मैं अपने औफिस की एक लड़की को पसंद करता हूं और चाह रहा था कि उसे प्रपोज कर दूं,

सवाल

मैं 25 साल का लड़का हूं. अपने औफिस में एक लड़की को पसंद करता हूं. चाह रहा था कि उसे प्रपोज कर दूं. दिक्कत यह हो गई कि कुछ दिनों पहले मैं उस की केबिन से निकल रहा था तो उस का बैग गलती से गिर गया. मैं बैग को उठा ही रहा था कि मेरी नजर बैग के अंदर चली गई. उस में कंडोम का पैकेट रखा हुआ था.

मैं अब इस बात से परेशान हो गया हूं कि उस के पास ऐसी चीज क्या कर रही है. मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा है और अब मुझे उस से अपनी बात कहनी चाहिए या नहीं, यह समझ नहीं आ रहा. आप ही बताएं.

जवाब

सब से पहली बात यह कि कंडोम होना अश्लीलता नहीं बल्कि जिम्मेदारी वाली बात है. चूंकि कंडोम यौन संक्रमण और प्रैग्नैंसी को रोकता है तो यह अच्छी बात है कि उस ने अपनी सेफ्टी के लिए अपने पास रखा है.

दूसरी बात, वह इंडिपैंडैंट लड़की है. जौब करती है. वह न तो आप की गर्लफ्रैंड है, न फिलहाल आप की दोस्त. उस के बैग में कंडोम हो या लिपस्टिक, यह सिर्फ उस की मरजी है. इस में परेशानी आप को हो रही है, यह सम झ आ रहा है पर आप को गुस्सा होने जैसी कोई बात नहीं.

आप उसे पसंद करते हो, यह तुम्हारा मसला है. वह आप को पसंद करती है या नहीं, यह उस की मरजी होगी. हो भी सकता है उस का कोई बौयफ्रैंड हो या नहीं भी. बात रही आप की उस से बात करने की तो आप पहले दोस्त तो बनो उस के. सीधा प्रपोज कर के चाहते क्या हो?

गुलामों का धंधा

युग में और हर समाज में ताकतवर, अमीर, दबदबे वाले और चतुर लोगों ने कमजोर और गरीब लोगों का अनेक तरीकों से शोषण किया है और यह शोषण नईनई चालों से शायद भविष्य में भी होता रहेगा. आज टैक्नोलैब बना रहे हैं. भारतीय कंपनियां आईटी में काबिल लोगों को हायर कर के गुलामों का सा काम करा रही हैं. औनलाइन परचेज पर डिलीवरी बौय स्लेव की तरह काम कर रहे हैं.

इस की वजह यह है कि स्वभाव से ही कुशलता हासिल किया हुआ इनसान समाज में ऊपर की तरफ बढ़ता हुआ सुविधाभोगी हालात को पा लेता है और उसी कुदरती नियम के मुताबिक नीचे की ओर लुढ़कता हुआ शोषित के हालात में आ पहुंचता है.

चतुर और बलवान आदमियों द्वारा दूसरे लोगों के शरीर पर पूरी तरह अधिकार कर के उन से पशुओं की तरह काम लेना और उन की खरीदबेच करना ऐसा ही उदाहरण है, जिसे दास प्रथा का नाम दिया गया था और अब यह नए रूप में आ रहा है.

मानव सभ्यता पहले ही अपने ऐतिहासिक विकास क्रम में एक ऐसे मोड़ पर भी पहुंची थी, जब दास प्रथा को एक संस्था के रूप में पूरी दुनिया में स्वीकार किया गया था.

यह वह अवस्था थी, जब इधरउधर भटकते मानव समुदायों ने पशुपालन और आखेट के बजाय खेतीबारी को ज्यादा फायदेमंद पाया. काबिल और ताकतवर लोगों के पास खेती के विशाल भूखंड थे, जिन में भूस्वामी खुद से काम नहीं चला सकते थे. पशुओं से लिया गया काम अपनी मेहनत थी. ऐसे ही समय मिस्र, रोम, यूनान, सीरिया और भारत सभी समाजों में दास वर्ग का जन्म हुआ.

भारत में जाति प्रथा को इसी के लिए बनाया गया और आज भी इस का फायदा उठाया जा रहा है.

भारतीय समाज में हिंदू धर्म के नाम पर वर्ग विभाजन का विकास किया गया और शूद्र व अछूत वर्ग का जन्म हुआ. शूद्र चाहे दास हो या स्वतंत्र, कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि उन को दास का काम ही करना होता था.

मनु, जिस की मूर्तियों को अब फिर लगाया जा रहा है, ने व्यवस्था दी थी कि दास बनाने के लिए शूद्रों को खरीदना चाहिए (मनु स्मृति 8-4-13).

दासों की वैराइटी

इतिहासकार डाक्टर जयशंकर मिश्र के अनुसार, समय और हालात के मुताबिक हिंदू समाज में अनेक  तरह के दास हो जाया करते थे. संस्कृत भाषा की किताब ‘अर्थशास्त्र’ में कौटिल्य ने ऐसे अनेक तरह के दासों का जिक्र किया है, जो सामाजिक दबाव और मजबूरियों के चलते दास बन जाते थे.

द्य आत्मविक्रमी : जो हालात के मुताबिक अपने को बेच कर दासता स्वीकार करते थे.

द्य उदर दास : जो अपना पेट पालने के लिए अपने को बेच देते थे.

द्य प्रक्षेपानुरूप दास : जो अपनेआप को बंधक रख लेते थे.

द्य दंडप्रणीत दास : जो राज्य द्वारा अर्थदंड से दंडित होने पर और इस आर्थिक दंड को न चुका पाने के चलते दास होते थे.

द्य ध्वजाहत दास : जो युद्ध में बंदी होने के चलते दासता स्वीकार करते थे.

द्य दया भाग में प्राप्त दास : जो दास दया भाग के कारण दूसरे के दास हो जाते थे.

: नौकरों से पैदा हुआ दास.

मनु ने 7 तरह के दासों का जिक्र किया है- द्य ध्वजाहत : लड़ाई में जीता गया, द्य भक्त दास : खानेपाने की चाहत में बना हुआ दास, द्य गृहज : नौकरानी का बेटा, द्य क्रीत : मूल्य दे कर खरीदा हुआ, द्य दत्रित : किसी के देने से मिला दास, द्य पैतृक : पिता

की परंपरा से चला आता हुआ दास

द्य दंड दास: दंड या कर्ज वगैरह न चुका पाने के चलते.

एक और दूसरे संस्कृत विद्वान नारद ने ऐसे 8 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है- द्य प्राप्त किया हुआ दास : उपहार में मिला या दूसरे किसी तरह हासिल, द्य स्वामी द्वारा प्रदत्त, द्य कर्ज न चुका पाने के चलते बना दास, द्य जुए में दांव पर लगा कर हारा गया : पासे या दांव पर अपने स्वामी द्वारा लगा कर हारा गया, द्य स्वयं दासत्व ग्रहण करने वाला,

द्य अपने को दास बनाने वाला (एक तय समय के लिए), द्य दासी के प्रेमपाश

में बंध कर अपने को दास बनाने

वाला द्य आत्मविक्रमी : अपने को बेचने वाला दास.

दास बनने के अनेक प्रकार थे. आज इन की छाया नौकरीपेशा, छोटामोटा काम करने वालों पर आसानी से देखी जा सकती है. आज के नेता बारबार महान हिंदू संस्कृति का गुणगान करते हैं, तो वे इसी सोच को ही दोहराते हैं.

इस संबंध में याज्ञवल्क्य और नारद ऋषियों ने यह कहा है कि जन्म पर और उस के अनुसार ही इनसान अपने स्वामी का दास बन जाता था.

उदाहरण के लिए, ब्राह्मण के क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दास हो जाते थे, क्षत्रिय के वैश्य और शूद्र व वैश्य के शूद्र बन जाते थे. किंतु ब्राह्मण किसी का दास नहीं होता था. आज भी नहीं है.

