अच्छे दिनों की तरह प्रधानमंत्री का एक और वादा आखिर टूट ही गया. 24 मार्च, 2020 को उन्होंने वादा किया था कि लौकडाउन के 21 दिनों में वे कोरोना वायरस को हरा देंगे और महाभारत को याद दिलाते हुए कहा था कि 18 दिन के युद्ध की तरह कोरोना की लड़ाई भी जीती जाएगी.
अंधभक्तों ने यह बात उसी तरह मान ली थी जैसे उन्होंने नोटबंदी, जीएसटी, धारा 370 से कश्मीर में बदलाव, राष्ट्रभक्ति, 3 तलाक के कानून में बदलाव, नागरिक कानून में बदलाव मान लिया था. महाभारत के युद्ध की चाहे जितनी वाहवाही कर लो असलियत तो यही?है न कि युद्ध के बाद पांडवों की पूरी जमात में सिर्फ 5 पांडव और कृष्ण बचे थे, बाकी सब तो मारे गए थे.
पिछले 6 सालों से हम हर युद्ध में खुद को मरता देख रहे हैं. कोरोना के युद्ध में भी अब 15 लाख से ज्यादा मरीज हो चुके हैं और 35,000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. कहां है महाभारत का सा वादा?
कोरोना की लड़ाई में हम उसी तरह हारे हैं जैसे दूसरी झड़पों में हारे. नोटबंदी के बाद करोड़ों देशवासियों को कतारों में खड़ा होना पड़ा पर काला धन वहीं का वहीं है. जीएसटी के बाद भी न तो सरकार को टैक्स ज्यादा मिला, न नकद लेनदेन बंद हुआ.
कश्मीर में धारा 370 को बदलने के बाद पूरा कश्मीर जेल की तरह बंद है. जो लोग वहां प्लौट खरीदने की आस लगा रहे थे या वादा जगा रहे थे अब भी मुंह छिपा नहीं रहे क्योंकि जो लोग रोज झूठे वादे करते हैं उन्हें वादों के झूठ के पकड़े जाने पर कोई गिला नहीं होता.
कोरोना के बारे में हमारी सरकार ने पहले जो भी कहा था वह इस भरोसे पर था कि हम तो महान हैं, विश्वगुरु हैं. हमें तो भगवान की कृपा मिली है. पर कोरोना हो या कोई और आफत वह धर्म और पूजा नहीं देखती. उलटे जो धर्म में भरोसा रखता है वह कमजोर हो जाता है. वह तैयारी नहीं करता. हम ने सतही तैयारी की थी.
हमारा देश अमेरिका और ब्राजील की तरह निकला जहां भगवान पर भरोसा करने वाले बहुत हैं. दोनों जगह पूजापाठ हुए. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के कट्टर समर्थक गौडगौड करते फिरते हैं. कई महीनों तक ट्रंप ने मास्क नहीं पहना. नरेंद्र मोदी भी मास्क न पहन कर अंगोछा पहने रहे जो उतना ही कारगर है जितना मास्क, इस पर संदेह है. देश की बड़ी जनता उन की देखादेखी मास्क की जगह टेढ़ासीधा कपड़ा बांधे घूम रही है.
इस देश में बकबकिए भी बहुत हैं. यहां बोले बिना चैन नहीं पड़ता और बोलने वाले को सांस लेने के लिए मास्क या अंगोछा टेढ़ा करना पड़ता है. यह अनुशासन को ढीला कर रहा है. नतीजा है 15 लाख लोग चपेट में आ चुके हैं और 5 लाख अभी भी अस्पतालों में हैं. जहां साफसफाई हो ही नहीं सकती क्योंकि साफसफाई करने वाले जिन घरों में गायों के दड़बों में रहते हैं वहां गंद और बदबू हर समय पसरी रहती है.
कोरोना की वजह से गरीबों की नौकरियां चली गईं. करोड़ों को अपने गांवों को लौटना पड़ा. जमापूंजी लौटने में ही खर्च हो गई. अब वे सरकारी खैरात पर जैसेतैसे जी रहे हैं. यह जीत नहीं हार है पर हमेशा की तरह हम घरघर पर भी जीत का सा जश्न मनाएंगे जैसे महाभारत पढ़ कर या रामायण पढ़ कर मनाते हैं.
