दान के प्रचार का पाखंड

इतिश्हारी लत ने दीवाना बना दिया,

तसवीर खिंचाने का बहाना बना दिया.

खैरात से भी ज्यादा के ढोल बज गए,

लोगों ने गरीबी को फसाना बना दिया.

गरीबों की मदद के नाम पर बढ़ते प्रचार के बारे में ये लाइनें बड़ी मौजूं लगती हैं. दरअसल, गरीबी की समस्या हमारे देश में आज भी बहुत भयंकर है.

हालांकि आजादी के बाद से ‘गरीबी हटाओ’ का नारा व गरीबों के लिए चली सरकारी स्कीमों में पानी की तरह पैसा बहाया गया है, लेकिन हिस्साबांट के चलते गरीबी बरकरार है. साल 2016 में 37 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे. गांव हों या शहर, गरीब लोग हर जगह बहुत बड़ी तादाद में मिल जाते हैं.

ऐसे में बहुत से लोग पुण्य लूटने की गरज से गरीबों की मदद करते हैं. गरीबों को मुफ्त सामान का लालच दे कर बुलाते व रिझाते हैं और उन्हें सामान देते हुए अपना फोटो खिंचाते हैं. इतना ही नहीं, उन फोटो का इस्तेमाल अपनी दरियादिली के प्रचार में करते हैं.

दरअसल, जिस दान में प्रचार खूब किया जाए वह पाखंड है, जो दानदक्षिणा का माहौल बनाने के लिए किया जाता है. इन में पंडितों के फोटो तो लिए नहीं जाते, क्योंकि पंडित अब दान नहीं लेता. वह तो उलटे दान देने वाले को पुण्य कमाने का मौका व पुण्य लाभ देता है.

ऐसे में दान देने वाला लाभार्थी हो जाता है. वक्त के साथ दान देने के तौरतरीके भी बदल गए हैं. ज्यादा से ज्यादा दान इकट्ठा करने की गरज अब तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी व काशी विश्वनाथ वगैरह बहुत से मंदिरों द्वारा भक्तों के लिए घर बैठे औनलाइन व ईवालेट से दान देने की सहूलियतें मुहैया कराई गई हैं.

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तिरुपति बालाजी जैसे कुछ मंदिरों ने तो अपने डीमैट खाते खोल लिए हैं, ताकि नकदी, सोना व हीरेजवाहरात के अलावा शेयर्स भी लिए जा सकें.

यह कैसी मदद

गरीबों के हक हड़प कर भ्रष्ट नेता, अफसर और मुलाजिम अमीर हो रहे हैं, इसलिए गरीब लोग उन के लिए दूध देने वाली गाय साबित हो रहे हैं.

ऐसे लोग गरीबों को आसान व कारगर औजार बना कर अपना मकसद पूरा करने में लगे रहते हैं. गरीबी से पार पाने के लिए टिकाऊ व मुकम्मल रास्ता दिखाने के बजाय उन्हें मुफ्तखोरी के लिए उकसाते रहते हैं, ताकि वे काम व कोशिश न करें और हाथ में कटोरा थामे पीढ़ी दर पीढ़ी गरीब ही बने रहें.

यही वजह है कि गरीबों की मदद के नाम पर उन की वक्ती जरूरतों की चीजें भोजन, कपड़े व बरतन बांटने की रस्मअदायगी की जाती है.

इस काम में सरकारें भी पीछे नहीं हैं, इसलिए मुफ्त का माल झपटने के चक्कर में अकसर जहांतहां हादसे होते रहते हैं. छीनाझपटी करते वक्त गरीब लोग एकदूसरे को कुचल देते हैं.

पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर शहर में सरकारी कंबल बांटते समय हुई ऐसी ही एक घटना में बहुत से लोग जख्मी हो गए थे.

समाजसेवा का डंका पीटने वाले चालाक लोग गरीबों की मदद के नाम पर थोड़ा पैसा खर्च कर अपना नाम चमकाने व मशहूर होने की जुगत में लगे रहते हैं. वे अकसर कुछ चीजें गरीबों को बांटते हैं और ज्यादा का दिखावा करते हैं, इसलिए हकीकत में काम कम व प्रचार ज्यादा होता है. अखबारों से सोशल मीडिया तक कंबल, खाना व कपड़े वगैरह बांटने वालों के फोटो सुर्खियों में छाए रहते हैं.

कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना

ज्यादातर मामलों में गरीबों को दान इनसानियत दिखाने या राहत पहुंचाने से ज्यादा वाहवाही लूटने व प्रचार पाने की गरज से किए जाते हैं. गरीबों की मदद करने को भी बहुत से लोगों ने अपना धंधा बना लिया है. बहुत सी कागजी संस्थाएं गलीमहल्लों में बढ़ रही हैं.

कई लोग खासकर छुटभैए नेता गरीबों की मदद व समाजसेवा के नाम पर बेहिसाब चंदा इकट्ठा करते हैं और अपना मतलब साधने में लगे रहते हैं. इस में फायदा उन का व नुकसान आम जनता का होता है. जो जना पंडितों के नाम पर गरीबों को थोड़ा सा दान करेगा, वह पंडितों के कहने पर पंडों और मंदिरों को तो मोटा दान करेगा ही.

इनसानियत के नाते मुसीबतजदा, जरूरतमंद अपाहिजों वगैरह की मदद करना सही व सब का फर्ज है. बेसहारा को इमदाद देना अच्छा है, लेकिन किसी मजबूर की असल मदद करना बेहतर है. जिस में दायां हाथ दे और बाएं हाथ को खबर न हो यानी कहीं कोई जिक्र न हो. बात जबान पर आने से लेने वाले को ठेस लगती है.

उस पर अहसान जताने व अपनी दरियादिली के ढोल बजाने से तो गरीब जीतेजी मर जाता है, लेकिन अमीरों को इस से कुछ फर्क नहीं पड़ता.

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वे गरीबों को दिए दान के प्रचार से नाम कमा कर एक तरह से अपने दान की कीमत वसूलते हैं और मुफ्त सामान पाने के लालच में गरीब यह खेल समझ ही नहीं पाते.

तिल का ताड़

गरीबों को दान देने वाले भूल जाते हैं कि दान को बढ़ाचढ़ा कर नहीं बताना चाहिए. दिए गए दान का बारबार बखान करने, अपनी शान व शेखी बघारने, ढिंढोरा पीटने से देने वाले में गुरूर बढ़ता है और लेने वाले का जमीर खत्म हो जाता है.

इस के बावजूद गरीबों की मदद के नाम पर तरहतरह से प्रचार के पाखंड रचे जाते हैं, ताकि समाज में नाम ऊंचा हो व दानवीरता के तमगे मिलें. आजकल यह दिखावा जंगल में आग की तरह फैल रहा है.

गरीबों को मुफ्त चीजें बांटने वाले लोग बड़ी ही बेशर्मी से हंसतेमुसकराते हुए गरदन ऊंची कर के इस तरह से अहसान जताते नजर आते हैं, जैसे कि उन्होंने गरीबों को जागीर सौंप दी हो. फिर गरीबों को सामान देते हुए फोटो खिंचाना, वीडियो बनाना व तारीफ हासिल करने के लिए ह्वाट्सएप और फेसबुक वगैरह पर पोस्ट करना तो आम बात है. इस के अलावा स्मारिकाओं में चिकने कागज पर दानदाताओं के रंगीन फोटो छापे जाते हैं.

इमदाद लेने वाले मजबूर की गरदन तो पहले ही गुरबत, शर्म व अहसान के बोझ से झुकी रहती है, ऊपर से मदद लेते वक्त फोटो खिंचा कर उस की नुमाइश लगाने में उस गरीब की आंखें जमीन में गड़ जाती हैं.

देखा जाए, तो गरीबों को दान दे कर उस का प्रचार करना उन के लिए किसी दिमागी सजा से कम नहीं है. गरीबों को दान कर के अपना प्रचार करने की भूख उन करोड़ों की तरह होती है, जिन की मार गरीबों के बदन पर तो नहीं दिखती, लेकिन उन के भीतर उतर कर उन के यकीन को हिला देती है.

उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में गढ़ रोड पर रंगोली मंडप के पास एक मलिन बस्ती है. इस में आएदिन कई संगठनों के लोग गरीबों को फल, दूध, बिसकुट वगैरह खानेपीने व जूते, कपड़े वगैरह इस्तेमाल की चीजें बांटने के लिए आते रहते हैं. सामान देते वक्त ज्यादा जोर फोटो खिंचवाने पर लगा रहता है, इसलिए अगले दिन अखबारों में खबर के साथ फोटो छपते हैं.

एक संस्था के कर्ताधर्ता का कहना था, ‘‘जिस तरह से बुराइयों को देखसुन कर लोगों पर उन का खराब असर पड़ता है. बहुत से लोग उन्हें अपना लेते हैं, ठीक उसी तरह से लोगों पर नेकियों का अच्छा असर भी पड़ता है.

‘‘अच्छे काम होते देख कर भी लोग उन से सीख व सबक लेते हैं, इसलिए गरीबों की मदद करने वाले कामों का प्रचार करने से उन का सिलसिला आगे बढ़ता है.’’

गरीबों को दान दे कर उस के प्रचार का पाखंड रचने वाले लोग भले ही अपने हक में कितनी भी दलीलें दें, लेकिन सच यही है कि दान के प्रचार की लत हमारे समाज में नई नहीं है.

