दंतैल हाथी से ग्रामीण भयजदा: त्राहिमाम त्राहिमाम!

छत्तीसगढ़  के महासमुंद जिले के सिरपुर अंचल  में विगत कुछ सालों में  दंतैल हाथी 16 ग्रामीणों को मौत के घाट उतार चुका है. यही नहीं  किसानों की सैकड़ों एकड़ जमीन में खड़ी फसल को भी बुरी तरह  नुकसान पहुंचाता रहा  है.

इस हाथी से अंचल के ग्रामीण त्राहिमाम त्राहिमाम कर रहे हैं. दुखी और आक्रोशित ग्रामीण सिरपुर क्षेत्र के लगभग 55 गांव के हजारों ग्रामीणों ने शहर में रैली निकालकर जिलाधीश कार्यालय  का घेराव कर दिया और वन मंत्री  मुर्दाबाद के नारे भी लगाये.

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दरअसल, छत्तीसगढ़ के जंगलों में इन दिनों हाथियों के झुंड विचरण कर रहे हैं लगभग ढाई सौ हाथी छत्तीसगढ़ में विभिन्न वन मंडल क्षेत्रों में आतंक का पर्याय बने हुए हैं आए दिन लोग हाथी के द्वारा मारे जा रहे हैं और फसल आदि का नुकसान भी जारी है ग्रामीण असहाय हैं तो शासन भी असहाय हो चुका है.प्रस्तुत है हाथी एवं मानव के संघर्ष को रेखांकित करती एक रिपोर्ट –

हाथी के उन्माद से हलाकान

छत्तीसगढ़ के सिरपुर के 50 से अधिक गांव के लोग हाथियों के आतंक से बेहद भयभीत हैं ग्रामीणों ने  महासमुंद की सड़कों पर उतर कर हाथी के खिलाफ अपने गुस्से का प्रदर्शन करते हुए छत्तीसगढ़ सरकार और विभाग से मांग की कि हाथी किए भयंकर आतंक से मुक्ति दिलाई जाए

कलेक्टर सुनील जैन से मिलकर ग्रामीणों ने 10 बिन्दु्ओं पर मांग पत्र प्रस्तुत कर हाथी के इस भय के  तत्काल निराकरण की मांग की .

निरंतर  ग्रामीणों और किसानों की मौत से गुस्साये 55 गांव के किसानो ने कलेक्टर सुनील जैन से मिलकर दंतैल हाथी को विक्षिप्त  घोषित करने व हाथियों को सिरपुर क्षेत्र से बाहर करने की मांग की है.आक्रोशित ग्रामीणों ने कलेक्टर व वन विभाग से कहा है पिछले पांच  बरस  में किसानों की हालत बद से बदतर सिर्फ हाथियों  के वजह से हो गई है.

सैकड़ों एकड़ खेत के फसल नष्ट हो गये है जिसका मुआवजा भी किसानों को नहीं मिला है. वन विभाग पर ग्रामीणों ने आरोप लगाते हुए कहा कि वन विभाग हाथी प्रभावित क्षेत्र में आज तक विद्युत  की व्यवस्था नहीं कर पाई है. ग्रामीण जन अंधेरे में जीवन बिताने मजबूर हैं इस कारण भी अनेक दो घटनाएं हो चुकी हैं. किसानों और ग्रामीणों के लगातार निवेदन के बाद भी किसानों के जान बचाने और उनके फसल को नष्ट होने से बचाने के लिए कोई कारगार फैसला छत्तीसगढ़ सरकार नहीं ले सका है.

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आक्रोशित ग्रामीणों ने वन विभाग के वन मंडल अधिकारी और जिलाधीश से कहा कि महोदय, लगातार ग्रामीण शासन प्रशासन से अपनी जान माल की रक्षा के लिए निवेदन पर निवेदन  कर रहे है लेकिन  पिछले 5 सालों से ग्रामीणों के मांग को अनसुना किया गया  है.

सिरपुर के हाथी प्रभावित क्षेत्र में  मंत्री-अधिकारी  एक रात बिताएं तो उन्हें जानकारी होगी कि रात में हाथी जब गांव की गलियों में  तांडव करते है तो उन्हें कैसा महसूस होता है. किसानों ने दंतैल हाथी को मारने के साथ-साथ फसल मुआवजा की राशि में बढ़ोत्तरी, मृतक के परिवारों को 10 लाख मुआवजा व उनके परिवार को वन विभाग में नौकरी देने की भी मांग की है.

ग्रामीणों की इस पीड़ा को गंभीरता से लेते हुए जनपद अध्यक्ष धरमदास महिलांग  ने कलेक्टर से कहा की समस्या का निराकरण शीघ्र किया जाये अन्यथा जेल भरो आंदोलन एवं चक्काजाम करने के लिए क्षेत्र के कृषक एवं ग्रामीण बाध्य होंगे.

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हाथियों से भयाक्रांत छत्तीसगढ़

वन्य संरक्षण प्राणी हाथी झुंड छत्तीसगढ़ के जंगलों में स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं हाथियों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है परिणाम स्वरूप मानव एवं हाथी के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई है वन्य प्राणी विशेषज्ञों के अनुसार हाथी एवं ग्रामीणों के बीच संघर्ष का कारण जंगलों की लगातार कटाई एवं जंगल में खेतीकिसानी एवं सहवास प्रमुख कारण है धीरे-धीरे जंगल कम हो रहे हैं परिणाम स्वरूप हाथी एवं अन्य वन्य प्राणी जब ग्रामीणों के रहवास क्षेत्र में आ जाते हैं तो संघर्ष बढ़ जाता है.

छत्तीसगढ़ की रायगढ़ अंबिकापुर कोरबा महासमुंद सहित लगभग 12 जिले हाथी के आतंक से भया क्रांत हैं मगर शासन प्रशासन मौन है. छत्तीसगढ़ के महासमुंद में निकली ग्रामीणों की रैली यह संदेश देती है कि सरकार को जल्द से जल्द इस दिशा में परियोजना बनाकर लोगों को एवं हाथियों को राहत देने के महती काम को अमलीजामा पहनाना  होगा.

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सावधान! अगर आप भी हैं सचिन, धोनी के फैन तो हो सकता है वायरस अटैक

कई बार तो ऐसे वायरस हमारे डिवाइस में आ जाते हैं जिनसे हमारे डिवाइस खराब हो जाते हैं इससे भी ज्यादा खतरनाक ये होता है कि ये वायरस आपके फोन की गोपनीय सामाग्री भी चुरा सकते हैं. ऐसे वायरसों से सावधान रहना चाहिए. इसके अलावा एक और चौंकाने वाली रिपोर्ट आई है.

भारत को दो बार विश्व खिताब दिलाने वाले देश के सबसे लोकप्रिय खिलाड़ियों में से एक महेंद्र सिंह धोनी मैकफे की मोस्ट डेंजरस सेलिब्रिटी सूची में पहले स्थान पर हैं. अपने 13वें संस्करण में मैकफे की शोध ने लोकप्रिय सेलिब्रिटीज की पहचान की है, जो सर्वाधिक जोखिमभरे सर्च परिणाम निर्मित करते हैं और जिनसे उनके फैंस को मैलिशियस वेबसाइट्स एवं वाइरस का खतरा रहता है.

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धोनी ने 2011 के विश्व कप में 28 सालों के बाद भारत के सर पर ताज का सेहरा बांधने के लिए टीम का नेतृत्व किया था. धोनी पूरी दुनिया में अपने धैर्य व स्थिर चित्त के लिए मशहूर हैं. उनकी अपार लोकप्रियता ने साइबर अपराधियों को उपभोक्ताओं को मैलिशियस वेबसाइट्स की ओर लुभाने का मौका दे दिया, जो मालवेयर इंस्टॉल कर व्यक्तिगत जानकारी एवं पासवर्ड चुरा सकते हैं.

सूची में दूसरे स्थान पर क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर हैं. सर्वाधिक जोखिमभरे सर्च परिणाम निर्मित करने वाली टॉप-10 हस्तियों में धोनी और सचिन के अलावा महिला क्रिकेट टीम की कप्तान हरमनप्रीत कौर, विश्व चैम्पियनशिप जीत चुकीं बैडमिंटन स्टार पीवी सिंधु और पुर्तगाल के महान फुटबाल खिलाड़ी क्रिस्टीयानो रोनाल्डो शामिल हैं.

साथ ही टौप-10 में रियल्टी टीवी शो-बिग बौस के विजेता गौतम गुलाटी, बौलीवुड अभिनेत्री सनी लियोन, पौप आइकौन बादशाह, अभिनेत्री राधिका आप्टे और श्रृद्धा कपूर भी शामिल हैं. मैकफे इंडिया के वाइस प्रेसिडेंट ऑफ इंजीनियरिंग एवं मैनेजिंग डायरेक्टर वेंकट कृष्णापुर ने कहा, “इंटरनेट की आसान उपलब्धता एवं अनेक कनेक्टेड डिवाईसेस ने यूजर्स को पूरी दुनिया से कंटेंट प्राप्त करना आसान बना दिया है.

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जहां भारत में सब्सक्रिप्शन पर आधारित कंटेंट प्लेटफार्म बढ़ रहे हैं, वहीं नेटिजंस बड़ी स्पोटिर्ंग ईवेंट्स, मूवीज, टीवी शो एवं अपने चहेते सुपरस्टार की इमेजेस के लिए निशुल्क एवं पायरेटेड कंटेंट तलाशते हैं. दुर्भाग्य से उन्हें इस तरह का कंटेंट प्रदान करने वाली मैलिशियस वेबसाइट्स द्वारा उत्पन्न जोखिम का अनुमान नहीं होता.”

उन्होंने आगे कहा, “साइबर अपराधी इस अवसर का लाभ उठाकर उपभोक्ताओं की कमजोरियों पर सेंध लगाते हैं, क्योंकि वो सुविधा के बदले अपनी सुरक्षा से समझौता करते हैं. उपभोक्ताओं के लिए यह जरूरी है कि वो इन जोखिमों को समझें, क्लिक करने से पहले विचार करें और ऐसे संदेहास्पद लिंक्स पर न जाएं, जो उन्हें निशुल्क कंटेंट दिखाने के लिए लुभाता हो. ऐसे में मैकफे ने उपभोक्ताओं को ऑनलाइन सुरक्षित रखने में मदद करने के लिए कुछ सुझाव जारी किए हैं.

