भारतमाला परियोजना: बेतरतीब योजनाओं के शिकार किसान

भारतमाता की माला के मोती ही बिखर जाएं वो कैसी भारतमाला? इस पूंजीवादी मॉडल की बेतरतीब योजनाओं में भारत की बुनियाद का तिनकातिनका धरा पर बिखरता जा रहा है. किसान नेमत का नहीं, बल्कि सत्ता की नीयत का मारा है.

भारतमाला परियोजना के तहत बन रही सड़कें किसानों में बगावत के सुर पैदा कर रही है. इस योजना के तहत 6 लेन का एक हाईवे गुजरात के जामनगर से पंजाब के अमृतसर तक बन रहा है, फिर आगे हिमालयी राज्यों तक निर्मित किया जाएगा.

दरअसल बिना ठोस तैयारी के सरकारें योजना तो शुरू कर देती है, मगर बाद में जब इस के दुष्परिणाम सामने आने लगते है तो फिर सरकार सख्ती पर उतरती है और किसान बगावत पर.

जो भूमि अधिग्रहण बिल संसद में पारित किया था, उस के तहत सरकार जमीन का अधिग्रहण करने के बजाय उस मे संशोधन करने पर आमादा है और जब तक संशोधन कर नहीं दिया जाता तब तक इन परियोजनाओं को पूरा करने का सरकार के पास एक ही विकल्प है कि जोरजबरदस्ती के साथ किसानों को दबाया जाएं.

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फरवरी, 2020  में राजस्थान में जालोर के बागोड़ा में किसानों ने इस के खिलाफ स्थायी धरना शुरू किया था. 14 मार्च को इन किसानों ने राजस्थान के सीएम से बात की थी और सीएम ने आश्वस्त किया कि आप की मांगे कानूनन सही है और आप को इंसाफ दिलवाया जाएगा. कोरोना के कारण किसानों ने धरना खत्म कर दिया.

यही काम जालोर से ले कर बीकानेर-हनुमानगढ़ के किसानों ने भी किया था. लॉकडाउन के संकट के बीच किसान तो चुप हो गए,  मगर परियोजना का कार्य कर रही कंपनियों ने जबरदस्ती कब्जा करना शुरू कर दिया.

केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इस परियोजना के संबंध में कहा था कि किसानों को बाजार दर से चार गुना मुआवजा दिया जाएगा. जालोर व बीकानेर के किसान कह रहे है कि हमे मुआवजा 40 से 50 हजार रूपए प्रति बीघा दिया जा रहा है, जब कि बाजार दर 2 लाख रुपये प्रति बीघा है.जिन किसानों ने सहमति पत्र भी नहीं दिया और मुआवजा तक नहीं मिला, उन की भी जमीने जबरदस्ती छीनी जा रही है!

इस योजना का ठेका दो कंपनियों को दिया गया. जामनगर से बाड़मेर तक जो कंपनी यह हाईवे बना रही है, उस को 20 जुलाई तक कार्य पूरा करना है और बाड़मेर से अमृतसर का कार्य जो कंपनी देख रही है, उस को यह कार्य सितंबर 2020 तक पूरा करना है. एक तरफ कंपनियों की समयसीमा है तो दूसरी तरफ किसान है.

समस्या विकास नहीं है, बल्कि असल समस्या बेतरतीब योजनाएं है, गलत नीतियां है, सरकारों की नीयत है.  साल 1951 में भारत की जीडीपी में किसानों का योगदान 57% था और कुल रोजगार का 85% हिस्सा खेती पर निर्भर था.  2011 में जीडीपी में खेती का कुल योगदान 14% रहा और कुल रोजगार का 50% हिस्सा खेती पर निर्भर रहा.

जिस गति से खेती का जीडीपी में योगदान घटा व दूसरे क्षेत्रों ने जगह बनाई, उस हिसाब से रोजगार सृजन नहीं हुए अर्थात खेती घाटे का सौदा बनता गया और खेती पर जो लोग निर्भर थे वो इस सरंचनात्मक बेरोजगारी के शिकार हो गए.

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किसानों के बच्चे कुछ शिक्षित हुए और गांवों से शहरों में रोजगार पाना चाहते थे,  मगर उन को रोजगार मिला नहीं और खुली बेरोजगारी के शिकार हो कर नशे व अपराध की दुनिया में जाने लगे.

भारत की ज्यादातर खेती मानसून पर निर्भर है इसलिए मौसमी बेरोजगारी की मार भी किसानों पर बहुत बुरे तरीके से पड़ी. शहरों में कुछ महीनों के लिए रोजगार तलाशते है और बारिश होती है तो वापिस गांवों में पलायन करना पड़ता है.

किसानों में बेरोजगारी का एक स्वरूप भयानक रूप से नजर आ रहा है, वो छिपी बेरोजगारी है. किसानों के संयुक्त परिवार है और जितने भी लोग है वो खेती पर ही निर्भर है. जहां दो लोगों का काम है वहां 5 लोग खेती में लगे हुए है क्योंकि दूसरी जगह रोजगार मिलता नहीं है.

जब भी किसी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की जाती है तो किसानों में भय का वातावरण फैल जाता है. दूसरी जगह रोजगार मिलता नहीं है व वर्तमान में जिस तरह की वो खेती कर रहे होते है उस के हिसाब से वो कर्ज में दबे हुए ही होते है तो बच्चों को ऐसी तालीम नहीं दिलवा सकते जो कठिन प्रतियोगिताओं में मुकाबला कर सके.

कुल मिलाकर जमीन किसान के जीवनमरण का बिंदु बन जाता है. आग में घी का काम करती है सरकार द्वारा घोषित मुआवजे व पुनर्वास की प्रक्रियाओं को दरकिनार करना. देशभर में किसानों व परियोजना निर्माण में लगी कंपनियों के बीच हमेशा हिंसक झड़पें होती रहती है और आखिर में सरकार सख्ती से कब्जा लेती है और फिर बगावत के सुर शुरू हो जाते है.

किसान नेता अक्सर अपना रोजगार शिफ्ट कर चुके होते है, इसलिए भाषणबाजी के अलावा इन किसानों से उन का सरोकार होता नहीं है. जो नीतियां बनाते है व विधानसभाओं व संसद में पास करते है उन लोगों के पूरे परिवार अपना रोजगार खेती से अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित कर लिया है. ऐसे लग रहा है कि भारत की राजनीतिक जमात की बुनियाद इसी पर टिकी है कि देश के पुरुषार्थ को लूटो और अपने टापू बना लो.

आज कोरोना का संकट है और पूरी दुनिया जूझ रही है. भारत मे इस समय उद्योग/धंधे बंद हो गए. हर तरह का सामान बिकना बंद हो गया, मगर एक बात हम सभी ने गौर से देखी होगी कि सामान सस्ता होने के बजाय महंगा होता गया. कई गुना दाम हो गए मगर अन्न व सब्जियां उसी दर पर मिल रही है क्योंकि इसे किसान पैदा करता है.

आज भी 50% से ज्यादा लोग खेती पर निर्भर है और उन की क्रय शक्ति ही डूबती अर्थव्यवस्था को जिंदा कर सकती है, मगर सत्ता में बैठे लोगों की नीयत देशहित के बजाय निजहित तक सीमित है.  इसलिए देश की बुनियाद बर्बाद करने पर तुले हुए है.

उचित मुआवजा, पुनर्वास जब तक कार्य शुरू करने से पहले नहीं करोगे, तब तक सत्तासीन लोग भविष्य के लिए नागरिक नहीं बगावती तैयार कर रहे है. बंगाल के जलपाई गुड़ी जिले के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में 1967 में कान्हू सान्याल व मजूमदार नाम के दो युवाओं ने भूमि सुधार को ले कर बगावत की थी और आज 14 राज्यों में इसी देश के नागरिक सत्ता के खिलाफ हथियार उठा कर लड़ रहे है.

समस्या को नजरअंदाज कर के सत्ता की  दादागिरी का खामियाजा यह देश पिछले 5 दशक से ज्यादा समय से भुगत रहा है. जब लोकसभा में यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल पारित किया था तब यह समझ जरूर थी कि चाहे विकास की गति धीमी हो मगर ऐसी समस्या देश के सामने भविष्य में निर्मित न हो. अब लगता है कि शाम को टीवी पर भाषण दो और अगली सुबह सबकुछ उसी अनुरूप चलने लगेगा. अक्सर लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता है.

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बीकानेर के किसान आज बहुत परेशान है.सांसद से ले कर विधायक तक सुविधाभोगी है इसलिए अकेले नजर आ रहे है. किसान देश का है मगर किसान का कोई नहीं. अभी तक किसान टूटा नहीं है इसलिए व्यवस्था बदरंग ही सही मगर चल रही है. जिस दिन किसान टूट गए तो समझ लीजिएगा कि देश वापिस देशी एजेंटों के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों जा चुका है.