दास का आधार भी किस पिता के बेटे हो, इस पर करता है. ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण का भी दास नहीं हो सकता. जो ब्राह्मण खाने और कपड़े का इंतजाम नहीं कर पाते थे, वह अपने को किसी के हाथ बेच कर नौकरी में लग जाते थे, जिसे बाद में बेचारा कहा जाने लगा. अकाल में अपना पेट न पाल सकने के चलते और अपनी जिंदगी बचाने के लिए अपने को एकदूसरे के हाथ बेच देते थे.

संस्कृत ग्रंथ ‘कथासरित्सागर’ में दासदासियों के अनेक वर्णन हैं. एक व्यापारी ने पाटलिपुत्र से अनेक दासियां खरीदी थीं. कभीकभी दासियों से ब्राह्मण बच्चे भी कर लेते थे.

इतिहासकार जैकोबी ने ‘शूद्राज इन एनशैंट इंडिया’ में कहा है कि ‘मालिक दास के छोटे से अपराध पर भी सख्त सजा देता था, जैसे उस के बाल नोच लेना, जंजीरों में जकड़ देना, पीटना, सांकल से बांध देना, बंदीगृह में डाल देना, जंजीरों से खींच कर हाथपैर तोड़ देना, हाथ, पैर, कान, नाक, आंखें और दांत निकाल लेना, खाल निकलवा लेना, सूली पर चढ़ा देना, घाव पर अम्ल लगा देना, हाथी के पैर से दबवा देना, जलते ईंधन में फेंक देना या कौओं और गिद्धों से शरीर नुचवाना. किसी भी तरह से

उस के प्राण लेने का अधिकार मालिक

को था’.

दासों के काम

वैदिक युग से ही दासों का काम था ऊंचों की सेवा करना. वे कई तरह की सेवा कामों से अपने स्वामी को खुश रखने की कोशिश करते थे. वैसे, शूद्र से भी दास का काम कराया जाता था.

मनु का कथन है कि शूद्र को मेहनताना दे कर या न दे कर दास का काम कराना चाहिए, क्योंकि ऊपर वाले ने सेवा के लिए ही शूद्रों को बनाया है. आज भी यह बात चल रही है.

सरकार जिन 80 करोड़ लोगों को अनाज देने की बात करती है, वे क्या हैं? वे सरकार के गुलाम ही तो हैं. वे अपनी मरजी से वोट भी नहीं डाल सकते. आज का गुलाम हर परिवार में जरूरत के हिसाब से काम पर लगता है. वे खाना बनाना, पानी भरना, बरतन धोना, कूड़ा बीनना, रखवाली करना जैसे कई काम उसी तरह से करते हैं, जैसा हमेशा से समाज में करने का जिक्र किया गया है.

नारद के अनुसार, दासों को गृह के द्वार, मार्ग और पहाड़ी आदि को

साफ करने में, शरीर की सफाई करने में, मूत्र आदि के फेंकने जैसे काम में

लगाना चाहिए.

स्वामी अगर चाहे तो उसे अपने शरीर की सेवा में भी रख सकता है. सब्जी काटना, फर्श साफ करना,  झाड़ू लगाना, पानी ले आना, गायबैल और बकरी चराना, घास काटना, अनाज निकालना वगैरह अनेक तरह की पारिवारिक सेवाएं दास किया करते थे.

दासियों में भी कुंभ दासी, वन्न दासी इत्यादि का वर्गीकरण था. ज्यादातर इन से घर का काम कराया जाता था. किसानों की दासियां मालिक के लिए खेत में भोजन ले जाती थीं. पालिपिटक, गृहस्वामिनी को दासियां स्नान कराती थीं, उबटन लगाती थीं और उन के कपड़े धोती थीं. स्वामी की मालिश (तेल से) करना भी दासों का काम था.

कौटिल्य ने व्यवस्था दी थी कि मुरदा ढुलवाना, मलमूत्र साफ कराना और नग्न स्नान के समय दासी से मर्दन (मालिश) कराना अनुचित है.

दासता से छुटकारा

ऐसा नहीं था कि इन दासों को दासता से कभी मुक्ति ही न मिल पाती हो. युद्ध में बंदी बनाए दासों की अकसर तब छुट्टी मिल जाती थी, जब उन के पक्ष की जीत हो जाती थी.

कभीकभी दास वैराग्य प्राप्त कर संन्यासी बन जाया करते थे. इस हालत में उन्हें मुक्त कर दिया जाता था, पर कई बार स्वामी एक निश्चित मुक्ति शुल्क वसूल कर के ही मुक्ति दिया करते थे.

दीघनिकाय में कहा गया है कि विरक्त, संन्यासी, दास, आदरसम्मान, आसन, चीवर, पिंडपात्र आदि का अधिकारी है. कई बार स्वामी संन्यासी बनते समय दासों को पुण्यकार्य के तौर पर मुक्त कर देते थे.

कौटिल्य कहते हैं, ‘ऋणग्रस्त दास अपना कर्जा चुका कर स्वतंत्र हो सकता है. यदि स्वामी मुक्ति शुल्क ले कर भी दास को मुक्त न करे, तो उस पर 12 पण जुर्माना किया जाए. यदि दासी को अपने स्वामी से संतान प्राप्त हो जाए, तो दासी व संतान दोनों को मुक्त कर दिया जाए.’

एक जमाने में किसी की अपनी निजी जायदाद नहीं थी, बल्कि एक पूरा कबीला इलाके का स्वामी होता था, जमींदारी प्रथा की तरह. धीरेधीरे दासों का खरीदनाबेचना, गिरवी रखना व उन्हें जुए में हारनाजीतना शुरू हो गया.

ऐतिहासिक बातों से पता चलता है कि भारत में मौर्य युग दास प्रथा का स्वर्णकाल था. इस युग का सारा साहित्य, स्मृतियां, जातक कथाएं, पालि त्रिपिटक, जैन, बौद्ध गं्रथ, कौटिल्य अर्थशास्त्र वगैरह सभी दास प्रथा पर अपनीअपनी व्यवस्था देते हैं.

आज के युग में भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के बहुत से देशों में समाज मालिकों और गुलामों में बंटा हुआ है. ऊंचे घरों में पैदा हुए ज्यादा अच्छी पढ़ाई करते हैं और चतुराई से सारे कारखाने और अच्छी नौकरियों पर कब्जा कर लेते हैं.

आज गुलामों को जंजीरों में नहीं रखा जाता, पर उन पर पैसे की कमी की तलवार जंजीरों जैसी है. प्राचीन काल में जैसी दास प्रथा थी, उस का थोड़ा सा ही फर्क है आज.

देह धंधे में तो औरतों को बाकायदा आज भी बंद कर के रखा जाता है और वे ग्राहकों से खुल कर बात भी नहीं कर पातीं. एक क्या किसी के हाथ बिकी नहीं, हमेशा की गुलाम हो गई.

नेपाल की दलित लड़कियां भारत के बड़े शहरों में खुलेआम खरीदीबेची जा रही हैं. जब से ऊंची जातियों में औरतों की कमी हुई है, लड़कियों को पैसे दे कर खरीद कर पत्नी की तरह रखा जाता है. पर वे एक गुलाम की तरह ही हैं. सरकार को इस तरह की गुलामी की कोई चिंता नहीं है.

हत्यारिन पत्नी: न घर की रहती और न घाट की

हम  3 बहनें और 2 भाई हैं, जो पिता के साथ मजदूरी करते हैं. मेरी शादी 12 साल पहले छत का पुरा गांव के विश्वनाथ से हुई थी. कुछ सालों से वह मुझे आएदिन बहुत मारनेपीटने लगा था, क्योंकि मेरे पैर में सफेद दाग है.

‘‘मेरा 10 साल का एक बेटा और उस से एक साल छोटी बेटी है. मेरा पति मुझे घर से निकालना चाहता था. इस से कोई 5 साल पहले मेरा खिंचाव अरविंद सखवार की तरफ होने लगा था, जो हमारे खेतों में बंटाईदार है. हम दोनों में जिस्मानी ताल्लुकात बन गए. हम एकदूसरे से प्यार करने लगे थे. अरविंद भी शादीशुदा है. उस के 2 बेटे हैं.