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  1. आप क्लिक करने से पहले सावधान रहें. एमएस धोनी से संबंधित कंटेंट मुफ्त में प्राप्त करने के इच्छुक यूजर्स सावधान रहें और केवल भरोसेमंद स्रोत से ही कंटेंट स्ट्रीम व डाउनलोड करें. सबसे सुरक्षित यह है कि आप मालवेयर युक्त थर्ड पार्टी वेबसाइट पर विजिट करने की बजाए ऑफिशल रिलीज का इंतजार कर लें.
  2. गैरकानूनी स्ट्रीमिंग साइट्स का उपयोग न करें। जोखिमभरे ऑनलाइन व्यवहार के मामले में गैरकानूनी स्ट्रीमिंग साइट्स का उपयोग आपकी डिवाइस के लिए उतना ही खतरनाक है, जितनी खतरनाक जंगल की आग होती है. कई गैरकानूनी स्ट्रीमिंग साइट्स पर पाइरेटेड वीडियो फाइल के रूप में मालवेयर या एडवेयर छिपे होते हैं. इसलिए वीडियो केवल प्रतिष्ठित स्रोत से ही स्ट्रीम करें.
  3. अपनी ऑनलाइन दुनिया को साइबर सिक्योरिटी समाधान की सुरक्षा दें. मैकफे टोटल प्रोटेक्शन जैसे विस्तृत सिक्योरिटी समाधान की मदद से मैलिशियस जोखिमों को अलविदा कर दें. इससे आप मालवेयर, फिशिंग के हमलों एवं अन्य जोखिमों से सुरक्षित रहेंगे.
  4. वेब रेप्युटेशन टूल का इस्तेमाल करें. वेब रेप्यूटेशन टूल, जैसे निशुल्क मैकफे वेब एडवाईजर का उपयोग करें, जो आपको मैलिशियस वेबसाईट के बारे में सचेत कर देता है.
  5. पैरेंटल कंट्रोल सॉफ्टवेयर का उपयोग करें. बच्चे भी सेलिब्रिटीज के फैन होते हैं, इसलिए डिवाइस पर अपने बच्चे के लिए लिमिट्स सुनिश्चित कर दें और मैलिशियस एवं अनुचित वेबसाइट्स से उनको सुरक्षित रखने के लिए पैरेंटल कंट्रोल सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करें.

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तकनीकि के युग में जहां हम बहुत तेजी से आगे बढ़ते जा रहे हैं. लेकिन तकनीकि की बारीक जानकारियां हमें नहीं होती जिसकी वजह से हम किसी बड़ी समस्या में फंस सकते हैं. हम अपने मोबाइल में तरह-तरह के मोबाइल एप डाउनलोड करते हैं. इन ऐप्स को जब आप इन्सटॉल करते हैं तो ये आपसे परमिशन मांगते हैं आपके मोबाइल के कॉन्टेक्ट, फोटोज, वीडियो, कैमरा आदि के एक्सेस का. हम आप बड़ी आसानी से उसको ओके कर देते हैं. हम जाने अनजाने में उस ऐप को ये एक्सेस दे देते हैं कि वो हमारी हर चीज को देख सके. इस तरह हम खुद ही अपनी प्राइवेसी को ऐप के हवाले कर देते हैं.

जेलों में तड़पती जिंदगी: भाग 2

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मुसलिमों की बात करें, तो इस समुदाय में सजायाफ्ता कैदियों का अनुपात 15.8 फीसदी है, जो आबादी में उन की भागीदारी से थोड़ा सा ज्यादा है.

लेकिन विचाराधीन कैदियों में उन का हिस्सा कहीं ज्यादा 20.9 फीसदी है. सारे दोषसिद्ध अपराधियों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की आबादी क्रमश: 20.9 फीसदी और 13.7 फीसदी है, जिसे काफी ज्यादा कहा जा सकता है.

अगर भारतीय संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों की बात करें, तो विचाराधीन कैदियों को उन के कुसूरवार साबित होने से पहले तक बेकुसूर माना जाता है, लेकिन जेल में बंद किए जाने के दौरान उन पर अकसर मानसिक और शारीरिक जुल्म किए जाते हैं और उन्हें जेल में होने वाली हिंसा का सामना करना पड़ता है.

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इन में से कई तो पारिवारिक, आसपड़ोस और समुदाय के रिश्तों के साथसाथ अकसर अपनी आजीविका भी गंवा देते हैं. इस से भी ज्यादा बड़ी बात यह है कि जेल में बिताया गया समय उन के माथे पर कलंक लगा देता है. यहां तक कि उन के परिवार, सगेसंबंधियों और समुदाय को भी उन की बिना किसी गलती के शर्मिंदगी  झेलनी पड़ती है.

विचाराधीन कैदियों की पहुंच कानूनी प्रतिनिधियों तक काफी कम होती है. कई विचाराधीन कैदी तो काफी गरीब परिवार से होते हैं, जो मामूली अपराधों के आरोपी हैं. अपने अधिकारों की जानकारी न होने और कानूनी मदद तक पहुंच नहीं होने के चलते उन्हें काफी समय तक जेलों में बंद रहना पड़ रहा है.

पैसे और मजबूत सपोर्ट सिस्टम की कमी और जेल परिसर में वकीलों से बातचीत करने की ज्यादा क्षमता न होने के चलते अदालत में अपना बचाव करने की उन की ताकत कम हो जाती है.

ये हालात सुप्रीम कोर्ट के उस ऐतिहासिक फैसले के बावजूद हैं, जिस में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 21 बंदियों को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के तहत निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई का अधिकार देता है.

साल 2005 से प्रभाव में आने वाले अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के अनुच्छेद 436 (ए) के प्रावधानों के बावजूद विचाराधीन कैदियों को अकसर अपनी जिंदगी के कई साल सलाखों के पीछे गुजारने पर मजबूर होना पड़ रहा है.

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इस अनुच्छेद के मुताबिक, अगर किसी विचाराधीन कैदी को उस पर लगे आरोपों के लिए तय अधिकतम कारावास की सजा के आधे समय के लिए जेल में बंद रखा जा चुका है, तो उसे निजी मुचलके पर जमानत के साथ या बिना जमानत के रिहा किया जा सकता है.

यह अनुच्छेद उन आरोपियों पर लागू नहीं होता, जिन्हें मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है. लेकिन जैसा कि प्रिजन स्टैटिस्टिक्स, 2014 दिखाता है, किसी अपराध के लिए भारतीय दंड संहिता के तहत आरोपित 39 फीसदी विचाराधीन कैदियों को आजीवन कारावास या मृत्युदंड की सजा नहीं दी जा सकती थी.

जेलों में अफसरों की 33 फीसदी सीटें खाली पड़ी हैं और सुपरवाइजिंग अफसरों की 36 फीसदी रिक्तियां नहीं भरी गई हैं. मुलाजिमों की भीषण कमी के मामले में दिल्ली की तिहाड़ जेल देश में तीसरे नंबर पर है. इस जेल के भीतर बहाल मुलाजिमों की तादाद जरूरत से तकरीबन 50 फीसदी कम है.

औरत कैदी, मासूम बच्चे

भारत की जेलों में विचाराधीन कैदियों में एक बड़ा तबका औरतों का भी है. वे औरतें जेलों में अकेली नहीं हैं. उन के साथ उन के बच्चे भी इस यातना के बीच पलबढ़ रहे हैं. बात सिर्फ जेल में बंद होने भर की नहीं होती.

पहली नजर में छोटी उम्र के बच्चों का कुसूर सिर्फ इतना है कि उन्हें पता ही नहीं कि उन की मां कुसूरवार है भी या नहीं. इन जेलों में बंद औरतों की सेहत का मुद्दा भी किसी अस्पृश्य विषय की तरह सा लगने लगता है. आखिर वे ‘विचाराधीन’ जो हैं.

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सुबह के 9 बज रहे हैं. नन्हेमुन्ने बच्चों की यह जमात यूनीफौर्म पहने जगदलपुर केंद्रीय कारागार से कतार में निकल रही है. अपनेअपने बस्ते पीठ पर टांगे हुए पास के ही सरकारी स्कूल की तरफ इन का रुख है. वैसे तो ये जेल के बाशिंदे हैं, लेकिन ये यहां सजा नहीं काट रहे हैं. चूंकि ये छोटे हैं, इसलिए ये अपनी माताओं के साथ जेल में रह रहे हैं.

अफसर बताते हैं कि इन में से कुछ बच्चों का जन्म जेल में ही हुआ है. यहां 97 औरत कैदी हैं, जिन में से महज 29 विचाराधीन हैं, जबकि बाकी वे हैं जो सजायाफ्ता हैं या फिर विशेष सुरक्षा अधिनियम के तहत बंद हैं.

इन औरत कैदियों के साथ रह रहे 12 बच्चे, अब जेल प्रशासन की ही जिम्मेदारी हैं. इन के रहने, खानेपीने, पढ़ाईलिखाई और सेहत का इंतजाम जेल प्रशासन को ही करना पड़ता है.

जेल के अफसर कहते हैं कि जिन बच्चों की उम्र 6 साल से ऊपर है, उन्हें सरकारी स्कूल के छात्रावास में रखा गया है, जबकि छोटे बच्चे अपनी माताओं के साथ औरतों के वार्ड में ही रह रहे हैं.शशिकला पिछले 6 महीनों से जगदलपुर की जेल में बंद है. उस पर अपने ही पति की हत्या का मामला चल रहा है. लेकिन इस दौरान उस को किसी भी तरह की न्यायिक मदद नहीं मिल पाई है.

इस की वजह वह बताती है कि उस का इस दुनिया में कोई नहीं है. उस की कोई औलाद भी नहीं है. उस से जेल में मिलने भी कोई नहीं आता है. उस का कहना है कि वह अब तक अपने लिए कोई वकील तक नहीं कर पाई है.

आंकड़ों के अनुसार 1,603 औरतें अपने बच्चों के साथ जेलों में हैं. इन के बच्चों की तादाद 1,933 है.

जामिया मिल्लिया इसलामिया यूनिवर्सिटी के ‘सरोजनी नायडू फौर वुमन स्टडीज’ की कानून विशेषज्ञ तरन्नुम सिद्दीकी कहती हैं कि औरतों में तालीम की कमी उन के जेल जाने की सब से बड़ी वजह है. वे मर्दवादी सोच को ही औरतों के खिलाफ दर्ज मामलों की अहम वजह मानती हैं.

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उन का कहना है कि पुलिस में औरतों की तादाद काफी कम है. पुलिस कई बार अपनी इस सोच की वजह से औरतों को उठा कर जेलों में डाल देती है और वहां उन का शोषण भी किया जाता है.

हालांकि, सैंट्रल जेलों के हालात थोड़े बेहतर हैं, लेकिन कई जेलें ऐसी हैं जहां औरत कैदियों को खराब हालत में रखा गया है, जिस से सेहत को ले कर उन्हें काफी सारी परेशानियां  झेलनी पड़ती हैं. कई जेलों में तो उन्हें दूसरी रोजमर्रा की चीजें भी नहीं मिल पाती हैं. उपजेलों या जिला जेलों में बंद ऐसे कैदियों का हाल ज्यादा खराब है.

देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली की जेलें सब से ज्यादा भरी हुई हैं और इन में जेल सिक्योरिटी वालों और सीनियर सुपरवाइजरी मुलाजिमों की भारी किल्लत है. उत्तर प्रदेश, बिहार और  झारखंड जैसे राज्यों की जेलों में सिक्योरिटी वालों के नाम पर सब से कम लोग तैनात हैं. यहां जेलरों, जेल सिक्योरिटी और सुपरवाइजर लैवल पर 65 फीसदी से ज्यादा रिक्तियां हैं.

