व्हाट्सऐप ग्रुप में अश्लील मैसेज आए तो क्या करें

इंटरनैट ने जहां एक तरफ जीवन को आसान बनाया, वहीं दूसरी तरफ इस की खामियां भी सामने आई हैं. पहले जो मनचले लड़के गलीमहल्ले में स्कूलकालेज जाती लड़कियों को आतेजाते परेशान किया करते थे, अब वे सोशल मीडिया में परेशान करने लगे हैं.

लखनऊ के मडियांव थाना क्षेत्र के प्राइवेट स्कूल में औनलाइन पढ़ाई के लिए छात्रों द्वारा बनाए गए व्हाट्सऐप ग्रुप में एक छात्र अश्लील मैसेज भेज रहा था. एडिशनल कमिश्नर औफ पुलिस विवेक रंजन राय बताते हैं, ‘‘व्हाट्सऐप ग्रुप के अलावा यह छात्र स्कूल में ही कक्षा 8 की पढ़ने वाली लड़की के नंबर पर भी अश्लील मैसेज भेज रहा था. लड़की के मोबाइल पर फोन भी कर रहा था.’’

लड़की के परिवारजनों ने पुलिस को इस बात की शिकायत की थी जिस के बाद पुलिस की साइबर सैल ने पूरे मामले की विवेचना करनी शुरू की. विवेचना में पता चला कि इंटरनैट मैसेजिंग ऐप ‘टैक्स्ट नाउ’ के जरिए यह फोन कौल की जा रही थी. इंटरनैट के लिए वाईफाई का प्रयोग किया जा रहा था. जिस नंबर से मोबाइल को कनैक्ट कर के वाईफाई चलाया जा रहा था वह बच्चे की मां के नाम से रजिस्टर्ड था.’’

साइबर सैल ने मां के नंबर को देखा और बातचीत शुरू की तो पता चला कि बीएससी में पढ़ने वाला मोहम्मद सैफ यह काम कर रहा था. मोहम्मद सैफ ने अपने छोटे भाई के गु्रप में ये मैसेज भेजे और वहीं से पीडि़त लड़की का नंबर ले कर उस को भी मैसेज भेजने और कौल करने लगा. इंटरनैट मैसेजिंग ऐप ‘टैक्स्ट नाउ’ के जरिए फोन कौल करने से विदेशी नंबरों से कौल आती दिखती है. पुलिस ने आरोपी मोहम्मद सैफ को गिरफ्तार कर लिया.

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पीडि़त लड़की की मां कहती है, ‘‘औनलाइन पढ़ाई के दौरान व्हाट्सऐप गु्रप से लड़की का नंबर ले कर उस को मैसेज करना, कौल करना एक आम बात हो गई है. इस तरह की दिक्कतें तमाम पेरैंट्स और बच्चों के सामने आ रही हैं. संकोच और परेशानी से बचने के कारण पेरैंट्स इस बात को उठाते नहीं. कई बार बच्चे ही डर के कारण अपनी परेशानी बयान नहीं करते हैं.

‘‘हम ने सब से पहले यह शिकायत स्कूल के प्रबंध तंत्र से की. वहां से कहा गया कि यह मामला स्कूल के बाहर का है, ऐसे में हम कुछ नहीं कर सकते. जब स्कूल वालों ने पल्ला   झाड़ लिया तब हम थाने गए. वहां भी सही समाधान नहीं मिला. इस के बाद हम लखनऊ के पुलिस कमिश्नर के पास गए. वहां से मदद मिली और साइबर सैल को इस की जांच का काम दिया गया. आमतौर पर लोग इस तरह की परेशानी से बचने के लिए ही पुलिस में शिकायत करने से बचते हैं.’’

स्कूल ले जिम्मेदारी

पीडि़त लड़की की मां मोनिका मिश्रा कहती है, ‘‘जब स्कूल की औनलाइन पढ़ाई के दौरान वहां से नंबर ले कर या उसी ग्रुप में अश्लील मैसेज कोई भेज रहा हो तो स्कूल के टीचर और प्रबंधन को जिम्मेदारी लेनी चाहिए. आरोपी लड़के के पिता के दबाव में स्कूल खुद फैसला नहीं ले रहा था. आरोपी पक्ष किसी न किसी तरह से लड़की को ही दोषी ठहराने की कोशिश कर रहा था. जबकि लड़की पूरी तरह से अनजान थी. उस पर मानसिक दबाव पड़ रहा था. वह डिप्रैशन में जा रही थी. उस ने औनलाइन क्लास अटैंड करनी बंद कर दी थी. हम सब घर के लोग परेशान थे. स्कूल और पुलिस टालमटोल कर रहे थे. इस के बाद जब अधिकारियों से मिल कर शिकायत दर्ज कराई तब कहीं पुलिस ने कड़े कदम उठाए.

‘‘पुलिस को ऐसे मसलों में लड़की या उस के परिवार के लोगों की शिकायत पर आरोपी से पूछताछ करनी चाहिए. पुलिस और स्कूल अगर लड़कियों की मदद नहीं कर सकते तो उन को औनलाइन पढ़ाई के लिए ऐसे गु्रप्स नहीं बनाने चाहिए. औनलाइन के साथ ही साथ सोशल मीडिया का दौर बढ़ रहा है. ऐसे में साइबर सैल को और भी ऐक्टिव होना चाहिए ताकि पीडि़त पक्ष को न्याय के लिए दरदर भटकना न पड़े.’’

सोशल मीडिया पर रहें सावधान

सोशल मीडिया से लड़कियों के नंबर ले कर या फिर फेसबुक मैसेंजर पर तमाम तरह के मैसेज और कौल की जाने लगी है. जिन लड़कों के पास नंबर नहीं होते, वे फेसबुक के जरिए भी कौल करने लगते हैं. ऐसी शिकायतें बड़ी संख्या में मिल रही हैं. 108 नंबर की हैल्पलाइन में तैनात अर्चना सिंह बताती हैं, ‘‘लड़कियों और महिलाओं को ऐसे परेशान किया जाने लगा है. पुलिस के पास शिकायतें आ रही हैं. कुछ मामलों में यह ही नहीं पता चलता कि कौल कहां से और किस नंबर से की गई है. जिन मामलों में पुलिस नंबर तलाश लेती है वहां आरोपी पकड़ा जाता है. तमाम ऐप ऐसे आ गए हैं जिन के जरिए कौल करने में सही नंबर का पता करना मुश्किल हो जाता है.’’

अर्चना सिंह बताती हैं, ‘‘ऐसे मसलों से बचने के लिए जरूरी है कि लड़कियां बिना पहचान वाले लोगों को अपनी फ्रैंड लिस्ट में न जोडें़. अनजान लोग पहले फेसबुक और व्हाट्सऐप पर लड़कियों को फ्रैंडशिप रिक्वैस्ट भेजते हैं, फिर उन से जुड़ने के लिए प्रयास करते हैं. इस के बाद परेशान करना शुरू कर देते हैं. ऐसे हालात से बचने का एक ही तरीका है कि अनजान लोगों से दोस्ती न करें.

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लड़कियां डरें नहीं, सजग रहें

साइबर क्राइम में पीएचडी करने वाली डाक्टर दिव्या तंवर बताती हैं, ‘‘आने वाले दिनों में साइबर क्राइम हर तरह से बढ़ेगा. लड़कियों के साथ होने वाली परेशानियां इस का हिस्साभर हैं. फोन कौल और अश्लील मैसेज के साथ ही साथ लड़कियों के फोटो उन के प्रोफाइल से ले कर उन को किसी और के नग्न फोटो के साथ जोड़ने से ले कर पौर्न वीडियो में उन का फेस लगा कर बदनाम करने का काम किया जाता है.

‘‘सामान्यतौर पर किसी को यह पता नहीं चलता कि फोटो या वीडियो एडिट किया हुआ है. अगर कोई लड़की ऐसी हालत की शिकार होती है तो वह अपनी लिखित शिकायत पुलिस में दर्ज कराए. पुलिस मदद करेगी. आजकल इस तरह की शिकायतें औनलाइन भी दर्ज हो रही हैं.

‘‘अगर पुलिस बात नहीं सुनती तो उन पर सोशल मीडिया का दबाव बनने लगता है. बड़े अधिकारी मदद करते हैं. तमाम एनजीओ और मीडिया भी इस तरह से काम करते हैं कि गलत मैसेज या फोन करने वाला डरने लगता है. ऐसे में लड़कियां सजग रहें पर डरें नहीं. अपनी बात पेरैंट्स से कहें. वे बच्चों की मदद करते हैं. जब बच्चे बात को छिपाते हैं तो उन की दिक्ततें बढ़ने लगती हैं. ऐसे में जरूरी है कि लड़कियां डरें नहीं, सजग रहें. उन को परेशान करने वाला कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएगा.’’

बौयफ्रैंड पर भरोसा क्राइम नहीं

बौयफ्रैंड को ले कर समाज में एक गलत धारणा बन गई है कि बौयफ्रैंड लड़की के लिए अच्छा नहीं होता है. बौयफ्रैंड रखने वाली लड़कियों को गलत नजर से देखा जाता है. ऐसे में जिन लड़कियों के बौयफ्रैंड होते हैं वे अपराधबोध की भावना में रहती हैं, अपने बौयफ्रैंड को समाज के सामने लाने से कतराती हैं. इस की वजह यह होती है कि घरपरिवार और समाज को लगता है कि बौयफ्रैंड का मतलब यह होता है कि लड़की उस के साथ सैक्स संबंध बना सकती है.

समाज में शादी के पहले सैक्स की आजादी नहीं है. जरूरत इस बात की है कि सैक्स संबंध को बौयफ्रैंड से जोड़ कर न देखा जाए. बौयफ्रैंड को भी उसी नजर से देखा जाए जैसे 2 लड़कियों या 2 लड़कों की दोस्ती को देखा जाता है. बौयफ्रैंड का मतलब यह नहीं होता कि लड़कालड़की सैक्स संबंध बनाने को आजाद हो गए हैं.

समाज जब बौयफ्रैंड को सैक्स संबंधों के साथ जोड़ कर देखने लगता है तो लड़की के बारे में गलत धारणा बन जाती है. इसलिए लड़की में अपराधबोध हो जाता है और वह अपने बौयफ्रैंड को छिपाने लगती है. लड़की जब अपने बौयफ्रैंड को छिपाने लगती है तो कई तरह के अपराध हो जाते हैं. कुछ लड़कियों ने इस संबंध में अपने साथ हुई घटनाओं को बताया है, जिन के जरिए इस परेशानी को आसानी से सम  झा जा सकता है.

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दीपा आज बैंक में जौब करती है. वह बताती है, ‘‘मैं पहले गर्ल्स स्कूल में पढ़ती थी. मैं जब स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी कर के कालेज में पढ़ने के लिए गई तो पहली बार लड़कों को अपने क्लास में पढ़ते देखा. वहीं मेरी दोस्ती प्रताप के साथ हुई, जिसे आप मेरा बौयफ्रैंड कह सकते हैं. मेरी दोस्ती कई लड़कों से थी पर प्रताप कुछ खास था जिस से मैं निजी बातें शेयर करती थी.

‘‘एक दिन हम लोग होटल में खाना खाने गए. वहीं हमारे एक रिश्तेदार ने हमें देख लिया. मेरे घर तक यह बात पहुंच गई कि मैं अपने बौयफ्रैंड के साथ होटल गई थी. हम शहर के रहने वाले थे. इस के बाद भी मु  झे घर में पहुंच कर तमाम तरह की बातें सुननी पड़ीं. जैसे, मेरा पढ़ने में मन नहीं लग रहा, अब मेरी शादी हो जानी चाहिए, मैं अपना कैरियर खराब कर रही हूं वगैरहवगैरह. ऐसी न जाने कितनी बातें सुननी पड़ीं.

‘‘मैं दोतीन दिन कालेज नहीं गई. इस के बाद यह बात मैं ने अपनी टीचर को बताई. वे हम लोगों को मनोविज्ञान पढ़ाती थीं. उन्होंने मेरी बात को सम  झा, प्रताप से बात की. इस के बाद मेरे और प्रताप के पेरैंट्स को बुला कर बात की. सब को सम  झाया कि जैसा आप लोग सम  झ रहे हो, वैसा नहीं है. दोनों अच्छे दोस्त हैं.