यह परियोजना मात्र 14 सौ किमी की चमचमाती सड़क नहीं है, बल्कि जहां से गुजरेगी वहाँ के व आसपास के किसानों के सीने में जख्म दे जायेगी जिसे भविष्य में भरा न जा सकेगा.

शोषण की शिकार पिछड़े दलित वर्ग की लड़कियां

अपनी सहेली की शादी के पार्टी से लौटकर 11 बजे रात्रि को ज्योंहि शिवानी अपने घर का कॉलवेल बजाती है. उसके पापा की ऑंखें गुस्से से लाल है. दरवाजा खोलते ही बोलने लगते हैं.अय्यासी करके आ गयी.घर आने का यही समय है. जबकि बेटा हर रोज शराब और सड़कों पर दोस्तों के साथ आवारागर्दी करके घर में बारह बजे रात्रि तक भी आता है. उसे पापा कुछ भी नहीं बोलते.

पिछड़े और दलित वर्ग की महिलाएं सदियों से आज तक उपेक्षित लांक्षित और शोषित हैं. अपने ऊपर हो रहे शोषण की आवाज तो हम उठाते रहें हैं. लेकिन इस समुदाय से जुड़े लोग स्वयं लड़कियों और औरतों पर शोषण कई माध्यमों से करते रहते हैं. अशिक्षित से लेकर इस समुदाय के शिक्षित लोग भी किसी न किसी रूप में शामिल हैं. शिवानी रहती तो एक बड़े शहर की एक बस्ती में पर उसके पिता की रगों में अभी भी गांव के रीति-रिवाज भरे पड़े हैं.

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आज भी लड़के और लड़कियों में अधिकांशतः घरों में फर्क समझा जाता है. लड़का और लड़की के साथ भेदभाव किया जाता है. पहली चाहत आज भी लोगों के अंदर लड़के की है. तीन चार लड़की होने या लड़के की चाहत में छिप छिपाकर लड़की को पेट में ही गिरवा देते हैं. लड़के लड़की में खान पान ,पढ़ाई लिखाई सभी मामले में भेदभाव किया जाता है. लड़का है तो उसे दूध और लड़की है तो उसे छांछ पीने को मिलेगा. लड़की सरकारी विद्यालय में और लड़का प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के लिए जाएगा.

औरंगाबाद जिले के सरकारी मध्य विद्यालय भाव विगहा के प्रधानाध्यपक उदय कुमार ने बताया कि उनके स्कूल में अधिक लड़कियाँ आती हैं. इस गाँव में सिर्फ पिछड़ी और दलित जाति के लोग रहते हैं. लड़के को प्राइवेट विद्यालयों में लोग पढ़ने के लिए भेजते हैं. ज्यादातर लड़कियाँ इंटर के बाद उच्च शिक्षा या टेक्निकल एजुकेशन इसलिए नहीं ले पाती कि पढ़ाने में अधिक खर्च आता है. शहरों में रखकर लड़कियों को लोग नहीं पढ़ाना चाहते हैं.साफ जाहिर होता है कि आज भी लोगों के अंदर यह सोच घर करी हुई  है कि बेटियों को अच्छी शिक्षा देने से क्या फायदा है. लड़कों को कर्ज लेकर भी लोग पढ़ाना चाहते हैं. लड़का है तो आने वाले दिनों में घर का सहारा बनेगा.इस तरह की सोच से लोग बिमार हैं.

दलित और पिछड़ी जाति के पढ़ने वाली छोटी छोटी लड़कियाँ बर्तन धोने,छोटे बच्चों को खिलाने, बकरी चराने के अलावे घरेलू काम करतीं हैं. जबकि लड़के स्कूल से आने के बाद ट्यूशन ,मोबाइल,गेम और क्रिकेट खेलने में मस्त रहते हैं.

दलित और पिछड़ी जातियों में लड़कियों की शादी 15 से लेकर 22 वर्ष तक के उम्र में कर दी जाती है. साधरण घर की लड़कियाँ तो अपने मैके में भी अपने माता पिता के साथ खेती किसानी मजदूरी में हाँथ बंटाती रहतीं हैं.

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ससुराल जानें पर भी ससुराल के हैसियत के अनुसार काम करना पड़ता है. ईंट भट्ठा पर काम कर रही 23 वर्षीय शादी शुदा रजंती ने दिल्ली प्रेस को बताया कि उसका घर गया जिला के आजाद बिगहा गाँव में है. उसके बाबूजी  सभी परिवार को लेकर उत्तरप्रदेश बनारस  के पास ईंट भट्ठा पर काम करने के लिए लेकर चले जाते थे.सिर्फ बरसात के दिनों में तीन महीने वे लोग अपने गाँव में रहते बाकी दिनों बचपन से आज तक ईंट भट्ठे पर ही उसने जिंदगी गुजारी .पहले अपने माँ बाबूजी के साथ में काम करता थी.आज अपने सास ससुर और पति के साथ में काम करती है. शादी के बाद तीन महीने अपने घर पर ससुराल में रही.फिर अपने ससुराल वालों के साथ इंट भट्ठा पर निकल पड़े.

इसी तरह काजल  ने बताया, “मेरी शादी 15 वर्ष की उम्र में हो गयी थी. हमसे छोटा एक भाई और एक बहन थी. माँ बाबूजी दूसरे के खेतों मजदूरी करते थे. घर पर खाना बनाना और भाई बहन को देखना मेरा काम रहता था. जब वे लोग थोड़ा बड़े हुए और स्कूल जाने लगे तो मैं माँ बाबूजी के साथ साथ में धान गेहूँ काटने,सोहने और रोपने के कार्य में जाने लगी. जब शादी हुई तो ससुराल गई. 6 माह घर में रहे उसके बाद पति लुधियाना काम करने के लिए गाँव के दोस्तों के साथ चले गए.

सास ससुर साथ में मजदूरी पर चलने के लिए विवश करने लगे. मैं मजबूर होकर काम पर जाने लगी. कोई उपाय नहीं था. पति भी बोले क्या करोगी जो माँ बाबूजी कह रहे हैं, वह करो. चार बजे भोर में उठती हूँ. सभी लोगों का खाना बनाकर खाकर काम पर निकल जाती हूँ. शाम में काम से आती हूँ. वर्तन धोती हूँ. खाना बनाती हूँ. बिस्तर पर जाते ही नींद लग जाती है. चार बजे उठ जाती हूँ. जब काम नहीं रहता तो दिन भर घर में रहती हूँ. गाँव में औरतों को सालों भर काम भी नहीं मिलता.खासकर फसल काटने और रोपने के समय ही काम मिल पाता है.”

ये उदाहरण सिर्फ गाँवों में ही देखने को नहीं मिलते शहरों में भी इस तरह की समस्याएँ हैं. शहर में गरीब परिवारों की थोड़ी समस्या अलग ढंग की है.

शिवानी एक कम्पनी में टाइपिस्ट की नौकरी करती है. बेटा भी इंजीनियरिंग करके जॉब करता है. उसे कभी ताना नहीं सुनने पड़ता .लेकिन लड़की होने के उसे नाते ताना सुनने पड़ते हैं.

कहीं लड़कियों को बाजार ,पार्टी ,दोस्त के यहाँ जब जाने की जरूरत पड़ती है तो बड़ी लड़कियों के साथ में घर के छोटे लड़कों को सुरक्षा के हिसाब से भेजा जाता है. जबकि ये छोटे लड़के आफत होने पर किसी भी तरह से बहन को में बचा नहीं सकते लेकिन परिवार वालों को बेटे पर अधिक भरोसा होता है, बेटियों पर नहीं. बेटी को घर की इज्जत समझा जाता है.

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बचपन से ही बेटियों को तरह तरह के आचरण और ब्यवहार करने के लिए सिखाया जाता है. ऊँची आवाज में बात नहीं करो हँसों नहीं. कहीं आओ जाओ नहीं तमाम तरह की पाबन्दियाँ लगायी जाती हैं.

प्यार करने वाली कितने लड़कियों को तो माँ बाप और उसके परिवार वालों द्वारा ही हत्या तक कर दी जाती है.

लड़कियों के साथ गैरबराबरी और शोषण बचपन से लेकर वृद्ध होने तक साधारण परिवारों में होते रहता है. बचपन में मां बाप और भाई , युवा अवस्था में सास ससुर और पति वृद्ध होने पर उसके जवान बेटों द्वारा प्रताड़ित होने की कहानी आम है. साधारण हैसियत वाले लोगों के घरों में आवश्यक समानों के लिए भी परिवार लड़ाई झगड़ा आम बात है. शराबी पति शराब पीकर आता है. गाली गलौज मार पीट करता है. फिर भी समाज और परिवार का दबाव पति को परमेश्वर मानने का बना ही रहता है.

