पुलिस का संरक्षण, हुक्का बार परवान चढ़ा!

छत्तीसगढ़ में प्रतिबंध के बावजूद हुक्का “बार बार” सरकार और प्रशासन के द्वारा रोके नहीं रुक रहा है. प्रदेश की बड़ी बड़ी होटलों में सफेदपोश हाथों के संरक्षण तले यह खेल बिना रुके अविराम चल रहा है. और औपचारिकता वश पुलिस प्रशासन कार्रवाई करता है फिर कुंभकरण नींद में सो जाता है. जबकि यह सबको पता है कि भूपेश बघेल सरकार ने प्राथमिक रूप से इसे गंभीरता से लेकर पूर्णरूपेण प्रतिबंध लगा दिया है. और कानून सख्त रूप से बनाकर प्रशासन को यह जिम्मेदारी दे दी है कि प्रदेश में हुक्का बार कतई नहीं चलना चाहिए. मगर कागजों में, और हकीकत में, जैसा  अंतर होता है यहां भी वही हालो हवाल है.

कोरोना वायरस के समय में जब छत्तीसगढ़ के अधिकांश शहर लाक डाउन हैं हुक्का बार चल रहे हैं . राजधानी रायपुर में 22 सितंबर की रात को पुलिस ने बारंबार शिकायत के बाद एक बड़ी होटल में कार्रवाई की और यह प्रदर्शित किया कि पुलिस हुक्का बार पर कार्रवाई कर रही है. पुलिस के अनुसार

संपूर्ण लॉकडाउन के दूसरे दिन देर रात हुक्का बार में दबिश देकर 28 युवाओं को धड़ल्ले से बेखौफ होकर कर धुआं उड़ाते पकड़ा है-

ये भी पढ़ें- दक्षिण अफ्रीका के खेल वैज्ञानिक श्यामल वल्लभजी कर रहे हैं प्रीति जिंटा की तारीफ, पढ़ें खबर

बता दें कि मामला सिविल लाइन, रायपुर थाना क्षेत्र का है. जहां ब्लू स्काई कैफे में छुप-छुप युवाओं के पहुँचने की सूचना पुलिस चेकिंग पोईँट में मिली थी, जिसके आधार पर पुलिस नगर पुलिस अधीक्षक नसर सिद्दीकी के नेतृत्व में पुलिस ने रेड की कार्रवाई की जहाँ से 28 युवाओं को हुक्का पीते हुए पकड़ा गया .पुलिस ने पकड़े गए युवाओं के विरुद्ध भा. द. वि. की धारा 269 ,270 के साथ कोटपा एक्ट के तहत कार्रवाई की.

सभी बड़े  शहरों की यही कहानी

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर सहित बिलासपुर, रायगढ़,  दुर्ग आदि शहरों  में धड़ल्ले से जगह-जगह संचालित हो रहे हुक्का बार पर पहले ही कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार लगाम कसने की औपचारिकता पूरी कर चुकी है. कैफे, रेस्टोरेंट, होटल के नाम पर चल रहे हुक्का बार में युवक-युवतियों, महिलाओं के साथ बच्चों को प्रवेश दिए जाने का मामला विधानसभा  में उठने के बाद सरकार की ओर से गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू ने रोक लगाने के लिए कानून बनाने के साथ छापामार कार्रवाई करने की घोषणा कर मामले को शांत करा दिया था. मगर हुआ क्या ? आने वाले दिनों में अवैध हुक्का बारों पर सख्त कार्रवाई करने के संकेत पुलिस अफसरों ने दिये थे बीते एक साल में  अनेक हुक्का बार पर छापामार कार्रवाई की गई है. मतलब यह कि कानून बन जाने के बाद भी कानून का भय है हुक्का बार संचालकों को होटल वालों को नहीं है?

शहर और आउटर इलाके में संचालित हुक्का बार की पड़ताल करें तो  पायेंगे  होटल, रेस्टोरेंट, क्लब, मॉल में  हुक्का बार  चल रहे हैं. इसके लिए कानून का कोई  अवरोध, भय नहीं  है. धूम्रपान और नशे वाली जगहों पर नाबालिगों को प्रवेश नहीं दिए जाने के आबकारी विभाग के  निर्देश हैं. बावजूद इसके अलग-अलग फ्लेवर के तंबाकू हुक्के में डालकर परोसा जा रहा है.  और पुलिस बहुत दबाव के बाद ही नाम मात्र की कार्रवाई कर रही है.

कानून है, कानून का राज नहीं है

नशाखोरी पर लगाम लगाने के लिए छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार  ने बड़ा निर्णय लिया . राज्य सरकार ने प्रदेश भर में संचालित हुक्का बार को बंद करने का निर्णय लिया . मुख्यमंत्री निवास में आनन-फानन में कैबिनेट की बैठक कर प्रदेश के सभी हुक्का बार को कड़ाई से बंद कराने का निर्णय लिया गया . बैठक के बाद वरिष्ठ मंत्री मोहम्‍मद अकबर ने मीडिया से चर्चा में इसकी पुष्टि की. मंत्री अकबर ने कहा कि सरकार अब कड़ाई से सभी हुक्का बारों को बंद कराएगी. हुक्का बार की चपेट में युवा वर्ग आ रहा है, जिसके बाद सरकार ने इसको बंद करने का निर्णय लिया है.  मगर सरकार के बड़ी-बड़ी बातों के बाद भी कानून बनाए जाने के बाद भी, अगरचे छत्तीसगढ़ में “हुक्का बार” चल रहा है तो आखिर दोषी कौन है? और  लाख टके का सवाल यह है कि छत्तीसगढ़ को पंजाब के रास्ते पर ले जाकर, यहां के युवाओं को नशे का आदी कौन बनाना चाहता है.

ये भी पढ़ें- झाड़ – फूंक और ‘पागल’ बनाने वाला बाबा!

युवाओं को बर्बाद कौन करना चाहता है?

छत्तीसगढ़ अंचल के सामाजिक कार्यकर्ता इंजीनियर रमाकांत कहते हैं- कोरोना समय में जिस तरीके से राजधानी रायपुर में होटल में 28 युवा हुक्का बार में पुलिस द्वारा धर दबोचे गए हैं उससे यह सिद्ध हो जाता है कि हुक्का बार बड़े मजे से चलाए जा रहे हैं और कानून का भय किसी को नहीं है.

दो सौ से लेकर बारह सौ का हुक्का, बार में  सहजता से  मिलता है .अलग-अलग फ्लेवर के हुक्के की कीमत अलग-अलग है.  कॉलेज के छात्र, बड़े घरों के युवक-युवती, नाबालिग आदि इनके शौकीन हैं. इन्हें आदी बनाया जा रहा है और जैसा कि मालूम है बाद में इन युवाओं का अपराधिक व अन्य गतिविधियों में उपयोग किया जाता है.

यहां उल्लेखनीय है कि सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम 2003 (सीओटीपीए) के अंतर्गत 23 मई 2017 को केंद्र सरकार ने अधिसूचना जारी कर हुक्के के उपयोग पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा रखा है. गुजरात समेत कई राज्यों में इस तरह का काम करने वालों को तीन साल की जेल हो रही है. पंजाब में धारा 144 के तहत कार्रवाई भी की जा रही है. छत्तीसगढ़ में कानून होने के बाद भी हुक्का बार युवाओं का जीवन बर्बाद कर रहा है. पहले तो सिर्फ कानून की आंखों में पट्टी बंधी रहती थी मगर अब लगता है कि पुलिस और जनप्रतिनिधियों की आंखों में भी पट्टी बंध गई है.

ये भी पढ़ें- मूर्तियों की स्थापना, पैसों की बरबादी

झाड़ – फूंक और ‘पागल’ बनाने वाला बाबा!

आज भी 21 वी शताब्दी के इस समय में झाड़-फूंक तंत्र मंत्र पर लोग आस्था रखते हैं और अनपढ़ बाबाओं के चक्कर में आकर अपनी अस्मत, पैसे दोनों लुटा बैठते हैं. छत्तीसगढ़ आदिवासी ग्रामीण बाहुल्य प्रदेश है और यहां जागरूकता के अभाव में यही खेल चल रहा है. सरकार और समाज को जागरूक करने वाले चुनिंदा लोग प्रयासरत है. मगर यह सब ऊंट के मुंह में जीरे के समान है. छत्तीसगढ़ में घटित कुछ मामले ऐसे रहे हैं-

पहला मामला-

जिला कवर्धा कबीरधाम में एक महिला एक तंत्र मंत्र के साधक के चक्कर में पड़कर अपनी इज्जत गंवा बैठने के बाद होश में आई तब तक बहुत देर हो चुकी थी परिजनों ने घर से निकाल दिया महिला ने आत्महत्या कर ली.

ये भी पढ़ें- मूर्तियों की स्थापना, पैसों की बरबादी

दूसरा मामला-

सरगुजा के अंबिकापुर में एक एक शिक्षित महिला तंत्र-मंत्र के चक्कर में पड़कर लाखों रुपए लुटा बैठी बाद में पुलिस ने तांत्रिक को गिरफ्तार किया.

तीसरा मामला-कोरबा जिला के कदौरा थाना अंतर्गत ग्राम रामपुर में एक तांत्रिक आया और महिलाओं को तंत्र मंत्र के नाम ठगने लगा गांव के जागरूक लोगों ने तांत्रिक को पकड़कर उस की पोल खोल दी और पुलिस के हवाले किया.

एक नाबालिक की दास्तां

छत्तीसगढ़ के न्यायधानी बिलासपुर में‌ “झाड़फूंक” के नाम पर नाबालिग से दुष्कर्म करने वाले आरोपी बाबा को पुलिस ने आखिरकार दबोच लिया है. जैसे ही उसके खिलाफ दुष्कर्म का मामला दर्ज हुआ उसे पता चला कि मेरे खिलाफ अपराध दर्ज हो गया है आरोपी बाबा अपने ठिकाने से फरार हो गया, और लगातार बिलासपुर जिले के अलावा पड़ोसी चांपा जांजगीर जिले के गांव में जाकर अपना ठिकाना बना ले रहा था. जगह लगातार बदल रहा था. पुलिस भी तत्परता पूर्वक पुलिस  टीम  बना जांच में जुटी थी. लोकेशन ट्रेस करने पर आरोपी का पता चला. इसके बाद कोटमी सोनार, जिला चांपा जांजगीर में  घेराबंदी कर कथित बाबा को गिरफ्तार किया गया.

बताते हैं कि यह बाबा झाड़-फूंक के नाम पर कथित रूप से नाबालिक लड़कियों पर निगाह रखता था और उनका अध्यक्षता करने में यकीन रखता था जाने कितने लोगों की अस्मत के साथ खेलने वाला या बाबा आज जेल के सीखचों कों के पीछे है.

पुलिस ने हमारे संवाददाता को बताया कि यह घटनाक्रम जुलाई 2019 का है जब  तबीयत खराब रहने पर नाबालिग अपने परिजनों के साथ बलौदा, जांजगीर-चांपा स्थित सैय्यद मीरा अली दातार मजार में झाड़ फूंक कराने पहुंची थी, यहां पर आरोपी ने नाबालिग को “झाड़ फूंक” कर जल्दी ठीक हो जाने की बात कहकर विश्वास में लिया और ग्राम लुतरा, जिला बिलासपुर में डरा धमका कर करीब एक महीने तक इलाज के नाम पर उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता रहा उसका दैहिक शोषण करता रहा. जब नाबालिक लड़की विरोध करती तो किसी परिजन को बताने पर झाड़ फूंक कर “पागल” करने की धमकी दिया करता था तथा परिवार को बदनाम करने एवं जान से मारने की धमकी भी देता रहा, जिससे पीड़िता डर कर दुष्कर्म की बात किसी को नही बताने में अपना भला समझ रही थी.

ये भी पढ़ें- चरम पर बेरोजगारी : काम न आया पाखंडी सरकार का जयजयकार

तन पिपासु बाबा!

कुछ समय बाद  जब वह अपने घर ले जायी गई तब  “आरोपी” उसके घर में आकर झाड़ फूंक करने के बहाने मौका पाकर शारीरिक शोषण करता रहा.