‘‘मेरे और प्रताप के परिवार वालों ने बात को सम  झा. घर वालों का समर्थन मिला. तब हमारा भी हौसला बढ़ा. हम अपराधबोध की भावना से बाहर निकल आए. इस के बाद हम ने आगे की पढ़ाई पूरी की. प्रताप का मेरे घर आनाजाना हो गया. मैं उस के घर आनेजाने लगी. हमारे घर वालों को यह लगा कि शायद हम आपस में शादी भी कर सकते थे. लेकिन हम ने खुद कभी इस बारे में नहीं सोचा था.

‘‘हमारे बीच ऐसा कोई संबंध नहीं था. हम ने बैंक में नौकरी की और प्रताप सांइटिस्ट बन गया. हम ने अलगअलग शादी की. आज भी हम आपस में बहुत अच्छे दोस्त हैं. एकदूसरे से मिलते हैं. मैं सोचती हूं कि अगर हमारी मनोविज्ञान वाली टीचर ने सही तरह से रास्ता नहीं दिखाया होता तो शायद बौयफ्रैंड को ले कर अपराधबोध में फंस जाती और प्रताप जैसे अच्छे दोस्त को खो देती.’’

हर बौयफ्रैंड धोखा नहीं देता

यह बात सही है कि अधिकतर युवा इस उम्र में सैक्स के आकर्षण में एकदूसरे के करीब आते हैं. ऐसे में पेरैंट्स और टीचर की जिम्मेदारी यह होती है कि वे इस बारे में लड़कियों को सजग रखें. बौयफ्रैंड बनाने में दिक्कत नहीं है. दिक्कत तब होती है जब आपस में सैक्स संबंध बन जाते हैं और गलती से बिना शादी के गर्भ ठहर जाता है.

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लड़के और लड़कियों दोनों को ऐसे हालात से बचना चाहिए. अगर वे इस के प्रति सजग रहते हुए दोस्ती करते हैं तो बौयफ्रैंड रखने में कोई बुराई नहीं है. इस को ले कर लड़कियां अपराधबोध में न पड़ें. हर बौयफ्रैंड धोखा नहीं देता. जरूरत सजग रहने की होती है. कई बार लोग दोस्ती, रिश्तेदारी में धोखा खा जाते हैं. इस का मतलब यह नहीं होता कि वे दोस्ती, रिश्तेदारी करना छोड़ दें.

हमारे समाज में सैक्स शिक्षा का अभाव है. इस वजह से लड़कियां यह नहीं सम  झ पातीं कि उन को किस लैवल तक छूट देनी चाहिए. कई बार लड़कियां गलत संगत में पड़ जाती हैं, अपना बुराभला नहीं सम  झ पातीं. इस कारण वे गलती कर बैठती हैं. इस तरह की घटनाएं ज्यादातर नशे की हालत में होती हैं.

इस के अलावा जब बौयफ्रैंड का चुनाव करने में गलती हो जाए तो भी दिक्कत होती है. वैसे लड़कियों में एक ‘सिक्स्थ सैंस’ होती है, जो उन्हें गलत कदम उठाने से रोकती है. कई बार नशे या धोखे में लड़कियां इस सिक्स्थ सैंस के अलार्म को सम  झ नहीं पातीं या इस की जानबू  झ कर अनदेखी कर देती हैं. यहीं से दिक्कत शुरू होती है. दिक्कत बौयफ्रैंड रखने में नहीं होती, गलती उस के साथ सैक्स संबंध बनाने के कारण होती है. ऐसे में शादी से पहले इस से बचें.

जरूरत बनते जा रहे बौयफ्रैंड

आज के समय में लड़कियां अपना कैरियर बनाने के लिए गांव, घर और अपने शहर से दूर पढ़ने जाती हैं. कई बार कालेज दूर होता है. अकेले आनाजाना पड़ता है. अकेली लड़की के लिए दिक्कतें होती हैं. रात में भी गली, सड़क और महल्ले में अंधेरे में खतरे हो सकते हैं.

ऐसे में अगर किसी कोचिंग से पढ़ कर वापस लौट रही लड़की के साथ कोई लड़का होता है तो उसे डर नहीं लगता. उस का हौसला बढ़ा रहता है. कोई अपराधी उस के साथ अपराध करने की हिम्मत नहीं कर पाता. यह जरूरी नहीं कि लड़का ‘हीमैंन’ या ‘हीरो’ जैसा ही हो. साधारण लड़के के भी साथ रहने से हौसला रहता है. सुरक्षा का जो काम कई बार भाई नहीं कर पाता, वह बौयफ्रैंड कर देता है. ऐसे में बौयफ्रैंड से खतरा नहीं, बल्कि सुरक्षा ही होती है.

अब समाज में ऐसे कानून बने हैं जिन के तहत लड़की की शिकायत करना लड़के पर भारी पड़ जाता है. ऐसे में बौयफ्रैंड आमतौर पर गलत हरकत करने की हिम्मत नहीं करता है. अपराध करने वाले लोग अनजान ही होते हैं. लड़कियों को अनजान लोगों के साथ संबंध नहीं रखने चाहिए. उन के साथ सुनसान जगह नहीं जाना चाहिए और कभी भी नशे वाली पार्टी में नहीं जाना चाहिए. आजकल नशे के ऐसे सामान मिलने लगे हैं जिन का सेवन करने से इंसान के सोचनेसम  झने व विरोध करने की क्षमता खत्म हो जाती है. इस तरह के हालात से लड़कियों को बचना चाहिए. बौयफ्रैंड रखने में कोई बुराई नहीं है, जरूरत इस बात की है कि बौयफ्रैंड के साथ संबंधों की सीमाओं को सम  झें. सीमाओं से बाहर जाना मुश्किल खड़ी कर देता है. बौयफ्रैंड इस से अलग नहीं होता है.

मनोविज्ञानी सुप्रीति बाली कहती हैं, ‘‘बौयफ्रैंड को ले कर कभी अपराधबोध न पालें. ऐसे रिश्तों के बारे में अपने घरपरिवार को बता कर रखें. ऐसे में उन का किसी बाहर वाले से जब इस का पता चलेगा तो उन को बुरा नहीं लगेगा. वे बात को सही तरह से सम  झ सकेंगे तो अगर समाज कुछ बुराभला भी कहेगा तब भी वे आप के साथ खड़े होंगे. समाज भी फिर उंगली नहीं उठा सकेगा.

‘‘बौयफ्रैंड को ले कर लड़की को तब अपराधबोध होता है जब घरपरिवार को जानकारी नहीं होती. वहीं से दिक्कतें शुरू होती हैं. अगर बौयफ्रैंड के साथ अपने रिश्तों को छिपाए नहीं तो परेशानी नहीं खड़ी होगी. बौयफ्रैंड को जब यह पता होता है कि उस के बारे में सब को पता है तो उस की भी जिम्मेदारी बढ़ जाती है.’’

मेटावर्स: वर्चुअल दुनिया की आजादी

मेटावर्स आधुनिक तकनीकी की एक काल्पनिक दुनिया होगी, जहां घर बैठे आप दुनिया के किसी भी माल में घूम कर शौपिंग का अहसास कर सकते हैं. मेटावर्स से हमारी जिंदगी में काफी कुछ बदल जाएगा, लेकिन अब सवाल यही उठ रहा है कि इस में कोई अपराध होगा तो उस से कैसे निपटा जाएगा?

इंटरनेट, कंप्यूटिंग और टेलीकम्युनिकेशन की दुनिया के साथ हो रहे लगातार दूसरे तकनीकी विकास और विस्तार के नए नाम मेटावर्स को ‘वर्चुअल एनवायरनमेंट’ यानी आभासी वातावरण कहा गया है.

मेटावर्स के सिलसिले में बात करने से पहले हमें यह जानना होगा कि आखिर मेटावर्स है क्या? वैसे मेटा ग्रीक शब्द है, जिस का अर्थ होता है बियांड यानी आगे या उस पार. आप ने इस से बने शब्द मेटाबालिज्म, मेटाफिजिक्स, मेटाडेटा आदि सुने होंगे. अब मेटा को यूनिवर्स से जोड़ कर मेटावर्स बनाया गया है. इस तरह यह हमारे यूनिवर्स के साथ रची जा रही काल्पनिक  दुनिया होगी. अब तक हम इंटरनेट से जो कुछ करते थे, उसे अपने सामने स्क्रीन पर देखते थे.

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लेकिन मेटावर्स में हम स्क्रीन के उस पार भी पहुंच जाएंगे. बस, इस के लिए कुछ डिवाइस जैसे वीआर हैंडसेट, एआर ग्लासेज या स्मार्ट चश्मे, स्मार्टफोन आदि की जरूरत होगी. फिर साइबर स्पेस धीरेधीरे मेटावर्स में बदल जाएगा.

यह काम कैसे करेगा और लोगों को कितना लुभाएगा, इस से पहले इस तरह से समझना होगा.

किसी क्रिकेट प्रेमी के लिए कितना रोमांचक और वास्तविक एहसास वाला होगा, यदि वह घर बैठे दूसरे देश के स्टेडियम में खेले जा रहे टी20 मैच का एक दर्शक हो. वह भी हजारों दर्शकों के बीच चौकेछक्के और खिलाडि़यों की प्रतिस्पर्धा और हारजीत के रोमांच को दूसरे के साथ शेयर करे.

दूसरी परिकल्पना घर बैठे किसी शोरूम में विजिट किए गए बगैर नए मौडल की कार की तकनीकी जानकारियां पाने के साथसाथ उसे चला कर जांचपरख करने की भी है.

इसी तरह माल या औनलाइन कपड़े खरीदने से पहले छूने, पहन कर देखने का वर्चुअल एहसास होने पर उस के प्रति विश्वसनीयता बढ़ सकती है.

हर क्षेत्र में समय, श्रम और पैसे के व्यय को कम करने के लिए डिजिटल वर्ल्ड का नया परिवेश पिछले एक दशक से विकसित किया जा रहा है. कोशिश है कि वर्चुअल एनवायरमेंट को रियलिस्टिक बना कर पेश किया जा सके.

इन अवधारणाओं को जमीन पर उतारने के लिए वर्चुअल रियलिटी (वीआर) और आग्मेंटेड रियलिटी (एआर) की तकनीक बनाई जा चुकी है. छिटपुट प्रयोग और इस्तेमाल के प्रयास भी किए गए हैं, लेकिन उन का व्यापक विकास नहीं हो पाया.

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वीआर सिर्फ गेम तक ही सिमट कर रह गया और एआर बेहतर इंटरनेट की सुविधा के इंतजार में है. उस के साथ एआर को जोड़ने में इंटरनेट स्पीड को ले कर कई बाधाएं बनी रहीं. इसे ही मेटावर्स के जरिए नए सिरे से बहुपयोगी बनाने पर जोर दिया गया है.

वर्चुअल स्पेस का होगा कलेक्शन

वास्तव में मेटावर्स एक साथ जुटाए गए वर्चुअल स्पेस का वैसा कलेक्शन होगा, जिसे रियलिटी के साथ फिजिकली अपनाया जा सके. इस में वर्चुअल वर्ल्ड, आग्मेंटेड रियलिटी, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जैसे नए तकनीक इंटरनेट के सहारे काम करेंगे.

यानी कि मेटावर्स एक वर्चुअल दुनिया है, जहां कोई व्यक्ति फिजिकली मौजूद नहीं होते हुए भी अपनी उपस्थित को दर्ज करवा सकता है. उस के साथ महसूस किए जाने वाले वर्चुअल यूनिवर्स में थ्री डाइमेंशनल वर्चुअल स्पेस और उस की साझेदारी को इंटरनेट के जरिए जोड़ने का सिद्धांत बनाया गया है. इस टर्म को पहली बार नील स्टीफेंसन ने 1992 में अपने साइंस फिक्शन उपन्यास ‘स्नो क्रैश’ में गढ़ा था.

सीधे तौर पर समझें तो मेटावर्स एक तरह से वर्चुअल रियलिटी (वीआर) का ही विकसित रूप है. इस में छिपी कई संभावनाएं ठीक वैसी ही हैं, जैसा कि साधारण फोन या शुरुआती दिनों के मोबाइल फोन की तुलना में आज के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित स्मार्टफोन से मिलती हैं.

मेटावर्स के बहुपयोगी बनने के क्षेत्र में कई जटिलताएं हैं, जिस में कंप्यूटिंग तकनीक से ले कर इंटरनेट की स्पीड, उस की उपलब्धता और डेटा की खपत तक शामिल है.

इस के साथसाथ थ्रीडी वीडियो के कंटेंट, निजी डेटा की सुरक्षा तथा साइबर क्राइम भी मायने रखते हैं. अभी तक वीआर का जो कौंसेप्ट और बाजार में उपलब्ध गजेट है, उन के प्रति सामान्य दिलचस्पी नहीं बन पाने का मूल करण उस का केवल गेम से जुड़ा होना ही रहा है, जबकि मेटावर्स को सिर्फ थ्रीडी गेम के नजरिए से देखना एक भूल होगी.

मेटावर्स से बने डिजिटल दुनिया को और अधिक विकसित बनाने के लिए मोबाइल कनेक्टिविटी को बेहतर करने की जरूरत होगी. इस की उम्मीद 5जी के आने के बाद की जा सकती है.

अब लोगों की जुबान पर चढ़ चुका ‘फेसबुक’ शब्द चंद दिनों का मेहमान रह गया है. उस की जगह आने वाला ग्रीक शब्द ‘मेटा’ और उस का मैथेमेटिकल चिह्न इनफिनिटी को जेहन में बिठाने में कितना समय लगेगा, यह तो वक्त ही बताएगा. जबकि भविष्य का इंटरनेट कहे जाने वाले मेटावर्स (वर्चुअल एनवायरनमेंट) के लिए मार्क जुकरबर्ग ने माहौल बना कर अपनी धूमिल होती छवि को सुधारने की पूरी तैयारी कर ली है.

अपने ‘वर्कप्लेस’ नामक वर्चुअल रियलिटी मीटिंग ऐप और सोशल स्पेस ‘होराइजन्स’ के विकास के लिए उन की 10 बिलियन डालर निवेश के साथ 10 हजार चुने हुए प्रतिभाशाली प्रोफैशनल को नियुक्त करने की योजना है.

उल्लेखनीय है कि फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग वीआर के क्षेत्र में शुरू से ही सक्रिय रहे हैं. उन्होंने अपने आक्युलस हेडसेट के लिए इस क्षेत्र में भारी निवेश भी किया है.

साल 2014 में आक्युलस नाम की कंपनी को 2 अरब डालर में खरीदा था. तभी से होराइजन नाम की एक वैसी डिजिटल दुनिया बनाने के लिए काम किया जा रहा है, जहां लोग वीआर तकनीक की मदद से एकदूसरे से संवाद कायम कर सकें.

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फेसबुक ने कर दी है तैयारी

इसी साल अगस्त में फेसबुक ने ‘होराइजन वर्करूम्स’ नाम का एक फीचर जारी किया था, जिस में लोग वीआर हेडसेट पहन कर वर्चुअल रूम में एकदूसरे के साथ मीटिंग कर सकते हैं. ऐसा करते हुए रूम्स में लोग अपने ही थ्रीडी वर्जन के रूप में नजर आते हैं.

फेसबुक ने इसी सिलसिले में ‘वर्कप्लेस’ और ‘होराइजन्स’ ऐप बनाने की तैयार की है. वर्कप्लेस में वर्चुअल रियलिटी मीट होगा, जबकि होराइजन्स में सोशल स्पेस को जगह मिलेगी. हालांकि वर्चुअल रियलिटी का एक और ऐप ‘वीआरचैट’ पूरी तरह से औनलाइन हैंगआउट चैटिंग के लिए बनाया गया है.

इन से केवल आसपास की दुनिया से जुड़ना या बातचीत करना ही संभव हो पाता है. इस से अलग फेसबुक की नजर में मेटावर्स के वर्कप्लेस और होराइजन्स से अलग किस्म की वैचारिकता के व्यवहारिकता का संतुलित आकार बनेगा.

साथ ही कंपनी मेटावर्स के जरिए इंटरनेट तकनीकों को अगली लहर की तैयारी की कोशिशों का हिस्सा बन जाएगी. कंपनी की मानें तो मेटावर्स में रचनात्मक, सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर एक नया आयाम विकसित कर सकती है.

फेसबुक ने मेटावर्स की तैयारी की घोषणा ऐसे समय में की है, जब कंपनी कई समस्याओं से जूझ रही है. उसे कई बार तकनीकी खामियों के दौर से गुजरना पड़ रहा है.

हाल में ही कई घंटों तक उस की सेवाएं बंद रही हैं. साथ ही भारत समेत कई देशों में इस के बेकाबू होने और अनियंत्रित प्रभाव देने जैसे आरोपों से भी जूझना पड़ रहा है.

बहरहाल, कंपनी वीआर और एआर को अगली पीढ़ी के औनलाइन सोशल एक्सपीरिएंस के मूल रूप में देख रही है. उस के द्वारा एक मजबूत प्रोटेक्ट टीम बनाई गई है. साथ ही कंपनी अपने फेसबुक रियल्टी लैब्स पर अरबों डालर खर्च करेगी.

अनेक कंपनियां कर रही हैं तैयारियां

फेसबुक ने इस पर शुरुआत में करीब 75 हजार करोड़ रुपए खर्च करने की योजना बनाई है. इस के अलावा यूरोपियन यूनियन में 10 हजार लोगों को नौकरियां भी दी जाएंगी. उधर साउथ कोरिया ने साल 2023 तक सियोल को पहला मेटावर्स शहर बनाने का ऐलान कर दिया है.

फेसबुक के अलावा दुनिया की कई कंपनियां मेटावर्स में उतरने में जुटी हैं. इस में सौफ्टवेयर, हार्डवेयर, इंटरफेस क्रिएशन, प्रोडक्ट और फाईनैंशियल सर्विस देने वाली कैटेगरी हैं.

गूगल, एप्पल, स्नैपचैट ओर एपिक गेम्स भी मेटावर्स पर काम कर रहे हैं. फेसबुक के बाद डिज्नी ने भी मेटावर्स बनाने का ऐलान कर दिया है.

फेसबुक कंपनी का कहना है कि वह इस प्रोजेक्ट को एक लौंग टर्म विजन के नजरिए से देख रही है. वह इस विजन को हकीकत में बदलने को ले कर प्रतिबद्ध है और अगले कई सालों तक इस के लिए निवेश करने की उम्मीद करती है. वैसे इस के नतीजे आने का लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया है, लेकिन एक अनुमान के मुताबिक अगले 5 साल में अंजाम तक पहुंचा जा सकता है.

फेसबुक के अनुसार महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि मेटावर्स में किसी एक कंपनी का अधिकार नहीं होगा और यह सशक्त प्लेटफार्म के रूप में बना इंटरनेट सभी के लिए उपलब्ध होगा.

जैसा कि तकनीक के स्वरूप से ही स्पष्ट हो चुका है कि इस में वीआर, एआर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, कंप्यूटिंग, विविध टौपिक के थ्रीडी वीडियोज, गेम्स के कंटेंट, इंटरनेट प्रदाता कंपनियां आदि के अतिरिक्त गजेट की व्यापकता के लिए अलगअलग कंपनियां शामिल होंगी.

मेटावर्स में आप को कोई ड्रैस पसंद आए तो आप उसे वर्चुअल पहन कर, छू कर देख सकते हैं. जब ड्रैस फिट आए तो और्डर कर सकते हैं. इसलिए कुछ नामी फैशन कंपनियां और फिटनेस कंपनियां भी इस से जुड़ने की तैयारी कर रही हैं.

उल्लेखनीय है कि हाल ही में पौप स्टार आर्यना ग्रांदे और रैपर ट्रैविस स्कौट वीडियो गेम्स की दुनिया में चर्चित फोर्टनाइट के जरिए अपना प्रदर्शन कर चुके हैं, जिसे लोगों से अपने घरों में बैठ कर देखा है. रियलिटी को वर्चुअल बना कर प्रस्तुत करने का यह एक अच्छा उदाहरण बन चुका है.

फेसबुक को उम्मीद है कि जैसेजैसे मेटावर्स का काम आगे बढ़ेगा, वैसेवैसे दूसरी टेक कंपनियां इस से जुड़ती चली जाएंगी. फिर भी मेटावर्स के विकास को ले कर उपजने वाले जो भी नकारात्मक सवाल खड़े हो सकते हैं, उस संदर्भ में कहा जा सकता है कि सफलता मिलने में कई साल लग सकते हैं.

फिर भी इस के लिए कई टेक कंपनियों के बीच लगने वाली होड़ से इनकार नहीं किया जा सकता है. पिछले कुछ सालों में वीआर तकनीक की अच्छी गुणवत्ता वाले हेडसेट आ चुके हैं. हम ने 360 डिग्री फिल्मांकन वाले थ्रीडी वीडियो बनाने में दक्षता हासिल कर ली है.

एआई में भी जबरदस्त विकास हुआ है. सब से बड़ी बात यह है कि हर तबके के लोगों के बीच तेजी से औनलाइन कार्यशैली विकसित हो रही है. गेम की दुनिया में हर रोज कुछ न कुछ नया हो रहा है. पिछले साल आए आक्युलस क्वेस्ट2 वीआर गेमिंग हेडसेट को खूब पसंद किया गया है.

मेटावर्स के विकसित हो जाने तक भारत में भी इंटरनेट से जुड़ी तमाम तकनीकी समस्याएं दूर हो जाएंगी और इस के प्रोडक्ट भारतीय उपभोक्ताओं को ध्यान में रखते हुए बाजार में उतारे जाएंगे.

साथ ही सोशल मीडिया, औनलाइन एजूकेशन और रिमोट हेल्थ सेक्टर से मिलने वाली सर्विस के नजरिए से भी इस की उपयोगिता काफी महत्त्वपूर्ण साबित होगी.

उठते सवाल और आशंकाएं

मेटावर्स की दुनिया में सब से बड़ा सवाल तो डाटा लीक होने का उठता है. फेसबुक जैसे ऐप्स के पास यूजर का काफी डेटा जमा हो जाता है.

कहा तो यही जाता है कि इस का कोई गलत इस्तेमाल नहीं होगा लेकिन मेटावर्स में बहुत ज्यादा डेटा जमा होने के आसार हैं. यहां भी दावा किया जा रहा है कि डेटा लीक नहीं हो सकेगा. फिर भी इसे ले कर चिंताएं जताई जाने लगी हैं.

अगर डेटा लीक न भी हो तो भी लोगों का जो डेटा जमा होगा, उस का क्या किया जाएगा? क्या कोई एक कंपनी उस का मालिकाना हक रखेगी या यूजर के पास यह हक होगा कि अपने डेटा को लौक कर सके.

लोगों की प्राइवेसी में किसी दूसरे का दखल रोका जा सकेगा या नहीं, यह भी देखना होगा. वैसे तो इंटरनेट पर किसी को भी ब्लौक करने का औप्शन होता है लेकिन मेटावर्स में नई तकनीकी आएंगी तो क्या किसी को रोका जा सकेगा, इस पर भी शक जताया जा रहा है.

यह भी स्पष्ट नहीं हो रहा है कि मेटावर्स में किसी को ट्रोल किया जाए या कोई क्राइम होगा तो कानून उस से कैसे निपटेगा?

सवाल यह भी उठ रहा है कि मेटावर्स की उस काल्पनिक दुनिया का कंट्रोल किस के हाथ में होगा? अब तक दुनिया के तमाम देशों में डिजिटल करेंसी को मान्यता नहीं मिली है, जबकि मेटावर्स में डिजिटल करेंसी से शौपिंग होगी.