ग्रामीण इलाकों में एक तरीका है कि घरों में पहले मर्द खाते हैं. अंत में औरतें खातीं हैं. अगर सब्जी दाल खत्म हो गई तो औरतें अपने लिए नहीं बनातीं. नमक मिर्च या अचार के साथ रोटी चावल खाकर सो जातीं हैं.

इन साधारण लड़कियों के साथ हर जगह, पढ़ाई करते हुए, खेत खलिहान और आफिस तक में काम करते हुए, मजाक करना, शरीर को टच करना और मौका मिलने पर यौन शोषण का शिकार हो जाना आम बात है. कमजोर तबके से आने की वजह से मुँह खोलना जायज इसलिए नहीं समझतीं इन दबंग लोगों के समक्ष उसे इंसाफ नहीं मिल पाएगा और सिर्फ बदनामी का ही सामना करना पड़ेगा.

लड़कियों को तो हर बात में परिवार वालों द्वारा तमीज सिखायी जाती है. लेकिन लड़कों को नहीं.  घर के लड़के किसी लड़की के साथ गलत ढंग से पेश आते हैं. उसी तरह से दूसरे घर के लड़के भी इस घर की बहू बेटियों से गलत ढंग से पेश आ सकते हैं. जिस तरह से लड़कियों को तमीज सिखाते हैं. उसी तरह से लड़कों को भी सही गलत का पाठ  पढ़ाया जाना चाहिए.

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अगर आने वाली पीढ़ी के लिए स्वस्थ और सुंदर समाज बनाना चाहते हैं तो लड़का और लड़की में नहीं सही और गलत में भेद करना सिखायें.

दंतैल हाथियों के साथ क्रूरता जारी आहे

छत्तीसगढ़ में वन्य प्राणी विशेषकर हाथियों की मानों शामत आई हुई है. बीते सप्ताह एक एक करके दो हाथियों  की संदिग्ध मौत हो गई. इधर  संवेदनशीलता का जामा पहन शासन कुंभकर्णी निद्रा में सोया हुआ है. जिस तरह विगत दिनों केरल  में गर्भवती हाथी की विस्फोटक खाद्य पदार्थ खिलाकर क्रूर हत्या कर दी गई थी. सनसनीखेज तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़ में भी ऐसा लगातार अलग अलग तरीके से होता रहता है. यहां अक्सर जहर दे कर या फिर करंट से हाथियों को   मौत के मुंह में सुला दिया जाता है. और जैसा कि शासन की फितरत है मामले की जांच के नाम पर संपूर्ण घटनाक्रम को नाटकीय  मोड़ दे दिया जाता है.  आगे चलकर लोग भूल जाते हैं की किस तरह लोगों ने वन्य प्राणी हाथी को मार डाला था. इस संदर्भ में न तो छत्तीसगढ़ में कोई गंभीर पहल होती है न ही  कभी कोई कठोर  कार्रवाई होती है.

इधर छत्तीसगढ़ में बीते दो दिनों में दो मादा हाथी की मौत के बाद जिला बलरामपुर के अतोरी के जंगल में भी एक मादा  हाथी  का शव बरामद हुआ.

वन विभाग की टीम ने  बताया मादा हाथी की मौत ३ से ४ दिन पहले हुई थी.फ़िलहाल विभाग के अधिकारी मौत के कारणों के  संदर्भ में कुछ भी करने को तैयार नहीं है.

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दरअसल, छत्तीसगढ़ के सूरजपुर जिले में बीते दो दिनों में दो हाथी की मौत ने  छत्तीसगढ़ वन विभाग की कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं.

दो दिन  हो गये  हाथियों का दल मृत हाथी के शव के पास डटा हुआ  हैं. फलतः  मृत हाथी  का पोस्टमार्टम नहीं हो पाया है और मौत के कारणों का खुलासा भी नहीं  हो सका.

इसी तरह  प्रतापपुर वन परिक्षेत्र के गणेशपुर जंगल में एक मादा हाथी का शव मिला था. हर महीने दो महीने ऐसा घटनाक्रम निरंतर अबाध गति से चल रहा है. महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हाथियों को मौत की खबर सुर्खियों  में आने के बाद हाशिये  में चली जाती है. वन पशुओं के संरक्षण के संदर्भ में जो नियम कायदे हैं उस आधार पर न जांच होती है न ही कोई  कठोर कार्यवाही होती है. यह सब छत्तीसगढ़ में बदस्तूर चला आ रहा है.

गणेश हाथी की नकेल

छत्तीसगढ़ के रायगढ़, कोरबा वन परिक्षेत्र में गणेश नामक एक हाथी ने आतंक मचा रखा है. लगभग 25 लोगों को हलाक खतरनाक  दंतैल गणेश हाथी ने कर दिया  है.  शासन वन अमला असहाय  हो चुका है.इसका एक कारण यह भी है कि छत्तीसगढ़ के जंगलों में नई बस्तियां उभर आई है, जहां भारी संख्या में लोग रहवास कर रहे हैं.परिणाम स्वरूप वन्य प्राणी एवं लोगों का आमना सामना हो रहा है और कभी हाथी या अन्य वन्य प्राणी मारे जाते हैं या फिर कभी आम लोग वन्य  प्राणियों की चपेट में आकर मृत्यु का ग्रास बन रहे है. यह सारा खेल लगभग 15 वर्षों से छत्तीसगढ़ में अबाध गति से चल रहा ह. ऐसे में इंसान के सामने वन्य प्राणी अहसाय हो चुका है और बिजली के करंट से अथवा जहर देकर उन्हें मौत के घाट उतारा जा रहा है.

वन विभाग के एक आला अफसर ने बताया कि वन्य प्राणी हाथियों के संरक्षण के नाम पर  करोड़ों रूपए का आबंटन   छत्तीसगढ़ सरकार  करती है.  हाथियों के नाम पर वन विभाग जहां पानी के लिए तालाब बनवाता है वहीं हाथी मित्र दल का गठन किया गया है. आम लोगों को हाथों से बचने के लिए प्रशिक्षित भी किया जा रहा है. दरअसल,सच्चाई यह है कि यह सब कागजों में अधिक है, हकीकत में बिल्कुल भी नहीं.

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सवालों के जवाब नहीं है?

दंतैल वन्य प्राणी हाथी के कारण वन विभाग के अधिकारी मालामाल हो रहे हैं. करोड़ों रुपए के आबंटन का हिसाब जमीन पर नहीं दिखाई देता. “लेमरु एलीफेंट काॅरिडोर”  की मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने घोषणा की, मगर डेढ़ वर्ष और चला यह कागज़ में है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कुछ कम अनुभवी या  भ्रष्टाचार   में लिप्त  अधिकारियों की नियुक्ति प्रमुख जगहों मे होने के  कारण छत्तीसगढ़ में  हाथियों की मौतों जारी आहे. चिंता की बात  यह है कि वैज्ञानिक कारण इन मौतों का वन विभाग नहीं  बता पाता और  सब कुछ संदेहास्पद स्थिति में है.

सवाल यह भी है कि हाथियों की मौतों का कारण महज़ संक्रमण बता देना, क्या मूक वन्य प्राणी के साथ घोर मजाक नहीं है ?

डैरेन सैमी बोले मुझ से माफी मांगो

क्रिकेट बंद है, पर क्रिकेटर पूरी हलचल में हैं खासकर सोशल मीडिया पर. कोई विदेशी खिलाड़ी अपनी फैमिली के साथ ‘टिक-टौक’ पर हिंदी गानों पर ठुमके लगा कर वाहवाही लूट रहा है, तो कोई देशी खिलाड़ी अपनी प्रेमिका के बेबी बंप से सुर्खियां बटोर रहा है. घर में खाली बैठे हैं, तो एकदूसरे को कोई भी चैलेंज दे कर बहुत से क्रिकेट खिलाड़ी टाइमपास कर रहे हैं.

इस में कोई बुराई नहीं है, पर चूंकि दुनिया में कोरोना के साथसाथ और भी बहुतकुछ ऐसा हो रहा है, जिस ने दुनिया का तापमान बढ़ा दिया है, तो उस का असर अब क्रिकेटरों पर भी देखने को मिल रहा है.

अमेरिका में एक अश्वेत नागरिक जौर्ज फ्लायड की जिस निर्मम तरीके से पुलिस के हाथों मौत हुई थी, उस के बाद तो मानो दुनियाभर के अश्वेत लोगों के दिलों में वह दबी चिनगारी भड़क गई थी, जो काले रंग के चलते उन्हें गोरे लोगों से कमतर होने का एहसास कराती है.

