आज से तकरीबन 600 साल पहले कबीरदास ने अपने एक दोहे में कहा था :
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार,
याते तो चाकी भली पीस खाए संसार.
जब विज्ञान का आविष्कार नहीं हुआ था, तब कबीर ने मूर्तिपूजा करने वाले अंधभक्तों को चेताया था कि पत्थरों की मूर्ति पूजने से कभी भगवान नहीं मिलता. ऐसी मूर्तियों से तो पत्थर से बनी चक्की ज्यादा उपयोगी है, जिस में पीसा गया आटा लोगों के पेट भरने के काम आता है.
अफसोस मगर आज की सभ्य, शिक्षित और वैज्ञानिक सोचसमझ वाली पीढ़ी भी कबीर की इन बातों को मानने तैयार नहीं है.
दरअसल, जब हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान की दुहाई देने वाले सरकार के जिम्मेदार मंत्री देश में जगहजगह ऊंचीऊंची मूर्तियां बनवाने और मंदिरमसजिद के निर्माण को ही देश का विकास मानते हों, वहां जनता का ऐसा अनुसरण करना गलत भी नहीं है. जब देश के वैज्ञानिक चंद्रयान की कामयाबी के लिए मंदिरों में हवनपूजन करते हों, जहां राफेल विमान पर नीबू लटका कर नारियल फोड़े जाते हों, वहां जनता का अंधविश्वासी होना लाजिमी है.
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भारत जैसे विकासशील देश में अंधविश्वास की जड़ों में मठा डालने का काम पंडेपुजारियों द्वारा बखूबी किया जा रहा है,क्योंकि उन की रोजीरोटी बिना मेहनत के इसी तरह के पाखंडी कामों के दम पर चल रही है.
हमारे देश में गरीबी के हालात ये हैं कि आबादी का बड़ा तबका दो वक्त की रोटी मुश्किल से जुटा पाता है, लेकिन पंडेपुजारियों द्वारा धर्म का डर दिखा कर धार्मिक आडंबरों के लिए लोगों को पैसे खर्च करने मजबूर किया जाता है. दुर्गा पूजा और गणेश उत्सव पर देश के गलीमहल्ले में मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. 9-10 दिन चलने वाले इन उत्सवों पर कई लाख रुपए तक लुटाए जाते हैं. 10,000 रुपए से ले कर 50,000 रुपए की लागत इन मूर्तियों के निर्माण में आती है. 10 दिन बाद उन्हीं मूर्तियों को नदीतालाबों में बहा दिया जाता है.