‘‘वारदात वाले दिन मैं ने बाजरे की रोटी के लड्डू बनाए और उन में नींद की गोलियां मिला दीं. ये लड्डू मैं ने पति को खिला दिए. उसे नींद आने लगी, तो पहले उसे दूध गाड़ी में बैठा कर दिमनी ले गए, उस के बाद अरविंद अपनी मोटरसाइकिल ले आया. हम दोनों ने बेहोश विश्वनाथ को उस पर बैठाया और सिकरौदा नहर के किनारे एक सुनसान जगह ले गए.

‘‘वहां अरविंद निगरानी करता रहा कि कोई आएजाए तो पता चल जाए.

‘‘नहर के किनारे ले जा कर हम ने विश्वनाथ के कपड़े उतार दिए और उसे नहर में बहा दिया. उस के मोबाइल का सिम निकाल कर उसे भी नदी में फेंक दिया…’’

मुरैना के थाने में बैठी राजकुमारी को देख कर लगता नहीं था कि सीधीसादी सी दिखने वाली यह औरत अपने पति की इतनी बेरहमी से हत्या कर सकती है. लेकिन अब वह पछता रही है. उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा है कि इस से तो अच्छा था कि वही मर जाती.

अब राजकुमारी को समझ आ रहा है कि दोनों बच्चे अनाथ हो चुके हैं और जिन का कोई ठौरठिकाना नहीं है. जमीन अब देवर या जेठ के पास चली जाएगी, जो न जाने बच्चों के साथ कैसा सुलूक करेंगे.

शातिर दिमाग राजकुमारी

12 अगस्त, 2022 को थाने में मीडिया वालों को राजकुमारी रट्टू तोते की तरह अपनी दास्तां सुना रही थी, जिस में हैरानी और दिलचस्पी की बात यह थी कि हत्या के 22 महीने बाद तक किसी को शक ही नहीं हुआ कि विश्वनाथ अब इस दुनिया में नहीं है.

दरअसल, हत्या के बाद राजकुमारी जब घर वापस लौटी, तो उस ने अपनी 80 साला बूढ़ी सास को बताया कि विश्वनाथ काम की तलाश में गुजरात चला गया है. यही बात उस ने नातेरिश्तेदारों और गांव वालों को भी बताई थी.

सास की बात राजकुमारी अकसर मोबाइल फोन पर पति से करवा देती थी, जो असल में पति नहीं, बल्कि उस का आशिक अरविंद था, जो विश्वनाथ बन कर बात करता था.

बूढ़ी मां को ऊंचा सुनाई देता था और नजर भी कमजोर थी, इसलिए बेचारी आसानी से धोखा खाते हुए इस उम्मीद पर जीती रही कि जल्द ही बेटा लौट आएगा, मगर बेटा लौटता कहां से, उस की लाश को तो 24 नवंबर, 2020 को ही सिकरौदा पुलिस लावारिस मान कर दफना चुकी थी.

अगस्त के पहले हफ्ते में विश्वनाथ की बहन वंदना मायके आई, तो उस ने भी भाई से बात करनी चाही. राजकुमारी ने उस की बात भी अरविंद से करा दी, लेकिन इस दफा चोरी पकड़ी गई, क्योंकि वंदना को शक नहीं, बल्कि यकीन हो गया कि सामने से उस का भाई नहीं, बल्कि कोई और बात कर रहा है.

माथा ठनकने पर वंदना अपनी मां को ले कर थाने गई और इस गड़बड़ की शिकायत की तो जल्द ही सच सामने आ गया. शातिर दिमाग राजकुमारी ने पति को जल समाधि देने से पहले उस के कपड़े तक उतार लिए थे, जिस से पहचान का कोई सुबूत उस के साथ बह कर फांसी का फंदा न बन जाए. सिम निकाल कर उस के नंबर की पहचान जरूर कायम रखी.

राजकुमारी के पछतावे की वजह पति की हत्या करना कम, बल्कि पकड़े जाने के बाद सजा का खौफ ज्यादा है, क्योंकि जिंदगी अब जेल की चक्की पीसते कटेगी और अरविंद भी उस के पहलू में नहीं होगा, जो अब साफ मुकर रहा है कि हत्या उस ने की है, बल्कि पुलिस को उस ने बताया कि सारी साजिश तो राजकुमारी ने ही रची थी. वह तो उस का साथ दे रहा था. जाहिर है कि उसे सजा कम होगी.

मामूली सी बात पर पत्नी के साथ मारपीट कर विश्वनाथ बिलाशक गलती कर रहा था, लेकिन इतना बड़ा गुनाह उस ने नहीं किया था जितनी सजा उसे मिली.

बढ़ती तादाद

प्रेमी के संग मिल कर पति की हत्या करने के मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, वह चिंता की बात है. इन से सबक सीखा जाना जरूरी है कि कातिल पकड़े जरूर जाते हैं.

अब डिजिटल का दौर है और हर हाथ में स्मार्टफोन है, जिस ने पुलिस और कानून की राह काफी आसान कर दी है. लिहाजा, पहले की तरह यह आसान काम नहीं रहा कि किसी को नींद की गोलियां या शराब के नशे में धुत्त कर के मारने के बाद किसी नदीनाले या नहर में फेंक दिया जाए और कुछ किलोमीटर दूर लाश जब कुछ दिन बाद मिले, तो कोई सुबूत या गवाह न मिलने की हालत में कातिल पकड़े न जाएं.

आजकल कोई भी शख्स अगर 2-4 दिन भी बिना बताए गायब होगा और उस का मोबाइल फोन बंद मिलता है, तो किसी अनहोनी के डर से तुरंत घर वाले पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देते हैं, जिस की लोकेशन कातिलों को कानून के फंदे तक ले ही आती है. कई मामले तो इतने नीट ऐंड क्लीन होते हैं कि मोबाइल खंगालने की भी जरूरत नहीं पड़ती.

केस नंबर 1

हरियाणा के चमारखेड़ा गांव का रहने वाला महेंद्र सिंह अचानक गायब हो गया था, जिस की लाश गांव के नजदीक की नहर से बरामद हुई थी.

गांव में चर्चा तो पहले से ही थी, लेकिन महेंद्र के भाई सुशील ने आरोप लगाया कि महेंद्र की पत्नी यानी उस की भाभी रीनू का किसी अनजान नौजवान से प्यार का चक्कर चल रहा था.

इस शिकायत पर पुलिस ने फुरती दिखाते हुए महेंद्र का अंतिम संस्कार होने से पहले ही रीनू को गिरफ्त में ले कर कड़ाई से पूछताछ की, तो उस ने सच उगल दिया.

रीनू ने बताया कि उस ने नडाना गांव के रहने वाले अपने आशिक राकेश के साथ मिल कर महेंद्र की हत्या को अंजाम दिया था.

इस साजिश के तहत रीनू महेंद्र को इलाज के लिए करनाल के कल्पना चावला अस्पताल ले गई थी. वहां से राकेश के बुलावे पर वह काछवा गांव चली गई. वहां तीनों बाइक पर सवार हो कर चमारखेड़ा गांव पहुंचे और महेंद्र को छक कर शराब पिलाई और नशे की हालत में उसे नहर में धक्का दे दिया, जिस से उस की मौत हो गई.

हत्या के बाद रीनू कल्पना चावला अस्पताल में भरती हो गई और 4 दिन बाद मायके चली गई और फिर ससुराल वापस आ गई. जाहिर है, अब वह कह सकती थी कि महेंद्र कहां गया, उसे नहीं पता, क्योंकि इलाज के बाद तो वह घर चली गई थी.

रीनू और राकेश ने सोचा था कि 4-6 दिन में महेंद्र की लाश कोसों दूर बह जाएगी और मछलियां और दूसरे जानवर उसे इतना नोंच खाएंगे कि लाश पहचानी नहीं जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और अब रीनू और राकेश जेल में बैठे पछताते हुए अपने मुकदमे की कार्यवाही आगे बढ़ती देख रहे हैं.

रीनू तो उस घड़ी को ज्यादा कोस रही है, जब मोबाइल के जरीए राकेश से दिल और फिर जिस्म लगा बैठी थी और फिर पति को रास्ते से हटाने के लिए उस के कत्ल की साजिश रची थी.