जेल मुलाजिमों की भारी कमी और जेलों पर क्षमता से ज्यादा बो झ, जेलों के भीतर बड़े पैमाने पर हिंसा और दूसरी आपराधिक गतिविधियों जैसी कई

वजहें कैदियों का फरार होना बनती हैं. अलगअलग घटनाओं में साल 2015 में पंजाब में 32 कैदी जेलों से फरार हो गए, जबकि राजस्थान में ऐसे मामलों की तादाद बढ़ कर 18 हो गई. महाराष्ट्र में 18 कैदी फरार होने में कामयाब रहे.

साल 2015 में हर रोज औसतन 4 कैदियों की मौत हुई. कुलमिला कर 1,584 कैदियों की जेल में मौत हो गई. इन में 1,469 मौतें स्वाभाविक थीं, जबकि बाकी मौतों के पीछे अस्वाभाविक वजह का हाथ माना गया.

अस्वाभाविक मौतों में दोतिहाई यानी 77 खुदकुशी के मामले थे, जबकि 11 की हत्याएं साथी कैदियों द्वारा कर दी गईं. इन में से 9 दिल्ली की जेलों में थे. साल 2001 से साल 2010 के बीच 12,727 लोगों की जेलों के भीतर मौत होने की जानकारी है.

अगर कोई पेशेवर सरगना या कोई सफेदपोश अपराधी जेल के अफसर की मुट्ठी गरम करने को तैयार है, तो वह जेल परिसर के भीतर मोबाइल, शराब और हथियार तक रख सकता है, जबकि दूसरी तरफ सामाजिक व माली तौर पर पिछड़े हुए विचाराधीन कैदियों को सरकारी तंत्र द्वारा उन की बुनियादी गरिमा से भी वंचित रखा जा सकता है, इसलिए इस में कोई हैरानी की बात नहीं कि जेल महकमा देश के उन कुछ निर्वाचित प्रतिनिधियों की पसंद रहा है, जिन के खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं.

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मजबूत ह्विसिल ब्लोवर प्रोटैक्शन ऐक्ट की गैरमौजूदगी और जेलों पर जरूरत से ज्यादा बो झ और मुलाजिमों की भारी कमी के चलते भारतीय जेलें राजनीतिक रसूख वाले अपराधियों के लिए एक आरामगाह और कमजोर विचाराधीन कैदियों के लिए नरक के समान बनी रहेंगी. मीडिया में कभीकभार  मचने वाले शोरशराबे का इस पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

भारत में हर साल बर्बाद किया जाता है इतना भोजन, वहीं 82 करोड़ लोग सोते हैं भूखे

कुछ दिनों पहले ही एक ऐसी सूची जारी की गई जिसने भारत को शर्मिंदा कर दिया. भारत एशिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है और दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी लेकिन ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत दक्षिण एशिया में भी सबसे नीचे है. वैश्विक भुखमरी सूचकांक यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) में दुनिया के 117 देशों में भारत 102वें स्थान पर रहा है.

यह जानकारी साल 2019 के इंडेक्स में सामने आई है. वेल्थहंगरहिल्फे एंड कन्सर्न वल्डवाइड द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया के उन 45 देशों में शामिल है जहां ‘भुखमरी काफी गंभीर स्तर पर है.’ साल 2015 में भूखे भारतीयों की संख्या 78 करोड़ थी और अब 82 करोड़. यानी जिस आंकड़े को घटना चाहिए वो बढ़ रहे हैं.

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जीएचआई में भारत का खराब प्रदर्शन लगातार जारी है. साल 2018 के इंडेक्स में भारत 119 देशों की सूची में 103वें स्थान पर था. इस साल की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2017 में इस सूचकांक में भारत का स्थान 100वां था लेकिन इस साल की रैंक तुलनायोग्य नहीं है.

वैश्विक भुखमरी सूचकांक लगातार 13वें साल तय किया गया है. इसमें देशों को चार प्रमुख संकेतकों के आधार पर रैंकिग दी जाती है – अल्पपोषण, बाल मृत्यु, पांच साल तक के कमजोर बच्चे और बच्चों का अवरुद्ध शारीरिक विकास.

इस सूचकांक में भारत का स्थान अपने कई पड़ोसी देशों से भी नीचे है. इस साल भुखमरी सूचकांक में जहां चीन 25वें स्थान पर है, वहीं नेपाल 73वें, म्यांमार 69वें, श्रीलंका 66वें और बांग्लादेश 88वें स्थान पर रहा है. पाकिस्तान को इस सूचकांक में 94वां स्थान मिला है. जीएचआई वैश्विक, क्षेत्रीय, और राष्ट्रीय स्तर पर भुखमरी का आकलन करता है. भूख से लड़ने में हुई प्रगति और समस्याओं को लेकर हर साल इसकी गणना की जाती है.

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जीएचआई को भूख के खिलाफ संघर्ष की जागरूकता और समझ को बढ़ाने, देशों के बीच भूख के स्तर की तुलना करने के लिए एक तरीका प्रदान करने और उस जगह पर लोगों का ध्यान खींचना जहां पर भारी भुखमरी है, के लिए डिजाइन किया गया है.इंडेक्स में यह भी देखा जाता है कि देश की कितनी जनसंख्या को पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिल रहा है. यानी देश के कितने लोग कुपोषण के शिकार हैं.

ये तो रही महज आंकड़ों की बात. अब हम कुछ जमीनी स्तर पर भी इसकी पड़ताल कर लें. भारत में भले ही विकास के नए आयामों को छू रहा है लेकिन विश्व पटल में ऐसे आंकड़े हमारी सारे किए कराए पर पानी फेर देते हैं. भले ही आप अमेरिका के ह्यूस्टन की तस्वीर देखकर ये सोच रहे हों कि विदेशों में भी भारत का डंका बज रहा है. लेकिन वहीं आप का देश भुखमरी में एशिया में सबसे नीचे हैं. आप उन देशों से भी पीछे हैं तो किसी भी तरह भारत से मुकाबले करने के काबिल है ही नहीं.

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भारत 2010 में 95वें नंबर पर था और 2019 में 102वें पर आ गया. 113 देशों में साल 2000 में जीएचआई रैंकिंग में भारत का रैंक 83वां था और 117 देशों में भारत 2019 में 102वें पर आ गया.

एक तरफ तो ये आंकड़ा और दूसरी तरफ एक और आंकड़ा देखिए. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 40 फ़ीसदी खाना बर्बाद हो जाता है. इन्हीं आंकड़ों में कहा गया है कि यह उतना खाना होता है जिसे पैसों में आंके तो यह 50 हज़ार करोड़ के आसपास पहुंचेगा. विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया का हर 7वां व्यक्ति भूखा सोता है.

विश्व भूख सूचकांक में भारत का 67वां स्थान है. देश में हर साल 25.1 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है लेकिन हर चौथा भारतीय भूखा सोता है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियां वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं.

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जेलों में तड़पती जिंदगी: भाग 1

मोहम्मद आमिर खान

दिल्ली का रहने वाला मोहम्मद आमिर खान पायलट बन कर अपने कैरियर में ऊंची उड़ान भरना चाहता था, मगर उस के सपनों की उड़ान वक्त से पहले जमीन पर आ गई. 14 साल तक जेल में रहने के बाद अब वह टूट चुका है.

मोहम्मद आमिर खान उस शाम को आज भी नहीं भूला है, जब वह अपनी मां के लिए दवा लेने घर से निकला था. उस का कहना है कि उसी दौरान पुलिस ने उसे रास्ते से ही पकड़ लिया था. तब वह महज 18 साल का था.

बाद में मोहम्मद आमिर खान पर बम धमाके करने, आतंकी साजिश रचने और देश के खिलाफ होने जैसे संगीन आरोप लगाए गए थे.

18 साल की उम्र में ही मोहम्मद आमिर खान 19 मामलों में उल झ गया था. अब उस के सामने थी एक लंबी कानूनी लड़ाई. उस का कहना है कि बेकुसूर करार दिए जाने के बाद जेल में कटे उस की जिंदगी के बेशकीमती सालों की भरपाई आखिर कौन करेगा? वह अपनी जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने की कोशिश कर रहा?है, मगर सवाल है कि उसे दोबारा बसाने की जिम्मेदारी कौन लेगा?

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मोहम्मद आमिर खान के मुताबिक, वह तमाम नेताओं के साथसाथ राष्ट्रपति से भी मिल चुका है, मगर उसे आश्वासनों के अलावा कुछ नहीं मिला.

जेल में मोहम्मद आमिर खान के 14 साल ही नहीं बीते, बल्कि उस के सारे सपने भी बिखर गए. जब वह जेल से निकला तो उस के पिता की मौत हो चुकी थी. सदमे में डूबी उस की मां अब कुछ बोल नहीं पाती हैं. उन की आवाज हमेशा के लिए चली गई है.

इमरान किरमानी

कश्मीर के हंदवाड़ा इलाके के रहने वाले 34 साला इमरान किरमानी को साल 2006 में दिल्ली पुलिस की एक विशेष सैल ने मंगोलपुरी इलाके से गिरफ्तार किया था.

इमरान पर आरोप था कि वह दिल्ली में आत्मघाती हमला करने की योजना बना रहा था, मगर पौने 5 साल बाद अदालत ने उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया.

इमरान किरमानी ने जयपुर से एयरक्राफ्ट मेकैनिकल इंजीनियरिंग की डिगरी हासिल की है. जब उसे दिल्ली में गिरफ्तार किया गया, तब वह एक निजी कंपनी में नौकरी कर रहा था.

जेल में बिताए अपनी जिंदगी के 5 सालों को याद करते हुए इमरान किरमानी कहता है, ‘‘बरी तो अदालत ने कर दिया, लेकिन सब से बड़ा सवाल यह है कि मेरे 5 साल जो जेल में बीत गए, उन्हें कौन वापस करेगा?’’

इमरान किरमानी को इस बात का भी काफी सदमा है कि जिस वक्त वह अपना भविष्य बनाने निकला था, उसी वक्त उसे जेल में डाल दिया गया और वह भी बिना किसी कुसूर के. वह कहता है, ‘‘जो मेरे साथ पढ़ाई करते थे, काम करते थे, वे आज बहुत तरक्की कर चुके हैं. मैं भी करता, लेकिन मेरा कीमती समय जेल में ही बरबाद हो गया.’’

इमरान किरमानी अब अपने गांव के एक स्कूल में पढ़ाता है. उसे सरकार से किसी मदद की उम्मीद नहीं है और न ही वह इस के लिए सरकार के पास जाने के लिए तैयार है.

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फारूक अहमद खान

हाल ही में इंजीनियर फारूक अहमद खान को भी 19 साल बाद अदालत ने सभी आरोपों से बरी कर दिया है. उस पर दिल्ली में बम धमाका करने की योजना बनाने का आरोप लगा था.

अनंतनाग, कश्मीर के फारूक अहमद खान को स्पैशल टास्क फोर्स ने 23 मई, 1996 को उस के घर से गिरफ्तार किया था. गिरफ्तारी के वक्त 30 साल का फारूक अहमद खान पब्लिक हैल्थ इंजीनियरिंग महकमे में जूनियर इंजीनियर के पद पर काम करता था.