अंततः हिम्मत कर पीडिता ने बाबा का संपूर्ण चरित्र और घटना के बारे में अपने परिजनों को बताया, जिसके बाद परिजनों ने उसकी खूब पिटाई की तो वह भाग खड़ा हुआ परिजनों ने थाना में आरोपी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. जिस पर आरोपी के विरूद्ध छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिला के थाना सीपत में अपराध कमांक 396/2020  धारा 376,506 भादवि व 4, 6 पोक्सो एक्ट के तहत अपराध पंजीबद्ध किया गया. ऐसे बाबाओं की दस्तान  को जानने समझने वाले और मामले के गंभीरता को महसूस करते हुए थाना प्रभारी जे.पी. गुप्ता ने बाबा को जेल के सीखचों में भेजने के लिए एक टीम गठित कर आरोपी का खोजबीन प्रारंभ कराई. मगर आरोपी अपने ठिकाने से फरार हो गया. आरोपी का मोबाईल नंबर प्राप्त कर साईबर सेल के माध्यम से लोकेशन पता किया गया जो आरोपी जगह बदल-बदल कर अलग-अलग गांव में छिप रहा था तथा भागने के फिराक में था, जिसे कोटमी सोनार जिला चांपा जांजगीर के पास के गांव से घेराबंदी कर पकड़ा गया. आरोपी शाकीर अंसारी बाबा उर्फ हब्बू मौलवी से पूछताछ करने पर उसने बालिका के साथ अपराध घटित करना स्वीकार किया. आरोपी को गिरफ्तार कर न्यायायिक रिमाण्ड पर  जेल भेजा गया है.

मूर्तियों की स्थापना, पैसों की बरबादी

आज से तकरीबन 600 साल पहले कबीरदास ने अपने एक दोहे में कहा था :

पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार,

याते तो चाकी भली पीस खाए संसार.

जब विज्ञान का आविष्कार नहीं हुआ था, तब कबीर ने मूर्तिपूजा करने वाले अंधभक्तों को चेताया था कि पत्थरों की मूर्ति पूजने से कभी भगवान नहीं मिलता. ऐसी मूर्तियों से तो पत्थर से बनी चक्की ज्यादा उपयोगी है, जिस में पीसा गया आटा लोगों के पेट भरने के काम आता है.

अफसोस मगर आज की सभ्य, शिक्षित और वैज्ञानिक सोचसमझ वाली पीढ़ी भी कबीर की इन बातों को मानने तैयार नहीं है.

दरअसल, जब हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान की दुहाई देने वाले सरकार के जिम्मेदार मंत्री देश में जगहजगह ऊंचीऊंची मूर्तियां बनवाने और मंदिरमसजिद के निर्माण को ही देश का विकास मानते हों, वहां जनता का ऐसा  अनुसरण करना गलत भी नहीं है. जब देश के वैज्ञानिक चंद्रयान की कामयाबी के लिए मंदिरों में हवनपूजन करते हों, जहां राफेल विमान पर नीबू लटका कर नारियल फोड़े जाते हों, वहां जनता का अंधविश्वासी होना लाजिमी है.

ये भी पढ़ें- चरम पर बेरोजगारी : काम न आया पाखंडी सरकार का जयजयकार

भारत जैसे विकासशील देश में अंधविश्वास की जड़ों में मठा डालने का काम पंडेपुजारियों द्वारा बखूबी किया जा रहा है,क्योंकि उन की रोजीरोटी बिना मेहनत के इसी तरह के पाखंडी कामों के दम पर चल रही है.

हमारे देश में गरीबी के हालात ये हैं कि आबादी का बड़ा तबका दो वक्त की रोटी मुश्किल से जुटा पाता है, लेकिन पंडेपुजारियों द्वारा धर्म का डर दिखा कर  धार्मिक आडंबरों के लिए लोगों को पैसे खर्च करने मजबूर किया जाता है.  दुर्गा पूजा और गणेश उत्सव पर देश के गलीमहल्ले में मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. 9-10 दिन चलने वाले इन उत्सवों पर कई लाख रुपए तक लुटाए जाते हैं. 10,000 रुपए से ले कर 50,000 रुपए की लागत इन मूर्तियों के निर्माण में आती है. 10 दिन बाद उन्हीं मूर्तियों को नदीतालाबों में बहा दिया जाता है.

एक तरफ देश में कोरोना से लड़ने के लिए औक्सीजन और‌ वैंटिलेटर की कमी का रोना रोया जाता है, वहीं दूसरी तरफ छोटे गांवकसबों और शहरों में करोड़ों रुपए इन मूर्तियों पर पानी की तरह बहा दिए जाते हैं. महंगी मूर्तियां बनवा कर उन्हें नष्ट कर देना पैसे की क्रिमिनल बरबादी है.

इस पैसों की बरबादी में उन पंडों की भूमिका रहती है जो खुद कोई  कामधाम करते नहीं हैं, केवल जनता को पूजापाठ में उलझा कर खूब दानदक्षिणा बटोर कर मुफ्त की रोटियां तोड़ते हैं.

चंदे से मौजमस्ती

गणेशोत्सव और दुर्गोत्सव पर बड़ीबड़ी मूर्तियों की स्थापना के लिए पंडेपुजारियों के इशारों पर चंदे का कारोबार चलता है. आम आदमी पर इन पंडों के एजेंट चंदे के लिए भी दबाव डालते हैं. क‌ई कसबों और छोटे शहरों में तो रोड पर बैरियर लगा कर रोड से निकलने वाले गाड़ी मालिकों से जबरन चंदा वसूली की जाती है. चंदा न देने पर उन से बदसुलूकी करने के साथ गाड़ियों में तोड़फोड़ कर नुकसान पहुंचाया जाता है.

पंडालों में मूर्ति स्थापित होने के बाद पूजा करने आने के लिए भी दबाब डाला जाता है. जो आनाकानी करता है उस का हुक्कापानी बंद कर सामाजिक बहिष्कार किया जाता है. गरीब, एससीबीसी तबके के लोग इन दबंगों से लड़ नहीं सकते तो मजबूरी में इन से तालमेल बना कर अपना पेट काट कर मूर्ति बनाने के लिए चंदा देते हैं और नदियों में बहाने के समय ढोलनगाड़ों का खर्च भी.

गरीबों की खूनपसीने की गाढ़ी कमाई से दबंगों के लड़के और बेरोजगार घूम रहे लड़के शराब के नशे में ढोलनगाड़ों और डीजे की धुन पर नाच कर मौजमस्ती करते हैं. बाद में चंदे के हिसाबकिताब को ले कर लड़ाईझगड़े की नौबत आ जाती है.

ये भी पढ़ें- हिम्मती राधा ने भालू से लिया लोहा

साल 2019 में नरसिंहपुर जिले के गांव पिठवानी में चंदे की रकम के खर्च करने को ले कर एक नौजवान की हत्या समिति के दूसरे लड़कों ने कर दी थी. चंदा देने में सब से ज्यादा दिक्कत गरीब एससी तबके को होती है, क्योंकि मूर्तियां स्थापित करने के लिए दलितों से चंदा तो वसूला जाता है, पर उन्हें छुआछूत की वजह से पंडालों में घुसने के बजाय दूर से ही दर्शन करने का उपदेश दिया जाता है.

इस तरह के धार्मिक आयोजनों में होने वाले पाखंड का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक ओर तो नवरात्रि में कन्या पूजन का ढोंग किया जाता है, दूसरी ओर देवी दर्शन के लिए सड़कों पर निकली लड़कियों के साथ खुलेआम छेड़छाड़ की जाती है.

प्रदूषण की वजह

मूर्ति स्थापना की ये दकियानूसी परंपराएं समाज को आर्थिक रूप से खोखला तो कर ही रही हैं, पर्यावरण के लिए भी ख़तरा बन रही हैं. दुर्गा उत्सव, गणेशोत्सव, मोहर्रम जैसे त्योहार पर बनाई जाने वाली मूर्तियां और ताजिया नदियों, तालाबों को प्रदूषित करने का काम कर रहे हैं.

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मूर्ति विसर्जन के लिए गाइडलाइंस जारी तो की हैं, पर उन का पालन हर कहीं नहीं हो रहा है. वैसे, देश में अब कहीं भी प्लास्टिक, प्लास्टर औफ पैरिस, थर्मोकोल जैसी चीजों से बनी हुई मूर्तियों के नदी, जलाशयों में विसर्जन की इजाजत नहीं है.

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने बहुत साफतौर पर देश में पर्यावरण के अनुकूल तरीके से मूर्ति विसर्जन के लिए अपनी गाइडलाइंस में कई संशोधन किए हैं और देवीदेवताओं की मूर्तियां प्लास्टिक थर्मोकोल, प्लास्टर औफ पैरिस से बनाने पर रोक लगा दी है.

सीपीसीबी ने मूर्ति विसर्जन के संबंध में अपने पुराने 2010 के दिशानिर्देशों को विभिन्न लोगों की राय जानने के आधार पर संशोधित किया है. सीपीसीबी ने अपनी नए गाइडलाइंस में खासतौर पर प्राकृतिक रूप से मौजूद मिट्टी से मूर्ति बनाने और उन पर सिंथैटिक पेंट और रसायनों के बजाय प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल पर जोर देने की बात कही है.

लेकिन प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडलाइंस का पालन अंधभक्तों द्वारा कहीं नहीं किया जा रहा. देश में हर साल गणेश चतुर्थी और दशहरा जैसे उत्सवों के दौरान मूर्ति विसर्जन से जलाशय और नदियां प्रदूषित हो जाती हैं. ये मूर्तियां आमतौर पर पारंपरिक मिट्टी के बजाय रसायनिक चीजों की बनाई जाती हैं.

मूर्ति विसर्जन से जलाशयों के प्रदूषण पर अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के एक अध्ययन के बारे में ‘द वायर’ में सुभाष गाताडे का एक आलेख छपा था.

अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के मुताबिक मोटे आकलन के हिसाब से अकेले महाराष्ट्र के तकरीबन 2 करोड़ परिवारों में से एक करोड़ परिवार गणेश की मूर्ति स्थापित करते हैं. घरों में स्थापित ये छोटी मूर्तियां आमतौर पर डेढ़ फुट ऊंची, डेढ़ किलो वजन की होती हैं.

इस का मतलब हर साल औसतन डेढ़ करोड़ किलो ‘प्लास्टर औफ पैरिस सैकड़ों टन रंगों के साथ जलाशयों में पहुंचता है और औसतन 50 लाख किलो फूलमाला आदि को भी पानी में बहाया जाता है. इस तरह नदियां, तालाब, नहरें, झरने, कुएं आदि विभिन्न किस्म के जलाशय प्रदूषित होते रहते हैं.

ये भी पढ़ें- टोनही प्रथा का बन गया “गढ़”

समिति के लोग अपनी प्रचार मुहिम में लोगों को याद दिलाते हैं कि आज की तारीख में ज्यादातर मूर्तियां प्लास्टर औफ पैरिस से (जो पानी में घुलता नहीं हैं) बनी होती हैं, जिन्हें पारा जैसे खतरनाक रासायनिक चीजों से बने रंगों से रंगा जाता है. अगर ऐसा पानी कोई इनसान इस्तेमाल करें तो उसे कैंसर हो सकता है या उस का दिमागी विकास भी रुक सकता है.

नदियों का दूषित पानी केवल इनसान ही नहीं ,जलीय जीवों, मछलियों और दूसरे प्राणियों के लिए मौत की सौगात बन कर आता है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी उत्सवों के दिनों में नदियों के दम घुटने की बात  की है. नदियों के पानी पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि हर साल नवरात्रि के बाद यमुना, गंगा, नर्मदा, हुगली जैसी बड़ी नदियों में प्रदूषण बढ़ जाता है. बोर्ड के निष्कर्षों के मुताबिक सामान्य काल में पानी में पारे की मात्रा तकरीबन न के बराबर होती है, लेकिन उत्सवों के काल में वह अचानक बढ़ जाती है.

और भी हैं वजहें

नदियों को प्रदूषित करने में धार्मिक कर्मकांड की भूमिका ज्यादा है. मर चुके लोगों की अस्थियों से ले कर, मंदिरों में रोजाना चढ़ाई जाने वाले सामग्री भी नदियों में विसर्जित की जाती है. धार्मिक पर्वत्योहारों पर इन नदियों के घाट पर स्नान और पूजापाठ के  बहाने नारियल, अगरबत्ती, प्रसाद और पौलीथिन का कचरा खुलेआम घाटों पर देखा जा सकता है. मर चुके लोगों के कर्मकांड के लिए नदियों के तटों पर होने वाले मुंडन से निकले बाल और भंडारे में इस्तेमाल होने वाली डिस्पोजल सामग्री भी प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है. आजकल नदियों के पानी में अपनी गाड़ियां धोने का काम भी होने लगा है.

पानी के संकट की आहट सुनाई देने लगी है. जल स्रोतों के लगातार दोहन से छोटीछोटी नदियां सूखने लगी हैं. रेत के उत्खनन ने भी नदियों की सेहत को नुकसान पहुंचाया है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम नदियों को प्रदूषण से बचाएं ताकि आने वाले समय में पानी के संकट का सामना करने से बच सकें.

कोरोना वायरस का संक्रमण जिस ढंग से बढ़ रहा है और सरकार ने अनलौक के बहाने अपने हाथ खींच लिए हैं, ऐसे समय में हमें भी वर्तमान हालात से सबक लेने की जरूरत है. जो रुपएपैसे हम मूर्तियां बनवाने और पानी में बहाने में खर्च कर रहे हैं, वही पैसा अपने बच्चों की पढ़ाई और अपने परिवार को कोविड 19 के संक्रमण से बचाने में खर्च कर समझदारी का परिचय दे सकते हैं.

