.

जब यह बात आदिवासी इलाकों में फैली तो वहां के अनपढ़ आदिवासी सतरंगी  झंडे और औरतें कलश ले कर उस जगह पर पहुंच गए और पेड़ को पूजने लगे.

सोशल मीडिया पर जब यह घटना वायरल हुई, तो मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा, बैतूल, नरसिंहपुर, रायसेन, होशंगाबाद जिले के अंधभक्तों की भीड़ वहां जमा होने लगी. भीड़ के मनोविज्ञान का फायदा प्रसाद बेचने वाले दुकानदारों ने जम कर उठाना शुरू कर दिया.

इस जगह पर ऐसी तमाम दुकानें लग रही हैं. चायनाश्ते की दुकानों पर धड़ल्ले से सिंगल यूज प्लास्टिक के डिस्पोजल का ढेर संरक्षित जंगल को प्रदूषित कर रहा है.

एक पंडित वहां आए लोगों को कुमकुम का तिलक लगा कर 10-10 रुपए दक्षिणा ले कर अपना आशीर्वाद बांट रहे थे.

कुछ पंडेपुजारी तंत्रमंत्र के नाम पर लोगों को बरगला कर महुआ के पेड़ के चमत्कार को महिमामंडित कर अपनी दानदक्षिणा बटोरने में लग गए थे.

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पूरे वन क्षेत्र में मेले जैसा नजारा देखने को मिल रहा था. 2-3 दुकानों पर बाकायदा महुआ के पेड़ पर अंकित देवीदेवताओं के चित्र वाले फोटो 50-50 रुपए में बेचे जा रहे थे और लोग उन्हें खरीद भी रहे थे.

हर दिन भीड़ के बढ़ने से आसपास की सड़कों पर जाम लगने लगा तो पुलिस प्रशासन हरकत में आया. तहसील के एसडीएम और तहसीलदार पुलिस टीम के साथ वहां पहुंचे तो भीड़तंत्र के सामने वे भी मायूस हो गए.

वन्य जीवों की सिक्योरिटी के नजरिए से इस क्षेत्र को प्रतिबंधित किया गया है. लेकिन हैरानी की बात यह रही कि वन विभाग का अमला अंधभक्तों की भीड़ को रोकने में नाकाम ही रहा.

वन विभाग के रेंजर पीआर पदाम अपनी गाड़ी में लगे माइक से प्रतिबंधित क्षेत्र का हवाला देते हुए लोगों को आगे न बढ़ने की सम झाइश दे रहे थे, लेकिन भीड़ पर इस का कोई असर नहीं पड़ रहा था.

सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के एसडीओ लोकेश नैनपुरे का कहना था कि वहां पर कोई चमत्कार नहीं हो रहा है, लेकिन हम बलपूर्वक लोगों को हटा नहीं सकते हैं.

पिपरिया स्टेशन रोड थाने के प्रभारी सतीश अंधवान अपने स्टाफ के साथ सिविल ड्रैस में पहुंचे और अंधविश्वास को रोकने के बजाय वे भी भीड़तंत्र का हिस्सा बन गए.

छिंदवाड़ा जिले के तामिया के बाशिंदे सोमनाथ ठाकुर महुआ के पेड़ के इस चमत्कार की बात सुन कर अपनी मां को ले कर यहां आए थे, जो पिछले 2 सालों से लकवे के चलते बिस्तर पर पड़ी थीं. पर यहां आ कर उन्हें निराश ही होना पड़ा.

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कोड़ापड़रई गांव के इस चमत्कारिक पेड़ की अफवाह पर यकीन कर टिमरनी के रायबोर गांव का बबलू बट्टी आज जिंदगी और मौत के बीच जू झ रहा है.

13 अक्तूबर, 2019 को बबलू बट्टी ने पेड़ की परिक्रमा की और ठीक होने की मंशा से घर वापस आ गया, लेकिन उस की हालत बिगड़ गई और उसे आननफानन भोपाल के बड़े अस्पताल में भरती कराना पड़ा.

रायबोर गांव के राजू दीक्षित ने बताया कि अभी बबलू बट्टी की हालत गंभीर है और उसे आईसीयू में रखा गया है.

छिंदवाड़ा चावलपानी की 30 साला बुधिया बाई ठाकुर के मुंह में कैंसर हो गया और उस का पति रामविलास ठाकुर डाक्टरों को छोड़ उस पेड़ के पास ले कर आया.

हरदा के राजेंद्र मेहरा, बरेली के सुलतान खान, शबीना बी समेत अनेक लोग अपनी गंभीर बीमारी ठीक होने की कामना करते हुए वहां आ रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई भी शख्स ऐसा नहीं मिला जिस ने खुल कर कहा हो कि उसे महुआ के पेड़ को छूने से कोई राहत मिली है.

उस पेड़ को ले कर हर रोज नईनई अफवाहें चल रही हैं और रोज ही हजारों लोग उस पेड़ को देखने जा रहे हैं, जिसे लोग चमत्कारी मान रहे हैं.

आसपास के इलाकों के लोगों से बातचीत में यह पता चला कि असल में नयागांव के 30 साला रूप सिंह ठाकुर ने अफवाह उड़ाई कि उसे उस महुआ के पेड़ ने खींच कर चिपका लिया और तकरीबन 10 मिनट तक चिपकाए रखा.

इस के बाद वह रोजाना ही उस पेड़ के पास जाता रहा और ठीक हो गया, लेकिन गांव वालों ने यह नहीं बताया कि उसे कौन सी बीमारी थी.

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वन विभाग के बीट प्रभारी ने इस अफवाह उड़ाने वाले को पहचान लिया है. रूप सिंह पढ़ालिखा नहीं है और लोग उस की बातों में आ कर दर्शनों के लिए वहां आने लगे और देखते ही देखते यह तादाद हजारों में पहुंच गई.

गंभीर बीमारी में आराम लगने की चाह से बहुत दूरदूर के लोग महुआ के इस पेड़ के पास पहुंच रहे हैं. बनखेड़ी से 15 किलोमीटर दूर और पिपरिया से 17 किलोमीटर दूर इस जगह का किराया भी वाहन चालक जम कर वसूल रहे हैं. यहां आ कर यह देखने को मिला कि पढ़ेलिखे सभ्य समाज के लोग कैसे एक अनपढ़ आदमी द्वारा फैलाई गई अफवाह के चक्कर में अपना कीमती समय और पैसा खर्च कर रहे हैं.

प्रतिबंधित सतपुड़ा के जंगल में चूल्हा जला कर बाटीभरता और हलवापूरी का भंडारा चल रहा है. इस से जंगल का तापमान भी बढ़ गया है. पेड़ों के नीचे सूखे हुए पत्तों और लकडि़यों का ढेर लगा है, जो कभी किसी बड़ी अग्नि दुर्घटना की वजह भी बन सकता है. अभी तक प्रशासन की ओर से लोगों को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है. धर्म के नाम पर लोगों की आस्था से खिलवाड़ किया जा रहा है.

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एक-एक कर बिखरता जा रहा एनडीए गठबंधन, 1999 में पहली बार देश में बनाई थी सरकार

महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन चल रहा है. जबकि जनता ने शिवसेना और बीजेपी के गठबंधन को पूर्ण बहुमत दिया. लेकिन सीएम पद की खींचतान के बीच महाराष्ट्र की जनता को इनाम स्वरूप राष्ट्रपति शासन मिल गया जबकि जनता का इसमे कोई दोष नहीं है. राजनीति के इतिहास में जाकर खोजना होगा कि आखिरकार गठबंधन की राजनीति का सूर्योदय कब हुआ और आखिरकार क्या ये वही एनडीए है जिसने कभी 24 दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई थी और सफलतापूर्वक पांच साल भी पूरे किए थे.

देश में गठबंधन की राजनीति 1977 में ही शुरू हो गई थी, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ सभी पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा था और इंदिरा गांधी को सत्ता से हटा दिया था. इस गठबंधन ने इंदिरा को कुर्सी से हटा दो दिया लेकिन गठबंधन सरकार चलाने में असफल रहे और 1980 में दोबारा इंदिरा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापिस काबिज हो गईं.