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इस के बाद तो एक धमाका सा हुआ हुआ और पूरी दुनिया इस नस्लभेद की लड़ाई में अश्वेत लोगों के साथ खड़ी नजर आई. नतीजतन, कहीं पुलिस ने उन से सार्वजिक तौर पर  माफी मांगी, तो कहीं लोगों का गुस्सा इस कदर फूटा कि बड़ेबड़े नेता अपने बख्तरबंद बंकरों में जा छिपे.

इसी बीच क्रिकेट जगत से ऐसी खबर आई, जो हैरान कर देने वाली थी. वैस्टइंडीज क्रिकेट टीम के एक खिलाड़ी और कप्तान रह चुके डेरेन सैमी ने एक सनसनीखेज खुलासा किया कि साल 2014 के इंडियन प्रीमियर लीग में जब वे सनराइजर्स हैदराबाद टीम की तरफ से खेलते थे, तब ड्रैसिंग रूम में कुछ लोग उन्हें उस शब्द से पुकारते थे, जो अपमानजनक था.

डेरेन सैमी के इन आरोपों के बीच भारतीय क्रिकेटर ईशांत शर्मा का 14 मई, 2104 का एक पोस्ट वायरल है , जिस में उन्होंने डेरेन सैमी के लिए उन की त्वचा के रंग से जुड़ा एक शब्द लिखा था.

इस सिलसिले में डेरेन सैमी कहा कि उन्हें जिस शब्द से संबोधित किया गया था, तब उन्हें इस का मतलब नहीं पता था, लेकिन जब से पता चला है तो वे बड़े निराश हैं. दरअसल, डेरेन सैमी ने कहा कि तब उन्हें ‘कालू’ कह कर बुलाया जाता था, लेकिन अब उन्हें इस शब्द का मतलब पता चल गया है. यह शब्द नस्लीय भेदभाव का प्रतीक है और अपमानजनक है.

इस मसले पर डेरेन सैमी इस हद तक दुखी और गुस्साए लग रहे हैं कि उन्होंने लिखा, ‘जो भी मुझे उस नाम से बुलाता था, उसे खुद ही यह पता है. मुझ से संपर्क करो, बात करो. मैं उन सभी लोगों को मैसेज भेजूंगा. आप सब को खुद के बारे में पता है. मैं यह स्वीकार करता हूं कि उस समय मुझे इस शब्द का मतलब नहीं पता था.’

डेरेन सैमी यहीं पर नहीं रुके, बल्कि उन्होंने कहा कि वे सब खिलाड़ी उन से माफी मांगे, नहीं तो वे उन सब के नाम उजागर कर देंगे.

यह पहली बार नहीं हुआ है, जब क्रिकेट में खिलाड़ियों के बीच नस्लीय टिप्पणी की गई है. भारत के लिए क्रिकेट खेल चुके तेज गेंदबाज इरफान पठान ने भी हालिया कहा कि अलग धर्म या आस्था के चलते आप को किसी सोसाइटी में घर नहीं मिलता है तो यह भी एक तरह का नस्लवाद है.

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इसी तरह वैस्टइंडीज के ही धाकड़ बल्लेबाज क्रिस गेल ने इस नस्लीय भेदभाव पर अपनी इंस्टाग्राम स्टोरी पर लिखा, ‘किसी और की तरह अश्वेत की जिंदगी के भी माने हैं… सभी नस्लवादी लोग, अश्वेत लोगों को बेवकूफ समझना बंद करो. यहां तक हमारे ही कुछ अश्वेत लोग भी दूसरों को ऐसा करने का मौका देते हैं. खुद को नीचा समझने का यह सिलसिला रोको. मैं ने दुनियाभर में यात्राएं की हैं और नस्लीय टिप्पणियों का अनुभव किया है, क्योंकि मैं अश्वेत हूं. मेरा भरोसा कीजिए, यह लिस्ट लंबी है.’

क्रिस गेल साफ कहते हैं कि नस्लवाद सिर्फ फुटबाल में ही नहीं है, बल्कि क्रिकेट में भी है.

वैस्टइंडीज के ही एक और खिलाड़ी ड्वेन ब्रावो ने आज के हालात और नस्लवाद पर कहा, ‘हम चाहते हैं कि हमारे भाई और बहन यह जानें कि हम ताकतवर और खूबसूरत हैं. आप दुनिया के कुछ महान लोगों पर गौर कीजिए, चाहे वे नेल्सन मंडेला हों, मोहम्मद अली या माइकल जोर्डन. हमारे पास ऐसा नेतृत्व रहा है जिन्होंने हमारे लिए मार्ग प्रशस्त किया.’

ड्वेन ब्रावो की बात में दम है कि उन जैसे लोग ताकतवर ही नहीं बहुत खूबसूरत भी हैं, तभी तो जब क्रिकेट के मैदान पर क्रिस गेल अपने बल्ले से छक्के पर छक्के जमाते हैं, तो हर रंग का उन का फैन दीवाना हो कर खूब तालियां बजाता है, उन का एक आटोग्राफ पाने को तरस जाता है.

गहरी पैठ

अपने घर को अपनों ने गिराया है. इस देश की आज जो हालत कोरोना की वजह से हो रही है उस के लिए हमारी सरकार ही नहीं, वे लोग भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने धर्म और जाति को देश की पहली जरूरत समझा और फैसले उसी पर लेने के लिए उकसाया. आज अगर कोरोना के कारण पूरे देश में बेकारी फैल रही है तो इस की जड़ों में ?वे फैसले हैं जो सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी के लिए ही नहीं, बहुत तरीके से छोटेछोटे फैसले भी लिए जिन में धर्म के हुक्म सब से ऊपर थे.

लोगों ने 2014 में अगर सत्ता पलटी तो यह सोच कर कि जो हिंदू की बात करेगा वही राज करेगा तो ही देश सोने की चिडि़या बनेगा. यह देश सोने की चिडि़या केवल तब था जब देश पर कट्टरपंथी हिंदू राज ही नहीं कर रहे थे. 1947 से पहले देश में अंगरेजों का राज था. उस से पहले मुगलों का था. उस से पहले शकों, हूणों, बौद्धों का राज था. हां, घरों पर राज हिंदू सोचसमझ का था और वही देश को आगे बढ़ने से रोकता रहा. 2014 में सोचा गया था कि हिंदू राज मनमाफिक होगा, पर इस ने न केवल सारे मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर दिया, दलित, पिछड़े, औरतें चाहे सवर्णों की क्यों न हों, कमजोर कर दिए गए.

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कोरोना ने तो न सिर्फ जख्मों पर लात मारी है, उन को इस तरह खोल दिया है कि आज सारा देश लहूलुहान है. करीब 6 करोड़ मजदूर शहरों से गांवों की ओर जाने लगे हैं. जो लोग 24 मार्च, 2020 को चल दिए थे उन की छठी इंद्री पहले जग गई थी. उन्होंने देख लिया था कि जिस हिंदू कहर से बचने के लिए वे गांवों से भागे थे वह शहरों में पहुंच गया है. महाराष्ट्र में जो मराठी मानुष का नाम ले कर शिव सेना बिहारियों को बाहर खदेड़ना चाहती थी, वह मराठी लोगों के ऊंचे होने के जिद की वजह से था.

आजादी से पहले भी, पर आजादी के बाद, ज्यादा ऊंची जातियों ने शहरों में डेरे जमाने शुरू किए और अपनी बस्तियां अलग बनानी शुरू कीं. गांवों से तब तक दलितों को निकलने ही नहीं दिया था. काफी राजाओं ने तो दलितों पर इस तरह के टैक्स लगा रखे थे कि एक भी जना भाग जाए तो बाकी सब पर जुर्माना लग जाता था. अब ये लोग गांवों से आजादी पाने के लिए शहरों में आए तो शहरों में मौजूद ऊंची जातियों के लोगों ने इन्हें न रहने की जगह दी, न पानी, न पखाने का इंतजाम किया. ये लोग नालों के पास रहे, पहाडि़यों में रहे, बंजर जमीन पर रहे.

1947 से 2014 तक राजनीति में इन की धमक थी क्योंकि ये पार्टियों के वोट बैंक थे. फिर धार्मिक सोच वालों ने मीडिया, सोशल मीडिया, अखबारों, पुलिस पर कब्जा कर लिया. इन्हीं दलितों, पिछड़ों और इन की औरतों को धार्मिक रंग में रंग दिया और इन्हें लगने लगा कि भगवान के सहारे इन का भाग्य बदलेगा. मुसलमानों को डरा दिया गया और हिंदू दलितों को बहका दिया गया कि उन की नौकरियां उन्हें मिल जाएंगी.