दान के प्र?????चार से ही तो दक्षिणा के लिए माहौल बनता है. नए चेले व चेलियां जाल में फंसते हैं. पुण्य का फायदा हासिल करने की गरज से सदियों से ऐसा होता रहा है. बरसों पुराने मंदिरों व धर्मशालाओं वगैरह में आज भी दीवारों व चबूतरों पर लगे पत्थरों पर दान देने वालों के नाम खुदे हुए देखे जा सकते हैं.

प्रचार की भूख में बहुत से लोग तो अपनी अक्ल को उठा कर ताक पर रख देते हैं. दुनिया से जा चुके अपने मांबाप की याद में फर्श पर लगवाए पत्थरों पर ही उन के नाम खुदवा देते हैं.

फर्श पर लगे पत्थरों के साथसाथ उन पर खुदे मांबाप के नामों पर भी लोग पैर रख कर आतेजाते रहते हैं व दान के चक्कर में फंस कर मांबाप का नाम ऊंचा होने की जगह मिट्टी में मिल जाता है.

सर्दियों के दौरान बड़े शहरों में सड़क किनारे पड़े गरीबों को रजाईकंबल बांटने वालों की बाढ़ सी आ जाती है. कई बार देखा है कि बहुत से गरीबों को दान में दिया गया सामान अगले ही दिन उन गरीबों के पास नहीं होता और वे फिर से अपनी उसी खराब हालत में दिखाई देते हैं, क्योंकि ज्यादातर गरीब बदहाल जिंदगी के आदी हैं, इसलिए कुछ भी मिलने के थोड़ी देर बाद ही वे दान में मिली चीजें औनेपौने दामों पर बाजार में बेच देते हैं. गरीबों को दी गई मदद भी उन के हालात बदलने में नाकाम साबित होती है.

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असली मदद

मुफ्त का खाना सिर्फ 5-6 घंटे को पेट भरता है. अगले वक्त फिर भूख लगती है. दान का कपड़ा भी चंद बरस चलता है, लेकिन अपनी मेहनत व दिमाग से आगे बढ़ने की राह ताउम्र काम आती है, इसलिए गरीबों को दान की बैसाखी देने से बेहतर है उन्हें खुद अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करना. अपनी कोशिश से ऊपर उठ कर जिंदगी संवर कर निखर जाती है. भीख का कटोरा व दूसरों की और ताकना छूट जाता है.

लिहाजा, गरीबों पर तरस खा कर, उन्हें दान दे कर दूसरों के रहमोकरम पर जीने का आदी बनाने से अच्छा है. उन की सच्ची व सही मदद करना, ताकि उन में खुद पर यकीन पैदा हो और वे खुद गरीबी से नजात पाने की कोशिश करें. यह मुश्किल नहीं है.

करोड़ों गरीबों व भिखारियों को कम ब्याज पर 10 अरब डौलर के छोटे कर्ज दिला कर रोजगार में लगाने वाले बंगलादेश के मोहम्मद यूनुस को साल 2006 में नोबल पुरस्कार मिला था. उसी का नतीजा है कि आज बंगलादेश भारत व पाकिस्तान से ज्यादा तेजी से आगे बढ़ रहा है.

माइक्रो फाइनैंसिंग के जरीए गरीबों की मदद करने व कामयाब मुहिम चला कर गरीबों को नई जिंदगी दे कर मिसाल बने मोहम्मद यूनुस का नाम आज दुनियाभर में जाना जाता है.

भारत में भी ऐसे काम होना लाजिमी है. साथ ही, गरीबों की तालीम, हुनर व काबिलीयत बढ़ा कर उन्हें ज्यादा पैसा कमाने के गुर सिखा कर भी निठल्लेपन व नशे जैसी बुराइयों से नजात दिलाना भी उन की मदद करने से कम नहीं है.

गरीबों को माली इंतजाम के उपाय बता कर उन की फुजूलखर्ची घटाई जा सकती है. वे ज्यादा कमा कर बचत करना सीख सकते हैं. जागरूक हो कर धार्मिक अंधविश्वासों से छुटकारा पा सकते हैं. अपनी जेबें हलकी होने से बचा सकते हैं, इसलिए मुफ्त की चीजें देने से अच्छा है कि उन्हें साफसुथरा रह कर बेहतर व सुखी जिंदगी बिताने के तौरतरीके समझाए जाएं.

सही राह दिखाना ही गरीबों की सच्ची मदद करना है. इस से हमारे समाज में सदियों से चली आ रही गरीबी के कलंक से छुटकारा मिल सकता है.

गहरी पैठ

कुछ माह पहले 2 बैंकों के बंद हो जाने का सदमा अभी कम हुआ नहीं था कि अब एक बड़ा बैंक यस बैंक लगभग दिवालिया हो गया है. इस में जमा खातेदारों का हजारों करोड़ अब खतरे में है और साथ ही यह डर है कि यह बैंक दूसरे कई बैंकों को न ले डूबे.

जिन का पैसा डूबेगा उस में अगर लखपति व करोड़पति हैं तो गरीब भी हैं, जिन्होंने कुछ हजार रुपए जमा कर रखे थे. अगर अमीर किसी तरह बचे पैसे से काम चला भी लें तो हजारों गरीबों की पूरी बचत स्वाहा हो चुकी होगी.

इन गरीबों को अब फिर साहूकारों के पास जाना होगा जो अगर कर्ज देते हैं तो मोटा ब्याज लेते हैं और अगर बचत रखते हैं तो ब्याज देना तो दूर मूल भी ले कर भाग जाते हैं. देशभर में चिटफंड कंपनियों के कारनामे जगजाहिर हैं. इसी तरह की और कंपनियां भी देशभर में कुकुरमुत्तों की तरह खुली हुई हैं, जो पैसा जमा कर लूट रही हैं. बैंकों से जो थोड़ीबहुत आस थी वह भी एकएक कर के बैंकों के ठप होने से खत्म होती जा रही है.

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यह देश के गरीब और आम आदमी के साथ सब से बड़ा जुल्म है. बैंकों ने पहले तो हर गांवकसबे में पांव पसार कर लोगों को यह भरोसा दिला दिया कि साहूकार से वे अच्छे हैं. अच्छेभले साहूकर खत्म हो गए और सिर्फ शातिर ठग बचे हैं जो मोटे ब्याज के लालच में गांवगांव से पैसा जमा करते हैं और फिर गायब हो जाते हैं. बीसियों चिटफंड व डिपोजिट कंपनियां लोगों का पैसा खा चुकी हैं. अब तो जेवर भी खा कर बैठने लगी हैं.

यस बैंक के फेल हो जाने का मतलब है कि अब बैंकों में पैसा जमा करने में खतरा है. यदि यही चला तो लोग तो कंगाल हो ही जाएंगे, देश भी कंगाल हो जाएगा, क्योंकि बैंक लोगों का पैसा जमा नहीं करेंगे तो कर्ज कैसे देंगे, कैसे नए कारखाने चलेंगे, कैसे व्यापार होगा, कैसे पैसा इधर से उधर जाएगा.

यह कहर किसान, मजदूर, व्यापारी, ठेकेदार सब को लील सकता है. यस बैंक अकेला ही गलत कर रहा होता तो बात दूसरी थी, हर दूसरे सभी बैंकों में कमोबेश यही सा हाल है चाहे वे सरकारी हों या प्राइवेट. यस बैंक में उस को शुरू करने वाले राणा कपूर, उस की पत्नी, उस की बेटियों ने मनमाना खर्च करने की छूट पाने के लिए ऐसे बहुतों को कर्ज दिया जिन का धंधा लड़खड़ा रहा था जिन में मुकेश अंबानी के छोटे भाई अनिल अंबानी शामिल हैं. जिन की कंपनी को राफेल लड़ाकू हवाईजहाज बनाने का ठेका मिला है. जीटीवी जिस पर प्रधानमंत्री की तरफदारी ले कर रातदिन खतरें जारी होती हैं, ने भी यस बैंक से कर्ज लिया और लौटाया नहीं.

यस बैंक ने देश को जो नुकसान पहुंचाया है उस के लिए सरकार जिम्मेदार है जिस ने सैकड़ों नियमकानून बैंकों के लिए बना रखे हैं.

देश के सभी शहरों, कसबों और यहां तक कि गांवों में भी आम लोगों की जमीन, सड़क, पटरी, बाग पर दुकानें बन जाना आम और आसान है. इस में कुछ ज्यादा नहीं करना पड़ता. पहले दिन एक जना कहीं भी चादर बिछा कर या बक्से पर रख कर सामान बेचना शुरू कर देता है और 4-5 दिनों में ही यह उस का हक बन जाता है. इस आम आदमी की घुसपैठ देश की जनता पर बंगलादेश के लोगों की घुसपैठ से ज्यादा खतरनाक है, पर रातदिन पनप रही है. इस में गलती और अपराधी असल में आम आदमी ही हैं, सरकार जिस में पुलिस, म्यूनिसिपल कारपोरेशनें, राज्य सरकारें कम हैं.

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दिक्कत है कि लोग इतने आलसी और बेवकूफ हैं कि वे सड़क पर राह चलती दुकान से कुछ भी खरीदने को तैयार हो जाते हैं जहां न दुकानदार का नाम है, न पता. वे क्या खरीद रहे हैं, यह भी नहीं मालूम. खाने की चीजों की दुकान है तो वहां नकली जहर हो चुका सामान तो नहीं बिक रहा, इस की परेशानी नहीं है. सामान चोरी का हो तो कोई डर नहीं. क्वालिटी बेहद खराब हो तो फर्क नहीं पड़ता. खरीदारों की यह आदत इन दुकानों के लिए जिम्मेदार है.