पंडेपुजारियों के बहकावे में न आ कर ठंडे दिमाग से सोचें कि जब लौकडाउन हुआ था तो मंदिरों के दरवाजे बंद थे और कोई भी आप की मदद के लिए आगे नहीं आया था. धर्म के इन्हीं ठेकेदारों के दबाव में सरकार ने भले ही मूर्तियां स्थापित करने की छूट दे दी है, पर आप के परिवार की सुरक्षा और पैसों की बरबादी के लिए इस भेड़चाल से बचने की जरूरत है.

ये भी पढ़ें- भीम सिंह : पावर लिफ्टिंग का पावर हाउस

चरम पर बेरोजगारी : काम न आया पाखंडी सरकार का जयजयकार

मामला : 01

(नौकरी नहीं मिलने से 3 युवकों ने की एकसाथ खुदकुशी)

पिछले दिनों राजस्थान में 3 युवकों ने नौकरी न मिलने से हताश हो कर एकसाथ आत्महत्या कर ली. तीनों युवक जान देने के लिए ट्रेन के आगे कूद गए. जिस से तीनों की मौके पर ही मौत हो गई. घटना के चश्मदीदों की मानें तो ट्रेन के आगे कूदने से पहले ये युवक कह रहे थे कि नौकरी तो लगेगी नहीं, तो फिर जीने का क्या मतलब? ऐसे जी कर क्या करेंगे?

घटना राजस्थान के अलवर जिले की है. यहां पर नौकरी न मिलने से हताश हो कर 5 दोस्तों ने एकसाथ जान देने का प्लान बनाया था. इस योजना के समय 2 युवा ट्रेन के आगे कूदने से डर गए और पीछे हट गए. वहीं 3 अन्य दोस्तों ने एकसाथ ट्रेन के आगे छलांग लगा दी. ये तीनों युवक शहर के एफसीआई गोदाम के पास ट्रेन के आगे कूद गए. ट्रेन के आगे कूदने से इन  की मौके पर ही मौत हो गई.

ये भी पढ़ें- हिम्मती राधा ने भालू से लिया लोहा

बाकी जिन 2 दोस्तों ने मौके पर आत्महत्या न करने का फैसला लिया उन की जान बच गई. उन्होंने बताया कि नौकरी न लगने से सभी परेशान थे. सभी युवकों का मानना था कि नौकरी नहीं लगेगी ये तो तय है लेकिन बिना नौकरी के जीवन कैसे गुजरेगा? ऐसे में ज़िंदा रह कर क्या करेंगे? ट्रेन के आगे कूदने से जान गंवाने वाले युवकों में से एक सत्यनारायण मीणा ने घटना से कुछ घंटे पहले अपने फेसबुक अकाउंट पर आत्महत्या का वीडियो- ‘माही द किलर’ नाम से डाला था.

मामला : 02

(पति की बेकारी से परेशान पत्नी ने दी जान)

जयपुर के गांधी नगर रेलवे स्टेशन पर पिछले शुक्रवार की सुबह एक महिला ने चलती ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली. ट्रेन की चपेट में आने पर महिला का शरीर 2 हिस्सों में बंट गया. घटना के बाद  स्टेशन पर हड़कंप मच गया. सूचना पर पहुंची पर पुलिस ने शव को कब्जे में ले कर इस की सूचना परिजनों को दी.

पुलिस के मुताबिक महिला का पति राजेश पिछले एक साल से बेरोजगार है. वह नौकरी की तलाश में हैं और घर का खर्च मरने वाली महिला शीतल के जिम्मे ही था. शीतल एक प्राईवेट कंपनी में नौकरी कर जैसेतैसे परिवार का खर्च उठा रही थी, लेकिन कोरोना के चलते लोकडाउन ने उस की यह नौकरी भी छीन ली. कामधंधे की बात को ले कर उन के बीच अकसर झगड़े हुआ करते थे. खुदकुशी के दिन की सुबह भी उन में कहासुनी हुई थी.

मामला : 03

(पति की बेकारी से तंग पत्नी ने की खुदकुशी की कोशिश)

अजमेर निवासी विनोद अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ गौतम नगर में किराये के मकान में रहता है. विनोद एक लंबे अरसे से बेरोजगार है. घर का खर्च चलाने में दिक्कत होने के कारण उस की पत्नी हमेशा तनाव में रहती थी. पिछले रविवार की सुबह विनोद किसी काम से घर के बाहर गया था और रंजना अपने दोनों बच्चों के साथ घर में ही थी.

इसी बीच उस ने कमरे के पंखे से लटक कर खुदकशी की कोशिश की. यह देख बच्चों ने शोर मचा दिया, जिस से आसपडोस के लोग जुट गए. उन्होंने तत्काल महिला को फंदे से उतार कर बचा लिया. महिला ने बताया कि पति की बेरोजगारी से तंग आ कर उस ने जान देने की कोशिश की थी. बेरोजगारी के अलावा पति से उसे किसी और तरह की कोई शिकायत नहीं है.

मामला : 04

(बेकारी की वजह से रिश्ता पहुंचा टूटने की कगार पर)

रोहित व रंजना की शादी दिसंबर 2018 में हुई थी. 6-7 माह तक पतिपत्नी का रिश्ता ठीक रहा. रोहित बेरोजगार है और पत्नी खर्चे के लिए पैसे मांगती है. बेरोजगारी के चलते वह पैसे नहीं दे पाता. इस से दोनों के बीच में कहासुनी और झगड़ा होता रहता है. झगड़े में कई बार रोहित अपनी पत्नी पर हाथ भी उठा चुका है.

परिजनों ने बातचीत से कई बार मामला शांत किया, लेकिन कुछ दिन सब ठीक रहता और फिर से वही स्थिति बन जाती. हालात ऐसे बन गए कि मामला थाने तक पहुंच गया. महिला थाने में जिला महिला संरक्षण एवं बाल विवाह निषेध अधिकारी पतिपत्नी के टूटते रिश्ते को जोड़ने का प्रयास कर रही है.

ये भी पढ़ें- टोनही प्रथा का बन गया “गढ़”

बेकारी की वजह से रिश्ता टूटने की कगार पर पहुंचा यह अकेला ऐसा मामला नहीं है. इस तरह के हर दिन 4 से 5 केस पुलिस तक पहुंच रहे हैं. ये तो वे केस हैं जो कि घरों से बाहर रहे हैं. बहुत से केस तो घरों की चारदीवारी (परिवारों में आपसी बातचीत या पंचायतें हो रही हैं) में ही चल रहे हैं.

जयपुर जिला महिला संरक्षण एवं बाल विवाह निषेध अधिकारी सरिता लांबा की मानें तो कुल केस मेें 70 फीसदी केस बेरोजगारी की वजह से हैं. वहीं 20 प्रतिशत केस में पति द्वारा नशा करना वजह सामने आया है. कुछ केस दहेज या अवैध संबंधों के चलते हो रहे हैं. कुछ वैवाहिक संबंध दो माह भी ठीक से नहीं चल पाते. एक मामला पुलिस तक पहुंचने के बाद 50 प्रतिशत रिश्ते ही दोबारा जुड़ पाते हैं.सरिता लांबा के कहे अनुसार रिश्ते बिगड़ने की सब से बड़ी वजह बेरोजगारी रही है.

बेकारी से तंग युवाओं के अवसान का दौर

आज का युवा सड़कों पर उतर आया है तो उस के पीछे ठोस वजहें है. हालिया नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंंकड़े भी यह दर्शाते हैं कि देश के युवाओं का दुर्दिन चल रहा है. तभी तो बेरोजगार युवा अवसाद में आ कर मौत को गले लगा रहा. लेकिन बदकिस्मती देखिए, लोकतांत्रिक परिपाटी के सब से बड़े संवैधानिक देश में युवा एक अदद नौकरी न मिलने के कारण अवसादग्रस्त हो रहे और सियासी व्यवस्था उन्हें सियासत की कठपुतली बना सर्कस में नचा रही है. इतना ही नहीं देश की युवा जमात भी सियासतदानों के बनाए मौत के कुएं में चक्कर काट रही है.  युवाओं को भी अपने मुद्दों का भान नहीं रहा. तभी तो वे राजनीति के भंवर में कठपुतली बन नाच रहे और सियासी दल उन का फायदा उठा रहे.

आज युवाओं की सब से बड़ी जरूरत क्या है ? उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले, बेहतर रोजगार के अवसर मुहैया हों, ताकि उन्हें मौत को गले न लगाना पडे. लेकिन देश के युवा भी गुमराह हो गए हैं. आज का युवा हर मायने में राजनीतिक दल का काम करने लगा है और राजनीतिक दल उन के कंधे पर सवार हो कर चैन की बंशी बजा रहे, जो कतई उचित नहीं. युवाओं की पहली प्राथमिकता शिक्षा और नौकरी है, फिर क्यों युवा उस मुद्दे को ले कर आंदोलित न हो कर राजनीतिक दलों का काम आसान कर रहे है.

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में औसतन प्रतिदिन 36 बेरोजगार युवाओं ने खुदकुशी की, जो किसान आत्महत्या से भी ज्यादा है. यह उस दौर में हुआ, जब देश के प्रधानसेवक भारत को न्यू इंडिया/डिजिटल इंडिया बनाने का दिवास्वप्न दिखा रहे थे. विश्वगुरु बनने की दिशा में बातों ही बातों में लफ्जाजियों का गोता लगाया जा रहा था. देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन बनाने का संकल्प रोजाना दोहराया जा रहा था. 56 इंच की छाती पर गुमान यह कह कर किया जा रहा था कि भारत एक महाशक्ति बनने जा रहा है.

ऐसे में जब 21वीं सदी के भारत में डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और स्किल इंडिया जैसे ढेरों सरकारी कार्यक्रम चल रहे हो, उस दौर में बेरोजगारी से तंग आ कर देश के युवा जान दे रहे हो तो फिर सरकारी नीतियों और उन की नीयत पर सवालिया निशान खड़े होना वाजिब है.

एनसीआरबी के आंंकड़े के मुताबिक साल 2018 में ऐसे मौत को गले लगाने वाले बेरोजगार हताश युवाओं की संख्या 12,936 रही. यानी औसतन हर 2 घंटों में 3 लोगों की जान बेरोजगारी ने ली. ऐसे में यह कहीं न कहीं संविधान के अनुच्छेद- 21 में मिले जीवन जीने की स्वतंत्रता का हनन करना है और इस के लिए दोषी पूरा का पूरा राजनीतिक परिवेश है.

बेरोजगार युवा: सरकार की गलत नीतियों का नतीजा

हालिया दौर में भारत के पास जितना युवा धन है, उतना दुनिया के किसी भी मुल्क के पास नही है मगर सच्चाई यह भी है कि सब से ज़्यादा बेरोज़गार युवाओं का सैलाब भी हमारे ही मुल्क में है. यह सब कुछ वर्तमान सरकार की गलत नीतियों का नतीजा है. पिछले 60-70 सालों में बेरोज़गारी को ले कर जितनी बातें नहीं हुई हैं, उस से कहीं अधिक बीते 6 सालों से सुनाई पड़ रही है. सतासीन सरकार ने सत्ता हासिल करने के लिए युवाओं को हर साल 2 करोड़ रोज़गार गारंटी का वादा कर छला था.

आज मुल्क के कई संस्थानों का लगातार निजीकरण होना यह साबित करता है कि वर्तमान सरकार विफल है. इसी वजह से हर रोज़ लाखों की तादाद में युवाओं की नोकरियां दाव पर लगी रहती हैं. जिस से युवाओं में लगातार डिप्रेशन बढ़ रहा है. आज इन्हीं गलत नीतियों की वजह से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाला युवा चपरासी की नौकरी भी करने को तैयार है. हद तो यह है कि वह भी उसे नहीं मिल रही है. इस से भी कहीं ज़्यादा चौंकाने वाले मामले  अनेक शहरों में उस वक्त सामने आएं, जब म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में सफाई कर्मियों की नौकरी के लिए गैजुएट एवं पोस्ट गैजुएट के साथ इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाले युवाओं का तांता लग गया.

ये भी पढ़ें- भीम सिंह : पावर लिफ्टिंग का पावर हाउस

जिस तरह से हर भरती पेपरलीक या कोर्ट के चक्कर में लंबित पड़ी है, उस से साफ़ है कि सरकार और सरकार में बैठे अधिकारी इन भर्तियो को ले कर संवेदनशील नही है. हर साल लाखोकरोड़ों की संख्या में इंटर, ग्रेजुएशन पास करने वाले बच्चे जब किसी सरकारी नौकरी की लिखित परीक्षा दे कर वापस अपने घर तक नही पहुंंच पाते तब तक परीक्षा संबंधी वेबसाइट पर पेपरलीक/परीक्षा स्थगित होने की जानकारी अपलोड कर दी जाती है.