गठबंधन को सफल राजनीति करने के मामले में सबसे पहले नाम आता है पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का. वाजपेयी ने 24 दलों को साथ लाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए बनाया और पांच साल तक सरकार चलाई. अटल की यह उपलब्धि इसलिए भी खास थी क्योंकि उनसे पहले कोई भी गठबंधन सरकार पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी.

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उन 24 दलों में कुछ प्रमुख पार्टियों के नाम में यहां लेना चाहूंगा. जनता दल (यूनाइटेड), शिवसेना, तेलगू देशम पार्टी, एआईडीएमके या अन्नाद्रमुक, अकाली दल. ये वो सहयोगी थे जिन्होंने बीजेपी को समर्थन दिया था और पहली बार 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पांच साल गठबंधन हुआ था. लेकिन अब वक्त कुछ बदल गया. एनडीए के ज्यादातर सहयोगी उससे दूर होते जा रहे हैं.

इसका प्रमुख कारण है सत्ता का एकाधिकार. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी ने सभी सहयोगियों को समान अधिकार दिए और सभी की बात सुनी. 2004 में हुए चुनावों में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा. उसके बाद सबसे बड़ा राजनीतिक बदलाव तब आया जब 2014 में बीजेपी पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई. देखते ही देखते कई राज्यों में बीजेपी की सरकार बनती चली गई. नॉर्थ ईस्ट में कभी भाजपा एक-एक सीट को मोहताज रहती थी लेकिन बाद में वहां भी सरकार बनाई.

आखिरकार क्यों एनडीए लगातर बिखरता जा रहा है

मेरे अनुसार दो बातें हो सकती हैं. पहली बात बीजेपी का बढ़ता जनाधार जिसकी वजह से बीजेपी को ये लगता है कि वो बिना की सहयोगी के भी चुनाव जीत  सकती है और  सरकार बना सकती है. दूसरी बात बीजेपी को अब गठबंधन पसंद ही नहीं है. क्योंकि उसमें दूसरे दल का भी बराबर से दखल होता है. शिवसेना इसका जीता जागता उदाहरण है.

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बीजेपी-शिवसेना सबसे पक्के दोस्त माने जाते थे. लेकिन राजनीतिक लालच से दोनों को जुदा कर दिया है. शिवसेना को लग रहा था कि बीजेपी को अगर दोबारा चांस मिला था राज्य से उसकी सियासी जड़ें समाप्त हो जाएंगी. शिवसेना अपनी सियासी जमीन को किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी इसी वजह से शिवसेना ने ऐसी मांग रख दी जो बीजेपी को नागवार गुजरी.

बिहार में जनता दल (युनाइटेड)

एनडीए में शामिल दूसरी पार्टी जद(यू) है. यहां भी बीजेपी और जदयू के बीच सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है. एकबार तो दोनों का गठबंधन टूट भी चुका था और नीतीश कुमार ने अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाया और सरकार का गठन किया लेकिन ये बेमेल जोड़ी नहीं चल सकी और नीतीश कुमार ने बीजेपी से हाथ मिला ही लिया. लेकिन अब क्या हो रहा है. बेगूसराय से भाजपा सांसद गिरिराज सिंह समय-समय पर नीतीश कुमार को घेरते रहते हैं. नीतीश की पार्टी के भी कई नेता बीजेपी पर अपना गुस्सा जाहिर करते रहते हैं. दोनों के बीच मनमुटाव चर रहा है. जनता दल बीजेपी से अपनी नाराजगी भी व्यक्त कराती रहती है.

अब यहां हम बात कर लेते हैं झारखंड की. यहां पर भाजपा आजसू के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है.  सीटों के बंटवारे के मसले पर भाजपा के बैकफुट पर न आने के बाद पार्टी से जुड़े सूत्र इस सवाल का जवाब हां में दे रहे हैं. राज्य की कुल 81 सीटों में भाजपा अब तक 71 सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है. सिर्फ 10 सीटें छोड़कर भाजपा ने गेंद आजसू के पाले में डाल रखी है.

अगर इन सीटों पर आजसू ने रुख साफ नहीं किया तो भाजपा अपने दम पर सभी सीटों पर लड़ने की तैयारी में है. भाजपा को लगता है कि चुनाव पूर्व गठबंधन से ज्यादा बेहतर है जरूरत के हिसाब से चुनाव बाद गठबंधन करना.

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2014 में भाजपा को सबसे ज्यादा 37 सीटें मिलीं थीं. भाजपा ने स्थिर सरकार देकर जनता के दिल में जगह बनाई है. भाजपा मजबूत है और अकेले लक्ष्य हासिल कर सकती है.” झारखंड में सहयोगी आजसू ने कुल 19 सीटें मांगीं थीं, जबकि पिछली बार भाजपा ने उसे आठ सीटें दीं थीं, जिसमें से उसे पांच सीटों पर जीत मिली थी.

भाजपा को लगा कि महाराष्ट्र की तरह अगर झारखंड में भी उसने गठबंधन में अधिक सीटों पर समझौता किया तो फिर मुश्किल हो सकती है. चुनावी नतीजों के बाद जब शिवसेना साथ छोड़ सकती है तो फिर झारखंड में सहयोगी दल आजसू भी आंख दिखा सकती है.

इसी वजह से पार्टी ने पिछली बार से दो ज्यादा यानी अधिकतम 10 सीट ही आजसू को ऑफर की है. यही वजह है कि भाजपा ने 10 सीटें फिलहाल छोड़ी हैं. मगर आजसू ने भी सीटों के बंटवारे पर झुकने का फैसला नहीं किया. नतीजा रहा कि आजसू ने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुवा के खिलाफ भी चक्रधरपुर से अपना प्रत्याशी उतार दिया.

भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्य के विधानसभा चुनाव प्रभारी ओम माथुर सीटों के बंटवारे और गठबंधन के भविष्य की गेंद फिलहाल आजसू के पाले में डाल चुके हैं. पत्रकारों से बातचीत में वह कह चुके हैं, “भाजपा ने कुछ सीटें छोड़ी हैं, अब हम आजसू के रुख का इंतजार कर रहे हैं.”

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कमलेश तिवारी हत्याकांड खुलासे से खुश नहीं परिवार

लखनऊ में हिंदू समाज पार्टी के नेता कमलेश तिवारी की हत्या के बाद शुरुआती जांच में पुलिस ने मामले को निजी दुश्मनी से जोड़ा था. उस समय कमलेश तिवारी की मां कुसुमा देवी ने भी सीतापुर के भाजपा नेता शिवकुमार गुप्ता पर इस हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया था. लेकिन अचानक हत्या वाली जगह पर गुजरात के सूरत की धरती मिठाई शौप की आधा किलो काजू बरफी की 650 रुपए की रसीद और उस दुकान का कैरी बैग मिलने के बाद जांच का रुख बदल गया.

जिस रसीद को पुलिस अपनी जांच का आधार बना कर आगे बढ़ी, वह 16 अक्तूबर, 2019 की थी. 16 अक्तूबर को सूरत से चल कर 17 अक्तूबर की रात में आरोपी लखनऊ कैसे पहुंचे, यह पुलिस को पक्के तौर पर नहीं पता है. सूरत से लखनऊ आने वाली रेलगाड़ी उस दिन लेट थी.

यही नहीं, खुद कमलेश तिवारी ने इस हत्याकांड से कुछ दिन पहले अपने एक बयान में कहा था कि योगी सरकार उन की सिक्योरिटी हटा कर उन के ऊपर हमला करने वालों को मदद देने का काम कर रही है. मरने वाले कमलेश तिवारी और उन की मां कुसुमा देवी के बयान के बाद भी प्रदेश पुलिस ने बयान की दिशा में जांच को एक कदम आगे बढ़ाने लायक नहीं सम झा.