ऐसे में धोखाधड़ी होगी तो कहां गुहार लगाई जाएगी. पूरी मेटावर्स इकानौमी आखिर काम कैसे करेगी? इसी तरह के अनेक सवाल लोगों के जेहन में उठ रहे हैं. इस तरह की समस्याओं से निपटने के संबंध में पहले ही विचार करना जरूरी होगा.

पोंगापंथ: अंधविश्वास से बिगड़ता घर का माहौल

Writer- धीरज कुमार

रागिनी का पूजापाठ वगैरह में पूरा विश्वास है, इसलिए वह धार्मिक कामों में ज्यादा दिलचस्पी लेती है, क्योंकि वह अपने मायके से विरासत में यही सब सीख कर आई है.

रागिनी के मातापिता मायके में पूजापाठ पर ज्यादा जोर देते थे, इसलिए रागिनी अपने पति को भी धार्मिक नियमकायदे के मुताबिक चलने के लिए बढ़ावा देती रहती है, जबकि उस का पति विकास नई सोच का है. वह अंधविश्वासों पर जरा भी भरोसा नहीं करता है. वह पूजापाठ को ढकोसला सम झता है.

विकास रागिनी को कई बार सम झाने की कोशिश कर चुका है कि इस तरह के पूजापाठ से कुछ नहीं होता है, बल्कि समय और पैसे की बरबादी होती है. लिहाजा, अपने बच्चों की पढ़ाईलिखाई और अपनी तरक्की पर ध्यान दो, लेकिन रागिनी इन बातों पर गुस्सा होने लगती है. विकास के लाख सम झाने पर भी उस में कोई बदलाव नहीं आया है.

यही वजह है कि रागिनी पूजापाठ के नाम पर फालतू में समय व पैसे खर्च करती है. इस से घर का महीनेभर का बजट गड़बड़ा जाता है, जबकि विकास किराए के मकान में रहता है.

न्यूक्लियर फैमिली होने के चलते विकास अपनी समस्या को किसी के सामने रख भी नहीं पाता है. रागिनी घर के एक कोने को मंदिर सा बना चुकी है, जहां कई फोटो और मूर्तियां लगी हुई हैं और रागिनी वहां घंटों बैठ कर पूजापाठ करती है.

कभीकभी विकास इन बातों से चिढ़ जाता है. इन सब बातों को ले कर उन दोनों में कई बार  झगड़ा भी हो चुका है और अब इस का असर उस के बच्चों पर भी पड़ रहा है.

विकास उस समय दंग रह गया, जब उस का 5वीं जमात में पढ़ रहा बेटा इम्तिहान देने जाने के दौरान पूजा वाले कमरे से यह प्रार्थना कर के निकला कि हे भगवान, इम्तिहान में पास कर दीजिए.

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पूछने पर उस का कहना था कि पूजापाठ करने से अच्छे नंबर आएंगे. उस की मां ने यह कभी नहीं बताया कि बेटा पूजापाठ करने से अच्छे नंबर नहीं आते हैं, बल्कि अच्छी तरह से पढ़ाईलिखाई करने से अच्छे नंबर आते हैं.

विकास का कहना है, ‘‘जिन घरों में पूजापाठ होता रहेगा, उन घरों के बच्चे विज्ञान की बातें कहां से सीख पाएंगे? ऐसे घर के बच्चे डाक्टरइंजीनियर कहां से बन पाएंगे? घर के माहौल का असर बच्चों की पढ़ाईलिखाई पर पड़ता है.’’

डेहरी औन सोन की रहने वाली कनिका सिंह एक धार्मिक स्कूल की शिक्षिका हैं. वे घर में सुबहशाम टैलीविजन पर धार्मिक प्रवचन सुना करती थीं. उन का बेटा पढ़ने में काफी तेज था. वह 10वीं जमात में स्कूल में सब से ज्यादा अंकों से पास हुआ था.

कनिका सिंह अपने बेटे को इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला दिलवाना चाह रही थीं, तभी उन का बेटा एक दिन घर से चुपके से निकल कर तथाकथित बाबा के आश्रम में रहने के लिए भाग गया.

हालांकि उन के बेटे को वहां ऐंट्री नहीं मिल पाई और कुछ दिन में निराश हो कर वह वापस घर आ गया था. पूछने पर उस ने अपने शिक्षकों को बताया कि घर में ज्यादातर समय धार्मिक बातें सुन कर उस की सोच बदल गई थी. इसलिए वह धार्मिक संस्थान में रह कर धर्म के बारे में जानना चाहता था.

मनोज उपाध्याय पेशे से एक राष्ट्रीय अखबार के पत्रकार हैं. उन की पत्नी शुगर और ब्लड प्रैशर की मरीज हैं. डाक्टर उन की पत्नी को हिदायत दे चुके हैं कि समय से खाना खाइए और और सुबह खुली हवा में टहलिए. पूजापाठ और उपवास से जरा परहेज रखिएगा. लेकिन वे महीने में 1-2 बार व्रत जरूर रखती हैं.

मनोज उपाध्याय की पत्नी का कहना है, ‘‘व्रत करने से बीमारी नहीं होती है. पूजापाठ करने से ऊपर वाला खुश होता है. इस से बीमारी नहीं होगी, बल्कि उस की मेहरबानी से बीमारी ठीक होती है.’’

डाक्टर के मुताबिक, उन की बीमारी की अहम वजह बहुत ज्यादा उपवास करना और पूजापाठ के चलते देर से  नाश्ता और भोजन लेना है.

ऐसी औरतों को इस तरह की सीख बचपन से ही घरपरिवार में मिल चुकी होती है. लाख सम झाने पर भी वे सब बातों को सिरे से नकार देती हैं.

दरअसल, यह सब ब्राह्मणों, पंडितों, मौलवियों द्वारा दी गई सीख के चलते होता है. समाज के कुछ लोग समाज में अंधविश्वास और ढोंग फैला कर अपना कारोबार सदियों से चला रहे हैं.

इस सब के बावजूद आज भी लोग सम झने के लिए तैयार नहीं हैं, खासकर कम पढ़ेलिखे और नासम झ परिवारों में आज भी उन्हीं बातों को दोहराया जा रहा है, जो पोंगापंडित चाह रहे हैं. तभी आज भी उन का गोरखधंधा बेरोकटोक चल रहा है और अंधविश्वास की बेल दिनोंदिन फैलती जा रही है और वट वृक्ष का रूप ले रही है.

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लिहाजा, जरूरी है कि पतिपत्नी आपसी तालमेल बना कर अंधविश्वास और ढोंग का पूरी तरह बहिष्कार करें, वरना इस का असर आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता रहेगा.

अब यह भी जरूरी हो गया है कि धर्मकर्म की बातों को विज्ञान की कसौटी पर भी कस कर देखा जाए. जैसे इस बार कोरोना महामारी फैली, तो क्या पूजापाठ करने से यह महामारी रुक गई? नहीं. जब तक कि वैक्सीन नहीं बनी और लोगों को लगनी शुरू नहीं हुई, तब तक यह बीमारी बढ़ रही थी.

अगर आम आदमी पूजापाठ पर विश्वास कर इस बीमारी को खत्म होने का इंतजार करता रहता, तो शायद यह बीमारी कभी भी खत्म नहीं होती और आम लोग वैसे ही मरते रहते, जैसे कोरोना महामारी के दौरान मर रहे थे.

जब लड़की का दिल किसी पर आ जाए

Writer- धीरज कुमार

दिव्या बीए की छात्रा थी. वह रोज पढ़ने कालेज जाती थी. कालेज जाने के दौरान उसे शुभम नाम के एक लड़के से प्यार हो गया था.

शुभम भी उसी कालेज का छात्र था. दोनों रास्ते में बातें करते थे. शुभम ज्यादातर पढ़ाईलिखाई से जुड़ी बातें ही करता था. वह हलकाफुलका हंसीमजाक भी कर लेता था.

दिव्या सम?ा नहीं पा रही थी कि शुभम उस से प्यार करता भी है या नहीं. आखिरकार दिव्या ने एक दिन शुभम से अपने दिल की बात कह दी. तभी उसे मालूम हुआ कि शुभम भी उस से प्यार करता है, पर वह अपने दिल की बात कहने से डरता था.

शुभम ने इस की वजह बताई थी, ‘‘मेरी तरफ से पहल करने पर अगर बात नहीं बनती तो मु?ो बहुत बुरा लगता. मेरे दिल को ठेस पहुंचती, इसीलिए मैं चाहते हुए भी अपनी तरफ से कोशिश नहीं कर पा रहा था.’’

यह बात सच है कि कुछ लड़के अपने दिल की बात कहने में ?ि?ाक महसूस करते हैं या शरमाते हैं. सभी लड़के एक तरह के नहीं होते हैं. शुभम चाहता था कि दिव्या से अपनी बात कह दे, लेकिन वह कह नहीं पा रहा था.

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जब दिव्या ने अपने प्यार का इजहार किया, तो शुभम काफी खुश हो गया. अब वे दोनों एकदूसरे से खुल कर प्यार की बातें करने लगे थे.

दिव्या और शुभम शादी करना चाहते थे, लेकिन उन के मातापिता को दूसरी जाति का होने के चलते यह शादी मंजूर नहीं थी. इस के उलट वे दोनों एकदूसरे के बिना नहीं रहना चाहते थे.

दिव्या तो शुभम के बिना जीने की कल्पना ही नहीं कर पा रही थी. वह अपने मातापिता से कई बार अपनी बात रख चुकी थी. उधर शुभम के मातापिता भी इस शादी को करने के लिए तैयार नहीं थे.

इसी वजह से उन दोनों ने मातापिता की रजामंदी के खिलाफ जा कर शादी कर ली और अलग रहने लगे. आज दोनों काफी खुशहाल जिंदगी बिता रहे हैं.

शुभम का कहना है, ‘‘अगर सभी मातापिता इसी तरह से सोचेंगे तो समाज में दहेज प्रथा और जाति प्रथा जैसी बुराइयां कैसे खत्म होंगी? मेरे मातापिता की चाहत थी कि दहेज के रूप में अच्छीखासी रकम लड़की वालों से ली जाए. यही वजह थी कि वे दूसरी जाति की लड़की से शादी कराने को तैयार नहीं थे. प्रेम विवाह में दहेज तो मिलता नहीं है न.’’

आज भी किसी गरीब लड़की के पिता को दहेज प्रथा के चलते काफी परेशानी ?ोलनी पड़ती है. बहुत से लोग पैसे की कमी में अपनी बेटी की शादी सही जगह नहीं कर पाते हैं. वहीं पैसे वाले मातापिता अच्छे घर के लड़कों के पल्ले बदसूरत और बिगड़ैल लड़कियों को बांध देते हैं और उन की जिंदगी नरक बना देते हैं.

कई लड़कों का कहना है कि आज भी दहेज के लेनदेन के चलते बेमेल शादियां हो रही हैं. अगर पूरी तरह से प्रेम विवाह की मान्यता समाज में मिल जाए, तो बेमेल शादियां कम हो जाएंगी.

जब लड़केलड़कियां अपनी इच्छा के मुताबिक अपना घरवर चुनने लगेंगी, तो समाज में अच्छा बदलाव आएगा. इस से दहेज प्रथा जैसी बुराइयों का खात्मा होगा और जाति प्रथा की दीवारें टूटनी शुरू हो जाएंगी. समय के साथ ही लोगों को भी बदलने की जरूरत है.

कई बार लड़कालड़की एकदूसरे से प्यार तो कर लेते हैं, पर मातापिता की रजामंदी न मिलने के चलते शादी नहीं कर पाते हैं. इस तरह उन के सपने अधूरे रह जाते हैं. कई बार लड़के या लड़कियां उस प्यार को नहीं भुला पाते हैं, इसीलिए ऐसा देखा गया है कि मातापिता के चलते जब शादी नहीं हो पाती है, तो शादी के बाद भी लड़की अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है या संबंध बनाए रखती है.

कभीकभी लड़के भी अपनी पत्नी के रहते हुए भी प्रेमिका से संबंध जारी रखते हैं. ऐसे हालात में लड़का या लड़की दोनों को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

कुछ मातापिता को अपने बेटेबेटियों का दूसरी जाति या संप्रदाय में प्यार करना काफी नागवार गुजरता है. दरअसल, उन के अंदर का दिखावटी अभिमान प्रेम विवाह के रास्ते में रोड़ा बन जाता है. यही वजह है कि कभीकभी प्रेमीप्रेमिकाओं को औनर किलिंग का सामना भी करना पड़ता है.

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नेहा प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी. उसे एक लड़के से प्यार हो गया था. हालांकि वे दोनों अलगअलग धर्म के थे, फिर उन्होंने यह तय किया कि शादी एकदूसरे से ही करेंगे.

दोनों ने अपने मातापिता को इस बात की जानकारी दी. आखिरकार कई दिनों की कोशिश के बाद उन के मातापिता अपने बच्चों की खुशी की खातिर इस शादी के लिए मान गए. आज वे दोनों खुशहाल पारिवारिक जिंदगी जी रहे हैं.

लिहाजा जरूरी है कि किसी लड़की का दिल किसी लड़के पर आ जाए, तो सोचसम?ा कर कदम बढ़ाया जाए और उसे शादी तक ले जाने की कोशिश की जाए, तभी समाज में बदलाव होगा.

मिसाल: हरेकाला हजब्बा- एक संतरे बेचने वाले अनपढ़ ने खोल दिया स्कूल

आज मैं ने अपने दोनों बच्चों से एक सवाल पूछा कि नीरज चोपड़ा कौन है, तो उन्होंने तपाक से बता दिया कि वही जैवलिन एथलीट, जिस ने टोक्यो ओलिंपिक खेलों में गोल्ड मैडल जीता है. मेरे ही बच्चे क्यों, आज हर कोई जानता है कि भालाफेंक नीरज चोपड़ा दिखने में जितना हैंडसम है, उस का कारनामा भी उतना ही शानदार है.

पर, जब मैं ने अपने दोनों बच्चों से पूछा कि हाल ही में देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति भवन के ‘दरबार हाल’ में हरेकाला हजब्बा को देश के सब से प्रतिष्ठित सम्मानों में से एक ‘पद्मश्री अवार्ड’ से क्यों नवाजा है, तो यह सुन कर वे दोनों एकदूसरे का मुंह ताकने लगे, फिर बोले, ‘यह कैसा नाम है और ‘पद्मश्री अवार्ड’ क्या होता है’, तो मु?ो कोई हैरानी नहीं हुई.

ज्यादातर बच्चे क्या नौजवान भी इस नाम से अनजान होंगे और जिस काम के लिए हरेकाला हजब्बा को ‘पद्मश्री अवार्ड’ मिला है, इस की अहमियत उन्हें आज तो कतई नहीं सम?ा में आएगी. वजह, एक साधारण सी कदकाठी के इस आम गरीब इनसान ने उस काम के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा दी है, जो किसी की कामयाबी की पहली सीढ़ी होता है.

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65 साल के बुजुर्ग हरेकाला हजब्बा खुद तो संतरे बेच कर अपनी जिंदगी गुजार चुके हैं, पर नई पीढ़ी को उन्होंने जो सौगात दी है, वह किसी गोल्ड मैडल की सुनहरी चमक से कम नहीं है.

हरेकाला हजब्बा को यह सम्मान शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक काम करने के लिए दिया गया है. एक संतरे बेचने वाला शिक्षा के क्षेत्र में यह सम्मान पा रहा है, यह सुनने में क्या थोड़ा अजीब नहीं लग रहा है?

पर ऐसा हुआ है. दरअसल, कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले के न्यूपाड़ापू गांव के रहने वाले हरेकाला हजब्बा ने अपने गांव में अपनी जमापूंजी से एक स्कूल खोला है. इस के साथ ही वे हर साल अपनी बचत का पूरा हिस्सा स्कूल के विकास के लिए देते रहे हैं.

हरेकाला हजब्बा कर्नाटक के मंगलुरु शहर में एक संतरा विक्रेता हैं. अपने गांव में स्कूल न होने की वजह से वे पढ़ाई नहीं कर सके थे, लेकिन पढ़ाईलिखाई की अहमियत को बहुत ज्यादा सम?ाते थे, तभी तो उन्होंने ऐसा कारनामा किया है, जिस के बारे में लोग बातें तो बहुत करते हैं, पर अमल में लाने की बात पर कन्नी काट लेते हैं.

कभी खुद स्कूल की शक्ल न देखने वाले हरेकाला हजब्बा बताते हैं, ‘‘एक दिन एक विदेशी जोड़ा मु?ा से संतरे खरीदना चाहता था. उन्होंने कीमत भी पूछी, लेकिन मैं सम?ा नहीं सका.

‘‘यह मेरी बदकिस्मती थी कि मैं स्थानीय भाषा के अलावा कोई दूसरी भाषा नहीं बोल सकता हूं. वह जोड़ा चला गया. मु?ो बेहद बुरा लगा. इस के बाद मु?ो यह खयाल आया कि गांव में एक प्राइमरी स्कूल होना चाहिए, ताकि हमारे गांव के बच्चों को कभी उन हालात से गुजरना न पड़े, जिन से मैं गुजरा हूं.’’

इस के बाद हरेकाला हजब्बा ने गांव वालों को सम?ाया और उन की मदद से एक मसजिद में एक स्कूल शुरू किया. इस के अलावा वे स्कूल की साफसफाई करते थे और बच्चों के लिए पीने का पानी भी उबालते थे. साथ ही, छुट्टियों के दौरान वे गांव से 25 किलोमीटर दूर दक्षिण जिला पंचायत दफ्तर जाते थे और बारबार बड़े अफसरों से स्कूल से जुड़ी बुनियादी सुविधाओं को औपचारिक रूप देने की गुजारिश करते थे.

स्कूल की जमीन लेने और शिक्षा विभाग से इस की मंजूरी लेने के लिए हरेकाला हजब्बा ने एड़ीचोटी का जोर लगाया. साल 1995 से शुरू की गई उन की इन कोशिशों को साल 1999 में तब कामयाबी मिली, जब दक्षिण कन्नड़ जिला पंचायत ने उन के स्कूल को मंजूरी दे दी.

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संतरे बेच कर अपनी गुजरबसर करने वाले की आमदनी का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है, पर पढ़ाईलिखाई न मिलने से जिंदगी में कितनी बड़ी समस्याएं आ सकती हैं, यह बात नई पीढ़ी को सम?ा नहीं आ पाती है.

हरेकाला हजब्बा जैसे लोग अपने जज्बे से दुनिया को यह बता देते हैं कि तालीम की चाबी कामयाबी का ताला खोलने के लिए बहुत ज्यादा जरूरी है.

यही वजह है कि अब हरेकाला हजब्बा अपने बनाए गए स्कूल को और बड़ा बनाना चाहते हैं, जिसे करने में वे कामयाब भी रहेंगे. वे खुद तो अनपढ़ रहे हैं, पर उन के इस काम ने उन्हें ‘अक्षर संत’ की ऐसी उपाधि दिला दी है, जो हर किसी के लिए मिसाल है.

टॉप 10 सामाजिक समस्याएं हिन्दी में

कहा जाता है कि हम आधुनिक जमाने में रहते हैं लेकिन आज भी हमारे समाज की सोच पुराने रीति-रिवाज और ख्यालों से बंधी हुई है, ऐसे में हमें कई समाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इन समस्याओं के कारण कई लोग अपनी जान भी गंवा देते हैं. तो इस खबर में हम आपके लिए लेकर आए हैं, टॉप 10 समाजिक समस्याएं हिन्दी. इसे पढ़कर आप इन समाजिक समस्याओं से रूबरू होंगे और समाज को सच का आईना दिखाएंगे.

  1. शर्मनाक: पकड़ौआ विवाह- बंदूक की नोक पर शादी

social issues in hindi

कहते हैं कि शादी ऐसा लड्डू है, जो खाए वह पछताए और जो न खाए वह भी पछताए. लेकिन वहां आप क्या करेंगे, जहां जबरन गुंडई से आप की मरजी के खिलाफ आप के मुंह में यह लड्डू ठूंसा जाने लगे? हम बात कर रहे हैं ‘पकड़ौवा विवाह’ की, जो बिहार के कुछ जिलों में आज भी हो रहे हैं.

22 साल के शिवम का सेना के टैक्निकल वर्ग में चयन हो गया था और वह 17 जनवरी को नौकरी जौइन करने वाला था. हमेशा की तरह एक सुबह जब वह अपने कुछ दोस्तों के साथ सैर पर निकला, तभी कार में सवार कुछ लोगों ने उसे अगवा कर लिया.

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2.गांव की औरतें: हालात बदले, सोच वही

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राज कपूर ने साल 1985 में फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ बनाई थी, जो पहाड़ के गांव पर आधारित थी. इस में हीरोइन मंदाकिनी ने गंगा का किरदार निभाया था. फिल्म का सब से चर्चित सीन वह था, जिस में मंदाकिनी  झरने के नीचे नहाती है. वह एक सफेद रंग की सूती धोती पहने होती है. पानी में भीगने के चलते उस के सुडौल अंग दिखने लगते हैं.

उस दौर में गांव की औरतों का पहनावा तकरीबन वैसा ही होता था. सूती कपड़े की धोती के नीचे ब्लाउज और पेटीकोट पहनने का रिवाज नहीं था. इस की वजह गांव की गरीबी थी, जहां एक कपड़े में ही काम चलाना पड़ता था.

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3. जिगोलो: देह धंधे में पुरुष भी शामिल

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देह व्यापार का एक बाजार ऐसा भी है, जहां के सैक्सवर्कर औरतें नहीं बल्कि मर्द होते हैं. जिन्हें जिगोलो कहा जाता है. उन्हें यौन पिपासा से भरी औरतों को हर तरह से खुश करना होता है. आजकल जिगोलो की मांग लगातार बढ़ती जा रही है. इस धंधे में मोटी कमाई तो होती ही है साथ ही…

भरे बदन वाली एक अधेड़ महिला कमसिन दिखने की अदाओं के साथ ड्राइंगरूम में खड़ी थी. वहीं कुछ दूसरी महिलएं सिगरेट का धुंआ उड़ाती कुछ दूरी बना कर सोफे पर क्रास टांगों के साथ बैठी थीं. सभी के बीच अपनेअपने सैक्स अपील वाले यौवन को दर्शाने की होड़ सी दिख रही थी.

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4. रीति रिवाजों में छिपी पितृसत्तात्मक सोच

social issues in hindi

हम पुरुषवादी समाज में रहते हैं जहां स्त्रियों को हमेशा से दोयम दर्जा दिया जाता रहा है. स्त्री कितना भी पढ़लिख ले, अपनी काबिलीयत के बल पर ऊंचे से ऊंचे पद पर काबिज हो जाए पर घरपरिवार और समाज में उसे पुरुषों के अधीन ही माना जाता है.

उस के परों को अकसर काट दिया जाता है ताकि वह ऊंची उड़ान न भर सके. स्त्रियों को दबा कर रखने और उन की औकात दिखाने के लिए तमाम रीतिरिवाज व परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं.

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5. धर्म का धंधा: कुंडली मिलान, समाज को बांटे रखने का बड़ा हथियार!

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लड़केलड़की की कुंडलियों में यदि 36 गुणों में सभी गुणों का मिलान हो जाए तो क्या इस की कोई गारंटी है कि वैवाहिक जीवन खुशहाल रहेगा? यदि ऐसा न हुआ तो इस में किस का दोष माना जाएगा? क्या शादी से पहले कुंडली मिलान करना आवश्यक है या फिर कुंडली मिलान की प्रक्रिया के पीछे समाज को बांटे रखने वाली मानसिकता काम करती है? क्या यह सिर्फ एक धर्म में ही है या इस जैसी कोई प्रक्रिया अन्य धर्मों में भी पाई जाती है?