दिल्ली हाईकोर्ट ने 4 साल बाद फारूक अहमद खान को लाजपत नगर धमाका मामले से बरी कर दिया था, लेकिन उस के बाद उसे जयपुर और गुजरात में हुए बम धमाकों के मामले में जयपुर सैंट्रल जेल में रखा गया.

जयपुर की एडिशनल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने भी उसे रिहा करने का आदेश दिया और उस के खिलाफ लगाए गए सभी आरोपों को खारिज कर दिया.

जिंदगी के तकरीबन 20 साल खोने के अलावा फारूक अहमद खान को अपने मुकदमे के खर्च के तौर पर एक मोटी रकम भी गंवानी पड़ी. उस का कहना है कि दिल्ली में मुकदमे के खर्च में 20 लाख रुपए लगे, जबकि जयपुर में 12 लाख रुपए का खर्च उठाना पड़ा.

साल 2000 में जब फारूक अहमद खान के पिता की मौत हुई तो उसे पैरोल पर भी नहीं छोड़ा गया. उस की मां कहती हैं, ‘‘जिस दिन फारूक के अब्बा ने बेटे की जेल की तसवीर देखी थी तो उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उन की मौत हो गई. अब बेटा तो घर आ गया, लेकिन उस के खोए हुए 19 साल कौन लौटाएगा?’’

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मकबूल शाह

कश्मीर के श्रीनगर के लाल बाजार का रहने वाला मकबूल शाह साल 2010 में 14 साल बाद जेल से रिहा हुआ तो उसे लगा कि एक नई जिंदगी मिल गई है.

मकबूल शाह को भी दिल्ली में बम धमाके की साजिश रचने के आरोप में साल 1996 में गिरफ्तार किया गया था. उस वक्त उस की उम्र सिर्फ 14 साल थी.

मकबूल को भी अदालत ने आरोपों से बरी कर दिया, मगर मकबूल शाह को लगता है कि जिन लोगों ने उसे फर्जी मुकदमे में फंसाया था, उन के खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए.

संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत जेलों का रखरखाव और मैनेजमैंट पूरी तरह से राज्य सरकारों का सब्जैक्ट है. हर राज्य में जेल प्रशासन तंत्र चीफ औफ प्रिजंस (कारागार प्रमुख) की देखरेख में काम करता है, जो आईपीएस अफसर होता है.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि जेल की कुल आबादी के 65 फीसदी कैदी अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं. इन में अनुसूचित जाति के 21.7 फीसदी, अनुसूचित जनजाति के 11.5 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग के 31.6 फीसदी हैं.

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व्यवस्था की गड़बड़ी

भारत में जेलें 3 ढांचागत समस्याओं से जू झ रही हैं: एक, जेलों में क्षमता से ज्यादा कैदी, जिस का श्रेय जेल की आबादी में अंडरट्रायल्स (विचाराधीन कैदियों) के बड़े फीसदी को जाता है. 2, कर्मचारियों की कमी. 3, फंड की कमी. इस का नतीजा तकरीबन जानवरों जैसी जिंदगी, गंदगी और कैदियों व जेल अफसर के बीच हिंसक  झड़पों के तौर पर निकला है.

ठूंसठूंस कर भरे कैदी

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो के प्रिजन स्टैटिस्टिक्स इंडिया, 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की कई जेलें कैदियों की तादाद के लिहाज से छोटी पड़ रही हैं. भारतीय जेलों में क्षमता से 14 फीसदी ज्यादा कैदी रह रहे हैं. इस मामले में छत्तीसगढ़ और दिल्ली देश में सब से आगे हैं, जहां की जेलों में क्षमता से दोगुने से ज्यादा कैदी हैं.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक, देशभर की जेलों में 4,19,623 कैदी हैं, जिन में से 17,834 औरतें हैं यानी कुल कैदियों में से 4.3 फीसदी औरतें हैं. ये आंकड़े 2015 के हैं.

साल 2000 में यह आंकड़ा 3.3 फीसदी था यानी 15 साल में औरत कैदियों में एक फीसदी का इजाफा हुआ है. इतना ही नहीं 17,834 में से 11,916 यानी तकरीबन 66 फीसदी औरतें विचाराधीन कैदी हैं.

मेघालय की जेलों में क्षमता से तकरीबन 77.9 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 68.8 फीसदी और मध्य प्रदेश में 39.8 फीसदी ज्यादा कैदी हैं.

उत्तर प्रदेश में विचाराधीन कैदियों की तादाद 62,669 थी. इस के बाद बिहार 23,424 और महाराष्ट्र 21,667 का नंबर था. बिहार में कुल कैदियों के 82 फीसदी विचाराधीन कैदी थे, जो सभी राज्यों से ज्यादा थे.

भारतीय जेलों में बंद 67 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं यानी ऐसे कैदी, जिन्हें मुकदमे, जांच या पूछताछ के दौरान हवालात में बंद रखा गया है, न कि कोर्ट द्वारा किसी मुकदमे में कुसूरवार करार दिए जाने की वजह से.

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अंतर्राष्ट्रीय मानकों के हिसाब से भारत की जेलों में ट्रायल या सजा का इंतजार कर रहे लोगों का फीसदी काफी ज्यादा है. उदाहरण के लिए इंगलैंड में यह 11 फीसदी है, जबकि अमेरिका में 20 फीसदी और फ्रांस में 29 फीसदी है.

साल 2014 में देश के 36 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से 16 में 25 फीसदी से ज्यादा विचाराधीन कैदी एक साल से ज्यादा वक्त से हवालात में बंद थे. जम्मूकश्मीर 54 फीसदी के साथ इस लिस्ट में सब से ऊपर है. उस के बाद गोवा 50 फीसदी और गुजरात 42 फीसदी. उत्तर प्रदेश सब से ऊपर है. यहां विचाराधीन कैदियों की तादाद सब से ज्यादा 18,214 थी.

देश की विभिन्न अदालतों में 31 मार्च, 2016 तक लंबित पड़े मामलों की तादाद 3.1 करोड़ थी, जिसे किसी भी लिहाज से बहुत बड़ा आंकड़ा कहा जा सकता है. ऐसे में यह मान कर चला जा सकता है कि किसी असरदार दखलअंदाजी की गैरमौजूदगी में भारत की जेलें इसी तरह भरी रहेंगी.

साल 2014 के आखिर तक कुल विचाराधीन कैदियों में से 43 फीसदी यानी तकरीबन 1.22 लाख लोग 6 महीने से ले कर 5 साल से ज्यादा वक्त तक विभिन्न हवालातों में बंद थे. इन में से कइयों ने तो जेल में इतना समय बिता लिया है, जितना उन्हें कुसूरवार होने की असली सजा के तौर पर भी नहीं बिताना पड़ता.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के रिकौर्ड के मुताबिक, 2.82 लाख विचाराधीन कैदियों में 55 फीसदी से ज्यादा मुसलिम, दलित और आदिवासी थे.

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साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश की कुल आबादी में इन 3 समुदायों का सम्मिलित हिस्सा 39 फीसदी है. इस में मुसलिम, दलित और आदिवासी क्रमश: 14.3 फीसदी, 16.6 फीसदी और 8.6 फीसदी हैं. लेकिन कैदियों के अनुपात के हिसाब से देखें, जिस में विचाराधीन और कुसूरवार करार दिए गए, दोनों तरह के कैदी शामिल हैं, इन समुदायों के लोगों का कुल अनुपात देश की आबादी में इन के हिस्से से ज्यादा है.

जानें आगे अगले भाग में…

थार की बेटी का हुनर: भाग 2

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रूमा देवी महिलाओं को ट्रेनिंग के साथ मार्केटिंग के गुर भी सिखाती हैं. वह इन महिलाओं के उत्पादों को सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहचान दिला चुकी हैं.

लंदन, जर्मनी, सिंगापुर और कोलंबो के फैशन वीक्स में भी उन के उत्पादों का प्रदर्शन हो चुका है. अपनी कला के सिलसिले में रूमा को पहली बार फैशन शो देखने दिल्ली जाने का मौका मिला था. वहां रूमा को पता चला कि वह दूसरे लोगों से कितनी पीछे हैं.

काफिला चला तो मंजिल मिलती गई

उस समय बाड़मेर की हस्तकला को कोई नहीं जानता था. अपने हुनर को पहचान दिलाने के लिए रूमा देवी ने कौटन की साडि़यों के साथ अन्य कपड़ों पर कशीदाकारी करानी शुरू की.

राजस्थान हेरिटेज वीक में पहली बार फैशन शो करने के लिए रूमा जयपुर गई थीं. वहां जितने भी नामचीन फैशन डिजाइनर आए हुए थे, वे उन सभी से मिलीं. लेकिन उन लोगों ने उन्हें निगेटिव रिस्पौंस दिया. उन्होंने कहा, ‘‘रूमाजी, फैशन शो में शामिल होना आप के स्तर का काम नहीं है.’’

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इस कटाक्ष ने रूमा के अंदर आग भर दी. इस के बाद रूमा ने अपना काम सुधारने की जिद ठान ली. उन्होंने एक महीने में अपने नए प्रोडक्ट तैयार किए, फिर बाड़मेर में अपना फैशन शो किया. रूमा और उन की टीम ने घूंघट में ही रैंप पर कैटवाक किया तो लोगों की तालियां रुक ही नहीं रही थीं. यह रूमा की पहली सफलता थी. इस के बाद रूमा को राजस्थान स्थापना दिवस पर जयपुर में हुए मेगा शो में प्रदर्शन का मौका मिला.

उस कार्यक्रम को 112 देशों में लाइव दिखाया गया. रूमा व उन की अन्य सहयोगियों ने खुद की कशीदाकारी की हुई पारंपरिक रंगबिरंगी वेशभूषा में जब रैंप पर वाक किया तो लोग देखते रह गए.

राजस्थानी वेशभूषा को इस रूप में विदेश में पहली बार देखा जा रहा था. इस का फायदा यह हुआ कि रूमादेवी को कई फैशन डिजाइनरों से और्डर मिलने लगे.

इस बीच जर्मनी के टैक्सटाइल शो में रूमा को जाने का मौका मिला तो उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि जिस ने आठवीं की पढ़ाई बीच में छोड़ दी हो, वह विदेश जा रही है. रूमा की बारी आई तो वह सुईधागा ले कर अपना हुनर दिखाने लगीं. रूमा की कशीदाकारी देख कर विदेशी डिजाइनर अचंभित रह गए.

सन 2017 में दिल्ली फेयर रनवे शो में बाड़मेर क्राफ्ट से तैयार स्टाइलिश परिधानों में रूमा व उस की सहयोगियों ने प्रस्तुति दी.

अपने काम की बदौलत रूमा को सरकार व विदेश से ढेर सारे अवार्ड मिल चुके हैं. सन 2017 के गणतंत्र दिवस समारोह में प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल कल्याण सिंह ने उसे प्रशस्ति पत्र दे कर सम्मानित किया.

इस के अलावा नीदरलैंड ने वूमन औफ विंग्स पुरस्कार दिया. जैपोर ई-कौमर्स ने उसे हुनरमंद अवार्ड दिया. हस्तशिल्प कला संवर्धन, केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने भी इन्हें सम्मानित किया. इस के अलावा रूमा को विश्व के 51 प्रभावशाली लोगों में अंतरराष्ट्रीय सीएसआर अवार्ड, शिल्प सृजन अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है.