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उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने कमलेश तिवारी की हत्या के पहले भले ही उन की सिक्योरिटी में कटौती की हो, पर हत्या के बाद उन के परिवार को 15 लाख रुपए नकद और सीतापुर में एक मकान देने के साथ उन के परिवार को ऐसी सिक्योरिटी दी कि खुद परिवार के लोग खुल कर बोल नहीं पा रहे हैं.

लखनऊ के जिला प्रशासन ने कमलेश तिवारी की मां, पत्नी और बेटों को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलवाने का काम किया.

मुख्यमंत्री से मिलने के बाद भी मां कुसुमा देवी संतुष्ट नहीं थीं. उन का कहना था कि उन्हें सरकार की मदद नहीं चाहिए. पत्नी किरन ने 15 लाख रुपए का चैक अफसरों से लिया जरूर है, पर वे इस राहत से खुश नहीं थीं. यही नहीं, किरन तिवारी ने अपने पति कमलेश तिवारी द्वारा बनाई गई हिंदू समाज पार्टी के अध्यक्ष पद को खुद संभाल लिया.

किरन तिवारी ने कहा कि हिंदू समाज को जगाने का जो काम उन के पति ने शुरू किया था, अब वे खुद उस को आगे बढ़ाने का काम करेंगी.

उत्तर प्रदेश पुलिस ने 48 घंटे के अंदर कमलेश तिवारी हत्याकांड को सुल झाने का दावा भले ही किया हो, पर खुद कमलेश तिवारी का परिवार इस खुलासे से रजामंद नजर नहीं आ रहा है.

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ऐसे बढ़ी परेशानी

हिंदू समाज पार्टी के अध्यक्ष कमलेश तिवारी की हत्या को उत्तर प्रदेश की सरकार भले ही धार्मिक कट्टरपन से जोड़ कर देख रही हो, लेकिन कमलेश तिवारी का परिवार इस खुलासे से खुश नहीं है. ऐसे में यह सवाल बारबार उठ रहा है कि परिवार के सीधे आरोप लगाने के बाद भी पुलिस जांच के लिए आरोपी नेता से पूछताछ करने को भी तैयार नहीं है, जबकि वह नेता भाजपा से जुड़ा हुआ बताया जाता है.

असल में इस की एक बड़ी वजह हिंदू राजनीति में कमलेश तिवारी का बढ़ता कद मानी जा रही है.

50 साल के कमलेश तिवारी खुद की पहचान हिंदूवादी नेता के तौर पर बनाए रखना चाहते थे. इस वजह से दिसंबर, 2015 में उन्होंने मुसलिम पैगंबर हजरत मोहम्मद को निशाने पर लिया था.

दिसंबर, 2015 में कमलेश तिवारी ने ऐलान किया था कि वे हजरत मोहम्मद पर एक फिल्म बनाएंगे, जिस में उन के चरित्र को उजागर किया जाएगा. तब कमलेश तिवारी ने हजरत मोहम्मद के बारे में कई और एतराज जताने वाली बातें कही थीं.

इस के बाद पूरी दुनिया के मुसलिमों ने कमलेश तिवारी का तीखा विरोध किया था. सहारनपुर के रहने वाले मुसलिम मौलाना मुफ्ती नवीम काजमी और इमाम मौलाना अनवारूल हक द्वारा कमलेश तिवारी का सिर काट कर लाने वाले को डेढ़ करोड़ रुपए और हीरों का इनाम देने का वादा किया गया था. इस बात का वीडियो भी पूरे सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था.

मुसलिम समाज का जिस तरह कमलेश तिवारी को ले कर बड़े लैवल पर विरोध शुरू हुआ तो उसी की प्रतिक्रिया में हिंदुओं में उन का समर्थन शुरू हो गया. कमलेश तिवारी को पता था कि उन की कही बातों की कड़ी प्रतिक्रिया होगी, जिस के चलते उन की कट्टर हिंदूवादी नेता की इमेज बन सकेगी. वे अपनी इस योजना में कामयाब हो गए थे.

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उस समय की अखिलेश सरकार ने कमलेश तिवारी को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून  (रासुका) के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था. जेल में कमलेश तिवारी को इस बात का मलाल हो रहा था कि हिंदू महासभा के लोग उन की मदद को नहीं आए.

अब तक कमलेश तिवारी सोशल मीडिया पर कट्टरवादी हिंदू का चेहरा बन कर उभर चुके थे. सोशल मीडिया पर उन के चाहने वाले बढ़ चुके थे.

जेल से बाहर आने के बाद अखिलेश सरकार ने 12-13 सिपाहियों का एक सिक्योरिटी दस्ता कमलेश तिवारी की हिफाजत में लगा दिया था. ऐसे में अब कमलेश तिवारी बड़े हिंदूवादी नेता के रूप में उभरने लगे थे. उन का कद बढ़ने से हिंदू महासभा में उन को ले कर मतभेद शुरू हो गए थे. तब कमलेश तिवारी ने खुद की एक पार्टी हिंदू समाज बना कर प्रदेश में हिंदू राजनीति को धार देनी शुरू की थी.

बढ़ता गया विरोध

जैसेजैसे हिंदू राजनीति में कमलेश तिवारी का कद बढ़ रहा था, हिंदूवादी लोग ही उन का विरोध करने लगे थे.

कमलेश तिवारी ने अपने कैरियर की शुरुआत हिंदू महासभा से की थी. वे इस के प्रदेश अध्यक्ष भी बने थे. कमलेश तिवारी ने हिंदू महासभा प्रदेश कार्यालय के इलाके खुर्शीदबाग का नाम बदल कर ‘वीर सावरकर नगर’ रखा था.

वे नाथूराम गोडसे को अपना आदर्श मानते थे. उन के घर पर नाथूराम गोडसे की तसवीर लगी थी. उन की सीतापुर के अपने गांव में नाथूराम गोडसे के नाम पर मंदिर बनाने की योजना थी. हिंदूवादी लोगों ने ही इस का विरोध शुरू कर दिया था.

कमलेश तिवारी मूल रूप से सीतापुर जिले के संदना थाना क्षेत्र के पारा गांव के रहने वाले थे. साल 2014 में उन्होंने अपने गांव में नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने का काम शुरू किया, तो वहां पर उन का विरोध तेज हो गया. ऐसे में वे मंदिर की नींव नहीं रख पाए.

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कमलेश तिवारी पारा गांव छोड़ कर परिवार के साथ महमूदाबाद रहने चले गए थे. उन के पिता देवी प्रसाद

उर्फ रामशरण महमूदाबाद कसबे के रामजानकी मंदिर में पुजारी थे. कमलेश यहीं पारा गांव में नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाना चाहते थे. 30 जनवरी, 2015 को उन को मंदिर की नींव रखनी थी.

महमूदाबाद में कमलेश तिवारी के पिता रामशरण, मां कुसुमा देवी, भाई सोनू और बड़ा बेटा सत्यम तिवारी रहते हैं.

कमलेश तिवारी हिंदू महासभा के जिस प्रदेश कार्यालय से संगठन का काम देखते थे, वहीं वे खुद भी सपरिवार रहने लगे. कमलेश के बढ़ते कद को कम करने के लिए उन को हिंदू महासभा के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया भी गया था.

इस के बाद कमलेश तिवारी अपनी ‘हिंदू समाज पार्टी’ के प्रचारप्रसार में लग गए थे. अपनी कट्टर छवि को निखारने के लिए वे ज्यादा समय भगवा कपड़े ही पहनने लगे थे.

वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर धार्मिक कट्टरपन के अपने बयानों से वे चर्चा में आने लगे थे, जिस से उन की अपनी इमेज बनने लगी थी. हिंदू समाज पार्टी को तमाम लोग धन और बल से मदद भी करने लगे थे. उत्तर प्रदेश के बाहर कई प्रदेशों में हिंदू समाज पार्टी का संगठन बनने लगा था. कई प्रदेशों में रहने वाले लोग भी पार्टी के साथ काम करने को तैयार होने लगे थे.