पर हमेशा की तरह सरकारी फैसले गलत हुए. 1947 के बाद भारी टैक्स लगा कर सरकारी कारखाने लगाए गए जिन में पनाह मिली निकम्मे ऊंची जातियों के अफसरों, क्लर्कों, मजदूरों को. वे अमीर होने लगे. सरकारी कारखाने चलाने के लिए टैक्स लगे जो गांवों में भूखे किसानों और उन के मजदूरों के पेट काट कर भरे गए. मरते क्या न करते वे शहरों को भागे.

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शहरों में उन्हें बस जीनेभर लायक पैसे मिले. वे कभी उस तरह अमीर नहीं हो पाए जैसे चीन से गए मजदूर अमेरिका में हुए. जाति का चंगुल ऐसा था कि वह शहरों तक गलीगली में पहुंच गया. गरीबों की झुग्गी बस्तियों में शराब, जुए, बीमारी की वजह से गरीबों की जो थोड़ी बचत थी, लूट ली गई. महाजन शहरों में भी पहुंच गए.

कोरोना ने तो बस अहसास दिलाया है कि शहर उन के काम का नहीं. अगर गांवों में ठाकुरों, उन के कारिंदों की लाठियां थीं तो शहरों में माफियाओं और पुलिस का कहर पनपने लगा. जब नौकरी भी न हो, घर भी न हो, इज्जत भी न हो, आंधीतूफान से बचाव भी न हो तो शहर में रह कर क्या करेंगे?

कोरोना ने तो यही अहसास दिलाया है कि धर्म का ओढ़ना उन्हें इस बीमारी से नहीं बचाएगा क्योंकि वे अमीर जो रातदिन पूजापाठ में लगे रहते हैं, कोरोना से नहीं बच पाए हैं. कोरोना की वजह से धर्म की दुकानें बंद हो गई हैं. चाहे छोटामोटा धर्म का व्यापार घरों में चलता रहे. कोरोना की वजह से ऊंची जातियों की धौंस खत्म हो गई है. शायद इतिहास में पहली बार ऊंची जातियों के लोग निचलों की गुलामी को नकारने को मजबूर हुए हैं कि कहीं वे एक अमीर से दूसरे अमीर तक कोरोना वायरस न ले जाएं. कोरोना इन गरीबों को छू रहा है पर ये उसे ऐसे ही ले जा रहे हैं जैसे कांवडि़ए गंगा जल ले जाते हैं जिसे छूने की मनाही है. कोरोना अमीरों में ही ज्यादा फैल रहा है.

कोरोना ने देश की निचलीपिछड़ी जातियों और ऊंची जातियों की औरतों के काम अब ऊंची जाति वालों को खुद करने को मजबूर किया है. अगर देश में हिंदूहिंदू या हिंदूमुसलिम या आरक्षण खत्म करो, एससीएसटी ऐक्ट खत्म करो की आवाजें जोरजोर से नहीं उठ रही होतीं तो लाखोंकरोड़ों मजदूर अपने गांवों की ओर न भागते. इस शोर ने उन्हें समझा दिया था कि वे शहरों में भी अब बचे हुए नहीं हैं. पुलिस डंडों की मार ये ही लोग खाते रहते हैं. 1,500 किलोमीटर चल रहे इन लोगों को ऊंची जातियों के आदेशों पर किस तरह पुलिस ने रास्ते में पीटा है यह साफ दिखाता है कि देश में अभी ऊंची जातियों का दबदबा कम नहीं हुआ है. गिनती में चाहें ऊंची जातियां कम हों पर उन के पास पैसा है, अक्ल है, लाठियां हैं, बंदूकें हैं, जेलें हैं. जब अंगरेज भारत में थे वे कभी भी 20,000 से ज्यादा गोरी फौज नहीं रख पाए थे, उन्हें जरूरत ही नहीं थी. उन के 1,500 आदमी हिंदुस्तान के 50,000 आदमियों पर भारी पड़ते थे.

देश के दलितों, पिछड़ों, गरीब मजदूरों ने कैसे एकसाथ फैसला कर लिया कि उन की जान तो अब गांवों में बच सकती है, यह अजूबा है. यह असल में एक अच्छी बात है. यह पूरे देश को नया पाठ पढ़ा सकता है. अब शहरों में महंगे मजदूर मिलेंगे तो उन्हें ढंग से ट्रेनिंग दी जाएगी. गांवों में जो शहरी काम करते मजदूर पहुंचे हैं, वे जम कर मेहनत से काम भी करेंगे और अपने को लूटे जाने से भी बचा सकेंगे. गांवों में ऊंची दबंग जातियां तो अब न के बराबर बची हैं. वे काम करेंगी तो इन के साथ.

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कोरोना वायरस दोस्त साबित हो सकता है. शर्त है कि हम धर्म की दुकानों को बंद ही रहने दें. कारखाने खुलें, लूट की पेटियां नहीं.

बंदी के कगार पर मझोले और छोटे कारोबारी

लौकडाउन की वजह से डूबते कारोबारी जगत को अब सरकार से ही राहत की उम्मीद है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके अखिलेश यादव ने कहा कि सरकार को जरूरी एहतियात के साथ कारोबार जगत को पटरी पर लाने के लिए सतर्कता बरतते हुए उपाय करने चाहिए और कारोबारियों की मदद करनी चाहिए.

देश में कारोबार और कारोबारियों की हालत बहुत खराब है. नोटबंदी और जीएसटी की गलत नीतियों से कारोबार जगत उबर भी नहीं पाया था कि कोरोना और लौकडाउन से कारोबार और भी ज्यादा टूट गया और अब यह बंदी के कगार पर पहुंच गया है.

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लखनऊ की युवा कारोबारी रोली सक्सेना ने 3 साल पहले गारमैंट्स का अपना कारोबार शुरू किया था. अपनी छोटी सी दुकान को बड़े शोरूम में बदल दिया था. 40,000 रुपए के किराए पर एक जगह ले कर दुकान शुरू की थी. अचानक नोटबंदी और जीएसटी की वजह से कारोबार में काफी उथलपुथल आ गई.

वे किसी तरह से इन हालात को संभाल रही थीं कि इसी बीच जब कोरोना और लौकडाउन का समय आया, तो कारोबार पूरी तरह बंद हो गया. दुकान के मालिक ने 40,000 रुपए किराए की मांग की. रोली सक्सेना ने किराया देने का तो तय कर लिया, पर यह सोच लिया कि अब वे यह कारोबार नहीं करेंगी.

रोली सक्सेना कहती हैं, ‘‘सरकार कारोबारियों के हालात समझती है. उसे इन की मदद का कोई ऐक्शन प्लान तैयार करना चाहिए, वरना हमारे जैसे न जाने कितने कारोबारी अपना कारोबार बंद कर सड़क पर आ जाएंगे.’’

राहत पैकेज दे सरकार

अखिल भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष संदीप बंसल ने कहा है, ‘‘देश और प्रदेश की सरकार को उन कारोबारियों की चिंता करनी चाहिए, जो मध्यम वर्ग के हैं और जरूरी सेवाओं का कारोबार नहीं करते हैं. ये कारोबारी ऐसी किसी भी सरकारी राहत योजना में भी नहीं आते, जिस से उन को सरकार की मदद मिल सके.

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‘‘होली के समय से ही इन सब का कारोबार नहीं चल रहा है. ये अपने खर्चे और मुलाजिमों की तनख्वाह का इंतजाम तभी कर सकते हैं, जब इन की दुकानें खुलेंगी. जब तक इन कारोबारियों की दुकानें नहीं खुल रही हैं, तब तक ये खुद भुखमरी के कगार पर हैं.

‘‘जो बड़े कारोबारी हैं और सक्षम हैं, वे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री राहत कोष में पैसा दे रहे हैं. तमाम कारोबारी जनता को खाना खिलाने और दूसरी मदद का काम भी कर रहे हैं, इस के बाद भी देश में करोड़ों ऐसे कारोबारी हैं, जो रोज कमाने और खाने वाले हैं.

‘‘सरकार के पास ऐसे कारोबार और उस को करने वाले लोगों के लिए कोई योजना नहीं है. ये कारोबारी अपने कारोबार के बंद होने से परेशान हैं.’’

केंद्र सरकार ने लाखों करोड़ का जो राहत पैकेज दिया है, वह सही हाथों में पहुंचने के बाद ही कारोबारी जगत को उठाने में मदद मिलेगी.