कोई भी दुकान तभी लगाएगा और चलाएगा जब वहां बिक्री होगी. खरीदार हैं तो दुकान हैं. पहले सामान खरीद कर आम जनता दुकानदार को पाले और फिर सरकार को कोसे कि देखो कहीं भी दुकान लगाने देती है, कहां से सही बात हो सकती है.

इन दुकानों के ग्राहक असल में अपने को लुटवाते हैं और दुकानदारों का कल भी खराब करते हैं. सड़क पर बनी नाजायज दुकान से पुलिस वाला, म्यूनिसिपल कारपोरेशन वाला, कोई माफिया हफ्तावसूली करने लगता है. जिस सड़क पर बैठे हों, वहां का अफसर हटाता तो नहीं पर वसूली में हिचकिचाता नहीं. अगर ग्राहक न हों तो कोई 4 दिन दुकान न चलाए. इन दुकानों को पनपने की वजह सिर्फ और सिर्फ ग्राहक हैं.

यह कहना गलत है कि पक्की दुकानों में सामान महंगा मिलता है. यह गलतफहमी है. पटरी दुकानदार को मोटे ब्याज पर सामान लाना होता है, क्योंकि वह कोई चीज गिरवी या किसी तरह की जमानत नहीं देता. रोज की कमाई में से तिहाई से आधा हिस्सा तो पैसा लगाने वाले खा जाते हैं. पटरी दुकानदार को लगता है कि उस की दिहाड़ी निकल गई, काफी है, पर यह उस को कल को पक्की दुकान में जाने से रोकता है. उसे हुनर सीखने से रोकता है.

यही नहीं, कईकई पटरी दुकानदार एकजैसा सा सामान बराबर बेचते रहते हैं. आधे समय खाली रहते हैं. उन्हें अपनी दिहाड़ी निकालने के लिए खाली समय का पैसा भी कीमत में जोड़ना होता है. वे सस्ता, अच्छा सामान दे ही नहीं सकते. हां दलितों, अछूतों को जरूर थोड़ा फायदा होता है, क्योंकि उन्हें पक्की दुकान में घुसने में आज भी डर लगता है. पर क्या इसी वजह से देश की सारी पटरियां, सारे बाग, सारी खुली जगहें, सड़कें संकरी, मैली करने दी जाएं? ग्राहक, आम जनता मामला हाथ में ले, सरकार पर न छोड़े.

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आईएएस रानी नागर का इस्तीफा: संगठित हिंदुत्व ने उजाडे ख्वाब

हरियाणा सरकार के सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग की अतिरिक्त निर्देशक रानी नागर ने कल सोशल मीडिया के माध्यम से अपना इस्तीफा भेज दिया. सामाजिक न्याय व अधिकार देने वाले विभाग की वरिष्ठ अधिकारी खुद सामाजिक न्याय की जंग हार गई.

रानी नागर ने जिस अधिकारी के ऊपर उत्पीड़न का आरोप लगाया था उसी के साथ डयूटी दी गई और महिला आयोग में शिकायत की तो उसी मैडम आहूजा को सवाल-जवाब करने की जिम्मेदारी दी गई जो पहले से रानी नागर को मामला दबाने की नसीहत दे रही थी.

पिछले दिनों रानी नागर का पीछा हुआ,धमकियां दी गई तो रानी नागर अपनी बहन रीमा नागर के साथ रहने लगी व सोशल मीडिया के माध्यम से साफ किया कि अगर मेरी हत्या होती है तो आरोपी अधिकारी व सरकार जिम्मेदार होगी.

कल अचानक खबर आई कि रानी नागर ने इस्तीफा भेज दिया और हरियाणा सरकार ने रानी को अपने पैतृक घर गाजियाबाद जाने के लिए गाड़ी उपलब्ध करवाई जिसका खर्चा खुद रानी नागर ने वहन किया है.

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बात साफ है कि रानी नागर को प्रताड़ित किया गया और इतना दबाव बनाया गया कि आईएएस रानी नागर टूट गई और अपना इस्तीफा भेज दिया.शायद सरकार भी यही चाहती थी क्योंकि जिस तरह फटाफट गाड़ी उपलब्ध करवाकर घर पहुंचाया गया उससे तो यही जाहिर हो रहा है.रानी नागर आईएएस है तो नियमों के मुताबिक हरियाणा सरकार को अपनी टिप्पणी के साथ यह इस्तीफा केंद्र सरकार को भेजना है.

रानी नागर एक किसान परिवार से है.लिहाजा नेता व मीडिया बोलेंगे नहीं.किसान परिवारों के बच्चे वैसे भी उच्च पदों पर कम ही पहुंचते है और जो पहुंचते है उनको ऐसी जगह लगाया जाता है जहां जनता का सीधा तालुक कम ही रहता है.पद के श्रेष्ठता क्रम के हिसाब से कहीं ढंग की पोस्टिंग मिल जाती है तो रानी नागर बनाकर घर भेज दिया जाता है.

जो लोग पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश के हिंदुओं की प्रताड़ना को लेकर चिंतित है उनको बताना चाहता हूँ कि आरएसएस के हिंदुत्व के हिसाब से रानी नागर हिन्दू है व सुब्रमण्यम स्वामी की वर्ण व्यवस्था के हिसाब से क्षुद्र है मगर किसान के रूप में माना जाता है.यह भारत की हिन्दू महिला आईएएस अधिकारी है जो भारत के हरियाणा राज्य में पदस्थापित थी जहाँ आरएसएस-बीजेपी की हिंदुत्व रक्षक सरकार है.

जिस अधिकारी के ऊपर रानी नागर ने उत्पीड़न का आरोप लगाया था वो भी हिन्दू है,जिस महिला आयोग में रानी ने शिकायत की उसमे सारे अफसर हिन्दू है.रानी को धमकियां देने वाले,मामला दबाने वाले व महिला आयोग में रानी से सवाल जवाब के नाम पर मामला रफा-दफा करने की नसीहत देने वाली मैडम तक सब हिन्दू ही है.

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रानी को इस्तीफे के लिए मजबूर करने वाली व गाड़ी से गाज़ियाबाद भेजने वाली हरियाणा सरकार का मुख्यमंत्री शाखा से प्रशिक्षित हिन्दू है इसलिए शक की कोई गुंजाइश कहीं नहीं बचती है.रानी का इस्तीफा आज या कल टिप्पणी के साथ केंद्र की हिन्दू हृदय सम्राट की सरकार के पास भेज दिया जाएगा और जाहिर से बात है कि कड़ी से कड़ी जब हिंदुओं की नीचे से लेकर ऊपर तक जुड़ी हुई है तो इस्तीफे की स्वीकारोक्ति को लेकर कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए!

दरअसल, ओबीसी/एससी/एसटी के लोगों को खतरा मुसलमानों से नहीं, बल्कि सत्ता-संसाधनों पर काबिज वर्ग विशेष से है तो लोग गंभीरता से नहीं लेते है!ओबीसी/गुर्जर समाज की आईएएस रानी नागर जब मुखर्जी नगर से शाहजहां रोड तक गई तो देश बदलने के बहुत ख्वाब देखे होंगे मगर हिंदुओं के संगठित विशेष वर्ग ने उनके ख्वाबों को उजाड़कर वापिस अपने गांव भेज दिया है.

बहुत से किसानों के बच्चे व बच्चियां अफसर बनकर भी इन हिंदुओं की प्रताड़ना के शिकार होते है और जहर के घूंट पीकर चुप रहते है!रानी नागर की जहर पचाने की ताकत कमजोर रह गई और अपने आत्मसम्मान की रक्षार्थ इस्तीफा दे दिया!यह इस्तीफा उन किसान कौम के नेताओं,समाजसेवियों व गले मे हिंदुत्व का गमच्छा डालकर घूम रहे युवाओं के मुँह पर तमाचा है जो रोज कहते रहे कि हिंदुत्व खतरे में है!असल मे रानी नागर ने आईएएस के पद से इस्तीफा नहीं किसान कौमों के मुर्दा जमीर का पार्सल भेजा है.

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मगरमच्छ के जबड़े से बची जान, भाई बना मददगार

मगरमच्छ को देख कर जहां अच्छेअच्छों की सिट्टीपिट्टी गुम हो जाती है, वहीं एक बकरीपालक को मगरमच्छ ने अपने जबडे़ में ऐसे जकड़ लिया मानो छोड़ने को तैयार न हो, पर वहां मौजूद लोगों की मदद से उस के भाई ने अपनी जान की बाजी लगा कर उस को नया जीवनदान दिया.

यह मामला राजस्थान के करौली में घूसई चंबल घाट पर देखने को मिला, जहां मगरमच्छ के हमले में एक बकरीपालक गंभीर रूप से घायल हो गया.

जानकारी के मुताबिक, करीलपुरा गांव का रहने वाला रामधन मीणा 3 मई की शाम प्यासी बकरियों को पानी पिलाने घूसई चंबल घाट पर गया था. वहां बकरियों को पानी पिलाने के दौरान पहले से ही घात लगा कर पानी में बैठे मगरमच्छ ने रामधन पर हमला कर दिया और अपने जबड़े में फंसा लिया.

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तभी मौके पर मौजूद रामधन के भाई और वहां मौजूद लोगों ने उसे छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन मगरमच्छ भी अपने शिकार को आसानी से छोड़ने वाला नहीं लग रहा था. किसी तरह मगरमच्छ के जबड़े से उस युवक को छुड़ाया गया.