केस नंबर 2

राजकुमारी और रीनू की तरह रीवा की अर्चना ने भी यही सोचा और चाहा था कि पति राजू की हत्या कुछ इस तरह की जाए कि कोई उस पर और उस के आशिक संदीप पर शक न करे. कुछ दिनों बाद मामला जब आयागया हो जाएगा, तो दोनों इतमीनान से शादी कर के मौज की जिंदगी जिएंगे.

12 अगस्त, 2021 को अर्चना ने अपने पति राजू के साथ छक कर शराब पी. साकी बनी इस पत्नी ने पति की शराब में आशिक की भेजी जहर की पुडि़या घोल दी थी, जिस से मामला जहरीली शराब से हुई मौत का लगे.

जहर और नशे के कहर से राजू तड़पता हुआ उम्मीदभरी निगाहों से पत्नी की तरफ देखता रहा कि वह उसे बचा ले, डाक्टर को बुलाए या फिर उसे अस्पताल ले जाए, लेकिन अर्चना का सावित्री बनने का कोई इरादा नहीं था. उस का सत्यवान तो थोड़ी दूर बसे गांव लालपुर में राजू की मौत की खबर सुनने के लिए मरा जा रहा था. वक्त काटने के लिए वे दोनों मोबाइल पर बात और चैटिंग करते जा रहे थे.

अर्चना राजू की बिगड़ती हालत के अपडेट संदीप को देती जा रही थी कि बस अब कुछ देर और, इस के बाद तो…

एक पति के प्रति एक पत्नी की क्रूरता की यह इंतिहा थी, जिस में वह पति को तिलतिल कर मरते देखने का लुत्फ उठा रही थी. जब राजू को खून की उलटी हुई तो अर्चना ने साफ कर दी. वह अपने पति की लाश पर बचपन के प्रेमी के साथ नया आशियाना बनाने के रंगीन सपने देख रही थी. घर वालों ने उस की शादी संदीप के साथ नहीं होने दी थी.

सुबह होतेहोते राजू ने आखिरकार दम तोड़ दिया. चूंकि मौत ज्यादा शराब पीने की वजह से हुई थी, इसलिए उस की लाश का पोस्टमार्टम कर बिसरा जांच के लिए सागर की फौरैंसिक लैब में भेज दिया गया.

जांच रिपोर्ट आने में 11 महीने लग गए. तब तक अर्चना और संदीप बेखौफ हो चुके थे और 4 महीने बाद नोटरी के यहां शादी भी उन्होंने कर ली थी. लेकिन बिसरा जांच की रिपोर्ट में जहर का होना पाया गया, तो पुलिस ने अर्चना को धर दबोचा. इन दोनों की रातभर की काल डिटेल्स सब से बड़ा सुबूत थीं, जिस से ये मुकर नहीं पाए.

अर्चना ने शराफत से अपना गुनाह कबूल कर लिया. जल्द ही 8 अगस्त, 2022 को संदीप को भी गिरफ्तार कर लिया गया. अब ये दोनों ही अपनी करनी पर पछताते हुए सजा का इंतजार कर रहे हैं.

हत्या हल नहीं

ऐसी लाखों पत्नियां और उन के आशिक जेल में सस्ते मुकदमे के फैसले का इंतजार करते पछता रहे हैं कि आखिर उन्हें हत्या कर के हासिल क्या हुआ. बाहर की जिंदगी में थोड़ी घरेलू और सामाजिक बंदिशें जरूर थीं, जो इस अंधेरी कोठरी की जिंदगी से तो हजार गुना ज्यादा बेहतर थीं.

अगर हत्या नहीं करते तो क्या करते, यह सवाल और उस का जवाब भी इन के जेहन में बारबार कौंधता होगा कि तलाक ले लेते तो छुटकारा भी मिल जाता और मनचाहा आशिक, माशूका और जिंदगी भी मिल जाती.

हत्यारिन पत्नी के नजरिए से देखें, तो लगता है कि तलाक की बात इन के दिमाग में शायद आई ही नहीं, क्योंकि हमारे देश के तलाक कानून बहुत सख्त और खर्चीले हैं.

ऐसा बिलकुल नहीं होता कि कोई पत्नी या फिर पति अदालत में तलाक की अर्जी लगाए और 2-4 पेशियों में ही उसे तलाक मिल जाए और फिर वह अपने आशिक से शादी कर सुकून और चैन की जिंदगी जिए.

अगर कानून में फटाफट तलाक के इंतजाम होते तो शायद पतियों की हत्याएं कम होतीं, क्योंकि पतिपत्नी के बीच रोजरोज होती कलह की मीआद सिमट कर रह जाती और पत्नी अपने प्रेमी के साथ पति की हत्या करने का रास्ता चुनने के बजाय कोर्ट जाती.

पतिपत्नी के रिश्ते में एक बार खटास पड़ जाए और उन्हें समझाने वाला कोई न हो, तो पत्नी का झुकाव अपने आशिक की तरफ बढ़ते जाना कुदरती बात है. दोनों मिलते हैं, सुनसान जगह पर सैक्स की अपनी भूख मिटाते हैं, तो यही हसीन लम्हे उन्हें अच्छे लगने लगते हैं.

पर घर पहुंचने के बाद जब शुरू होती है रोजरोज की कलह, मारकुटाई तो मन करता है कि अगर इस नरक से परमानैंट छुटकारा मिल जाए तो जिंदगी स्वर्ग हो जाएगी. इस के लिए दोनों तैयार करते हैं एक प्लान कि कैसे पति की हत्या कर के उसे हमेशा के लिए रास्ते से हटाया जाए.

पैसों की कमी, बच्चे हों तो उन की जिम्मेदारी जैसी वजहें इन्हें भागने की इजाजत नहीं देतीं. दूसरा डर इस बात का ज्यादा रहता है कि पाताल में जा कर भी छिप जाएं, पति और नातेरिश्तेदार पीछा नहीं छोड़ेंगे, इसलिए क्यों न हत्या ही कर दी जाए.

लेकिन किसी की हत्या करना मक्खीमच्छर मारने जितना आसान काम भी नहीं होता है. इस के बाद भी राजकुमारी, अर्चना और रीनू ने पूरा प्लान बना कर बड़े एहतियात से अपने पति की हत्या की वारदात को अंजाम दिया, लेकिन वे कानून के लंबे हाथों से बच नहीं पाईं. तीनों के आशिक भी अपनी जिंदगी बरबाद कर बैठे. इन का अंजाम देख कर सबक तो यही मिलता है कि हत्या करना समस्या का हल नहीं है.

तो फिर क्या है हल

आशिक के साथ मिल कर शौहर की हत्या के तकरीबन 90 फीसदी मामले गांवकसबों और गरीब तबके के लोगों में होते हैं. पढ़ेलिखे पैसे वाले तबके के लोग बजाय हत्या के तलाक का रास्ता चुनते हैं. उन्हें एहसास रहता है कि इस में देर जरूर लगेगी, लेकिन इलाज पक्का होगा, इसलिए वे सब्र का दामन थामे रहते हैं.

इस तबके की औरतें भी आमतौर पर कामकाजी होती हैं या उन्हें मायके का सहारा होता है, इसलिए उन्हें परेशानियां कम उठानी पड़ती हैं. पति से अलग रहना उन्हें किसी भी लिहाज से भारी नहीं पड़ता है.

लिहाजा, एकलौता हल तो यही है कि पति से जब पटरी बैठना बंद हो जाए और कोई दूसरा जब दिल और जिस्म की गहराइयों तक इतना उतर जाए कि उस के बिना जीना दुश्वार और बेकार लगने लगे तो फौरन पति को छोड़ देना चाहिए. यह कम से कम हत्या जैसे अपराध से मुश्किल रास्ता तो नहीं है.

इस के बाद भी अगर पति परेशान करे तो पुलिस और कानून का सहारा लेना चाहिए. इस से तलाक लेने में भी आसानी रहती है और कानूनन मुआवजा लेने में भी मदद मिलती है.