भरती चाहे स्थगित हो अथवा कोर्ट में जाए पर इन सभी बातो का दुष्परिणाम अभ्यर्थी को ही भुगतना पड़ता है, वह अभ्यर्थी जो सालोसाल, दिनरात मेहनत कर के एक अदद सी नौकरी के सपने देखता है परन्तु उसे पेपर लीक/स्थगित होने से निराशा ही हाथ लगती है.

जिस युवाशक्ति के दम पर देश का मुखिया विश्वभर में इतराते घूमता है, देश की वही युवाशक्ति एक नौकरी के लिए दरदर भटकने को मजबूर है. ताजा रिपोर्टो के मुताबिक, जिन युवाओ के दम पर हम भविष्य की मजबूत इमारत की आस लगाए बैठे है, उस की नीव की हालत बेहद निराशाजनक है. 21वीं सदी में अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी अपनाने के बाद भी देश एक ऐसा सिस्टम नही खड़ा कर पाया है जो एक भरती परीक्षा को सकुशल संपन्न करा सके. बेरोजगारी नाम का शब्द दरअसल देश का ऐसा सच है, जिस से राजनीतिज्ञों, खुद को देश का रहनुमा समझने वालो ने अपनी आंंखे मूंद ली हैं.

हद पर बेकारी का दर्द

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते साल अक्टूबर, 2019 में 40.07 करोड़ लोग काम कर रहे थे, लेकिन इस साल अगस्त माह में यह आंकड़ा 6.4 फीसदी घट कर 36.70 करोड़ रह गया. इस से पहले अंतररष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी अपनी एक रिपोर्ट में देश में रोजगार के मामले में हालात बदतर होने की चेतावनी दी थी. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बीते 6 सालों के दौरान रोजाना साढ़े 6 सौ जमीजमाई नौकरियां खत्म हुई हैं.

46 साल के अशोक कुमार एक निजी कंपनी में बीते 22 साल से काम कर रहे थे. लेकिन बीते साल नवंबर माह में एक दिन अचानक कंपनी ने खर्चों में कटौती की बात कह कर उन की सेवाएं खत्म कर दीं. अभी उन के बच्चे छोटेछोटे थे. महीनों नौकरी तलाशने के बावजूद जब उन को कहीं कोई काम हीं मिला तो मजबूरन वह अपनी पुश्तैनी दुकान में बैठने लगे. अशोक कहते हैं, “इस उम्र में नौकरी छिन जाने का दर्द क्या होता है, यह कोई मुझ से पूछे. वह तो गनीमत थी कि पिताजी ने एक छोटी दुकान ले रखी थी. वरना भूखों मरने की नौबत आ जाती.”

अशोक अब वहीं पूरे दिन बैठ कर परचून और घरेलू इस्तेमाल की दूसरी चीजें बेच कर किसी तरह अपने परिवार का गुजरबसर करते हैं. वह बताते हैं कि पहले वेतन अच्छा था. लिहाजा वह बड़े मकान में किराए पर रहते थे. बच्चे भी बढ़िया स्कूलों में पढ़ते थे. लेकिन एक झटके में नौकरी छिनने के बाद उन को अपने कई खर्चों में कटौती करनी पड़ी. पहले मकान छोटा लिया. फिर बच्चों का नाम एक सस्ते स्कूल में लिखवाया. अब हालांकि उन की जिंदगी धीरेधीरे पटरी पर आ रही है. लेकिन अशोक को अब तक अपनी नौकरी छूटने का मलाल रहता है.

जयपुर के एक छोटे कसबे के रहने वाले  हेमंत ने एक प्रतिष्ठित कालेज से बीए (आनर्स) की पढ़ाई करने के बाद नौकरी व बेहतर भविष्य के सपने देखे थे. लेकिन नौकरी की तलाश में बरसों एड़ियां घिसने के बाद उन का मोहभंग हो गया. आखिर अब वह अपने कसबे के बाजार ही में सब्जी की दुकान लगाते हैं. हेमंत बताते हैं, “कालेज से निकलने के बाद मैंने 5 साल तक नौकरी की कोशिश की. लेकिन कहीं कोई नौकरी नहीं मिली. जो मिल रही थी उस में पैसा इतना कम था कि आनेजाने का किराया व जेबखर्च भी पूरा नहीं पड़ता. यही वजह है कि मैंने सब्जी व फल बेचने का फैसला किया. कोई भी काम छोटाबड़ा नहीं होता.

सीएमआईई ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि नोटबंदी के बाद रोजगार में कटौती का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अब कोरोनाकाल में चरम पर है. इस दौरान श्रम सहभागिता दर 48 फीसदी से घट कर तीन साल के अपने निचले स्तर 36.70 फीसदी पर आ गई है. यह दर काम करने के इच्छुक वयस्कों के अनुपात का पैमाना है. रिपोर्ट में बेरोजगारी दर में इस भारी गिरावट को अर्थव्यवस्था व बाजार के लिए खराब संकेत करार दिया गया है.

ये भी पढ़ें- जुल्म की शिकार बेचारी लड़कियां

बेरोजगारी पर अब तक जितने भी सर्वेक्षण आए हैं, उन में आंकड़े अलगअलग हो सकते हैं. लेकिन एक बात जो सब में समान है वह यह कि इस क्षेत्र में नौकरियों में तेजी से होने वाली कटौती की वजह से हालात लगातार बदतर हो रहे हैं. बीते दिनों अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की ओर से प्रकाशित एक सर्वेक्षण में कहा गया था कि देश में विभिन्न क्षेत्रों में ज्यादातर लोगों का वेतन अब भी 8-10 हजार रुपए महीने से कम ही है. इस सर्वेक्षण रिपोर्ट में दावा किया गया था कि रोजगार के क्षेत्र में विभिन्न कर्मचारियों के वेतन में भारी अंतर है. इस खाई को पाटना जरूरी है. एक अन्य सर्वे में कहा गया है कि भारत में 14 करोड़ युवाओं के पास फिलहाल कोई रोजगार नहीं है.

बेअसर तालीथाली की प्रतिक्रांति

देश के बेरोजगार युवाओं द्वारा 5 सितंबर को शाम 5 बजे 5 मिनट तक बेरोज़गारी की थालीताली पीटने के देशव्यापी अभियान के बाद 9 सितंबर को रात्रि 9 बजे 9 मिनट तक अँधेरे के खिलाफ़ मशाल जला कर देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किया गया. माना रहा है कि बेरोजगार युवाओं अपने हक की बात अर्थात नौकरी/नियुक्ति की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित कराने के लिए तालीथाली की प्रतिक्रांति को अंजाम दिया.

दरअसल, किसी भी समाज व देश की युवापीढ़ी क्रांति की बुनियाद होती है. जब युवा पीढ़ी ही अपने ढोंगी राजा के ढोंग में रंग कर उसी हथियार से क्रांति करने की राह पर आ जाएं तो समझा जाना चाहिए कि उसी रंग में रंग चुके है अर्थात मानसिक स्तर बराबर का हो चुका है.

मगर अफसोस, कुछ अरसे पहले देश व समाज के चुनिंदा बुद्धिजीवी व तार्किक लोग युवाओं के हकों अर्थात हर साल 2 करोड़ रोजगार के वादे को ले कर सरकार से सवाल कर रहे थे, उन को गालियां ये तालीथाली भक्त युवा ही दे रहे थे कि पहले वालों ने क्या कर दिया? मोदीजी के नेतृत्व में देश मजबूत किया जा रहा है तो तुम लोग देशद्रोह का कार्य कर रहे हो ?  तब कह रहे थे कि 70 साल के गड्ढे भरने में समय तो लगेगा ही. तुम वामपंथी/पाकपरस्त लोगों को जलन हो रही है. जब गरीब भातभात कर के भूख से मर रहे थे और लोग सवाल खड़ा कर रहे थे तो इन्हीं मोदीभक्त युवाओं द्वारा कहा जा रहा था कि देश को जबरदस्ती बदनाम किया जा रहा है.

असल बात यह है कि जब कैग, सीवीसी, सीबीआई, ईडी आदि को हड़पा जा रहा था, तब ये युवा समझ रहे थे कि समस्याओं की जड़ यही है और इन के खत्म होने में ही भलाई है. जब सरकारी संस्थानों, ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदले जा रहे थे तब इन युवाओं को लग रहा था कि अतिप्राचीन महान सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित किया जा रहा है और ऐसा रामराज्य स्थापित होगा कि डीजलपेट्रोल की महंगाई से भयमुक्त हो कर बंदरों की तरह हम खुद ही उड़ लेंगे. जब मी लार्ड अरूण मिश्रा जस्टिस बने तो लगा कि न्यायपालिका का भ्रष्टाचार मिटाया जा रहा है. जब रंजन गोगोई राज्यसभा के रंग में रंगे तो लगा कि दुग्गल साहब ने कहा कि राज्यसभा मे हमारा बहुमत नहीं है, शायद बहुमत का जुगाड़ कर के हमारी समस्याओं का समाधान किया जाएगा.

संसद के वित्तीय पावर को जीएसटी कौंसिल को ट्रांसफर किया गया तो इन्हीं युवाओं को लगा कि संसद में देशद्रोही विपक्ष सरकार को काम करने नहीं देते इसलिए कोई रास्ता खोजा जा रहा है. विपक्ष को व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के इन्हीं होनहार युवाओं ने निपटाया है और आज हालात यह है कि सत्ता कह रही है संसद में विपक्ष सवाल पूछ कर क्या करेगा. वो फोटो याद है न जब देश के मुखिया ने संसद की सीढ़ियों को चूम कर ही संसद में प्रवेश किया था, मगर वो बात भूल गये कि गोडसे ने गांधी को खत्म करने के लिए भी पहले दंडवत प्रणाम किये थे.

जो पिछले 3 दशक से वैज्ञानिक सोच को मात देने के लिए चमत्कारिक, ढोंगी, अल्लादीन के चिराग पैदा हुए उन को बड़ा बनाने में भारत के युवाओं ने महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई है. जितने भी सत्ताधारी लोग है उन की सोच को देखते हुए लग रहा है कि युवाओं ने देश की सत्ता चलाने के नौकर नियुक्त नहीं किये बल्कि अवतारी पुरुष पैदा किये है. साहब को सुन कर लगता था कि पढ़ालिखा होना जरूरी है मगर लाल जिल्द वाली पोटली लिए मैडम को देखा तो लगा कि पढ़ने का क्या फायदा.

जब स्वतंत्र निकाय को हड़पा जा रहा था तब भी राष्ट्रभक्त युवा खुश थे. पुलिस-सेना से ले कर न्यायपालिका तक का रंगरोगन किया जा रहा था तब भी खुश थे. जब सरकारी उपक्रमों का निजीकरण किया जा रहा था, जब सरकारी कर्मचारियों को कामचोर, भ्रष्ट, बेईमान कह कर निकाला जा रहा था तब भी मोदीभक्त युवा मौन समर्थक थे.

ये भी पढ़ें- “हम साथ साथ हैं” पर कुदृष्टि!

जब अमेठी के एक युवा ने पकौड़े का ठेला लगाने के लिए लोन मांगा था तो बैंक ने कहा कि तुम्हारे पास कोई एसेट नहीं है, इसलिए लोन नहीं मिलेगा. अब उस युवा को कौन समझाए कि एसेट तो युवाओं की सोच थी जो चाचा नसीब वाले को भेंट कर दी थी, अब रोजगार किस से व किस तरह का मांग रहे हो.

5 सितंबर को तालीथाली बजा लेने व 9 सितंबर को दीयाबाती करने या अब अगले पड़ाव पर शंख बजा लेने से कुछ हासिल नहीं होगा. अमिताभ बच्चन ने भी खूब तालीथाली व शंख बजाया बावजूद कोरोना पॉजिटिव हो गए थे. देश के बेरोजगार युवा जिन से तालीथाली बजा कर रोजगार मांगने जा रहे है, दरअसल वे इस धंधे के ये माहिर खिलाड़ी है. युवाओं का मानसिक स्तर अपने हिसाब से सेट कर चुके है. अब युवा विरोध/आंदोलन/क्रांति नहीं करने वाले क्योंकि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने इन की सोच का दायरा सीमित कर दिया है. अब ये तालीथाली बजाने लायक ही बचे है.

हिम्मती राधा ने भालू से लिया लोहा

पहाड़ों की वादियां, नदियां, झरने, हरियाली लोगों को लुभाती है. वहां के जंगल इंसान के सामने चुनौती पेश करते हैं. कच्ची पगडंडियां इन दुर्गम प्रदेशों के गांवों में जाने का एकमात्र रास्ता होती हैं जहां जंगल होते हैं, वहां जंगली जानवरों का खतरा भी बना रहता है. उत्तराखंड के जनपद चमोली के बहुत से इलाकों में भालुओं का खौफ बढ़ गया है. बीते काफी समय से वहां भालू के हमले की कई घटनाएं हुई हैं, जिन में कई लोग घायल हुए तो कई मवेशियों को भी भालू ने अपना शिकार बनाया.

