युग में और हर समाज में ताकतवर, अमीर, दबदबे वाले और चतुर लोगों ने कमजोर और गरीब लोगों का अनेक तरीकों से शोषण किया है और यह शोषण नईनई चालों से शायद भविष्य में भी होता रहेगा. आज टैक्नोलैब बना रहे हैं. भारतीय कंपनियां आईटी में काबिल लोगों को हायर कर के गुलामों का सा काम करा रही हैं. औनलाइन परचेज पर डिलीवरी बौय स्लेव की तरह काम कर रहे हैं.

इस की वजह यह है कि स्वभाव से ही कुशलता हासिल किया हुआ इनसान समाज में ऊपर की तरफ बढ़ता हुआ सुविधाभोगी हालात को पा लेता है और उसी कुदरती नियम के मुताबिक नीचे की ओर लुढ़कता हुआ शोषित के हालात में आ पहुंचता है.

चतुर और बलवान आदमियों द्वारा दूसरे लोगों के शरीर पर पूरी तरह अधिकार कर के उन से पशुओं की तरह काम लेना और उन की खरीदबेच करना ऐसा ही उदाहरण है, जिसे दास प्रथा का नाम दिया गया था और अब यह नए रूप में आ रहा है.

मानव सभ्यता पहले ही अपने ऐतिहासिक विकास क्रम में एक ऐसे मोड़ पर भी पहुंची थी, जब दास प्रथा को एक संस्था के रूप में पूरी दुनिया में स्वीकार किया गया था.

यह वह अवस्था थी, जब इधरउधर भटकते मानव समुदायों ने पशुपालन और आखेट के बजाय खेतीबारी को ज्यादा फायदेमंद पाया. काबिल और ताकतवर लोगों के पास खेती के विशाल भूखंड थे, जिन में भूस्वामी खुद से काम नहीं चला सकते थे. पशुओं से लिया गया काम अपनी मेहनत थी. ऐसे ही समय मिस्र, रोम, यूनान, सीरिया और भारत सभी समाजों में दास वर्ग का जन्म हुआ.

भारत में जाति प्रथा को इसी के लिए बनाया गया और आज भी इस का फायदा उठाया जा रहा है.

भारतीय समाज में हिंदू धर्म के नाम पर वर्ग विभाजन का विकास किया गया और शूद्र व अछूत वर्ग का जन्म हुआ. शूद्र चाहे दास हो या स्वतंत्र, कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि उन को दास का काम ही करना होता था.

मनु, जिस की मूर्तियों को अब फिर लगाया जा रहा है, ने व्यवस्था दी थी कि दास बनाने के लिए शूद्रों को खरीदना चाहिए (मनु स्मृति 8-4-13).

दासों की वैराइटी

इतिहासकार डाक्टर जयशंकर मिश्र के अनुसार, समय और हालात के मुताबिक हिंदू समाज में अनेक  तरह के दास हो जाया करते थे. संस्कृत भाषा की किताब ‘अर्थशास्त्र’ में कौटिल्य ने ऐसे अनेक तरह के दासों का जिक्र किया है, जो सामाजिक दबाव और मजबूरियों के चलते दास बन जाते थे.

द्य आत्मविक्रमी : जो हालात के मुताबिक अपने को बेच कर दासता स्वीकार करते थे.

द्य उदर दास : जो अपना पेट पालने के लिए अपने को बेच देते थे.

द्य प्रक्षेपानुरूप दास : जो अपनेआप को बंधक रख लेते थे.

द्य दंडप्रणीत दास : जो राज्य द्वारा अर्थदंड से दंडित होने पर और इस आर्थिक दंड को न चुका पाने के चलते दास होते थे.

द्य ध्वजाहत दास : जो युद्ध में बंदी होने के चलते दासता स्वीकार करते थे.

द्य दया भाग में प्राप्त दास : जो दास दया भाग के कारण दूसरे के दास हो जाते थे.

: नौकरों से पैदा हुआ दास.

मनु ने 7 तरह के दासों का जिक्र किया है- द्य ध्वजाहत : लड़ाई में जीता गया, द्य भक्त दास : खानेपाने की चाहत में बना हुआ दास, द्य गृहज : नौकरानी का बेटा, द्य क्रीत : मूल्य दे कर खरीदा हुआ, द्य दत्रित : किसी के देने से मिला दास, द्य पैतृक : पिता

की परंपरा से चला आता हुआ दास

द्य दंड दास: दंड या कर्ज वगैरह न चुका पाने के चलते.