इस हमले में रामधन मीणा के दोनों हाथों में गंभीर रूप से चोटें आईं. घायल को करणपुर अस्पताल पहुंचाया गया, जहां से गंभीर अवस्था में करौली रेफर कर दिया.

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वहीं इस से पहले दूसरी घटना पंजाब के मुक्तसर जिले के गिद्दड़बाहा के एक गांव गुरुसर के पास की है. वहां 21 अप्रैल को नहर के किनारे मगरमच्छ मिला. एक किसान ने इस की पूंछ पकड़ कर घुमाने की कोशिश की, पर वह जल्दी से नहर में घुस गया. नहर में मगरमच्छ के आने से गांव के लोगों में दहशत है. वैसे, गुरुसर गांव के लोग गरमी में इस नहर में नहाते हैं और दूसरी जरूरी चीजों के लिए पानी भी भरते हैं.

फिलहाल तो लॉकडाउन की वजह से लोग नहर की तरफ नहीं जा रहे हैं, फिर भी एहतियात के तौर पर नहर में मगरमच्छ की सूचना गांव वालों ने वन विभाग को दे दी है.

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भले ही चौकस रहते हुए बकरीपालक रामधन मीणा को उस के भाई ने मगरमच्छ के जबड़े से बचा लिया हो, पर ऐसे मौकों पर ज़्यादा जागरूक रहना चाहिए, तभी बच सकते हैं. वहीं खेतों में काम करने वाले किसानों के साथ ही साथ नदी, नाले व नहर के आसपास रहने वालों को घड़ियाल व मगरमच्छों से सावधान रहने की जरूरत है.

कोरोना वायरस: बीमारी को शोषण और उत्पीड़न का जरिया बनाने पर आमादा सरकार

देश मे आर्थिक इमरजेंसी लगाने की बाते करना भाजपा सरकार की जरूरत हो सकती है, लेकिन देश की जरूरत कतई नही है. सरकार कोरोना वायरस को शोषण का जरिया बनाने पर आमादा है.

जिनकी मदद करनी थी, उनसे ही मदद मांग रहे है, किसानों से,छात्रों से, कर्मचारियो से अर्धसैनिक बलों से मदद मांग रहे है.

जो पीड़ित है, और बीमारों का इलाज करने में लगे हुए है, उनका वेलफेयर फ़ंड मांग रहे है. बेशर्मी के तमाम रिकॉर्ड ही तोड़ दिए है.

कर्मचारियो का डी ए जुलाई 2021 तक फ्रीज कर दिया है, 4 %  जो जनवरी ड्यू था वह नही दिया और आगे को तीन बार का डीए नही मिलेगा यानि कुल मिलाकर वेतन का 15 % के आस पास डीए कट जाएगा. इनकमटैक्स कट ही चुका है. अब भी कट ही रहा है.

टीए न देने का आदेश कर ही चुके है, एक दिन का वेतन एक वर्ष तक काटकर पीएम केयर फ़ंड में देने के आदेश कर दिये है.

निजी कंपनियों को तो उपदेश दिए जाते हैं कि किसी का वेतन न रोकें पर उनके बकाए भुगतान को भी रोका जा रहा है और खुद कर्मचारियों के वेतन काटे जा रहे हैं.

कर्मचारी संगठनों ने इस कटौती का विरोध किया है पर जब तक पंडे पूजारी और उनके इशारे पर चलने वाले टीवी हैं, सरकार को डर नहीं. फिर भाजपा का आईटी सैल भी रात-दिन एक कर मोदी के गुणगान में लगा है ताकि धर्म और उससे चल रहे जातीय भेदभाव बना रहे.

रिटायर्ड फौजी सुप्रीम कोर्ट चले गए है. रिटायर्ड फौजियों का डीए काटना घोर अनर्थ है. उन्होंने कोर्ट में चुनौती दी है. इन्हीं फौजियों का नाम लेकर चुनाव जीते जाते हैं पर अब हाल में चुनाव नहीं हो रहे तो उन्हें कुर्बान कर दिया गया है.

कर्मचारी संगठन, किसान संगठन, मजदूर संगठन और छोटे दुकानदारों के संगठन मिलकर अडानी अम्बानी की सेवक सरकार का खुलकर विरोध कभी नहीं कर पाएंगे क्योंकि उनके नेता ऊंची जातियों के ही हैं.

मासूम हुए शिकार : इंसानियत हुई शर्मसार

समाज में आपराधिक व कुंठित लोगों की मानसिकता इस कदर बिगड़ती जा रही है कि उन को सही गलत का आभास ही नहीं है. पढ़ाई लिखाई से कोसों दूर और गलत आदतों के शिकार होने की वजह से कोई इन्हें पसंद नहीं करता, वहीं इन्हें कोई रोकने टोकने व समझाने वाला नहीं मिलता. यही वजह है कि इन के हाथ गलत काम करने से कांपते नहीं है. ये ऐसेऐसे काम कर जाते हैं कि दिल कांप जाए, पर ये न कांपे.

यही वजह है कि इन के सोचने और समझने की ताकत बिल्कुल ही खत्म हो गई है.

23 अप्रैल की अलसुबह एक वारदात 6 साल की मासूम के साथ हुई. पहले उस के साथ रेप किया गया और फिर दोनों आंखें ही फोड़ दीं.

मध्य प्रदेश के दमोह जिले के एक गांव में यह दिल दहला देने वाली घटना घटी. घर से अपहरण कर 6 साल की मासूम बच्ची के साथ आरोपियों ने दरिंदगी की.

उस बच्ची के साथ रेप करने के बाद दोनों आंखें फोड़ दी, ताकि वह किसी को पहचान न सके.

घटना जिले के जबेरा थाना क्षेत्र स्थित एक गांव की है. 23 अप्रैल की सुबह 7 बजे बच्ची गांव के बाहर खेत में स्थित एक सुनसान मकान में गंभीर हालत में पड़ी हुई मिली. उस के बाद घर वालों को जानकारी दी गई.

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मौके पर पहुंचे लोगों ने देखा कि मासूम के दोनों हाथ बंधे हुए थे और आंखें फोड़ दी गई थीं.

बताया जा रहा है कि 22 अप्रैल की शाम 6 बजे से बच्ची गायब थी, तभी से घर वाले उसे खोज रहे थे. 23 अप्रैल की सुबह जब बच्ची मिली तो उस की हालत देख कर सभी के दिल दहल गए.

बच्ची को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, जबेरा लाया गया, जहां बच्ची की हालत देखते हुए उसे जबलपुर रेफर कर दिया गया.

गांव पहुंचे दमोह के एसपी हेमंत सिंह चौहान ने कहा कि 22 अप्रैल की शाम बच्ची दोस्तों के साथ खेल रही थी. कोई अनजान शख्स उसे यहां से ले गया. उस के साथ रेप किया गया, उस की आंखों में गंभीर चोट है. कई संदिग्धों से पूछताछ की गई है. मासूम की हालत गंभीर है और जबलपुर रेफर कर दिया गया है.

मौके पर जांच के लिए एफएसएल की टीम भी पहुंची. जल्द ही आरोपी को गिरफ्तार कर लेंगे.

इस घटना को ले कर लोगों में आक्रोश है. सूचना मिलते ही जबेरा के विधायक धमेंद्र सिंह मौके पर पहुंचे और उन्होंने कहा कि मामले की जांच चल रही है. दरिंदे किसी भी कीमत पर नहीं बचेंगे.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा  कि दमोह जिले में एक मासूम बिटिया के साथ दुष्कर्म की घटना शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है. घटना का संज्ञान ले कर अपराधी को जल्द ही पकड़ने के निर्देश दिए हैं. उन दरिंदों को सख्त से सख्त सजा दी जाएगी. बिटिया की समुचित इलाज में किसी भी प्रकार की कमी नहीं आने दी जाएगी.

वहीं दूसरी वारदात उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के एक गांव में हुई. वहां 13 साल की किशोरी घर से बाहर टौयलेट के लिए गई तो पहले से ही घात लगा कर बैठे 6 लोगों ने उसे पकड़ लिया और सुनसान जगह पर ले गए.

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2 लोगों ने किशोरी के साथ रेप की घटना को अंजाम दिया, वहीं उस के आसपास खड़े 4 लड़के इस गैंगरेप का वीडियो बनाते रहे.

किशोरी रोतीबिलखती रही, लेकिन दरिंदों ने कोई रहम नहीं किया. वहां से जाते समय वह धमकी दे कर गए कि किसी को इस बारे में बताया तो वीडियो को सोशल मीडिया पर अपलोड कर देंगे.

शर्मसार कर देने वाली यह घटना सीतापुर जिले में मिश्रिख कोतवाली क्षेत्र की है.

घर वालों के मुताबिक, जब किशोरी घर से बाहर टॉयलेट के लिए गई थी, उसी दौरान गांव के बाहर एक कॉलेज के पास पहले से मौजूद 6 लोगों ने उसे पकड़ लिया. 2 लोगों ने किशोरी से बारीबारी से दुष्कर्म किया, जबकि 4 साथियों ने गैंगरेप का वीडियो अपने मोबाइल में कैद कर लिया.

सभी आरोपी मुंह खोलने पर गैंगरेप का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल करने की धमकी दे कर मौके से फरार हो गए.

घटना की जानकारी पा कर मौके पर पहुंची पुलिस ने मामले की तफ्तीश शुरू की.