ऐसी ही एक घटना चमोली के देवाल ब्लौक के वाण गांव में घटी. घर के ईंधन की लकड़ी लेने के लिए कुछ महिलाओं के साथ जंगल गई राधा बिष्ट पर भालू ने अचानक हमला कर दिया.

ये भी पढ़ें- टोनही प्रथा का बन गया “गढ़”

20 साल की राधा बिष्ट ने बताया, “12 सितंबर की सुबह 10 बजे अपने गांव से तकरीबन 2 किलोमीटर दूर जंगल में हम 7-8 महिलाएं ईंधन के लिए लकड़ियां बीनने गई थीं. वहां मैं एक बुरांश के पेड़ पर जा चढ़ी और अपनी दरांती से सूखी हो चुकी लकड़ियां काटने लगी.

babita-devi

“मेरे पड़ोस की बबीता देवी और संजू देवी मुझ से 25 मीटर के आसपास लकड़ियां चुन रही थीं. इसी बीच मुझे महसूस हुआ कि कोई काला साया पेड़ पर चढ़ रहा है. मैं ने गौर से देखा कि वह एक बड़ा भालू था. पहले तो मेरी बोलती सी बंद हो गई, पर कुछ देर बाद अपनी जान बचाने के लिए मैं पेड़ पर और ऊपर जा चढ़ी.

ये भी पढ़ें- भीम सिंह : पावर लिफ्टिंग का पावर हाउस

“भालू मुझ पर हमला करने के इरादे से ही पेड़ पर चढ़ा था और ऊपर आ कर उस ने अपने पंजे से मेरी कमर पर वार किया. उस समय तो मैं ने घाव पर ध्यान नहीं दिया और भालू पर दरांती से हमला किया. इस हमले से भालू थोड़ा नीचे की तरफ गिरा पर पेड़ की टहनियों में उलझ गया. इस से वह और खतरनाक हो गया और दोबारा मेरी तरफ आया.

“तब तक मैं ने भी मन बना लिया था कि इस भालू से हार नहीं माननी है और मैं ने चीखते हुए भालू पर फिर से दरांती चलाई.”

इसी बीच बबीता देवी और संजू देवी ने भालू की तेज आवाज सुनी और वे राधा की तरफ दौड़ीं.

बबीता देवी ने बताया, “भालू तेज आवाज में राधा पर झपट रहा था और राधा भी चीखते हुए उस पर दरांती चला रही थी. हम ने भी शोर मचाना शुरू कर दिया और भालू पर दूर से पत्थर फेंके. इस से भालू बौखला गया और वहां से भाग कर घने जंगल में चला गया.”

संजू देवी और बबीता देवी ने राधा को संभाला. संजू देवी ने बताया, “राधा ने बड़ी हिम्मत दिखाई. उस की कमर पर भालू के पंजे के निशान थे और घाव भी हो गया था.”

ये भी पढ़ें- जुल्म की शिकार बेचारी लड़कियां

इस घटना की सूचना मिलने के बाद राधा को उस के परिवार और गांव वालों ने वहां से कई किलोमीटर दूर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र देवाल में भरती कराया, जहां उस का इलाज किया गया.

जिस तरह से जंगल खत्म हो रहे हैं और इंसान की जंगली जानवरों के इलाकों में दखलअंदाजी बढ़ी है, उस के बाद से उत्तराखंड के पहाड़ी जनपदों में इंसान और जंगली जानवरों के मुठभेड़ की घटनाएं भी बढ़ी हैं,  जो चिंता की बात है. सरकार को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिर क्यों जंगली जानवर इतने हमलावर हो रहे हैं और इस का हल क्या है?

सामाजिक कार्यकर्ता हीरा बिष्ट ने बताया, “हमारे पहाड़ की महिलाएं घर का काम तो करती ही हैं, साथ ही साथ ईंधन के लिए लकड़ी और मवेशियों के लिए घास भी लाती हैं. वे मरदों के बराबर काम करती हैं, पर उन की  सुरक्षा के कोई भी उपाय नहीं किए जाते हैं. अगर किसी महिला के साथ कोई घटना हो जाती है तो पहाड़ में कोई भी पूछने वाला नहीं है.

“सरकार के भरोसे तो यहां कुछ भी नहीं होता. कुरसी मिलने के बाद कोई भी नेता पूछता तक नहीं है. कई महिलाओं की डिलीवरी होतेहोते रास्ते में ही वे दम तोड़ देती हैं. आज तक कई लोगों के साथ जंगली जानवरों वाली घटनाएं हुई हैं, लेकिन कोई जिमेदारी लेने को तैयार नहीं होता है. कहते हैं कि मुआवजा मिलेगा, पर आमतौर पर ऐसा होता नहीं है.”

ये भी पढ़ें- “हम साथ साथ हैं” पर कुदृष्टि!

पहाड़ों पर पहाड़ जैसी समस्याएं हैं, पर राधा बिष्ट ने दिखा दिया है कि पहाड़ की बेटियों का हौसला भी पहाड़ जैसा ही अडिग होता है.

टोनही प्रथा का बन गया “गढ़”

छत्तीसगढ़ की सामाजिक बुराइयों में, सबसे बड़ी चुनौती है यहां की टोनही प्रथा. प्रदेश के गांवों में आज भी अक्सर किसी भी महिला को टोनही कह कर अपमानित करना, उसे नग्न करके गांव में घुमाना और सामूहिक रूप से मार डालना, आम बात है.

आज जब दुनिया विज्ञान और विकास के पथ पर बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही है ऐसे में छत्तीसगढ़ की यह वीभत्स सामाजिक बुराई खत्म होने का नाम नहीं ले रही है और ना ही इसके लिए जमीनी स्तर पर प्रयास किया जा रहा है. यही कारण है कि आए दिन महिलाओं के साथ अत्याचार शोषण का यह टोनही प्रथा का खेल  बदस्तूर चल रहा है. इस संदर्भ में जहां सरकार ने एक छोटा सा कानून बना करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है. वही सामाजिक चेतना प्रसारित करने वाले किसी व्यक्ति अथवा संस्था का नाम भी सुनाई नहीं देता. परिणाम यह है कि छत्तीसगढ़ में आए दिन महिलाओं को तंत्र मंत्र करने वाली कह कर प्रताड़ना का दौर बदस्तूर जारी है.

ये भी पढ़ें- भीम सिंह : पावर लिफ्टिंग का पावर हाउस

हाल ही में छत्तीसगढ़ के औद्योगिक नगर कोरबा जिसे एशिया के मानचित्र पर अंकित बताते हुए गर्व किया जाता है में एक मामला चर्चा का विषय बन गया. यहां एक व्यक्ति ने टोनही कह कर एक महिला को खूब प्रताड़ित किया और जब मामला थाने पहुंचा तो पुलिस ने भी मानो हाथ खड़े कर लिए परिणाम स्वरूप उस शख्स को एक तरह से संरक्षण मिल गया. वह पुनः महिला को प्रताड़ित करने लगा. जब मामला सुर्खियों में आया तब पुलिस को होश आया और पुलिस ने उक्त व्यक्ति को ढूंढना शुरू किया. यह एक नजीर हमें बताती है कि किस तरह छत्तीसगढ़ में तंत्र मंत्र के नाम पर महिलाओं के साथ अत्याचार की इंतेहा हो चली है और शासन-प्रशासन कुंभकर्णी नींद में है.

यह है संपूर्ण मामला

अखबारों में  यह समाचार सुर्खियां बना —

“टोनही प्रताड़ना के मामले में फरार आरोपी बैगा राम सजीवन साहू, गिरफ्तार, रिमांड पर जेल दाखिल!”

जिसमें नीचे विस्तृत रूप से बताया गया  सारा संक्षिप्त यह कि-

टोनही प्रताड़ना के मामले में 12 दिनों तक फरारी काट रहे मुख्य बैगा राम सजीवन पिता राम सहाई साहु उम्र 54 वर्ष साकिन फुलसर पुलिस चौकी कोरबी के प्रभारी प्रेमनाथ बघेल के द्वारा लगातार आरोपी को गिरफ्तार करने के लिए दबाव बनाया जा रहा था। महिला को टोनही कह प्रताड़ित करने के आरोपी राम सजीवन के द्वारा अग्रिम जमानत पाने के लिए लगातार न्यायालय में आवेदन की प्रस्तुत किया गया था लेकिन मामले की गंभीरता को देखते हुए न्यायालय ने आवेदन को खारिज कर दिया था.

तत्पश्चात आरोपी ने थक हार कर दिनांक 8 सितंबर मंगलवार को पुलिस चौकी में जाकर आत्मसमर्पण कर दिया.

इस संपूर्ण घटनाक्रम को जानकर आप सहज ही अंदाज लगा सकते हैं कि छत्तीसगढ़ शासन पुलिस प्रशासन किस तरह महिलाओं के अत्याचार के संदर्भ में गंभीर है. गांव में कई तरीके से लोग महिलाओं को टोनही कह कर प्रताड़ित करते जाते हैं और पुलिस में शिकायत होने के बाद भी पुलिस ने गिरफ्तार नहीं करती और वह बड़े ही शान के साथ न्यायालय पहुंच जाते हैं यह तो शुक्र है कि न्यायालय में जमानत नहीं मिली अन्यथा यह घटना कहां जाकर पहुंचती आप अंदाजा लगा सकते हैं.

पुलिस इस संपूर्ण घटनाक्रम में यह बताते हुए बड़ा ही फक्र महसूस करती है और संवाददाताओं को बताती है-

ये भी पढ़ें- जुल्म की शिकार बेचारी लड़कियां

“इस मामले में पुलिस अधीक्षक अभिषेक मीणा, के निर्देशन एवं एसडीओपी कटघोरा पंकज पटेल के मार्गदर्शन में विधिवत कार्रवाई करते हुए धारा 294, 506, 34 आईपीसी, 4, 5, 6, टोनही प्रताड़ना अधिनियम 2005 के तहत गिरफ्तार कर रिमांड पर जेल दाखिल कराया गया.”

महिलाओं की यही नियति बनी

यहां यह भी आपको बताते चलें कि कोरबा जिला में इसी तरीके के अन्य  तीन प्रकरणों में भी हीला हवाली करती रही और जब पानी सर से गुजरने लगा तब जाकर पुलिस ने कार्रवाई की दरअसल पुलिस उन्हीं मामलों में दिलचस्पी लेती है जिनमें उनके पैसों का खेल होता है अन्य अन्यथा वह यह सब टालती रहती है. मामला जब सुर्ख़ियों में आता है तब पुलिस कार्रवाई करने पर मजबूर हो जाती है यहां भी यही हुआ.

पूर्व के तीन टोनही प्रताड़ना के मुख्य आरोपियों को दिनांक 28 अगस्त 2020 को गिरफ्तार कर रिमांड पर  जेल दाखिल कराया गया.

इस मामले का तथ्य यह है कि   हरिनाथ साहु पिता बंधु साहु, ने स्थानीय पुलिस चौकी में सूचना दर्ज कराई थी कि उसकी पत्नी को उसके दो सगे भाई एवं भतीजे ने मिलकर   टोनही प्रताड़ना का आरोप लगाकर छत्तीसगढ़ के सूरजपुर जिले के एक मंदिर में गांव के सरपंच पति एवं एक जनपद सदस्य के कहने पर टोनही होने का सच्चाई जानने एवं देखने के लिए ले जाया गया था. जिसके पश्चात पुलिस के द्वारा  कार्यवाही करते हुए राम लखन, हीरालाल, एवं अजय साहु को गिरफ्तार कर रिमांड पर भेजा गया. छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के वरिष्ठ वकील गणपति पटेल बताते हैं कि यह टोनही प्रथा को रोकने के लिए सरकार द्वारा तो टोनही अधिनियम बनाया गया है मगर इसका परिपालन जिस कठोरता से प्रशासन को कराना  चाहिए नहीं किया जा रहा वहीं सामाजिक कार्यकर्ता डॉ जी.आर. पंजवानी के अनुसार देखा गया है छत्तीसगढ़ के गांव में रूढ़िवादिता हावी है वहीं दुश्मनी, वैमनस्य निकालने के लिए महिलाओं पर तंत्र मंत्र करके काला जादू फैलाने वाली टोनही का आरोप लगा  दिया जाता है.

ये भी पढ़ें- “हम साथ साथ हैं” पर कुदृष्टि!

गहरी पैठ

अच्छे दिनों की तरह प्रधानमंत्री का एक और वादा आखिर टूट ही गया. 24 मार्च, 2020 को उन्होंने वादा किया था कि लौकडाउन के 21 दिनों में वे कोरोना वायरस को हरा देंगे और महाभारत को याद दिलाते हुए कहा था कि 18 दिन के युद्ध की तरह कोरोना की लड़ाई भी जीती जाएगी.

