Anjana Singh ने कोरोन वायरस का कहर देखते हुए सरकार से की रिक्वेस्ट, कहीं ये बात

देशभर में कोरोना के वायरस का कहर देखते हुए लोग केन्द्र सरकार से सम्पूर्ण लॉकडाउन का मांग कर रहे हैं. अब खबर यह आ रही है कि भोजपुरी इंडस्ट्री की फेमस एक्ट्रेस अंजना सिंह ने भी सरकार से एक बार फिर पूर्ण लॉकडाउन लगाने की रिक्वेस्ट की है.

अंजना सिंह ने अपने सभी फैंस से घर पर रहने का आग्रह किया है. एक्ट्रेस ने यह भी बताया है कि कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों को देखने के बाद फिल्मों की शूटिंग एक बार फिर रद्द कर दी गई हैं. कई चीजें पेंडिंग रहेगा.

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खबर यह आ रही है कि अंजना सिंह ने सभी से कहा है कि वो जितना हो सके अपने घरों में ही रहें. एक्ट्रेस ने कहा, ‘मैं सभी से अनुरोध करती हूं कि घर पर रहें और अगर कोई वास्तविक कारण नहीं है तो बाहर कदम ना रखें.

एक्ट्रेस ने फैंस से ये भी बताया कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर अधिक खतरनाक है. इसलिए मैं सभी से घर पर रहने का अनुरोध करती हूं. उन्होंने आगे कहा कि सरकार को लोगों की सुरक्षा के लिए फिर से लॉकडाउन लागू करना चाहिए.

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कोरोना: देश में “संयुक्त सरकार” का गठन हो!

इस महामारी से एकजुट हो कर जूझने के लिए जरूरत आ पड़ी है, देश में ‘संयुक्त सरकार’ का गठन हो.

क्या वाकई देश में ‘संयुक्त सरकार’ बनाने की जरूरत आ पड़ी है?

देश में कोरोना को ले कर जो हालात बन चुके हैं, वह दिल दहला रहे हैं. कहीं रेमडेसीविर इंजेक्शन नहीं है, कहीं औक्सीजन गैस नहीं है, कहीं बेड नहीं है, तो कहीं एंबुलेंस नहीं है.

लाशों को भी श्मशान घाट में जगह नहीं मिल पा रही है. उसे देख कर लगता है कि देश में मैडिकल इमर्जेंसी नहीं, बल्कि संयुक्त सरकार का गठन किया जाना चाहिए .

देश के गंभीर हालात पर देश भले ही मौन है, मगर देश के बाहर तमाम आलोचना हो रही है. आस्ट्रेलिया के प्रमुख अखबार ‘फाइनेंशियल रिव्यू’ ने प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट डेविड रो का एक कार्टून छापा है- “पस्त हाथी पर मौत की सवारी.”

इस कार्टून में भारत को एक हाथी का प्रतीक दिखाया गया है, जो मरणासन्न है और प्रधानमंत्री मोदी अपने सिंहासन पर निश्चिंत शान से बैठे हुए हैं.

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देश और दुनिया में इस तरह की आलोचना से अच्छा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं देश के मुखिया होने के नाते सामने आ कर देश में सभी महत्वपूर्ण दलों के प्रमुख नेताओं को ले कर संयुक्त सरकार का गठन की घोषणा कर के देश को बचा सकते हैं. जैसे ही हालात में सुधार हो, देश पुनः अपने राजनीतिक रंगरूप में आगे बढ़ने लगे.

वस्तुत: कोरोना का कहर देश के लगभग सभी राज्यों में बिजली बन कर टूटा है. देश का सब से बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश हो या महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश हो या राजस्थान, दिल्ली हो या दक्षिण भारत के प्रदेश सभी जगह कोविड-19 के कारण स्वास्थ्य संकट खड़ा हो गया है और शासनप्रशासन की धज्जियां उड़ रही हैं. लगता ही नहीं कि कहीं कोई व्यवस्था सुचारु रूप से चल रही है. अस्पतालों के बद से बदतर हालात वायरल वीडियो के रूप में देश देख रहा है. जीवनरक्षक दवाएं नहीं मिल पा रही हैं और अगर ये कहीं मिल भी रही हैं, तो कालाबाजारी में लाखों रुपए लोगों को देने पड़ रहे हैं.

जिस तरह कोरोना महासंकट के कारण हालात बेकाबू हो गए हैं और संभले नहीं संभल रहा है. उन्हें देख कर लगता है कि तत्काल प्रभाव से देशहित मे संयुक्त राष्टीय सरकार को देश को सौंप देना चाहिए.

औक्सीजन का ही एक मसला अगर हम देखें तो पाते हैं कि देश के हर कोने में त्राहिमामत्राहिमाम मची हुई है. कहीं औक्सीजन नहीं है, तो कहीं औक्सीजन होने पर उसे अनट्रेंड लोग संचालित कर रहे हैं और न जाने कितने मरीज सिर्फ लापरवाही से मर गए. कई जगहों पर तो औक्सीजन लीकेज के कारण आग लग गई और बेवजह लोग मर गए.

औक्सीजन का वितरण भी देशभर में सुचारु रूप से नहीं हो पा रहा है. सवाल है कि आखिर इस का दोषी कौन है? शासनप्रशासन आखिर कहां है? ऐसी गंभीर हालत को देख कर कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी को देश को जो दिशा देनी चाहिए, उसे नहीं दे पा रहे हैं. चहुं ओर अव्यवस्था का आलम बन गया है, इसलिए जितनी जल्दी हो सके, देश अगर संयुक्त राष्ट्रीय सरकार काम संभाल ले तो कोरोना संकट से नजात शीघ्र मिलने की संभावना है .

देश में महामारी का आलम है. भयंकर हो चुके कोरोना के कारण सरकारें ‘मौतों का हत्याकांड’ कर रही हैं यानी आंकड़े छिपाए जा रहे हैं.

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छत्तीसगढ़ से औक्सीजन लखनऊ, उत्तर प्रदेश भेजा जा रहा है. और कहीं का औक्सीजन कहीं सत्ता की धौंस दिखा कर रोक लिया जा रहा है. लोग इस आपाधापी में बेवजह ही मर रहे हैं. ऐसे गंभीर हालात बन गए हैं. जमाखोरी और महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ चुकी है. शासन महंगाई को रोक नहीं पा रहा है और जमाखोरी कर के लोग आम लोगों को दोनों हाथों से लूट रहे हैं. लगता है, देश में शासन नहीं है. देश अराजकता की ओर बढ़ चुका है. जिसे जितनी जल्दी हो सके, व्यवस्थित करने के लिए संयुक्त सरकार बनाना इस दृष्टिकोण से उचित प्रतीत होता है क्योंकि इसी संवैधानिक माध्यम से देश में एक रूप से शासन संभव होगा और देश कोरोना से लड़ पाएगा.

और दुनिया चिंतित हो उठी है…

जिस तरीके से कोरोना की रफ्तार बढ़ रही है, आने वाले समय में प्रतिदिन 5 लाख कोरोना मरीज मिलने लगेंगे तो हालात और भी गंभीर हो जाएंगे. स्थिति में सुधार का क्या प्रयास हो रहा है? यह देशदुनिया की जनता को दिखाई नहीं दे रहा है. स्थिति विषम होते हुए ही दिखाई दे रही है.

यहां सब से महत्वपूर्ण तथ्य है कि कोविड-19 की तबाही भयावह मंजर को, भारत के गंभीर हालात को दुनिया देख रही है और उसे देख कर के चिंतित है. और आगे आ कर के हाथ बंटाना चाहती है पाकिस्तान, चीन जैसे शत्रु राष्ट्रों के अलावा यूरोपीय संघ, जरमनी, ईरान ने भारत के गंभीर हालात को देख कर के सहायता देने की पेशकश की है. वहीं रूस और अमेरिका भी सामने आ गया है, क्योंकि आज भारत के कारण दुनिया को ‘मानवता संकट’ में दिखाई देने लगी है.
अनेक देश भारत को इस महामारी से बचाने के लिए पहल कर रहे हैं. ऐसे हालात को देख कर के कहा जा सकता है कि जब दुनिया चिंतित है, तो सीधा सा अर्थ है कि भारत की वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी की मोदी सरकार असफल सिद्ध हो रही है. हालात यही बने रहे तो कहा जा रहा है कि आने वाला समय और भी भयावह होगा.

हमारे यहां विगत दिनों सब से मजाक भरा फैसला यह रहा कि कोरोना वैक्सीन 3 दरों पर खरीदने का ऐलान किया गया. केंद्र सरकार स्वयं 150 रुपए में और राज्यों को 600 रुपए में वैक्सीन बेचने का फरमान जारी हुआ, जो सरकार के दिवालियापन का ही सुबूत है.

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गंभीर हालत का इस बात से भी पता चलता है कि दुनिया के कई देशों ने भारत से अपनी आवाजाही को रोक दिया है. भारत के कई बड़े पैसे वाले अपनी जान बचाने की खातिर देश छोड़ कर भाग चुके हैं.

यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि भारत में हुई मौतों पर अमेरिका जैसे देश मान रहे हैं कि भारत में जो आंकड़े सरकार बता रही है, उस से दोगुना से 5 गुना तक मौतें हो रही हैं, जिन्हें छुपाया जा रहा है.