एक और दूसरे संस्कृत विद्वान नारद ने ऐसे 8 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है- द्य प्राप्त किया हुआ दास : उपहार में मिला या दूसरे किसी तरह हासिल, द्य स्वामी द्वारा प्रदत्त, द्य कर्ज न चुका पाने के चलते बना दास, द्य जुए में दांव पर लगा कर हारा गया : पासे या दांव पर अपने स्वामी द्वारा लगा कर हारा गया, द्य स्वयं दासत्व ग्रहण करने वाला,

द्य अपने को दास बनाने वाला (एक तय समय के लिए), द्य दासी के प्रेमपाश

में बंध कर अपने को दास बनाने

वाला द्य आत्मविक्रमी : अपने को बेचने वाला दास.

दास बनने के अनेक प्रकार थे. आज इन की छाया नौकरीपेशा, छोटामोटा काम करने वालों पर आसानी से देखी जा सकती है. आज के नेता बारबार महान हिंदू संस्कृति का गुणगान करते हैं, तो वे इसी सोच को ही दोहराते हैं.

इस संबंध में याज्ञवल्क्य और नारद ऋषियों ने यह कहा है कि जन्म पर और उस के अनुसार ही इनसान अपने स्वामी का दास बन जाता था.

उदाहरण के लिए, ब्राह्मण के क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र दास हो जाते थे, क्षत्रिय के वैश्य और शूद्र व वैश्य के शूद्र बन जाते थे. किंतु ब्राह्मण किसी का दास नहीं होता था. आज भी नहीं है.

दास का आधार भी किस पिता के बेटे हो, इस पर करता है. ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण का भी दास नहीं हो सकता. जो ब्राह्मण खाने और कपड़े का इंतजाम नहीं कर पाते थे, वह अपने को किसी के हाथ बेच कर नौकरी में लग जाते थे, जिसे बाद में बेचारा कहा जाने लगा. अकाल में अपना पेट न पाल सकने के चलते और अपनी जिंदगी बचाने के लिए अपने को एकदूसरे के हाथ बेच देते थे.

संस्कृत ग्रंथ ‘कथासरित्सागर’ में दासदासियों के अनेक वर्णन हैं. एक व्यापारी ने पाटलिपुत्र से अनेक दासियां खरीदी थीं. कभीकभी दासियों से ब्राह्मण बच्चे भी कर लेते थे.

इतिहासकार जैकोबी ने ‘शूद्राज इन एनशैंट इंडिया’ में कहा है कि ‘मालिक दास के छोटे से अपराध पर भी सख्त सजा देता था, जैसे उस के बाल नोच लेना, जंजीरों में जकड़ देना, पीटना, सांकल से बांध देना, बंदीगृह में डाल देना, जंजीरों से खींच कर हाथपैर तोड़ देना, हाथ, पैर, कान, नाक, आंखें और दांत निकाल लेना, खाल निकलवा लेना, सूली पर चढ़ा देना, घाव पर अम्ल लगा देना, हाथी के पैर से दबवा देना, जलते ईंधन में फेंक देना या कौओं और गिद्धों से शरीर नुचवाना. किसी भी तरह से

उस के प्राण लेने का अधिकार मालिक

को था’.

दासों के काम

वैदिक युग से ही दासों का काम था ऊंचों की सेवा करना. वे कई तरह की सेवा कामों से अपने स्वामी को खुश रखने की कोशिश करते थे. वैसे, शूद्र से भी दास का काम कराया जाता था.

मनु का कथन है कि शूद्र को मेहनताना दे कर या न दे कर दास का काम कराना चाहिए, क्योंकि ऊपर वाले ने सेवा के लिए ही शूद्रों को बनाया है. आज भी यह बात चल रही है.

सरकार जिन 80 करोड़ लोगों को अनाज देने की बात करती है, वे क्या हैं? वे सरकार के गुलाम ही तो हैं. वे अपनी मरजी से वोट भी नहीं डाल सकते. आज का गुलाम हर परिवार में जरूरत के हिसाब से काम पर लगता है. वे खाना बनाना, पानी भरना, बरतन धोना, कूड़ा बीनना, रखवाली करना जैसे कई काम उसी तरह से करते हैं, जैसा हमेशा से समाज में करने का जिक्र किया गया है.

नारद के अनुसार, दासों को गृह के द्वार, मार्ग और पहाड़ी आदि को

साफ करने में, शरीर की सफाई करने में, मूत्र आदि के फेंकने जैसे काम में

लगाना चाहिए.