देश में नौकरियों का अकाल बड़े दिनों तक बना रहेगा. पहले भी सरकारी फैसलों की वजह से देश के कारखाने ढीलेढाले हो रहे थे और कई तरह के काम नुकसान के कगार पर थे, अब कोरोना के लौकडाउनों की वजह से बिलकुल ही सफाया होने वाला है. रैस्टोरैंटों का काम एक ऐसा काम था जिस में लाखों नए नौजवानों को रोजगार मिल जाता था. इस में ज्यादा हुनर की जरूरत नहीं होती. गांव से आए लोगों को सफाई, बरतन धोने जैसा काम मिल जाता है. दिल्ली में अकेले 1,600 रैस्टोरैंट तो लाइसैंस वाले थे जो अब बंद हैं और उन में काम करने वाले घर लौट चुके हैं. थोड़े से रैस्टोरैंटों ने ही अपना लाइसैंस बनवाया है क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि कब तक बंदिशें जारी रहेंगी.
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ऐसा नहीं है कि लोग अपनी एहतियात की वजह से रैस्टोरैंटों में नहीं जाना चाहते. लाखों तो खाने के लिए इन पर ही भरोसा रखते हैं. ये सस्ता और महंगा दोनों तरह का खाना देते हैं. जो अकेले रहते हैं उन के लिए अपना खाना खुद बनाना एक मुश्किल काम है. अब सरकारी हठधर्मी की वजह से न काम करने वाले को नौकरी मिल रही है, न खाना खाने वाले को खाना मिल रहा है. यह हाल पूरे देश में है. मकान बनाने का काम भी रुक गया. दर्जियों का काम बंद हो गया क्योंकि सिलेसिलाए कपड़ों की बिक्री कम हो गई. ब्यूटीपार्लर बंद हैं, जहां लाखों लड़कियों को काम मिला हुआ था. अमीर घरों में काम करने वाली नौकरानियों का काम खत्म हो गया.
बसअड्डे बंद हैं. लोकल ट्रेनें बंद हैं. मैट्रो ट्रेनें बंद हैं. इन के इर्दगिर्द सामान बेचने वालों की दुकानें भी बंद हैं और इन में वे लोेग काम पा जाते हैं जिन के पास खास हुनर नहीं होता था. ये सब बीमार नहीं बेकार हो गए हैं और गांवों में अब जैसेतैसे टाइम बिता रहे हैं.
दिक्कत यह है कि नरेंद्र मोदी से ले कर पास के सरकारी दफ्तर के चपरासी तक सब की सोच है कि अपनी सुध लो. नेताओं को कुरसियों की पड़ी है, चपरासियों को ऊपरी कमाई की. ये जनता के फायदेनुकसान को अपने फायदेनुकसान से आंकते हैं. ये सब अच्छे घरों में पैदा हुए और सरकारी दया पर फलफूल कर मनमानी करने के आदी हो चुके हैं. इन्हें आम जनता के दुखदर्द का जरा सा भी खयाल नहीं है. ये गरीबों की सुध लेने को तैयार नहीं हैं. इन के फैसले बकबक करने वाले होते हैं, नारों की तरह होते हैं और 100 में से 95 खराब और गलत होते हैं. अगर देश चल रहा है तो उन लोगों की वजह से जो सरकार की परवाह किए बिना काम किए जा रहे हैं, जो कानून नहीं मानते, जो सड़कों पर घर बना सकते हैं, सड़कों पर व्यापार कर सकते हैं.
आज अगर भुखमरी नहीं है तो उन किसानों की वजह से जो बिना सरकार के सहारे काम कर रहे हैं. उन कारीगरों की वजह से जो छोटेमोटे कारखानों में काम कर रहे हैं. आज देश गरीबों की मेहनत पर चल रहा है, अमीरों की सूझबूझ और सरकार के फैसलों पर नहीं.