‘‘जब मेरे पापा गुजरे, तब उन का अंतिम संस्कार मैं ने ही किया था. उन की अर्थी को कंधा मैं ने ही दिया था. उस वक्त मैं ने खुद को बहुत मजबूत पाया था... पापा के जाने के बाद जिंदगी पहले जैसी कभी नहीं रही, मगर उस के बाद घर की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी थी. मैं ने खुद को दोतरफा मजबूत पाया. एक तो हमारे समाज में लड़कियों को इस तरह

के कर्मकांडों से दूर रखा जाता है, मगर मैं ने और मेरी बहनों ने मिल कर ये सारे काम किए थे. तब मैं सिर्फ 19 साल की थी.

‘‘पापा की अर्थी को कंधा देने वाली बात मैं लोगों के सामने पहली बार कर रही हूं, क्योंकि वे बहुत ही निजी और भावुक पल थे.  मगर हां, उस के बाद मेरे अंदर एक अलग तरह की ताकत आ गई थी.’’

यह बात एक इंटरव्यू में फिल्म हीरोइन भूमि पेडनेकर ने कही थी, पर फिल्मी कतई नहीं थी. उन के इस भावुक संदेश से यह समझा जा सकता है कि हमारे देश में लड़कियों को खुद को बेहतर और हिम्मती साबित करने के लिए किस तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं. और अगर किसी गांवदेहात की लड़की की समाज में अपने दम पर की गई जद्दोजेहद को खंगालेंगे तो पता चल जाएगा कि उन्हें अपने मन की करने के लिए किस हद तक समाज से लड़ना पड़ता है.

इतना होने के बावजूद आज हमारे देश की लड़कियां उलट हालात में भी हर क्षेत्र में नाम कमा रही हैं. गांव की बहुत सी लड़कियों ने तो खेल, पुलिस, सेना, बड़ी सरकारी नौकरी और यहां तक कि नेतागीरी में मर्दों को भी पछाड़ दिया है.

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