आशिक को हत्या के लिए उकसाना या उस के उकसाने में आना सीधे जेल की तरफ ले जानी वाली बातें हैं. इन से बचना चाहिए.

लेकिन इस के पहले पति से ही पटरी बैठाने की कोशिश होनी चाहिए. अकसर अनबन की वजहें उतनी बड़ी होती नहीं जितना कि उन्हें बढ़ा कर के देखा जाने लगता है. पति की छोटीमोटी कमजोरियों और गलतियों को दिल पर लेने के बजाय उन्हें प्यार और समझदारी से दूर करने से एक बड़े संगीन गुनाह से बचा जा सकता है.

अगर आप के बच्चे हैं तो उन की जो गत होगी, उसे राजकुमारी के बच्चों की हालत से समझा जा सकता है कि वे अनाथ हो कर दूसरों के रहमोकरम पर पलते रहेंगे और जिंदगी में कुछ खास नहीं कर पाएंगे.

पति को चाहिए कि वह अपनी पत्नी को गुलाम या सामान न समझे. उस से इज्जत और प्यार से पेश आए और अगर आपसी खटपट का कोई हल समझ नहीं आ रहा हो, तो रास्ते अलग कर लिए जाएं.

मैं मुसलिम हूं और मेरी गर्लफ्रेंड सिख, कुछ दिनों से वो अजीब बर्ताव कर रही हैं, मैं क्या करूं?

सवाल

मैं और मेरी गर्लफ्रैंड 3 साल से साथ में हैं. मैं मुसलिम हूं और वह सिख, हमारे बीच में काफी अच्छी बौंडिंग है. हम एकदूसरे के साथ ऐसे रहते हैं जैसे मैरिड कपल रहते हैं. यहां तक कि वह अपने फ्रैंड्स से मुझे हसबैंड कह कर मिलाती है. लेकिन अचानक एक हफ्ते पहले उस का फोन आया और बोली कि मैं तुम से कोई संबंध नहीं रखना चाहती. मुझे भूल जाओ. मैं दूसरी जगह शादी कर रही हूं. कह कर मोबाइल पर मेरा नंबर भी ब्लौक कर दिया. मैं उस से वजह पूछता रह गया तो बस इतना बोली कि मेरे पापा मेरे इस रिश्ते से खुश हैं तो मैं भी हूं.

मुझे लगा कि मेरा तो एक  झटके में सब लुट गया क्योंकि एक रात पहले ही तो हम दोनों ने साथ डिनर किया था. साथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं. फिलहाल मैं क्या करता. चुपचाप अपने मन को सम झा लिया. लेकिन एक दिन अचानक मुझे मिली और मुझे हग कर लिया. यहां तक कि गाल पर किस किया और बड़े नौर्मल तरीके से बात करने लगी जैसे कोई बात हुई ही नहीं हो. मैं परेशान हो गया. मैं उस से बोला भी कि वह ऐसे रिएक्ट क्यों कर रही है.

मुझ से इंवौल्व होने की कोशिश क्यों कर रही है जबकि मैं अब उसे भुलाने की कोशिश कर रहा हूं. तब वह मु झे बाय कहकर चली गई. अब कभी भी मु झे फोन कर देती है. मैं बहुत कन्फ्यूज हो गया हूं उस के इस बिहेवियर से. सम झ नहीं पा रहा कि वह चाहती क्या है मु झ से?

 जवाब

आप की गर्लफ्रैंड का बिहेवियर वाकई अजीब है. एक तरफ उस का आप को एक  झटके में रिलेशन खत्म करने की बात कहना और फिर कुछ दिनों बाद ऐसे बिहेव करना जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, कन्फ्यूज करता है.

लेकिन अब आप को ही मजबूत बनना पड़ेगा. 3 साल तक वह आप के साथ घूमीफिरी, टाइम स्पैंड किया, एकदूसरे के साथ आप फिजिकल भी हुए. आप से उस ने महंगेमहंगे उपहार भी लिए, दोस्त से आप को हंसबैंड कह कर मिलाती रही. यह सब उस के लिए कोई मायने नहीं रखता तो ऐसी लड़की के लिए आप को दुखी होने की कोई जरूरत नहीं, उसे आप की, आप के प्यार की कोई कद्र नहीं तो आप को क्या पड़ी है कि उस के लिए अपना जीवन बरबाद करें.

ऐसा लगता है कि जैसे उस का मन आप से ऊब गया हो. चलो मान लेते हैं मन न भी ऊबा हो. लेकिन बात यह भी हो सकती है कि उस के घरवाले आप दोनों के रिश्ते के खिलाफ हों क्योंकि आप का मुसलिम होना और उस का सिख होना, आप दोनों के बीच शादी के लिए बहुत बड़ी रुकावट है. उस के घरवालों ने उसे यह बात सम झाई हो और अंत में अब वह 3 साल बाद इस बात को सम झ रही हो और अंतत उस ने आप से रिश्ता तोड़ने का फैसला ले लिया हो.

अटकलें तो काफी सारी लगाई जा सकती हैं लेकिन हकीकत की दुनिया में उतर कर देखेंगे तो सचाई यही है कि अब वह लड़की आप की जिंदगी में वापस नहीं आएगी. आप अब उस का फोन बिलकुल अडैंड मत कीजिए. आप उस का नंबर ब्लौक कर दें जैसे उस ने आप का कर रखा है. आप को कभी अचानक मिल भी जाए तो इग्नोर करें. बात करने की कोई जरूरत नहीं. आप की भी कोई सैल्फ रिसपैक्ट है. उस का जब मन करे चली जाए, जब मन करे चली आए,  ऐसा नहीं हो सकता.

आपको दिखाना होगा कि आप उस के बगैर खुश हैं. लाइफ  में उस के सिवा आप को और भी काम हैं और आप को अभी बहुतकुछ अचीव करना है. आप हौसला रखें और अपने को अपने काम में बिजी रखने की कोशिश करें.

दोस्तों से मिलेंजुलें, आउटिंग के लिए जाएं हो सकता है आगे लाइफ में आप को और भी कोई बैटर फ्रैंडशिप के लिए मिल जाए. बस हिम्मत मत हारिए.

तुम मेरी हो: क्या शीतल के जख्मों पर मरहम लगा पाया सारांश- भाग 2

सारांश ने बैठक में जा कर सब से क्षमा मांगी और अपने स्थान पर किसी दूसरे व्यक्ति को बैठा कर औफिस से सीधा चुनमुन के पास आ गया. उसे देखते ही चुनमुन खिल उठा. शीतल भी मन ही मन राहत महसूस कर रही थी. चुनमुन ने सारांश को अपने घर कपड़े बदलने भी तभी जाने दिया जब उस ने रात को चुनमुन के घर ठहरने का वादा किया. शीतल के आग्रह पर सारांश रात का खाना उन के साथ ही खाने को तैयार हो गया.

तेज बुखार के कारण चुनमुन की नींद बारबार खुल रही थी, इसलिए शीतल और सारांश उस के पास ही बैठे थे. अपनेपन की एक डोर दोनों को बांध रही थी. अपने जीवन के पिछले दिन दोनों एकदूसरे के साथ सा झा कर रहे थे. सारांश का जीवन तो कमोबेश सामान्य ही बीता था, पर शीतल एक भयंकर तूफान से गुजर चुकी थी. कुछ वर्षों पहले वह अपनी दादी के घर हिमाचल के सुदूर गांव में गई थी. उन का गांव मैक्लोडगंज के पास पड़ता था जहां अकसर सैलानी आतेजाते रहते हैं. एक रात वह ठंडी हवा का आनंद लेती हुई कच्ची सड़क पर मस्ती से चली जा रही थी. अचानक एक कार उस के पास आ कर रुकी. पीछे से किसी ने उस का मुंह दबोच लिया और उसे स्त्री जन्म लेने की सजा मिल गई.

अंधेरे में वह उस दानव का चेहरा भी न देख पाई और वह तो अपने पुरुषत्त्व का दंभ भरते हुए चलता बना. उसे तो पता भी नहीं कि एक नन्हा अंकुर वह वहीं छोड़ कर जा रहा है. शीतल का नन्हा चुनमुन. मातापिता ने शीतल पर चुनमुन को अनाथाश्रम में छोड़ कर विवाह करने का दबाव बनाया पर वह नहीं मानी. लोग तरहतरह की बातें कर के उस के मातापिता को तंग न करें, इसलिए उस ने घर से दूर आ कर रहने का निर्णय कर लिया. चुनमुन उस के लिए अपनी जान से बढ़ कर था.

चुनमुन का बुखार कम हुआ तो दोनों थोड़ी देर आराम करने के लिए लेट गए. सारांश की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह रहरह कर शीतल के बारे में सोच रहा था, ‘कितनी दर्दभरी जिंदगी जी रही हो तुम, जैसे कोई फिल्मी कहानी हो. इतनी पीड़ा सह कर भी चुनमुन का पालनपोषण ऐसा कि यह बाग का खिला हुआ फूल लगता है, टूट कर मुर झाया हुआ नहीं.

पुरुष के इतने वीभत्स रूप को देखने के बाद भी तुम मु झ से अपना दर्द बांट पाई. तुम शायद यह जानती हो कि हर पुरुष बलात्कारी नहीं होता. तुम्हारे इस विश्वास के लिए मैं तुम्हारा जितना सम्मान करूं, वह कम है. स्वयं जीवन की नकारात्मकता में जी रही हो और दूसरों को सकारात्मक ऊर्जा दे रही हो. तुम कितनी अच्छी हो, शीतल.’ शीतल को मन ही मन इस तरह सराहते हुए सारांश उस का सब से बड़ा प्रशंसक बन चुका था.

2-3 दिनों में चुनमुन का बुखार कम होना शुरू हो गया. औफिस के अलावा सारांश अपना सारा समय आजकल चुनमुन के साथ ही बिता रहा था. शीतल ने स्कूल से छुट्टियां ली हुई थीं, इसलिए बाहर से सामान आदि लाने का काम भी सारांश ही कर दिया करता था. उस का सहारा शीतल के लिए एक परिपक्व वृक्ष के समान था, फूलों से लदी बेल सी वह उस के बिना अधूरा अनुभव करने लगी थी स्वयं को. स्त्री एक लता ही तो है जो पुरुष का आश्रय पा कर और भी खिलती है तथा निस्वार्थ हो कर सब के लिए फलनाफूलना चाहती है.

चुनमुन का बुखार उतरा तो कामवाली बाई बीमार पड़ गई. दोनों घरों का काम लक्ष्मी ही देखती थी. उस ने शीतल को फोन पर सूचना दी और यह सूचना जब वह सारांश को देने पहुंची तो वह सिर पकड़ कर बैठ गया. रात को उस की मां नीलम का फोन आया था कि वे सुरभि के साथ 2 दिनों के लिए चमोली आ रही हैं. सिर्फ एक सप्ताह के लिए भारत आई थी सुरभि और सारांश से बिना मिले वापस नहीं जाना चाहती थी.

‘‘लगता है दोनों यहां आ कर काम में ही लगी रहेंगी,’’ सारांश ने निराश हो कर शीतल से कहा.

‘‘तुम क्यों फिक्र करते हो, मैं सब देख लूंगी,’’ शीतल के इन शब्दों से सारांश को कुछ राहत मिली और वह घर की चाबी शीतल को सौंप कर औफिस चला गया. सारांश की मां नीलम और सुरभि दोपहर को पहुंचने वाली थीं. शीतल ने चुनमुन की बीमारी के कारण पहले ही पूरे सप्ताह की छुट्टियां ली हुई थीं विद्यालय से.

सुरभि और मां सारांश की अनुपस्थिति में घर पहुंच गईं. शीतल के रहते उन्हें किसी भी प्रकार की समस्या नहीं हुई. सारांश के आने पर भी वह सारा घर संभाल रही थी. चुनमुन भी सारांश की मां से बहुत जल्दी घुलमिल गया.

2 दिन कैसे बीत गए, किसी को पता ही नहीं लगा. जाने से एक दिन पहले रात का खाना खाने के लिए शीतल ने सब को अपने घर पर बुलाया. घर की साजसज्जा, खाने का स्वाद, रहने का सलीका आदि से सारांश की मां शीतल से प्रभावित हुए बिना न रह सकीं. बैडरूम में पुराने गानों की सीडी और विभिन्न विषयों पर पुस्तकों का खजाना देख कर सुरभि को शीतल के शौक अपने जैसे ही लगे और वह प्रसन्नता से चहकती हुई हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ का आनंद लेने लगी. चुनमुन सारांश की मां से कहानियां सुन रहा था.

देररात भारी मन से वे शीतल के घर से आए. घर आ कर भी वे दोनों सारांश से शीतल और चुनमुन के बारे में ही बातें कर रही थीं. मौका पा कर सारांश ने शीतल की जिंदगी की दुखभरी कहानी दोनों को सुनाई और शीतल को घर की बहू बनाने का आग्रह किया. किंतु उसे जो शंका थी, वही हुआ. मां ने इस रिश्ते के लिए साफ इनकार कर दिया. सारांश के इस फैसले से सुरभि यद्यपि सहमत थी किंतु मां ने विभिन्न तर्क दे कर उस का मुंह बंद कर दिया. अगले दिन दोनों दिल्ली वापस चली गईं.

फिल्म ‘‘धूप छंव’’ से एक और सुंदरी सिम्रिथी बठीजा का बौलीवुड में पदार्पण

सौंदर्य प्रतियोगिताओं में अपने सौंदर्य का जलवा दिखाकर विजयश्री हासिल करने के बाद बौलीवुड में कदम रखकर अपने अभिनय के बल पर लोगों के दिलों में जगह बना लेने वाली अभिनेत्रियों की कमी नही है. इन्ही अभिनेत्रियों में लारा दत्ता,ऐश्वर्या राय,प्रियंका चोपड़ा,सुस्मिता सेन आदि के नाम आते हैं.अब इन्ही अभिनेत्रियों के साथ अपना नाम जोड़ने आ गयी हैं सिम्रिथी बठीजा.

मूलतः सिंधी और महाराष्ट् के उल्हासनगर में जन्मी व पली बढ़ी सिम्रिथी बठीजा ने 2019 में टोक्यो,जापान में सपंन्न ‘‘मिस इंडिया इंटरनेशनल’’ का खिताब अपने नाम किया था. इतना ही नही सिम्रिथी बठीजा राष्ट्ीय स्तर की एथलिट भी हैं.सौंदर्य के इस खिताब के बाद उनके पास फिल्मों व म्यूजिक वीडियो के आफर आने लगे थे.

सिम्रिथी बठीजा ने कंटेंट प्रधान फिल्में करने का निर्णय कर कई फिल्में ठुकरायी. फिर सचित जैन निर्मित और हेमंत सरन निर्देशित पारिवारिक फिल्म ‘‘धूप छांव’’ से उन्होने बौलीवुड में अपने कैरियर की शुरूआत करने का निर्णय लिया,जो कि अब 4 नवंबर को पूरे देश के सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने जा रही है.

पिछले लगभग तीन दशक से बौलीवुड फिल्मों से पारिवारिक मूल्य व पारिवारिक रिश्तों की कहानियंा गायब हो गयी थीं.अब फिल्म ‘‘धूप छंाव’’ से कए बार फिर पारिवारिक मूल्यों व पारिवारिक रिश्ते की कहानी की शुरूआत हो रही है.खुद अभिनेत्री सिम्रिथी बठीजा कहती हैं-‘‘ फिल्म ‘धूप छंाव’ से बौलीवुड में कदम रखने की मूल वजह इसकी कहानी से रिलेट करना रहा. रिश्तों की जो अहमियत खत्म हो गयी थी,उस पर यह फिल्म बात करती है.

जब आप संयुक्त परिवार में या अपने परिवार के साथ रहते हैं,और आप बेवजह बाहर खुशियां तलाश रहे थे.फिल्म ‘धूप छांव’ में भाई,पति पत्नी के रिश्तों की बात की गयी है.यदि पति नही है तो पत्नी किस तरह की जिंदगी जी रही है,उसकी बात की गयी है.इसमें भावनाओं का सैलाब है.’’