हिंदू समाज पार्टी को सब से ज्यादा समर्थन गुजरात से मिला था. वहां पर कमलेश तिवारी ने पार्टी संगठन का गठन कर जैमिन बापू को प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिया था.

भगवा राजनीति का भय

उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद योगी आदित्यनाथ प्रदेश में हिंदुत्व का चेहरा बन कर उभरे थे. एक तरफ जहां पूरा प्रदेश हिंदू राजनीति को ले कर योगी आदित्यनाथ के पीछे खड़ा था, वहीं कमलेश तिवारी उन की खिलाफत करते रहते थे. ये लोग हिंदू राजनीति के नाम पर केवल सत्ता हासिल करना चाहते थे.

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कमलेश तिवारी राम मंदिर पर भाजपा की राजनीति से खुश नहीं थे. इस के बाद उन्होंने अयोध्या को अपनी राजनीति का केंद्र बना कर आगे बढ़ना शुरू किया. राम मंदिर पर वे भारतीय जनता पार्टी के कट्टर आलोचक बन गए. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में वे अयोध्या से लोकसभा का चुनाव भी लड़े थे. इस चुनाव में उन को करारी हार का सामना करना पड़ा था.

हिंदू समाज पार्टी की मीटिंग में ‘2022 में एचएसपी की सरकार’ के नारे लगने लगे थे. हिंदू समाज पार्टी को गति देने के लिए कमलेश तिवारी ने देश के आर्थिक हालात, पाकिस्तान में हिंदुओं पर अत्याचार, पश्चिम बंगाल में हिंदुओं की हत्या, नए मोटर कानून में बढ़े जुर्माने का विरोध, जीएसटी जैसे मुद्दों पर भाजपा की आलोचना करनी शुरू कर दी थी. इन मुद्दों को ले कर वे प्रदेश की राजधानी लखनऊ में धरनाप्रदर्शन भी देने लगे थे.

कमलेश तिवारी अपनी पार्टी का एक बड़ा राष्ट्रीय अधिवेशन कराने की योजना में थे. इस बहाने वे अपनी पार्टी की ताकत का प्रदर्शन करना चाहते थे.

हिंदू राजनीति में कमलेश तिवारी का बढ़ता कद भाजपा सरकार को चुभने लगा था. योगी सरकार ने कमलेश तिवारी की सिक्योरिटी में कटौती कर उन के कद को छोटा करने का काम किया. अब 13 सिपाहियों के सिक्योरिटी दस्ते की जगह केवल 2 सिपाही ही रखे गए. वे सिपाही भी मनमुताबिक सिक्योरिटी करते थे. वारदात वाले दिन भी सिक्योरिटी वाले उन के पास नहीं थे.

कमलेश तिवारी के लगातार कहने के बावजूद भी उन की सिक्योरिटी मजबूत नहीं की गई थी. इस पर कमलेश तिवारी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर खुला आरोप भी लगाया था कि वे चाहते हैं कि मैं मार दिया जाऊं. इस के बाद भी कमलेश तिवारी की बात नहीं सुनी गई.

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कमलेश तिवारी की हत्या के बाद गुजरात एटीएस ने बताया कि वहां पहले भी कमलेश तिवारी पर हमले की बात आतंकवाद फैलाने वालों ने कबूल की थी.

सवाल उठता है कि जब गुजरात एटीएस और उत्तर प्रदेश की इंटैलिजैंस को यह जानकारी थी, तो कमलेश तिवारी को सिक्योरिटी क्यों नहीं दी गई.

मां की नाराजगी

उत्तर प्रदेश सरकार कमलेश तिवारी की जिस बात को पहले नहीं मान रही थी, हत्या के बाद उसी बात को कबूल कर उन की मां कुसुमा देवी की बात मान कर उन के आरोप की जांच तक नहीं करना चाहती है.

पुलिस ने पहले कमलेश तिवारी की बात नहीं मानी. इस के बाद उन की हत्या हो गई. अब कमलेश तिवारी की मां कुसुमा देवी की बात नहीं मान रही है जिस से उन की हत्या का खुलासा शक के घेरे में है. इस से पुलिस के काम करने के तरीके पर सवाल उठते हैं.

पुलिस मानती है कि कमलेश तिवारी की हत्या 34 साल के अशफाक शेख और 27 साल के मोईनुद्दीन पठान ने उन का धार्मिक कट्टरपन से भरा भाषण सुन कर की है. पुलिस ने इस की कड़ी से कड़ी मिला दी है. हत्या के 48 घंटे के अंदर उत्तर प्रदेश और गुजरात पुलिस ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और नेपाल सीमा तक जांच कर ली, पर लखनऊ से 90 किलोमीटर दूर सीतापुर की तरफ जाने की तकलीफ नहीं उठाई.

पूरे मामले को देख कर ऐसा लगता है कि जैसे पुलिस ने पहले कमलेश तिवारी हत्याकांड में अपनी कहानी बना ली. इस के बाद एकएक कर वह उस के किरदार फिट करती गई.

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पुलिस एक तरफ यह कहती है कि हत्यारों ने बड़ी योजना बना कर काम किया, वहीं दूसरी तरफ उस के पास इस बात का कोई ठोस जवाब नहीं है कि ऐसे मास्टरमाइंड हत्यारे वारदात वाली जगह पर सूरत की मिठाई शौप की रसीद और बैग सुबूत के तौर पर छोड़ने की गलती कैसे कर गए?

वहीं दूसरी तरफ पुलिस कहती है कि हत्यारे बेहद शातिर थे. साथ ही, वह यह भी कहती है कि अपने ही वार से हत्यारे घायल हो गए थे. उन के हाथों में चोट लग गई थी.

पुलिस कहती है कि वारदात में पूरी साजिश पहले से तैयार थी, वहीं पुलिस यह भी कहती है कि हत्यारों के पास पैसे खत्म हो गए थे. इस की वजह से वे पकड़ में आ गए.

पुलिस के खुलासे में ऐसे कई छेद हैं जिन के जवाब नहीं मिल रहे हैं. पुलिस के खुलासे से जनता को भले ही राहत मिली हो, पर कमलेश तिवारी की मां कुसुमा देवी खुद खुश नहीं हैं. वे इंसाफ न मिलने की दशा में खुद तलवार उठाने तक की बात कह रही हैं.

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गहरी पैठ

महाराष्ट्र, हरियाणा की विधानसभाओं और 51 विधानसभा सीटों के चुनावों के नतीजों से भारतीय जनता पार्टी के सुनहरे रंग की परत तो उतर गई है. भाजपा पहले भी हारी थी पर फिर बालाकोट के कारण और मायावती के पैतरों के कारण लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीत गई. जीतने के बाद उस का गरूर बढ़ गया और उस ने किसानों, कामगारों, छोटे व्यापारियों की फिक्र ही छोड़ दी. आजकल ये काम वे पिछड़े लोग कर रहे हैं जो पहले शूद्रों की गिनती में आते थे, पर भाजपा ने जिन्हें भगवा चोले पहना दिए और कहा कि भजन गाओ और फाके करो.

इन लोगों ने जबरदस्त विद्रोह कर दिया. हरियाणा में जाटों, अहीरों, गुर्जरों ने और महाराष्ट्र में मराठों ने भाजपा को पूरा नहीं तो थोड़ा सबक सिखा ही दिया. दलित और मुसलिम वोट बंटते नहीं तो मामला कुछ और होता. दलित ऊंचे सवर्णों से ज्यादा उन पिछड़ों से खार खाए बैठे हैं जिन्हें वे रोज अपने इर्दगिर्द देखते हैं. उन्हें पता ही नहीं रहता कि असली गुनाहगार वह जातिवाद है जो पुराणों की देन है, न कि उन के महल्ले या गांव के थोड़े खातेपीते लोग, जिन्हें वे दबंग समझते हैं.