स्वामी अगर चाहे तो उसे अपने शरीर की सेवा में भी रख सकता है. सब्जी काटना, फर्श साफ करना,  झाड़ू लगाना, पानी ले आना, गायबैल और बकरी चराना, घास काटना, अनाज निकालना वगैरह अनेक तरह की पारिवारिक सेवाएं दास किया करते थे.

दासियों में भी कुंभ दासी, वन्न दासी इत्यादि का वर्गीकरण था. ज्यादातर इन से घर का काम कराया जाता था. किसानों की दासियां मालिक के लिए खेत में भोजन ले जाती थीं. पालिपिटक, गृहस्वामिनी को दासियां स्नान कराती थीं, उबटन लगाती थीं और उन के कपड़े धोती थीं. स्वामी की मालिश (तेल से) करना भी दासों का काम था.

कौटिल्य ने व्यवस्था दी थी कि मुरदा ढुलवाना, मलमूत्र साफ कराना और नग्न स्नान के समय दासी से मर्दन (मालिश) कराना अनुचित है.

दासता से छुटकारा

ऐसा नहीं था कि इन दासों को दासता से कभी मुक्ति ही न मिल पाती हो. युद्ध में बंदी बनाए दासों की अकसर तब छुट्टी मिल जाती थी, जब उन के पक्ष की जीत हो जाती थी.

कभीकभी दास वैराग्य प्राप्त कर संन्यासी बन जाया करते थे. इस हालत में उन्हें मुक्त कर दिया जाता था, पर कई बार स्वामी एक निश्चित मुक्ति शुल्क वसूल कर के ही मुक्ति दिया करते थे.

दीघनिकाय में कहा गया है कि विरक्त, संन्यासी, दास, आदरसम्मान, आसन, चीवर, पिंडपात्र आदि का अधिकारी है. कई बार स्वामी संन्यासी बनते समय दासों को पुण्यकार्य के तौर पर मुक्त कर देते थे.

कौटिल्य कहते हैं, ‘ऋणग्रस्त दास अपना कर्जा चुका कर स्वतंत्र हो सकता है. यदि स्वामी मुक्ति शुल्क ले कर भी दास को मुक्त न करे, तो उस पर 12 पण जुर्माना किया जाए. यदि दासी को अपने स्वामी से संतान प्राप्त हो जाए, तो दासी व संतान दोनों को मुक्त कर दिया जाए.’

एक जमाने में किसी की अपनी निजी जायदाद नहीं थी, बल्कि एक पूरा कबीला इलाके का स्वामी होता था, जमींदारी प्रथा की तरह. धीरेधीरे दासों का खरीदनाबेचना, गिरवी रखना व उन्हें जुए में हारनाजीतना शुरू हो गया.

ऐतिहासिक बातों से पता चलता है कि भारत में मौर्य युग दास प्रथा का स्वर्णकाल था. इस युग का सारा साहित्य, स्मृतियां, जातक कथाएं, पालि त्रिपिटक, जैन, बौद्ध गं्रथ, कौटिल्य अर्थशास्त्र वगैरह सभी दास प्रथा पर अपनीअपनी व्यवस्था देते हैं.

आज के युग में भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के बहुत से देशों में समाज मालिकों और गुलामों में बंटा हुआ है. ऊंचे घरों में पैदा हुए ज्यादा अच्छी पढ़ाई करते हैं और चतुराई से सारे कारखाने और अच्छी नौकरियों पर कब्जा कर लेते हैं.

आज गुलामों को जंजीरों में नहीं रखा जाता, पर उन पर पैसे की कमी की तलवार जंजीरों जैसी है. प्राचीन काल में जैसी दास प्रथा थी, उस का थोड़ा सा ही फर्क है आज.

देह धंधे में तो औरतों को बाकायदा आज भी बंद कर के रखा जाता है और वे ग्राहकों से खुल कर बात भी नहीं कर पातीं. एक क्या किसी के हाथ बिकी नहीं, हमेशा की गुलाम हो गई.

नेपाल की दलित लड़कियां भारत के बड़े शहरों में खुलेआम खरीदीबेची जा रही हैं. जब से ऊंची जातियों में औरतों की कमी हुई है, लड़कियों को पैसे दे कर खरीद कर पत्नी की तरह रखा जाता है. पर वे एक गुलाम की तरह ही हैं. सरकार को इस तरह की गुलामी की कोई चिंता नहीं है.

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