अंधभक्तों ने यह बात उसी तरह मान ली थी जैसे उन्होंने नोटबंदी, जीएसटी, धारा 370 से कश्मीर में बदलाव, राष्ट्रभक्ति, 3 तलाक के कानून में बदलाव, नागरिक कानून में बदलाव मान लिया था. महाभारत के युद्ध की चाहे जितनी वाहवाही कर लो असलियत तो यही?है न कि युद्ध के बाद पांडवों की पूरी जमात में सिर्फ 5 पांडव और कृष्ण बचे थे, बाकी सब तो मारे गए थे.

पिछले 6 सालों से हम हर युद्ध में खुद को मरता देख रहे हैं. कोरोना के युद्ध में भी अब 15 लाख से ज्यादा मरीज हो चुके हैं और 35,000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. कहां है महाभारत का सा वादा?

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

कोरोना की लड़ाई में हम उसी तरह हारे हैं जैसे दूसरी झड़पों में हारे. नोटबंदी के बाद करोड़ों देशवासियों को कतारों में खड़ा होना पड़ा पर काला धन वहीं का वहीं है. जीएसटी के बाद भी न तो सरकार को टैक्स ज्यादा मिला, न नकद लेनदेन बंद हुआ.

कश्मीर में धारा 370 को बदलने के बाद पूरा कश्मीर जेल की तरह बंद है. जो लोग वहां प्लौट खरीदने की आस लगा रहे थे या वादा जगा रहे थे अब भी मुंह छिपा नहीं रहे क्योंकि जो लोग रोज झूठे वादे करते हैं उन्हें वादों के झूठ के पकड़े जाने पर कोई गिला नहीं होता.

कोरोना के बारे में हमारी सरकार ने पहले जो भी कहा था वह इस भरोसे पर था कि हम तो महान हैं, विश्वगुरु हैं. हमें तो भगवान की कृपा मिली है. पर कोरोना हो या कोई और आफत वह धर्म और पूजा नहीं देखती. उलटे जो धर्म में भरोसा रखता है वह कमजोर हो जाता है. वह तैयारी नहीं करता. हम ने सतही तैयारी की थी.

हमारा देश अमेरिका और ब्राजील की तरह निकला जहां भगवान पर भरोसा करने वाले बहुत हैं. दोनों जगह पूजापाठ हुए. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के कट्टर समर्थक गौडगौड करते फिरते हैं. कई महीनों तक ट्रंप ने मास्क नहीं पहना. नरेंद्र मोदी भी मास्क न पहन कर अंगोछा पहने रहे जो उतना ही कारगर है जितना मास्क, इस पर संदेह है. देश की बड़ी जनता उन की देखादेखी मास्क की जगह टेढ़ासीधा कपड़ा बांधे घूम रही है.

इस देश में बकबकिए भी बहुत हैं. यहां बोले बिना चैन नहीं पड़ता और बोलने वाले को सांस लेने के लिए मास्क या अंगोछा टेढ़ा करना पड़ता है. यह अनुशासन को ढीला कर रहा है. नतीजा है 15 लाख लोग चपेट में आ चुके हैं और 5 लाख अभी भी अस्पतालों में हैं. जहां साफसफाई हो ही नहीं सकती क्योंकि साफसफाई करने वाले जिन घरों में गायों के दड़बों में रहते हैं वहां गंद और बदबू हर समय पसरी रहती है.

कोरोना की वजह से गरीबों की नौकरियां चली गईं. करोड़ों को अपने गांवों को लौटना पड़ा. जमापूंजी लौटने में ही खर्च हो गई. अब वे सरकारी खैरात पर जैसेतैसे जी रहे हैं. यह जीत नहीं हार है पर हमेशा की तरह हम घरघर पर भी जीत का सा जश्न मनाएंगे जैसे महाभारत पढ़ कर या रामायण पढ़ कर मनाते हैं.

देश में नौकरियों का अकाल बड़े दिनों तक बना रहेगा. पहले भी सरकारी फैसलों की वजह से देश के कारखाने ढीलेढाले हो रहे थे और कई तरह के काम नुकसान के कगार पर थे, अब कोरोना के लौकडाउनों की वजह से बिलकुल ही सफाया होने वाला है. रैस्टोरैंटों का काम एक ऐसा काम था जिस में लाखों नए नौजवानों को रोजगार मिल जाता था. इस में ज्यादा हुनर की जरूरत नहीं होती. गांव से आए लोगों को सफाई, बरतन धोने जैसा काम मिल जाता है. दिल्ली में अकेले 1,600 रैस्टोरैंट तो लाइसैंस वाले थे जो अब बंद हैं और उन में काम करने वाले घर लौट चुके हैं. थोड़े से रैस्टोरैंटों ने ही अपना लाइसैंस बनवाया है क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि कब तक बंदिशें जारी रहेंगी.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

ऐसा नहीं है कि लोग अपनी एहतियात की वजह से रैस्टोरैंटों में नहीं जाना चाहते. लाखों तो खाने के लिए इन पर ही भरोसा रखते हैं. ये सस्ता और महंगा दोनों तरह का खाना देते हैं. जो अकेले रहते हैं उन के लिए अपना खाना खुद बनाना एक मुश्किल काम है. अब सरकारी हठधर्मी की वजह से न काम करने वाले को नौकरी मिल रही है, न खाना खाने वाले को खाना मिल रहा है. यह हाल पूरे देश में है. मकान बनाने का काम भी रुक गया. दर्जियों का काम बंद हो गया क्योंकि सिलेसिलाए कपड़ों की बिक्री कम हो गई. ब्यूटीपार्लर बंद हैं, जहां लाखों लड़कियों को काम मिला हुआ था. अमीर घरों में काम करने वाली नौकरानियों का काम खत्म हो गया.

बसअड्डे बंद हैं. लोकल ट्रेनें बंद हैं. मैट्रो ट्रेनें बंद हैं. इन के इर्दगिर्द सामान बेचने वालों की दुकानें भी बंद हैं और इन में वे लोेग काम पा जाते हैं जिन के पास खास हुनर नहीं होता था. ये सब बीमार नहीं बेकार हो गए हैं और गांवों में अब जैसेतैसे टाइम बिता रहे हैं.

दिक्कत यह है कि नरेंद्र मोदी से ले कर पास के सरकारी दफ्तर के चपरासी तक सब की सोच है कि अपनी सुध लो. नेताओं को कुरसियों की पड़ी है, चपरासियों को ऊपरी कमाई की. ये जनता के फायदेनुकसान को अपने फायदेनुकसान से आंकते हैं. ये सब अच्छे घरों में पैदा हुए और सरकारी दया पर फलफूल कर मनमानी करने के आदी हो चुके हैं. इन्हें आम जनता के दुखदर्द का जरा सा भी खयाल नहीं है. ये गरीबों की सुध लेने को तैयार नहीं हैं. इन के फैसले बकबक करने वाले होते हैं, नारों की तरह होते हैं और 100 में से 95 खराब और गलत होते हैं. अगर देश चल रहा है तो उन लोगों की वजह से जो सरकार की परवाह किए बिना काम किए जा रहे हैं, जो कानून नहीं मानते, जो सड़कों पर घर बना सकते हैं, सड़कों पर व्यापार कर सकते हैं.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

आज अगर भुखमरी नहीं है तो उन किसानों की वजह से जो बिना सरकार के सहारे काम कर रहे हैं. उन कारीगरों की वजह से जो छोटेमोटे कारखानों में काम कर रहे हैं. आज देश गरीबों की मेहनत पर चल रहा है, अमीरों की सूझबूझ और सरकार के फैसलों पर नहीं.

न्याय करता ‘गुंडों का गैंग’

भीड के रूप में ‘गुंडो का गैंग’ बनाकर न्याय देने का चलन नया नहीं है. महाभारत में द्रोपद्री का गुनाह इतना था कि वह अंधेपन पर हंस दी थी. द्रोपदी को दंड देने के लिये जुएं में उसका छलपूर्वक जीता गया और भरी सभा में अपमानित करके दंड दिया गया. सभा भीड का ही एक रूप थी. औरत के अपमान पर मौन थी. ऐसी तमाम घटनायें धार्मिक ग्रंथों में मौजूद है. यही कहानियां बाद में कबीलों में फैसला देने का आधार बनने लगी. देश की आजादी के बाद कबीले खत्म हो गये पर उनकी संस्कृति खत्म नहीं हुई. कबीलों की मनोवृत्ति ‘खाप पंचायतो’ में बदल गई. कानूनी रूप से खाप पंचायतो पर रोक लगी तो भीड के रूप में न्याय देने की शुरूआत हो गई. इनको राजनीति से ताकत मिलती है. भीड के रूप में उमडी जनता ने 1992 में अयोध्या में ढांचा ढहा दिया. जिन पर आरोप लगा वह हीरो बनकर समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे है. मजेदार बात यह है कि ढांचा ढहाने की जिम्मेदारी भी कोई लेने को तैयार नहीं है. कानून के समक्ष चैलेंज यह है कि भीड के रूप में किसको सजा दे ? भीड के रूप को तय करने की उहापोह हालत ही अपराध करने वालों को बचने का मौका दे देती है.

ये भी पढ़ें- मास्क तो बहाना है असल तो वोटरों को लुभाना है

कन्नौज जिले के कोतवाली क्षेत्र के बनियान गांव में शिवदेवी नामक की महिला अपने मायके में रहती थी. शिवदेवी के पति की मौत हो चुकी थी. उसके अपने 5 बच्चे भी थे. पति की मौत के बाद ससुराल वालों के व्यवहार से दुखी होकर शिवदेवी अपने मायके रहने चली आई थी. यहां भी परिवार के लोग उसका साथ नहीं दे रहे थे. ऐसे में गांव के ही रहने वाले दीपक ने उसकी मदद करनी शुरू की. दीपक दिव्यांग था. वह अक्सर समय बेसमय भी जरूरत पडने पर शिवदेवी के घर आ जाता था. शिवदेवी के चाचा और उनके परिजनों को यह बुरा लगता था. 24 अगस्त 2020 को दीपक शिवदेवी से मिलने उसके घर आया तो शिवदेवी के चाचा और उनके लडको ने उसे और शिवदेवी को कमरे में बंद करके पीटना शुरू कर दिया. इसके बाद अगले दिन बुद्ववार की सुबह दोनो के सिर मुंडवाकर मुंह पर कालिखपोत कर, गले में जूतों की माला पहनाकर, डुगडुगी बजाकर पूरे गांव में जुलूस बनाकर निकालना शुरू कर दिया.

मुंह पर कालिख पोते, गले में जूतों की माला पहने शिवदेवी और दीपक भीड के द्वारा पूरे गांव में घुमाये जा रहे थे. गांव के बच्चे, महिलायें, बडेबूढे इस तमाषें को देख रहे थे. कुछ लोग इसका वीडियों भी बना रहे थे. वीडियों बनाकर वायरल भी कर दिया गया. जिसकी आलोचना षुरू हो गई. इसके बाद पुलिस गांव पहुंची तो भीड से किसी तरह से दोनो को छुडाकर थाने लाई. शिवकुमारी और दीपक को थाने में नजरबंद किया गया. पुलिस ने भीड के खिलाफ मुकदमा कायम करने की बात कही. भीड का यह न्याय केवल कन्नौज भर तक सीमित नहीं है. पूरे देश में भीडतंत्र ‘गुंडो का गैंग’ बनाकर न्याय देने का काम करने लगा है. यही घटना जब हिन्दू मुसिलम के बीच होती है तो ‘मौब लिन्चिग‘ मान लिया जाता है.

जैसा नेता वैसी प्रजा:

कहावत कि ‘जैसा राजा वैसी प्रजा‘ कन्नौज में भी यह कहावत पूरी तरह से फिट बैठती है. कोरोना काल में सही तरह से काम ना करने का आरोप लगाते हुये कन्नौज के भाजपा सासंद सुब्रत पाठक ने कन्नौज के दलित तहसीलदार अरविंद कुमार और लेखपाल को उनके घर में घुसकर पीटा. सांसद अकेले नहीं थे वहां पर 25 से अधिक उनके समर्थक थे. पीटे गये तहसीलदार ने न्याय की गुहार लगाई. विपक्ष के नेता अखिलेश यादव और मायावती भी घटना के विरोध में बयान देने लगे. इसके बाद पुलिस ने मुकदमा कायम कर पूरे मामलें की लीपापोती कर दी. अखिलेश यादव ने कहा कि ‘संासद के द्वारा एक दलित अफसर को पीटा जाना सरकार के चरित्र का बताता है‘.