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर 8 मार्च, 2019 को रूमा देवी को राष्ट्रपति रामनाद कोविंद ने नारी शक्ति अवार्ड से सम्मानित किया. बाड़मेर में पहली बार किसी महिला को सर्वोच्च नारी शक्ति के रूप में सम्मान मिला है. यह सम्मान रूमा देवी को हस्तशिल्प कला में नवाचार के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम करने पर दिया गया.

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पुरस्कार में उन्हें प्रशस्ति पत्र के साथ एक लाख रुपए की राशि प्रदान की गई. महिला व बाल विकास मंत्रालय, महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में विशेष योगदान देने वाली महिलाओं को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर नारी शक्ति पुरस्कार प्रदान करता है.

नारी शक्ति पुरस्कार मिलने के बाद देश भर से आई तमाम अवार्ड पाने वाली महिलाओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुलाकात की. प्रधानमंत्री ने रूमा देवी से बात की और उन्हें बधाई दी. मोदी ने कहा, ‘रूमादेवी जी, मैं आप के बारे में इंडिया टुडे में पढ़ चुका हूं. आप का काम व योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है. राजस्थान के पिछड़े जिले में 75 गांवों की 22 हजार से ज्यादा महिलाओं को घर बैठे रोजगार देना कोई मामूली बात नहीं है. यह बहुत बड़ी उपलब्धि है. आप और आगे बढ़ो, मेरी शुभकामनाएं आप के साथ हैं.’

लगने लगी पुरस्कारों की झड़ी

राष्ट्रपति से नारी शक्ति अवार्ड मिलने के बाद रूमा देवी को एक और कामयाबी मिली है. उन्हें अब डिजाइनर औफ द ईयर 2019 के अवार्ड से नवाजा गया है. रूमा देवी ने दिल्ली में कई फैशन डिजाइनर्स को पीछे छोड़ यह अवार्ड जीता है.

दिल्ली के प्रगति मैदान टैक्सटाइल फेयर्स इंडिया (टीएफआई) द्वारा फैशन शो प्रतियोगिता हुई, जिस में देश भर के नामी डिजाइनर्स के साथसाथ रूमा देवी ने भी अपने समूह के कलेक्शन रैंप पर उतारे थे.

इस प्रतियोगिता का पहला राउंड रूमा देवी ने मई 2019 में क्लियर कर लिया था, जिस में पूरे भारत से 14 प्रतिभावान यंग डिजाइनर्स को दूसरे राउंड के लिए चयनित किया गया.

16 जुलाई, 2019 को प्रतियोगिता के फाइनल राउंड में रूमादेवी का ब्लैक एंड वाइट कलेक्शन प्रथम स्थान पर रहा. टीएफआई की ओर से आयोजित फैशन शो प्रतियोगिता जीतने के साथ ही रूमा देवी को पेरिस (फ्रांस) का टूर पैकेज भी मिला है. रूमा देवी और उन का समूह फ्रांस जा कर वहां बाड़मेर के हस्तशिल्प के लिए नए संभावनाओं की तलाश करेंगी.

इस शो में फैशन गुरु एवं डायरेक्टर प्रसाद बिडप्पा, सुपर वुमन मौडल नयनिका चटर्जी, वरिष्ठ डिजाइनर अब्राहम एंड ठाकुर, पायल जैन, टी.एम. कृष्णमूर्ति एवं टैक्सटाइल इंडस्ट्री के 240 समूहों के प्रतिनिधि व 40 देशों के व्यापार प्रतिनिधियों सहित फैशन जगत की विभिन्न हस्तियां शामिल रहीं.

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बाड़मेर के पड़ोसी जिलों जैसलमेर, जोधपुर व बीकानेर आने वाले सात समंदर पार के विदेशी सैलानियों को रूमादेवी एवं उन के समूह के उत्पाद खास पसंद आने लगे हैं. रूमादेवी कहती हैं कि जब बिचौलिए एजेंट पहले उन से हस्तशिल्प के काम के बदले थोड़ी मजदूरी दे कर बाकी के रुपए डकार जाते थे, तब से ही उन्होंने कमर कस ली थी कि वह इन एजेंटों का खेल खत्म कर के कार्य करने वाली हस्तशिल्पी महिलाओं को उन के हक का पैसा दिलाएंगी.

लेकिन रूमा को दुख है कि हस्तशिल्प के काम में लगी महिलाओं को आज भी वाजिब मजदूरी नहीं मिल रही. उन की उन्नति के लिए वह रातदिन इसी काम में लगी रहती हैं. इस की वजह से वह अपने एकलौते बेटे को भी समय नहीं दे पातीं.

उन के पति टीकूराम हर कदम पर उन का साथ देते हैं. टीकूराम अपने बेटे को भी संभालते हैं. उन्हें पता है कि रूमा के पास बहुत काम है.

रूमा देवी ने बताया कि एंब्रायडरी का मतलब होता है धागे से कपड़े पर काम करना. समूह में काम करने वाली अधिकांश महिलाएं अनपढ़ हैं. ये अनपढ़ महिलाएं एक प्रकार की डिजाइन तैयार करती हैं.

वे गिनगिन कर अलगअलग रंग के धागों से कशीदाकारी करती हैं. महीन कढ़ाई की जाती है. कपड़े पर एंब्रायडरी देख कर लगता नहीं कि ये हुनर अनपढ़ ग्रामीण महिलाओं के हाथों का है. मगर सच यही है कि ये महिलाएं फैशन डिजाइनर्स को पीछे छोड़ देती हैं.

महिलाएं एप्लीक का काम भी करती हैं. एप्लीक के काम में 2 कपड़े लिए जाते हैं. कपड़े की कटिंग कैंची से नहीं, छेनी और हथौड़ी से की जाती है. छेनी से खांचे बना कर कपड़े पर एप्लीक की जाती है. लकड़ी के गट्ठे पर कागज रख कर कागज पर तह किया कपड़ा रख कर छेनी से कपड़े पर खांचे बनाए जाते हैं.

खांचे छेनी और हथौड़ी से एक बार में कम से कम 10 पीस बनाए जाते हैं. अगर थोड़ी सी भी छेनी इधरउधर हो गई तो कपड़े का पूरा डिजाइन खराब हो जाने की संभावना रहती है. इसलिए कपड़े पर बहुत सावधानी से खांचे बनाए जाते हैं.

कटिंग के बाद कपड़े को ग्वार के गम के पानी से भिगो कर कड़क किया जाता है. फिर पेस्ट कर के महिलाओं को तुरपाई के लिए दिया जाता है. महिलाएं तुरपाई कर के कपड़े पर हाथ से सुईधागे द्वारा डिजाइन बनाती हैं. बड़ी डिजाइन कपड़े पर बनाने में कम समय लगता है जबकि छोटी डिजाइन में समय ज्यादा लगता है.

एक कुशन कवर 2 दिन में तैयार होता है. इसी से आप समझ सकते हैं कि इन शिल्पकारों को कितना परिश्रम करना पड़ता है. उस के हिसाब से इन्हें मजदूरी कम मिलती है.

कपड़े पर डिजाइन करने के बाद उस कपड़े को 12 घंटे तक पानी में भिगो कर रखते हैं ताकि ग्वार गम का कड़कपन उतर कर कपड़ा मुलायम हो जाए. इस से कपड़े का डिजाइन निखर आता है. यह कपड़ा बाजार में मांग के हिसाब से बेच दिया जाता है. इस तरह थार की महिलाएं घर बैठे काम कर के पैसे कमा रही हैं.

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कई महिलाओं के निठल्ले पति तो शराब पी कर घर पर पड़े रहते हैं. उन का पालनपोषण ये महिलाएं कर रही हैं. ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान के सचिव विक्रम सिंह चौधरी ने रूमा देवी को जो राह दिखाई, वह उसी पर चल कर आज इस मुकाम तक पहुंची हैं. रूमा देवी उन्हें अपना गुरु मानती हैं.

रूमा देवी की लगन और परिश्रम ने बाड़मेर के क्राफ्ट डिजाइनरों और शिल्पकारों के लिए संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं. रूमा देवी ने 20 सितंबर को टीवी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में भी भाग लिया, जिस में उन्होंने साढ़े 12 लाख रुपए जीते थे. इस मौके पर महानायक अमिताभ बच्चन ने भी उन के हस्तशिल्प कार्य की सराहना की.

रूमा देवी ने अपने हुनर से न केवल राजस्थान का नाम रोशन किया, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि कामयाबी के लिए अगर मन में लगन हो तो दुनिया में हुनर बोलता है.

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थार की बेटी का हुनर: भाग 1

राजस्थान के सीमावर्ती जिलों बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर से पाकिस्तान की सीमा लगी हुई है. जैसलमेर और बाड़मेर जिलों की सीमा के सामने पाकिस्तान का सिंध प्रांत है. सिंध में राजस्थान के सैकड़ों लोगों के रिश्तेदार हैं. सिंध के अमरकोट के सोढ़ा राजपूतों की रिश्तेदारियां जैसलमेर, बाड़मेर और जोधपुर के तमाम गांवों में हैं. इन जिलों से लगती पाक सीमा पर जब से तारबंदी हुई, तब से लोग परेशान हैं. तारबंदी से पहले इन जिलों के लोग पाकिस्तान में अपनी रिश्तेदारी में हो आते थे. पाक के लोग भी भारत में आ जाते थे और शादीब्याह कर के लौट जाते.

सिंध और पश्चिमी राजस्थान के लोगों की बोलचाल की भाषा और रहनसहन मिलताजुलता है. इसलिए उन की यह पहचान नहीं हो पाती थी कि वे भारतीय हैं या पाकिस्तानी.

1965 और 1971 के भारतपाक युद्ध के दौरान कई लोग पाक से जैसलमेर, बाड़मेर के गांवों में आ बसे थे. इन में ज्यादातर हिंदू थे. उन परिवारों की महिलाएं हस्तशिल्प के काम में निपुण थीं.

ये महिलाएं हस्तशिल्प कला गुदड़ी (राली), रूमाल, बैडशीट, तकिया कवर, चादर, पर्स, बैग और अन्य चीजों पर हाथ से ऐसी कशीदाकारी करती हैं कि देखने वाला देखता रह जाए. इन अनपढ़ महिलाओं का हुनर पढ़ेलिखे फैशन डिजाइनरों को भी पीछे छोड़ देता है.

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पाकिस्तान से आए इन शरणार्थियों के पास राजस्थान में न तो जमीन थी और न ही रोजगार के साधन. बाड़मेर, जैसलमेर के गांवों में बिजली, पानी, सड़क, विद्यालय आदि की भी व्यवस्था नहीं थी. गांवों में मजदूरी का भी कोई साधन नहीं था. इस के अलावा हर साल पड़ने वाले अकाल ने भी इस इलाके में भुखमरी बढ़ाने का काम किया.

पाकिस्तान से आए शरणार्थी परिवारों की महिलाओं की हस्तकला ने यहां पर दो जून की रोटी का प्रबंधन किया. उन दिनों एजेंट कपड़ा ला कर इन महिलाओं को दे देते थे. ये महिलाएं उस कपडे़ पर आकर्षक दस्तकारी कर के कपड़े की कीमत दोगुनी कर देतीं.