साल था जनवरी 2018, जब राजीव की शादी के लिए जगहजगह लड़की तलाशने के लिए लोगों के घर जाया जा रहा था. उन के घर वाले ऐसी बहू की तलाश में थे जो सुंदर हो, सुशील हो, घरबार का काम करना आता हो, पढ़ीलिखी हो इत्यादि.

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6. पत्नी की सलाह मानना दब्बूपन की निशानी नहीं

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पुरुषप्रधान समाज में आज महिलाएं हर क्षेत्र में नेतृत्व कर रही हैं. ऐसे में पढ़ीलिखी, योग्य व समझदार पत्नी की राय को सम्मान देना पति का गुलाम होना नहीं, बल्कि उस की बुद्धिमत्ता को दर्शाता है.

कपिल इंजीनयर हैं. लोक सेवा आयोग से चयनित राकेश उच्च पद पर हैं. विभागीय परिचितों, साथियों में दोनों की इमेज पत्नियों से डरने, उन के आगे न बोलने वाले भीरु या डरपोक पतियों की है. पत्नियों का आलम यह है कि नौकरी संबंधी समस्याओं की बाबत मशवरे के लिए पतियों के उच्च अधिकारियों के पास जाते समय वे भी उन के साथ जाती हैं.

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7. वर्जिनिटी: टूट रही हैं बेडि़यां

social issues in hindi

आदिकाल से ही औरतों के लिए शुचिता यानी वर्जिनिटी एक आवश्यक अलंकार के रूप में निर्धारित कर दी गई है. यकीन न हो, तो कोई भी पौराणिक ग्रंथ उठा कर देख लीजिए.

अहल्या की कहानी कौन नहीं जानता. शुचिता के मापदंड पर खरा नहीं उतरने के कारण जीतीजागती, सांस लेती औरत को पत्थर की शिला में परिवर्तित हो जाने का श्राप मिला था. पुराणों के अनुसार, उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि वह अपने पति का रूप धारण कर छद्मवेश में आए छलिए इंद्र को उस के स्पर्श से पहचान न सकी.

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8. नारी हर दोष की मारी

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आज भी स्त्रियों के लिए सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताएं जैसे उन्हें निगलने के लिए मुंह बाए खड़ी हैं. कई योजनाएं बनती हैं, लेख लिखे जाते हैं, कहानियां गढ़ी जाती हैं, प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं और सब से खास प्रतिवर्ष महिला दिवस भी मनाया जाता है. किंतु हकीकत यह है कि घर की चारदीवारी में महिलाएं बचपन से ले कर बुढ़ापे तक समाज एवं धर्म की मान्यताओं में बंधी कसमसा कर रह जाती हैं.

कुंआरी लड़की एवं विधवा दोष

कुछ महीने पहले की ही बात है  झुन झुनवाला की 25 वर्षीय बिटिया के विवाह की बात चल रही थी, लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया था. लेकिन फिर बात आगे न बढ़ सकी, जब  झुन झुनवाला से पूछा गया कि मिठाई कब खिला रही हैं तो कहने लगीं…

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9. वर्जनिटी: चरित्र का पैमाना क्यों

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हमारे शास्त्रों और सामाजिक व्यवस्था ने वर्जिनिटी यानी कौमार्य को विशेष रूप से महिलाओं के चरित्र के साथ जोड़ कर उन के लिए अच्छे चरित्र का मानदंड निर्धारित कर दिया है.

हमारे समाज में वर्जिनिटी की परिभाषा इस के बिलकुल विपरीत है. दरअसल, समाज और शास्त्रों के अनुसार इस का अर्थ है कि आप प्योर हैं. हम किसी चीज या वस्तु की प्युरिटी की बात नहीं कर रहे हैं वरन लड़की की प्युरिटी की बात कर रहे हैं. लड़की की वर्जिनिटी को ही उस की शुद्धता की पहचान बना दी गई है. लड़कों की वर्जिनिटी की कहीं कोई बात नहीं करता. बात केवल लड़कियों की वर्जिनिटी की करी जाती है.

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10. समलैंगिकता मिथक बनाम सच

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भारत में समलैंगिकता आज भी हंसीमजाक का हिस्सा मात्र है. कानून बनने के बाद भी लोग समलैंगिकता को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे कई मिथक हैं जिन के चलते समलैंगिक लोगों के लिए वातावरण दमघोंटू बना हुआ है.

पिछले वर्ष फरवरी में एक फिल्म आई थी, ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’. उस में समलैंगिक जोड़े को अपनी शादी के लिए परिवार, समाज और मातापिता से संघर्ष करते हुए दिखाया गया था. वह कहीं न कहीं हमारे समाज की सचाई और समलैंगिकों के प्रति होने वाले व्यवहार के बहुत करीब थी.

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बुराई: शाप है जन्म से मिला वर्ग का ठप्पा

विरासत में आदमी अपने पिता के काम को ही अपनाता है, क्योंकि शुरू से ही वह उसे देखतासुनता और समझता है. पहले किसान और कारीगर 2 ही वर्ग थे. आगे चल कर हाकिम, पंडों के वर्ग तैयार हुए. आज दुनियाभर में जो 2 वर्ग हैं, वे हाकिम या अमीर वर्ग हैं और गुलाम या गरीब वर्ग.

हाकिम वर्ग में सामंत व पुरोहित वर्ग और कारोबारी जुड़े हैं, जबकि गुलाम वर्ग में किसान और कारीगर वर्ग और दूसरे मजदूर हैं. दोनों में कैसी प्रतियोगिता, कैसी बराबरी, कैसा बराबर का मौका?

भारत में तो यह वर्ग जाति के रूप में बदल गया. हिंदू समाज के पंडेपुरोहितों ने ऐसे नियम बनाए कि पूरा समाज

2 वर्गों की 4 जातियों में बंट कर रह गया. हिंदू धार्मिक ग्रंथों ने इन का खूब प्रचार किया.

इन 4 जातियों के तहत भी सैकड़ोंहजारों जातियां बना डाली गई हैं, ताकि सब एकदूसरे से उलझी रहें. अलगअलग समूह बन गए.

इन के रोजीरोजगार से ले कर शादीब्याह तक को अनेक रिवाजों से जकड़ दिया गया कि वे इस के जंजाल से बाहर जाने की सोच भी नहीं सकते थे. जो इस के बाहर जाना भी चाहता, तो उसे हाकिम का डंडा या समाज से बाहर जाने की सजा भुगतनी होती थी.

इन विधानों को हालांकि समयसमय पर चुनौती मिली, मगर समाज में बदलाव आ नहीं पाया. पुरोहित वर्ग ने हथियार उठाने वाले वर्ग के साथ मिल कर चुनौती देने वालों को या तो खत्म कर दिया या उन्हें भी पूजनीय बना किनारे कर दिया.

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महावीर और बुद्ध को देख सकते हैं कि उन के विचारों के आधार पर उन्हें अलगथलग ही कर दिया गया. भीमराव अंबेडकर के मुताबिक, भारतीय समाज में लोग धर्म बदल सकते हैं, पर हिंदू रह कर जाति नहीं बदल सकते.

मुसलिम शासकों ने तो नहीं, मगर ब्रिटिश शासकों ने कुछ नियमों को बदलने की कोशिश की. ब्रिटिश शासकों के समय में उन की कुछ सख्ती या कुछ नरमी की वजह से बदलाव जरूर आए. अंगरेजों की दी गई पढ़ाईलिखाई से समाज में कुछ बदलाव आए जैसे सती प्रथा व परदा प्रथा का खात्मा हुआ. स्त्री शिक्षा का विकास, सभी इनसानों के लिए एकसमान कानून वगैरह आए.

ब्रिटिश सेना और नौकरियों में सभी भारतीयों के साथ एकजैसा बरताव और सुविधाएं वगैरह मिलती थीं. सरकारी नौकरीपेशा के रूप में एक नए मध्य वर्ग का विकास होने लगा था.

आजादी के बाद संविधान ने तो सभी के लिए एकसमान नियमकानून लागू किए थे, फिर भी सामंती सोच वाले लोग इसे मानने को तैयार नहीं थे. इन्हें उकसानेबहकाने में पंडों का एक खास वर्ग बड़ा योगदान देता था.

एक मठाधीश ने कहा कि जो इनसान अपने वर्ग के लोगों को छोड़ कर दूसरे वर्ग का सहारा लेता है, वह उसी तरह बरबाद हो जाता है, जैसे अधर्म का सहारा लेने वाला राजा. इस तरह अधर्म के मानने वाले राजाओं की कहानियों में बहुत पट्टी पढ़ाई गई है, जो राजा और प्रजा दोनों को आगाह करती रही है.

सवाल है कि आदमी को क्या सिर्फ अपने ही वर्ग में रहना चाहिए और दूसरे वर्ग के साथ मेलजोल नहीं रखना चाहिए? धर्म के दुकानदार तो यही मान कर चलते हैं, क्योंकि इसी से उन्हें आसानी रहती है. उन के बनेबनाए ढांचे में उन के हक बनाए रखना आसान रहता है. मेहनत नहीं करनी होती, सवाल नहीं खड़े होते.

मध्य काल में भारत के ज्यादातर राजा तो आपस में ही लड़ते रहे, पर उसी समय अनेक कवियों जैसे कबीर, रैदास, नानक, मीरा आदि ने अपनी जाति की सीमा तोड़ बेहतरीन कविताएं लिखीं और आज अमर हैं.

होना तो यही चाहिए कि सभी अपने इनसान वर्ग से ऊपर उठें. एक मुलाजिम अफसर बने, तो अफसर और बड़े अफसर के वर्ग में जाने की जीतोड़ कोशिश करे.

नौकरियों में ऐसे इंतजाम हों कि हर शख्स को अपनी पढ़ाई, मेहनत और हुनर के बल पर ऊपर वाले वर्ग में जाने का मौका मिले. गांव में रहने वाला शहर में रहने के सपने देखे, तो स्लम एरिया में रहने वाला पौश एरिया में रहने की कोशिश करे.

पर पहले राजतंत्र या धर्मतंत्र में इस भावना पर रोक थी, मगर अब के लोकतंत्र में भी पूरा साथ नहीं मिल रहा है. इसे ले कर सरकारें बनती या बिगड़ती भी हैं.

जैविक आधार पर 2 वर्ग तो रहेंगे ही, आदमी और औरत. इन से 2 वर्ग सामने आए, मजबूत और कमजोर. खेती जानने पर 2 और वर्ग बने, किसान और कारीगर.

मगर ज्योंज्यों आदमी की तरक्की हुई, पैसा बढ़ा, तकनीक बढ़ी, ज्यादा वर्ग बनने लगे. भूस्वामी सामंत के रूप में उभरे, एक बौद्धिक वर्ग भी पैदा हुआ, जो पंडों के वर्ग के रूप में दुनियाभर में सामने आया.

एक तीसरा वर्ग बना कारोबारी का. और ये तीनों लोकतंत्र थे. समाज के बाकी लोग नीचे या सादे वर्ग में थे और इन की भी कोशिश रहती थी कि वे बढ़ कर ऊंचे वर्ग में शामिल हो जाएं.

भारत में वर्ग का बंटवारा आगे चल कर जातियों की मुश्किल व्यवस्था में बदल गया. पुरोहित वर्ग ने हमेशा यह कोशिश की कि यह उलझी जाति व्यवस्था बनी रहे. आजादी के पहले के आंदोलनों, पढ़ाई और राजनीतिक कोशिशों के चलते इस में फर्क हुआ. संविधान ऐसा बनाना चाहा, जिस में वर्गों को खत्म करने का आदेश था.

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अमीर वर्ग चूंकि सत्ता से जुड़े रहे हैं, उन्हें फायदा मिलता रहा है. दुनियाभर में राजा, सामंत, पुरोहित, कारोबारी का गठजोड़ रहा. दूसरे देशों में फिर भी अपने वर्ग से दूसरे वर्ग में पैसे या पढ़ाईलिखाई की वजह से आनेजाने की सुविधा रही.

मगर भारत में यह वर्ग पौराणिक जन्मना जाति व्यवस्था में बदल जाने की वजह से नहीं हुआ. पुरोहित वर्ग प्राचीन धार्मिक शिक्षा, शास्त्र या संस्कार का हवाला देते हैं, एक सिरे से इस के समर्थन में रहते हैं और जो लोग इस से निकलने की कोशिश करते हैं, उन्हें फंसाफंसा कर अपनीअपनी जगह बनाए रखने की कोशिश की जाती है.

गांवों और शहरी इलाकों में भी इस के फर्क को देखा और महसूस किया जा सकता है. होता तो यह है कि जो इनसान गांव में रहते हुए इस जाति भेद के पक्ष में रहता है, वही शहरी क्षेत्र में जाति विरोधी हो जाता है. शहर में आ कर वह जन्मना जाति के खिलाफ हो, काम से तय वर्ग की बातें करने लगता है. वैसे भी बहुत है सघन आबादी वाले शहरों में यह मुमकिन नहीं कि कोई जाति की बात करे, क्योंकि कानूनन पब्लिक सेवाओं पर सभी का बराबर हक रहता है. चाहे सरकारी सुविधाएं हों या स्कूलकालेज, बाजार हों या पार्क, सभी उस का इस्तेमाल करते हैं.

गांव, छोटे कसबों से सार्वजनिक जगहों, वह चाहे नदी, तालाब का घाट हो या स्कूलअस्पताल, सभी पर भी यही बात लागू तो है, मगर दिक्कत तब आती है, जब कोई दबंग या जाति वहां अपना एकाधिकार जमा लेती है. ऐसा होने की एक बड़ी वजह यह है कि गांवों से थानापुलिस बहुत दूर होते हैं या वे भी उन का साथ देने लग जाते हैं.

मगर जैसेजैसे जागरूकता आ रही है, ये बातें भी कम हो रही हैं. ऐसे नाजुक मोड़ पर ही कोई बाबा या धार्मिक ठेकेदार कोई उकसाने वाली बात कह जाता है, तो मामला खराब हो जाता है.

आज भी दिक्कत यह है कि जैसे ही कोई जागरूक उन के खिलाफ आवाज उठाता है, उस पर मारपीट, गाली देने से खतरे आने लगते हैं. जो इन खतरों को झेल जाता है, वही समाज को आगे ले जाता है. गांवों से शहरों की ओर भागने की यह एक बड़ी वजह यही है.

आर्थिक स्तर पर वर्ग की लड़ाई शहरों के बजाय गांवों में ज्यादा होती है. एक समय ऐसा भी था, जब निचले वर्ग से ऊंचे वर्ग द्वारा बेगारी कराई जाती थी बिना पैसे दिए. वह तो खत्म हुआ, मगर अभी भी कम मजदूरी देना या मजदूरी देने में देरी करना आम बात है और यह भी लड़ाई का एक मुद्दा बन जाता है और इन सभी के पीछे यही जन्म से मिला भेद है. इसे बनाए रखने के लिए संतमहात्मा जोर देते रहते हैं.

प्रोफैसर राजेंद्र प्रसाद सिंह के मुताबिक, ‘‘हर जाति अपने से नीची एक जाति खोज लेती है और यह सिद्धांत जाति बनाने वाले का दिया हुआ है, ताकि इस बला का ठीकरा हर जाति के सिर फोड़ा जा सके.’’

एक समय ऐसा था, जब लोग दूरियां बना कर रखते थे. जन्म से पैदा हुई जाति में दूरी तो थी ही, धार्मिक दूरियां भी थीं. मुसलिम शासनकाल में मुसलिम, तो ब्रिटिश काल में ईसाई वर्ग ऊंचा होने के घमंड से भरे रहते थे.

तथाकथित प्रजा कहलाने वाले हिंदू भी उन से दूरी बनाए रखते थे और दूसरी ओर अपने ही धर्म की निचली जातियों से भयंकर दूरी बनाए रखते थे.

यह हैरानी की बात है कि भारतीय मुसलिम और ईसाइयों में भी यह भेदभाव की भावना घर कर गई है और निचले वर्ग से आए कन्वर्टिड मुसलिम और ईसाइयों के साथ भेदभाव रखने लगे हैं.

अब जातीय मिथक टूटने लगे हैं. कहींकहीं धार्मिक मिथक भी टूटे?हैं. मगर ये शहरों में ही देखने को मिलता है, क्योंकि वहां सभी अपने काम से काम रखते हैं. पर गांवदेहात में ऐसा कुछ होने पर अनदेखी, मजाक और दिक्कत का भी सामना करना पड़ता है और इस के लिए सिर्फ और सिर्फ धर्म के धंधेबाज कुसूरवार हैं.

एक बैंक के मैनेजर रहे अरविंद गुप्त ने सुधा श्रीवास्तव से प्रेमविवाह किया, तो उन की खूब बुराई हुई. दोनों को ही अपनी जातियों में अनदेखी और मजाक का सामना करना पड़ा. मगर उन्होंने इस की परवाह नहीं की और सामान्य जिंदगी जीते रहे और आज 32 साल बाद भी वह सुखी जिंदगी जी रहे हैं.

नेताओं में शाहनवाज हुसेन, रामविलास पासवान, शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव जैसे अनेक उदाहरण समाज में दिख जाते हैं, जिन्होंने जातिधर्म का बंधन तोड़ शादी की और सुखी जिंदगी बिताई.

सिनेमा और टैलीविजन जगत में काम कर रहे लोगों में यह धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र वगैरह की दीवार देखी ही नहीं जाती. ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि दूसरे वर्ग में जाने से नुकसान होता है.

जहां कुछ प्रेमविवाह नाकाम होते हैं, उस के पीछे उन की कुछ कुंठाएं या इच्छाएं होती हैं. कुछ तथाकथित धर्म के ठेकेदारों या बाबाओं द्वारा दी गई सीख भी होती है, जिस में उलझ कर वे अपनी सुखी जिंदगी को बरबाद कर देते हैं.

वैसे देखा जाए तो क्या धर्म और जाति आधारित शादी नाकाम नहीं होती? यह तो इनसानइनसान की सोच पर निर्भर करता है कि वह अपनी जिंदगी में इसे कितना निभा पाता है.

फिल्म, खेल, राजनीति से जुड़े लोगों के बीच वर्ग और जाति भेद को दरकिनार कर शादियां करना आम बात है. मगर उन्होंने इस की परवाह नहीं की और बेहतर जिंदगी जीते रहे. ऐसे में यह कहना कि वर्ग से बाहर जा कर जिंदगी बिताना गलत?है, मजाक ही माना जाएगा.

नशाखोरी: बढ़ती गांजे की लत

हिंदी फिल्म कलाकार और पूरी दुनिया में ‘किंग खान’ के नाम से मशहूर सुपर स्टार शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान और उस के साथ कई लोगों को बैन किया गया. नशा अपने पास रखने और उस का सेवन करने का आरोप उन पर लगा, तो पूरी दुनिया में इस तरह के नशे पर बहस शुरू हो गई.

चिलम, तंबाकू और सिगरेट के साथ गांजे का इस्तेमाल भारत में लंबे समय से होता रहा है. कई मंदिरों में तो यह प्रसाद के तौर पर चढ़ता है. आयुर्वेद में गांजे को दवा के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है. नशे और दवा दोनों के रूप में गांजे का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है.

एक तरफ इस को नशा मान कर इस का कारोबार गैरकानूनी माना जाता है, वहीं दूसरी तरफ दवा और प्रसाद जैसा मान कर इस के बैन को हटाने की मांग भी की जा रही है.

इन सब बातों के बीच गांजे का सब से बड़ा और बुरा असर आम घरपरिवार पर पड़ रहा है. इस की वजह से परिवार के परिवार उजड़ रहे हैं. 50 रुपए की पुडि़या में मिलने के चलते यह सस्ता और मिलना आसान हो गया है. यही वजह है कि गांव के गरीब इस का सेवन कर के बरबाद हो रहे हैं.

गांजे का इस्तेमाल भारत के कई मंदिरों में प्रसाद के तौर पर किया जाता है. कई मंदिरों में इसे ‘महादेव का प्रसाद’ भी कहा जाता है. उत्तर कर्नाटक में कई ऐसे मंदिर हैं, जहां गांजे का इस्तेमाल प्रसाद के तौर पर किया जाता है.

यादगीर जिले के तिन्थिनी के मोरेश्वर मंदिर में छोटे पैकेट में गांजा बतौर प्रसाद मिलता है. बताया जाता है कि यह ध्यान करने में मददगार होता है.

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बिहार के खगडि़या में कात्यायनी मां के मंदिर में भी दूध और गांजा प्रसाद के रूप में चढ़ता है. शिव मंदिरों में भी ऐसा ही चलन देखने को मिलता है. यही वजह है कि जब गांजा न पीने की बात की जाती है, तो पीने वाले कहते हैं कि यह नशा नहीं, बल्कि प्रसाद है.

तमाम साधुसंत इस का सेवन चिलम से धुआं उड़ाते करते हैं. हिंदी फिल्मों में भी ‘दम मारो दम’ जैसे गानों में चिलम के सहारे धुआं उड़ाते गाने सुने जा सकते हैं.

घरपरिवार पर बुरा असर

रात के तकरीबन 11 बज रहे थे. रामपुरगांव के रहने वाले शिवकुमार के घर पर निगोहां पुलिस का छापा पड़ा. शिवकुमार घर में नहीं मिला तो पुलिस ने उस की पत्नी स्वाति को हिरासत में ले लिया.

शिवकुमार के बारे में पुलिस को यह सूचना मिली थी कि वह गांजा बेचने का काम करता है. शिवकुमार के घर से पुलिस को गांजा मिला भी था. अपने पति की बुरी आदतों के चलते स्वाति को जेल जाना पड़ा. इस वजह से उसे गांव में बेहद बदनामी का सामना करना पड़ा.

गांजे का नशा करने वाला थकाथका सा रहता है. उसे देख कर लगता है, जैसे वह बहुत परेशान है. वह बातबात पर गुस्सा और मारपीट करता है. वह चीखनेचिल्लाने का काम ज्यादा करता है.

पिछले कुछ सालों से जब से शराब की कीमत बढ़ने लगी है और कच्ची शराब बनाना मुश्किल होने लगा है, तब से गांवदेहात में गांजे का इस्तेमाल नशे के रूप में बढ़ने लगा है.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि गांजा खरीदना सस्ता पड़ता है. इस के अलावा इस को पुडि़या के रूप में रखा जाता है. शराब की तरह इस की बदबू नहीं फैलती है. गांव में 2-4 लोग ?ांड बना कर बैठ जाते हैं. वहां चिलम में रख कर इसे पीते हैं, जबकि देखने वाले को लगता है कि वे लोग तंबाकू पी रहे हैं. असल में तो वे गांजा पी रहे होते हैं.

गांजा बेचने वाले गांव के लोगों को पहले मुफ्त में पिलाने का काम करते हैं, पर जब इस की आदत पड़ जाती है तो लोग खरीद कर पीने लगते हैं.

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बड़े पैमाने पर तस्करी

गांजे का इस्तेमाल बढ़ने से बड़ी मात्रा में इस की तस्करी भी बढ़ने लगी है. ओडिशा से सस्ते दाम पर गांजा खरीद कर दिल्ली समेत उत्तर प्रदेश के शहरों में बेचने वाले तस्कर गिरोह के 2 सदस्यों को भदोही पुलिस ने गिरफ्तार किया था. वाराणसीप्रयागराज रोड पर ऊंज थाना क्षेत्र में नवधव के पास से ट्रक में लदा 350 किलोग्राम गांजा बरामद किया था.

बरामद गांजे की कीमत 35 लाख रुपए आंकी गई थी. जिस ट्रक से गांजा बरामद किया गया, उस में टूटे हुए शीशे लदे थे. ट्रक के केबिन में गांजे को छिपा कर रखा गया था.

जागरूकता की जरूरत

लखनऊ के निगोहां थाने के क्षेत्राधिकारी नईम उल हसन कहते हैं, ‘‘यह देखा गया है कि नशे के रूप में गांजे का इस्तेमाल तेजी से बढ़ने लगा है, जिस की रोकथाम के लिए पुलिस के साथसाथ गांव के लोगों और समाज के खास लोगों को भी सामने आना पड़ेगा, तभी गांवों को गांजे के नशे से दूर रखा जा सकता है. गांव के लोगों को यह सम?ाना होगा कि यह नशा सेहत के साथसाथ उन की सामाजिक इज्जत को भी नुकसान पहुंचा रहा है.’’

मोहनलालगंज संसदीय सीट के सांसद कौशल किशोर ने नशे के खिलाफ एक बड़ी मुहिम छेड़ी है. वे लोगों को नशा छोड़ने की शपथ दिलाते हैं. इस मुहिम में वे अपने क्षेत्र के साथसाथ पूरे देश में जागरूकता का संदेश दे रहे हैं.

कौशल किशोर कहते हैं, ‘‘किसी भी तरह की नशीली चीजों का सेवन सेहत के लिए खराब होता है. यह घरपरिवार को पूरी तरह से तबाह कर देता है. ऐसे में जरूरी है कि गांवगांव इस बात को ले कर जागरूकता

मुहिम शुरू की जाए और लोगों को सम?ाया जाए.’’

अपराध है गांजे का सेवन

हमारे देश में हजारों सालों से गांजे का सेवन किया जा रहा है. इसे इंगलिश भाषा में कैनेबिस कहा जाता है. कैनेबिस के फूलों से ही गांजा बनाया जाता है. नशे के तौर पर अगर गांजे का सेवन करना छोड़ दिया जाए तो इस पौधे का इस्तेमाल कृषि, बागबानी, कपड़ा उद्योग, दवा और स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों में किया जाता है.

एक जानकारी के मुताबिक, 2 करोड़ लोग गांजे के पौधे से बने उत्पादों का इस्तेमाल नशे के तौर पर करते हैं.

गांजे को तंबाकू में मिला कर चिलम या हुक्के के जरीए लिया जाता है. नए दौर में अब इस को कागज में लपेट कर तंबाकू के साथ सिगरेट जैसा बना कर भी लिया जाता है. शहरों में चलने वाले हुक्का बार में इस का इस्तेमाल हुक्का पीने में किया जाता है.

हाल के कुछ दिनों में गांव से ले कर शहर तक इस का चलन तेजी से बढ़ गया है. साल 1985 में राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे. उस समय से ‘नार्कोटिक ड्रग्स ऐंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस ऐक्ट 1985’ (एनडीपीएस ऐक्ट 1985) लागू हुआ था, जिस में गांजे को बैन कर दिया गया था. अब भारत में गांजे का इस्तेमाल करना और इसे बेचना पूरी तरह से बैन है. इस के बावजूद लोग चोरीछिपे इस का कारोबार और सेवन करते हैं

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गांजे की खेती

गांजे के नर और मादा 2 पौधे होते हैं. नर पौधे की पत्तियों से भांग बनती है. मादा पौधे के फूल को सुखा कर गांजा बनाया जाता है. गांजे का सेवन करने पर लोगों में एक तरह का जोश सा बढ़ जाता है, क्योंकि यह तंबाकू के साथ मिला कर पीया जाता है. यह तेजी से असर करता है.

तंबाकू के साथ मिला कर गांजा पीने से कैंसर का खतरा बढ़ जाता है. जो लोग गांजे का ज्यादा और लगातार सेवन करते हैं, उन के चेहरे पर काले दाग पड़ जाते हैं.

अलगअलग रूपों में गांजे का सेवन पूरी दुनिया में होता है. हिमाचल प्रदेश के मलाना इलाके में उगने वाला गांजा दुनिया का सब से बेहतरीन गांजा माना जाता है.

गांजे की खेती  जुलाई महीने के आसपास होती है, तब इस के पौधे को लगाया जाता है. 4 से 8 फुट तक इस का पौधा बढ़ता है.

गांजे के फूल को उलटपलट कर सुखाया जाता है. इसी से गांजा पाउडर तैयार किया जाता है.

अच्छी किस्म के गांजे में 15 से 25 फीसदी रेजिन और 15 फीसदी राख निकलती है. रेजिन को ही तंबाकू के साथ मिला कर पीने का काम किया जाता है.

सेहत के लिए खतरनाक

तंबाकू के साथ मिला कर गांजा पीने से दिमाग में कई तरह के बदलाव होने लगते हैं. कैनेबिस के पौधे में तकरीबन 150 तरह के कैनेबिनौइड पाए जाते हैं. कैनेबिनौइड एक तरह का कैमिकल होता है. 150 कैमिकलों में से 2 कैमिकल टैट्राहाइड्रोकैनाबिनौल (टीएचसी) और कैनेबिडौल (सीबीडी) ऐसे भी होते हैं, जो दिमाग पर सब से ज्यादा असर डालते हैं.

गांजे में पाए जाने वाले ये दोनों कैमिकल यानी टीएचसी और सीबीडी अलगअलग काम करते हैं. टीएचसी जहां एक तरफ नशा बढ़ाता है, तो वहीं दूसरी तरफ सीबीडी नशे के असर को कम करता है. जब गांजे में टीएचसी की मात्रा ज्यादा होती है, तो टीएचसी खून के साथ दिमाग तक पहुंच जाता है और गड़बड़ करने लगता है.

यह दिमाग में काम करने वाले न्यूरौन पर असर डालता है. गांजा पीने के बाद न्यूरौन ही कंट्रोल से बाहर हो जाता है. कैनेबिडौल का इस्तेमाल दवाएं बनाने में किया जाता है.

गांजा पीने के बाद जब हमारा दिमाग बेकाबू हो जाता है, तो लोगों को बेशक मजा सा आता है, लेकिन इस का खराब असर ही पड़ता है. धीरेधीरे नशेड़ी कोई बात ज्यादा देर तक याद नहीं रख पाते हैं. उन का दिमागी बैलेंस खराब होने लगता है. डिप्रैशन बढ़ने लगता है. कैंसर का खतरा बढ़ जाता है.

जो लड़कियां गांजे का सेवन करने लगती हैं, वे अपनी बच्चा जनने की ताकत खोने लगती हैं. माहवारी में दिक्कतें होने लगती हैं. हमेशा नशा करने का मन होता है. नशा पाने की बेचैनी में वे कुछ भी करने को तैयार हो जाती हैं.

यही नहीं, खुद पर काबू न रख पाना ही नशा करने का सब से बड़ा नुकसान है. करता कोई एक है और भुगतता पूरा परिवार है.

“नवजात” को बेचने के “अपराधी”

यह एक प्रसंग देश की संपूर्ण जमीनी हालत का ऐसा सच बता रहा है जिस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. सरकार को ऐसे कदम उठाने चाहिए कि कोई अपनी गरीबी के कारण ना तो अपना जिस्म बेचे और ना ही अपनी नवजात शिशु को.

महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के शिरडी शहर में एक महिला ने कथित तौर पर गरीबी की वजह से  अपने  नवजात शिशु को मुंबई के एक व्यक्ति को 1.78 लाख रुपए में बेच दिया. यहां के डोंबीवली में मानपाड़ा पुलिस थाने मे दर्ज की गई प्राथमिकी से पता चलता है पुलिस ने महिला, बच्चा खरीदने वाले व्यक्ति और इस अपराध में महिला की मदद करने वाले चार लोगों को गिरफ्त में लिया  है. पुलिस थाने के एक अधिकारी अनुसार महिला रेखा देवी (काल्पनिक नाम) ने सितंबर 2021  में एक बच्चे को जन्म दिया था, लेकिन खराब आर्थिक हालात के कारण वह बच्चे के पालन पोषण में असमर्थ थी, इसलिए उसने बच्चे को बेचने के लिए खरीदार की तलाश शुरू कर दी  उसे कुछ बिचौलिए भी मिल गए बच्चे को बेचने की पटकथा लिखी जाने लगी. पुलिस अफसर के अनुसार  अहमदनगर और ठाणे के कल्याण तथा मुलुंड की तीन महिलाओं ने इस काम में उसकी मदद की और उन्होंने मुलुंड के निवासी एक व्यक्ति को बच्चा बेचने का सौदा पक्का कर लिया. प्राथमिकी के अनुसार बच्चे की मां ने अन्य आरोपियों के साथ मिलकर कथित तौर पर व्यक्ति को 1.78 लाख रुपये में बच्चा बेचा. इसके लिए कोई कानूनी औपचारिकता पूरी नहीं की. जब कुछ हंगामा मचा और जानकारी पुलिस तक पहुंची तब सूचना के आधार पर पुलिस ने व्यक्ति के घर पर छापा मारा और बच्चा बरामद किया.इसके बाद बच्चे की मां, बच्चा खरीदने वाले व्यक्ति, तीन अन्य महिलाओं और एक अन्य व्यक्ति को हिरासत में लिया गया.  भारतीय दंड संहिता तथा किशोर न्याय अधिनियम के संबंधित प्रावधानों के तहत मामला दर्ज किया गया है.

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नवजात: जाने कितनी कहानियां

अगर हम इतिहास या पौराणिक कथाओं में जाएं तो ऐसे जाने कितने किस्से कहानियां आपको मिल जाएंगे जो नवजात शिशु के बिक्री और उसके इर्द-गिर्द बुनी गई हैं. फिल्में और साहित्य में ऐसी ही अनेक कहानियां हैं यह मामला समाज का एक ऐसा आईना है जिसे हम अपने आसपास भी अक्सर देखते हैं और महसूस करते हैं कि कभी नवजात को कथित रूप से अवैध संतान होने के कारण परिजन कूड़ेदान में फेंक देते हैं अथवा किसी को पालन पोषण के लिए दे देते हैं. अथवा नदी नालों में बहा दिया जाता है. भाग्यशाली कुछ नवजात शिशु बच जाते हैं अधिकांश अवैध नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है.

ऐसे ही एक कथा महाभारत में  भी चर्चित है, यह पांडवों के बड़े भाई कर्ण की है. इसी तरह राजेश खन्ना की पहली फिल्म आराधना और अमिताभ बच्चन की लावारिश भी कुछ इसी ताने-बाने के साथ बनाई गई थीं.

नवजात शिशु के इस प्रसंग के अंतर्गत यह सच समझना होगा कि जाने कितने नवजात शिशुओं के साथ समाज में एक तरह से भयावह व्यवहार और अत्याचार होता है जिसकी आवाज कभी नहीं उठती.

इस संदर्भ में कानून की कुछ धाराओं का प्रावधान जरूर किया गया है मगर जैसे अन्य बहुतेरे कानून किताबों में कैद हैं नवजात शिशु के व्यवहार संबंधी आचरण भी इन कानूनी धाराओं से बहुत दूर होने के कारण अत्याचार जारी रहता है.हां, कभी कभी महाराष्ट्र के अहमदनगर की घटना के तारतम्य में मामला बहुचर्चित हो जाता है.

वस्तुतः यह मामला समाज की एक ऐसी संवेदनशील अपेक्षा का है जो कानून से बहुत दूर है. जब तक समाज में संवेदना का संचार नहीं होता नवजात शिशुओं के साथ ऐसा व्यवहार जाने कब तक चलता रहेगा इसे कोई नहीं जानता.

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नवजात शिशु के आचरण संबंधी कानून के संदर्भ में अधिवक्ता बीके शुक्ला के मुताबिक कानून की धाराएं अपनी पूरी संवेदना के साथ नवजात शिशुओं का संरक्षण करती है और उनकी बिक्री आदि पर कठोर नियम हैं. यही कारण है कि जब कभी इनका कोई उल्लंघन करता है तो कानून के शिकंजे से बच नहीं सकता.

अधिवक्ता डॉ उत्पल अग्रवाल बताते हैं कि अक्सर ऐसे मामले प्रकाश में आते हैं जिनका सिर्फ एक कारण होता है अवैध संतान का ठप्पा जिसके कारण या तो नवजात शिशु के साथ अत्याचार करते हुए उन्हें कहीं फेंक दिया जाता है या फिर अपनी कथित रूप से इज्जत बचाने के लिए किसी जरूरतमंद को पालन पोषण के लिए बच्चे को सौंप दिया जाता है.

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