शव-वाहन बना एम्बुलेंस

  • शव-वाहन बना जीवन रक्षक एम्बुलेंस..
  • एम्बुलेंस न मिलने पर शव-वाहन में लाये घायलों को..
  • शव वाहन चालक ने बचाई घायल वृद्धों की जान..
  • सड़क पर पड़े कर रहे थे एम्बुलेंस का इंतज़ार..
  • समय रहते पाहुंचे अस्पताल तो बच गई जान..

कहते हैं कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है और फिर अगर आपका जज्बा आपकी सोच पॉजिटिव हो तो मृत्यु को भी टाला जा सकता है. और बन सकता है मौत का वाहन भी जीवनरक्षक.

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जी हां ऐसा ही कुछ हुआ है मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में जहां एम्बुलेंस ने नहीं शव-वाहन ने लोगों की जानें बचाईं हैं. हमेशा लाशों को ढोने वाले शव-वाहन ने घायलों को समय पर अस्पताल पहुंचाकर उन्हें मौत में मुँह से निकालकर उनकी जान बचाईं हैं.

घायल वृद्ध लक्ष्मणदास और रमेश ने बताया..

मामला छतरपुर शहर सिटी कोतवाली थाना क्षेत्र के राजनगर-खजुराहो रोड का है जहां तेज़ रफ़्तार 2 बाईक सवार आपने-सामने भिड़ गये. जिससे उनमें बैठे 2 वृद्ध गंभीर घायल हो गये जो अचेत अवस्था में सड़क पर पड़े थे उनसे काफी खून बह रहा था. जिन्हें अस्पताल ले जाने के लिए उनके साथी यहां-वहां लोगों से मदद मांग आस्पताल ले जाने की गुहार लगा रहे थे. और लोग भी एम्बुलेंस बुलाने की फिराक में थे तभी राजनगर क्षत्र के प्रतापपुरा गांव में मृतक के शव छोड़कर आ रहा शव-वाहन वहां से गुजरा और उसका चालक गोविंद घायलों को देख रूक गया. और खुद ही घायलों की मदद की बात कही, कि आप लोग मेरे शव-वाहन में इन घायलों को अस्पताल ले चलो क्यों कि एम्बुलेंस को फोन करने और यहां तक आने में 20 से 25 मिनिट लगेंगे, जिससे बेहतर है कि हमारे शव-वाहन में ही इन्हें ले चलो हम 10 से 15 मिनिट में जिला अस्पताल पहुंच जाएंगे और इनका इलाज हो जायेगा और जान बच जायेगी. रूक गये तो बहुत देर हो जायेगी जिससे कुछ भी अनहोनी हो सकती है.

मौजूद लोगों ने ऐसा ही किया शव-वाहन चालक गोविंद की बात मान तत्काल घायलों को शव वाहन में रखवा दिया. जहां घायलों को समय रहते जिला अस्पताल ले जाया गया. और डॉक्टरों ने उनका समय पर ईलाज कर दिया जिससे उनकी जान बच गई.

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मामला चाहे जो भी हो पर इतना तो तय है कि गर समय रहते शव-वाहन ने घायलों को अस्पताल नहीं पहुंचाया होता और वहीं रुककर एम्बुलेंस का इंतज़ार किया होता तो इनकी जानें भी जा सकतीं थीं.

हमेशा मृत लोगों के शवों को लाने ले जाने वाला “शववाहन” इस बार घायलों को अस्पताल लाकर उनका “जीवनरक्षक” वाहन “एम्बुलेंस” बन गया.  इसके लिये प्रसंशा का पात्र शव वाहन का ड्राईवर है.

दान के प्रचार का पाखंड

इतिश्हारी लत ने दीवाना बना दिया,

तसवीर खिंचाने का बहाना बना दिया.

खैरात से भी ज्यादा के ढोल बज गए,

लोगों ने गरीबी को फसाना बना दिया.

गरीबों की मदद के नाम पर बढ़ते प्रचार के बारे में ये लाइनें बड़ी मौजूं लगती हैं. दरअसल, गरीबी की समस्या हमारे देश में आज भी बहुत भयंकर है.

हालांकि आजादी के बाद से ‘गरीबी हटाओ’ का नारा व गरीबों के लिए चली सरकारी स्कीमों में पानी की तरह पैसा बहाया गया है, लेकिन हिस्साबांट के चलते गरीबी बरकरार है. साल 2016 में 37 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे. गांव हों या शहर, गरीब लोग हर जगह बहुत बड़ी तादाद में मिल जाते हैं.

ऐसे में बहुत से लोग पुण्य लूटने की गरज से गरीबों की मदद करते हैं. गरीबों को मुफ्त सामान का लालच दे कर बुलाते व रिझाते हैं और उन्हें सामान देते हुए अपना फोटो खिंचाते हैं. इतना ही नहीं, उन फोटो का इस्तेमाल अपनी दरियादिली के प्रचार में करते हैं.

दरअसल, जिस दान में प्रचार खूब किया जाए वह पाखंड है, जो दानदक्षिणा का माहौल बनाने के लिए किया जाता है. इन में पंडितों के फोटो तो लिए नहीं जाते, क्योंकि पंडित अब दान नहीं लेता. वह तो उलटे दान देने वाले को पुण्य कमाने का मौका व पुण्य लाभ देता है.

ऐसे में दान देने वाला लाभार्थी हो जाता है. वक्त के साथ दान देने के तौरतरीके भी बदल गए हैं. ज्यादा से ज्यादा दान इकट्ठा करने की गरज अब तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी व काशी विश्वनाथ वगैरह बहुत से मंदिरों द्वारा भक्तों के लिए घर बैठे औनलाइन व ईवालेट से दान देने की सहूलियतें मुहैया कराई गई हैं.

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तिरुपति बालाजी जैसे कुछ मंदिरों ने तो अपने डीमैट खाते खोल लिए हैं, ताकि नकदी, सोना व हीरेजवाहरात के अलावा शेयर्स भी लिए जा सकें.

यह कैसी मदद

गरीबों के हक हड़प कर भ्रष्ट नेता, अफसर और मुलाजिम अमीर हो रहे हैं, इसलिए गरीब लोग उन के लिए दूध देने वाली गाय साबित हो रहे हैं.

ऐसे लोग गरीबों को आसान व कारगर औजार बना कर अपना मकसद पूरा करने में लगे रहते हैं. गरीबी से पार पाने के लिए टिकाऊ व मुकम्मल रास्ता दिखाने के बजाय उन्हें मुफ्तखोरी के लिए उकसाते रहते हैं, ताकि वे काम व कोशिश न करें और हाथ में कटोरा थामे पीढ़ी दर पीढ़ी गरीब ही बने रहें.

यही वजह है कि गरीबों की मदद के नाम पर उन की वक्ती जरूरतों की चीजें भोजन, कपड़े व बरतन बांटने की रस्मअदायगी की जाती है.

इस काम में सरकारें भी पीछे नहीं हैं, इसलिए मुफ्त का माल झपटने के चक्कर में अकसर जहांतहां हादसे होते रहते हैं. छीनाझपटी करते वक्त गरीब लोग एकदूसरे को कुचल देते हैं.

पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर शहर में सरकारी कंबल बांटते समय हुई ऐसी ही एक घटना में बहुत से लोग जख्मी हो गए थे.

समाजसेवा का डंका पीटने वाले चालाक लोग गरीबों की मदद के नाम पर थोड़ा पैसा खर्च कर अपना नाम चमकाने व मशहूर होने की जुगत में लगे रहते हैं. वे अकसर कुछ चीजें गरीबों को बांटते हैं और ज्यादा का दिखावा करते हैं, इसलिए हकीकत में काम कम व प्रचार ज्यादा होता है. अखबारों से सोशल मीडिया तक कंबल, खाना व कपड़े वगैरह बांटने वालों के फोटो सुर्खियों में छाए रहते हैं.

कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना

ज्यादातर मामलों में गरीबों को दान इनसानियत दिखाने या राहत पहुंचाने से ज्यादा वाहवाही लूटने व प्रचार पाने की गरज से किए जाते हैं. गरीबों की मदद करने को भी बहुत से लोगों ने अपना धंधा बना लिया है. बहुत सी कागजी संस्थाएं गलीमहल्लों में बढ़ रही हैं.

कई लोग खासकर छुटभैए नेता गरीबों की मदद व समाजसेवा के नाम पर बेहिसाब चंदा इकट्ठा करते हैं और अपना मतलब साधने में लगे रहते हैं. इस में फायदा उन का व नुकसान आम जनता का होता है. जो जना पंडितों के नाम पर गरीबों को थोड़ा सा दान करेगा, वह पंडितों के कहने पर पंडों और मंदिरों को तो मोटा दान करेगा ही.