एजेंट इन अशिक्षित गरीब महिलाओं को अनाज व चंद रुपए दे कर बाजार में मोटा मुनाफा कमाते थे. गांवों में उन दिनों भेड़ की ऊन से भी कपड़े, दरियां, पट्टू, बरड़ी आदि बनाए जाते थे. गांव के लोग बुनकर को ऊन दे कर कपड़े बनवाते थे. बुनकर आधी ऊन स्वयं रख कर आधी ऊन से कपड़े बुन कर गांव वालों को दे देते थे.

कहने का मतलब यह कि इस इलाके में उन दिनों बहुतों ने गरीबों को ठगने का काम किया. गांव के लोगों के पास उस समय और कोई चारा नहीं था. इसलिए सब कुछ समझते हुए वे शोषण का शिकार बनते रहे. दशकों से हस्तशिल्प कला का इस इलाके में काम होता रहा, मगर इसे पहचान कोई नहीं दिला सका.

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बहुत संघर्ष किया थार की बेटी ने

बाद में बाड़मेर की इस कला को थार की बेटी रूमा देवी ने विश्वस्तर पर पहचान दिलाई. उन की वजह से आज पूरे विश्व में बाड़मेर का नाम है. अपनी कोशिश से 8वीं तक पढ़ी रूमा देवी ने 75 गांवों में करीब 22 हजार महिलाओं की जिंदगी बदल दी है.

राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर में एक गांव है रावतसर. इसी गांव के खेताराम चौधरी की बेटी हैं रूमा देवी. खेताराम गरीब किसान थे. किसी तरह परिवार की गुजरबसर चल रही थी. उन की 7 बेटियां थीं. रूमा जब 4 साल की हुई तो मां का देहांत हो गया. उस छोटी बच्ची की परवरिश उस की दादी और चाची ने की.

पिता खेताराम ने तो पत्नी की मौत के बाद दूसरी शादी कर ली थी. रूमा चाचाचाची के पास रही. उन्होंने ही उसे पालापोसा. 8वीं पास करने के बाद रूमा आगे भी पढ़ना चाहती थी लेकिन चाचाचाची ने पढ़ाई छुड़वा कर उसे घर के काम में लगा दिया.

रूमा की दादी कशीदाकारी करती थीं. उन के साथ रूमा भी यह काम बखूबी सीख गई. घर के काम निपटाने के बाद रूमा दस्तकारी करती थी. रूमा को घर के कामों के लिए 10 किलोमीटर दूर से बैलगाड़ी द्वारा पानी लाना पड़ता था.

मोहल्ले के कुछ लोग भी उस से अपने लिए पानी मंगा लेते थे. इस के बदले में वे उसे कुछ पैसे जरूर दे दिया करते थे. इस तरह लोगों की प्यास बुझाने के साथसाथ उसे कुछ आमदनी भी हो जाती थी.

रूमा जब 17 साल की हुई तो उस की शादी बाड़मेर जिले के गुड़ामालानी तहसील के गांव मंगला की बेरी निवासी टीकूराम चौधरी के साथ हो गई. रूमा का बाल विवाह हुआ था. टीकूराम के पिता कहीं छोटी सी नौकरी करते थे, जिस की वजह से उन्हें परिवार के साथ बलदेव नगर कच्ची बस्ती में रहने के लिए विवश होना पड़ा था.

रूमा भी शादी के बाद ससुराल मंगला की बेरी से बाड़मेर शहर आ गई. वह ससुराल में खुश थी. मगर यहां भी गरीबी ने उस का पीछा नहीं छोड़ा था. ससुर की नौकरी से बमुश्किल घर का खर्च चलता था.

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शादी के 2 साल बाद रूमा ने एक बेटे को जन्म दिया. बेटा कमजोर था. उस का इलाज कराने के भी पैसे नहीं थे, जिस से 2 दिन बाद ही उस की मौत हो गई थी. बेटे की मौत ने उसे झकझोर कर रख दिया था.

रूमा ने उसी समय तय कर लिया था कि वह चूल्हेचौके में जिंदगी खपाने के बजाय कोई ऐसा काम करेगी, जिस से दो पैसे आएं. लेकिन उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह काम कौन सा करे. तभी उस के दिमाग में बैग बनाने का विचार आया.

सोचनेविचारने के बाद रूमा ने एक पुरानी सिलाई मशीन खरीदी और छोटेमोटे बैग बनाने लगी. वह बाजार से बैग बनाने का सामान खरीद कर लाती, फिर बैग बना कर दुकानों पर सप्लाई करने जाती. घर की जिम्मेदारियों के साथ बैग बनाने के लिए रूमा अकेली ही संघर्ष करती रही.

कुछ महीनों बाद उस के बनाए बैग की मांग बढ़ने लगी तो रूमा ने मोहल्ले की अन्य महिलाओं को अपने साथ जोड़ना शुरू कर दिया. महिलाओं को जब पैसे मिलने लगे तो वे भी मन से काम करने लगीं.

काम बढ़ा तो सन 2008 में रूमादेवी ने 10 महिलाओं के साथ ‘दीप देवल महिला स्वयं सहायता समूह’ का गठन किया. रूमा के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह बैग बनाने का सामान इकट्ठा खरीद सके. दुकानदार भी उसे जान गए थे. वे उसे उधार में सामान दे देते थे. बैगों की बिक्री कर के वह सभी के पैसे चुका देती थी. यह सिलसिला कई महीनों तक चला.

बलदेवनगर क्षेत्र में ही ग्रामीण विकास चेतना संस्थान का कार्यालय था. रूमा वहां गई और सेक्रेटरी विक्रम सिंह चौधरी से मिल कर उन से हस्तशिल्प के लिए सहयोग मांगा. इस पर वहां के अध्यक्ष ने कुछ सैंपल बना कर दिखाने को कहा. रूमा ने अन्य महिलाओं के साथ कई दिनों तक सैंपल तैयार किए.

खुद ढूंढी राह रूमा ने

सैंपल देख कर विक्रम सिंह खुश हुए. इस से उन्हें यकीन हो गया कि रूमा एवं उस की साथी महिलाएं अच्छा काम कर सकती हैं, इसलिए उन्होंने रूमा को पहला और्डर दिला दिया. रूमा और उस की साथी महिलाओं ने तय समय पर उन का और्डर पूरा कर के दे दिया.

काम अच्छा था, इसलिए रूमा के उत्पाद की तारीफ होने लगी. काम की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए रूमा ने समूह में काम करने वाली महिलाओं को ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी. इस के अलावा उन्होंने कच्ची बस्ती की अन्य महिलाओं को हस्तकला सिखाई.

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सन 2008 से 2010 तक रूमा ने करीब 1500 महिलाओं को हस्तकला के कई पैटर्न सिखा कर अपनी संस्था से जोड़ा. रूमा का व्यवहार एवं काम के प्रति लगन, मेहनत और ईमानदारी देख कर सभी महिलाओं ने रूमा देवी को ग्रामीण विकास एवं चेतना संस्थान की अध्यक्ष चुन लिया.

अध्यक्ष चुने जाने के बाद रूमा की जिम्मेदारी और बढ़ गई थी. रूमा को रोजाना 10 से 12 घंटे काम करना पड़ता था. बाड़मेर शहर के बाद रूमा गांवगांव, ढाणीढाणी पहुंच कर वहां की महिलाओं को हस्तकला के लिए प्रेरित करने लगीं.

शुरू में रूमा को इस काम में सफलता नहीं मिली. मर्द तो यह कहने लगे थे कि यह उन की बय्यरवानियों को बिगाड़ देगी. लेकिन रूमा के अंदर काम करने की ललक थी, इसलिए उस ने हिम्मत नहीं हारी.

ग्रामीण महिलाओं से मिल कर उन्हें घर बैठे काम और मजदूरी देने का वादा किया तो महिलाएं मान गईं. इस के बाद उन के पति भी रूमा का आदरसम्मान करने लगे.

दरअसल, पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर जिलों के सभी गांवों ढाणियों में आज भी परदा प्रथा कायम है. हालांकि घूंघट से महिलाएं छुटकारा चाहती हैं, मगर पुरुष प्रधान समाज में उन की  एक नहीं चलती.

इस कारण छाती तक घूंघट निकालती महिलाएं अपने घर में ही कैद रहने को मजबूर हैं. घर का काम निपटा कर महिलाएं घर में ही पड़े रह कर समय बिताती हैं. उन के पास और कोई काम नहीं रहता.

आजकल पढ़ीलिखी बहुएं गांवों में आने लगी हैं. उन्हें भी रिवाज के अनुसार ससुराल में रहना पड़ता है. इसलिए राजस्थान में 21वीं सदी में भी परदा प्रथा कायम है. ऐसे रूढि़वादी परिवेश में रूमादेवी ने किस तरह महिलाओं और उन के घर वालों को समझा कर काम से जोड़ा, इस की कल्पना की जा सकती है.

रूमा को बहुत संघर्ष करना पड़ा. मगर उस ने हिम्मत नहीं हारी. उसी संघर्ष और साहस का परिणाम यह है कि आज उस ने बाड़मेर के मंगला की बेरी, रावतसर सहित 3 बड़े जिलों बाड़मेर, जैसलमेर और बीकानेर के 75 गांवों की करीब 22 हजार महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता दिलाई.

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रूमा की वजह से बाड़मेर, बीकानेर और जैसलमेर की ये महिलाएं आत्मनिर्भर बन कर खुद के पैरों पर खड़ी हो गई हैं. इन महिलाओं में पाकिस्तान से आए उन शरणार्थी परिवार की महिलाओं भी शामिल हैं,जो हस्तकला में पारंगत हैं.

जानें आगे क्या हुआ अगने भाग में…

हर कदम दर्द से कराहती बाल विधवाएं

उस पर भी विडंबना यह है कि ऐसी लड़कियों का दोबारा ब्याह नहीं किया जाता, बल्कि इन का किसी भी उम्र के मर्द से ‘नाता’ कर दिया जाता है. इस के बाद भी इन की जिंदगी में कोई खास सुधार नहीं आता. ये उन मर्दों की पहली पत्नियों के बच्चों का लालनपालन करते हुए अपनी जिंदगी का बो झ ढो रही होती हैं.

गरीबी व परिवार की तंगहाली और पुरातन परपंराओं ने बाल विवाह को बढ़ावा दिया और बड़े लैवल पर बाल विधवाओं को जन्म दिया. राजस्थान के हजारों गांवों में अब भी ऐसी विधवाएं बदकिस्मती का बो झ उठाए अनाम सी जिंदगी जी रही हैं.

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पहले बाल विवाह, अब बाल विधवा, आखिर किस से कहें अपना दर्द… न परिवार ने सुनी और न सरकार ने कोई मदद की… उस पर भी समाज की ‘आटासाटा’ और ‘नाता’ जैसी प्रथाओं ने जिंदगी को नरक बना दिया… पेश हैं बाल विधवाओं की सच्ची दास्तान:

‘आटासाटा’ ने छीना बचपन

नाम सुनीता. 4 साल की उम्र में शादी. एक साल बाद ही विधवा और अब जिंदगीभर विधवा के नाम से ही पहचान बने रहने की पीड़ा.