ऐसे में अगर देश को मैडिकल इमर्जेंसी से बचाने के लिए यथाशीघ्र ही एक राष्ट्रीय सरकार बननी चाहिए, तभी देश में एक रूप में शासन व्यवस्था होने पर लोगों की जान बचेगी, अन्यथा आने वाले समय में जो भयंकर मंजर होगा, उस के कारण लोग देश की शासन व्यवस्था और शासन में बैठे हुए लोगों को कभी भी माफ नहीं कर पाएंगे. इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आग्रह है कि अपना अहम छोड़ कर सभी राष्ट्रीय दलों को साथ ले कर देश के प्रमुख अर्थशास्त्री, न्यायविद, चिकित्सक, सामाजिक विभूति को आगे ला कर एक ‘राष्ट्रीय संयुक्त सरकार’ बनाएं और उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा देते हुए देश को नेतृत्व देने का काम किया जाना चाहिए.

लाला रामदेव: कोरोनिल को ना उगल पा रहे, ना निगल

आज बाबा रामदेव का आश्रम कोरोना पॉजिटिव मरीजों को लेकर  देश दुनिया में चर्चा में आ गया है. सौ के आसपास मरीज पॉजिटिव मिलने के बाद हड़कंप है. वहीं बाबा रामदेव से  जैसी अपेक्षा थी उनका स्वभाव देश जानता है, उन्होंने साफ कह दिया है कि यह झूठी खबरें हैं, अफवाहबाजी है.

आज यह सवाल है कि क्या बाबा रामदेव अपने ही  बुने हुए कोरोनिल के जाल में तो नहीं फंस गए हैं ? उन्होंने बड़ी ही चालाकी दिखाते हुए जब दुनिया में कोरोना संक्रमण फैला हुआ था 1 वर्ष पूर्व ही कोरोनिल का ईजाद करके अपनी पीठ थपथपाई थी.

अगर देश में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर नहीं आती भयावह मंजर देश नहीं देखता तो शायद रामदेव बाबा यह भी कहते कि देखो! मेरी बनाई “कोरोनिल”  से कोरोना भाग गया.

वर्तमान भारत सरकार में बैठे प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी से उनकी गलबहियां सार्वजनिक है. कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में उनका एक बड़ा योगदान देश ने देखा है. ऐसे में बाबा रामदेव “लाला” बन कर कोरोना कोविड 19 जैसी संक्रमण कारी बीमारी का इलाज और दवाई बनाने का दावा करने लगे, यही नहीं दवाई आज पूरे देश में हर शहर मेडिकल दुकानों में उपलब्ध है. जिसे बड़ी शान के साथ यह कह करके बेचा गया कि इसका इस्तेमाल करने से आप सुरक्षित रहेंगे. देश की भोली-भाली जनता आंख बंद करके उन्हें अपना आराध्य पूज्य मानने वाले लोग उन्हें गेरूए कपड़ा पहने हुए और लंबी दाढ़ी के कारण साधु संत त्यागी  समझ कर के लोग उनकी बात का अक्षरश: पालन करने लगे, परिणाम स्वरूप करोड़ों रुपए रामदेव बाबा ने कोरोनील के नाम पर अपनी गांठ में दबा लिए.

अब कोरोना पलट करके उनके ही आश्रम, योगपीठ में दस्तक दे रहा है और बाबा बगले झांकने को मजबूर हैं. ऐसे हालात बन गए हैं कि उन्हें न तो उगलते बन रहा है और न निगलते.

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पतंजलि योगपीठ और कोरोना

आज यह चर्चा का विषय बन गया है कि हरिद्वार में बाबा रामदेव का पतंजलि योगपीठ  कोरोना विस्फोट का केंद्र है. यहां 83 लोग कोरोना संक्रमित पाए गए है. सभी संक्रमतों का आइसोलेट कर दिया गया है. कहा जा रहा है अब बाबा रामदेव की भी कोरोना जांच की जा सकती है. मगर समय बीता जा रहा है उनकी जांच की रिपोर्ट इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नहीं आई है, जो यह सवाल खड़ा करती है कि क्या रामदेव कोई विशिष्ट प्राणी है जिनकी कोरोना जांच नहीं होगी ? बड़ी संख्या में कोरोना संक्रमित मिलने के बाद जिला प्रशासन को चाहिए कि संशय को मिटाते हुए आश्रम के सभी लोगों का कोरोना टेस्ट करके जो कोरोना पॉजिटिव हैं उनका इलाज प्रारंभ करें. क्योंकि कोरोना को किसी भी तरह से छुपाना गंभीर परिणाम ला सकता है.

दरअसल, पंतजलि योगपीठ के कई संस्थानों में  कोरोना संक्रमित मिल रहे हैं. हरिद्वार सीएमओ डॉ. शंभू झा के मुताबिक 10 अप्रैल से अब तक पंतजलि योगपीठ आचार्यकुलम और योग ग्राम में  कोरोना पॉजिटिव मिल चुके हैं. इन संक्रमितों को पतंजलि परिसर में ही आइसोलेट किया गया है.

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बाबा रामदेव अपने कथनी और करनी में हमेशा से अलग अलग दिखाई देते हैं. वे जो कहते हैं वह करते नहीं हैं और करते हैं वैसा कहते नहीं है. आज इस वैश्विक महामारी के समय में जो गंभीरता समझदारी बाबा रामदेव के आचरण में दिखाई देनी चाहिए वह नहीं दिखाई देती. अपने इन्हीं व्यवहार के कारण , जो ऊंचाई रामदेव बाबा ने प्राप्त की थी विगत 10 वर्षों में धराशायी होती दिख रही है.

बाबा रामदेव का सम्मान और प्रभाव धीरे-धीरे खत्म हो रहा है. आज कोरोना कोविड-19 के इस समय में क़रोनिल ला करके अपनी साख दांव पर लगा दी है , उन्होंने अपने आपको चक्रव्यूह में डाल दिया है जहां से बचकर निकलना अभिमन्यु के लिए भी संभव नहीं हुआ था.

न ताली, न थाली: लौकडाउन से मुकरे मोदी

केंद्र सरकार अब प्रदेशों का बोझ नहीं उठाना चाहती है. इस वजह से प्रदेशों को लौकडाउन का फैसला लेने की आजादी दे दी है.

एक साल पहले जिस लौकडाउन यानी तालाबंदी को केंद्र की मोदी सरकार कोरोना को रोकने का सब से मारक हथियार मान रही थी, कोरोना को रोकने के लिए ताली और थाली बजाने का काम करा रही थी, अब कोरोना की दूसरी लहर को रोकने के लिए मोदी सरकार पुराने टोटके आजमाने से बच रही है. एक साल बाद अब केंद्र सरकार लौकडाउन की पौलिसी पर खुद फैसला नहीं लेना चाहती है.

हालात ये हैं कि जब उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट ने राजधानी लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी, कानपुर और गोरखपुर को 26 अप्रैल, 2021 तक लौकडाउन करने का आदेश दिया तब उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने लौकडाउन करने से इनकार कर दिया. योगी सरकार ने कहा कि लौकडाउन से रोजीरोटी का संकट पैदा हो जाएगा. सरकार को प्रदेश के लोगों की जिंदगी के साथसाथ रोजीरोटी भी बचानी है.

ठीक एक साल पहले 2020 के मार्च महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लौकडाउन की शुरुआत ‘जनता कर्फ्यू’ से की थी. इस के बाद धीरेधीरे 3 महीने तक का पूरा लौकडाउन चला था. सरकार का मानना था कि लौकडाउन से ही कोरोना को रोकने में मदद मिलेगी.

एक साल बाद सरकार अपने फैसले पर ही अमल करने को तैयार नहीं है. इस से 2 बातें साफ होती हैं कि या तो पिछले साल लौकडाउन का फैसला सही नहीं था, बिना किसी आधार के लिए लिया गया था या इस साल लौकडाउन न कर के कोरोना सकंट को बढ़ाने का काम किया जा रहा है. कोर्ट के कहने के बाद भी सरकार हठधर्मी से काम कर रही है.

हाईकोर्ट का तर्क

इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा और अजित कुमार की खंडपीठ ने जनहित याचिका पर सनवाई करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को 26 अप्रैल, 2021 तक के लिए 5 शहरों लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी, कानपुर और गोरखपुर में लौकडाउन करने को कहा. कोर्ट ने कहा, ‘लोग सड़कों पर बिना मास्क के घूम रहे हैं. पुलिस 100 फीसदी मास्क लागू करने में नाकाम है. संक्रमण लगातार बढ़ता जा रहा है. अस्पतालों में दवा और औक्सीजन की भारी कमी है. लोग दवा और इलाज के बगैर दम तोड़ रहे हैं. सरकार ने कोई फौरी योजना नहीं बनाई है. न ही पूर्व में कोई तैयारी की है. डाक्टर, मैडिकल स्टाफ, मुख्यमंत्री तक संक्रमित हैं. मरीज इलाज के लिए अस्पतालों में दौड़ लगा रहे हैं.’

हाईकोर्ट ने सरकार से युद्ध स्तर पर आपदा से निबटने के लिए काम करने को कहा है. कोर्ट ने प्रयागराज का उदाहरण देते हुए कहा कि यहां 30 लाख की आबादी है. 12 अस्पतालों में 1977 बिस्तर और 514 आईसीयू हैं. इस से पता चलता है कि केवल 5 फीसदी लोगों को ही इलाज देने की व्यवस्था है. लखनऊ में बिस्तर काफी कम हैं. हर 5वें घर में सर्दीजुकाम से पीड़ित लोग हैं. जांच नहीं हो पा रही है. कोर्ट ने कहा कि वीआईपी लोगों की रिपोर्ट 12 घंटे में आ रही है, पर आम आदमी को 3 दिन बाद तक जांच रिपोर्ट मिल रही है.