पुलिस का कहना है कि मामले में पीड़िता की शिकायत के आधार सभी आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज कर लिया है और 2 मुख्य आरोपी धरे भी गए हैं.

दिल दहला देने वाली घटनाओं को बारीकी से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि पहले से ही घात लगा कर घटना को अंजाम दिया गया. यह कोई और नहीं, हमारे आसपास के माहौल का ही नतीजा है.

भले ही अपराधी पकड़े जाएं, इन को इन के किए की सजा मिल भी जाए, पर इन कम उम्र बच्चियों का क्या कुसूर कि इन में से एक मासूम की दोनों आंखें ही फोड़ दी,वहीं दूसरी के साथ घटना की वीडियो तक बना डाली.

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क्या इन मासूमों का छीना हुआ कल लौट कर आ पाएगा? क्या ये इस कहर को भूल पाएंगे? क्या शर्मसार हुई इंसानियत समाज में फिर कायम हो पाएगी, कहना मुश्किल है.

वंदना हेमंत पिंपलखरे : कराटे से काटे जिंदगी के दर्द

लेखक- डा. अर्जिनबी यूसुफ शेख

घर में जो सब से छोटा होता है, उसे भाईबहनों के साथसाथ मातापिता का भी सब से ज्यादा लाड़दुलार मिलना लाजिमी है.

31 जुलाई, 1965 को जनमी वंदना अपने भाईबहनों में सब से छोटी थीं. जब तक वे कुछ समझने लगीं, तब तक उन के 2 बड़े भाइयों और 3 बहनों की शादी हो चुकी थी. लिहाजा, भाईबहनों का साथ उन्हें कम ही मिला.

शादी होते ही दोनों बड़े भाई अलग रहने लगे थे. वंदना अपने मातापिता के साथ अकेली रहती थीं. पिता को शराब के नशे में बेहाल देख कर उन का मन दुखता था, पर 10 साल की बच्ची कर भी क्या सकती थी?

पिता रिटायर्ड थे, उन्हें पैंशन नहीं मिलती थी. वंदना ने 6ठी जमात में पढ़ते हुए किसी दुकान में 50 रुपए प्रतिमाह पर नौकरी करनी शुरू की. साथ ही, मां के साथ मिल कर पापड़, अचार, आलू के चिप्स वगैरह बनाने लगीं. वे उस सामान को प्लास्टिक की पन्नी में पैक कर घरघर बेच आती थीं.

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इस तरह वंदना इन घरेलू उत्पादों के और्डर लेने लगीं और अपने घर की गरीबी का रोना न रोते हुए मातापिता के साथ अपनी रोजीरोटी चलाने लगीं.

पिता शराबी, मां भोलीभाली और भाईबहन अपनी दुनिया में मस्त. जिस वंदना के बचपन को प्यार व अपनेपन की जरूरत थी, वह बचपन मातापिता को संभाल रहा था.

अकसर ज्यादा शराब पी लेने के चलते पिता बहुत बुरी हालत में घर पहुंचते थे. उन की कमीज के बटन टूटे रहते थे और लड़खड़ाते हुए उन का घर में आना वंदना को खून के आंसू रुला देता था.

मां तो एक ओर सिमट जाती थीं. वंदना ही पिता को बिस्तर पर बिठातीं, उन के कपड़े ठीक करतीं या बदल देतीं, कीचड़ में सने पैरों को साफ करतीं और बेमन से उन की सेवाटहल करतीं.

वंदना को कुछ अलग करना अच्छा लगता था. वे मार्शल आर्ट सीखने लगीं. 12वीं जमात के बाद उन्होंने असिस्टैंट सबइंस्पैक्टर के लिए हैदराबाद जा कर इम्तिहान देने के लिए फार्म भरा. इसी बीच मां को लकवा होने से अस्पताल में भरती कराना पड़ा. डाक्टर ने 72 घंटे का समय क्रिटिकल बताया था. उस हालत में भी मां के पास अस्पताल में रहने या उन्हें देखने कोई भाईबहन नहीं आया. इस की वजह थी वंदना. उन्हें वंदना का मार्शल आर्ट सीखना पसंद नहीं था, जबकि वंदना इसे न छोड़ने की जिद पर अड़ी थीं.

अस्पताल में मां के साथ रहने से वंदना का घर बंद रहा. हैदराबाद से आया इम्तिहान का लैटर वहीं दरवाजे के भीतर पड़ा रहा. जब वंदना ने उसे देखा तब तक काफी देर हो चुकी थी. वह मोड़ जो वंदना की जिंदगी को नया रास्ता दे सकता था, उन के हाथ से छूट गया. इस दुख के साथ मां की मौत के दुख को भी उन्हें एक ही समय झेलना पड़ा.

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मां की मौत के बाद वंदना बिलकुल अकेली हो गईं. वे सुबह सारे काम निबटा कर, खाना वगैरह बना कर बाहर निकल जातीं, लेकिन जब कभी घर पहुंचने में लेट हो जातीं तो उन्हें खाने के लिए रोटी का एक टुकड़ा नहीं मिलता था. कोई यह सोचने वाला नहीं था कि उन्हें भी रोटी की जरूरत होगी. वे अकेली संघर्ष भरी राह पर चल रही थीं, भाईबहनों की खिलाफत झेलते हुए. भाईबहन तो पिता को भी भड़का देते थे कि वंदना समाज में उन्हें मुंह दिखाने लायक नहीं रख रही है. उन की बातों में आ कर पिता भी वंदना को बेइज्जत करते थे. इतना होते हुए भी वंदना शराब के नशे में चूर अपने पिता को संभालती थीं, उन का खयाल रखती थीं.

न किसी से हौसलाअफजाई, न किसी से मार्गदर्शन, इस के उलट लड़की ने जो नहीं करना चाहिए, जो खेल नहीं सीखना चाहिए, उसे करने से अपनों की बेरुखी वंदना को चुभती जरूर रही, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी.

वंदना ने 5 साल अखाड़े में मार्शल आर्ट में ब्लैक बैल्ट टू डौन कर बीपीऐड किया. साथ ही, घरेलू उत्पाद के और्डर जगहजगह पहुंचा कर वे अपनी गुजरबसर करती रहीं. कुछ मर्दों की नजर में जवान वंदना चुभ जाती थीं. घर में कोई मर्द न हो तो एक लड़की को किस हालात से गुजरना पड़ता है, इसे वंदना ने खूब झेला.

बाद में वंदना ने एक महिला महाविद्यालय में नौकरी हासिल की. दोपहर लंच के समय वे टाइपिंग सीखने चली जातीं. साथ ही, लाइब्रेरी का कोर्स भी किया.

समाज से मिले कड़वे अनुभवों को दरकिनार कर वंदना का टारगेट हमेशा अपने काम पर रहा. वे अपने काम और कामयाबी से समाज को एक करारा जवाब देना चाहती थीं कि जिन कामों को समाज ने महिलाओं के लिए गलत बताया है, वह समाज की एक छोटी सोच है.

इतने दुख झेलने के बाद साल 1995 में हेमंत पिंपलखरे से शादी करने के बाद वंदना हेमंत पिंपलखरे को मजबूती मिली.

शादी के बाद जब वंदना अपने पति के साथ पिता का आशीर्वाद लेने घर पहुंचीं, तो पिता ने उन्हें नफरत से बाहर धकेल दिया, पर ससुराल वालों ने उन्हें दिल से अपनाया. सास से मां समान और दोनों ननदों से बहनों सा प्यार वंदना को मिला.

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मार्शल आर्ट न छोड़ने की जिद के चलते खुद के परिवार से नफरत झेल रही वंदना को अपने कार्य क्षेत्रों में भी अनेक तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा. वे पलभर के लिए निराश जरूर हुईं, पर अपने लक्ष्य को नजरों से ओझल नहीं होने दिया.

यही वजह है कि आज वंदना हेमंत पिंपलखरे मिक्स बौक्सिंग, थाई बौक्सिंग, म्यूजिकल चेयर, बैल्ट रैसलिंग, नौनचौक वैपन खेलों की अधिकारी व चीफ जूरी के रूप में काम कर रही हैं. साथ ही, वे महाराष्ट्र के ‘पुण्यश्लोक’, ‘अहल्यादेवी होलकर पुरस्कार’, ‘स्त्रीरत्न पुरस्कार,’ ‘ब्रुसलीज ऐक्सिलैंस’ पुरस्कार के साथसाथ बौक्सिंग, थाई बौक्सिंग में फैडरेशन व स्कूल गेम औफ इंडिया की बैस्ट जूरी, रैफरी व जज पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकी हैं.

श्वेता मेहता : हादसों से हार नहीं मानती यह जांबाज लड़की

टैलीविजन पर आने वाले एक स्टंट बेस्ड शो ‘एमटीवी रोडीज’ के बारे में तो आप जानते ही होंगे, जिस में किसी इनसान की जिस्मानी और दिमागी ताकत का कड़े से कड़ा इम्तिहान लिया जाता है. लड़केलड़कियों के इस खेल में बाजी मारना लोहे के चने चबाने जैसा है.

साल 2017 के इस शो में ‘रोडीज राइजिंग’ का खिताब हरियाणा के एक छोटे से शहर फतेहाबाद की रहने वाली श्वेता मेहता ने जीता था. इस से पहले उन्होंने 3 बार पहले भी इस कांटैस्ट के लिए आडिशन दिया था, पर कामयाब नहीं हो पाई थीं. लेकिन उन्होंने अपना हौसला नहीं गंवाया और आखिरकार विजेता बन कर ही आईं.