इस समय 11 साल की सुनीता अजमेर जिले के सरवाड़ गांव के सरकारी स्कूल में 7वीं जमात में पढ़ती है. स्कूल में भी उस की पहचान बाल विधवा के रूप में ही है.

सुनीता के इस हाल के पीछे बाल विवाह जैसी कुप्रथा तो है ही, लेकिन ‘आटासाटा’ का रिवाज भी इस का जिम्मेदार है. इस रिवाज के चलते परिवार बेटे के लिए बहू मांगते हैं और वहीं बेटी के बदले दामाद की फरमाइश करते हैं. जहां यह मांग पूरी होती है, वहीं शादी तय होती है. सुनीता भी इसी रिवाज के जाल में फंस गई.

सुनीता के दादा रामप्रताप 8 साल के पोते की जल्दी शादी कराने के लिए उतावले थे. लड़की भी मिल गई, लेकिन लड़की के घर वाले चाहते थे कि इस के बदले में लगे हाथ परिवार के 7 साल के मुकेश को भी दुलहन मिल जाए.

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सुनीता की बड़ी बहन जसोदा मुकेश से काफी बड़ी थी, इसलिए मुकेश की दुलहन बनने का जिम्मा 4 साल की सुनीता के सिर आ पड़ा. शादी होने के कुछ महीने बाद ही सुनीता विधवा भी हो गई.

शादी के बाद से ही मांबाप के घर रह रही सुनीता को तुरतफुरत उस की ससुराल ले जाया गया, जहां विधवा होने की सारी रस्में उस के साथ पूरी की गईं. उस की नाजुक कलाइयों में मौजूद चूडि़यों को बेरहमी से तोड़ा गया और मांग का सिंदूर मिटा दिया गया.

हर कदम पर पहरा

राजसमंद जिले के रतनाड़ा गांव की 15 साला सुमन की गांव में बाल विधवा के रूप में पहचान है. उसे विधवा हुए 9 साल हो चुके हैं.

रतनाड़ा गांव के पास वाले गांव में रहने वाले उस के पति की मौत तालाब में डूबने से हो गई. पति की मौत के बाद उस के घर वालों ने उसे विधवा का मतलब सम झाया. उसे रंगीन कपड़े और जेवर पहनने से मना किया गया, हंसनेखेलने से मना किया गया, पेटभर खाना खाने से रोका गया. तीजत्योहारों पर सजनेसंवरने और मेलों में घूमने पर पाबंदी लगा दी गई.

इतना ही नहीं, उसे अकेले रहने के लिए जबरन मजबूर किया गया. इन नियमकायदों का पालन नहीं करने पर उसे मारापीटा तक जाने लगा.

शादी और विधवा का मतलब भी नहीं सम झी होगी कि सुमन को फिर किसी दूसरे मर्द के यहां ‘नाते’ पर बैठा दिया गया. जहां वह ‘नाता’ के तहत गई, इस की कोई गारंटी नहीं है कि वहां कितने दिन उसे रखा जाएगा.

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इस पर भी विडंबना यह है कि इस बाल विधवा के ‘नाता’ जाने के दौरान दुलहन को रंगीन जोड़ा तक पहनने की इजाजत नहीं होती है. दूल्हा भी घोड़ी नहीं चढ़ सकता है.

दिलचस्प बात तो यह भी है कि राजस्थान के कई इलाकों में इतना घोर अंधविश्वास है कि नई ससुराल में ‘नाते’ आई बाल विधवाओं का प्रवेश भी रात के अंधेरे में पिछले दरवाजे से कराया जाता है.

‘नाता’ भी नहीं महफूज

टोंक जिले के कल्याणपुरा गांव की रहने वाली प्रेमा का ब्याह कब हुआ, उसे खुद मालूम नहीं. कब वह विधवा हुई, यह भी उसे याद नहीं. ये घटनाएं जिंदगी में तभी घटित हो गईं, जब वह मां की गोद में रहती थी.

20 साल की होने पर प्रेमा के पिता को उस के लिए दूसरा साथी मिला. उस के साथ प्रेमा का ‘नाता’ कर दिया गया. एक साल बाद उस ‘नाते’ के पति ने प्रेमा को अपने साथ नहीं रखा और उसे पिता के पास छोड़ गया.

आज प्रेमा फिर अपने पिता व भाई के साथ रह कर अपनी जिंदगी काट रही है. अब प्रेमा को न तो बाल विधवा कहा जा सकता है और न ही छोड़ी हुई, क्योंकि ‘नाता’ की कहीं कोई मंजूरी नहीं है. ऐसे में सरकार भी उस की कोई मदद नहीं कर सकती. समाज ही आगे आए तो कोई बात बने.

बेघर होने का डर

टोंक जिले के ही दूनी गांव की रहने वाली 22 साला केशंता की शादी 11 साल की उम्र में कर दी गई थी. पड़ोस के ही धारोला गांव के रहने वाले उस के पति रामधन को सांप ने काट लिया था, जिस से उस की मौत हो गई थी. इस से 15 साल की उम्र में ही केशंता बाल विधवा बन गई.

तालीम से दूर केशंता अब अपने पिता के साथ खेतों में काम करती है. बाल विवाह की गलत परंपरा ने केशंता का बचपन छीन लिया. सारी खुशियां और मौजमस्ती से उसे दूर कर दिया.

केशंता को ‘नाता’ भेजने से उस का पिता भी डरता है. केशंता के पिता का मानना है कि ‘नाता’ प्रथा में बेटी  की जिंदगीभर की हिफाजत की गारंटी नहीं है. लड़की को कभी भी बेघर किया जा सकता है.

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बावजूद इस के, केशंता को भी एक न एक दिन ‘नाता’ भेज दिया जाएगा. समाज के तानों और दबाव के आगे पिता भी बेबस है, भले ही बेटी की जिंदगी नरक बन रही हो.

बेटी जीने का सहारा

5 साल की उम्र में शादी हुई और 15 साल की उम्र में मां बन गई. और तो और 17 साल की उम्र में विधवा.

यह बाल विधवा बूंदी जिले के देवली गांव की संतोष तंवर है. उस पर अपनी जिंदगी के साथसाथ एक बेटी की भी जिम्मेदारी समाज की इस गलत परंपरा ने डाल दी है.

संतोष की बेटी अभी डेढ़दो साल की हुई थी कि उस के पति की एक सड़क हादसे में मौत हो गई. इस समय उम्र के 23वें पड़ाव पर चल रही संतोष जब भी चटक रंग के कपड़े या गहने पहनती है तो गांव की औरतें ताने मारती हैं.

संतोष न दोबारा शादी कर सकती है और न ही ‘नाता’ जा सकती है. ऐसा करने पर उसे अपनी बेटी को ससुराल या अपने पिता के घर छोड़ना पड़ता है. मायके में 3 साल रहने के बाद अब वह ससुराल में ही एक कमरे में रहती है. खेतों में काम करते हुए वह अपना गुजारा कर रही है.

फिलहाल संतोष अपनी बेटी को ही बेटा मान कर तालीम दिला रही है. वह सपना देखती है कि बेटी जब बड़ी हो जाएगी तो उसे जिंदगी में थोड़ा सुकून मिलेगा. मगर सामाजिक तानाबाना ही उसे बदकिस्मती से बाहर आने नहीं देगा. विधवा होने के चलते उसे अपनी ही बेटी की शादी की रस्मों में शामिल नहीं होने दिया जाएगा.

दर्द यहां भी कम नहीं

ऐसा नहीं है कि बाल विवाह के दर्द से नीची व पिछड़ी सम झी जाने वाली जातियों की औरतें ही पीडि़त हैं, बल्कि ऊंची सम झी जाने वाली ब्राह्मण जैसी जातियों की औरतें भी इस गलत परंपरा से पीडि़त हैं.

ब्राह्मण समाज में औरतों के दोबारा ब्याह करने का प्रचलन वैसे ही कम है. शहरी समाज में भले ही बदलाव आ गया हो, लेकिन गंवई इलाकों के हालात जस के तस हैं.

टोंक जिले के पीपलू गांव की रहने वाली 24 साल की खुशबू तिवारी की शादी 15 साल की उम्र में ही हो गई थी और 17 साल की उम्र में विधवा भी हो गई. इस उम्र में वह एक बेटी की मां भी बनी थी. पति की मौत के बाद ससुराल में वह बेटे के साथ अलग रह रही है.

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समाजजाति कोई भी हो, यह समाज  विधवा औरतों का जीना दूभर कर देता है. सम्मान व सहारा देने के बजाय उस का शोषण करने के तरीके खोजता है. खुशबू जिस घर में बहू बन कर गई थी, आज उसे अपनी बेटी के साथ उसी घर में अलग एक कमरे में रहना पड़ रहा है.

अपने ही हुए पराए

सवाई माधोपुर जिले के बौली गांव की रहने वाली 26 साला ममता कंवर का ब्याह 12 साल की उम्र में महिपाल सिंह से हुआ. साल 2017 में उस के पति की मौत थ्रेशर मशीन में फंसने से हो गई. इस से उस पर एक बेटे और 2 बेटियों को पालने की जिम्मेदारी आ गई.

राजपूत समाज में भी विधवाओं को दोबारा ब्याह करने की इजाजत नहीं है. ममता को संतुलित भोजन नहीं दिया जाता, दूधसब्जी पर रोक है.

इतना ही नहीं, ममता के घर से निकलने पर भी पाबंदी लगा दी गई है. राजपूत विधवाओं को काला व कत्थई रंग के कपड़े ही पहनने की इजाजत है.

अपने ही लोगों के बीच एक कैदी की तरह रहने को ये विधवाएं मजबूर हैं. इन के दोबारा ब्याह करने के बारे में सोचना भी परिवार व समाज को गवारा नहीं है.

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नेताओं के दावे हवा-हवाई, दीपावली के पहले ही गला घोंटू हवाओं ने दी दस्तक

कुछ दिनों पहले की ही बात थी कि पौल्यूशन कम को लेकर नेताओं के भाषण चल रहे थे. मीडिया के सामने पहले दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल आए और उन्होंने कहा कि दिल्ली का प्रदूषण पहले से 25 फीसदी तक घट गया है. इसके आगे उन्होंने अपने प्रयास भी गिनवा दिए जोकि प्रयास कम प्रचार ज्यादा समझ आ रहा था.

इसके बाद केंद्र सरकार में कैबिनट मंत्री प्रकाश जावेडकर आए और उन्होंने भी अपना भाषण दे दिया. दोनों ने भाषण दे दिया और प्रदूषण कम भी गया. कुछ ही दिनों बाद दिल्ली एनसीआर में जब लोग अपने घरों से बाहर निकले तो धुंध दिखी. लोगों ने कयास लगाए कि इस बार ठंड कुछ पहले ही आ गई और कुहास आने लगा लेकिन जब वो बाहर निकले तो सांस लेने में भी परेशानी होने लगी. ये ठंड का कुहास नहीं बल्कि वायुमंडल में भरा प्रदूषण है.