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तीखी टिप्पणियां

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश  सरकार को आईना दिखाते हुए तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि आप के पास खानेपीने की चीजों से भरी किराना की दुकान हो या बाइक और कार से भरे शोरूम, अगर दवा की दुकान खाली है, रेमेडीसीवर जैसी जीवनरक्षक दवाएं नहीं मिल रही हैं तो इन चीजों का कोई उपयोग नहीं है.

हाईकोर्ट ने आगे कहा कि संक्रमण की चेन बन गई है. यह और आबादी को चपेट में ले इस से पहले कठोर कदम उठा कर उस को तोड़ना होगा. कोविड अस्पतालों में सुविधाएं नहीं हैं. पिछले एक साल में सरकार ने कोविड से निबटने के लिए कोई तैयारी नहीं की है.

पर हाईकोर्ट की तीखी टिप्पणी के बाद भी उत्तर प्रदेश सरकार ने लौकडाउन लगाने का फैसला नहीं लिया. उत्तर प्रदेश में लौकडाउन के नाम पर योगी सरकार ने रविवार को ‘वीकऐंड लौकडाउन’ की घोषणा पहले से ही कर रखी है. इस के अलावा रात 8 बजे से सुबह 7 बजे तक पूरे प्रदेश में लौकडाउन रहता है. इस को ‘नाइट कर्फ्यू’ कहा जाता है.

योगी सरकार के इस कदम के बाद भी उत्तर प्रदेश में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है. इस उपाय को फेल होते देख कर ही हाईकोर्ट ने 26 अप्रैल, 2021 तक पूरी तरह से लौकडाउन की बात कही थी, जिस पर सरकार ने अमल नहीं किया.

चलन में है ‘वीकऐंड लौकडाउन’

पूरे भारत में ‘आंशिक लौकडाउन’ और ‘वीकऐंड लौकडाउन’ लगाने का काम चल रहा है. महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, दिल्ली सभी प्रदेशों में लौकडाउन के फैसले वहां की प्रदेश सरकारें ले रही हैं. दिल्ली में एक हफ्ते का लौकडाउन होते ही लोगों में दिल्ली से पलायन की होड़ लग गई. बसअड्डे भर गए. बसों की कमी हो गई. महाराष्ट्र में पूरे साल ही ‘आंशिक लौकडाउन’ लगा रहा, जिस की वजह से वहां ज्यादा अफरातफरी नहीं हो रही है.

लौकडाउन पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आते ही लोग सड़कों पर उतर कर जरूरी सामान की खरीदारी करने लगे हैं, जिस से सामान की कमी होने लगती है. पिछले साल लौकडाउन होने पर केवल खानेपीने की चीजों की ही खरीदारी हो रही थी. इस साल दवाओं की भी खरीदारी होने लगी है.

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लौकडाउन लगने का सब से गलत असर यह होता है कि जमाखोरी बढ़ जाती है. जरूरी चीजों के दाम बढ़ जाते हैं. लौकडाउन लगने का फायदा यह होता है कि लोगों का इधर से उधर जाना कम हो जाता है, जिस की वजह से संक्रमण फैलने का खतरा कम हो जाता है. लौकडाउन से आर्थिक हालात खराब होते हैं. सरकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है. इस वजह से सरकार लौकडाउन से बच रही है और केंद्र सरकार लौकडाउन लगाने का फैसला प्रदेश सरकारों पर छोड़ रही है, जिस से केंद्र सरकार पर आर्थिक बोझ न पडे.

कोरोना अवसाद और हमारी समझदारी

छत्तीसगढ़ सहित संपूर्ण देश में कोराना कोविड-19 से हालात बदतर होते दिखाई दे रहे हैं. छत्तीसगढ़ के भिलाई में एक कोरोना मरीज ने अवसाद में  आकर के आत्महत्या कर ली. इसी तरह एक युवती ने भी आर्थिक हालातों को देखते हुए  कोरोनावायरस पाज़िटिव होने के बाद आत्महत्या कर ली.

कोरोना के भयावह  हालात  की खबरें टीवी, सोशल मीडिया पर गैरजिम्मेदाराना रवैये के साथ  दिखाई जा रही है. जबकि इस सशक्त माध्यम का उपयोग लोगों को साहस बंधाने और जागरूक करने के लिए किया जा सकता है.

दरअसल, आत्महत्या की जो घटनाएं सामने आ रही है, उसका कारण है लोग अवसाद ग्रस्त हो ऐसे कदम उठा रहे हैं. जो समाज के लिए चिंता का सबब  है.

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इस समय में हमें किस तरह अवसाद से बचना हैऔर बचाना है और लोगों को अवसाद से निकालना है….  इस गंभीर मसले पर, इस रिपोर्ट में हम चर्चा कर रहे हैं.

कोरोना काल के इस संक्रमण कारी समय में देखा जा रहा है कि समस्या निरंतर गंभीर होती जा रही है. लॉकडाउन को ही लीजिए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस तरह की पाबंदियां कोरोना- 2 के इस समय काल में लगाई गई हैं वैसी पिछली दफा नहीं थी. चिकित्सालय और सरकारी व्यवस्था भी धीरे धीरे तार तार होते दिखाई दे रहे हैं.

ऐसी परिस्थितियों में जब आज अमानवीयता का दौर है. हर एक जागरूक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने आसपास सकारात्मक उर्जा का संचार करें और लोगों के लिए सहायक बन कर उदाहरण बन जाए.

यह घटना एक सबक है

छत्तीसगढ़ के इस्पात नगरी कहे जाने वाले भिलाई के एक अस्पताल में भर्ती कोरोना के एक मरीज ने अस्पताल की खिड़की से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली.

घटना भिलाई स्थित जामुल थाना क्षेत्र के अंतर्गत एक अस्पताल में घटित हुई. 14 अप्रैल 2021की बीती रात   अस्पताल के  कोविड मरीज ने “बीमारी” से तंग आकर आत्मघाती कदम उठा लिया. घटना की सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंची और मामले की विवेचना कर रही है  जामुल पुलिस ने हमारे संवाददाता को बताया कि आत्महत्या करने वाला  शख्स जामुल के एक अस्पताल में 11 अप्रैल से भर्ती था.उसकी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई थी और इलाज चल रहा था. मृतक का नाम ईश्वर विश्वकर्मा है और वह धमधा नगर का रहने वाला है. उसने  अपने वार्ड की खिड़की से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली. पुलिस ने बताया कि अस्पताल प्रबंधन से घटना की सूचना मिली. इसके बाद अस्पताल पहुंचकर मर्ग कायम कर स्वास्थ्य कर्मियों और डॉक्टर से पूछताछ जारी है.

जैसा कि हम जानते हैं ऐसे गंभीर आत्मघात  के मामलों में भी पुलिस की अपनी एक सीमा है. पुलिस औपचारिकता निभाते हुए मामले  की फाइल को आगे  बंद कर देगी. मगर विवेक शील समाज में यह प्रश्न तो उठना ही चाहिए कि आखिर ईश्वर विश्वकर्मा ने आत्महत्या क्यों की क्या ऐसे कारण थे जो उसे आत्म घाट का कदम उठाना पड़ा और ऐसा क्या हो आगामी समय में कोई कोरोना पेशेंट आत्महत्या न करें. समाज और सरकार दोनों की ही जिम्मेदारी है कि हम संवेदनशील हो और अपने आसपास सकारात्मक कार्य अवश्य करें, हो सकता है आप के इस कदम से किसी को संबल मिले और जीने का हौसला भी.

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मीडिया की ताकत को दिशा !

कोरोना कोविड19 के इस समय काल में देश का राष्ट्रीय और स्थानीय मीडिया चाहे वह इलेक्ट्रॉनिक हो अथवा प्रिंट मीडिया ऐसा प्रतीत होता है कि अपने दायित्व से पीछे हट गया है. अथवा वह भूल चुका है कि उसकी ताकत आखिर कहां है.

जिस तरह आज राष्ट्रीय और स्थानीय मीडिया में इस समय खबरें दिखाई जा रहे हैं… और हर पल बार-बार भयावह रूप में दिखाई जा रही है. जिसके कारण लोगों में एक भय का वातावरण निर्मित होता चला जा रहा है. मीडिया का यह परम कर्तव्य है कि खराब से खराब समय में भी अच्छाई को सामने लाते हुए उसे विस्तार से दिखाएं ताकि लोगों में जनचेतना जागता का वातावरण बने. हिंदी और तेलुगु कि कवि डॉक्टर टी. महादेव राव के मुताबिक पूर्व में मीडिया का ऐसा रुख नहीं था, आज मीडिया जिस तरह अपनी ताकत को भूल कर रास्ते से भटक गई है वह समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय है. आज मीडिया को चाहिए कि वह लोगों में यह जागरूकता पैदा करें कि हम किस तरह इस महामारी से बच सकते हैं, इसकी जगह लोगों को मौत के आंकड़े और श्मशान घाट के भयावह हालत दिखाकर अखिर मीडिया कैसी भूमिका निभा रहा है.

चिकित्सक डॉक्टर जी आर पंजवानी के मुताबिक महामारी के इस समय में हम जितना हो सके बेहतर से बेहतर काम करें और लोगों को सकारात्मक ऊर्जा से भर दें यही हमारा प्रथम दायित्व होना चाहिए.

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Lockdown Returns: आखिर पिछले बुरे अनुभव से सरकार कुछ सीख क्यों नहीं रहीं?

