अनंत सितारों से भरे आकाश की तरह समस्याएं भी अनंत को छू रही हैं. मोबाइल फोन की बैटरी मौत के कगार पर है. बिजली कब आएगी, यह सवाल भूखे गांव वालों की जबान पर तैर रहा है.
यह नजारा राजस्थान में अघोषित बिजली संकट की भयावहता की ओर इशारा कर रहा है. कमोबेश 4-5 दिनों से रोजाना हम इन हालात से गुजर रहे हैं. गरमी में पसीने से लथपथ हर किसी के मन में राज्य सरकार की बदइंतजामी को ले कर काफी गुस्सा है.
गौरतलब है कि जोधपुर डिस्कौम के गांवदेहात के इलाके में 3 से 4 घंटे तक की बिजली कटौती की जा रही है. इतना ही नहीं, सभी नगरपालिका क्षेत्रों (जिला हैडक्वार्टर को छोड़ कर) में दिन में एक घंटे की बिजली कटौती हो रही है. जयपुर की कालोनियों में भी 4 घंटे से 7 घंटे तक बिजली कटौती की घोषणा की गई है.
ऐसे में गांवों की हालत बद से बदतर है. वहां लोगों को 8 से 9 घंटे अघोषित बिजली कटौती का सामना करना पड़ रहा है. इस की वजह साफ है और सरकार ने भी माना है कि देश में कोयला संकट गहराता जा रहा है.
कोयला संकट गहराने का सीधा असर बिजली के प्रोडक्शन पर पड़ रहा है, क्योंकि देश में ज्यादातर बिजली कोयले से पैदा होती है.
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कोयले की कमी के चलते राजस्थान में गहराते बिजली संकट पर ऊर्जा विभाग काफी चिंतित है. इस चिंता के बीच सोलर एनर्जी प्रोडक्शन के इस्तेमाल को बिजली संकट से जोड़ कर देखा जा रहा है.
याद रहे कि राजस्थान सोलर एनर्जी प्रोडक्शन में देश में पहले नंबर पर होने के बावजूद शहरी और गांवदेहात के इलाकों में अघोषित बिजली कटौती करनी पड़ रही है.
राजस्थान 7,738 मैगावाट सौर ऊर्जा क्षमता उत्पादन कर देश में पहले पायदान पर है. इस आंकड़े से लगता है कि राजस्थान में बिजली की कोई कमी नहीं है, फिर भी बिजली उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली नहीं मिल पा रही.
विभाग को यह भी पता है कि ऊर्जा के विभिन्न माध्यमों में सोलर एनर्जी प्रोडक्शन सब से सस्ता होता है, लेकिन इस उपलब्धि का सही इस्तेमाल नहीं होने के पीछे राजनीतिक वजह ज्यादा मानी जा रही है.
राजस्थान में सोलर एनर्जी उत्पादन की सरकारी इकाइयां कम और बाहरी निवेशकों की ज्यादा हैं. निवेशकों को सोलर सैक्टर में निवेश की छूट दी गई, लेकिन उन से सस्ती बिजली लेने की दिशा में कोई ठोस कोशिश नहीं की गई. इसी वजह से ज्यादा निवेशक अपनी बिजली दूसरे राज्यों में बेचते हैं.
कोयले से बिजली बनाने की लागत काफी महंगी होती है. इस के बावजूद राजस्थान की ज्यादातर उत्पादन इकाइयां थर्मल आधारित हैं. यही वजह है कि कोयले की कमी से बारबार उत्पादन प्रभावित होता है.
कोयले के संकट की वजह से 15 से 20 रुपए प्रति यूनिट की दर से महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है, जिस का बोझ आम उपभोक्ता पर ही पड़ता है.
अगर देश की बात करें, तो देश में 135 बिजली संयंत्र हैं, जहां कोयले से बिजली का उत्पादन होता है.
कोयला उत्पादन पर एक नोट के मुताबिक, 1 अक्तूबर को इन 135 बिजली संयंत्रों में से 72 के पास 3 दिनों से भी कम का स्टौक था, वहीं 4 दिनों से 10 दिनों का स्टौक रखने वाले बिजलीघरों की संख्या 50 है.
अगस्तसितंबर, 2019 में बिजली की खपत 106.6 अरब यूनिट थी, जबकि इस साल अगस्तसितंबर में 124.2 बीयू की खपत हुई थी.
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इसी अवधि के दौरान कोयले से बिजली का उत्पादन साल 2019 में 61.91 फीसदी से बढ़ कर 66.35 फीसदी हो गया. अगस्तसितंबर, 2019 की तुलना में इस साल के समान 2 महीनों में कोयले की खपत में 18 फीसदी की बढ़ोतरी हुई.
मार्च, 2021 में इंडोनेशिया से आने वाले कोयले की कीमत 60 डालर प्रति टन थी, लेकिन सितंबरअक्तूबर में इस की कीमत में 200 डालर प्रति टन की बढ़ोतरी हुई. इस से कोयले का आयात कम हो गया. मानसून के मौसम में कोयले से चलने वाली बिजली की खपत बढ़ गई, जिस से बिजली स्टेशनों में कोयले की कमी हो गई.
दरअसल, कोविड महामारी की दूसरी लहर के बाद भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी आई है और बिजली की मांग भी अचानक से बढ़ गई है. पिछले 2 महीनों में अकेले बिजली की खपत में साल 2019 की तुलना में 17 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.
इस बीच दुनियाभर में कोयले की कीमतों में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जबकि भारत का कोयला आयात 2 सालों में अपने सब से निचले लैवल पर है.
हालांकि, भारत के पास दुनिया में कोयले का चौथा सब से बड़ा भंडार है, लेकिन खपत के मामले में भारत कोयले के आयात में दुनिया में दूसरे नंबर पर है.
आमतौर पर आयातित कोयले पर चलने वाले बिजली प्लांट अब देश में उत्पादित कोयले पर निर्भर हैं. इस वजह से पहले से ही कमी से जूझ रही कोयले की सप्लाई और भी ज्यादा दबाव में आ गई है.
हाल के सालों में भारत अपनी तकरीबन 140 करोड़ की आबादी की जरूरतों को कैसे पूरा कर सकता है और भारी प्रदूषण वाले कोयले पर अपनी निर्भरता को कैसे कम कर सकता है, यह सवाल सरकारों के लिए एक चुनौती रहा है.
फिलहाल तो सरकार ने कहा है कि वह उत्पादन बढ़ाने, सप्लाई और खपत के बीच की खाई को पाटने और ज्यादा खनन करने के लिए कोल इंडिया के साथ काम कर रही है.
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सरकार को भी बंधक खदानों से कोयला मिलने की उम्मीद है. ये वे खदानें हैं, जो कंपनियों के कंट्रोल में होती हैं और उन से उत्पादित कोयले का इस्तेमाल वही कंपनियां करती हैं.
इन खदानों को सरकार के साथ समझौते की शर्तों के तहत कोयला बेचने की इजाजत नहीं है. भारत शौर्टटर्म उपायों से मौजूदा संकट से किसी तरह निकल सकता है, लेकिन देश की बढ़ती ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत को लंबी मीआद के उपायों में निवेश करने की दिशा में काम करना होगा.