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हरियाणा में दुष्यंत चौटाला ने 10 सीटें पाईं और भारतीय जनता पार्टी से उपमुख्यमंत्री पद झटक लिया. कांग्रेस ताकती रह गई पर उसे अब उम्मीद है कि दूसरे राज्यों में जहां जाटों, पिछड़ों की पार्टियां नहीं हैं वहां उसे फायदा पहुंचेगा. भाजपा को यह समझना चाहिए पर वह समझेगी नहीं कि किसी भी देश को आगे बढ़ने के लिए ज्यादा सामान पैदा करना होता है. अमीरी कठोर मेहनत से आती है चाहे वह खेतों में हो या कारखानों में. मंदिरों में तो पैसा और समय बरबाद होता है.

भाजपा को तो राम मंदिर, पटेल की मूर्ति, चारधाम की देखभाल, अयोध्या की दीवाली की पड़ी रहती है. इन सब में पौबारह होती है तो इन का रखरखाव करने वाले भगवाधारियों की. वे पिछड़े जो काम कर रहे हैं, खूनपसीना बहा रहे हैं, वे व्यापारी जो रातदिन दुकानें खोले बैठे हैं, दफ्तरों में काम कर रहे वे लोग जो कंप्यूटरों पर आंखें खराब कर रहे हैं, वे औरतें जो बच्चों को पढ़ा रही हैं ताकि वे अपना कल सुधार सकें, को इन पूजापाठों से क्या फायदा होगा?

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भाजपा ने किसानों की परेशानियों को समझा ही नहीं. भाजपा तो सोनिया गांधी के जमीन अधिग्रहण कानून को खत्म करना चाहती है जिस से किसानों की जमीनें उन की अपनी पक्की मिल्कीयत बनी थीं. भाजपा ने जीएसटी लागू कर के उन लाखों पिछड़े वर्गों के दुकानदारों का काम बंद कर दिया जो छोटा काम करने लगे थे. नोटबंदी के बाद छोटे लोगों के पास पैसा बचा ही नहीं. बैंकों में रखा पैसा खतरे में है. भाजपा इस मेहनतकश जमात की सुन नहीं रही है तो इस ने चपत लगाई है, अभी हलकी ही है. महाराष्ट्र, हरियाणा में काफी कम सीटें जीतीं और विधानसभा उपचुनावों में बोलबाला नहीं रहा. यहां तक कि गुजरात के 6 उपचुनावों में से 3 कांग्रेस जीत गई जबकि कांग्रेस का तो कोई नेता ही नहीं है. राहुल फिलहाल सदमे में है, सोनिया बीमार हैं. नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अब चुनावी बिजली का शौक लगा है. अब सरकारें और लड़खड़ाएंगी.

सेना के गुणगान तो हमारे देश में बहुत किए जाते हैं पर ये दिखावा ज्यादा हैं, यह पक्का है. सैनिकों की शिकायतों को किस तरह नजरअंदाज किया जाता है, यह दिखता रहता है. यह तो साफ है यदि ऊंची जाति का ऊंचा अफसर सेना के खिलाफ अदालत में जाए तो भी उस के खिलाफ कुछ नहीं होता. हो सकता है, उसे मंत्री भी बना दिया जाए पर पिछड़ी जाति का कोई अदना सिपाही कुछ गलत कर दे तो पूरी फौज उस के पीछे हाथ धो कर पड़ जाती है.

सुरेंद्र सिंह यादव को आर्मी में सेना में सिपाही की नौकरी दी गई थी और 26 अप्रैल, 1991 में उस ने नौकरी जौइन की. कुछ दिन बाद उस के आवेदन खंगालते समय पता चला कि उस के माध्यमिक शिक्षा मंडल, ग्वालियर के दिए मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट पर कुछ शक है. उसे आर्मी ऐक्ट की धारा 44 पर चार्जशीट दी गई और जब वह साबित नहीं कर पाया कि सर्टिफिकेट असली ही है तो उसे नौकरी से निकाल भी दिया गया और 3 महीने की जेल भी दे दी गई.

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यह तो पक्का है कि उस ने बाकी टैस्ट और फिजिकल जांच पूरी की होगी, क्योंकि सिर्फ मैट्रिक के सर्टिफिकेट के बल पर तो सेना में नौकरी नहीं मिलती. शायद इसीलिए रिव्यूइंग अथौरिटी ने समरी कोर्ट मार्शल का आदेश रद्द कर दिया और उसे फिर 27 नवंबर, 1992 को बहाल कर दिया. पर चूंकि वह अदना सिपाही था, गरीब था, यादव था, उस की छानबीन रिकौर्ड औफिस ने चालू रखी. उसे शो कौज नोटिस दिया गया और 10 जुलाई, 1993 को फिर निकाल दिया.

जिस देश में मंत्री, प्रधानमंत्री के सर्टिफिकेट का अतापता न हो वहां एक पिछड़े वर्ग के सिपाही के पीछे सेना हाथ धो कर पड़ गई. वह हाईकोर्ट गया जिस ने मामला आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल को सौंप दिया. सालों के बाद आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल ने 2016 में सिपाही के खिलाफ फैसला दिया और डिस्चार्ज को सही ठहराया.

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सुरेंद्र सिंह यादव अब सुप्रीम कोर्ट में आया कि उस पर एक ही गुनाह के लिए 2 बार कार्यवाही हुई, पहले समरी कोर्ट मार्शल और वहां से बहाल होने पर शो कौज नोटिस दे कर. उस पर किसी और गलती या गुनाह का आरोप नहीं था. अपने हक के लिए लड़ रहे आम सैनिक के लिए सुप्रीम कोर्ट में सेना ने सीनियर एडवोकेट आर. बालासुब्रमण्यम के साथ 5 और वकील खड़े किए. सिपाही सुरेंद्र सिंह यादव के साथ केवल एक वकील सुधांशु पात्रा था.

जब सुप्रीम कोर्ट में भारीभरकम फौज के भारीभरकम वकील हों तो अदना सिपाही को हारना ही था. सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि समरी कोर्ट मार्शल का फैसला दोबारा कार्यवाही करने में कोई रुकावट पैदा नहीं करता. वैसे आम कानून यही कहता है कि एक गुनाह पर 2 बार मुकदमा नहीं चल सकता और फिर यह तो पिछड़ी जाति का सीधासादा सिपाही था, उस की हिम्मत कैसे हुई कि अफसरों के खिलाफ खड़ा हो. यह कोई वीके सिंह थोड़े ही है जिस की 2-2 जन्मतिथियां रिकौर्ड में दर्ज हों, जो सेना में जनरल बना और फिर मंत्री.

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धोखाधड़ी: क्लर्क से बना कल्कि अवतार

तब मेरी उम्र 14-15 साल रही होगी. मेरी मौसी के बेटे की शादी थी. गरमी की छुट्टियां थीं तो वहां जाना कोई बड़ा मसला नहीं था. एक दिन की बात है. खेतों में गेहूं की कटाई चल रही थी. मौसी का पूरा परिवार खेत में था.

दोपहर में कोई नौजवान बाबा वहां आया और सब के हाथ देख कर भविष्य बताने लगा. मेरे बारे में उस बाबा ने 2 अहम बातें कही थीं.

पहली यह कि मैं 84 साल तक जिऊंगा और दूसरी यह कि बड़ा हो कर मैं वकील बनूंगा. बाद में मौसी ने उस बाबा को खाना और अनाज दिया था.

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अब उस बाबा की भविष्यवाणी पर आते हैं. मेरी उम्र के बारे में बाबा ने शिगूफा छोड़ा था, क्योंकि यह तो कोई नहीं बता सकता कि कोई कितना जिएगा, पर बाबा की कही दूसरी बात भी गलत ही साबित हुई. मैं वकील नहीं बना. मतलब, मेरे मन में कभी दूरदूर तक खयाल नहीं आया कि इस फील्ड में हाथ आजमाया जाए.

लेकिन उस बाबा की कही ये बातें आज भी मेरे मन में क्यों उमड़घुमड़ रही हैं? शायद उस बाबा के गेटअप का असर था. दाढ़ीमूंछ, भगवा कपड़े, हाथ में लाठी और कमंडल. उस बाबा के बात करने का तरीका भी लुभावना था और चूंकि उसे किसी के भी भविष्य को बताने या उस की मुसीबतों से छुटकारा दिलाने का धार्मिक लाइसैंस मिला हुआ था, इसलिए इधरउधर की हांक कर वह अपने 2-4 दिन के खाने का जुगाड़ कर गया था, बिना अपने शरीर या दिमाग को कष्ट दिए.

यह तो हुआ एक अनजान बाबा का किस्सा. अब आप को एक ऐसे आदमी से रूबरू कराते हैं, जिस ने खुद को कल्कि अवतार बता कर लोगों से इतना पैसा ऐंठा कि भगवान के साथसाथ वह धन्ना सेठ भी हो गया.

मजे की बात तो यह है कि उस ने ऐसे लोगों को अपना भक्त बनाया जो अच्छेखासे पढ़ेलिखे हैं और समाज में जिन का रुतबा भी है.

हम बात कर रहे हैं 70 साल के वी. विजय कुमार नायडू की, जो कभी एलआईसी में क्लर्क था. बाद में नौकरी छोड़ कर उस ने एक ऐजुकेशनल संस्थान बनाया था, पर जब वह संस्थान नहीं चला तो वह अंडरग्राउंड हो गया. इस के बाद साल 1989 में वह खुद को विष्णु का 10वां अवतार कल्कि भगवान बताते हुए चित्तूर में प्रकट हुआ.

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अब तमिलनाडु के उसी अवतार के यहां 600 करोड़ रुपए की बेनामी जायदाद मिली है. इस में 20 करोड़ के अमेरिकी डौलर हैं और 44 करोड़ रुपए की भारतीय करंसी है. 88 किलो सोना बरामद हुआ है. 1271 कैरेट के बेशकीमती हीरे भी मिले हैं. कैश की रसीदें मिली हैं जिन से पता चलता है कि उस के पास 600 करोड़ रुपए की बेनामी जायदाद है.

नए जमाने के इस कल्कि भगवान के 40 ठिकानों पर रेड चली थी, जिन में उस के नाम पर बनी एक यूनिवर्सिटी और एक आध्यात्मिक स्कूल शामिल है. इस बाबा का मुख्य आश्रम आंध्र प्रदेश में चित्तूर जिले के वैरादेहपलेम इलाके में है.

इनकम टैक्स डिपार्टमैंट के सूत्रों के मुताबिक, आश्रम के ऊपर जमीनों को हड़पने और टैक्स चोरी के आरोप हैं. इस के अलावा कल्कि ट्रस्ट के फंड में भी गड़बडि़यां हो सकती हैं.

क्लर्क से कल्कि बने इन महाशय ने दूसरे तमाम बाबाओं की तरह अध्यात्म को ही अपना हथियार बनाया. उस ने अपना मायाजाल लाखों भारतीय लोगों के साथसाथ कई विदेशियों पर भी फेंका और उन्हें जम कर ठगा. बाद में कमाई का यह धंधा फलताफूलता गया और कल्कि भगवान देखते ही देखते करोड़पति बन गया.

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कुछ अलगअलग वैबसाइट से पता चलता है कि इस कल्कि भगवान के आशीर्वाद से बहुत से लोगों के बच्चों के अच्छे संस्थाओं में दाखिले हो गए. यह इतना दयालु था कि इस के चमत्कारों से बहुत से लोगों के डूबे हुए पैसे वापस मिल गए.

यहां तक कि बाबा की कृपा से बहुत से भक्तों के सारे बरतन अपनेआप साफ हो गए. कुछकुछ वैसे ही, जैसे कभी निर्मल बाबा की बरसती कृपा से लोगों की जिंदगी में खुशहाली आ जाती थी. वह समोसे खिला कर लोगों को भरमाता था तो यह अपनी चिकनीचुपड़ी बातों से लोगों की जेब हलकी कर देता था.

इस कल्कि भगवान ने खुद को और पत्नी पद्मावती को देवीदेवता के समान बताया था. इस के आश्रमों में देश के अमीर लोगों के अलावा विदेशी और एनआरआई लोगों की भी कतारें लगती थीं. यही वजह थी कि इस कल्कि भगवान के साधारण दर्शन के लिए लोगों को 5,000 रुपए और विशेष दर्शन के लिए 25,000 रुपए देने पड़ते थे.

देखा जाए तो अब सरकारी महकमे की दबिश पड़ने के बाद ही पता चला कि दक्षिण भारत के एक छोटे से इलाके में कोई रईस कल्कि भगवान रहता है. इस के अलावा न जाने कितने ऐसे तथाकथित भगवान अपनीअपनी दुकान लगाए लोगों के दुखों का कारोबार कर रहे हैं और मजे की जिंदगी गुजार रहे हैं. बहुत से कानून के शिकंजे में फंस कर जेल की हवा तक खा रहे हैं, पर जनता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है.

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अभी हाल ही में जब हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए थे, तब हर पार्टी का नेता चाहता था कि राम रहीम के अनुयायी उसे ही वोट दें. सब ने उन्हें लुभाने की पूरी कोशिश की थी, जबकि राम रहीम अभी रेप के सिलसिले में जेल में बंद है.

ऐसे बाबा लोग आम जनता की उस दुखती रग पर हाथ रखते हैं, जैसी रग कभी उस अनजान बाबा ने खेत में आ कर हमारे परिवार के लोगों की पकड़ी थी. उसे पता था कि वह  झूठ बोल रहा है या तुक्का मार रहा है, लेकिन साथ ही उसे यह भी पता था कि ये लोग उस के तुक्के को तीर सम झ कर उस की रोजीरोटी का इंतजाम तो कर ही देंगे.

यह तो पता नहीं कि मेरी भविष्यवाणी बताने वाले उस बाबा का आगे क्या हुआ, लेकिन अगर कहीं उस की गोटी सैट बैठ गई होगी तो किसी छोटे से गांव के मंदिर में उस ने यकीनन ऐश की जिंदगी गुजारी होगी, वहां का कल्कि भगवान बन कर.

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2 आदिवासी औरतें: एक बनी कटी पतंग, दूसरी चढ़ी आसमान पर

मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश के शिवपुरी और बैतूल जिले की आदिवासी समाज की ये 2 औरतें देश की 2 सब से बड़ी राजनीतिक पार्टियों के इस्तेमाल की चीज बन कर रह गई हैं.

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इस से बड़ी ट्रैजिडी और क्या होगी कि शिवपुरी जिले के कोलारस विधानसभा क्षेत्र की ग्राम पंचायत रामपुरी के गांव लुहारपुरा की अनपढ़ जूली अपने हक को नहीं जानती थी, इसलिए शिवपुरी की जिला पंचायत अध्यक्ष और राज्यमंत्री का दर्जा पाने के बाद भी वह अपनी 18 बीघा जमीन के मामले में ठगी का शिकार बनी. उस का राजनीतिक इस्तेमाल करने वाले नेताओं ने उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंका.

वहीं दूसरी औरत ज्योति धुर्वे रायपुर जैसे महानगर की दुर्ग यूनिवर्सिटी से राजनीति में एमए की तालीम लेने के बाद साल 2008 में अनुसूचित जनजाति आयोग की अध्यक्ष बनी और कैबिनेट मंत्री का दर्जा पाने के बाद लंबी उड़ान पर निकल पड़ी. वह 2 बार सांसद बनने के बाद आज भाजपा की राष्ट्रीय सचिव बन बैठी है. साथ ही, अपने ऊपर लगे फर्जी आदिवासी व विधवा होने के आरोप के बावजूद उस ने जायदाद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

करोड़ों रुपए में खेलने वाली भाजपा की इस पूर्व सांसद ज्योति धुर्वे का मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार बाल भी बांका नहीं कर सकी है. वजह, इस भाजपा सांसद के संरक्षक प्रदेश भाजपा कोषाध्यक्ष व पूर्व सांसद हेमंत खंडेलवाल हैं. इन के कांग्रेस की कमलनाथ सरकार के बैतूल जिले की मुलताई विधानसभा से विधायक और प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री सुखदेव पांसे से गहरे संबंधों के चलते ज्योति धुर्वे का फर्जी आदिवासी का मामला ठंडे बस्ते में जा पहुंचा है.

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एक करोड़ों में तो दूसरी कंगाल

मध्य प्रदेश की राजनीति में दोनों ही औरतें भाजपा व कांग्रेस के पूर्व विधायकों की करीबी रही हैं. जहां जूली कांग्रेस के पूर्व विधायक, जो अब नहीं रहे, राम सिंह यादव के फार्महाउस में काम करती थी तो ज्योति धुर्वे भाजपा के पूर्व सांसद, जो अब नहीं रहे, विजय कुमार खंडेलवाल, प्रदेश भाजपा कोषाध्यक्ष की भारतीय जनता पार्टी महिला मोरचा की अध्यक्ष थी.

ज्योति धुर्वे ने अपने कांग्रेसी पति पूर्व जनपद सदस्य भैसदेही जनपद प्रेम सिंह धुर्वे, जो अब नहीं रहे, की राजनीति में विपक्षी पार्टी के साथ दो कदम आगे बढ़ाए तो जूली के पति मांगीलाल ने मजदूरी करने वाली अपनी बीवी को फार्महाउस के मालिक राम सिंह यादव की कठपुतली बनने पर मजबूर कर दिया.

इन दोनों आदिवासी औरतों का राजनीतिक सफर व खात्मा भाजपा के बीते 15 सालों के राज में हुआ है. लालबत्ती लगी गाड़ी में घूमने वाली इन दोनों औरतों का एक कड़वा सच यह भी है कि दोनों में से एक असली तो दूसरी नकली आदिवासी है.

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एक है एमए दूसरी अंगूठाछाप

एक फटी, मटमैली साड़ी में लिपटी, वहीं दूसरी महंगे कपड़ों और गहनों से लदी हुई. दोनों की राजनीति में शुरुआत साल 2005 और साल 2008 में हुई.

मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले की जूली को वहां के पूर्व विधायक और नेता राम सिंह यादव ने जिला पंचायत का सदस्य बना दिया था. कुछ समय बाद क्षेत्र के दूसरे पूर्व विधायक वीरेंद्र रघुवंशी ने जूली को राज्यमंत्री का दर्जा दिलवा कर उसे जिला पंचायत के अध्यक्ष का पद सौंप दिया.

साल 2005 से साल 2009 तक जिला पंचायत अध्यक्ष रही जूली के पति मांगीलाल राम सिंह यादव के फार्महाउस पर काम करता था. जूली भी अपने पति के साथ वहीं पर रहती थी और पूर्व विधायक के फार्महाउस पर काम करती थी.

जूली के पास उस के पिता के गांव रामगढ़ में पट्टे की जमीन थी. 9-9 बीघा जमीन पर पूर्व विधायक राम सिंह यादव के बेटे महेंद्र यादव ने भूमि विकास बैंक से ट्रैक्टर उठाया और बैंक की किस्त जमा न करने पर जब भूमि विकास बैंक ने उस के बैंक में बंधक 9-9 बीघा जमीन के पट्टे को नीलाम किया तो पूर्व विधायक राम सिंह यादव के बेटे महेंद्र यादव ने बैंक से वह पट्टे वाली 18 बीघा जमीन खरीद ली.

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जूली अब अपना सबकुछ गंवाने के बाद बकरियां चरा रही है. वर्तमान समय में जूली के साथ न तो कोई विधायक है और न पूर्व विधायक. और तो और जिस पार्टी की ओर से वह जिला पंचायत अध्यक्ष बनी थी, उस पार्टी का कोई कार्यकर्ता से ले कर पदाधिकारी भी उस के दुख में साथी बनने को तैयार नहीं है.

जहां जूली की जाति पर किसी ने सवाल नहीं उठाया, तो वहीं दूसरी ओर ज्योति धुर्वे अपनेआप को असली आदिवासी साबित नहीं कर सकी है.

मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल बैतूल जिले के भाजपा सांसद व प्रदेश भाजपा कोषाध्यक्ष विजय कुमार खंडेलवाल ने ज्योति धुर्वे को साल 2008 में मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग की अध्यक्ष की कुरसी और कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिलवा दिया था.

विजय कुमार खंडेलवाल की साल 2007 में हुई मौत के बाद उन के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में उन के छोटे बेटे हेमंत खंडेलवाल साल 2008 में लोकसभा के उपचुनाव में सांसद बने, लेकिन इस बीच बैतूल लोकसभा सीट आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हो जाने के चलते उस सीट पर उन की राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में ज्योति धुर्वे की ताजपोशी हुई.

ज्योति धुर्वे ने साल 2009 में लोकसभा का चुनाव लड़ा और उन का आदिवासी का जाति प्रमाणपत्र विभाजित मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ से साल 2009 में जारी किया गया.

उस समय ज्योति, पिता महादेव ठाकुर का पता समता कालोनी, रायपुर था. रायपुर जिला कलक्टर सुबोध सिंह के समय बने जाति प्रमाणपत्र में ज्योति धुर्वे को पिता की जाति के आधार पर आदिवासी बताया गया. इसी प्रमाणपत्र को ग्राम पंचायत चिल्कापुर, तहसील भैसदेही ने अटैस्ट किया और उस आधार पर एसडीएम भैसदेही ने साल 2009 में नया जाति प्रमाणपत्र पिता के बदले पति की जाति के आधार पर जारी कर दिया.

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2 बार सांसद रही ज्योति धुर्वे की साल 2014 में घोषित संपत्ति 2 करोड़, 62 लाख रुपए थी. वे वर्तमान में भाजपा की राष्ट्रीय सचिव हैं और ग्राम चिल्कापुर, गुदगांव में उन का एक पैट्रोल पंप भी है.

जाने कहां गए वे दिन

जिला पंचायत अध्यक्ष के साथ ही जूली को एक बार शासन की ओर से राज्यमंत्री का दर्जा भी मिल गया था. फिर क्या था, लालबत्ती की कार में घूमने वाली जूली का रुतबा काफी बढ़ गया था. बड़ेबड़े अफसर और मुलाजिम ‘मैडम’ कह कर उस का आदर करने लगे थे. पद जाते ही मानो जूली की पूरी जिंदगी बदल गई.

एक समय पर इज्जत और सुख के साथ जीने वाली इस औरत की जिंदगी अंधकार और परेशानियों से भर गई. अब गुजरबसर के लिए जूली लुहारपुरा में

रह कर बकरी चराने को मजबूर हो गई है. इन दिनों वह गांव की तकरीबन 50 बकरियां चराने का काम करती है.

जूली के मुताबिक, हर बकरी के लिए उसे 50 रुपए हर महीने मिलते हैं. इस से जो कमाई होती है, उसी के दम पर वह घरपरिवार का पालनपोषण करती है.

पश्चिम बंगाल

कटखने कुत्तों का कहर

देश के सारे बड़े शहरों की तरह पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से सटे हावड़ा जिले में कटखने कुत्तों के कहर से निबटने के लिए हर साल सरकार को लाखों रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं.

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हावड़ा जिला स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े बताते हैं कि हर साल जिले में 20,000 से ज्यादा लोग कुत्ते के काटने का शिकार होते हैं. इस से उन्हें अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़ते हैं. इस के बावजूद किसी भी नगरनिगम, नगरपालिका, ग्राम पंचायत या ब्लौक की ओर से कुत्तों की बढ़ती तादाद पर काबू पाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है.

हावड़ा नगरनिगम द्वारा 2 साल पहले 50 कुत्तों की नसबंदी कराई गई थी, लेकिन इस का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला. रात को हर मोड़ व नुक्कड़ पर दर्जनों आवारा कुत्ते मिल जाते हैं. प्रशासन का कहना है कि ऐसे कुत्तों की हत्या नहीं की जा सकती है, लेकिन उन के पास इन की तादाद कंट्रोल करने के लिए इतनी बड़ी मैडिकल व्यवस्था भी नहीं है.