इनसानियत के नाते मुसीबतजदा, जरूरतमंद अपाहिजों वगैरह की मदद करना सही व सब का फर्ज है. बेसहारा को इमदाद देना अच्छा है, लेकिन किसी मजबूर की असल मदद करना बेहतर है. जिस में दायां हाथ दे और बाएं हाथ को खबर न हो यानी कहीं कोई जिक्र न हो. बात जबान पर आने से लेने वाले को ठेस लगती है.

उस पर अहसान जताने व अपनी दरियादिली के ढोल बजाने से तो गरीब जीतेजी मर जाता है, लेकिन अमीरों को इस से कुछ फर्क नहीं पड़ता.

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वे गरीबों को दिए दान के प्रचार से नाम कमा कर एक तरह से अपने दान की कीमत वसूलते हैं और मुफ्त सामान पाने के लालच में गरीब यह खेल समझ ही नहीं पाते.

तिल का ताड़

गरीबों को दान देने वाले भूल जाते हैं कि दान को बढ़ाचढ़ा कर नहीं बताना चाहिए. दिए गए दान का बारबार बखान करने, अपनी शान व शेखी बघारने, ढिंढोरा पीटने से देने वाले में गुरूर बढ़ता है और लेने वाले का जमीर खत्म हो जाता है.

इस के बावजूद गरीबों की मदद के नाम पर तरहतरह से प्रचार के पाखंड रचे जाते हैं, ताकि समाज में नाम ऊंचा हो व दानवीरता के तमगे मिलें. आजकल यह दिखावा जंगल में आग की तरह फैल रहा है.

गरीबों को मुफ्त चीजें बांटने वाले लोग बड़ी ही बेशर्मी से हंसतेमुसकराते हुए गरदन ऊंची कर के इस तरह से अहसान जताते नजर आते हैं, जैसे कि उन्होंने गरीबों को जागीर सौंप दी हो. फिर गरीबों को सामान देते हुए फोटो खिंचाना, वीडियो बनाना व तारीफ हासिल करने के लिए ह्वाट्सएप और फेसबुक वगैरह पर पोस्ट करना तो आम बात है. इस के अलावा स्मारिकाओं में चिकने कागज पर दानदाताओं के रंगीन फोटो छापे जाते हैं.

इमदाद लेने वाले मजबूर की गरदन तो पहले ही गुरबत, शर्म व अहसान के बोझ से झुकी रहती है, ऊपर से मदद लेते वक्त फोटो खिंचा कर उस की नुमाइश लगाने में उस गरीब की आंखें जमीन में गड़ जाती हैं.

देखा जाए, तो गरीबों को दान दे कर उस का प्रचार करना उन के लिए किसी दिमागी सजा से कम नहीं है. गरीबों को दान कर के अपना प्रचार करने की भूख उन करोड़ों की तरह होती है, जिन की मार गरीबों के बदन पर तो नहीं दिखती, लेकिन उन के भीतर उतर कर उन के यकीन को हिला देती है.

उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में गढ़ रोड पर रंगोली मंडप के पास एक मलिन बस्ती है. इस में आएदिन कई संगठनों के लोग गरीबों को फल, दूध, बिसकुट वगैरह खानेपीने व जूते, कपड़े वगैरह इस्तेमाल की चीजें बांटने के लिए आते रहते हैं. सामान देते वक्त ज्यादा जोर फोटो खिंचवाने पर लगा रहता है, इसलिए अगले दिन अखबारों में खबर के साथ फोटो छपते हैं.

एक संस्था के कर्ताधर्ता का कहना था, ‘‘जिस तरह से बुराइयों को देखसुन कर लोगों पर उन का खराब असर पड़ता है. बहुत से लोग उन्हें अपना लेते हैं, ठीक उसी तरह से लोगों पर नेकियों का अच्छा असर भी पड़ता है.

‘‘अच्छे काम होते देख कर भी लोग उन से सीख व सबक लेते हैं, इसलिए गरीबों की मदद करने वाले कामों का प्रचार करने से उन का सिलसिला आगे बढ़ता है.’’

गरीबों को दान दे कर उस के प्रचार का पाखंड रचने वाले लोग भले ही अपने हक में कितनी भी दलीलें दें, लेकिन सच यही है कि दान के प्रचार की लत हमारे समाज में नई नहीं है.

दान के प्र?????चार से ही तो दक्षिणा के लिए माहौल बनता है. नए चेले व चेलियां जाल में फंसते हैं. पुण्य का फायदा हासिल करने की गरज से सदियों से ऐसा होता रहा है. बरसों पुराने मंदिरों व धर्मशालाओं वगैरह में आज भी दीवारों व चबूतरों पर लगे पत्थरों पर दान देने वालों के नाम खुदे हुए देखे जा सकते हैं.

प्रचार की भूख में बहुत से लोग तो अपनी अक्ल को उठा कर ताक पर रख देते हैं. दुनिया से जा चुके अपने मांबाप की याद में फर्श पर लगवाए पत्थरों पर ही उन के नाम खुदवा देते हैं.

फर्श पर लगे पत्थरों के साथसाथ उन पर खुदे मांबाप के नामों पर भी लोग पैर रख कर आतेजाते रहते हैं व दान के चक्कर में फंस कर मांबाप का नाम ऊंचा होने की जगह मिट्टी में मिल जाता है.

सर्दियों के दौरान बड़े शहरों में सड़क किनारे पड़े गरीबों को रजाईकंबल बांटने वालों की बाढ़ सी आ जाती है. कई बार देखा है कि बहुत से गरीबों को दान में दिया गया सामान अगले ही दिन उन गरीबों के पास नहीं होता और वे फिर से अपनी उसी खराब हालत में दिखाई देते हैं, क्योंकि ज्यादातर गरीब बदहाल जिंदगी के आदी हैं, इसलिए कुछ भी मिलने के थोड़ी देर बाद ही वे दान में मिली चीजें औनेपौने दामों पर बाजार में बेच देते हैं. गरीबों को दी गई मदद भी उन के हालात बदलने में नाकाम साबित होती है.

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असली मदद

मुफ्त का खाना सिर्फ 5-6 घंटे को पेट भरता है. अगले वक्त फिर भूख लगती है. दान का कपड़ा भी चंद बरस चलता है, लेकिन अपनी मेहनत व दिमाग से आगे बढ़ने की राह ताउम्र काम आती है, इसलिए गरीबों को दान की बैसाखी देने से बेहतर है उन्हें खुद अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करना. अपनी कोशिश से ऊपर उठ कर जिंदगी संवर कर निखर जाती है. भीख का कटोरा व दूसरों की और ताकना छूट जाता है.

लिहाजा, गरीबों पर तरस खा कर, उन्हें दान दे कर दूसरों के रहमोकरम पर जीने का आदी बनाने से अच्छा है. उन की सच्ची व सही मदद करना, ताकि उन में खुद पर यकीन पैदा हो और वे खुद गरीबी से नजात पाने की कोशिश करें. यह मुश्किल नहीं है.

करोड़ों गरीबों व भिखारियों को कम ब्याज पर 10 अरब डौलर के छोटे कर्ज दिला कर रोजगार में लगाने वाले बंगलादेश के मोहम्मद यूनुस को साल 2006 में नोबल पुरस्कार मिला था. उसी का नतीजा है कि आज बंगलादेश भारत व पाकिस्तान से ज्यादा तेजी से आगे बढ़ रहा है.

माइक्रो फाइनैंसिंग के जरीए गरीबों की मदद करने व कामयाब मुहिम चला कर गरीबों को नई जिंदगी दे कर मिसाल बने मोहम्मद यूनुस का नाम आज दुनियाभर में जाना जाता है.

भारत में भी ऐसे काम होना लाजिमी है. साथ ही, गरीबों की तालीम, हुनर व काबिलीयत बढ़ा कर उन्हें ज्यादा पैसा कमाने के गुर सिखा कर भी निठल्लेपन व नशे जैसी बुराइयों से नजात दिलाना भी उन की मदद करने से कम नहीं है.

गरीबों को माली इंतजाम के उपाय बता कर उन की फुजूलखर्ची घटाई जा सकती है. वे ज्यादा कमा कर बचत करना सीख सकते हैं. जागरूक हो कर धार्मिक अंधविश्वासों से छुटकारा पा सकते हैं. अपनी जेबें हलकी होने से बचा सकते हैं, इसलिए मुफ्त की चीजें देने से अच्छा है कि उन्हें साफसुथरा रह कर बेहतर व सुखी जिंदगी बिताने के तौरतरीके समझाए जाएं.

सही राह दिखाना ही गरीबों की सच्ची मदद करना है. इस से हमारे समाज में सदियों से चली आ रही गरीबी के कलंक से छुटकारा मिल सकता है.

आईएएस रानी नागर का इस्तीफा: संगठित हिंदुत्व ने उजाडे ख्वाब

हरियाणा सरकार के सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग की अतिरिक्त निर्देशक रानी नागर ने कल सोशल मीडिया के माध्यम से अपना इस्तीफा भेज दिया. सामाजिक न्याय व अधिकार देने वाले विभाग की वरिष्ठ अधिकारी खुद सामाजिक न्याय की जंग हार गई.

रानी नागर ने जिस अधिकारी के ऊपर उत्पीड़न का आरोप लगाया था उसी के साथ डयूटी दी गई और महिला आयोग में शिकायत की तो उसी मैडम आहूजा को सवाल-जवाब करने की जिम्मेदारी दी गई जो पहले से रानी नागर को मामला दबाने की नसीहत दे रही थी.

पिछले दिनों रानी नागर का पीछा हुआ,धमकियां दी गई तो रानी नागर अपनी बहन रीमा नागर के साथ रहने लगी व सोशल मीडिया के माध्यम से साफ किया कि अगर मेरी हत्या होती है तो आरोपी अधिकारी व सरकार जिम्मेदार होगी.

कल अचानक खबर आई कि रानी नागर ने इस्तीफा भेज दिया और हरियाणा सरकार ने रानी को अपने पैतृक घर गाजियाबाद जाने के लिए गाड़ी उपलब्ध करवाई जिसका खर्चा खुद रानी नागर ने वहन किया है.

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बात साफ है कि रानी नागर को प्रताड़ित किया गया और इतना दबाव बनाया गया कि आईएएस रानी नागर टूट गई और अपना इस्तीफा भेज दिया.शायद सरकार भी यही चाहती थी क्योंकि जिस तरह फटाफट गाड़ी उपलब्ध करवाकर घर पहुंचाया गया उससे तो यही जाहिर हो रहा है.रानी नागर आईएएस है तो नियमों के मुताबिक हरियाणा सरकार को अपनी टिप्पणी के साथ यह इस्तीफा केंद्र सरकार को भेजना है.

रानी नागर एक किसान परिवार से है.लिहाजा नेता व मीडिया बोलेंगे नहीं.किसान परिवारों के बच्चे वैसे भी उच्च पदों पर कम ही पहुंचते है और जो पहुंचते है उनको ऐसी जगह लगाया जाता है जहां जनता का सीधा तालुक कम ही रहता है.पद के श्रेष्ठता क्रम के हिसाब से कहीं ढंग की पोस्टिंग मिल जाती है तो रानी नागर बनाकर घर भेज दिया जाता है.

जो लोग पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश के हिंदुओं की प्रताड़ना को लेकर चिंतित है उनको बताना चाहता हूँ कि आरएसएस के हिंदुत्व के हिसाब से रानी नागर हिन्दू है व सुब्रमण्यम स्वामी की वर्ण व्यवस्था के हिसाब से क्षुद्र है मगर किसान के रूप में माना जाता है.यह भारत की हिन्दू महिला आईएएस अधिकारी है जो भारत के हरियाणा राज्य में पदस्थापित थी जहाँ आरएसएस-बीजेपी की हिंदुत्व रक्षक सरकार है.

जिस अधिकारी के ऊपर रानी नागर ने उत्पीड़न का आरोप लगाया था वो भी हिन्दू है,जिस महिला आयोग में रानी ने शिकायत की उसमे सारे अफसर हिन्दू है.रानी को धमकियां देने वाले,मामला दबाने वाले व महिला आयोग में रानी से सवाल जवाब के नाम पर मामला रफा-दफा करने की नसीहत देने वाली मैडम तक सब हिन्दू ही है.

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रानी को इस्तीफे के लिए मजबूर करने वाली व गाड़ी से गाज़ियाबाद भेजने वाली हरियाणा सरकार का मुख्यमंत्री शाखा से प्रशिक्षित हिन्दू है इसलिए शक की कोई गुंजाइश कहीं नहीं बचती है.रानी का इस्तीफा आज या कल टिप्पणी के साथ केंद्र की हिन्दू हृदय सम्राट की सरकार के पास भेज दिया जाएगा और जाहिर से बात है कि कड़ी से कड़ी जब हिंदुओं की नीचे से लेकर ऊपर तक जुड़ी हुई है तो इस्तीफे की स्वीकारोक्ति को लेकर कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए!

दरअसल, ओबीसी/एससी/एसटी के लोगों को खतरा मुसलमानों से नहीं, बल्कि सत्ता-संसाधनों पर काबिज वर्ग विशेष से है तो लोग गंभीरता से नहीं लेते है!ओबीसी/गुर्जर समाज की आईएएस रानी नागर जब मुखर्जी नगर से शाहजहां रोड तक गई तो देश बदलने के बहुत ख्वाब देखे होंगे मगर हिंदुओं के संगठित विशेष वर्ग ने उनके ख्वाबों को उजाड़कर वापिस अपने गांव भेज दिया है.

बहुत से किसानों के बच्चे व बच्चियां अफसर बनकर भी इन हिंदुओं की प्रताड़ना के शिकार होते है और जहर के घूंट पीकर चुप रहते है!रानी नागर की जहर पचाने की ताकत कमजोर रह गई और अपने आत्मसम्मान की रक्षार्थ इस्तीफा दे दिया!यह इस्तीफा उन किसान कौम के नेताओं,समाजसेवियों व गले मे हिंदुत्व का गमच्छा डालकर घूम रहे युवाओं के मुँह पर तमाचा है जो रोज कहते रहे कि हिंदुत्व खतरे में है!असल मे रानी नागर ने आईएएस के पद से इस्तीफा नहीं किसान कौमों के मुर्दा जमीर का पार्सल भेजा है.

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मगरमच्छ के जबड़े से बची जान, भाई बना मददगार

मगरमच्छ को देख कर जहां अच्छेअच्छों की सिट्टीपिट्टी गुम हो जाती है, वहीं एक बकरीपालक को मगरमच्छ ने अपने जबडे़ में ऐसे जकड़ लिया मानो छोड़ने को तैयार न हो, पर वहां मौजूद लोगों की मदद से उस के भाई ने अपनी जान की बाजी लगा कर उस को नया जीवनदान दिया.

यह मामला राजस्थान के करौली में घूसई चंबल घाट पर देखने को मिला, जहां मगरमच्छ के हमले में एक बकरीपालक गंभीर रूप से घायल हो गया.

जानकारी के मुताबिक, करीलपुरा गांव का रहने वाला रामधन मीणा 3 मई की शाम प्यासी बकरियों को पानी पिलाने घूसई चंबल घाट पर गया था. वहां बकरियों को पानी पिलाने के दौरान पहले से ही घात लगा कर पानी में बैठे मगरमच्छ ने रामधन पर हमला कर दिया और अपने जबड़े में फंसा लिया.

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तभी मौके पर मौजूद रामधन के भाई और वहां मौजूद लोगों ने उसे छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन मगरमच्छ भी अपने शिकार को आसानी से छोड़ने वाला नहीं लग रहा था. किसी तरह मगरमच्छ के जबड़े से उस युवक को छुड़ाया गया.

इस हमले में रामधन मीणा के दोनों हाथों में गंभीर रूप से चोटें आईं. घायल को करणपुर अस्पताल पहुंचाया गया, जहां से गंभीर अवस्था में करौली रेफर कर दिया.

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वहीं इस से पहले दूसरी घटना पंजाब के मुक्तसर जिले के गिद्दड़बाहा के एक गांव गुरुसर के पास की है. वहां 21 अप्रैल को नहर के किनारे मगरमच्छ मिला. एक किसान ने इस की पूंछ पकड़ कर घुमाने की कोशिश की, पर वह जल्दी से नहर में घुस गया. नहर में मगरमच्छ के आने से गांव के लोगों में दहशत है. वैसे, गुरुसर गांव के लोग गरमी में इस नहर में नहाते हैं और दूसरी जरूरी चीजों के लिए पानी भी भरते हैं.

फिलहाल तो लॉकडाउन की वजह से लोग नहर की तरफ नहीं जा रहे हैं, फिर भी एहतियात के तौर पर नहर में मगरमच्छ की सूचना गांव वालों ने वन विभाग को दे दी है.

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भले ही चौकस रहते हुए बकरीपालक रामधन मीणा को उस के भाई ने मगरमच्छ के जबड़े से बचा लिया हो, पर ऐसे मौकों पर ज़्यादा जागरूक रहना चाहिए, तभी बच सकते हैं. वहीं खेतों में काम करने वाले किसानों के साथ ही साथ नदी, नाले व नहर के आसपास रहने वालों को घड़ियाल व मगरमच्छों से सावधान रहने की जरूरत है.

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