इस बार मौसम ने करवट समय से पहले ही ले ली. अमूमन ठंड का आगाज दीपावली बाद देखने को मिलता है लेकिन इस बार दशहरे के बाद से ही ठंड महसूस होने लगी है. इसके साथ ही वायु प्रदूषण भी लगातार बढ़ रहा है. पिछले सप्ताह के मुकाबले रविवार को प्रदूषण के स्तर में दो गुना बढ़ोतरी हुई है. इसकी वजह से शहर रेड जोन में आ गया है.

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वायु गुणवत्ता सूचकांक एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) 315 पर पहुंच गया है. ऐसे में लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है. पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व उत्तर प्रदेश में पराली जलना शुरू हो गई है. इससे यहां के लोगों को परेशानी हो रही है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2016 में प्रदूषण के कारण पांच वर्ष से कम आयु के एक लाख से अधिक बच्चों की मृत्यु हुई. इनमें भारत के 60,987, नाइजीरिया के 47,674, पाकिस्तान के 21,136 और कांगो के 12,890 बच्चे सम्मिलित हैं. रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण के कारण 2016 में पांच से 14 साल के 4,360 बच्चों की मत्यु हुई. निम्न और मध्यम आय वाले देशों में पांच साल से कम उम्र के 98 प्रतिशत बच्चों पर वायु प्रदूषण का बुरा प्रभाव पड़ा, जबकि उच्च आय वाले देशों में 52 प्रतिशत बच्चे प्रभावित हुए.

वायु प्रदूषण के कारण विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 70 लाख लोगों की अकाल मृत्यु होती है. संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन) के अनुसार भारत में बढ़ता वायु प्रदूषण वर्षा को प्रभावित कर सकता है. इसके कारण लंबे समय तक मानसून कम हो सकता है. द एनर्जी एंड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार शीतकाल में 36 प्रतिशत प्रदूषण दिल्ली में ही उत्पन्न होता है. 34 प्रतिशत प्रदूषण दिल्ली से सटे एनसीआर से आता है. शेष 30 प्रतिशत प्रदूषण एनसीआर और अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से यहां आता है.

रिपोर्ट में प्रदूषण के कारणों पर विस्तृत जानकारी दी गई है. रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रदूषण के लिए वाहनों का योगदान लगभग 28 प्रतिशत है. इसमें भी भारी वाहन सबसे अधिक 9 प्रतिशत प्रदूषण उत्पन्न करते हैं. इसके पश्चात दो पहिया वाहनों का नंबर आता है, जो 7 प्रतिशत प्रदूषण फैलाते हैं. तीन पहिया वाहनों से 5 प्रतिशत प्रदूषण फैलता है. चार पहिया वाहन और बसें 3-3 प्रतिशत प्रदूषण उत्पन्न करती हैं. अन्य वाहन एक प्रतिशत प्रदूषण फैलाते हैं.

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दशहरे के अगले ही दिन से प्रदूषण के स्तर में बढ़ोतरी होनी शुरू हो गई थी. हालांकि, पिछले साल के मुकाबले इस बार प्रदूषण स्तर में कमी पाई गई. लेकिन, रविवार को हालात बुरे हो गए. वातावरण में हल्की धुंध के साथ धूल के कण भी नजर आए. अब धीरे-धीरे ठंड बढ़ने लगी है। इसकी वजह से हवा की दिशा में बदलाव हुआ है.

रविवार को एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) 315 वैरी पुअर दर्ज किया गया। इसके साथ ही प्रदूषण विभाग द्वारा लगाई गई मशीनों के जरिए पता लगा है कि नोएडा के सेक्टर-62 में 337, सेक्टर-1 में 321, सेक्टर-116 में 314 व सेक्टर-125 में प्रदूषण का स्तर 275 है, जो बहुत खतरनाक है. पूरा शहर रेड जोन में आ गया है. राजधानी दिल्ली के कई इलाकों का आंकड़ा भी बेहद चिंताजनक आया है.

चिंता में युवा

मकान बनने बंद हो गए हैं. मोबाइलों की बिक्री में ठहराव आ गया है. सरकार को तो पास्ट सुधारना है, इसलिए वह कश्मीर के पीछे पड़ी है और सुरक्षा पर खरबों रुपए खर्च कर रही है. वहां की एक करोड़ जनता आज गुलामी की जेल में बंद है.

सरकार का निशाना तो पी चिदंबरम, शरद पंवार, राहुल गांधी हैं, सदियों पुराने देवीदेवता हैं, भविष्य नहीं. युवाओं को सुधरा हुआ कल चाहिए. घरघर में तकनीक का लाभ उठाने के लिए गैजेट मौजूद हों. सिक्योर फ्यूचर हो. जौब हो. मौज हो. पर सरकार तो टैक्स लगाने में लगी है. वह महंगे पैट्रोल के साथ युवाओं को बाइक से उतारने में लगी है. यहां तक कि एग्जाम की फीस बढ़ाने में भी उसे हिचक नहीं होती.

देश का कल आज से अच्छा होगा, यह सपना अब हवा हो रहा है. नारों में कल की यानी भविष्य की बड़ी बातें हैं पर अखबारों की सुर्खियां तो गिरते रुपए, गिरते स्टौक मार्केट और बंद होती फैक्ट्रियों की हैं. सरकार भरोसा दिला रही है कि हम यह करेंगे वह करेंगे, पर हर युवा जानता व समझता है कि कल का भरोसा नहीं है.

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फ्लिपकार्ट और अमेजन, जो बड़ी जोरशोर से देश में आई थीं और जिन्होंने युवाओं को लुभाया था, अब हांफने लगी हैं. उन की बढ़ोतरी की दर कम होने लगी है जो साफ सिग्नल दे रही है कि आज के युवाओं के पास अब पैसा नहीं बचा.

दोष युवाओं का भी है. पिछले 8-10 सालों में युवाओं ने खुद अपने भविष्य को आग लगा कर फूंका है. कभी वे धार्मिक पार्टियों से  जुड़ कर मौज मनाते तो कभी रेव पार्टियों में. हर शहर में हुक्का बार बनने लगे, फास्टफूड रैस्तरांओं की भरमार होने लगी. लोग लैब्स में नहीं, अड्डों पर जमा होने लगे. जिन्हें रातदिन लाइब्रेरी और कंप्यूटरों से ज्ञान बटोरना था वे सोशल मीडिया पर बासी वीडियो और जोक्स को एक्सचेंज करने में लग गए.

युवाओं का फ्यूचर युवाओं को खुद भी बचाना होगा. हौंगकौंग के युवा डैमोक्रेसी बचाने में लगे हैं. इजिप्ट, लीबिया, ट्यूनीशिया में युवाओं ने सरकारों को पलट दिया. वहां जो नई सरकारें आईं वे मनमाफिक न निकलीं. पर आज वहां के युवाओं से वे भयभीत हैं. 25 साल पहले चीन के बीजिंग शहर में टिनामन स्क्वायर पर युवाओं ने कम्युनिस्ट शासकों को जो झटका दिया उसी से चीन की नीतियां बदलीं और आज चीन अमेरिका के बराबर खड़ा है. भारत पिछड़ रहा है, क्योंकि यहां का युवा या तो कांवड़ ढो रहा है या गले में भगवा दुपट्टा डाले धर्मरक्षक बन जाता है, जब उसे तरहतरह की पार्टियों से फुरसत होती है.

काम की बात आज युवामन से निकल चुकी है. घरों में पिज्जा, पास्ता खाने वाली जनरेशन को पिसना भी सीखना होगा.

तमिलनाडु

छात्रों के बीच पनपता भेदभाव के कुछ स्कूलों में छात्रछात्राएं अपनी जाति के हिसाब से चुने रंगों के रबड़ के या रिबन के बैंड हाथ में पहन कर आते हैं ताकि वे निचली जातियों वालों से दूर रहें. जातिवाद के भेदभाव का यह रंग तमिलनाडु में दिख रहा है हालांकि यह हमारे देश के कोनेकोने में मौजूद है. असल में हिंदू धर्म किसी जमात का नहीं, यह जातियों का समूह है जिस के झंडे के नीचे जातियां फलफूल रही हैं.

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भारत में मुसलमान इतनी संख्या में हैं तो इसलिए नहीं कि कभी विदेशी शासकों ने लोगों को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया बल्कि इसलिए हैं कि तब बहुत से लोग अपने आसपास मौजूद ऊंची जातियों वालों के कहर से बचना चाहते थे. देशी शासक जब भी जहां भी आए, उन्होंने जातियज्ञ में और घी डाल कर उसे तेज दिया. पिछली कुछ सदियों में अगर फर्क हुआ तो बस इतना कि कुछ शूद्र जातियां अपने को राजपूत तो कुछ वैश्य समझने लगीं. कुछ नीची जातियों के लोगों ने भगवा कपड़े पहन कर व साधु या स्वामी का नाम रख कर अपने को ब्राह्मण घोषित कर डाला. इस के बावजूद इन सब जातियों में आपस में किसी तरह का कोई लेनदेन नहीं हुआ.

स्कूलों, कालेजों, निजी व सरकारी संस्थानों में यह भेदभाव बुरी तरह पनप रहा है और छात्रछात्राएं जाति का जहर न केवल पी रहे हैं, दूसरों को पिला भी रहे हैं. जहां बैंड या रिबन पहने जा रहे हैं वहां तो अलगथलग रहा ही जाता है, जहां नहीं पहना हो वहां कोई दूध और शक्कर को मिलाया नहीं जा रहा. यह वह गंगा, कावेरी है जहां रेत और पानी कभी नहीं मिलते.

भेदभाव का असर पढ़ाई पर पड़ रहा है. स्कूलोंकालेजों में प्रतियोगिता के समय कभी आरक्षण का नाम ले कर कोसा जाता है तो कभी ऊंची जाति के दंभभरे नारे लगाए जाते हैं. लड़कों ने बाइकों पर गर्व से अपनी जाति का नाम लिखना शुरू कर दिया है ताकि झगड़े के समय राह चलता उन की जाति का व्यक्ति भी उन्हें सपोर्ट करने आ जाए.

हमारी आधुनिक, वैज्ञानिक, तार्किक, लिबरल पढ़ाईलिखाई सब भैंस गई पानी में की हालत में है. हम सब भंवर में फंस रहे हैं. सरकार को उस का लाभ मिल रहा है और आज के नेता इसी बल पर जीत कर आते हैं. वे कतई इंट्रैस्टेड नहीं हैं कि यह भेदभाव खत्म हो. उलटे, हर स्टूडैंट यूनियन चुनाव में हर पोस्ट पर जाति के हिसाब से कैंडीडेट लड़वाए जाते हैं ताकि बहुमत पाने के लिए 40-50 परसैंट विद्यार्थियों का सपोर्ट मिल सके.

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यह एक महान देश बन पाएगा, इस की उम्मीद क्या रखें, क्योंकि जाति का मतलब यहां क्या काम करोगे, कितना करोगे, कैसे करोगे तक पहुंचता है. और स्कूलकालेज से चल कर यह कारखानों, खेतों, दफ्तरों, बैंकों तक पहुंचता है.

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