इस के बाद से श्वेता मेहता की जिंदगी पूरी तरह बदल गई. अब वे पूरी तरह से एक फिटनैस दीवा बन चुकी हैं. इतना ही नहीं, वे फिटनैस से जुड़ी कई प्रतियोगिताएं भी जीत चुकी हैं. हालांकि, वे अपनी फिटनैस को ले कर पहले से दीवानी थीं और अपने इस जुनून के लिए उन्होंने बीटैक करने के बाद बैंगलुरु की एक आईटी कंपनी की अपनी बढि़या नौकरी छोड़ दी थी.

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फिटनैस से जुड़ा एक वाकिआ बताते हुए श्वेता मेहता ने कहा, ‘‘मेरी कमर में दर्द रहता था. डाक्टर ने मुझ से कहा था कि आप को जिम तो जाना पड़ेगा. अपनी कमर के मसल्स मजबूत करने पड़ेंगे, ताकि आप का पोश्चर पूरी जिंदगी के लिए ठीक रहे.

‘‘शुरू में मुझे जिम जाना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था. बाद में धीरेधीरे मेरा रुझान बढ़ा और मुझे लगा कि इसी फील्ड में कुछ करना चाहिए. मैं ने नौकरी के साथसाथ फिटनैस कंपीटिशन की तैयारी की, जो बहुत मुश्किल मानी जाती है और भारत में तो महंगी भी मानी जाती है.

‘‘अच्छी तरह प्रैक्टिस करने के बाद मैं ने साल 2015 में एक कंपीटिशन में हिस्सा लिया था, जिस में मेरा तीसरा नंबर आया था. तब मुझे लगा था कि तीसरा नंबर नहीं चाहिए, मुझे तो फर्स्ट आना है. इस के बाद मैं ने और मेहनत की और साल 2016 में मैं ‘जिरौय क्लास वुमन फिजिक’ की विजेता बन गई. इस के बाद मैं ने नौकरी छोड़ दी.

‘‘उस के साथसाथ एक और चीज चल रही थी और वह थी रोडीज. साल 2014, साल 2015 और साल 2016 में मुझे ‘एमटीवी रोडीज’ के आडिशन में ही निकाल दिया था, पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी और साल 2017 में मैं ने आडिशन क्लियर किया और बाद में वह शो ही जीत लिया.’’

श्वेता मेहता ने आगे बताया, ‘‘मेरी जिंदगी जीने का नजरिया बहुत ही पौजिटिव है. जो चीज चाहिए, वह मुझे लेनी ही है. मैं अपने इस रवैए को कभी बदलूंगी नहीं. अगर कोई काम करना है तो उसे अच्छे से करो, जीजान लगा दो और जीत जाओ.

‘‘पिछले कुछ महीनों में मैं ने बहुतकुछ खोया है, पर हिम्मत नहीं खोई है. दरअसल, 6 सितंबर, 2019 को सूरत में ट्रैंपोलिन पार्क में मेरा एक एक्सिडैंट हुआ था. वहां पर सेफ्टी की कोई दिक्कत थी और मेरी गरदन टूट गई थी.

‘‘मेरी बड़े लैवल की सर्जरी हुई थी. डाक्टरों ने तब कह दिया था कि मैं फिटनैस में दोबारा वे चीजें नहीं कर पाऊंगी, जिन के बिना मेरी जिंदगी ही अधूरी है. कम से कम एक साल तक तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती.

‘‘लेकिन, मैं खुद को मरीज की तरह नहीं देख सकती हूं, इसलिए मैं हमेशा आगे बढ़ने की कोशिश करती रहती हूं. लिहाजा, मैं ने हिम्मत नहीं हारी और दोबारा वर्कआउट करने लगी हूं. डाक्टर हैरान रह गए हैं कि इस लड़की की इच्छाशक्ति इतनी ज्यादा कैसे है, यह तो आयरन से भी ज्यादा मजबूत है.

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‘‘इस एक्सिडैंट से मेरा बहुत ज्यादा नुकसान हुआ है. 6 सितंबर, 2019 को यह हादसा हुआ था, जबकि मुझे कई रिएलिटी शो करने थे. 15 अगस्त, 2019 को मैं ने अपना पहला पंजाबी म्यूजिक अलबम ‘चिट्टा सूट’ किया था, पर उस के बाद ही हादसा हो गया. मैं ने उस के बाद बहुतकुछ खो दिया, लेकिन हिम्मत नहीं खोई.

‘‘मैं ने एक फेसबुक ग्रुप भी शुरू किया है, जिस का नाम है ‘कमबैक विद श्वेता’. इसे शुरू करने की एक वजह यह भी है कि बहुत से लोग बड़ी जल्दी हिम्मत हार जाते हैं. इसी के चलते किसी का तलाक हो जाता है, किसी की अपने बौयफ्रैंड से लड़ाई हो जाती है, पैसे की तंगी या फिर कोई दूसरा हादसा हो जाता है और लोग उस हादसे के सदमे से बाहर नहीं आ पाते हैं.

‘‘मुझे ही देख लो. चोट लगने से पहले मैं 100 पुशअप्स लगा लेती थी, पर अब मुझे शुरू से शुरू करना है. आप मानोगे नहीं, मुझे 143 दिन लगे एक पुलअप को दोबारा करने में. बहुत से लोग हैं, जो दोबारा शुरू करने की कोशिश ही नहीं करते हैं. मैं चाहती हूं कि अकेली मैं ही कमबैक न करूं, बल्कि और भी लोग करें. वे खुद पर भरोसा रखें और बड़ी से बड़ी चुनौती का सामना पूरे दमखम के साथ करें.’’

लड़कियों के लिए सैल्फ डिफैंस सिक्योरिटी भी, करियर भी

आज के समय में लड़कियों के साथसाथ औरतों की सिक्योरिटी समाज में एक बड़ा मुद्दा है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि आज लड़कियां स्कूल के समय से ही लड़कों से बराबरी करने के लिए मैदान में उतर रही हैं. वे स्कूल के बाद कालेज और फिर आगे की पढ़ाई के लिए गांवघर से दूर बड़े शहरों में जाने लगी हैं. ऐसे में उन के सामने खुद की सिक्योरिटी करना अहम हो गया है.

यह मुमकिन नहीं है कि हर जगह पुलिसप्रशासन लड़कियों की सिक्योरिटी के लिए मौजूद रहे. ऐसे में जरूरी है कि लड़कियों को सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग दी जाए, जिस से वे खुद की हिफाजत कर सकें.

अब सैल्फ डिफैंस एक कैरियर बन गया है. सैल्फ डिफैंस सीखी लड़कियों को पर्सनल सिक्योरिटी और हिफाजत के दूसरे कामों में नौकरी मिल जाती है.

सैल्फ डिफैंस सीखने वाली तमाम लड़कियों के लिए जरूरी है कि उन की बौडी फिट और मजबूत रहे. इस के लिए लड़कियों और औरतों ने जिम जाना शुरू कर दिया है. ऐसे में जिम ट्रेनर के रूप में लड़कियों के लिए नौकरी के नए रास्ते खुल गए हैं. ज्यादातर जिम में महिला फिटनैस टे्रनर की जरूरत बढ़ गई है. यही वजह है कि हर छोटेबड़े शहर में ऐसे जिम की तादाद तेजी से बढ़ रही है.

आज के समय में माल, होटल, नाइट क्लब में बाउंसर को तैनात किया जाने लगा है. इस के अलावा सैलेब्रिटी की सिक्योरिटी के लिए भी महिला बाउंसरों का इस्तेमाल होने लगा है. छोटे शहरों और गांव की लड़कियों को इस में तरजीह मिलती है. वे मजबूत कदकाठी की होती हैं. साथ ही, इस में बहुत ज्यादा पढ़नेलिखने की जरूरत भी नहीं होती है.

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बन गया करियर

गाजीपुर, उत्तर प्रदेश में सैल्फ डिफैंस के क्षेत्र में काम करने वाली सामाजिक संस्था रैड ब्रिगेड ट्रस्ट ने इस गांव की कुछ लड़कियों को अपने सैल्फ डिफैंस कार्यक्रम से जोड़ा है.

गांव मरदहा की रहने वाली प्रियंका भारती और सुष्मिता भारती ने 2 साल सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग ली. अब वे खुद गांव की दूसरी लड़कियों को ही नहीं, बल्कि दूसरे शहरों में जा कर भी वहां की लड़कियों को सैल्फ डिफैंस सिखा रही हैं.

वे कहती हैं कि सैल्फ डिफैंस सीखने के बाद गांव में उन का सम्मान बढ़ गया है. किसी स्कूल में 2 से 3 घंटे सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग देने पर उन्हें 2,000 रुपए से ले कर 3,000 रुपए मिल जाते हैं.

प्रियंका और सुष्मिता दोनों ने अपनी आगे की पढ़ाई भी जारी रखी है. प्रियंका बीटीसी करने के बाद स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने का काम करने की सोच रही हैं. वहीं सुष्मिता बीएससी की पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे पढ़ कर कुछ नया काम करना चाहती हैं. वे कहती हैं कि रैड ब्रिगेड ट्रस्ट वाले विदेशों से सैल्फ डिफैंस की महिला ट्रेनर को बुलाते हैं, जिन से सैल्फ डिफैंस की नई तकनीकों का पता चलता है. विदेशों में लड़कियों को यह काम स्कूली शिक्षा के साथ ही सिखाया जाता है, जिस से वहां पर छेड़खानी जैसी वारदातें कम होती हैं.

इसी तरह जसमीन पथेजा ने ब्लैंक नौयज गु्रप बनाया है. निशा सूसन ने पिंक चड्ढी गु्रप बनाया. इसे राम सेना के कट्टर हिंदूपंथियों से लड़ने के लिए बनाया गया है, जो औरतों को कमतर मानते हैं. गुलाबी गैंग को संपत पाल देवी ने खड़ा किया था, जो अफसरों से उलझ जाती हैं.

मध्य प्रदेश की माना मंडलेकर सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग दे रही हैं, ताकि लड़कियां आराम से स्कूल आजा सकें. टिमासी के कालेज में पढ़ी माना को 12 किलोमीटर दूर स्कूल में जाना होता था और रास्ते में गांवों के लड़के बेहूदा इशारे करते थे. कईर् बार तो बलात्कार भी होते हैं, जिन में लड़कियों को चुप रह जाना पड़ता है.

हरिद्वार के पास भारती सैनी गांव रानी माजरा में लड़कियों को सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग दे रही हैं.

पुणे का मार्शल आर्टिस्ट शिफूजी शौर्य भारद्वाज सैकड़ों लड़कियों को एकसाथ टे्रनिंग देते हैं. वे पैन, हेयर क्लिप, नेल कटर, आईडी कार्ड, सैलफोन से अपना बचाव कैसे कर सकते हैं, यह तक सिखाते हैं. उन्होंने 40 लाख लड़कियों को मिशन प्रहार में ट्रेनिंग दी है. उन का कहना है कि लोग लड़कियों को कहते हैं ‘बेबस’, हम कहते हैं ‘अब बस’.

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लेडी सिक्योरिटी गार्ड

इस तरह की संस्थाओं से सैल्फ डिफैंस की ट्रेनिंग पाई खूबसूरत और फिट बौडी लड़कियों के लिए नौकरी के तमाम मौके आ रहे हैं. इस की सब से बड़ी वजह है कि अब समाज ऐसी लड़कियों को बढ़ावा देने लगा है. तमाम सैलेब्रिटी भी अपनी हिफाजत के लिए लेडी सिक्योरिटी गार्ड रखने का लगे हैं. इस के अलावा माल, सिनेमाघर, किसी इवैंट के दौरान भी इन की जरूरत महसूस होती है. प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड को पहले इज्जत की नजरों से नहीं देखा जाता था, पर अब ऐसा नहीं है.

महिला बाउंसरों की तैनाती उन रिहायशी जगहों पर भी होने लगी है, जहां सिक्योरिटी का ज्यादा पुख्ता इंतजाम करना पड़ता है. इस की सब से बड़ी वजह पुलिस व्यवस्था से लोगों का भरोसा उठना है. आम लोगों को लगता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के बाद अब हिफाजत के इंतजाम भी खुद ही करने चाहिए. तमाम बैंक, ज्वैलरी शोरूम और पैसे का कारोबार करने वाली कंपनियां पैसे के लेनदेन का काम प्राइवेट सिक्योरिटी गार्डों के भरोसे कर रही हैं.

इस के चलते ऐसी एजेंसियों की मांग काफी बढ़ गई है. इन में भी साधारण सिक्योरिटी गार्ड की जगह महिला बाउंसरों का इस्तेमाल बढ़ गया है.

डाइट भी सुधार रही हैं

हैल्थ मैनेजमैंट का कारोबार देख रही डाइटीशियन सुरभि जैन कहती हैं, ‘‘बाउंसर बनने या बौड़ी फिटनैस वाली लड़कियों के लिए जरूरी होता है कि उन का खानपान सही से हो. इस के लिए ऐसे लोगों को एक डाइट चार्ट बना कर उस पर अमल करना चाहिए.

‘‘बौडी बनाने की दवाएं लेने से ज्यादा जरूरी है कि सही खानपान से बौडी बनाएं. सुबह दूध और अंडे लेने चाहिए. इस के डेढ़ घंटे बाद प्रोटीन शेक वाला दूध लेना चाहिए. दोपहर के भोजन में रोटी, हरी सब्जी, दाल, चिकन, दही लेना ठीक रहेगा. शाम को नाश्ते में उबले आलू और जूस पीना चाहिए. प्रोटीन शेक के बाद रात 9 बजे 100 ग्राम पनीर, सब्जी, सलाद और दूध लेना चाहिए.’’

फिटनैस के लिए ऐक्सपर्ट के कहे मुताबिक ही जिम में ट्रेनिंग लेना बहुत जरूरी होता है.

सुरभि जैन कहती हैं, ‘‘डाइट के साथसाथ खूबसूरत दिखने के लिए अब लड़कियां सर्जरी कराने से किसी तरह का डर या संकोच नहीं करती हैं. अनचाहे बालों को हटवाने से ले कर वे आपरेशन के जरीए फैट निकलवाने की कोशिश भी करती हैं. चेहरे पर कोई दागधब्बा है या ठुड्डी सही आकार में नहीं है तो उसे भी सही कराने की कोशिश करती हैं.

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‘‘यही वजह है कि अब कौस्मैटिक सर्जन की तादाद बढ़ने लगी है. केवल लड़कियां ही नहीं, शादीशुदा औरतें भी खुद को फिट रख रही हैं.’’

लड़कों से कम नहीं हैं लड़कियां

‘‘जब मेरे पापा गुजरे, तब उन का अंतिम संस्कार मैं ने ही किया था. उन की अर्थी को कंधा मैं ने ही दिया था. उस वक्त मैं ने खुद को बहुत मजबूत पाया था… पापा के जाने के बाद जिंदगी पहले जैसी कभी नहीं रही, मगर उस के बाद घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी थी. मैं ने खुद को दोतरफा मजबूत पाया. एक तो हमारे समाज में लड़कियों को इस तरह

के कर्मकांडों से दूर रखा जाता है, मगर मैं ने और मेरी बहनों ने मिल कर ये सारे काम किए थे. तब मैं सिर्फ 19 साल की थी.

‘‘पापा की अर्थी को कंधा देने वाली बात मैं लोगों के सामने पहली बार कर रही हूं, क्योंकि वे बहुत ही निजी और भावुक पल थे.  मगर हां, उस के बाद मेरे अंदर एक अलग तरह की ताकत आ गई थी.’’

यह बात एक इंटरव्यू में फिल्म हीरोइन भूमि पेडनेकर ने कही थी, पर फिल्मी कतई नहीं थी. उन के इस भावुक संदेश से यह समझा जा सकता है कि हमारे देश में लड़कियों को खुद को बेहतर और हिम्मती साबित करने के लिए किस तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं. और अगर किसी गांवदेहात की लड़की की समाज में अपने दम पर की गई जद्दोजेहद को खंगालेंगे तो पता चल जाएगा कि उन्हें अपने मन की करने के लिए किस हद तक समाज से लड़ना पड़ता है.

इतना होने के बावजूद आज हमारे देश की लड़कियां उलट हालात में भी हर क्षेत्र में नाम कमा रही हैं. गांव की बहुत सी लड़कियों ने तो खेल, पुलिस, सेना, बड़ी सरकारी नौकरी और यहां तक कि नेतागीरी में मर्दों को भी पछाड़ दिया है.

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उत्तराखंड की सुमन सिंह रावत कुछ ऐसा ही काम कर रही हैं, जिसे करने के लिए बड़ा हौसला चाहिए. अब वे लखनऊ में रहती हैं. सड़क हादसों में घायल लोगों को अस्पताल पहुंचाती हैं, उन का इलाज कराती हैं और लावारिस लाशों का दाह संस्कार भी कराती हैं. यह काम वे पिछले 27 साल से खुद अपने दम पर कर रही हैं, कोई सरकारी मदद नहीं लेती हैं.

इसी तरह इलाहाबाद की ओम कुमारी सिंह अपनी चैतन्य वैलफेयर फाउंडेशन के जरीए गरीब बच्चों को पढ़ा रही हैं, जबकि ‘उद्गम’ संस्था चलाने वाली रुपाली श्रीवास्तव तेजाब से जलाई गई लड़कियों को सहारा देने का काम करती हैं.

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में लालगंज इलाके की आदिवासी औरतों ने 2 किलोमीटर लंबी नहर खोद कर गांवघर और खेतों तक पानी पहुंचा दिया है. इस से जंगलों में बेकार बह रहे पानी को काम में लाने से न केवल पीने के पानी की समस्या से नजात मिली है, बल्कि इलाके में जमीनी पानी का लैवल भी बढ़ गया है.

बैतूल जिले के गोपीनाथपुर गांव की 16 औरतों ने महज 2 साल में 3 तालाब खोद डाले, जिन में अब सालभर लबालब पानी भरा रहता है.

इन औरतों ने वसुंधरा महिला मंडल नाम से एक समूह बना कर रजिस्ट्रेशन करवाया और तालाब खुदाई में लग गईं. नतीजतन, आज ये सब इन तालाब के पानी से खेती कर रही हैं और साल में सब्जी से एक लाख से 2 लाख रुपए, फलों से भी तकरीबन 2 लाख रुपए और इतना ही मछलीपालन से कमा रही हैं.

बिहार में गोपालगंज हैडक्वार्टर से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर कुचायकोट ब्लौक के बरनैया गोखुल गांव की रहने वाली जैबुन्निसा को सब ‘ट्रैक्टर लेडी’ बुलाते हैं.

जैबुन्निसा बताती हैं कि साल 1998 में वे अपने एक रिश्तेदार के घर हरियाणा गई थीं और वहां उन्होंने टीवी पर एक कार्यक्रम देखा था जो केरल के किसी गांव के बारे में था. वहां की औरतें स्वयंसहायता समूह के बारे में बता रही थीं.

गांव आ कर जैबुन्निसा ने अपने गांव की औरतों से बात की और उन्हें उस कार्यक्रम के बारे में बताया. इस के बाद जैबुन्निसा ने अपना स्वयंसहायता समूह बनाया.

फिर जैबुन्निसा ने खुद से ट्रैक्टर चलाना सीखा और खेतों में काम करने लगीं. आज वे कड़ी मेहनत के बल पर सैकड़ों परिवारों में खुशहाली लाने में जुटी हुई हैं. गांव की 250 से ज्यादा औरतें आत्मनिर्भर हो कर अपने परिवार का पालनपोषण बेहतर ढंग से कर रही हैं.

ऐसी ही एक जुझारू लड़की रीटा शर्मा से मैं दिल्ली में मिला था. वैसे तो वे उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले की रहने वाली हैं, पर अब लखनऊ में रह कर समाजसेवा के ऐसे काम कर रही हैं, जिस में जान दांव पर लगा देने का भी जोखिम है.

रीटा शर्मा ने जब से अपनी पढ़ाई पूरी की थी, तब वहां बहुत ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं. तब लोग ऊंची पढ़ाई के लिए लखनऊ या दिल्ली का रुख करते थे. लड़कियों को तो जैसे जिले के बाहर अपनी मरजी की पढ़ाई करने की इजाजत ही नहीं थी.

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महाराजगांव की रीटा शर्मा ने अपनी 12वीं जमात तक की पढ़ाई बहराइच के आर्य कन्या इंटर कालेज से की थी. वे बीए तक हिंदी मीडियम से पढ़ी थीं.

रीटा शर्मा की गैरसरकारी संस्था ‘शक्तिस्वरूपा सेवा संस्थान’ में हर जरूरतमंद की मदद की जाती है. समाज को बेहतर बनाना, बेरोजगारों को रोजगार की ट्रेनिंग देना, जागरूकता मुहिम चलाना, अपनी हिफाजत की ट्रेनिंग देने के साथसाथ लोगों की कानूनी तौर पर मदद भी की जाती है.

एमबीए कर चुकी रीटा शर्मा अपहरण के कई मामलों में लड़कियों को बचा कर घर वापस लाई हैं. सब से अच्छी बात तो यह है कि वे इस काम को मुफ्त में करती हैं.

रीटा शर्मा ने बाराबंकी के जुलाई, 2017 के एक अपहरण कांड के बारे में बताया, ‘‘यह मामला एक 16-17 साल की लड़की का है. मैं अपने काम से अलीगंज, लखनऊ थाना गई थी. वहां मुझे कुरसी पर बैठने को कहा गया, जबकि वहीं पर जमीन पर एक गांव की औरत बैठी थी, जिस से वहां मौजूद पुलिस वाले मजाकिया या कहें तकरीबन बेहूदा भाषा में बात कर रहे थे.

‘‘आदतन मैं उस औरत से उस की परेशानी पूछ बैठी. उस औरत ने बताया कि उस की बेटी बाराबंकी से गांव की कुछ औरतों के साथ अलीगंज का बड़ा मंगल का मेला देखने आई थी, जहां से वह गायब हो गई है. उस का तकरीबन एक महीने से कोई अतापता नहीं है. एफआईआर हो गई थी, मगर कोई कार्यवाही नहीं हुई.

‘‘अभी कल ही एक नंबर से उसी लड़की का फोन आया है. लोगों की सलाह पर वह औरत नंबर ले कर थाने आई थी और अपनी बेटी को ढूंढ़ने की गुजारिश कर रही थी. इस केस का जांच अधिकारी ही उस से हंसीमजाक कर रहा था.

‘‘मैं ने मौके पर उस जांच अधिकारी से सवालजवाब किए और फिर उस औरत को क्षेत्राधिकारी डाक्टर मीनाक्षी से मिला कर बातचीत कराई, जहां उन्होंने नंबर को सर्विलांस पर लगाने और पता लगते ही जांच अधिकारी को जाने के लिए बोला.

‘‘थाने से बाहर आ कर मैं उस औरत के कागजात की फोटोकौपी और मोबाइल नंबर ले कर और अपना विजिटिंग कार्ड दे कर घर आ गई, मगर फिर भी मन में उस अनजान लड़की के लिए चिंता रह गई थी, जो न जाने किन हाथों में और कैसी हालत में थी.

‘‘रात को उस औरत को फोन कर  अगले दिन ही एसएसपी के औफिस में आने को कहा और पूरा केस पढ़ कर जब वहां मौजूद एसपी ग्रामीण डाक्टर सतीश कुमार को पूरी जानकारी दी, तो उन्होंने तुरंत थाने में फोन कर के स्टेटस लिया और आधे घंटे के भीतर ही पुलिस उस औरत के साथ मौजूदा लोकेशन के लिए निकल पड़ी.

‘‘कुछ समय बाद उस लड़की को सुरक्षित एक कारखाने के अंदर से एक लड़के के साथ बरामद किया गया, जिस ने लड़की को कैद कर रखा था. वह फोन नंबर पास रहने वाले एक आदमी का था, जिस ने शक होने पर मौका पा कर पूछताछ कर घर पर बात कराई थी.

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‘‘एक ईमानदार आईपीएस की बदौलत वह लड़की सुरक्षित मिली. केस चल रहा है.’’

एक और केस के बारे में रीटा शर्मा ने बताया कि महाराष्ट्र का रहने वाला मोहम्मद शाहिद पैसे कमाने के लिए 1 मार्च, 2018 को किसी एजेंट के जरीए कतर गया था, मगर कुछ दिन बाद उस ने अपनी पत्नी को फोन पर बताया कि वे लोग उस से बताए गए काम के बजाय मजदूरी करा रहे हैं और खानेपीने को भी नहीं दे रहे हैं. कुछ दिनों बाद उन्होंने फोन भी ले लिया था.

शाहिद की पत्नी और घर वालों ने हर किसी से मदद मांगी. प्रधानमंत्री के दफ्तर में चिट्ठी भी भेजी, मगर कोई जवाब नहीं आया. इस तरह मई का महीना आ गया.

मोहम्मद शाहिद की बहन को किसी ने मेरे बारे में बताया और मोबाइल नंबर दिया. बातचीत और पूरी जानकारी लेने के अलावा सोशल मीडिया के कुछ साथियों से और ज्यादा जानकारी लेने के बाद दोहा एंबैसी को ट्वीट और ईमेल किया. साथ ही, फोन पर बातचीत के बाद उन्होंने दी गई जानकारी के आधार पर जब जांच कराई तो पता चला कि केवल मोहम्मद शाहिद ही नहीं, बल्कि 2 और भारतीय इसी तरह धोखे से लाए गए थे.

लगातार संपर्क में रहने के बाद 13 जून, 2018 को एंबैसी ने सुरक्षित सभी भारतीयों को वापस भारत भेज दिया. सभी परिवार, जो महीनों से परेशान थे और उन से मदद के नाम पर भारीभरकम रकम मांगी जा रही थी, उन का सब काम ऐसे ही बिना रिश्वत दिए हो गया.

रीटा शर्मा बचपन से ही आईपीएस बनने का सपना देखती थीं. जब भी टैलीविजन पर आईपीएस किरण बेदी आती थीं, तो वे उन्हें बहुत ध्यान से देखती थीं, मगर बीए पास करने के बाद पिताजी आगे पढ़ने के लिए उन्हें इलाके से बाहर भेजने को तैयार न हुए. शायद समाज में हो रहे अपराध देख कर उन में बेटी को ले कर असुरक्षा की भावना थी.

बाद में पिताजी से जिद कर रीटा शर्मा ने एक प्राइवेट नौकरी शुरू की. फिर पिताजी की मौत के बाद एक आंटी की मदद से वे बिना पारिवारिक इजाजत के लखनऊ आ गईं और फिर शुरू हुआ जिंदगी की जद्दोजेहद भरा दूसरा दौर.

रीटा शर्मा ने नौकरी के साथ एमबीए किया. इस बीच कुछ निजी परेशानियों के चलते वे डिप्रैशन में आ गईं और उन के बाहर के काम करने पर रोक लग गई. काउंसलिंग और इलाज के दौरान अपना शौक पूरा करने के लिए उन्होंने एक गैरसरकारी संस्था खोल कर बेसहारा लोगों की मदद करने की सोची, वह भी उस वक्त जब उन्हें खुद मदद की जरूरत थी.

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25 दिसंबर, 2015 को इस संस्था का पहला प्रोग्राम जरूरतमंदों को कपड़े बांटने के साथ शुरू हुआ था. उन की इस मुहिम को आगे बढ़ाने में सोशल मीडिया को वे अहम कड़ी मानती हैं.

भविष्य की बात करें, तो रीटा शर्मा अब राजनीति के क्षेत्र में आ कर बड़े लैवल पर समाजसेवा करना चाहती हैं. उन का यह सपना कब और कैसे पूरा होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा, पर इतना तो पक्का है कि ऐसी जुझारू लड़कियां अपने बुलंद हौसलों से देश और समाज में पौजिटिव बदलाव लाने का माद्दा रखती हैं और एक छिपी नायिका की तरह उलझे हुए मामले अपनी सूझबूझ और हिम्मत से सुलझा कर कुछ लोगों की जिंदगियां खुशियों से भर देती हैं.

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