भले अभी साल 2020 जैसी स्थितियां न पैदा हुई हों, सड़कों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों में भले अभी पिछले साल जैसी अफरा तफरी न दिख रही हो. लेकिन प्रवासी मजदूरों को न सिर्फ लाॅकडाउन की दोबारा से लगने की शंका ने परेशान कर रखा है बल्कि मुंबई और दिल्ली से देश के दूसरे हिस्सों की तरफ जाने वाली ट्रेनों में देखें तो तमाम कोविड प्रोटोकाॅल को तोड़ते हुए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी है. पिछले एक हफ्ते के अंदर गुड़गांव, दिल्ली, गाजियाबाद से ही करीब 20 हजार से ज्यादा मजदूर फिर से लाॅकडाउन लग जाने की आशंका के चलते अपने गांवों की तरफ कूच कर गये हैं. मुंबई, पुणे, लुधियाना और भोपाल से भी बड़े पैमाने पर मजदूरों का फिर से पलायन शुरु हो गया है. माना जा रहा है कि अभी तक यानी 1 अप्रैल से 10 अप्रैल 2021 के बीच मंुबई से बाहर करीब 3200 लोग गये हैं, जो कोरोना के पहले से सामान्य दिनों से कम, लेकिन कोरोना के बाद के दिनों से करीब 20 फीसदी ज्यादा है. इससे साफ पता चल रहा है कि मुंबई से पलायन शुरु हो गया है. सूरत, बड़ौदा और अहमदाबाद में आशंकाएं इससे कहीं ज्यादा गहरी हैं.

सवाल है जब पिछले साल का बेहद हृदयविदारक अनुभव सरकार के पास है तो फिर उस रोशनी में कोई सबक क्यों सीख रही? इस बार भी वैसी ही स्थितियां क्यों बनायी जा रही हैं? क्यों आगे आकर प्रधानमंत्री स्पष्टता के साथ यह नहीं कह रहे कि लाॅकडाउन नहीं लगेगा, चाहे प्रतिबंध और कितने ही कड़े क्यों न करने पड़ंे? लोगों को लगता है कि अब लाॅकडाउन लगना मुश्किल है, लेकिन जब महाराष्ट्र और दिल्ली के खुद मुख्यमंत्री कह रहे हों कि स्थितियां बिगड़ी तो इसके अलावा और कोई चारा नहीं हैं, तो फिर लोगों में दहशत क्यों न पैदा हो? जिस तरह पिछले साल लाॅकडाउन में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा हुई थी, उसको देखते हुए क्यों न प्रवासी मजदूर डरें ?

पिछले साल इन दिनों लाखों की तादाद में प्रवासी मजदूर तपती धूप व गर्मी में भूखे-प्यासे पैदल ही अपने गांवों की तरफ भागे जा रहे थे, इनके हृदयविदारक पलायन की ये तस्वीरें अभी भी जहन से निकली नहीं हैं. पिछले साल मजदूरों ने लाॅकडाउन में क्या क्या नहीं झेला. ट्रेन की पटरियों में ही थककर सो जाने की निराशा से लेकर गाजर मूली की तरह कट जाने की हृदयविदारक हादसों का वह हिस्सा बनीं. हालांकि लग रहा था जिस तरह उन्होंने यह सब भुगता है, शायद कई सालों तक वापस शहर न आएं, लेकिन मजदूरों के पास इस तरह की सुविधा नहीं होती. यही वजह है कि दिसम्बर 2020 व जनवरी 2021 में शहरों में एक बार फिर से प्रवासी मजदूर लौटने लगे या इसके लिए विवश हो गये. लेकिन इतना जल्दी उन्हें अपना फैसला गलत लगने लगा है. एक बार फिर से वे पलायन के लिए विवश हो रहे हैं.

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प्रवासी मजदूरों के इस पलायन को हर हाल में रोकना होगा. अगर हम ऐसा नहीं कर पाये किसी भी वजह से तो चकनाचूर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना सालों के लिए मुश्किल हो जायेगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार लगातार छह सप्ताह से कोविड-19 संक्रमण व मौतों में ग्लोबल वृद्धि हो रही है, पिछले 11 दिनों में पहले के मुकाबले 11 से 12 फीसदी मौतों में इजाफा हुआ है. नये कोरोना वायरस के नये स्ट्रेन से विश्व का कोई क्षेत्र नहीं बचा, जो इसकी चपेट में न आ गया हो. पहली लहर में जो कई देश इससे आंशिक रूप से बचे हुए थे, अब वहां भी इसका प्रकोप जबरदस्त रूप से बढ़ गया है, मसलन थाईलैंड और न्यूजीलैंड. भारत में भी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के डाटा के अनुसार संक्रमण के एक्टिव केस लगभग 13 लाख हो गये हैं और कुछ दिनों से तो रोजाना ही संक्रमण के एक लाख से अधिक नये मामले सामने आ रहे हैं.

जिन देशों में टीकाकरण ने कुछ गति पकड़ी है, उनमें भी संक्रमण, अस्पतालों में भर्ती होने और मौतों का ग्राफ निरंतर ऊपर जा रहा है, इसलिए उन देशों में स्थितियां और चिंताजनक हैं जिनमें टीकाकरण अभी दूर का स्वप्न है. कोविड-19 संक्रमितों से अस्पताल इतने भर गये हैं कि अन्य रोगियों को जगह नहीं मिल पा रही है. साथ ही हिंदुस्तान में कई प्रांतों दुर्भाग्य से जो कि गैर भाजपा शासित हैं, वैक्सीन किल्लत झेल रहे हैं. हालांकि सरकार इस बात को मानने को तैयार नहीं. लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उधव ठाकरे तक सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि उनके यहां महज दो दिन के लिए वैक्सीन बची है और नया कोटा 15 के बाद जारी होगा.

हालांकि सरकार ने इस बीच न सिर्फ कोरोना वैक्सीनों के फिलहाल निर्यात पर रोक लगा दी है बल्कि कई ऐसी दूसरी सहायक दवाईयों पर भी निर्यात पर प्रतिबंध लग रहा है, जिनके बारे में समझा जाता है कि वे कोरोना से इलाज में सहायक हैं. हालांकि भारत में टीकाकरण शुरुआत के पहले 85 दिनों में 10 करोड़ लोगों को कोविड-19 के टीके लगाये गये हैं. लेकिन अभी भी 80 फीसदी भारतीयों को टीके की जद में लाने के लिए अगले साल जुलाई, अगस्त तक यह कवायद बिना रोक टोक के जारी रखनी पड़ेगी. हालांकि हमारे यहां कोरोना वैक्सीनों को लेकर चिंता की बात यह भी है कि टीकाकरण के बाद भी लोग न केवल संक्रमित हुए हैं बल्कि मर भी रहे हैं.

31 मार्च को नेशनल एईएफआई (एडवर्स इवेंट फोलोइंग इम्यूनाइजेश्न) कमेटी के समक्ष दिए गये प्रेजेंटेशन में कहा गया है कि उस समय तक टीकाकरण के बाद 180 मौतें हुईं, जिनमें से तीन-चैथाई मौतें शॉट लेने के तीन दिन के भीतर हुईं. बहरहाल, इस बढ़ती लहर को रोकने के लिए तीन टी (टेस्ट, ट्रैक, ट्रीट), सावधानी (मास्क, देह से दूरी व नियमित हाथ धोने) और टीकाकरण के अतिरिक्त जो तरीके अपनाये जा रहे हैं, उनमें धारा 144 (सार्वजनिक स्थलों पर चार या उससे अधिक व्यक्तियों का एकत्र न होना), नाईट कर्फ्यू सप्ताहांत पर लॉकडाउन, विवाह व मय्यतों में निर्धारित संख्या में लोगों की उपस्थिति, स्कूल व कॉलेजों को बंद करना आदि शामिल हैं. लेकिन खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन का बयान है कि नाईट कफर््यू से कोरोनावायरस नियंत्रित नहीं होता है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे ‘कोरोना कफर््यू’ का नाम दे रहे हैं ताकि लोग कोरोना से डरें व लापरवाह होना बंद करें (यह खैर अलग बहस है कि यही बात चुनावी रैलियों व रोड शो पर लागू नहीं है).

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महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे का कहना है कि राज्य का स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर करने के लिए दो या तीन सप्ताह का ‘पूर्ण लॉकडाउन’ बहुत आवश्यक है. जबकि डब्लूएचओ की प्रवक्ता डा. मार्गरेट हैरिस का कहना है कि कोविड-19 के नये वैरिएंटस और देशों व लोगों के लॉकडाउन से जल्द निकल आने की वजह से संक्रमण दर में वृद्धि हो रही है. दरअसल, नाईट कफर््यू व लॉकडाउन का भय ही प्रवासी मजदूरों को फिर से पलायन करने के लिए मजबूर कर रहा है. नया कोरोनावायरस महामारी को बेहतर स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर और मंत्रियों से लेकर आम नागरिक तक कोविड प्रोटोकॉल्स का पालन करने से ही नियंत्रित किया जा सकता है.

लेकिन सरकारें लोगों के मूवमेंट पर पाबंदी लगाकर इसे रोकना चाहती हैं, जोकि संभव नहीं है जैसा कि पिछले साल के असफल अनुभव से जाहिर है. अतार्किक पाबंदियों से कोविड तो नियंत्रित होता नहीं है, उल्टे गंभीर आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाते हैं, खासकर गरीब व मध्यवर्ग के लिए. लॉकडाउन के पाखंड तो प्रवासी मजदूरों के लिए जुल्म हैं, क्रूर हैं. कार्यस्थलों के बंद हो जाने से गरीब प्रवासी मजदूरों का शहरों में रहना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है, खासकर इसलिए कि उनकी आय के स्रोत बंद हो जाते हैं और जिन ढाबों पर वह भोजन करते हैं उनके बंद होने से वह दाल-रोटी के लिए भी तरसने लगते हैं.

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आंदोलन दंगा और मीडियागीरी

26जनवरी, 2021 से पहले दिल्ली के बौर्डर पर कुहरे की तरह जमा दिखने वाला किसान आंदोलन भीतर ही भीतर उबलते दूध सा खौल रहा था. ऊपर आई मलाई के भीतर क्या खदक रहा था, यह किसी को अंदाजा तक नहीं था.

गणतंत्र दिवस पर एक तरफ जहां देश परेड में सेना की बढ़ती ताकत से रूबरू हो रहा था, वहीं दूसरी तरफ किसानों की ‘ट्रैक्टर परेड’ दिल्ली में हलचल मचाने को उतावली दिख रही थी.

इस के बाद जो दिल्ली में हुआ, वह दुनिया ने देखा. लालकिला, आईटीओ और समयपुर बादली पर किसान और पुलिस आमनेसामने थे. किसान संगठनों ने पुलिस और पुलिस ने किसानों में घुसे दंगाइयों पर इलजाम लगाया.

‘ट्रैक्टर परेड’ की हिंसा पर दिल्ली पुलिस ऐक्शन में दिखी. 33 मुकदमों में दंगा, हत्या का प्रयास और आपराधिक साजिश की धाराएं लगाई गईं. किसान नेता राकेश टिकैत, योगेंद्र यादव और मेधा पाटकर समेत कई लोगों को नामजद किया गया.

इतना ही नहीं, दिल्ली पुलिस की स्पैशल सैल ने सिख फौर जस्टिस के खिलाफ यूएपीए और देशद्रोह की धाराओं में मामला दर्ज किया.

इस किसान आंदोलन से एक सवाल भी उठा कि अगर लोकतंत्र में किसी को भी शांति के साथ अपनी बात आंदोलन के जरीए रखने का हक है, तो सरकार उसे कैसे हैंडल करती है? यह भी देखने वाली बात होती है कि इस सब से जुड़ी खबरों को जनता के पास कैसे पहुंचाना है, इस में मीडिया की कितनी और कैसी जिम्मेदारी होनी चाहिए?

किसी आंदोलन को दंगे में बदलते ज्यादा देर नहीं लगती है, यह दुनिया ने 26 जनवरी को दिल्ली में देखा. इस में गलती किस की थी, यह तो आने वाले समय में सामने आ जाएगा, पर इस या इस से पहले हुए किसी भी दंगे को मीडिया ने कैसे कवर किया, इस पर भी ध्यान देना बड़ा जरूरी है, क्योंकि यह बड़ा ही संवेदनशील मामला जो होता है. जरा सी चूक हुई नहीं कि खुद मीडिया ही दंगे में आग में घी डालने का काम कर देता है.

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ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 28 जनवरी, 2021 को तबलीगी जमात मामले में हुई मीडिया रिपोर्टिंग पर केंद्र सरकार की खिंचाई कर दी थी. उस ने कहा था कि उकसाने वाले टैलीविजन प्रोग्राम रोकने के लिए सरकार कुछ भी कदम नहीं उठा रही है.

सुप्रीम कोर्ट ने 26 जनवरी पर 3 कृषि कानूनों के विरोध में हुई हिंसा के बाद इंटरनैट सेवा बंद किए जाने के मामले का जिक्र करते हुए कहा था कि निष्पक्ष और ईमानदार रिपोर्टिंग करने की जरूरत है. समस्या तब पैदा होती है, जब इस का इस्तेमाल उकसाने के लिए किया जाता है.

याद रहे कि लौकडाउन के दौरान तबलीगी जमात के बारे में हुई मीडिया रिपोर्टिंग पर जमीअत उलेमा ए हिंद ने याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि कुछ टैलीविजन चैनलों ने निजामुद्दीन मरकज की घटना से जुड़ी फर्जी खबरें दिखाई थीं.

कोर्ट ने इस याचिका पर केंद्र सरकार से कहा था कि वह बताए कि आखिर इस तरह की खबरों से निबटने के लिए वह क्या कदम उठाएगी.

जब से दुनियाभर में सोशल मीडिया ने अपनी जड़ें जमाई हैं, तब से मोबाइल फोन के कैमरों से ऐसेऐसे सच सामने आए हैं, जिन को जनता के सामने पेश होना भी चाहिए या नहीं, यह एक बड़ा गंभीर सवाल है. अब तो ‘औफ द रिकौर्ड’ वाली बात ही खबर है, क्योंकि वह सनसनीखेज ज्यादा होती है. पर यह सनसनी समाज के सामने कैसे पेश करनी है, इस की जिम्मेदारी कोई लेने को तैयार नहीं है.

कुछ समय पीछे जाएं तो पता चलेगा कि तब अखबारों और पत्रिकाओं में लिखे हुए शब्दों को लोग बड़ी गंभीरता से लेते थे. किसी आंदोलन और दंगे के समय तो प्रैस की आचार संहिता का कड़ाई से पालन किया जाता था. दंगे में हुई हिंसा में शामिल और शिकार समुदाय की पहचान और तादाद नहीं बताई जाती थी.

पर आज जैसे ही इन बातों का खुलासा होता है कि फलां जगह हुई हिंसा में एक समुदाय ने दूसरे समुदाय को इतना नुकसान पंहुचाया, उस से लोगों में बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया होती है. इस से दंगा खत्म होने के बजाय बढ़ जाता है या बढ़ने के चांस होते हैं.

हालिया रिंकू शर्मा हत्याकांड में दिल्ली में 2 समुदायों के बीच नफरत फैलाने में सोशल मीडिया में तैरते वे वीडियो भी कम कुसूरवार नहीं हैं, जिन में इस हत्याकांड से जुड़े फुटेज थे. ऐसे फुटेज पुलिस को मामले की तह में जाने के लिए तो मददगार साबित होते हैं, पर जब वे वीडियो मीडिया दुनिया को दिखाता है तो बात गंभीर हो जाती है.

मामला तब और ज्यादा पेचीदा हो जाता है, जब मीडिया और सरकार का गठजोड़ हो जाता है. इस में मीडिया वालों के अपने निजी फायदे, धार्मिक पूर्वाग्रह और सांप्रदायिक पक्षपात बड़ी तेजी से काम करते हैं.

यह ‘गोदी मीडिया’ शब्द सब के सामने यों ही नहीं आया है. दिल्ली के शाहीन बाग में धरने पर बैठे लोगों ने खास सोच के टैलीविजन चैनलों को अपने पास फटकने नहीं दिया था, क्योंकि उन के मुताबिक वे चैनल सरकारी एजेंडा के मद्देनजर उन के धरने को कमजोर करने की साजिश कर रहे थे. यही सब हालिया चल रहे किसान आंदोलन में भी देखने को मिला है.

कठघरे में खबरची

किसी संवेदनशील खबर को कैसे जनता के सामने पेश करना है और उस से जुड़े फोटो या वीडियो को दिखाना भी है या नहीं, इस की सम झ किसी पत्रकार को तभी आ सकती है, जब उसे इस बात की ट्रेनिंग मिली हुई हो. सब से पहले खबर देने के चक्कर में बड़ेबड़े पत्रकार भी इन बातों की अनदेखी कर देते हैं. सब से बड़ा जुर्म तो सुनीसुनाई बातों के आधार पर खबर बना देना होता है.

अगर आप को 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका में हुआ आतंकी हमला याद है, तो यहां यह बता देना बड़ा जरूरी है कि इस में हजारों लोगों की जान चली गई थी. इस के बावजूद सीएनएन, बीबीसी, फौक्स न्यूज और दूसरे बड़े मीडिया चैनलों ने इस घटना में मारे गए लोगों की क्षतविक्षत लाशों को नहीं दिखाया था.

भारत में ऐसी संवेदनशीलता की कमी दिखती है. न्यायमूर्ति पीबी सावंत (आप भारतीय प्रैस परिषद के अध्यक्ष रहे थे) ने 23 मार्च, 2002 के राष्ट्रीय सहारा अखबार के ‘हस्तक्षेप’ में ‘दंगा और मीडिया’ विषय पर अपने एक लेख में गुजरात दंगे पर लिखा था, ‘गुजरात के ताजा हालात में गुजराती के कई अखबारों ने ऐसी खबरें छापीं, जिन से कम होने के बदले दंगा और बढ़ता गया.’

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गोधरा की घटना के बाद अखबारों ने सरकार के साथ मिल कर हिंदू समुदाय की भावनाओं को भड़काने में मुख्य भूमिका निभाई. वहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘स्टार’ चैनल की आलोचना की, क्योंकि यह चैनल सरकारी मशीनरी की विफलता और दंगों में स्थानीय पुलिस की भागीदारी को बेनकाब कर रहा था. दूसरी ओर ‘आजतक’ की तारीफ की, क्योंकि यह चैनल जिस कंपनी का है, वह इस समय दक्षिणपंथी रु झान को प्रश्रय दे रही है.’

इलैक्ट्रौनिक मीडिया में तो टीआरपी में कैसे सब को पछाड़ना है, यह सोच हावी हो जाती है. बड़े पत्रकार भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं. ‘रिपब्लिक टीवी’ के एडिटर इन चीफ अरनब गोस्वामी पर टीवी रेटिंग एजेंसी बार्क के सीईओ रह चुके पार्थ दासगुप्ता ने इलजाम लगाया था कि फर्जी टीआरपी मामले में उन्हें 40 लाख रुपए की रिश्वत दी गई थी.

सब से खतरनाक हालात तब होते हैं, जब कोई केस कोर्ट में चल रहा हो, तब मीडिया अपना खुद का विश्लेषण, गवाही और नतीजा बता कर एक समानांतर केस चलाने लगे, जिस आम जनता खुद आरोपियों को कुसूरवार या बेकुसूर मानने लगे, तो इसे ‘मीडिया ट्रायल’ कहा जाता है.

फिल्म कलाकार सुशांत सिंह राजपूत के खुदकुशी मामले में यह ‘मीडिया ट्रायल’ अपनी हद पर दिखा था. इस के चलते किसी शख्स को होने वाले नुकसान को सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से लेते हुए कहा कि इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है.

आपराधिक मामलों में मीडिया की रिपोर्टिंग को ले कर दिशानिर्देश जारी करने पर भी बड़ी अदालत ने विचार करने का फैसला लिया है.

चीफ जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि किसी आपराधिक मामले में एफआईआर दर्ज की जाती है और आरोपियों को गिरफ्तार किया जाता है. पुलिस संवाददाता सम्मेलन कर आरोपियों को मीडिया के सामने पेश करती है. इस आधार पर मीडिया में आरोपियों के बारे में खबरें चलती हैं, लेकिन अगर बाद में आरोपी बेकुसूर साबित हो जाता है, तब तक  उस शख्स की साख पर बट्टा लग चुका होता है.

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इस तरह की खबरें मीडिया की विश्वसनीयता को कम करती हैं. अपने फायदे के लिए खबरों को गढ़ना, उन में मिर्चमसाला लगाना, आंदोलनकारी को दंगाई दिखाना ऐसा अपराध है, जो समाज को बांटता है, उस में नफरत के बीज बोता है और देश को उस अराजकता की तरफ धकेल देता है, जो हर तरफ जहर ही फैलाती है.

याद रखिए कि मीडिया का काम समाज की त्रुटियों और विसंगतियों को जनता के सामने पेश करना होता है, पर उसे वक्त की नजाकत को भांप कर रिपोर्टिंग करनी चाहिए. सच को पेश करना भी एक कला है, जिस में पत्रकार की निडरता के साथसाथ उस की निष्पक्षता का तालमेल होना बहुत  जरूरी है. कम से कम संवेदनशील मामलों में तो इस बात का खास खयाल रखना चाहिए.

महीनों बाद वैनिटी वैन में नजर आई भोजपुरी एक्ट्रेस रानी चटर्जी, सोशल मीडिया पर शेयर की Video

कोरोना वायरस (Corona Virus) जैसी महामारी के चलते लगाए गए लॉकडाउन (Lockdown) की वजह से सभी फिल्मों और सीरियल्स की शूटिंग बंद थी और तो और पूरे देख भर के सिनेमा हॉल भी बंद देखने को मिले. इसी कड़ी में सभी एक्टर्स और एक्ट्रेसेस इतने समय से अपने घर से ही अपने फैंस को एंटरटेन करते दिखाई दिए. सोशल मीडिया के जरिए अपनी फोटोज और वीडियो शेयर कर सभी कलाकार फैंस के एंटरटेनमेंट का पूरा ध्यान रख रहे थे.

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अब जो कि भारत सरकार ने लॉकडाउन के बाद अनलॉक 1 (Unlock 1) और अनलॉक 2 (Unlock 2) में नई गाइडलाइंस की घोषणा की थी तो इसी के चलते अब फिल्मों और सीरियल्स की शूटिंग भी शुरू हो गई है. इसी कड़ी में भोजपुरी इंडस्ट्री (Bhojpuri Industry) की जानी मानी एक्ट्रेस रानी चटर्जी (Rani Chatterjee) इतने समय बाद अपनी वैनिटी वैन में दिखाई दी. रानी चटर्जी ने अपने औफिशियल इंस्टाग्राम अकाउंट (Official Instagram Account) पर अपनी एक फोटो और वीडियो शेयर की है जिसमें वे अपनी वैनिटी वैन में मस्ती करती नजर आ रही हैं.

 

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I am the queen of my world #queen #life #actorlife🎬🎥 #noteasy

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रानी चटर्जी (Rani Chatterjee) अपनी इस फोटो में हमेशा की तरह बेहद ही खूबसूरत लग रही हैं. रानी ने अपनी इस फोटो के कैप्शन में लिखा है कि,- “I am the queen of my world #queen #life #actorlife #noteasy”. इसी के साथ जो भोजपुरी एक्ट्रेस रानी चटर्जी ने अपनी वैनिटी वैन से वीडियो शेयर की थी उसमें वे एक गाने में डांस करती दिखाई दे रही हैं.

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इस वीडियो के कैप्शन में रानी चटर्जी (Rani Chatterjee) ने लिखा कि,- “आ गई हूं मैं रोपोसो एप पर इंडिया का ऐप है तो इंडिया का पैसा इंडिया में ही जाइए और मुझे फॉलो कीजिए #roposo #madebyindia”.

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आधार कार्ड और पास बुक रख हो रहा व्रत

लेखक- पंकज कुमार यादव

कोरोना महामारी भले ही देश पर दुनिया के लिए त्रासदी बन कर आई है, पर कुछ धूर्त लोगों के लिए यह मौका बन कर आई है और हमेशा से ही ये गिद्ध रूपी पोंगापंथी इसी मौके की तलाश में रहते हैं.

जैसे गिद्ध मरते हुए जानवर के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं, वैसे ही भूखे, नंगे, लाचार लोगों के बीच ये पोंगापंथी उन्हें नोचने को मंडराने लगते हैं. फिर मरता क्या नहीं करता की कहावत को सच करते हुए भूखे लोग, डरे हुए लोग कर्ज ले कर भी पोंगापंथियों का पेट भरने के लिए उतावले हो जाते हैं.

उन्हें लगता है कि ऐसा करने से उन का बीमार बेटा बीमारी से मुक्त हो जाएगा. उन का पति जो पिछले 5 दिनों से किसी तरह आधे पेट खा कर, पुलिस से डंडे खा कर नंगे पैर चला आ रहा है, वह सहीसलामत घर पहुंच जाएगा. फिर भी उन के साथ ऐसा कुछ नहीं होता है. पर कर्मकांड के नाम पर, लिए गए कर्ज का बोझ बढ़ना शुरू हो जाता है.

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कुछ ऐसी ही घटना कोरोना काल में झारखंड के गढ़वा जिले में घटी है. सैकड़ों औरतों के बीच यह अफवाह फैलाई गई कि मायके से साड़ी और पूजन सामग्री मंगा कर अपने आधारकार्ड और पासबुक के साथ सूर्य को अर्घ्य देने से उन के खाते में पैसे आ जाएंगे और कोरोना से मुक्ति भी मिल जाएगी.

यकीनन, इस तरह की अफवाह को बल वही देगा, जिसे अफवाह फैलाने से फायदा हो. इस पूरे मामले में साड़ी बेचने वाले, पूजन सामग्री, मिठाई बेचने वाले और पूजा कराने वाले पोंगापंथी की मिलीभगत है, क्योंकि इस अफवाह से सीधेसीधे इन लोगों को ही फायदा मिल रहा है.

इस अफवाह को बल मिलने के बाद रोजाना सैकड़ों औरतें इस एकदिवसीय छठ पर्व में भाग ले रही हैं. व्रतधारी सुनीता कुंवर, गौरी देवी, सूरती देवी ने बताया कि उन्हें नहीं पता कि किस के कहने पर वे व्रत कर रही हैं, पर उन के मायके से उन के भाई और पिता ने साड़ी और मिठाइयां भेजी हैं. क्योंकि गढ़वा जिले में ही उन के मायके में सभी लोगों ने पासबुक और आधारकार्ड रख कर सूर्य को अर्घ्य दिया है.

सब से चौंकाने वाली बात ये है कि इस अफवाह में सोशल डिस्टैंसिंग की धज्जियां उड़ गई हैं. सभी व्रतधारी औरतें एक लाइन से सटसट कर बैठती?हैं और पुरोहित पूजा करा रहे हैं.

सभी व्रतधारी औरतों में एक खास बात यह है कि वे सभी मजदूर, मेहनतकश और दलित, पिछड़े समाज से आती हैं. उन के मर्द पारिवारिक सदस्य इस काम में उन की बढ़चढ़ कर मदद कर रहे हैं.

एक व्रतधारी के पारिवारिक सदस्य बिगुन चौधरी का कहना है कि अफवाह हो या सच सूर्य को अर्घ्य देने में क्या जाता है.

प्रशासन इस अफवाह पर चुप है, जो काफी खतरनाक है, क्योंकि इस व्रत में वे औरतें भी शामिल हुई हैं, जो दिल्ली, मुंबई या पंजाब से वापस लौटी हैं और जिन पर कोरोना का खतरा हो सकता है.

प्रशासन ने भले ही अपना पल्ला झाड़ लिया हो, पर राज्य में जिस तरह से प्रवासी मजदूरों के आने से कोरोना के केस बढ़ रहे हैं तो चिंता की बात है, क्योंकि मानसिक बीमारी भले ही दलितों, पिछड़ों तक सीमित हो पर कोरोना महामारी सभी को अपना शिकार बनाती है.

सच तो यह है कि दिनरात मेहनत कर मजदूर बाहर से पैसा कमा कर तो आते हैं, पर किसी न किसी पाखंड का शिकार वे हमेशा हो जाते हैं, क्योंकि उन की पत्नी पहले से अमीर और बेहतर दिखाने के चक्कर में धार्मिक आयोजन कर अपने पति की गाढ़ी कमाई का पैसा बरबाद कर देती हैं.

उन्हें लगता है कि ऐसा कर के वे घंटे 2 घंटे ही सही सभी की नजर में आएंगी. वे उन पैसों का उपयोग अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा पर खर्च करना पैसों की बरबादी समझते हैं.

बदहाली में जी रहे उन के बुजुर्गों को अच्छे कपड़े, लजीज व्यंजन व दवा नसीब नहीं होती है, क्योंकि वे मान कर चलते हैं कि बुजुर्गों को खिलानेपिलाने से, नए कपड़े देने से क्या फायदा, जबकि धार्मिक आयोजनों से गांव का बड़ा आदमी भी उन्हें बड़ा समझेंगे.

ऐसे मौके का फायदा पोंगापंथी जरूर उठाते हैं. मेहनतकश मजदूरों को तो बस यही लगता है कि ऐसे धार्मिक आयोजन उन के मातापिता और पूर्वजों ने कभी नहीं किए. वे इस तरह के आयोजनों से फूले नहीं समाते. पर उन्हें क्या पता कि उन के पूर्वजों को धार्मिक आयोजन करना और इस तरह के आयोजन में भाग लेने से भी मना था.

ज्ञान और तकनीक के इस जमाने में जहां हर ओर पाखंड का चेहरा बेनकाब हो रहा है, वहीं आज भी लोग पाखंड के चंगुल में आ ही जा रहे हैं.

साल 2000 के बाद इस तरह की घटनाओं में कमी आ गई थी, क्योंकि दलितपिछड़ों के बच्चे पढ़ने लगे हैं. उन्हें भी आडंबर, अंधविश्वास और आस्था के बीच फर्क दिखाई देने लगा है.

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पर आज भी इस इलाके के दलितों और पिछड़ों के बच्चे स्कूलों में सिर्फ सरकार द्वारा दिए जा रहे मिड डे मील को खाने जाते हैं और जैसे ही बड़े होते हैं, अपने पिता के साथ कमाने के लिए दिल्ली, मुंबई और पंजाब निकल लेते हैं.

इन के बच्चे इसलिए भी नहीं पढ़ पाते हैं, क्योंकि उन को पढ़ाई का माहौल नहीं मिलता. वे सिर्फ बड़ा होने का इंतजार करते हैं, ताकि कमा सकें.

इसी वजह से आज भी इन इलाकों में प्रवासी मजदूरों की तादाद ज्यादा है. 90 के दशक में इन इलाकों में प्रिटिंग प्रैस वाले सस्ते परचे छपवा कर चौकचौराहे पर आतेजाते लोगों के हाथ में परचे थमा देते थे.

उस परचे पर लिखा होता था कि माता की कृपा से परचा आप को मिला है. आप इसे छपवा कर 200 लोगों में बंटवा दो, तो आप का जीवन बदल जाएगा. और अगर परचा फाड़ा या माता की बात की अनदेखी की तो 2 दिन के अंदर आप की या आप के बच्चे की दुर्घटना हो जाएगी.

डर के इस व्यापार में प्रिंटिंग प्रैस वालों ने खूब कमाई की. फिर मिठाई वाले और साड़ी बेचने वाले कैसे पीछे रह सकते थे. झारखंड के पलामू में इस तरह की घटना कोई नई बात नहीं है, बल्कि बहुत दिनों के बाद इस की वापसी हुई है इस नए रूप में. पर मौके का फायदा उठाने वाले लोग वे खास लोग ही हैं.

गांव में बेबस मजदूर

लौकडाउन का 3 महीने से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी सरकार प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के अलावा रोजगार का कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखा पाई है. एक मनरेगा योजना कितने मजदूरों का सहारा बन पाती?

ऐसे में गरीब लोगों का गांव से शहर की ओर जाना मजबूरी बन कर रह गया है. जिस शहर से भूखे, नंगे, प्यासे और डरे हुए लोग भागे थे, अब वे उन्हीं शहरों की ओर टकटकी लगा कर देख रहे हैं. रोजगार के तमाम दावों के बाद भी गांव लोगों का सहारा नहीं बन पाए हैं.

शहरों से वापस लौटते प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक तसवीरें अभी भी भुलाए नहीं भूल रही हैं. गांव आए ये मजदूर वापस शहर जाने की सोच भी सकते हैं, यह उम्मीद किसी को नहीं थी.

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गांव की बेकारी से परेशान प्रवासी मजदूर वापस अब शहरों की तरफ जाने के रास्ते तलाशने लगे हैं. अपने दर्द को भूल कर इन के कदम शहरों की तरफ बढ़ चुके हैं.

मजदूरों को गांव में रोकने और वहीं पर रोजगार देने के वादे पूरी तरह से  झूठे साबित हो गए हैं. बेकारी के हालात का शिकार लोगों के मन से अब कोरोना का डर भी पहले के मुकाबले कम हो चुका है. ऐसे में वे वापस शहर की ओर लौटने लगे हैं.

जान जोखिम में डाल कर गांव से शहर की तरफ मजदूरों के वापस आने की सब से बड़ी वजह जाति और गरीबी है. गांव में गरीब एससी और बीसी तबके के पास न खेती के लिए जमीन है और न ही रहने के लिए घर.

शहरों में थोड़ी सी सुविधाओं के लिए ये मजदूर कोरोना संकट में भी गांव से शहरों की तरफ मुड़ रहे हैं. शहरों में कोरोना का संकट खत्म नहीं हुआ है. मजबूरी में मजदूरों को शहरों की संकरी गलियों में बने दमघोंटू मकानों में ही रहना पड़ेगा. अब फैक्टरियों की मनमानी सहन करते हुए काम करना पड़ेगा.

कोरोना से बचाव के उपाय के नाम पर ज्यादातर फैक्टरियों में केवल दिखावा हो रहा है. दवाओं के छिड़काव से ले कर मास्क और सैनेटाइजर का इस्तेमाल दिखावा भर रह गया है.

बहुत सारे उपायों के बाद जब अस्पतालों में काम करने वाले डाक्टर कोरोना का शिकार हो रहे हैं, तो फैक्टरियों में काम करने वाले मजदूर कैसे बच पाएंगे? अब अगर इन मजदूरों को कोरोना हो गया, तो इन की देखभाल करने वाला भी नहीं मिलेगा.

कोरोना संकट ने शहरों में कमाई करने गए लोगों को ‘प्रवासी मजदूर’ बन कर वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया था. सरकार ने इन को रोजगार दिलाने के लिए मनरेगा का सहारा लिया.

मनरेगा योजना के अलावा सरकार के पास रोजगार देने का कोई दूसरा उपाय नहीं है. मनरेगा के अलावा गांव में गरीबों के पास दूसरा काम नहीं है. गांव के लोग नोटबंदी से परेशान थे. गांव में जमीनों के सौदे बंद हो चुके हैं. खेतों में काम करने वालों को मजदूरी नहीं मिल रही है. ज्यादा तादाद में प्रवासी मजदूरों के गांव वापस आने से बेरोजगार लोगों की आबादी बढ़ गई.

बेरोजगारी के अलावा गांव में सुखसुविधाओं और आजादी की भी कमी है. शहरी जिंदगी के आदी हो चुके लोग गांव में वापस तो आ गए थे, पर यहां रहना उन के लिए आसान नहीं रह गया था.

इस से बेकारी के बो झ से कराह रहे गांव और भी दब गए. परिवार के साथ वापस गांव रहने आए लोगों में उन की पत्नी और बच्चों का गांव में तालमेल नहीं बैठ रहा था. कई ने तो पहली बार गांव में इतने ज्यादा दिन बिताए हैं.

पहले होलीदीवाली वगैरह की छुट्टियों में जब ये लोग गांव आते थे, तो घरपरिवार का बरताव कुछ और ही होता था, पर अब यह बदला सा नजर आ रहा है. जिस सरकारी सुविधा के लालच में गांव आए थे, उस की पोल भी यहां खुल चुकी है.

बेकारी के बो झ ने परिवार के बीच तनाव को बढ़ा दिया है. अब ये लोग कोरोना संकट के बावजूद वापस किसी भी तरह से शहर जाने के लिए मजबूर हो गए हैं. प्रवासी मजदूरों के रूप में समाज से इन को जिस तरह की हमदर्दी मिली थी, अब उस की भी कमी है.

लखनऊ के रामपुर गांव में दिनेश का संयुक्त परिवार रहता है. मुंबई से लौकडाउन में गांव आए तो यह सोचा कि अब मुंबई नहीं जाएंगे. यहीं गांव के पास बाजार में कोई दुकान खोल कर काम करेंगे. दिनेश के साथ उस का एक छोटा भाई और बेटा भी काम करता था. अब सब बेरोजगार हो चुके हैं.

इन लोगों की पत्नियां भी मुंबई में रहती थीं. गांव आ कर वे संयुक्त परिवार में रहने लगी हैं. यहां घर में चूल्हे पर खाना बनाना पड़ता है. वैसे, घर में एक गैस का चूल्हा भी है, जिस का इस्तेमाल सिर्फ चाय बनाने के लिए होता है.

मुंबई में ये लोग गैस पर खाना बनाते  थे. अब देशी चूल्हे पर खाना बनाने में औरतों को दिक्कत हो रही है. दिनेश पर पत्नी का दबाव बढ़ने लगा है. मुंबई में दिनेश की फैक्टरी काम शुरू करने वाली है. दिनेश बताते हैं, ‘‘हमें गांव में रोजगार की कोई उम्मीद नहीं है. ऐसे में परिवार में तनाव बढ़ाने से अच्छा है कि हम सब को ले कर मुंबई वापस चले जाएं.’’

बढ़ गई आपसी होड़

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में खेतापुर गांव के रहने वाले रमेश चौरसिया 30 साल पहले गुजरात के सूरत में कमाई करने गए थे. गांव में उन के पास जमीन नहीं थी. गांव में केवल कच्चा घर बना था. वहां न तो कोई कामधंधा था और न ही किसी तरह की इज्जत मिल रही थी.

सूरत में कुछ साल कमाई करने के बाद रमेश ने गांव में पक्की छत और घर बनवा लिया. उन का पूरा परिवार धीरेधीरे सूरत पहुंच कर रहने लगा. रमेश के मांबाप और पत्नी ही गांव में रहते थे. दोनों बेटे रमेश के साथ ही काम करने लगे थे.

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लौकडाउन के दौरान जब रमेश और उन के दोनों बेटे अपने गांव आए, तो यहां रोजगार का कोई साधन नहीं था. मनरेगा योजना में दोनों बेटों को केवल 5-5 दिन काम करने का मौका मिला, जिस से उन को 1-1 हजार रुपए मिले, जो उन की जरूरत के हिसाब से काफी कम थे.

रमेश कहते हैं कि शहर और गांव के रहनसहन में बहुत फर्क है. ऐसे में यहां रहना आसान नहीं है. जिस बेकारी को दूर करने के लिए 30 साल पहले गांव छोड़ कर गए थे, वह अब भी यहां बनी हुई है. इस के अलावा गांव में आपसी लड़ाई झगड़े शहरों के मुकाबले ज्यादा हैं. बाहर से आने वाले लोगों के प्रति गांव के लोगों में कोई हमदर्दी नहीं है.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि इन लोगों के बाहर रहने से गांव के दूसरे लोग इन की जमीन और खेत का इस्तेमाल करते थे, पर अब इन के वापस गांव आने के बाद जमीन और खेत को छोड़ना उन के लिए मुश्किल हो गया है. ऐसे में आपस में तनाव बढ़ गया है.

अपनेअपने गांव से रोजीरोजगार, इज्जत और पैसों की तलाश में जो लोग कमाई करने परदेश गए थे, वे कोरोना के संकट में वापस अपने गांवघर आने को मजबूर हो गए. कोरोना संकट के समय में ‘प्रवासी मजदूर’ का नाम इन की पहचान बन गया.

सरकार की तरफ  से ऐसे दावे किए गए कि प्रवासी मजदूरों को रोजगार के पूरे साधन दिए जाएंगे, पर प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने के नाम पर मनरेगा के अलावा सरकार के पास कोई दूसरा साधन नहीं था.

मनरेगा में एक दिन की मजदूरी के लिए 200 रुपए की दिहाड़ी मिलती है. सरकार ने कोरोना संकट के समय में मनरेगा के काम को बढ़ाने की कोशिश की. प्रवासी मजदूरों के रूप में नए लोगों के गांव आ जाने से मनरेगा में रोजगार घट गया.

गांव में काम के सीमित साधन हैं. जिस गांव में एक काम को 10 लोग करते थे, उसी काम को करने के लिए जब 15 लोग मिल गए तो एक मजदूर के खाते में आने वाले दिनों की तादाद घट गई, जिस से मजदूर के कुल रोजगार के दिनों की तादाद भी घट गई. गांव में पहले से रहने वाले लोगों ने मजदूरी के दिन घटने के लिए इन प्रवासी मजदूरों को जिम्मेदार माना.

मनरेगा की बढ़ी जिम्मेदारी

मनरेगा यानी ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ को साल 2005 में लागू किया गया था. इस के जरीए देश के गांवों में रहने वाले मजदूरों को रोजगार दिया जाता है. पहले इस का नाम ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’ था. महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्तूबर, 2009 से इस को मनरेगा के नाम में बदल दिया गया.

इस योजना का मकसद वित्तीय वर्ष में किसी भी ग्रामीण परिवार के बालिग सदस्यों को 100 दिन का रोजगार मुहैया कराना था. मनरेगा से गांवों में तरक्की के रास्ते खुले थे और गांवों में लोगों की खरीदारी करने की ताकत बढ़ी थी.

इस योजना के तहत गांव में रहने वाली औरतों को भी रोजगार दिया जाता है. 2005 में मनरेगा को शुरू करने का काम कांग्रेस और वामपंथी दलों के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने किया था. फरवरी, 2006 में 200 जिलों से यह योजना शुरू की गई थी और साल 2008 तक यह योजना 593 जिलों में पहुंच गई.  मनमोहन सरकार के बाद साल 2014 में केंद्र में बनी मोदी सरकार ने मनरेगा को दरकिनार करने का काम किया था.

साल 2020 में जब कोरोना का संकट आया और पूरे देश में लौकडाउन किया गया. इस से शहरों से बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर अपनेअपने गांवों को लौटने के लिए मजबूर हुए.

उस समय सब से बड़ी समस्या गांवों में उन को रोजगार देने की आई. गांव में लोगों को रोजगार देने और ग्रामीणों को सहारा देने के लिए मोदी सरकार को उसी मनरेगा का सहारा लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिस की वह बुराई करती थी.

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मोदी सरकार ने मनरेगा के बजट में कटौती की थी. सरकार के समर्थक इस योजना को बेकारी बढ़ाने वाला मानते थे. मनरेगा का विरोध करने वाले मानते थे कि इस योजना से गांव में भ्रष्टाचार और बेकारी बढ़ रही है. इस की वजह पूरी तरह से राजनीतिक थी.

मनरेगा पर राजनीतिक लड़ाई

मनमोहन सरकार की मनरेगा योजना को मोदी सरकार ने कोई अहमियत नहीं दी. इस की वजह राजनीतिक थी. प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार की यह योजना जनता में लोकप्रिय हो गई थी और साल 2009 में भी जनता ने उन को वोट दे कर दोबारा सरकार बनाने की ताकत दे दी थी.

मनमोहन सरकार की जीत में मनरेगा का भी बड़ा हाथ माना जाता है. साल 2014 में केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार ने मनरेगा योजना को हाशिए पर ले जाने का काम किया. इस के बजट में कमी की गई और मनरेगा के होने पर  भी सवाल उठाने शुरू कर दिए. मनरेगा के अप्रभावी होने से भारत के ग्रामीण इलाकों में मंदी का दौर बढ़ने लगा.

बजट 2020-21 में मनरेगा के लिए 61,500 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया, जबकि 2019-20 में यह बजट 71,001.81 करोड़ रुपए था. महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का बजट तकरीबन 15 फीसदी तक घटा दिया है.

अर्थव्यवस्था की जो हालत है, उस के हिसाब से ग्रामीण क्षेत्रों में आमदनी और मांग बढ़ाए जाने की जरूरत है, लेकिन सरकार ने ग्रामीण विकास मंत्रालय के कुल बजट आवंटन को भी कम कर दिया. बजट 2019-20 का संशोधित अनुमान 1,22,649 करोड़ रुपए था, जबकि बजट 2020-21 में इसे घटा कर 1,20,147.19 करोड़ रुपए कर दिया गया है.

जानकार मानते हैं कि मनरेगा का बजट बढ़ेगा, तो ग्रामीणों तक पैसा पहुंचेगा और उन की अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकता है. मनरेगा के बजट में हर साल 20 फीसदी हिस्सा पुराने रुके हुए भुगतान को करने में निकल जाता है. मनरेगा के बजट में कटौती करने के बाद केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में मामूली बढ़ोतरी की.

साल 2019-20 के बजट में पीएमजीएसवाई के लिए 19,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था. 2020-21 के लिए 19,500 करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान लगाया गया.

पंचायती राज संस्थानों के बजट में भी मामूली सी बढ़ोतरी की गई.

2019-20 में पंचायती राज संस्थानों के लिए 871 करोड़ रुपए का अनुमान लगाया गया था. अब नए बजट में इसे बढ़ा कर 900 करोड़ कर दिया गया है.

गांव में नहीं रोजगार

प्रवासी मजदूरों को गांव में केवल मनरेगा में काम दे कर नहीं रोका जा सकता. गांव में बरसात के मौसम में कामधंधे पूरी तरह से बंद हो जाएंगे. ऐसे में मनरेगा के तहत मिलने वाला काम और भी कम हो जाएगा, जिस से गांव में फैली बेकारी और भी ज्यादा बढ़ जाएगी.

अपने खेतों में काम कर रहे सतीश पाल बताते हैं कि शहरों में जो सुविधा मिलती है, वह गांवों में नहीं है. बिजली और सड़क के बाद भी यहां पर अच्छी तरह से जिंदगी नहीं बिताई जा सकती है. खेतों में काम करने के बाद भी मुनाफा नहीं होता है.

नीलगाय द्वारा और दूसरी तरह के तमाम नुकसान के बाद भी जब फसल अच्छी हो भी जाए, तो उस की सही कीमत नहीं मिलती है. अभी तो सूरत में हमारी फैक्टरी वाले हमें बुला रहे हैं. अगर किसी और ने हमारा काम करना शुरू कर दिया तो वापस काम भी नहीं मिलेगा. ऐसे में कोरोना से डर कर गांव में रहने से अच्छा है कि सूरत में रह कर कोरोना से मुकाबला करें.

प्रवासी मजदूरों को अब लगता है कि शहरों में रहना और काम करना आसान है, जबकि गांव में कोरोना के डर से छिप कर रहना मुश्किल है. उस से आसान है कि शहर जा कर कोरोना से मुकाबला करते हुए रोजगार करें.

दिनेश को इस बात का भी डर है कि अगर फैक्टरियों में काम शुरू होने के बाद मजदूर नहीं पहुंचे तो दूसरे लोगों को काम मिल जाएगा. ऐसे में उन का रोजगार चला जाएगा.

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बहुत सारी उम्मीदों के साथ शहरों से गांव लौटे मजदूर गांव की बेकारी से डर कर वापस शहरों में जाना चाह रहे हैं. ऐसे में साफ है कि प्रवासी मजदूरों को गांव में रोकने के लिए सरकार ने जो दावे किए थे, वे सब फेल होते दिख रहे हैं.

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