ये भी पढ़ें- छत्तीसगढ़ विधानसभा और कोरोना आमंत्रण सत्र

मायावती ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कडे कदम उठाने की मांग की. सरकार ने कोई ऐसा कडा कदम उठाया नही. जो नजीर बन सके. इससे भयभीत होकर तहसीलदार अरविंद कुमार कर पत्नी अलका रावत ने कहा कि यहां हमें खतरा है इसलिये हमारा तबादला कहीं और कर दिया जाये. सांसद को किसी भी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ कदम उठाने का अधिकार है. पर इस तरह से किसी अफसर को घुसकर उसके औफिस में पीटना सहीं नहीं है. जब नेता इस तरह से अपने काम करता है तो जनता भी उसी की राह पर चलने लग रही है. उसे भी कानून और पुलिस पर भरोसा नहीं रहा. वह ‘गुंडों का गैंग’ बनाकर खुद की फैसला करने लगी है.

मौब लिन्चिग‘ बनाम ‘गुंडो का गैंग’:

हिन्दू मुसलिम विवाद में भीड तंत्र के काम को ‘मौब लिन्चिग‘ का नाम दिया जाता है. भीड केवल अगल धर्म के लोगों के साथ ही भीड का रूप रखकर न्याय नहीं करती है अपने धर्म में भी यह भीड खूब न्याय करती है. यह न्याय ‘गुंडो का गैंग’ करता है. जिसे प्रषासन और सरकार का समर्थन हासिल होता है. उनको लगता है कि सरकार के बहाने वह प्रषासन को दबा लेगे. दबाव में पुलिस दरोगा उनके खिलाफ कोई काररवाई नहीं कर सकेगी. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार आने के बाद ऐसी घटनाओं में ‘गुंडो के गैंग’ द्वारा भगवा कपडे या गमछा ले लिया जाता है. जिससे पुलिस को लगे की यह सरकार के आदमी है.

डायन, बाइक चोर, गौ-तस्कर, बच्चा चोर, हिंदू- मुस्लिम विवाद, धर्म का अपमान न जाने क्या-क्या कारण ढूंढ भीड़ बिना सुनवाई के सड़क पर ‘न्याय‘ करने लगी है. भीड़ आरोपी को बिना किसी सुनवाई के मौत के घाट उतार देती है. लोकतंत्र का अर्थ देश की जनता भूल गई है. झारखंड के खूंटी जिले के पास कर्रा में दिव्यांग व्यक्ति की गोकशी के संदेह में पीटकर हत्या कर दी जाती है. गुजरात के जामनगर जिले में चोर होने के शक में सात लोगों के एक समूह ने एक अज्ञात व्यक्ति की कथित तौर पर लाठी-डंडों से पिटाई कर दी. दरभंगा में चोरी के शक में एक युवक को भीड़ ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया, अस्पताल में उसकी मौत हो गई. झारखंड में तबरेज अंसारी को भीड़ द्वारा चोरी के शक में पकडा गया था, शक चोरी का था लेकिन उससे जय श्रीराम का नारा लगवाया जा रहा था. उसने जय श्री राम भी बोला और जय हनुमान भी, लेकिन मर चुकी मानवीय संवेदना को कहा फर्क पड़ने वाला था. वो उसे घंटों पीटते गए. तबरेज ही नहीं इससे पहले अखलाक और पहलू खान के साथ भी यही हुआ.

ये भी पढ़ें- मोहन भागवत और छत्तीसगढ़ में राजनीतिक हलचल

छूट जाते है आरोपी:

भीड में ‘गुंडो का गैंग’ अपना काम कर जाता है और प्रषासन, पुलिस और कोर्ट इनको कोई सजा नहीं दे पाते. जिसके कारण आरोपियों के हौसले बुलंद होते है. भीड के द्वारा मारे गये लोगो के कई मामलों में ऐसा ही हुआ है. षाहजहांपुर में पुलिस के इंसपेक्टर की हत्या भीड के द्वारा की जाती है. आरोपी जमानत पर छूट कर बाहर आता है तो भगवा गैंग के लोग उसको सम्मान करते है. भीड के सामाजिक और मनोविज्ञानिक व्यवहार को देखे तो पता चलता है कि किसी घटना में एक व्यक्ति या संस्था के द्वारा भीड को भडकाया जाता है. भीड को भडकाने के बाद वह दूर से तमाषा देखता है. भीड के रूप में अपराध करने वाले दूसरे लोग होते है. पुलिस भडकाने वाले के खिलाफ मुकदमा कायम करके उसको हीरो बना देती है. कोई सबूत एकत्र नहीं किया जाता जिसकी वजह से भडकाने वाले व्यक्ति को अदालत छोड देती है. भीड के रूप में अपराध करने वाला कभी कानून की पक डमें नहीं आता है.

भीड के रूप में न्याय करने वाले हमेषा बहुसंख्यक होते है. यह जाति, धर्म, भाशा, बोली और क्षेत्रवाद के रूप मे अलग अलग हो सकते है. कहीं उत्तर भारत के रहने वालों पर भीड हमला करती है कहीं नार्थ ईस्ट के रहने वालों पर भीड हमला करती है तो कहीं उत्तर प्रदेश और बिहार के रहने वालों को इसका षिकार बनाया जाता है. जहां जैसी जरूरत होती है वहां वैसा फैसला भीड करती है. भीड के काम का श्रेय लेने वाले भी होते है पर कानून के सामने यह जिम्मेदारी नहीं लेते. देश में राममंदिर विवाद में अयोध्या का ढांचा ढहाया जाना सबसे बडी मिसाल है. भीड को भडकाने वालों ने राजनीति की. उसके बल पर कुर्सी हासिल की. जब अदालत ने पूछा तो सबसे इंकार कर दिया कि उन्होने भीड को भडकाया था.

भीड का बचाव है डायन-बिसाही जैसी प्रथायें:

बिहार और झारखंड से डायन-बिसाही जैसी कुप्रथा और अंधविश्वास की आड में भीड डायन बताकर औरतों को पीटपीट कर मार देती है. इसके तहत मारी गई औरतों की सबसे अधिक संख्या विधवाओं की होती है. इसकी वजह केवल यह होती है कि इनको मार दो जिससे जमीन जायदाद में हिस्सा ना देना पडे. रांची से तकरीबन 10 किलोमीटर दूर नामकुम के हाप पंचायत के बरूडीह में 55 वर्षीय चामरी देवी को डायन बताकर उनके ही परिवारवालों ने मार डाला था. इस मामले में सूमा देवी के परिवार के ही फौदा मुंडा, उनके बेटे मंगल मुंडा और रूसा मुंडा, खोदिया मुंडा समेत पांच लोगों पर आईपीसी की धारा 302 और 34 के तहत मामला दर्ज किया गया है.

इस तरह की एक नहीं तमाम घटनायें है. एनसीआरबी की रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2017 में झारखंड में डायन बताकर हत्या के 19 मामले समाने आए हैं. झारखंड पुलिस के अनुसार 2017 में ऐसी हत्याओं की संख्या 41 थी. 2016 में एनसीआरबी के हिसाब से राज्य में 27 औरतों को डायन बताकर मार दिया गया. झारखंड पुलिस के अनुसार यह आंकड़ा 45 है. साल 2015 में एनसीआरबी ने यह संख्या 32 बताई और झारखंड पुलिस ने 51. इसके बाद भी डायन और बिसाही बताकर भीड के द्वारा औरतों को मारने की आजादी पर रोक लगाने की बात कोई नहीं कर रहा है.

ये भी पढ़ें- छत्तीसगढ़ में कांग्रेस भाजपा के मध्य “राम दंगल”!

एनसीआरबी के पांच साल के आंकड़ें बताते है कि भारत भर में डायन-बिसाही के नाम 656 हत्याएं हुई हैं. झारखंड में 2011 से लेकर सितंबर 2019 तक डायन-बिसाही के नाम पर 235 हत्याएं हुई है. सामाजिक संस्थाओं के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार 1992 से लेकर अब तक 1800 महिलाओं को सिर्फ डायन, जादू-टोना, चुड़ैल होने और ओझा के इशारे पर मारा गया. झारखंड में डायन-बिसाही का शिकार होने वाली महिलाओं में 35 प्रतिशत आदिवासी और 34 प्रतिशत दलित हैं. बिहार में ‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 1999’ लागू होने के बाद वहां घटनायें जारी है. देश में न्याय कानून और संविधान से नहीं भीड के तंत्र और गंुडों के गैंग से चलता है. भीड पर सही फैसला ना होने के कारण हौसला बढता जा रहा है. भीड का न्याय रूकने का नाम नहीं ले रहा है.

मास्क तो बहाना है असल तो वोटरों को लुभाना है

बौलीवुड अभिनेत्री रवीना टंडन के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मधुबनी में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों द्वारा तैयार किए गए मास्क के मुरीद हो गए हैं, मगर आश्चर्य की बात यह है कि देश के प्रधानमंत्री को मधुबनी पेंटिंग्स की तब याद आई जब बिहार विधानसभा चुनाव में कुछ ही दिन शेष रह गए हैं.

यों बिहार का मिथिला अथवा मधुबनी पेंटिंग पूरे विश्व में मशहूर है. कभी शादीविवाह के दौरान दूल्हादुलहन के कोहबर (सुहागरात का कमरा) में गांव की महिलाएं इस पेंटिंग को बना कर कमरे को सजाती थीं, लेकिन धीरेधीरे यह पेंटिंग लोकप्रिय होती गई और अब तो इस पेंटिंग की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है.

ये भी पढ़ें- छत्तीसगढ़ विधानसभा और कोरोना आमंत्रण सत्र

मोदी राज में बेबस बुनकर

प्रधानमंत्री मोदी के मधुबनी पेंटिंग पर बयान के बाद मधुबनी के राष्ट्रीय जनता दल के विधायक समीर कुमार महासेठ कहते हैं,”देखिए, मोदीजी को अब मधुबनी पेंटिंग और इस कला से जुङे कलाकारों की याद आई तो यह अच्छी बात है. देर आए दुरूस्त आए, लेकिन सचाई यही है कि इस कला के कलाकारों, बुनकरों के लिए केंद्र सरकार ने कुछ भी नहीं किया है. पिछले 15 साल से बिहार की कुरसी संभाले नीतीश सरकार ने तो कोई सुध तक नहीं ली.

“आज भी मधुबनी के सैकड़ों बुनकरों को राष्ट्रीयकृत बैंकों में ब्लैक लिस्टेड कर दिया गया है और बैंक वाले उन्हें  लोन तक नहीं देते.”

समीर बताते हैं,”आज देश के कई जगहों पर मधुबनी पेंटिंग के नाम पर पेंटिंग्स बना कर खूब पैसा बनाया जा रहा है मगर यहीं के लोग, खासकर वे जो इस कला से जन्मजात रूप से जुङे हैं बेरोजगार हैं और बाजार में पहचान बनाने के लिए छटपटा रहे हैं.”

अब जबकि देश में कोरोना कहर बरपा रहा है लोगों के लिए मास्क और सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करना जरूरी हो गया है, घरों की

दीवारों से कागज, फिर कपड़े और खिलौनों के बाद मास्क पर पेंटिंग ने इस कला को नई पहचान जरूर दी है.

मछली, फूलपत्ती, पशुपक्षियों की पेंटिंग वाले सूती कपड़े का 2-3 लेयर वाला मास्क लोगों को खूब लुभा रहा है.

साहब मुश्किल से घर चला पाता हूं

मधुबनी जिले के रहने वाले प्रभात बाबा ऐसे कलाकारों में से एक हैं जो एक दुकान ही मधुबनी पेंटिंग्स की चलाते हैं. दुकान में ग्राहक कम ही आते थे. पर अब वे घर से ही मास्क बनाते हैं. डिमांड बढ़ा तो उन्होंने 3-4 बुनकरों को भी रख लिया है जो कपङों से बने मास्क पर मधुबनी पेंटिंग का काम करते हैं.

neeraj-pathak

प्रभात कहते हैं,”इस काम में मेरे साथ परिवार के अन्य लोग भी सहयोग दे रहे हैं. मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क को लोग बाजार में ₹70 से 100 तक में आसानी से खरीद लेते हैं. इस से कुछ कमाई भी हो जाती है.”

वे बताते हैं,”साहब हम गरीब लोग हैं. हाथों में हुनर है पर सरकार अगर ध्यान दे तो इस कला के माध्यम से लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है.

ये भी पढ़ें- मोहन भागवत और छत्तीसगढ़ में राजनीतिक हलचल

“कोरोना से लोग डरे हुए हैं पर इस की वजह से हम आज कुछ कमा भी रहे हैं वरना तो घर चलाना भी मुश्किल होता था.”

वहीं समस्तीपुर के रहने वाले कलाकार अजय कुमार बताते हैं कि एक मास्क तैयार करने में करीब ₹35-50 की लागत आ रही है. एक कलाकार प्रतिदिन 25-30 मास्क तैयार कर लेता है. इस से रोज  ₹1-2 हजार की आमदनी जरूर हो जा रही है.