फिल्म ‘‘धूप छंाव’’ के अपने किरदार के संदर्भ में सिम्रिथी बठीजा कहती हैं-‘‘मैने इसमें सिमरन का किरदार निभाया है.सिमरन शादी से पहले मेरी टाइप की लड़की है.उसका व्यक्तित्व काफी हद तक मेरे जैसा ही है.सिमरन महत्वाकांक्षी लड़की है,उसे सब कुछ करना है.वह ‘क्रेजी लव’ है.सिमरन पागल प्रेमी है.प्यार करेगी तो शिद्दत से करेगी.वह बहुत ही ज्यादा स्ट्ांग है.तो मैं भी ऐसी ही हॅूं. सिमरन अपने परिवार को कैसे हैंडल करती हैं,किस तरह अपने परिवार के लिए ताकत बनती है,उसी की कहानी है.परिवार के अंदर बहुत ज्यादा उतार चढ़ाव घटित हो रहे

हंै,पर अकेले सिमरन सभी को ंसंभालती नजर आएगी.वह झगड़ने की बजाय हर चीज को संभाल रही है. उसके पास कुछ जिम्मेदारियंा हैं. वह सिर्फ अपने बच्चों को और अपने पति को सहारा देना चाहती.इस फिल्म में सिमरन के किरदार मंे कई शेडस हैं.कालेज गोइंग लड़की से शादीशुदा औरत, फिर मां और फिर शादी शुदा बच्चो की मंा तक का मेरा किरदार है.’’

सौंदर्य प्रतियोगिता जीतने के बाद सिम्रिथी बठीजा की यह पहली फिल्म है.इसके अलावा वह शांति चंद्रा के निर्देशन में तमिल फिल्म कर रही हैं.वह कहती हैं-‘‘मुझे अभिनय करना है.मैं फिल्म के साथ वेब सीरीज भी करना चाहूगी.मगर मैं बेहतरीन कहानियों व किरदारों को ही महत्व दॅंूगी.’’

उत्सव : दीवाली- आनंद का नहीं पूजा पाठ का त्यौहार

पहले त्योहार मनाने का मकसद यह होता था कि जब आदमी मेहनत कर के थक जाए, तो इस बहाने खुशियां मना ले. भारत के गांवों की बात करें, तो त्योहार ही ऐसा मौका होता था, जब वहां रहने वाले खुशियां मनाने के लिए समय निकाल पाते थे. उन के आसपास ऐसा माहौल बन जाता था और तब वे नए कपड़े पहनने और लजीज पकवान का स्वाद लेते थे.

भारत में दीवाली का त्योहार अपनी अलग पहचान लिए हुए है. इसे रोशनी का त्योहार कहा जाता है, पर आज के दौर में माहौल बदल गया है. धर्म की दुकानदारी त्योहार की खुशियों पर भारी पड़ रही है.

समाज को इस तरह से बहका दिया गया है कि त्योहार पर पूजापाठ का खर्च ही उसे मनोरंजन लगने लगा है. इस में मंदिर सजाने वालों और पूजापाठ का सामान बेचने वालों की मौज हो रही है. गांवदेहात में तो त्योहारों के बहाने पैसा और समय दोनों खर्च होता है.

कोरोना काल में बेरोजगारी के चलते बहुत से लोग शहर छोड़ कर गांव आए थे. उन के पास पैसा नहीं था. खाने के लिए मुफ्त अनाज की राह देख रहे थे. बच्चों को पढ़ाने के लिए फीस और कौपीकिताबें नहीं थीं. बीमारी के इलाज के लिए पैसा नहीं था. इस दौर के खत्म होते ही भंडारे लगने लगे. मेले में लोगों की भीड़ जुटने लगी. मंदिरों में चढ़ावा चढ़ने लगा. कहीं से कोई आर्थिक संकट नहीं दिख रहा था.

पहले हर त्योहार एक क्षेत्र तक सीमित रहता था, पर अब सोशल मीडिया पर धर्म के प्रचार, टैलीविजन और फिल्मों को देख कर पूरे देश में हर त्योहार मनाया जाने लगा है.

मिसाल के तौर पर, पहले करवाचौथ केवल पंजाब तक सीमित था, पर अब यह पूरे उत्तर भारत में फैल गया है. इस की पूजा में नई चीजें जुड़ गई हैं.

यही हाल बिहार की छठ पूजा का हो गया है. यह त्योहार अब बिहार के बाहर भी पूरी तरह से फैल गया है. यही हाल पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा और महाराष्ट्र की गणेश पूजा का हो गया है.

त्योहार का मतलब पूजापाठ

गांवदेहात में जिन लोगों के पास बच्चों को पढ़ाने, परिवार के लोगों का अस्पताल में इलाज कराने के लिए पैसा नहीं होता, वे मेलों में जाते हैं. देवीदेवताओं के नाम पर चढ़ावा चढ़ाते हैं. घर के लिए नया फर्नीचर, नए कपड़े या घरेलू सामान भले ही न खरीदें, पर नवरात्रि में पूजापाठ का सामान खूब खरीदा गया.

नवरात्रि हो या गणेश पूजा या फिर दुर्गा पूजा, हाल के कुछ सालों में इन का प्रचार घरघर हो गया है. अब तकरीबन हर कालोनी के पार्क में इन के पंडाल लगने लगे हैं. पूजा कराने वाले लोग महल्लों, गांवों और कालोनियों में रहने वालों से ही इस का चंदा लेने लगे हैं.

पहले शहरों में 1-2 जगहों पर ऐसे आयोजन होते थे. वहीं लोग एकजुट हो कर त्योहार का मजा लेते थे. अब ऐसे आयोजन कराना फायदे का सौदा होने लगा है. इस की वजह यह है कि अब धर्म के नाम पर मोटा चंदा मिलने लगा है. पहले जहां 11, 21, 51 और 101 रुपए की चंदे की रसीद कटती थी, अब शहरों में यह चंदे की रसीद 101 रुपए से कम की नहीं कटती.

गांवदेहात में भी 51 रुपए से कम की रसीद नहीं कटती है. लोग पर्यावरण, बाढ़ पीडि़तों या ऐसे ही तमाम जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए भले ही चंदा न दें, पर त्योहारों में धर्म के नाम पर चंदा खूब देते हैं.

यही वजह है कि चंदा लेने वाले भी कम पैसों की रसीद नहीं काटते हैं. जनता के मन में यह बैठा दिया गया है कि त्योहार का मतलब पूजापाठ है.

बढ़ गया पंडितों का दखल

पूजापाठ के बहाने त्योहारों में पंडितों का दखल बढ़ गया है. इस दखल का नतीजा यह हो गया है कि हर त्योहार को किसी न किसी बहाने 2 दिन का मनाया जाने लगा है. कोशिश यह होती है कि त्योहार मनाने का जो समय पंडित बताए, उस समय पर ही त्योहार मनाया जाए.

रक्षाबंधन में शुभ मुहूर्त और तिथि की बात को फैला कर उसे 2 दिन का कर दिया गया. इस के साथ ही यह भी कहा गया है कि राखी बांधने का शुभ मुहूर्त यह है, जिस की वजह से रक्षाबंधन 2 दिन का त्योहार हो गया. नतीजतन, शुभ मुहूर्त में राखी बांधने की होड़ लगी, तो हर जगह उसी समय भीड़ बढ़ गई.

इसी तरह से होली का त्योहार भी बसंत पंचमी की पूजा से शुरू होने लगा है. जिस जगह पर होलिका दहन होता है यानी जहां होली जलाई जाती है, वहां पर बसंत पंचमी के दिन एक लकड़ी बसंत पंचमी की पूजा के बाद गाड़ दी जाती है. यहीं पर होली के 1-2 दिन पहले लकड़ी एकत्र कर के होली जलाई जाती है.

आमतौर पर होली शाम को जला दी जाती थी. अब होली जलाने का भी मुहूर्त होता है. शुभ मुहूर्त पर ही होलिका दहन किया जाता है. होली खेलने का मुहूर्त भी पंडित बताने लगे हैं.

इसी तरह से गणेश पूजा में गणेश की स्थापना और दुर्गापूजा में दुर्गा की स्थापना का शुभ मुहूर्त होने लगा है. दीवाली पूजन में भी मुहूर्त के मुताबिक ही पूजा होती है.

दरअसल, मुहूर्त के पीछे एक ही बात है कि त्योहार को पूजापाठ से जोड़ना और पूजा में पंडित के प्रभाव को बढ़ाना. बिना उन की इजाजत के त्योहार को नहीं मनाया जा सकता.

धीरेधीरे जनता के मन में इस बात को पूरी तरह से बैठा दिया गया है कि बिना पूजापाठ के त्योहार नहीं हो सकता, जिस का मतलब यह है कि त्योहार लोगों की खुशी के लिए नहीं, बल्कि पूजापाठ के लिए होता है. धीरेधीरे त्योहार अपने मूल स्वरूप से पीछे हटते जा रहे हैं.

बढ़ गया बाजार

त्योहार के दिनों में गांव से ले कर शहर तक में पूजापाठ का सामान बेचने वाली दुकानों की तादाद बढ़ जाती है. उन दुकानों को ही फायदा हो रहा है, जो घर के मंदिर सजाने और पूजापाठ का सामान बेचने का काम करती हैं. मजेदार बात यह है कि अब बरतन बेचने वाले हों या किराने की दुकानें, उन में भी पूजापाठ का सामान बिकने लगा है.

गांवगांव इस तरह की दुकानें खुल गई हैं. अब डब्बाबंद पूजा का सामान मिलने लगा है. जिस तरह की पूजा का समय होता है, दुकानदार उस तरह का सामान रख लेता है, जिस में खरीदने वाले को कोई दिक्कत न हो. दुकानदार खुद ही बता देता है कि पूजापाठ में क्याक्या सामान लगता है. छोटेछोटे प्लास्टिक के पैकेट में यह सामान मिल जाता है.

दीवाली और गणेश पूजा में मूर्तियां कई तरह की और महंगी मिलती हैं. गणेश पूजा में मूर्तियां हर साल बढ़ी हुई कीमत पर खरीदनी पड़ती हैं.

पूजापाठ करने वाली जगह को सजाने के लिए भी सामान मिलता है.

इस में रंगोली से ले कर वाल पेपर तक सब होता है. बिजली की सजावट वाला सामान तो होता ही है.

और्गेनिक मूर्तियां अलग से मिलती हैं. इन को इको फ्रैंडली मूर्तियां भी कहते हैं. इन की कीमत अमूमन 500 रुपए से शुरू होती है. मूर्ति की सजावट पर पैसा अलग से लगता है.

5 दिन का आयोजन

दीवाली को 5 दिन का त्योहार माना जाता है. इन पांचों दिन को पूजा और मुहूर्त से खासतौर पर जोड़ दिया गया है. पहला दिन धनतेरस के रूप में मनाया जाता है.

दीवाली की शुरुआत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन से होती है. इस दिन धनतेरस का पर्व मनाया जाता है. धनतेरस पर धन के देवता कुबेर, यम और औषधि के देव धनवंतरी के पूजन का विधान है.

दीवाली का दूसरा दिन नरक चौदस के नाम से मनाया जाता है. नरक चौदस को छोटी दीपावली के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन कृष्ण ने नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था. उसी के नाम से इस दिन को नरक चौदस कहा जाता है.

दीवाली की हर कहानी में किसी न किसी भगवान को इसलिए जोड़ा जाता है, ताकि इस से धार्मिक उत्सव बनाया जा सके, धर्म से जोड़ कर पूजापाठ को बढ़ावा दिया जा सके.

दीवाली के 5 दिन के त्योहार का सब से खास पर्व कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है. दीवाली पर गणेशलक्ष्मी के पूजन का विधान है. इस के साथ ही इस दिन को राम द्वारा लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने के त्योहार के रूप में भी मनाया जाता है.

दीवाली का चौथा दिन गोवर्धन पूजा या अन्नकूट पूजा के नाम से मनाया जाता है. दीवाली के अगले दिन प्रतिपदा पर गोवर्धन पूजा या अन्नकूट का त्योहार मनाने का विधान है. यह पर्व भगवान कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठा कर मथुरावसियों की रक्षा करने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है.

समाज को यह बताने की कोशिश की जाती है कि भगवान ही हमारी रक्षा करते हैं. इस के लिए पूजापाठ जरूरी है और पूजापाठ के लिए शुभ मुहूर्त होता है.

शुभ मुहूर्त बताने का काम पंडित करते हैं. बिना शुभ मुहूर्त के की गई पूजा फल नहीं देती है, इसलिए त्योहार मनाने के लिए जरूरी है कि शुभ मुहूर्त और पूजापाठ का पूरा ध्यान रखा जाए.

दीवाली का 5वां दिन भैया दूज या यम द्वितीया पर्व के रूप में मनाया जाता है. यह कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है. यह त्योहार भी रक्षाबंधन की ही तरह से भाईबहन को समर्पित होता है. इस में नदी स्नान का विशेष महत्त्व बताया जाता है. इस तरह से देखें, तो दीवाली का त्योहार 5 दिन का धार्मिक आयोजन बन गया है.

सोशल मीडिया का इस्तेमाल

त्योहारों में पूजापाठ और शुभ मुहूर्त का प्रचार करने में सोशल मीडिया का रोल सब से खास हो गया है. सोशल मीडिया पर ऐसे पंडितों की भरमार हो गई है, जो धर्म का प्रचार करने का कोई मौका जाने नहीं देना चाहते. ऐसे लोग त्योहारों पर धर्म का असर बढ़ाने में लगे हैं.

सोशल मीडिया पर किसी भी त्योहार के कुछ समय पहले से ही ऐसे मैसेज वायरल होने लगते हैं, जो उस में धर्म की अहमियत बताते हैं. कई बार ये लोग ऐसे तर्क देते हैं कि त्योहार एक ही जगह 2 दिन का हो जाता है.

सोशल मीडिया पर ऐसे तर्क और ज्ञान देने वालों की भीड़ जुट गई है. इन में से ज्यादातर नौजवान हैं. वे अपने नाम के आगे पंडित लगा कर ऐसे संदेश देते हैं.

नौजवान होने के चलते इन को सोशल मीडिया पर प्रचारप्रसार की सारी जानकारी होती है. इन के संदेश इतने असरदार तरीके से लिखे होते हैं कि लोग इन पर आसानी से यकीन कर लेते हैं.

हर हाथ में मोबाइल फोन होने के चलते शहर हो या सुदूर गांव, हर जगह इन की बात आसानी से पहुंच जाती है, जिस से लोग त्योहार पर पूजापाठ ज्यादा करने लगे हैं.

त्योहार की अहमियत और इस में धर्म का दबदबा होने से तमाम तरह के खर्च बढ़ गए हैं. पूजापाठ के नाम पर हर चीज जरूरी हो गई है. पूजापाठ सही तरीके से न होने पर आप का बुरा हो सकता है, इस डर से आदमी सबकुछ छोड़ कर पूजापाठ पर अपना तनमनधन लगा देता है.

इस से हमारी जिंदगी में खर्च बढ़ गए हैं और उल्लास घट गया है. हंसीखुशी से मनाए जाने वाले त्योहार के मुहूर्त के बारे में पंडित से पूछना पड़ता है. जनता को यह समझना चाहिए कि यह सब बाजार के चलते हो रहा है, जिस का सारा बोझ उस की जेब पर पड़ रहा है.

जो पैसा घरपरिवार के भले के लिए खर्च होना चाहिए, वह पूजापाठ की दुकानों में खर्च हो रहा है. यह जनता की जेब से निकल कर धर्म का धंधा करने वालों की जेब में जा रहा है.

जनता के मेहनत की कमाई निठल्ले लोगों की जेब भर रही है, इसलिए त्योहार मौजमस्ती कम बोझ ज्यादा बनते जा रहे हैं. अगर सही माने में त्योहार मनाना है, तो फुजूलखर्ची छोड़नी होगी, तभी दीवाली और दूसरे बड़े त्योहारों का असली संदेश लोगों में जा सकेगा.

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