हावड़ा जिला स्वास्थ्य विभाग ने कुत्तों द्वारा लोगों को काटे जाने का जो आंकड़ा जारी किया है, उस के मुताबिक, साल 2014 में 20,689, साल 2015 में 21,133, साल 2016 में 19,632, साल 2017 में 20,842, साल 2018 में 23,621 और साल 2019 में अप्रैल महीने तक 8,341 लोगों को कुत्तों ने काटा यानी 6 साल में 1 लाख, 14 हजार, 258 लोगों को कुत्ते काट चुके हैं.

इन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हर साल औसतन 19,043 लोग कुत्तों के काटने का शिकार होते हैं. इस से बचने के लिए सरकार के जहां लाखों रुपए रेबिज इंजैक्शन पर खर्च हुए हैं, वहीं लोग खुद को महफूज नहीं कर पा रहे हैं. स्वास्थ्य विभाग ने यह स्वीकार किया है कि कुत्तों द्वारा काटे गए लोगों को बचाने के लिए सरकार को हर साल लाखों रुपए खर्च करने पड़ते हैं.

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धान खरीदी के भंवर में छत्तीसगढ़ सरकार!

छत्तीसगढ़ की राजनीतिक फिजा में आज सिर्फ एक ही मुद्दा है धान खरीदी और किसान का. छत्तीसगढ़ की सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस ने जो मास्टर स्ट्रोक चला था वह अब धीरे-धीरे कांग्रेस और भूपेश सरकार के लिए बढ़ते सर दर्द और ब्लड प्रेशर का हेतु बन रहा है. कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव से पूर्व धान की खरीदी 2500 रूपये क्विंटल खरीदने और कर्जा मुआफी का वादा किया था. किसानों की कृपा से छत्तीसगढ़ में यह कार्ड चल गया और भूपेश बघेल की सरकार बहुत ताकत के साथ बन गई 67 विधायक चुन लिए गए मगर एक वर्ष बाद जब पुन: खरीफ फसल का समय आया है तो भूपेश सरकार के हाथ पांव फूलने लगे हैं और मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी से रियायते चाहते हैं.

भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री बनते ही जो वादा किया था उसे पूरा करने का ऐलान कर दिया किसानों की जेबें भर गई यही नहीं किसानों को किया गया असीमित कर्जा भी उन्होंने भामाशाह की तरह माफ कर दिया जबकि मध्यप्रदेश में ऐसा नहीं हुआ. छत्तीसगढ़ की आर्थिक स्थिति इन्हीं कारणों से बदतर होती चली गई कर्ज पर कर्ज लेकर भूपेश सरकार एक खतरनाक ‘भंवर’ मे फंसती दिखाई दे रही है. जिसका अंजाम क्या होगा यह मुख्यमंत्री के रूप में एक कुशल रणनीतिक होने के कारण या तो प्रदेश को उबार ले जाएंगे अथवा छत्तीसगढ़ की आने वाले समय में बड़ी दुर्गति होगी यह बताएगा.

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मोदी सरकार से अपेक्षा !

भूपेश बघेल की सरकार किसानों से धान 2500 रूपये क्विंटल में खरीदने को कटिबद्ध है क्योंकि पीछे हटने का मतलब किसानों का रोष और छवि खराब होने की चिंता है .ऐसे में दो ही रास्ते हैं एक छत्तीसगढ़ सरकार शुचिता बरते, सादगी के साथ सिर्फ किसानों के हित साधती रहे और दूसरे दिगर विकास के कामों में ब्रेक लगा दे या फिर केंद्र के समक्ष हाथ पसारे.

भूपेश बघेल की शैली भीख मांगने यानी हाथ पसारने की कभी नहीं रही. भूपेश बघेल को एक आक्रमक छत्तीसगढ़ के चीते के स्वभाव वाला राजनीतिक माना गया है. ऐसे में उनकी सरकार मोदी सरकार के समक्ष हाथ पसारने की जगह सीना तान कर खड़ी हो गई है और केंद्र सरकार से मांग की जा रही है केंद्र को चेतावनी दी जा रही है की धान खरीदी में सहायता करो. छत्तीसगढ़ के एक मंत्री जयसिंह अग्रवाल ने मोदी सरकार को चेतावनी दी केंद्र धान नहीं खरीदेगी तो हम छत्तीसगढ़ से होने वाले कोयले का परिवहन बंद कर देंगे .इस आक्रमकता  से यह दूध की तरह साफ हो चुका है कि भूपेश सरकार, नरेंद्र दामोदरदास मोदी के समक्ष झुकने को तैयार नहीं बल्कि झुकाने की ख्यामख्याली पाले हुए हैं.

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आज होगा आमना सामना

भूपेश बघेल को 14 जनवरी को देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिलने का समय मिला था. छत्तीसगढ़ सरकार ने पूरी तैयारी कर रखी थी की दिल्ली पहुंचकर राष्ट्रपति से मिल केंद्र सरकार को घेरेगे और प्रदेश की जनता के मध्य यह संदेश प्रसारित होगा की केंद्र छत्तीसगढ़ की उपेक्षा कर रही है. मगर ऐन मौके पर चाल पलट गई. राष्ट्रपति भवन से 13 नवंबर की रात को संदेश आ गया की राष्ट्रपति महोदय से मुलाकात को निरस्त कर दिया गया है.

भूपेश बघेल सरकार नरेंद्र मोदी से मिलना चाहती थी मगर प्रधानमंत्री कार्यालय से भी लाल झंडी दिखाई दे रही है ऐसे में भूपेश बघेल स्वयं अपने चुनिंदा मंत्रियों के साथ केंद्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान व केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मिलकर आग्रह करेंगे की 85 लाख मैट्रिक टन धान खरीद पर केंद्र समर्थन मूल्य प्रदान करें । 32 लाख मैट्रिक धान का एफ सी  आई गोदाम में रखने की अनुमति दी जाए और समर्थन मूल्य पर बोनस पर केंद्र की लगी रोक को थिथिल किया जाए.

राजनीतिक प्रशासनिक चातुर्य की कमी  !

संपूर्ण प्रकरण पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट हो जाता है की भूपेश बघेल सरकार में जहां राजनीतिक चातुर्य की कमी है वहीं प्रशासनिक दक्षता जैसी दिखाई देनी चाहिए वह भी दृष्टिगोचर नहीं हो रही है. किसानों के खातिर तलवार भांजने वाली छत्तीसगढ़ सरकार यह कैसे भूल गई की विधानसभा में 68 सीटों का तोहफा देने वाली जनता और किसानों ने लोकसभा चुनाव में भूपेश बघेल की ऊंची ऊंची हांकने की हवा निकाल दी और बमुश्किल 11 में 9 सीटों पर दावा करने वाली कांग्रेस को 2 सीटें ही मिल पाई.

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किसानों का संपूर्ण कर्जा माफी करना भी भूपेश सरकार के गले का फंदा बन गया. अगरचे मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार से थोड़ा सबक सिखा होता तो प्रदेश की आर्थिक स्थिति डांवाडोल नहीं होती .वहीं केंद्र सरकार को आंख दिखाने की हिमाकत छत्तीसगढ़ सरकार को उल्टी न पड़ जाए. डॉक्टर रमन सिंह पूर्व मुख्यमंत्री कहते हैं,- केंद्र से सम्मान और विनय के साथ आग्रह करने की जगह जैसे भूपेश बघेल दो-दो हाथ करने का बॉडी लैंग्वेज दिखा रहे हैं यह गरिमा के अनुकूल नहीं है.

छत्तीसगढ़ के मंत्री, धान खरीदी के मुद्दे पर केंद्र को झुकाना चाहते हैं और केंद्र सरकार, भूपेश बघेल को धान के मुद्दे पर निपटाना चाहती है.! देखिए इस सोच में कौन कहां गिरता है और कहां उखडता है.

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