मधुबनी के ही रहने वाले हीरानंद को खुशी है कि वे मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क लगा कर बाहर निकलते हैं.

वे कहते हैं,”मिथिला की अपनी एक खास पहचान है. फिर मधुबनी पेंटिंग का तो जवाब ही नहीं.

“कोरोना वायरस से बचाव के लिए मास्क पहन कर बाहर निकलने से संक्रमण का खतरा कम होता है. मैं मधुबनी पेंटिंग वाला खास डिजाइनर मास्क पहनता हूं. इस से मैं मिथिला कल्चर से जुङाव महसूस करता हूं.”

दिल्ली सरकार ने मिथिला को नई पहचान दी है

दिल्ली सरकार में मैथिली भोजपुरी अकादमी के वाइस चेयरमैन, नीरज पाठक ने बताया,”दिल्ली सरकार शुरू से ही, चाहे वह लोकसंगीत हो या फिर लोककला, इस क्षेत्र से जुङे लोगों को तवज्जो देती आई है. सरकार समयसमय पर मैथिलीभोजपुरी गीतसंगीत व कला का आयोजन भी करती आई है और यह आगे भी जारी रहेगा. दिल्ली सरकार हाल ही में कई लोगों को सम्मानित भी कर चुकी है.”

नीरज कहते हैं,”मधुबनी पेंटिंग दुनियाभर में मशहूर है. अब तो विदेशों में भी इस कला को नाम और दाम दोनों मिल रहे हैं.

“मधुबनी पेंटिंग कलाकारों द्वारा बनाए जा रहे मास्क फैशन में शुमार हो चुका है. मास्क की लोकप्रियता से इस काम से जुङे लोगों के लिए न सिर्फ रोजगार के अवसर बढेंगे, बल्कि इस से इस पेंटिंग को नई पहचान मिलेगी.”

चौपट रोजगार बेहाल व्यवसायी

यों नोटबंदी, जीएसटी लागू करने और फिर कोरोनाकाल में लागू लौकडाउन के बाद व्यवसायिक क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित है.

एक तो जीएसटी ने व्यवसायियों की कमर तोङ दी व फिर कोरोना वायरस महामारी के बाद बाजार पूरी तरह चौपट हो गया है.

लेकिन सुखद बात यह है कि इसी कोरोनाकाल में मधुबनी पेंटिंग के कलाकारों द्वारा तैयार किए मास्क की बाजार में धूम है.

ये भी पढ़ें- छत्तीसगढ़ में कांग्रेस भाजपा के मध्य “राम दंगल”!

पहले से कङकी में जूझ रहे कलाकारों के लिए यह काफी सुखद है कि अब उन के पास नाम और पैसा दोनों है. वैश्विक विपदा यहां के कलाकारों के लिए बङा अवसर बन कर आई है और इस से इस लोककला को भी नई पहचान मिल रही है.

लोकल बाजार से अमेजन तक

मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस की पहुंच आज लोकल बाजार से निकल कर अमेजन तक जा पहुंचा है.

prabhat-baba

औनलाइन साइट्स पर मौजूद यह मास्क लोकप्रिय हो चुका है और लोग इसे औनलाइन खरीद भी रहे हैं.

उधर, बिहार में चुनाव है और सियासी पार्टियों के नेता व कार्यकर्ता भी मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क में नजर आने लगे हैं.

क्योंकि अब चुनाव है

हाल ही में जब बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री व राजद नेता तेजस्वी यादव मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क में नजर आए तो उन की देखादेखी लोजपा के नेता भी इन मास्कों को लगा कर घूमते हुए देखे जा रहे हैं.

लोजपा के युवा नेता व रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान भी इस मास्क में अकसर नजर आने लगे हैं और इतना ही नहीं लोजपा अपने कार्यकर्ताओं के लिए 2 लाख मास्क भी बनवा रही है. लोजपा ने इस बार के चुनाव में नारा दिया है,’बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट.’

राजनीति के जानकार, समाजसेवी अजीत कुमार कहते हैं,”देशदुनिया में लगभग 7 करोङ लोग मैथिली बोलते हैं. दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, पुर्णिया, सहरसा, सुपौल आदि जिलों को मिथिलांचल कहा जाता है और यहां की जनता वोटिंग में निर्णायक भूमिका निभाती है. लिहाजा, राजनीतिक दलों के लोगों को लगता है कि इस से वे यहां की जनता से खास जुङाव महसूस करेंगे.

“वैसे, न सिर्फ मास्क बल्कि मिथिला या मधुबनी पेंटिंग का अपना खास इतिहास भी रहा है. अब तो देश के अलगअलग जगहों पर रहने वाले लोग भी मधुबनी पेंटिंग से खूब नाम कमा रहे हैं.”

मधुबनी पेंटिंग का जवाब नहीं

नोएडा की रहने वाली अर्चना झा इन में से ही एक हैं. उन्होंने पश्चिम बंगाल से फाइन आर्ट्स में डिप्लोमा की डिग्री हासिल की है.

archana-jha

वे कहती हैं,”मैं झारखंड की रहने वाली हूं लेकिन मधुबनी पेंटिंग से गहरा जुङाव रखती हूं. मेरी मां ने मुझे इस पेंटिंग को करना सिखाया और वे ही मेरी गुरू हैं.

ये भी पढ़ें- सरकार भी कोरोना की गिरफ्त में

“मैं शुरू से ही देश के कई शहरों में पेंटिंग प्रदर्शनी लगाती रही हूं और इस वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी औनलाइन प्रदर्शनी कर मैं ने खूब वाहवाही बटोरी है.

“मुझे खुशी है कि अब मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क बाजार में खूब बिक रहे हैं. इस से मिथिला के गरीब बुनकरों को नई पहचान जरूर मिलेगी.”

जो भी हो, बिहार विधानसभा चुनाव में भले ही मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क की मांग में इजाफा हो गया है और नेता व कार्यकर्ता इसे पहन कर गलीगली घूम रहे हैं, मगर इतना जरूर है कि इस मास्क की धमक से यहां के कलाकारों, बुनकरों का हौसला काफी बुलंद है.

“हम साथ साथ हैं” पर कुदृष्टि!

प्रथम घटना – राजधानी रायपुर के विधान सभा मार्ग में एक प्रेमी जोड़े को कुछ लोगों ने देखा और उन्हें प्रताड़ित किया. यहां तक कि युवक की हत्या हो गई.

दूसरी घटना – न्यायधानी कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर में एक युगल जोड़ी जब एकांत में बैठी हुई थी कुछ अपराधिक किस्म के लोगों ने उन पर हमला किया और युवती के साथ बलात्कार किया.

तीसरी घटना – औद्योगिक नगरी कोरबा के रविशंकर शुक्ला नगर के एकांत में एक युगल जोड़े को युवकों ने पकड़ा और युवती के साथ 8 लोगों ने अनाचार किया. मामला संभ्रांत परिवार का था अतः हड़कंप मच गई पुलिस ने गुप्त रूप से जांच की.

क्या प्यार, प्रेम कोई अपराध है. शायद किसी भी जागरूक और संवेदनशील समाज में इसे अपराध की कोटि में शामिल नहीं किया जा सकता. मगर जब दो प्रेमी कहीं एकांत में मिले और कुछ लोग उस पर हमला कर देंगे तो आप क्या कहेंगे.

ये भी पढ़ें- आत्महत्या का दौर और राहत

छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिला जसपुर में ऐसे ही एक लोमहर्षक घटना घटित हुई है. जहां एक युगल प्रेमी जोड़े को एकांत में पाकर कुछ लोगों ने अपने गिरफ्त में ले लिया और कानून को अपने हाथों में लेते हुए पहले युवक को अपमानित किया गया पीटा गया. और फिर कुदृष्टि डालने वालों ने युवती  के साथ भी वही सब किया गया जो किसी भी दृष्टि से कानून सम्मत नहीं कहा जा सकता.

ऐसी अनेक घटनाएं हमारे आसपास घटित होती रहती हैं और समाज और कानून के भय से कथित रूप से पीड़ित पक्ष  मौन हो जाता है. यह एक ऐसा गंभीर मसला है जिस पर प्रत्येक दृष्टि से समाज के हर एक वर्ग को चिंतन करना चाहिए. इस आलेख में हमने इस गंभीर सामयिक विषय को विभिन्न दृष्टिकोण से आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. ताकि हर एक पक्ष जागरूक हो सके और इसका लाभ उठा सकें और ऐसी घटनाएं कम से कम घटित हो और खत्म हो जाए.

जशपुर का वीडियो वायरल!

छत्तीसगढ़ के आदिवासी जशपुर जिले से शर्मसार करने वाली घटना  घटित हुई है. यहां के कुनकुरी थाने के फरसापानी के एक गोदाम में प्रेमी जोड़े और एक युवक मौजूद थे. इसी दौरान  कुछ लोग पहुंच जाते हैं. युवक-युवती को इस तरह देखकर  युवक की जमकर पिटाई कर देते है.दूसरा युवक घटना स्थल से फरार हो जाता है. इतना ही नहीं  लोगों ने युवती को भी नहीं बख्शा. युवती के साथ बदसलूकी करते हुए गाली-गलौच की. इस पूरे घटना क्रम का बकायदा वीडियो भी बना लिया, जिसे बाद में सोशल मीडिया में वायरल कर दिया है.

वायरल वीडियो में भी पूरी तस्वीर साफ नजर आ रही है, कि किस तरह से ग्रामीणों ने युवती के साथ दुर्व्यवहार किया है. जबरन चेहरे से नाकाब हटाकर चेहरा देखा गया और कैमरे में भी कैद किया गया. इसके साथ ही युवक के साथ भी की गई मारपीट की वाक्या कैमरे में कैद है. लेकिन अब इस मामले में पूरी कहानी ही बदल गई है.

ये भी पढ़ें- महेंद्र सिंह धोनी के बाद क्या होगा भारतीय क्रिकेट का?

दरअसल, अब युवती ने  दोनों  युवकों के खिलाफ दुष्कर्म का आरोप लगाया है. पुलिस के मुताबिक युवती ने दोनों के खिलाफ कुनकुरी थाने में धारा 376 का मामला दर्ज कराया है.  पुलिस अधीक्षक बालाजी राव ने मामले में संज्ञान लेते हुए युवती के साथ बदसलूकी करने वाले ग्रामीणों की भी पहचान कर कार्रवाई करने की बात कही है. कुल जमा सच्चाई यह है कि ऐसे मामलों में प्रेमी युगल के साथ लोगों की  क्रूरता  बारंबार जग जाहिर हुई है. ऐसे में समझदारी की बात तो यह है की युगल जोड़े समझदारी का परिचय देते हुए एकांत में मिलने का प्रयास न करें. अपने जीवन को संकट में ना डालें.

समझदारी और हर पक्ष के लिए कुछ कायदे

प्रेमी युगल जोड़े अक्सर हमले के शिकार होते रहे हैं. इस संदर्भ में हमने वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ उत्पल अग्रवाल से बात की. उन्होंने कहा कि कानूनी दृष्टिकोण से किसी भी प्रेमी जोड़े पर हमला करना गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है. ऐसे लोगों पर शिकायत मिलने पर पुलिस गंभीर कार्रवाई करती है. उन्होंने कहा – मेरा सुझाव तो यही है कि कभी भी किसी को कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए. हां अगर आपको आपत्ति है जो आपका अधिकार है… आप पुलिस में सूचना देकर प्रेमी जोड़े को हिरासत में लेने का आग्रह कर सकते हैं. ऐसी स्थिति में पुलिस कार्रवाई करेगी.

लायनेस समाजसेवी अंजना सिंह ठाकुर के अनुसार ऐसी घटनाएं सुनने में आती है प्रेमी जोड़ों को चाहिए कि स्वयं को सुरक्षित रखते हुए कोई ऐसा कदम ना उठाएं की उनका जीवन खतरे में पड़ जाए.

पुलिस अधिकारी विवेक शर्मा इस संदर्भ में बताते हैं कि उनके कार्यकाल में ऐसी कुछ घटनाएं घटित हुई है युवा जोड़े के उम्र का तकाजा ऐसा  होता है कि वह लोग यह भूल कर बैठते हैं मगर वे  लोग भी अपराधी हैं जो इन पर हमला करते हैं और ऐसे लोगों पर शिकायत मिलने पर कठोर कार्रवाई की जाती है.

ये भी पढ़ें- भारत में बैन चीनी वीडियो ऐप टिकटौक

सार पूर्ण  तथ्य है कि प्रेमी जोड़ों को चाहिए कि कभी भी अपना जीवन संकट में ना डालें. जहां ऐसे घटनाक्रम में युवक की अपेक्षा युवतियां अधिक बर्बरता का शिकार होती है, अनाचार का शिकार भी हो जाती है. वहीं युवक को अपमान झेलना पड़ता है.इसलिए समझदारी का तकाजा यह है कि ऐसी परिस्थितियों से बचें.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें