दुनिया में कोरोना वायरस संक्रमण फैलने के बाद लोगों में अवसाद की स्थिति अपनी चरम पर देखी जा रही है. दुनिया भर में त्रस्त, भयभीत होकर आत्महत्या का दौर जारी है. हमारे देश में भी और छत्तीसगढ़ में भी. हाल ही में छत्तीसगढ़ के एम्स हॉस्पिटल में जहां कोरोना से ग्रस्त एक शख्स का इलाज जारी था. उसने उपरी मंजिल से कूदकर अपनी जान दे दी. यह एक वाकया बताता है कि कोरोना पेशेंट किस तरह का व्यवहार कर रहे हैं. उन्हें कैसा सहानुभूति पूर्ण व्यवहार मिलना चाहिए.
आज हम इस आलेख में यही बता रहे हैं कि किस तरह लोग आत्महत्या कर रहे हैं. और बचाव के क्या उपाय हो सकते हैं-
पहला मामला- कोरोना के मरीज ने एक दिन अचानक घर में पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली. घटना छत्तीसगढ़ के मुंगेली शहर में घटित हुई.
दूसरा मामला- छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में एक महिला ने विष खाकर आत्महत्या कर ली. वह चिट्ठी लिख गई की इसका कोई दोषी नहीं है. बताया गया कि वह कोरोना संक्रमण से भयभीत थी और उसे जिंदगी निसार लग रही थी.
तीसरा मामला- दुनिया में फैलते कोरोना संक्रमण से भयभीत होकर एक डॉक्टर ने अंबिकापुर में आत्महत्या कर ली. तथ्य सामने आए की वह कोरोना संक्रमण से अवसाद ग्रस्त हो गई थी और जिंदगी का उसे अब कोई मायने नहीं लग रहा था.
फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के बाद देश में आए दिन यह सुनने में आ रहा है कि फलां ने आत्महत्या कर ली. आखिर इस आत्महत्या करने का मनोविज्ञान आदमी की मानसिक बुनावट क्या है? इस पर गौर करना अति आवश्यक है.हालांकि आत्महत्या एक अवसाद का क्षण होता है जिससे अगर आप ऊबर गए तो सब कुछ ठीक हो गया अन्यथा इहलीला समाप्त.मगर इन दिनों कोरोना वायरस के संक्रमण काल के पश्चात आत्महत्याओं के दौर में एक बड़ी वृद्धि देखी जा रही है आए दिन यह समाचार आ रहे हैं कि कोरोना के कारण अवसाद में आकर अथवा भयभीत होकर फलां ने आत्महत्या कर ली. हाल ही में छत्तीसगढ़ के एम्स में कोरोना संक्रमित व्यक्ति ने उपरी मंजिल से नीचे कूदकर आत्महत्या कर ली. ऐसे ही घटनाओं के संदर्भ में कहा जा सकता है कि दरअसल यह जल्दी में उठाए कदम होते हैं.अगर ऐसी सोच के लोगों को सही समय पर किसी का साथ और संबल मिल जाए तो वह अवसाद की परिस्थितियों से निकल सकता है. आज इस आलेख में हम इन्हीं विसंगतियों पर चर्चा कर रहे हैं.
छत्तीसगढ़ के आईपीएस वर्तमान में सरगुजा के पुलिस महानिरीक्षक रतनलाल डांगी कहते हैं -कोरोना संक्रमित लोगों का आत्महत्या जैसा कदम उठाना बेहद चिंता का सबब है. इसके लिए आवश्यकता है की हम सब ऐसे अवसाद ग्रस्त लोगों का हौसला बढ़ाएं.
देश व प्रदेश मे कोरोना संक्रमित लोगों के द्वारा आत्महत्या करने की खबरें आज नेशनल मीडिया में सुर्खियां बन रही हैं.आत्महत्या करने वाले युवक जरा सोचें कि जिस वायरस जनित बिमारी में 90% रिकवरी रेट के बावजूद आपको अपनी जीवनलीला समाप्त करने जैसे कदम उठाने की क्या आवश्यकता है.
रतनलाल डांगी कहते हैं-हम सबकी जिम्मेदारी है कि ऐसी घटनाओं को रोके. इसमें सबसे बड़ी है भूमिका परिवार,मित्र,पड़ौसी, डॉक्टर और समाज की है. और यही नहीं रतनलाल डांगी सोशल मीडिया के माध्यम से भी जन जागरूकता अभियान चला रहे हैं जिसे अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है.
डॉक्टर गुलाब राय पंजवानी बताते हैं-
संक्रमित व्यक्ति का मनोबल बढ़ाना परिवार का दायित्व है. अगर परिवार ऐसे समय में संबल बन जाए तो कोई भी आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम नहीं उठाएगा.
अधिवक्ता बी के शुक्ला के अनुसार ऐसे अवसाद ग्रस्त व्यक्ति के साथ सहानुभूति पूर्वक चर्चा करके उसके अपने बल को बढ़ाना चाहिए कभी भी किसी भी प्रकार का कटाक्ष नहीं करना चाहिए.उसको हिम्मत दे कि यह ऐसी बीमारी है जिसमें कुछ समय के परहेज से बिल्कुल ठीक हो जाते है.
डॉक्टर उत्पल अग्रवाल के अनुसार जब किसी कोरोना संक्रमित को अस्पताल में भर्ती कराया गया हो तो परिजनों को चाहिए कि समय समय पर उससे मोबाइल पर विडिओ,चैटिंग से सम्पर्क बनाए रखे.उसका मनोबल बढ़ाएं.
आईपीएस रतनलाल डांगी के शब्दों में कोरोना संक्रमित मरीजों के साथ आसपास के लोगों को भी उस परिवार व संक्रमित व्यक्ति के प्रति सहानुभूति दिखानी चाहिए,किसी प्रकार का सामाजिक बहिष्कार जैसी चीजें न बातचीत मे आए और न ही अपने व्यवहार मे लाएं।भौतिक दूरी रखें न कि सामाजिक दूरी.
जैसे ही मित्रों को जानकारी मिले उनकों भी अपने मित्र से बातचीत करना चाहिए उसे अकेलापन महसूस नहीं होना चाहिए. यही नही अस्पताल मे यदि रखा गया हो तो संक्रमित व्यक्ति की काउंसलिंग की जानी चाहिए.
कोरोना एक सामान्य संक्रमण
कुल मिलाकर सच्चाई यह है कि कोरोना वायरस बड़ी अन्य बीमारियों की अपेक्षा एक संक्रमणकारी बीमारी है जो चर्चा का बयास बनी हुई है.जबकि सच्चाई यह है कि कुछ सामान्य बातों को ध्यान में रखकर हम इससे आसानी से बच सकते हैं दिन में हाथ धोना फिजिकल डिस्ट्रेसिंग आदि है और अगर यह संक्रमण हो भी जाता है तो अब यह बहुत हद तक काबू में आने वाला संक्रमण है. ऐसे में भला करके आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाना नादानी ही कही जा सकती है. यहां यह भी तथ्य सामने आए हैं कि शासकीय हॉस्पिटल में डॉक्टर सुबह नर्सिंग स्टाफ का व्यवहार करोना पेशेंट के साथ मानवीय नहीं होता. कई जगहों पर तो डाक्टर और स्टाफ हाथ खड़ा कर लेता है और अच्छा व्यवहार नहीं करता. मगर यह बहुत ही रेयर है हमारे देश और दुनिया में लगातार यह बात सामने आई है कि मेडिकल स्टाफ कोरोना वायरस के खिलाफ जंग में अपनी आहुति दे रहा है और लोगों का इलाज कर रहा है.
ऐसे में यह कहा जा सकता है कि डॉक्टर व स्टाफ का बर्ताव भी नम्र,शालीन व आत्मीय होने से व्यक्ति को संबल मिलता है. हॉस्पिटल का माहौल अगर बेहतर है तो व्यक्ति को आत्मशक्ति की अनुभूति होती है. सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है कि ऐसे लोगों को चाहे वो घर में हो या अस्पताल मे ऐसे व्यक्ति को व्यस्त रखा जाए.जिससे उसके दिमाग मे निराशाजनक विचार न आ पाएं.
प्रतिदिन स्वस्थ होने वालों की जानकारी साझा करने से भी मानसिक रूप से ताकत मिलती है और मनोबल बढ़ता है. इसलिए यहां पर पुलिस अधिकारी रतनलाल डांगी के यह शब्द महत्व रखते हैं कि हमारे छोटे छोटे प्रयास भी कई जानें बचा सकता है इसलिए हम अपने आसपास के लोगों के प्रति संवेदनशील रहें और स्वयं भी जागरूक रह कर यह काम अब अपरिहार्य रूप से करें.
कहते हैं जब इंसान जिंदगी से हताश और हर ओर से निराश हो जाता है तो वो मौत को गले लगाने की सोचने लगता है. सिया कक्कड़ ने कम उम्र में शोहरत और दौलत कमाने की उन ऊंचाइयों को छू लिया था, जहां तक कम लोग ही पहुंच पाते हैं.
दिल्ली के गीता कालोनी इलाके की रहने वाली 16 साल की सिया कक्कड़ ने 24 जून, 2020 को अपने घर में फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली. सिया कक्कड़ वह लड़की थी, जिस ने कम उम्र में टिकटौक के कारण न सिर्फ शोहरत बटोरी थी बल्कि हर महीने कम से कम एकडेढ़ लाख रुपए कमा लेती थी.
सिया कक्कड़ ने जिस दिन खुदकुशी की उस से एक दिन पहले ही 23 जून को टिकटौक पर एक वीडियो अपलोड किया था, जिस के बाद परिजनों ने देखा कि वह बेहद खुश नजर आ रही है. उसी रात को सिया की अपने मैनेजर अर्जुन सरीन से भी एक गाने के सिलसिले में बात हुई थी. उस समय वह अच्छे मूड में और एकदम नौर्मल थी. अर्जुन को भी समझ नहीं आया कि आखिर क्या हुआ, जिस की वजह से सिया ने आत्मघाती कदम उठाया.
सिया ने 20 घंटे पहले ही इंस्टाग्राम पर टिकटौक के अपने डांस की वीडियो स्टोरी पोस्ट की थी. इंस्टाग्राम पर उस ने जो स्टोरी अपलोड की थी, उस में सिया ने टिकटौक के लिए फेमस पंजाबी रैप सिंगर बोहेमिया के गाने पर अपने डांस का वीडियो बनाया था. सिया की उस पोस्ट को देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वह किसी तनाव या परेशानी से जूझ रही थी.
सिया कक्कड़ ने मरने से पहले कोई सुसाइड नोट नहीं छोड़ा था, इसलिए उस की खुदकुशी की जांच करने वाली प्रीत विहार थाने की पुलिस को तत्काल उस की आत्महत्या के कारणों का पता नहीं चल सका.
पोस्टमार्टम रिपोर्ट में सिया के शरीर पर किसी तरह की भी चोट के निशान नहीं पाए गए और यह भी साफ हो गया कि उस की मौत गले में पड़े फंदे के कारण दम घुटने से ही हुई. हालांकि पुलिस ने सिया के कमरे से उस का मोबाइल, लैपटौप और कुछ दस्तावेज जांच के लिए कब्जे में जरूर लिए लेकिन उस से कोई ज्यादा मदद नहीं मिल सकी.
टिकटौक वीडियो से सिया ने सोशल मीडिया पर धूम मचा रखी थी. लोग उसे काफी पसंद करते थे. वह करीब 3 साल से वीडियो बना कर टिकटौक पर अपलोड करती थी और लाखों रुपए कमा रही थी. इंस्टाग्राम पर उसे 91 हजार लोग फौलो करते थे. टिकटौक पर सिया के 1.1 मिलियन फौलोअर्स थे. टिकटौक व इंस्टाग्राम के अलावा सिया, स्नैपचैट और यूट्यूब पर भी सक्रिय थी.
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी था कि आखिर सिया कक्कड़ ने खुदकुशी क्यों की? पुलिस ने इस मामले के हर बिंदु पर गहराई से पड़ताल की तो लगा कि लौकडाउन की वजह से कुछ महीनों से घर में थी और पिछले कुछ दिन से भविष्य को ले कर डिप्रेशन में थी.
लेकिन इतनी कम उम्र में शोहरत और पैसा कमाने वाली सिया इस तरह दुनिया छोड़ जाएगी, किसी ने सोचा भी नहीं था. सिया को जानने वाले उस के दोस्तों का कहना है कि अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद से सिया काफी उदास रहने लगी थी.
परिवार वालों को भी उस के डिप्रेशन में होने के बारे में पता चल गया था. क्योंकि उस के दादा और पिता पेशे से डाक्टर हैं, इसलिए सिया के डिप्रेशन को भांपना उन के लिए मुश्किल नहीं था. लेकिन उन्हें इस बात का एहसास बिलकुल भी नहीं था कि सिया डिप्रेशन के चलते इतना बड़ा कदम उठा लेगी.
दरअसल अब तक जो तथ्य सामने आए हैं उस के मुताबिक सिया कक्कड़ भारत में टिकटौक पर बैन लगने के बाद से ज्यादा डिप्रेशन में थी, क्योंकि टिकटौक के जरिए पैसा कमाना और कैरियर बनाने को उस ने अपना लक्ष्य बना लिया था. अचानक हुए बैन से उस के मन में अपने भविष्य को ले कर इतना अवसाद भर गया कि उस ने मौत को गले लगा लिया.
यहां यह बताना जरूरी है कि भारत और चीन के बीच लगातार चल रहे सीमा विवाद और सैन्य झड़प के बाद भारत सरकार ने टिकटौक समेत 59 चाइनीज ऐप को भारत में प्रतिबंधित कर दिया था. लेकिन इस में सब से ज्यादा लोकप्रिय टिकटौक ऐप था, जो न सिर्फ इस के यूजर्स को शोहरत दिलाता था बल्कि उन की कमाई का भी जरिया बन गया था.
सिया कक्कड़ की तरह ही कुछ रोज बाद मेरठ के पल्लवपुरम स्थित ग्रीन पार्क में रहने वाली टिकटौक की एक और स्टार संध्या चौहान ने डिप्रेशन के कारण फांसी लगा कर अपनी जान दे दी. एक पुलिस सबइंस्पेक्टर की 22 साल की बेटी संध्या चौहान दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ती थी. लौकडाउन होने की वजह से वह अपने घर आई हुई थी, उस ने 6 जुलाई, 2020 को खुदकुशी का कदम उठाया.
संध्या के पास से भी पुलिस को सुसाइड नोट नहीं मिला. लेकिन परिजनों ने जो बताया, उस के मुताबिक संध्या पिछले 2-3 महीने से डिप्रेशन में थी और उदास रहती थी. पुलिस ने संध्या का फोन जब्त करने के साथ उस के टिकटौक एकाउंट की जो छानबीन की, उस से इस बात की संभावना ज्यादा है कि संध्या अचानक भारत में टिकटौक बैन होने से अपसेट थी.
टिकटौक का बैन होना उन कलाकारों के लिए बड़ा झटका साबित हुआ जिन्होंने इसे अपनी कमाई और कैरियर का जरिया बनाने का मन बना लिया था. ऐसे में अपना सपना टूटता देख उन्हें सदमा लगा.
सिया कक्कड़ हो या संध्या चौहान, ऐसी तमाम किशोरियां जो टिकटौक पर वीडियो अपलोड कर के शोहरत और पैसा कमाने की हसरत रखती थीं, उन के लिए टिकटौक पर बैन मानो किसी हसीन सपने के टूट जाने जैसा था. इसलिए टिकटौक के दूसरे साइड इफैक्ट को जानने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर टिकटौक क्या बला है जो युवा पीढ़ी इस पर बैन लगने के बाद अवसाद में घिरती जा रही है.
टिकटौक आखिर क्या है?
टिकटौक एक सोशल मीडिया ऐप्लिकेशन है, जिस के जरिए स्मार्टफोन यूजर छोटेछोटे वीडियो (15 सेकेंड तक के) बना और शेयर कर सकते हैं. इस के स्वामित्व वाली कंपनी बाइट डांस है जिस ने सितंबर, 2016 में चीन में टिकटौक लौंच किया था. साल 2018 में टिकटौक की लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ी और अक्तूबर 2018 में यह अमरीका में सब से ज्यादा डाउनलोड किया जाने वाला ऐप बन गया.
गूगल प्ले स्टोर पर टिकटौक का परिचय शार्ट वीडियो फौर यू (आप के लिए छोटे वीडियो) कह कर दिया गया है.
टिकटौक मोबाइल से छोटेछोटे वीडियो बनाने में बनावटीपन नहीं है, ये रियल है और इस की कोई सीमाएं नहीं हैं. चाहे आप सुबह ब्रश कर रहे हों या नाश्ता बना रहे हों, आप जो भी कर रहे हों, जहां भी हों, टिकटौक पर आइए और 15 सेकेंड में दुनिया को अपनी कहानी बताइए.
टिकटौक के साथ आप की जिंदगी और मजेदार हो जाती है. आप जिंदगी का हर पल जीते हैं और हर वक्त कुछ नया तलाशते हैं. आप अपने वीडियो को स्पेशल इफैक्ट फिल्टर, ब्यूटी इफैक्ट, मजेदार इमोजी स्टिकर और म्यूजिक के साथ एक नया रंग दे सकते हैं.
शोहरत और कमाई का जरिया बन गया टिकटौक
भारत में टिकटौक के डाउनलोड का आंकड़ा 10 करोड़ से ज्यादा है. एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार इसे हर महीने लगभग 2 करोड़ भारतीय इस्तेमाल करते हैं. भारतीयों में टिकटौक की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 80 लाख लोगों ने गूगल प्ले स्टोर पर इस का रिव्यू किया है.
दिलचस्प बात यह है कि टिकटौक इस्तेमाल करने वालों में एक बड़ी संख्या गांवों और छोटे शहरों के लोगों की है. इस से भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह भी है कि टिकटौक की दीवानगी 7-8 साल की उम्र के छोटेछोटे बच्चों तक के सिर चढ़ कर बोल रही थी.
इतना ही नहीं, लोकप्रियता के कारण अब यह इतना पसंद किया जाने लगा था कि श्रद्धा कपूर, टाइगर श्रौफ और नेहा कक्कड़ जैसे अधिकांश बौलीवुड सितारे भी टिकटौक पर आ गए थे.
अब जरा जान लेते हैं कि टिकटौक की क्या खास बातें हैं. टिकटौक से वीडियो बनाते वक्त आप अपनी आवाज का इस्तेमाल नहीं कर सकते. आप को लिप सिंक करना होता है. जहां फेसबुक और ट्विटर पर ब्लू टिक पाने यानी अपना अकाउंट वेरिफाई कराने के लिए आम लोगों को खासी मशक्कत करनी पड़ती है, वहीं टिकटौक पर वेरिफाइड अकाउंट वाले यूजर्स की संख्या बहुत बड़ी है.
इस में ब्लू टिक नहीं बल्कि औरेंज टिक मिलता है. जिन लोगों को औरेंज टिक मिलता है, उन के अकाउंट में पौपुलर क्रिएटर लिखा दिखाई पड़ता है. साथ ही अकाउंट देखने से यह भी पता चलता है कि यूजर को कितने दिल मिले हैं, यानी अब तक कितने लोगों ने उसके वीडियो पसंद किए हैं.
गांव से ले कर खेत खलिहान तक पहुंच
टिकटौक की लोकप्रियता का अहम कारण यह था कि गांव से ले कर छोटे शहरों में रहने वाले प्रतिभाशाली गरीब और मध्यमवर्गीय लोगों के लिए यह प्लेटफौर्म बौलीवुड के समानांतर बन कर उभरा था जो उन्हें न केवल शोहरत दिलाता था, बल्कि उन की कमाई का जरिया भी बन गया था.
गांव, कस्बे से ले कर छोटे शहरों तक के लोग टिकटौक के चलते फेमस ही नहीं हुए, बल्कि लाखों रुपए महीना कमाने भी लगे थे. उन लोगों के लिए टिकटौक अपनी प्रतिभा दिखाने को बड़ा जरिया बन चुका था, जो सिनेमा के सुनहरे परदे पर अपना हुनर दिखाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें मौका नहीं मिलता.
मसलन अगर कोई अच्छी कौमेडी करता है या अच्छा डांस करता है तो उस के लिए टिकटौक अपनी प्रतिभा को दिखाने का अच्छा मंच था. ऐसे बहुत से प्रतिभाशाली लोग इस के जरिए खूब पैसे भी कमा रहे थे.
हरियाणा जैसे छोटे राज्य के रहने वाले एक ग्रामीण मजदूर साहिल के टिकटौक पर 3,03,200 फालोअर थे. उसे अपने वीडियो के जरिए हर महीने 3,000-5,000 रुपए तक मिल जाते थे, जो साहिल के लिए बड़ी रकम थी. लेकिन साहिल इस कोशिश में था कि उन का अकाउंट वेरिफाई हो जाए और उस के फौलोअर्स 10 लाख तक पहुंच जाएं. लेकिन इसी दौरान भारत सरकार ने टिकटौक पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया.
लेकिन सिया कक्कड़ और संध्या चौहान की तरह हर कोई डिप्रेशन में नहीं गया. कुछ ऐसे भी स्टार हैं जिन्होंने टिकटौक से बतौर कलाकार अपनी पहचान बनाने के बाद अपनी तरक्की के लिए दूसरे दरवाजे तलाश कर लिए. समीक्षा सूद भी एक ऐसा ही नाम है.
प्रोफैशनल मौडल और टीवी एक्ट्रैस बन चुकी समीक्षा सूद टिकटौक पर बेहतरीन वीडियो क्लिप और कौमेडी के जरिए अपनी खास पहचान रखती थी. उन्होंने टीवी सीरियल बाल वीर में अपने एक्टिंग के जौहर दिखाए हैं. टिकटौक पर उन के कुल सवा करोड़ फौलोअर्स हैं.
जबकि इंस्टाग्राम पर उन के फौलोअर्स की संख्या 0.2 करोड़ है. वह हर महीने 8 से 10 लाख रुपए भी कमाती थीं. रानो निक नाम से टिकटौक पर पहचान बनाने वाली समीक्षा आज एक जानीमानी मौडल, फैशन ब्लौगर, यूट्यूबर और टिकटौक स्टार हैं.
इन दिनों वह कई टेलीविजन धारावाहिकों और विज्ञापनों में काम कर रही हैं. लेकिन समीक्षा सूद टिकटौक के बैन होने से निराश नहीं हैं क्योंकि उन्होंने पहचान बनाने के अब बहुत से रास्ते तलाश लिए हैं.
दरअसल, टिकटौक ऐसा प्लेटफौर्म है, जहां कई आम यूजर्स ने बौलीवुड सेलेब्स से भी ज्यादा फैन फौलोइंग बना रखी है. कई ऐसे यूजर्स हैं, जिन के फौलोअर्स करोड़ों में हैं और उन के लाइक्स की संख्या अरबों में पहुंच गई है. वे हर माह लाखों रुपए कमाते थे.
ऐसे में उन के लिए टिकटौक का भारत में बैन हो जाना किसी सदमे से कम नहीं है. लेकिन टिकटौक की इन सेलिब्रिटीज को अब इतनी पहचान मिल चुकी है कि बतौर कलाकार खुद को स्थापित करने में उन्हें ज्यादा मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा.
सिर्फ फायदे नहीं, खतरे भी हैं
भले ही टिकटौक पर अब प्रतिबंध लगा हो लेकिन अश्लील वीडियो के कारण टिकटौक पर बैन लगाने की मांग कई बार उठ चुकी थी. अलगअलग राज्यों के उच्च न्यायालयों में वीडियो ऐप टिकटौक पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जा चुकी थी. इस ऐप पर बेरोकटोक अश्लील विषयवस्तु अपलोड किए जाने से ले कर टिकटौक को अपराध के बढ़ावे की वजह बताया गया.
ऐसा नहीं है कि टिकटौक में सब अच्छा ही है इस के कुछ दूसरे नुकसानदायक पहलू भी हैं.
गूगल प्ले स्टोर पर कहा गया है कि इसे 13 साल से ज्यादा उम्र के लोग ही इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन इस का पालन होता नहीं दिखा. भारत समेत दुनिया के तमाम देशों में टिकटौक के जरिए जो वीडियो बनाए जाते हैं, उस में एक बड़ी संख्या 13 साल से कम उम्र के बच्चों की है.
इस के अलावा प्राइवेसी के लिहाज से भी टिकटौक खतरों से खाली नहीं है. क्योंकि इस में सिर्फ 2 प्राइवेसी सेटिंग की जा सकती है- पब्लिक और ओनली. यानी आप वीडियो देखने वालों में कोई फिल्टर नहीं लगा सकते. या तो आप के वीडियो सिर्फ आप देख सकेंगे या फिर हर वो शख्स जिस के पास इंटरनेट है.
अगर कोई यूजर अपना टिकटौक अकाउंट डिलीट करना चाहता है तो वह खुद ऐसा नहीं कर सकता. इस के लिए उसे टिकटौक से रिक्वेस्ट करनी पड़ती है. चूंकि यह पूरी तरह सार्वजनिक है, इसलिए कोई भी किसी को फौलो कर सकता है, मैसेज कर सकता है.
ऐसे में आपराधिक या असामाजिक प्रवृत्ति के लोग छोटी उम्र के बच्चे या किशोरों को आसानी से गुमराह कर सकते हैं और आपत्तिजनक कमेंट कर सकते हैं. कई टिकटौक अकाउंट अडल्ट कंटेंट से भरे पड़े हैं. चूंकि इन में कोई फिल्टर नहीं है, इसलिए हर टिकटौक यूजर इन्हें देख सकता है, यहां तक कि बच्चे भी.
टिकटौक जैसे चीनी ऐप्स के साथ सब से बड़ी दिक्कत यह है कि इस में किसी कंटेंट के लिए रिपोर्ट या फ्लैग का कोई विकल्प नहीं है. इसलिए सुरक्षा और निजता के लिहाज से यह खतरनाक हो सकता है.
टिकटौक में दूसरी बड़ी समस्या साइबर बुलिंग की है. साइबर बुलिंग यानी इंटरनेट पर लोगों का मजाक उड़ाना, उन्हें नीचा दिखाना, बुराभला कहना और ट्रोल करना. इसी वजह से टिकटौक पर कोई काबू नहीं था.
जुलाई, 2018 में इंडोनेशिया ने इसीलिए टिकटौक पर बैन लगा दिया था, साथ ही वहां किशोरों की एक बड़ी संख्या इस का इस्तेमाल पोर्न सामग्री अपलोड और शेयर करने के लिए कर रही थी. बाद में कुछ बदलावों और शर्तों के बाद इसे दोबारा लाया गया था.
ट्रोलिंग के अलावा टिकटौक पर पिछले कुछ समय से फेक न्यूज के वीडियो भी तेजी से फैल रहे थे, जिसे देखते हुए टिकटौक देश के लिए खतरा बन गया था. इस के अलावा यह ऐप हमारे डाटा की सुरक्षा के लिए भी खतरा बन गया था.
मसलन, जब हम टिकटौक या उस जैसा कोई ऐप डाउनलोड करते हैं तो प्राइवेसी की शर्तों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते. बस, यस और अलाउ पर टिक करते चले जाते हैं. हम अपनी फोटो गैलरी, लोकेशन और कौंटैक्ट नंबर, इन सब का एक्सेस दे देते हैं. इस के बाद हमारा डेटा कहां जा रहा, इस का क्या इस्तेमाल हो रहा है, हमें कुछ पता नहीं चलता.
यह बात अब जगजाहिर है कि आजकल ज्यादातर ऐप्स आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से काम करते हैं. ऐसे में अगर आप इन्हें एक बार भी इस्तेमाल करते हैं तो ये आप से जुड़ी कई जानकारियां हमेशा के लिए अपने पास रख लेते हैं, इसलिए इन्हें ले कर ज्यादा सतर्क होने की जरूरत है.
जब अपराध की वजह बना
टिकटौक अपराधों की वजह बना जैसे आरोपों में सच्चाई भी है, क्योंकि टिकटौक कई तरह के अपराध की कुछ घटनाओं की वजह बना है. जरूरी नहीं कि टिकटौक से सभी को शोहरत व दौलत ही मिली हो, कुछ लोगों को इस के कारण जान भी गंवानी पड़ी.
दिसंबर 2019 में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के टिकरापारा थाना क्षेत्र के अंतर्गत गोदावरी नगर स्थित एक निजी हौस्टल में हुई 2 बहनों की हत्या इसी का परिणाम थी.
इसी शहर की एक लड़की मंजू सिदार जो टिकटौक पर वीडियो बनाने के कारण चर्चित हुई थी, उसे शहर के राजगढ़ में रहने वाले अपने एक फैन शोएब अहमद अंसारी उर्फ सैफ से इश्क हो गया. 21 मई, 2019 को दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली. लेकिन यह शादी मंजू के परिवार को मंजूर नहीं थी. इस के बाद दोनों के बीच अलगाव हो गया.
लेकिन बात तब बिगड़ी जब चंद रोज बाद ही मंजू ने एक दूसरे युवक के साथ टिकटौक में वीडियो बना कर फेसबुक पर अपलोड किया. इस वीडियो के कारण दोस्तों और परिचितों में हुई अपनी बदनामी के कारण सैफ बदले की आग में जलने लगा. उस ने अपने 2 दोस्तों को पैसे का लालच दे कर मंजू की हत्या करने की योजना बनाई.
सैफ ने मंजू को काल कर मिलने की इच्छा जताई, फिर गुलाम के साथ हौस्टल के कमरे में जा कर करीब घंटे भर बातचीत करता रहा. इस दौरान मंजू ने सैफ के साथ रहने से साफ इनकार कर दिया. तब सैफ ने गुस्से में रोटी पकाने वाले लोहे के तवे से मंजू के सिर पर ताबड़तोड़ वार कर दिए.
मंजू को बचाने के लिए उस की बहन मनीषा सिदार पर भी सैफ के साथी काली ने उसी तवे से हमला कर दिया. फिर आरोपितों ने गंभीर रूप से घायल बहनों का गला दबा कर हत्या कर दी. बाद में पुलिस ने इस हत्याकांड का परदाफाश करते हुए तीनों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया था.
इसी तरह की एक घटना गाजियाबाद की है. दरअसल, टिकटौक पर चंद वीडियो डाल कर खुद को स्टार समझ लेने वाले कम उम्र के नौजवान इस ऐप के कारण खुद को फिल्मी हीरो और फिल्मी दुनिया का स्टार मानने की भूल करने लगते हैं.
फिल्मी प्रेमकथाओं की तरह वे कभीकभी प्यार की दीवानगी में ऐसी जिद पर उतर जाते हैं, जो न सिर्फ उन की तबाही का सबब बन जाती है बल्कि उस से दूसरों की जान भी चली जाती है.
मामला गाजियाबाद के टीला मोड़ थाना क्षेत्र का है, जहां 17 जून, 2020 को बीच सड़क पर एकतरफा प्यार में एक टिकटौक स्टार ने युवती को चाकू से गोद कर मौत के घाट उतार दिया. टिकटौक पर उस के चार लाख से अधिक फौलोअर्स थे.
घटनाक्रम कुछ यूं है कि टीला मोड़ थाना क्षेत्र के तुलसी निकेतन में बलदेव सिंह पत्नी और बेटी नैना (19) के साथ रहते थे. नैना 2019 में दिल्ली की सुंदर नगरी स्थित स्कूल से 12वीं पास कर नर्सिंग का प्रशिक्षण ले रही थी. 22 जून को उस की शादी थी. 17 जून, 2020 की रात करीब साढ़े 8 बजे नैना अपने मातापिता के साथ घर के पास ही दुकान से नया सिमकार्ड ले कर लौट रही थी.
रास्ते में मांबेटी फास्टफूड खाने के लिए रुक गईं. इसी दौरान पीछे से आया सुंदर नगरी, दिल्ली निवासी शेरखान उर्फ शेरू नैना को खींच कर एक दुकान के किनारे ले गया और चाकुओं से गोद कर उस की हत्या कर दी. नैना की मां मदद के लिए चिल्लाती रहीं लेकिन लोग तमाशबीन बने रहे.
बाद में पुलिस ने शेरखान को गिरफ्तार कर लिया. पता चला वह टिकटौक सेलिब्रिटी है. टिकटौक पर शेरखान के 4 लाख से अधिक फौलोअर्स हैं और वह टीम-02 जिंदा जहर के नाम से अपना यूट्यूब अकाउंट भी चलाता है. नैना भी टिकटौक पर थी, लेकिन शेरखान और नैना एकदूसरे को फौलो नहीं करते थे.
दोनों के बीच 2 साल पहले दोस्ती हुई. शेरखान का नैना के घर भी आनाजाना था. वह नैना से एकतरफा प्यार करने लगा था लेकिन नैना सिर्फ उसे अपना दोस्त मानती थी.
इस बीच नैना के परिवार ने उस की शादी तय कर दी, जो 22 जून को होनी थी. शेरखान को गवारा नहीं था कि नैना किसी और की हो जाए. इसलिए उसने नैना से मिल कर अनुरोध किया कि वह शादी तोड़ दे. लेकिन नैना ने इनकार कर दिया.
नैना को अपनी बनाने के धुन में पहले तो उस ने फेसबुक पर नैना की फोटो डाल कर उसे बदनाम करना चाहा, लेकिन जब इस से भी बात नहीं बनी तो उस ने अपने एक दोस्त के साथ मिल कर नैना की हत्या कर दी.
प्रेम अपराध भी
नैना और मंजू की हत्या महज उदाहरण भर हैं. अगर खोज करें तो टिकटौक के कारण बहुत से घर तबाह हो रहे थे. क्योंकि कहीं पर पत्नी के टिकटौक वीडियो बनाने के जुनून से पति तलाक दे रहा था, तो कहीं लड़कियों के इस जुनून से परिवार की बदनामी हो रही थी.
कुल मिला कर बच्चे हों या बूढ़े, आम हो या खास, पुलिस वाला या बस का चालक टिकटौक का नशा सभी के सिर चढ़ कर बोल रहा था.
कई राज्यों में महिला और युवा पुलिसकर्मियों को वरदी में टिकटौक वीडियो बना कर अपनी वरदी से हाथ धोना पडा. टिकटौक के जूनून में कुछ लोगों ने एडवेंचर वीडियो बनाने के चक्कर में कहीं अपनी तो कहीं दूसरे की जान तक दांव पर लगा दी.
अब जबकि सरकार ने टिकटौक को बैन कर दिया है तो ऐसे में इस के जरिए लाखों कमाने वाले लोग भी सरकार के फैसले के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन वे टिकटौक की तरह ही ऐसा कोई प्लेटफौर्म चाहते हैं, जहां उन के टैलेंट को मौके मिलते रहें, कमाई भी होती रहे और चीन की दखलअंदाजी भी न हो. ज्यादा चिंता सिर्फ उन लोगों को है, जिन की रोजीरोटी टिकटौक बन गया था.
लोगों का मानना है कि हमारे देश में टैलेंट भरा पड़ा है, लेकिन ऐसे लोगों को कोई प्लेटफौर्म तो मिले. टिकटौक ने ऐसे सभी लोगों को एक मंच दया था.
भारत में प्रतिबंधित किए जाने के बाद टिकटौक ऐप को सब से ज्यादा नुकसान हुआ है, इसलिए हो सकता है आने वाले दिनों में टिकटौक संचालित करने वाली बाइटडांस लिमिटेड चीन से ही अपना नाता तोड़ ले. क्योंकि कंपनी ने कहा है कि टिकटौक कारोबार के कारपोरेट ढांचे में परिवर्तन करने के बारे में सोचा जा रहा है.
जिस तरह से इस ऐप के मूलरूप से चीनी ओरिजिन को ले कर पूरे विश्व में इस के खिलाफ प्रतिबंध का माहौल बना है, उस के बाद टिकटौक के लिए एक नया प्रबंधन बोर्ड बनाने और चीन के बाहर ऐप के लिए एक अलग मुख्यालय स्थापित करने जैसे विकल्पों पर काम शुरू हो जाए. लेकिन फिलहाल तो यही सच है कि गरीबों के लिए सिनेमा का रूपहला परदा बन कर उन्हें शोहरत और कमाई देने वाला मंच उन से छिन गया है.
कोरोना वायरस संक्रमण काल में देश की शिक्षा व्यवस्था पर जो आघात लगा है उस पर राष्ट्रव्यापी चर्चा करना आवश्यक है. इधर नरेंद्र मोदी सरकार ने नई शिक्षा नीति लागू कर दी है जिसके विरोध के स्वर भी उठने लगे हैं. क्योंकि किसी भी समाज में शिक्षा देश की “शिक्षा नीति” ही भविष्य की नींव को मजबूत बनाती है.
मगर कोरोना वायरस के आगमन के साथ देश की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था तार तार हो गई है. देश के सत्ताधारी मुखिया और कार्यपालिका को यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर शिक्षा को बुलंद बनाए रखने की तोड़ क्या हो सकती है. और ऐसे में आज जब देश में नई शिक्षा नीति लाद दी गई है यह प्रसंग चर्चा का विषय है की कोरोना वायरस के इस समय में जब पहली प्राथमिकता लोगों की जिंदगी को बचाने की है लोगों को दो वक्त की रोटी मुहैया कराने की है. शिक्षा व्यवस्था के साथ किस तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं. और भगवाधारी हरावल दस्ता अपनी सोच को देश की युवा पीढ़ी के ऊपर लादने की षड्यंत्र पर अमल शुरू कर चुका है.आज चिंता का विषय है कि जब देश कोरोना के कारण त्राहि-त्राहि कर रहा है सत्ता में बैठी हुई नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार आहिस्ता से संपूर्ण शिक्षा नीति को ही बदल कर क्या देश को दुनिया के सबसे पीछे ले जाने की तैयारी कर रही है.
सबसे बड़ी बात यह है कि जिस शक्ति और ताकत के साथ शिक्षा नीति का विरोध विपक्ष कांग्रेस को करना चाहिए था वह नहीं कर पा रही . दूसरी तरफ आज 7 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी नई शिक्षा नीति पर देश को संबोधित करने जा रहे है. आज प्रधानमंत्री एक कॉन्क्लेव को संबोधित करेंगे. मानव संसाधन मंत्रालय का नाम बदल दिया गया है और शिक्षा विभाग के रूप में उसे जाना जाएगा. यानी अब वह समय आ गया है जब धीरे धीरे संपूर्ण व्यवस्था और संस्थाओं में आमूलचूल परिवर्तन होगा. यहां यह भी जानना जरूरी होगा कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी सरकार अपने पुराने संघ के एजेंट पर आंखें बंद कर आगे बढ़ रही है. और कोई भी विरोध उसे स्वीकार नहीं है. इधर यह भी तथ्य सामने आ चुके हैं कि झारखंड सरकार नई शिक्षा नीति को सिरे से नकार चुकी है. वहां के शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो ने ऐलान कर दिया है कि झारखंड में मोदी की शिक्षा नीति लागू नहीं होगी. अर्थात जहां-जहां भाजपा सरकारें नहीं है यथा पंजाब,राजस्थान, छत्तीसगढ़ ओडिशा आदि राज्यों में शिक्षा नीति का अश्वमेधी घोड़ा रोक दिया जाएगा?
शिक्षा की लॉक डाउन में बदहाली
एक तरफ नई शिक्षा नीति के तहत स्किल डेवलप ढोल पीटा जा रहा है दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि कोरोना काल मे विगत चार माह से यदाकदा मिली मामूली छूटों के साथ जारी लॉक डाउन शिक्षा प्रणाली के लिए घातक सिद्ध हुआ है. मार्च के अंतिम सप्ताह में लगे लॉक डाउन से लेकर अभी स्कूल कॉलेजों को किसी भी प्रकार की रियायत नही दी गई. इस बीच नए शैक्षणिक सत्र के प्रारंभ होने का समय भी आ गया है. परंतु अभी भी महाविद्यालयो में परीक्षाएं रुकी हुई है. परीक्षा लेने के सम्बंध में यू जी सी द्वारा जारी दिशा निर्देशों के बाद भी विश्वविद्यालय तय नही कर पा रहे कि इतनी बड़ी पंजीकृत विद्यार्थियों की परीक्षा कैसे व किस तरह ली जाए.
कुछ विश्वविद्यालयों द्वारा स्नातक प्रथम वर्ष में प्रवेश की अधिसूचना जारी कर आवेदन आमंत्रित किये जा रहे. परन्तु प्रवेश प्रक्रिया पूरी करके पढ़ाई कब शुरू की जाएगी इसके विषय मे कॉलेज व विश्वविद्यालय कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं है. कोरोना काल मे बन्द पड़े उच्च शिक्षण संस्थाओं में सभी तरह की परीक्षाएं स्थगित है. इन परीक्षाओं में विश्वविद्यालयीन प्रवेश परीक्षाएं भी सम्मिलित है. अलग अलग ग्रेड व प्रतिशत पाकर हाई स्कूल परीक्षा पास किये विद्यार्थीगण विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने सबको समान अवसर उपलब्ध कराने वाले प्रवेश परीक्षा में बैठने की तैयारी कर रहे थे. परंतु अब संक्रमण के भय से प्रवेश परीक्षा न आयोजित कर मेरिट के आधार पर प्रवेश देने की नीति पर विचार किया जा रहा.
इससे ऐसे प्रतिभाशाली विद्यार्थी जो आर्थिक सामाजिक स्वास्थ्यगत आदि कारणों से अच्छा ग्रेड या प्रतिशत नही ले प्राप्त कर सके वे अच्छे संस्थानों में मनमाफिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश पाने से वंचित रह जाएंगे. इससे उनका भविष्य की दशा व दिशा निर्धारण खटाई में पड़ता नजर आ रहा है. कमोबेश इसी हालात का सामना स्नातक करके मनचाहे स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में प्रवेश की चाहने वालों विद्यार्थियों को करना पड़ेगा.
स्नातक व स्नातकोत्तर अंतिम वर्ष के लिए जिस प्रकार की परीक्षा प्रणाली अपनाने की चर्चा की जा रही है प्रतियोगोगिता के स्तर को समाप्त करने वाला प्रतीत हो रहा है जो कि बेहद चिंताजनक है. दूसरी ओर स्कूल शिक्षा की स्थिति में अच्छी नही है.हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार कोरोना आपदा के आर्थिक परिणामों के कारण वर्तमान सत्र में वैश्विक स्तर पर करीब ढाई करोड़ बच्चों पर स्कूल नहीं लौटने खतरा उत्पन्न हो गया है. रिपोर्ट में बताया गया है कि कोरोना काल में शैक्षणिक संस्थानो के बन्द होने से विश्व की करीब 94 प्रतिशत छात्र आबादी प्रभावित हुई है. इस महामारी में वर्तमान शिक्षण प्रणाली में असमानता हो बढ़ा दिया है. कोरोना काल मे संपन्न वर्ग की तुलना में आर्थिक रुप कमजोर व संवेदनशील वर्ग के बच्चे शिक्षा से ज्यादा दूर हुए है. रिपोर्ट के अनुसार 2020 को दूसरी तिमाही में निम्न आय वाले देशों में करीब 86 प्रतिशत बच्चे स्कूलों से बाहर हो गए हैं वहीं उच्च आय वाले देशों में यह आंकड़ा मात्र 20 प्रतिशत ही है.
अभिनव प्रयास भी फ्लाप
यहां यह स्पष्ट है कि कोरोना वायरस के संक्रमण के बाद संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था की हालत बदतर हो गई है. हालांकि देश प्रदेश की सरकार प्रयास कर रही है की एजुकेशन की गंगा प्रवाहमान रहे. इसे हेतू सरकार ने ऑनलाइन पढ़ाई प्रारंभ करायी मगर धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि इसमें बहुतेरी खामियां हैं और एक विकासशील देश के लिए यह मुफीद नहीं है. क्योंकि यहां 90% छात्र तो ऐसे हैं जिनके पास मोबाइल ही नहीं है. इसी तरह सरकार यह प्रयास भी कर रही है कि ग्रामीण अंचल में गांव-गांव में लाउडस्पीकर के माध्यम से बच्चों की पढ़ाई जारी रहे. मगर यह भी एक सफल शिक्षण प्रयोग नहीं माना जा रहा है.
अतः विशाल आबादी वाले निम्न आय श्रेणी में आने वाले विकासशील हमारे देश की हालत का अंदाज़ा इस विजन में आसानी से लगाया जा सकता है. शिक्षाविद ऋषभदेव पांडेय के अनुसार विभिन्न राज्य सरकारे स्कूल शिक्षा को शुरू करने के लिए अभिनव प्रयास कर रही हैं. विभिन्न स्थानों पर ऑनलाइन कक्षाओं को प्रोत्साहित किया जा रहा है.छत्तीसगढ़ के सरगुजा बस्तर जैसे मोबाइल नेटवर्क विहीन अंदुरुनी पिछड़े क्षेत्रों ध्वनिविस्तार यंत्रों के माध्यम शिक्षण कार्य किया जा रहा है. जो कि अनुकरणीय पहल कही जा सकती है. परन्तु सरकार के उक्त प्रयासों को स्थानीय प्रशासन द्वरा कोरोना नियंत्रण के लिए बनाई गई रणनीतियां नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही हैं.
कोरोना काल मे स्थानीय प्रशासन द्वारा शासकीय शिक्षकों की ड्यूटी कोरेंनटाइन केंद्र सहित गांव गांव के चौक चौराहों पर लगा दी गई है.जो एक मजाक बनाकर पूरी शिक्षा व्यवस्था को चिड़ा रहा है. यही कारण है कि छत्तीसगढ़ प्रदेश में शिक्षण कार्यं के लिए मानव संशाधन की कमी साफ दिखाई दे रही है.
इसी तरह शिक्षाविद बीएल साहू के अनुसार कोरोना संक्रमण को रोकने के प्रयासों के बीच विद्यार्थियों के लिये ऐसे नीति अपनानी होगी जिससे उनके स्वास्थ्य के साथ साथ उनके भविष्य के साथ किसी भी प्रकार का समझौता न हो. सरकार को उच्च शिक्षण संस्थानों में स्नातक अंतिम वर्ष की स्तरहीन परीक्षाएं आयोजित करने के स्थान पर कोरोना वैक्सीन आने तक यथास्थिति बनाए रखते हुए प्रवेश परीक्षा की गुंजाइश बरकरार रखने पर विचार करना चाहिए. पुराने विद्यार्थियों को जोड़े रखते हुए स्कूल शिक्षा से जुड़ने हेतु नए विद्यार्थियों को आकर्षित करने के लिए कोरोना प्रोटोकाल का पालन सुनिश्चित कराते हुए शिक्षकों को उनके मूल कार्य करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए. शासन स्तर पर किये गए उपर्युक्त प्रयासों में क्रियान्वित होने पर ही हम कोरोना के शिक्षा प्रणाली पर पड़ रहे कुप्रभाव को कम करते हुए अशिक्षा के कारण उत्पन्न होने वाले सामाजिक समस्याओं को बढ़ाने से रोक सकते हैं.
42 साल की कबूतरी की आंखें धंसी हुई हैं. इतनी कम उम्र की शहरी महिलाएं जहां लकदक कपङों में फिटफाट दिखती हैं, वहीं कबूतरी की बदन की हड्डियां दिख रही हैं. वह रात में अच्छी तरह देख नहीं पाती. अभी हाल ही में सरकारी अस्पताल गई थी तो हाथगोङ पकङने पर डाक्टर देखने को राजी हुए थे. डाक्टर साहब ने बताया था कि उसे मोतियाबिंद है और औपरेशन करना होगा.
कबूतरी औपरेशन का मतलब समझती है, भले ही वह पढीलिखी नहीं है. वह घबरा गई.
वह बोलने लगी,”न न… बाबू, बरबेशन नै करवैभों. मरिये जैबे हो…” ( न न… साहब, औपरेशन नहीं कराऊंगी. मर ही जाऊंगी)
वह किसी के लाख समझाने पर नहीं मानती, क्योंकि हाल ही में उस के टोला में एक महिला सोनबरसी की मौत डिलीवरी के दौरान हो गई थी. इस से वह डरी हुई थी. सोनबरसी की डिलीवरी कराने बगल के एक गांव की दाई और एक झोला छाप डाक्टर आए थे. पैसा बनाने के लिए शरीर में फुजूल का पानी चढ़ा दिया था. इस से शरीर अचानक से फूला और फिर सोनबरसी की मौत हो गई.
कबूतरी के घर के पास ही उस के 3 बच्चे नंगधङंग खेल रहे थे. वे मिट्टी में लकङी के कोन से लकीर खिंचते और फिर उन्हें मिटाते रहते. पति बनवारी काम पर गया था. वह दिहाङी मजदूर है. एक दिन की दिहाङी ₹300 से घर के 5-6 लोगों का पेट चलना मुश्किल होता है, वह भी तब जब काम रोजाना मिलता नहीं. जब काम नहीं मिलता कई दिनों तक तो मन को तो समझा लिया जाता है पर पेट को कैसे समझाएं, वह तो भरी दोपहरी के बाद ही अकुलाने लगता है.
ऐसे में बनवारी और उस के टोले के 4-5 लोग चूहा पकङने खेतों की ओर निकल पकङते हैं. जिस के हिस्से में जितने चूहे आते हैं उस दिन इन की मौज रहती है. पुआल और फूस से बने घर के आगे चूल्हे में चूहा पकाया जाता है और बच्चे इंतजार कर रहे होते हैं. फिर सब नमक डाल कर पके चूहे खाते हैं. अभी बरसात का समय है और इन दिनों मुसहर समाज के लोग चूहे से अधिक जिंदा घोंघा खाते हैं.
गांवों में आमतौर पर आम, पपीते, अमरूद के पेङ लगे होते हैं पर क्या मजाल कि कोई तोङ ले. खेत का मालिक इन्हें देख कर दूर से ही हङकाने लग जाते हैं. मगर खेतों से चूहे पकङने पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं होता, क्योंकि चूहे खेत में लगी फसल को कुतरकुतर कर उखाङ देते हैं और फसल खराब हो जाती है.
गांव के दबंग खेतिहर आज भी इन्हें गिद्ध समझते हैं, जो ले तो कुछ नहीं पाता अलबत्ता देते जरूर हैं. शादीब्याह या अन्य अवसरों पर इन से कमरतोङ काम लिया जाता है, लोग मालपुए उङा रहे होते हैं और ये दूर से बस निहारते रहते हैं. हां, खापी कर फेंके गए कचरे से ये खाने का कुछ ढूंढ़ते हैं और वही खा कर संतोष कर जाते हैं.
इन की ‘किस्मत’ ही यही है. शायद तभी ऊंची जाति के लोग यही कहते हैं कि इन्हें उन के भगवान ने सेवादार बना कर भेजा है. ये दलित कहलाते हैं, ऊपर से सरकार ने इन्हें महादलित का दरजा दे दिया है. लोग इन्हें मुसहर कहते हैं.
*नाम पर जाति दर्ज*
हम बात कर रहे हैं मुसहर जाति का जो भारत की आजादी के दशकों बीत जाने के बाद आज भी चूहे और घोंघे मार कर खा रहे हैं.
आज भी चाहे वह मोची की दुकान हो, कारखाने हों, खेतों में काम करते मजदूर हों, 21वीं सदी के भारत का एक सच यह भी है कि इंसान चूहे खा रहा है और सामाजिक व्यवस्था ने उसे नाम दिया मुसहर.
यह जाति खेतों में, जंगलों में, पहाड़ों में आज भी चूहे ढूंढ़ती मिल जाएगी. यह नए भारत की तसवीर नहीं, दशकों से व्यवस्था का दंश झेलता वह समुदाय है, जिस ने कभी मजबूरी में इसे आहार बनाया होगा मगर आज भी सरकारी दस्तावेजों में उसी के नाम पर उस की जाति दर्ज है, मुसहर यानी जो मूस (चूहे) को खाता है.
बिहार से ले कर झारखंड, उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और नेपाल की तराई में पाई जाने वाली यह एक ऐसी जाति है जिस का आज भी कोई अस्तित्व नहीं. बिहार में विभिन्न जगहों पर यह अलगअलग नामों से जाने जाते हैं. उत्तर बिहार में लोग इन्हें मांझी कहते हैं. मगध क्षेत्र में मांझी को भुइंया बोलते हैं.
*एक था दशरथ मांझी*
मगर हासिए पर रही इस जाति की पङताल कुछ लोगों ने तब शुरू की जब साल 2015 में दशरथ मांझी की जीवनी पर आधारित फिल्म ‘मांझी : द माउंटेन मैन’ प्रदर्शित हुई थी.
यह फिल्म बिहार के गया जनपद के एक गांव में जन्मे दशरथ मांझी की एक सच्ची कहानी पर आधारित थी.
मांझी एक गरीब परिवार का आदमी था. गरीबी में रहते हुए उस ने ईमानदारी नहीं छोङी थी और सब से रोचक बात यह कि वह अपनी बीवी से बेपनाह मुहब्बत करता था.
जब उस की बीवी पेट से हुई तो गांव से शहर जाना दूर इसलिए था कि बीच में एक पहाङ पङता था. मांझी समय पर अपनी बीवी को अस्पताल नहीं ले जा सका और रास्ते में ही उस की बीवी ने दम तोड़ दिया.
इस से दशरथ मांझी को इतना गुस्सा आया कि उस ने केवल एक हथौड़ा और छेनी ले कर 360 फुट लंबी, 30 फुट चौङी और 25 फुट ऊंचे पहाङ को काट कर सङक बना डाली.
इस काम में दशरथ को पूरे 22 साल लगे थे और इस के बाद गांव से शहर की दूरी को 55 किलोमीटर से 15 किलोमीटर कर दिया था.
जब लोग उसे पहाङ तोङते देखते तो उसे पागल कहते, हंसते और मजाक उङाते. पर दशरथ जीवट था. सिर्फ दशरथ ही नहीं मुसहर होते ही हैं बेहद जीवट और मेहनती.
मुसहर आमतौर पर दक्षिण बिहार और झारखंड के इलाके में अधिक पाए जाते हैं. देश की आजादी के दशकों बीत जाने के बाद यह आज भी समाज का भूमिहीन मजदूर वर्ग है. इन के पास संपत्ति के नाम कुछ नहीं होता. घर के सभी लोग मजदूरी कर के जीवनयापन करते हैं.
*आज भी हासिए पर*
आज भी मुसहरों में शिक्षा का घोर अभाव है. यों मुसहर जाति बिहार की 23 दलित जातियों में तीसरे स्थान पर है. बिहार में दलितों की कुल जनसंख्या में मुसहरों का प्रतिशत लगभग 14% है. 1871 में जनगणना के बाद पहली बार इस जाति को जनजाति का दरजा दिया गया था. अभी बिहार में इसे महादलित का दरजा दिया गया है.
इतना ही नहीं, आजादी के बाद से अब तक इस समूह का कोई संगठित राजनीतिक स्वरूप भी नहीं रहा है न ही इन का कोई एक सर्वमान्य नेता पैदा हुआ. हां, छिटपुट रूप से कुछ लोग राजनीति में थोड़ी देर के लिए जरूर चमके लेकिन अपनी पहचान नहीं बना पाए या फिर कहें कि राजनीति के खिलाड़ियों ने उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया.
*मुसहर और राजनीति*
अलबत्ता 1952 की लोकसभा चुनाव में ही पहला और अकेला मुसहर सांसद कांग्रेस के टिकट पर सांसद बना था, नाम था किराई मुसहर. लेकिन इस के बाद कोई मुसहर राजनीति में स्थापित नहीं हो पाया.
हालांकि उस के बाद इस जाति से कई बड़े नेता सामने आए. सीपीआी के नेता रहे भोलाराम मांझी 1957 में बिहार के जमुई विधानसभा सीट से विधायक बने थे. इस के बाद 1971 में वे लोकसभा के सांसद भी बने.
मुसहरों के एक और बड़े नेता 70-80 के दशक में हुए मिश्री सदा. 1972 में वे राज्य सरकार में मंत्री बने थे.
लेकिन हाल के सालों में सब से अधिक चर्चा हुई जीतन राम मांझी की. वे पहली बार 1985 में बिहार सरकार में राज्यमंत्री बने थे.
जितनी धीमी गति से मुसहरों में राजनीतिक जागरूकता आई उतना ही धीमा उन का शैक्षिणिक व साममाजिक विकास भी रहा. मुसहर समाज में आज भी अंधविश्वासों का बोलबाला है. डायन बता कर मुसहर महिलाओं को प्रताड़ित करने की घटनाएं भी देखनेसुनने को मिलती रही हैं. शायद तभी आज भी मुसहरों में चूहा मारने और घोंघा खाने का प्रचलन बना हुआ है.
आबादी के लिहाज से बिहार के गया, रोहताश, अररिया, सीतामढ़ी मुसहरों की घनी आबादी वाले जिले हैं. इस के अलावा समस्तीपुर, बेगूसराय और खगड़िया के कुछ हिस्सों में भी मुसहर बहुत बड़ी संख्या में हैं.
2010 के बिहार विधानसभा में कुल 9 मुसहर विधायक थे. लेकिन सब से अधिक चर्चा में रहे जीतनराम मांझी. वे 2014 में बिहार के 23वें मुख्यमंत्री बने पर लगभग साल भर तक के लिए ही.
*सिर्फ कठपुतली बने रहे जीतनराम*
जीतनराम ने कई अवसरों पर बताया था कि नीतीश कुमार ने उन का सिर्फ इस्तेमाल किया था. जीतनराम मांझी का मुख्यमंत्री बनना उन लोगों को भी रास नहीं आ रहा होगा जो एक मुसहर को अपना मुख्यमंत्री और नेता मानने से इनकार करते रहे होंगे,
खासकर बिहार जैसे प्रदेश में जहां समाज से ले कर राजनीति तक में जातिवाद का जहर फैला हो और जहां विकास के नाम पर नहीं, जातिगत आधार पर वोट डाले जाते रहे हों.
शिक्षा में कमी की वजह से इस समुदाय में अंधविश्वास का बोलबाला है. अभी हाल ही में गया से सटे मुसहर बस्ती में बच्चों में चेचक महामारी की तरह फैल गया था पर बस्ती के लोग इलाज कराने से अधिक जादूटोने और भगती में यकीन रखते थे. पिछले साल बिहार में फैले चमकी बुखार से भी इस समुदाय के सैकङों बच्चों की जानें गई थीं.
ऐसे में उस बिहार में जहां जातिवाद चरम पर हो और यहां तक कि वोट भी विकास पर नहीं जातिगत आधार पर डाले जाते हों, मुसहरों के दिन फिरेंगे ऐसा दूरदूर तक नजर नहीं आता.
घोर उपेक्षा के शिकार इस समुदाय पर न तो सरकार का ध्यान गया और न ही समाज के ठेकेदारों का, जो धर्म और जाति के नाम पर मुसहरों से मजदूरी तो कराता है पर उसे घर के अंदर आने की अनुमति आज भी नहीं है.
इस बात में कोई शक नहीं कि भारती खांडेकर के नंबर बहुत ज्यादा नहीं हैं, लेकिन उस के बारे में जानने के बाद लगता है कि वह किसी टौपर से कम नहीं.
मध्य प्रदेश के इंदौर में रहने वाली इस बेहद गरीब लड़की ने इस साल माध्यमिक शिक्षा मंडल के 10वीं बोर्ड के इम्तिहान में 68 फीसदी नंबर हासिल कर फर्स्ट डिविजन बनाई है, जो किसी भी मैरिट वाले छात्र को इस लिहाज से सबक है कि उस के पास खुद का कमरा होना तो दूर की बात है, खुद का कोई घर भी नहीं है.
दरअसल, भारती इंदौर के शिवाजी मार्केट इलाके के फुटपाथ पर पिछले 15 साल से रह रही थी. उस के पिता दशरथ खांडेकर ठेला चलाते हैं और मां पैसे वालों के घरों में झाड़ूपोंछा लगाने का काम करती हैं. सिर ढकने के लिए मांबाप ने एक झोंपड़ी तान ली, जिसे हटाने के लिए कभी नगरनिगम, तो कभी पुलिस वाले आ धमकते थे.
देश के दूसरे करोड़ों झोंपड़ों की तरह इस झोंपड़े में भी बिजलीपानी की कोई सहूलियत नहीं थी. 5 सदस्यों वाले इस परिवार को अकसर खानेपीने के लाले पड़े रहते थे, सो अलग. इस पर भी भारी परेशानी की बात यह कि बारिश में झोंपड़ा पानी से लबालब भर जाता था और गरमीसर्दी की मार बरदाश्त करना हर किसी के बस की बात नहीं.
मांबाप सुबह काम पर निकल जाते थे, तो भारती अपने 2 छोटे भाइयों की देखभाल में जुट जाती थी और वक्त मिलने पर ही अपने स्कूल अहल्या आश्रम जा पाती थी. उस के पास नई कौपीकिताबें खरीदने के पैसे नहीं होते थे, फिर यह सोचना तो बेमानी है कि उसे कहीं से कोचिंग या ट्यूशन मिलती होगी.
शाम को जब मांबाप काम से वापस आते थे, तब इस झोंपड़े में चूल्हा जलता था और भारती को पढ़ने के लिए थोड़ा वक्त मिल पाता था, वह भी खंभे की रोशनी के नीचे. इस के बाद भी वह 68 फीसदी नंबर ले आई, तो उस की कहानी जान कर हर कोई हैरान रह गया.
क्या भारती जैसी जिंदगी, जिस में खानेपीने, रहने का भी ठिकाना न हो, में गुजर करते हुए बोर्ड के इम्तिहान में फर्स्ट डिविजन लाना वाकई मामूली बात है, इस का जवाब शायद ही कोई हां में दे.
भारती बताती है कि उसे जरा सी भी फुरसत मिलती थी, तो वह पढ़ने बैठ जाती थी. रात में वह नोट्स बनाती थी और दिन में कोर्स की किताबें पढ़ती थी. जैसे ही उस की कामयाबी की कहानी आम हुई, तो मध्य प्रदेश बाल आयोग ने पहल करते हुए प्रशासन को उस के लिए कुछ करने के लिए कहा.
नगरनिगम, इंदौर ने फुरती दिखाते हुए भारती को गरीबों के भले के लिए चलाई जा रही योजना के तहत एक फ्लैट बतौर इनाम दिया. जिंदगी में पहली बार पक्के मकान का मुंह देखने वाली भारती की खुशी का अब कोई ठिकाना नहीं है. अब वह आईएएस अफसर बनने का ख्वाब देख रही है, जो उस की मेहनत और लगन को देखते हुए नामुमकिन भी नहीं, क्योंकि अब कई हाथ उस की मदद को उठने लगे हैं.
लेकिन ऐसा तब हुआ, जब भारती ने खुद को साबित कर दिखाया और यह भी जता दिया कि आदमी अगर ठान ले तो नामुमकिन को भी मुमकिन बना सकता है. जरूरत बस हौसले की है, जो कोई दूसरा नहीं दे सकता. वह तो खुद अपने से पैदा करना पड़ता है.
भारती ने यह भी साबित कर दिया है कि अव्वल आने के लिए बहुत से साधन और सहूलियतें भी जरूरी नहीं. बहुत सी कमियों में रहते हुए भी आप न केवल पढ़ाई, बल्कि जिंदगी की दौड़ में उन्हें भी पछाड़ सकते हैं, जिन के पास वह सबकुछ है, जिस से वे तेज दौड़ कर जीत सकते हैं, लेकिन उम्मीद के मुताबिक दौड़ नहीं पाते.
अकेली भारती ही नहीं, बल्कि देशभर के उस जैसे कई गरीब बच्चों ने इस साल के बोर्ड इम्तिहानों में ऐसा ही कारनामा कर दिखाया है, जिस से महसूस होता है कि अब पढ़ाईलिखाई पर अमीर और ऊंची जाति वाले बच्चों का पहले सा दबदबा नहीं रह गया है.
कर्णिका का कारनामा
जिस इम्तिहान में भारती फर्स्ट डिविजन में पास हुई है, उसी में इस बार राज्य में भोपाल की एक लड़की कर्णिका मिश्रा ने टौप किया. कर्णिका भोपाल के एक छोटे से स्कूल रीमा विद्या मंदिर में पढ़ती है. उस ने सौ फीसदी नंबर ला कर एक मिसाल बनाई है कि बिना पैसे के भी मैरिट में अव्वल आया जा सकता है.
जब कर्णिका महज 5 साल की थी, तब उस के पिता चल बसे थे, जिस से मां स्वाति और उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. एक समय ऐसा भी आया, जब इन मांबेटी को भूखे पेट सोना पड़ा या फिर पानी पी कर पेट भरना पड़ा.
ऐसे में स्वाति ने मामूली तनख्वाह वाली एक प्राइवेट नौकरी कर ली और मायके में अपनी मां के पास आ कर रहने लगीं. थोड़ा सा सहारा मिला तो कर्णिका को सम झ आ गया कि अब अगर कुछ बनना है, तो दिनरात पढ़ाई करने के सिवा कोई रास्ता नहीं. लिहाजा, उस ने खुद को पढ़ाई में झोंक दिया. नतीजा सुखद आया और रिजल्ट वाले दिन मांबेटी की आंखों से खुशी के आंसू बहते रहे.
कर्णिका बताती है कि वह रोजाना 3-4 घंटे पढ़ती थी और उस का एक मकसद नौलेज हासिल करना भी था. वह अब पीएससी का इम्तिहान पास कर सरकारी अफसर बनना चाहती है.
यह जान कर हैरानी होती है कि मध्य प्रदेश में इस बार 10वीं बोर्ड के इम्तिहान में 15 छात्रों ने सौ फीसदी स्कोर किया, जिन में से आधे एससीबीसी और गरीब तबके के हैं. कमोबेश यही हालत दूसरे राज्यों के छात्रों की रही, जिन्होंने भारती और कर्णिका की तरह पढ़ाई की दौड़ और होड़ में कई अमीर बच्चों को पीछे छोड़ते हुए अपनी जगह मैरिट में बनाई.
यह बदलाव एक बहुत बड़ा इशारा भी है कि गरीब और एससीबीसी के होनहार बच्चों को अब रोका नहीं जा सकता, जो अपनी लड़ाई पैसों व साधनों वाले बच्चों से लड़ कर जीत रहे हैं.
पैसा बनाम नंबर
हर कोई मानता और जानता है कि गरीब तबकों की बदहाली की सब से बड़ी वजह उन का अनपढ़ रहना है, जिस के चलते वे लंबे समय तक ऊंची जाति और रसूखदारों की गुलामी करते रहे. हालांकि अभी भी वे पूरी तरह इस से आजाद नहीं हुए हैं, लेकिन बहुत धीरेधीरे ही सही हो तो रहे हैं, क्योंकि यह बात उन्हें सम झ आ रही है कि उन के शोषण की सब से बड़ी वजह उन्हें तालीम से दूर रखने की साजिश रही. इस के लिए दबंगों ने छलकपट, जुल्मोसितम और धार्मिक किताबों का सहारा लिया.
इस से छुटकारे के लिए अब अच्छी बात यह है कि वे अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं, जिस से न केवल उन की माली, बल्कि सामाजिक हालत भी सुधरी. हालांकि, उन के बच्चे भी उम्मीदों पर खरे उतर रहे हैं, जबकि उन के पास न तो पक्के मकान होते हैं, न कोचिंग और ट्यूशन के लिए पैसे. न लजीज पकवान उन्हें खाने को मिलते हैं, न नएनए फैशन वाले कपड़े और न बहुत सी किताबें उन के पास होती हैं. फिर यह सोचने की तो कोई वजह ही नहीं कि गेम खेलने के साथ पढ़ाई करने के लिए उन के पास कंप्यूटर और महंगे मोबाइल फोन होते हैं.
इन बच्चों की एकलौती पूंजी उन की कुछ बन जाने की बेचैनी और कशिश ही है, जो इन्हें जुनून से भर देती है और यह जुनून उन्हें पैसे वालों से नफरत करना नहीं सिखाता, बल्कि पढ़ाई के जरीए उन की बराबरी करने के लिए उकसाता है.
बोर्ड के कड़े इम्तिहान इस होड़ का सब से बड़ा और अच्छा पैमाना है. इन तबकों के एकाध बच्चे मैरिट में आते तो बात नजरअंदाज की जा सकती थी, लेकिन इन की बढ़ती तादाद उन कइयों के लिए चिंता का सबब हो सकती है, जो यह मान बैठे हैं कि तालीम, कामयाबी और छोटीबड़ी सरकारी नौकरियों पर उन का और उन के ही बच्चों का हक है.
बात चिंता की भी है
दिक्कत तो यह है कि ये लोग पैसों से शौपिंग माल के आइटम की तरह मैरिट अपने बच्चों के लिए नहीं खरीद पा रहे हैं, जिन की परवरिश मुकम्मल ऐशोआराम में हो रही है. इन के बच्चे एक मांगते हैं, तो ये 4 तरह की किताबें खरीद कर उन्हें देते हैं. हर विषय की ट्यूशन और कोचिंग उन के लिए मुहैया है, फिर भी उन के बच्चे कर्णिका सरीखे सौ फीसदी नंबर नहीं ला पाते. हां, फुटपाथ पर रह रही भारती की बराबरी जरूर वे कर लेते हैं, तो बात साफ हो जाती है कि जिन 65-70 फीसदी नंबरों के लिए ये लाखों रुपए खर्च कर देते हैं, वे नंबर कोई भारती मुफ्त में ले आती है.
चिंता और डर की नई बात यह है कि समाज, राजनीति और सिस्टम को अपनी मुट्ठी में दबाए रखने वाले ये लंबरदार लोग कहीं खी झ कर सरकारी स्कूलों को बंद कराना ही शुरू न कर दें, क्योंकि गरीब बच्चे पढ़ते तो इन्हीं में हैं, जबकि इन के बच्चे ब्रांडेड एयरकंडीशंड महंगे और आलीशान इमारतों वाले स्कूलों में पढ़ते हैं, जिन में से कई की सालाना फीस ही लाखों रुपए में होती है.
इसे इत्तिफाक कम साजिश ज्यादा माना जाएगा कि ऐसा देशभर के राज्यों में हो भी रहा है कि तरहतरह के बहाने गढ़ कर बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूल बंद कराए जा रहे हैं, जिस के पीछे असल मंशा यह है कि गरीब और एससीबीसी तबके के बच्चे पढ़ ही न पाएं.
इस में कोई शक नहीं कि सरकारी स्कूलों की पढ़ाई की क्वालिटी प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले घटिया होती है और टीचर पढ़ाने के नाम पर रस्म सी अदा करते हैं. इस के बाद भी बच्चे अव्वल आ रहे हैं, तो यह उन की मेहनत और काबिलीयत ही है.
फरवरी महीने में मध्य प्रदेश सरकार ने कई सरकारी स्कूलों को बंद करने की पहल की थी. बहाना स्कूलों में कम होते दाखिले व पढ़ाई की क्वालिटी सुधारने का बनाया था. जब सरकार बदली तो यह पेशकश ठंडे बस्ते में चली गई, लेकिन सरकार बदली है अफसर नहीं, लिहाजा फिर से यह फाइल खोली जा सकती है.
एक एनजीओ की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2012 से ले कर साल 2017 तक देशभर में डेढ़ लाख से भी ज्यादा स्कूल ऐसे ही बहाने बना कर बंद कर दिए गए थे. राजस्थान में ही तकरीबन 15,000 सरकारी स्कूल साल 2017 में वसुंधरा सरकार ने बंद करा दिए थे, जिस से तकरीबन ढाई लाख बच्चे पढ़ाई से दूर हो गए थे. बिहार, झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में भी हजारों की तादाद में सरकारी स्कूल बंद हुए हैं, जिन की खोजखबर लेनेदेने वाला कोई नहीं, क्योंकि इन में गरीब और एससीबीसी तबके के बच्चे पढ़ते हैं.
साल 2015 में 10वीं की टौपर रही भोपाल की छात्रा नंदिनी का कहना है, ‘‘मैं भी इन्हीं अभावों में पढ़ी हूं और इस नतीजे पर पहुंची हूं कि पैसे वालों के बच्चे सहूलियतों के चलते यह मान बैठते हैं कि गरीब बच्चा उन के सामने नहीं टिकेगा, इसलिए वे फालतू कामों में ज्यादा समय बरबाद करते हैं. इस के उलट गरीब बच्चों को यह एहसास रहता है कि उन के पास केवल मेहनत है और वे समय का सही इस्तेमाल करते हैं.
बकौल, नंदिनी इन बच्चों को मालूम रहता है कि जैसे भी हो पढ़ लो, तभी हालत सुधरेगी. आजकल मीडिया भी ऐसे बच्चों का खूब सपोर्ट करता है.
नंदिनी बताती है, ‘‘इस से हौसला बढ़ता है. खुद मेरा इंटरव्यू उस समय देश की नामी पत्रिका ‘सरिता’ में छपा था, तो मेरी कामयाबी देश के लाखों लोगों तक पहुंची थी.’’
ये भी हैं नंबरों अमीर
वह दौर कब का गया जब साल 2 साल में एकाध कोई एससीबीसी या गरीब घर का बच्चा बोर्ड इम्तिहान में अच्छे नंबर लाता था, तो हल्ला मच जाता था. अब तो यह हर साल की बात हो चली है कि इन तबकों के एकदो नहीं, बल्कि सैकड़ों गुदड़ी के बच्चे मैरिट लिस्ट में अपनी जगह बनाने लगे हैं.
इस साल भी इन बच्चों ने मेहनत कर बाजी मारी. आइए, उन में से कुछ की बात करते हैं, जिन्होंने कम पैसों में अपनी मार्कशीट को नंबरों से मालामाल कर दिया :
झारखंड में मनीष का झंडा : इस साल झारखंड बोर्ड के 10वीं के इम्तिहान में मनीष कुमार कटियार पूरे राज्य में अव्वल रहे हैं. लातेहर के नेतरहाट के स्कूल के छात्र मनीष के पिता देवाशीष भारती एक गरीब किसान हैं, जिन्हें उम्मीद थी कि बेटे का रिजल्ट अच्छा आएगा, लेकिन इतना अच्छा आएगा, इस की उम्मीद उन्हें क्या किसी को भी नहीं थी.
कामयाबी के बाद मनीष ने कहा कि वह आईएएस अफसर बनना चाहता है, ताकि सभी के लिए पक्के घर बनवा सके. इस से ही सम झा जा सकता है कि मनीष के दिल में कौन सी कसक है, जिस ने उसे टौपर बनने के लिए उकसाया.
मनीष के घर की माली हालत अच्छी नहीं है, लेकिन उस के हौसले बुलंद हैं. 500 में से 490 नंबर लाने वाला मनीष नहीं चाहता कि किसी भी बच्चे को पढ़ाई के लिए उस के जैसा संघर्ष करना पड़े.
वाराणसी की शान : उत्तर प्रदेश बोर्ड के रिजल्ट में हाईस्कूल में इस बार वाराणसी के गांव खरगपुर के धीरज पटेल ने जिले में टौप किया है. उस के पिता किराए का आटोरिकशा चलाते हैं. ऐसे में सहज सम झा जा सकता है कि धीरज ने किन मुश्किलों में पढ़ाई की होगी.
वाराणसी के ही अक्षय कुमार ने इस साल जिले में इंटर के इम्तिहान में टौप किया है. उस के पिता भोनू प्रसाद बुनकर हैं और पावरलूम चला कर जैसेतैसे घर चला पाते हैं, लेकिन अक्षय की कामयाबी ने उन्हें आस बंधाई है कि उन के दिन फिरेंगे और बेटे का आईएएस अफसर बनने का सपना भी इसी तरह पूरा होगा.
वाराणसी के रामनगर के विशेष सोनकर ने उत्तर प्रदेश बोर्ड के इम्तिहान में जिले में दूसरा नंबर हासिल किया है. जिस वक्त विशेष का रिजल्ट आया, तब उस के पिता कैलाश सोनकर और मां भागवती देवी बगीचे में जामुन बीनने गए थे, जिस से शाम को घर का चूल्हा जल सके.
विशेष के घर की माली हालत का अंदाजा लगाने के लिए इस से ज्यादा कुछ और कहने की जरूरत नहीं रह जाती.
वाराणसी के एससीबीसी और गरीब तबके के मैरिट में आए छात्रों की लिस्ट काफी लंबी है जिस में एक और नाम सविता बिंद का शुमार है. उस के पिता छब्बू बिंद बंटाई पर खेती करते हैं. इस से भी घरखर्च पूरा नहीं पड़ता, तो वे शादीब्याह में हलवाईगीरी करने लगते हैं.
बेटी ने जब जिले में टौप किया, तो उन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. इस की एक वजह यह भी है कि छब्बू खुद पढ़ नहीं पाए थे. अब सविता ने टौप कर के जता दिया है कि अनपढ़ मांबाप भी तालीम की अहमियत सम झने लगे हैं और अच्छी बात यह है कि उन की औलादें उन्हें निराश नहीं कर रहीं.
‘‘मम्मी, मैं पास हो गई,’’ वाराणसी के राजातालाब रानी बाजार की खुशबू मोदनवाल मारे खुशी के यह कहते हुए चिल्लाई, तब उस के पिता त्रिभुवन प्रसाद चक्की पर आटा पीसने के अपने रोजाना के काम को अंजाम दे रहे थे. उन्होंने दौड़ कर अपनी नन्ही परी को गले लगा लिया, क्योंकि खुशबू सिर्फ पास ही नहीं हुई थी, बल्कि उस का नाम भी टौप 10 में था.
इंटर की मैरिट में खुशबू से एक पायदान ऊपर रहे हर्ष कुमार पटेल के पिता पेशे से मिस्त्री हैं. ऊपर की 2 जगह घेर कर इन बच्चों ने इशारा कर दिया है कि गुजरा कल किसी का भी रहा हो, लेकिन आने वाला कल इन का है.
फिर जीते अजीत और आकाश : अगर वाराणसी के इन होनहारों को थोड़ी भी सहूलियतें मिली होतीं तो तय है कि वे और अव्वल आते. हालांकि अभी उन्होंने जो कर दिखाया, वह भी किसी से कम नहीं. न केवल इन्हें बल्कि सभी छात्रों को आगरा के अजीत सिंह से काफीकुछ सीखना चाहिए, जिस ने इस साल इंटरमीडिएट में उत्तर प्रदेश में 15वां स्थान हासिल किया है.
अजीत के पिता गब्बर सिंह खेतिहर मजदूर हैं. लिहाजा, वे जैसेतैसे उसे पढ़ा पा रहे थे, लेकिन होनहार अजीत ने हार नहीं मानी और कुछ बन जाने की ख्वाहिश लिए वह दिनरात एक कर पढ़ता रहा. बिजली न होने के चलते अकसर उसे मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ाई करनी पड़ती थी. इसी लगन और मेहनत का नतीजा था कि उसे हाईस्कूल में भी 86 फीसदी नंबर मिले थे. इस कामयाबी के बाद उस ने मुड़ कर नहीं देखा और इस बार वह आगरा में फर्स्ट और राज्य में 15वेें नंबर पर आया.
अजीत की तरह आगरा का ही आकाश कुशवाह भी मिलिट्री में जाना चाहता है, जिस ने इस साल हाईस्कूल में प्रदेशभर में 8वां नंबर हासिल किया. आकाश के पिता लाखन सिंह किसान हैं.
बिहार के ये होनहार : इस साल बोर्ड के मैट्रिक इम्तिहान में नंबर एक की पोजिशन पर आए हिमांशु राज के पिता सब्जी बेचते हैं. रोहतास के इस टौपर को सब से ज्यादा 96.2 फीसदी नंबर मिले हैं. हिमांशु सौफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहता है.
इसी इम्तिहान में दूसरे नंबर पर आए समस्तीपुर के दुर्गेश कुमार के पिता मामूली किसान हैं. एक नंबर से टौप आने से पिछड़ गए दुर्गेश का सपना इंजीनियर बनने का है.
तीसरे नंबर पर रही अरवल की जूली कुमारी डाक्टर बनना चाहती है, लेकिन गरीबी का डर उसे सता रहा है. जूली के पिता मनोज सिन्हा शिक्षक हैं. उन की आमदनी इतनी नहीं है कि बेटी का दाखिला मैडिकल कालेज में करा सकें, इसलिए वे सरकार से मदद की आस लगाए बैठे हैं.
चौथे नंबर पर आए लखीसराय के सन्नू कुमार की हालत इन सब से ज्यादा खस्ता है. उस के पिता शंभू कुमार और मां पंचा देवी दोनों मजदूरी करते हैं. सन्नू कुमार की ख्वाहिश भी आईएएस अफसर बनने की है.
लाल राजस्थान के : 8 जुलाई को राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के विज्ञान विषय का रिजल्ट देख कर हर कोई हैरान रह गया था, क्योंकि दूसरा नंबर बीकानेर के एक मामूली अनपढ़ किसान धर्मचंद्र शर्मा के बेटे अमित शर्मा के खाते में गया था. उस के घर की माली हालत इतनी खस्ता है कि वह प्रिंस स्कूल की मदद से पढ़ रहा था. 10वीं में भी अच्छे नंबर लाने वाले अमित को इस स्कूल ने मुफ्त पढ़ाई और होस्टल
मुहैया कराया था. 3 विषयों में 100 फीसदी नंबर लाने वाला अमित डाक्टर बनने का सपना पाले बैठा है. वह कहता है कि सपने पूरा करने के लिए दिनरात मेहनत करनी पड़ती है.
इसी कड़े मुकाबले वाले इम्तिहान में कोचिंग सिटी के नाम से मशहूर कोटा के प्रगति स्कूल के एक छात्र शोएब हुसैन ने भी 98.40 फीसदी नंबर ला कर सब को चौंका दिया था. शोएब के पिता निसार अहमद कारीगर हैं, जिन की आमदनी बहुत ज्यादा नहीं है. अपने छात्र की कामयाबी से खुश इस स्कूल के डायरैक्टर जे. मोहम्मद ने शोएब के छोटे भाईबहनों को मुफ्त पढ़ाई की पेशकश की है.
बचपन में जब मैं अपने मामा के गांव रेलगाड़ी से जाता था, तो वे गांव से 3 किलोमीटर दूर पैदल रेलवे स्टेशन पर मुझे और मां को लेने आते थे. इस के बाद हम तीनों पैदल ही गांव की तरफ चल देते थे. पर कुछ दूर चलने के बाद मामा मुझे अपने एक कंधे पर बिठा लेते थे.
चूंकि मामा तकरीबन 6 फुट लंबे थे, तो उन के कंधे से मुझे पतली सी सड़क से गुजरते हुए आसपास की हरियाली और खेतखलिहान दिखते थे. उस सफर का रोमांच ही अलग होता था. खुशी और डर के मारे मेरी आंखें फट जाती थीं.
तब मामा जवान थे और मैं दुबलपतला बालक. मामा को शायद ही कभी मेरा बोझ लगा हो. पर हाल ही में एक ऐसा वाकिआ हुआ है, जिस ने पूरे समाज पर जिल्लत का बड़ा भारी बोझ डाल दिया है.
मध्य प्रदेश का झाबुआ इलाका आदिवासी समाज का गढ़ है. वहां से सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ है, जिस में एक औरत को सजा के तौर पर अपने पति को कंधे पर बिठा कर पूरे गांव में घुमाना पड़ा. उसे सजा क्यों मिली? दरअसल, उस औरत पर आरोप लगा था कि उस का किसी पराए मर्द के साथ चक्कर चल रहा था.
वीडियो में दिखा कि एक औरत अपने पति को उठा कर चल रही थी और पीछेपीछे गांव वाले. एक जगह जब वह औरत थक गई, तो उसे छड़ी से पीटा भी गया.
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब किसी औरत को सरेआम बेइज्जत किया गया हो, वह भी एकतरफा फैसला सुना कर. दुख की बात तो यह थी कि उस औरत का मुस्टंडा पति इस बात की खिलाफत तक नहीं कर पाया.
पिछले साल का जुलाई महीने का एक और किस्सा देख लें. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वाइब्रैंट गुजरात के बनासकांठा जिले के दंतेवाड़ा तालुका के 12 गांवों में ठाकोर तबके की खाप पंचायत ने एक अजीबोगरीब प्रस्ताव पास किया था, जिस में ठाकोर समाज की कुंआरी लड़कियों को मोबाइल फोन रखने की मनाही कर दी गई. यह भी ऐलान किया कि जो भी लड़की मोबाइल फोन के साथ पकड़ी जाएगी, उस के पिता पर खाप पंचायत जुर्माना लगाएगी.
सवाल यह है कि मोबाइल फोन रखने की मनाही सिर्फ लड़कियों के लिए ही क्यों? लड़कों पर यह पाबंदी क्यों नहीं? क्या मोबाइल फोन रखने से सिर्फ लड़कियां ही बिगड़ती हैं?
आज कोरोना महामारी के बाद जब से स्कूल बंद हुए हैं, तब से बहुत से स्कूल बच्चों को औनलाइन क्लास की सुविधाएं दे रहे हैं, ताकि कल को अगर सरकार इम्तिहान लेने का नियम बना देगी, तो बच्चों को परेशानी न हो. ऐसे में स्कूल जाने वाली कुंआरी लड़कियों के पास अगर मोबाइल फोन नहीं होगा, तो क्या वे पढ़ाईलिखाई में पिछड़ नहीं जाएंगी?
एक और मामला साल 2018 का है. राजस्थान के बूंदी जिले में अंधविश्वास के चलते एक 6 साल की मासूम बच्ची को 9 दिनों तक सामाजिक बहिष्कार का दर्द झेलना पड़ा.
बूंदी जिले के एक गांव हरिपुरा के बाशिंदे हुक्मचंद रैगर ने बताया कि 2 जुलाई को उन की 6 साल की बेटी खुशबू अपनी मां के साथ स्कूल में दाखिले के लिए गई थी. वहां पर दूध पिलाने के लिए बालिकाओं की लाइन लग रही थी. इसी दौरान अचानक खुशबू का पैर टिटहरी नाम के एक पक्षी के अंडे पर पड़ गया, जिस से अंडा फूट गया.
इस घटना को अनहोनी मानने के बाद गांव में तुरंत पंचपटेलों ने बैठक बुलाई और मासूम खुशबू को समाज से बाहर करने का फरमान सुना दिया. खुशबू के अपने घर के अंदर घुसने तक पर रोक लगा दी गई. उसे खाना खाने और पीने के पानी के लिए भी अलग से बरतन दिए गए.
पंचपटेलों के फरमान के चलते पिता 9 दिन अपने बेटी को ले कर घर के बाहर बने बाड़े में रहा था. पिता के मुताबिक, इस दौरान पंचपटेलों ने शराब की बोतल व चने भी मंगवाए थे.
जब इस मामले की जानकारी तहसीलदार व थाना प्रभारी को मिली, तो उन्होंने पंचपटेलों को इकट्ठा किया. इस के बाद सरकारी अफसरों की मौजूदगी में गांव वालों ने मासूम खुशबू को 9 दिन बाद अपने रीतिरिवाजों को निभाते हुए घर के अंदर दाखिल करवाया. इस से पहले गांव में चने बांटे गए और परिवार के जमाई को तौलिया भेंट किया गया.
कितने शर्म की बात है कि एक मासूम बच्ची को किसी पक्षी का अंडा फोड़ने की इतनी बड़ी सजा दी गई. वह भी तब जब उस लड़की ने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया था. उस से तो जैसे महापाप हो गया. फिर तो उन पंचपटेलों को भी इस पाप का भागीदार होना चाहिए, जिन्होंने लड़की के पिता से शराब की डिमांड की. शराब पीना भी तो एक सामाजिक बुराई है, पर पंचपटेलों को सजा देने का जोखिम कौन उठाए?
समाज में ऐसे किस्सों की कोई कमी नहीं है, जहां नाक के सवाल पर औरतों और मासूम बच्चियों को मर्द समाज के बचकाने फैसलों का शिकार बनना पड़ता है. बचकाने क्या तानाशाही फैसले ही कहिए.
इस में जाति का दंभ बहुत अहम रोल निभाता है. दूसरी जाति की तो बात ही छोड़िए, अपनी जाति के लोग खाप के नाम पर मासूमों पर तरहतरह से जुल्म ढाते हैं. किसी ने परिवार के खिलाफ जा कर प्रेम विवाह क्या कर लिया, उसे मार दिया जाता है. अगर परिवार वाले मान भी जाएं, तो समाज के ठेकेदार उन्हें उकसा कर अपराध करने के लिए मजबूर कर देते हैं. पगड़ी उछलने की दुहाई दे कर उन से अपनों का ही बलिदान मांगते हैं. परिवार वाले गुस्से में कांड कर के जेल पहुंच जाते हैं और जाति के ये सर्वेसर्वा किसी दूसरे शिकार की टोह में निकल पड़ते हैं.
और अगर जाति के साथ दूसरे धर्म का नाता भी जुड़ जाता है, तो फिर बात दंगे तक पहुंच जाती है. उत्तर प्रदेश के जौनपुर में तो 2 समुदायों के बच्चों के बीच मवेशी चराने के दौरान हुए मामूली से झगड़े ने सांप्रदायिक रूप ले लिया था.
भारत में ऐसे विवादों का भुगतभोगी एससी समाज ही रहा है. वह आज भी अपनी पहचान तलाश रहा है. वोटों के लिए तो नेता उन्हें अपने गले से लगा लेते हैं, उन के झोंपड़ों में जा कर रोटी खा लेते हैं, पर जब अपने समाज पर आंच की बात आती है, तो उन को दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल कर फेंक देते हैं.
एसटी समुदाय भी कमोबेश ऐसे ही हालात में जी रहा है. वह तो भला हो कि झाबुआ वाले कांड में सताई गई औरत आदिवासी समाज से थी, जो अपने तन और मन से बहुत मजबूत होती हैं और इसलिए उस ने अपने पति को कंधे पर बिठा कर पूरा गांव घुमा दिया, वरना किसी शहरी और ऊंची जाति की औरत में ऐसा करने का माद्दा शायद ही दिखता.
पूरे देश में कोरोना महामारी पूरी तरह से फैल चुकी है. सब से ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र इस से बुरी तरह जूझ रहा है, क्योंकि यहां कोरोना के 4 लाख से ज्यादा मरीज हैं और डेढ़ लाख ऐक्टिव हैं. ऐसे में कोरोना योद्धा कहलाए जाने वाले कर्मी जिन का हम ने थाली बजा कर सम्मान किया था, की करतूतें शर्मसार करने वाली हैं. जैसे कि महाराष्ट्र के अमरावती जिले में हुआ, जहां नाक और मुंह से सैंपल लेने के बाद एक महिला को कोरोना पौजिटिव रिपोर्ट बता कर दोबारा बुलाया और उस के प्राइवेट पार्ट का जबरन टैस्ट कर डाला.
भले ही जगहजगह कोरोना को ले कर लोगों को जागरूक किया जा रहा है, मुहिम चलाई जा रही है, घर पर रहने को कहा जा रहा है और कहा यह भी जा रहा है जब तक जरूरी न हो, घर से बाहर न निकलें. फिर भी ऐसी घटनाएं दिल को झकझोर जाती हैं.
राज्य सरकार द्वारा लौकडाउन में ढील मिलने पर लोग अपने काम पर जा रहे हैं, सामाजिक दूरी जैसे नियमों का पालन कर रहे हैं, पर कोरोना मरीज मिलने पर सभी की टैस्टिंग की जा रही है. जरूरी हिदायतें दी जा रही हैं और घर पर ही क्वारंटीन होने को कहा जा रहा है जब तक स्थिति गंभीर न हो.
सुनने में तो यही आया है कि अभी तक कोरोना का टैस्ट मुंह और नाक से ही लिया जाता रहा है, पर कोरोना टैस्ट के नाम पर जबरन प्राइवेट पार्ट का टैस्ट करना लैब वाले को भारी पड़ गया. वजह, युवती ने थाने में शिकायत जो कर दी थी और वह पकड़ में आ गया.
28 जुलाई, 2020 को यह अजीबोगरीब मामला महाराष्ट्र के अमरावती में हुआ. यहां लैब में कोरोना टैस्ट के नाम पर लैब टैक्नीशियन ने करतूत ही कुछ ऐसी कर दी कि हर कोई सुन कर हैरान है. साथ ही, इनसानियत को शर्मसार करने वाली है कि कोरोना टैस्ट के नाम पर लैब वाला इतनी नीचता की हद तक भी जा सकता है.
कोरोना जांच कराने आई युवती की नाक से नहीं, बल्कि जबरन उस के प्राइवेट पार्ट से सेंपल लिया गया और उस में छेड़छाड़ की गई. पहले तो युवती समझ ही नहीं पाई कि क्या हो रहा है और टैस्ट का विरोध नहीं कर पाई. पर बाद में जानकारी मिलने पर वह समझ गई कि लैब कर्मी ने उसे झांसे में लिया है.
पीड़िता ने बताया कि स्वाब लेने के बाद आरोपी ने उसे फिर से बुलाया और कहा कि तुम्हारी कोरोना रिपोर्ट पौजिटिव आई है, इसलिए उन्हें यूरिनल टैस्ट भी कराना होगा.
इस घटना की जानकारी पीड़िता ने सब से पहले अपने भाई को दी. शक होने पर भाई ने इस बारे में डाक्टरों से बातचीत की. डाक्टरों ने बताया कि कोरोना टैस्ट के लिए ऐसा कोई परीक्षण नहीं होता है. इस के बाद महिला ने बडनेरा पुलिस को सारी बात बताई. पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया.
पुलिस ने आरोपी टैक्नीशियन का नाम अल्पेश अशोक देशमुख बताया. उस के खिलाफ बलात्कार, एट्रोसिटी और आईटी ऐक्ट के तहत मामला दर्ज कर गिरफ्तार कर लिया. पुलिस अब यह जांच कर रही है कि आरोपी ने इस से पहले कितनी महिलाओं के साथ ऐसी हरकत की.
जानकारी के मुताबिक, 24 साला लड़की अमरावती में अपने भाई के साथ रहती है और एक मौल में जौब करती है. मौल में काम करने वाला एक मुलाजिम 24 जुलाई को कोरोना पौजिटिव पाया गया. उस कर्मचारी के कोरोना पौजिटिव पाए जाने के बाद 28 जुलाई को उस के साथ काम करने वाले सभी 20-25 कर्मचारियों को अमरावती के ट्रामा केयर टेस्टिंग लैब में कोरोना टेस्ट के लिए बुलाया गया था, जिस में यह महिला भी गई थी. लैब के टैक्नीशियन ने मौके का फायदा उठाते हुए महिला के साथ शर्मनाक घटना को अंजाम दिया.
राज्य की महिला एवं बाल विकास मंत्री यशोमति ठाकुर ने इस घटना पर हैरानी जताई और कहा कि टैक्नीशियन के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जाएगी.
आरोपी अल्पेश देशमुख की सोच वाकई शर्मसार करने वाली है. फिलहाल तो वह पुलिस के शिकंजे में है, पर अब तक न जाने कितनी औरतों व लड़कियों के साथ कोरोना टैस्ट के नाम पर ऐसा किया होगा, यह भी जांच का विषय है. वहीं उस के साथ काम करने वाले और भी लैब टैक्नीशियन होंगे, जो ऐसी घटनाओं को अंजाम देते होंगे.
यह तो समय ही बताएगा कि अल्पेश के साथ कोर्ट क्या फैसला लेता है, पर सभी को ऐसी घटनाओं से सबक लेने की जरूरत है. ऐसा जानकारी की कमी के चलते हुआ. अगर जानकारी होती तो ऐसी घटना को अंजाम नहीं दिया जा सकता.
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फोटो सलाह – 1.कोरोना टैस्टिंग लैब में लड़की का टैस्ट
2. मुंह छिपाती लड़की
अगर लद्दाख की सीमा पर शांति हो जाती है तो यह बहुत ज्यादा राहत की बात होगी. चीन और भारत का असली सीमा का जो भी दावा है, वह लड़ाई से तय हो ही नहीं सकता तो उस बारे में लड़ने से फायदा क्या है? अब भारत और चीन फिलहाल अपनीअपनी जगह से 1.8 किलोमीटर पीछे हटने को तैयार हो गए हैं और अपने इलाकों में कम सैनिक रखने को भी राजी हो गए हैं ताकि 6 जून वाली झड़प फिर से नहीं हो जाए.
सीमा पर आज इसी इलाके में दोनों ने 25,000 के करीब सैनिक तैनात कर रखे हैं और दोनों ने टैंकों, तोपों, हवाईजहाजों को तैयार कर रखा है. जरा सी चिनगारी से पूरी तरह आग भड़क सकती है. सीमा पर तैनात सेनाओं के कमांडरों की आपसी सहमति से यह तय हुआ है कि दोनों के सैनिक बेबात आपस में न उलझें.
चीन के लिए यह युद्ध इतना महंगा नहीं है क्योंकि जो भी टैंक, तोपें, हवाईजहाज चीन ने सीमा पर लगाए हैं ज्यादातर उस के अपने बनाए हैं. भारत को हर चीज खरीदनी पड़ रही है. हमें तो बुलैटप्रूफ जैकेट भी खरीदनी पड़ती है और उन पर मोटा मुनाफा विदेशी सैनिक सामान बनाने वाले कमाते हैं. हमारी हालत ऐसी नहीं है कि हम मनचाहा पैसा सैनिक विवाद में हंस कर खर्च कर सकें. कुरबानी देने को देश की तैयारी है पर बेमतलब की झड़पों की वजह से करोड़ोंअरबों खर्च करना सही नहीं होगा.
यह अफसोस की बात है कि हम जिस चीन को मनाने में इतनी कोशिश कर रहे थे, कभी चीनी राष्ट्रपति को झूला झुलाने तो कभी प्राचीन धरोहरों की सैर कराने की कवायद हुई, उस चीन ने हमारी एक न सुनी और अपने सैनिकों को सीमा पर जमा ही नहीं कर दिया बल्कि उन्हें उस जमीन पर भेज दिया जो हम कहते हैं हमारी ही है.
अब हमें भी बराबरी की तैयारी करने में लगना पड़ रहा है. देशभर के गरम इलाकों के आदी सैनिक इस बार पूरी सर्दी कंपकंपाती, खून जमा देने वाली बर्फ में बिताएंगे, यह पक्का है. हिमालय की चोटियों पर देश की रक्षा बहुत जोखिम का काम है और जानलेवा है. रूस की सर्दी ने उसे कई बार अपने दुश्मनों से बचाया था. नेपोलियन और हिटलर ने रूस पर हमला किया था और उसे हरा सा दिया था कि सर्दी आ गई जिस में फ्रांस और जरमनी के सैनिक जम गए. अगले 5-6 महीने हिमालय के इन इलाकों को बर्फ से ढक कर रखेंगे और हमारे गरमी के आदी जवान चीनी दुश्मन के साथ बर्फ के दुश्मन से भी लड़ेंगे. इस समय यह समझौता जो कमांडरों ने किया है और आज जहां हैं वहां से पीछे जाना मंजूर किया है, एक तरह से अच्छा है. पर दूसरी नजर में यह भारत के लिए सही नहीं साबित होगा क्योंकि अब एक नई लाइन औफ एक्चुअल कंट्रोल बन गई है जो चीनी मनसूबों पर बनी है.
गनीमत यही है कि देश में होहल्ला नहीं मचाया जा रहा है क्योंकि सारा देश तो कोविड 19 से ज्यादा परेशान है. सीमा पर सहीगलत कदम उठाने की छूट तो एक जने को दे रखी है.
कोरोना के कारण हुए लौकडाउन ने गरीबों की सवारी साइकिल को एक नई जान दी है. दिल्ली में साइकिल की बिक्री बढ़ती नजर आ रही है. यह कुछ दिन का फैशन है या लंबे समय तक चलेगा, अभी पता नहीं है, पर लोगों और शहरों, गांवों की सेहत के लिए अच्छा है.
कोरोना के डर से शासन ने पब्लिक वाहनों पर सवारियों को आधा या एकतिहाई कर दिया है. लोग खुद भी अब भरे हुए वाहन में सटसट कर बैठने से कतरा रहे हैं. ऐसे में 2-3 किलोमीटर का सफर या तो बाइक पर करो या साइकिल पर. साइकिल ज्यादा अच्छी है क्योंकि बाइक का खर्च पैट्रोल के दाम बढ़ने से और ज्यादा भी हो गया है और उसे पार्क करने की जगह भी नहीं मिलती.
साइकिल का चलन गरीब और अमीर की बराबरी का एक बढि़या कदम है. हमारे देश में हर कोशिश की जाती है कि किसी तरह ऊंचेनीचे का भेदभाव बना रहे. जब गरीब लोग पैदल चलने को ही मजबूर थे, जब साहब लोग ठाठ से साइकिल पर सिर ऊंचा कर चलते थे. तब घोड़ों की जगह साइकिलों ने ली थी. फिर साइकिलें बहुत लोग खरीदने लगे तो ऊंचे लोगों ने बसें या मोटरकार अपना लीं. बाद में स्कूटर आ गए तो साइकिल और मोटरकार के बीच वालों की मौज आ गई. तब मिलने वाली मोटरसाइकिलों से स्कूटर काफी अच्छे थे.
अब साइकिल का फिर चलन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में बढ़ जाए तो बड़ी खुशी होगी. अगर साइकिलों पर फैसले लेने वाले चलेंगे तो सड़कें भी ठीक होंगी, पेड़ भी लगेंगे, पानी का इंतजाम भी होगा. साइकिलों में भी नईनई तकनीक आएगी. दुनियाभर में साइकिल किराए पर देने जाने वाली बड़ी कंपनियां भी बनी हैं पर ज्यादातर दिवालिया हो गई हैं फिर भी नए तरीकों से नई कंपनियां आ रही हैं. अब कोशिश यह है कि आप साइकिल खरीदें नहीं, किराए की साइकिल एक जगह लें दूसरी जगह छोड़ दें, टैक्सी की तरह चालक बिना वाहन.
दिल्ली में भी इस के प्रयोग हो रहे हैं पर नाक ऊंची रखने वाले दिल्ली वाले अब तक तो उसे अपना नहीं पाए हैं. कोरोना की मार शायद दिल्ली वालों को सुधार दे.
साइकिलों का फायदा है कि इन्हें दूसरीतीसरी मंजिलों पर भी लिफ्टों से ले जाया जा सकता है. यूरोप में कई होटलों तक ने साइकिल स्टैंड कार पार्किंग में बना रखे हैं. गरीबअमीर में बराबरी की निशानी इस से ज्यादा क्या होगी.
सरकार को चाहिए कि साइकिल को बढ़ावा देने के लिए इस पर सारे टैक्स माफ कर दे. यह सामाजिक बराबरी के लिए भी जरूरी है, आबोहवा बचाने के लिए भी. बोनस में साइकिल पर चलने वाले ज्यादा तंदुरुस्त रहते हैं. साइकिल सिर्फ सवारी हो, अमीर या गरीब की नहीं.
56 साल की खजूरी देवी की आंखों में आंसू है. गरमी के दिनों भी उस के होंठ सूख गए हैं और बातचीत के दौरान वह अपना माथा पीटने लगती है.
खजूरी बताती है,”हेहो बाबू, ई करोनाकरोना सुनीसुनी के मौन बौराए गेलो छौन. ओकरा पर ई बाढ़…
पौरकां साल बुढ़वा चली गेलोहन, ई बार बङका बेटा. राती के लघी करै लै निकलहो रहै, सांप काटी लेलकै… (साहब, कोरोना सुनसुन कर मन घबरा गया है. उस पर इस बाढ़ ने कहर बरपाया हुआ है. पिछले साल पति मर गया और इस साल बड़े बेटे को सांप ने काट लिया जब वह रात को पिशाब करने बाहर निकला था)
यह कह कर वह फिर से फफकफफक कर रो पङी. वह इशारा कर के दिखाती है कि उस का घर यहां से करीबन आधा किलोमीटर दूर है. वह परिवार सहित टूटीफूटी अस्थाई झोंपड़ी में रह रही है, जो 4-5 बांस की बल्लियों पर टिकी है. ऊपर पन्नी है जिसे बल्लियों से बांध दिया गया है.
बाढ़ का पानी जब आता है तो बिलों में रह रहे जहरीले सांप भी सूखे जमीन की ओर भागते हैं और घरों के अंदर छिप कर बैठ जाते हैं.
बहुतों की मौत सांप काटने से भी हो जाती है. एक अनुमान के मुताबिक भारत में सांप के काटने से लगभग 50 हजार लोगों की जानें जाती हैं, जिस में बिहार में सब से अधिक मौतें होती हैं.
हालांकि मृतक को सरकार की ओर से ₹5 लाख का मुआवजा मिलता है पर यह आश्चर्यजनक है कि पिछले 5 सालों में किसी पीङित ने यहां मुआवजे के लिए आवेदन नहीं दिया. कारण इधर अशिक्षितों की संख्या ज्यादा है और उन्हें सरकारी नियमों और कानूनों तक की जानकारी नहीं होती.
खैर, मैं ने देखा कि खजूरी की झोंपड़ी के बाहर 1-2 बकरियां भी खूंटी से बंधी हैं और वे भी मिमिया रही हैं, शायद भूख से क्योंकि दूर तक सिर्फ पानी ही पानी है और घास तक भी नहीं बचा कि वे कुछ खा सकें.
मैं ने अपनी नजरें उस की झोंपड़ी के अंदर डाली. वहां एक बालटी में पानी था और मिट्टी के बने चूल्हे पर खाली बरतन. कुछ सूखी लकङियां भी पङी थीं.
खजूरी ने बताया कि घर में राशन जरा भी नहीं है. छोटा बेटा दिहाङी पर निकला है, शायद कुछ ला पाए. अगर नहीं ला पाया तो आज पूरी रात और कल पूरा दिन फिर भूखे ही रहना होगा.
मैं कुछ आगे निकला तो 2-4 पक्के मकान दिख गए. अलबत्ता यह समझते मुझे देर नहीं लगा कि ये मकान प्रधानमंत्री आवास योजना पर बनाए गए थे. सभी घर बाढ़ के पानी में आधे डूबे हुए थे. हां, एक छत पर सूखी लकङियों से चूल्हा जला कर खाना जरूर बनाया जा रहा था पर मुझे अंदेशा था कि बाढ़ के पानी में कटाव होता है और इस की धार कभीकभी इतनी तेज होती है कि बड़े से बङे पेङ को भी धाराशाई कर देती है. फिर आवास योजना में कितनी ईमानदारी बरती गई होगी यह सब जानते हैं, वह भी बिहार में जहां भ्रष्टाचार चरम पर है और सरकार की अमूमन हर परियोजना भ्रष्टाचारियों को भेंट चढ़ जाता है.
कुछ दूर निकला तो पता चला कि आगे नहीं जा सकते क्योंकि आगे की सङक टूटी पङी है और उस के ऊपर से पानी बह रहा है.
इस बीच मुस्ताक अहमद नाम के एक व्यक्ति ने बताया कि बाढ़ की वजह से उस के खेत डूब गए हैं और फसल बरबाद हो गई है.
उस ने 15 कट्ठा यानी 10,800 वर्गफुट जमीन में खेती की थी और उस में धान उगाए थे.
मुस्ताक ने बताया,”एक समय घर में 3-4 भैंस थीं. अब 1 ही बची है. इस बार यह भैंस गाभिन (गर्भवती) थी और एक बछङा हुआ था, लेकिन भैंस को दूध कम होता था. बछङा मर गया.
“खेती के लिए धान उगाए थे, वे भी बह गए.”
पास ही खङे मुन्ना ने बताया,”की करभौं हो… हम्मू खेती करले रहिए, ई बाढ़ में सब बरबाद भै गेले. आबे मजदूरी करी के पेट पाले ले पङते (क्या बताएं आप को, मैं ने भी खेती की थी पर इस बाढ़ में सब बरबाद हो गया. अब तो मजदूरी कर के पेट पालना होगा)
मुन्ना ने बताया कि वह मजदूरी करने दिल्लीपंजाब जाएगा पर उसे कोरोना से डर लग रहा है. उस के गांव के कई लोग भाग कर वापस तो आ गए पर बिहार में कोई कामधाम मिल नहीं रहा.
मौनसून में आफत शुरू
पुर्णिया प्रमंडल से तकरीबन 1-2 घंटे की दूरी पर स्थित अररिया जिले में बेलवा पुल के नजदीक एक गांव की स्थिति तो हर साल ऐसी ही होती है. इस के साथ ही चिकनी, नंनदपुर जैसे सैकड़ों गावों में जब बाढ़ का पानी आता है तो लोग छतों पर जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं. पानी अचानक से भरता है और लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाने का मौका तक नहीं मिलता.
अभी 2-4 दिन पहले ही बाढ़ के पानी में फंसे एक परिवार को बाहर निकाला गया था. एक की तो हालत यह थी कि वह अपने फूस (बांस और पुआल से बने घर) पर पिछले 5 दिनों से बिना खाएपीए पङा था. फिर कुछ लोगों की मदद से उसे बाहर निकाला गया.
कोसी नदी बिहार के लिए शोक
नेपाल से सटे भारत के तराई क्षेत्रों में हर साल का नजारा यही रहता है. मौनसून में जब बारिश होती है तो कईकई दिनों तक होती रहती है. इस बारिश से नदियों में पानी भर जाता है और वह उफन कर बाहर आ जाता है.
बिहार की कोसी नदी इधर इसलिए बदनाम है कि इस नदी में जब बारिश का मौसम न हो तो पानी घुटनों के नीचे रहता है. मगर जब बारिश होती है तो यह पता करना मुश्किल होता है कि नदी कहां और कितनी गहरी है.
हर साल इस नदी में इन दिनों कईयों की जान डूब कर चली जाती है. जानवर बह जाते हैं, न जाने कितने घर बहती धार में समा जाते हैं. कोसी नदी तब विकराल रूप धारण कर लेती है. गांव के गांव कटाव के शिकार हो कर बह जाते हैं और रह जाते हैं तो लोगों की आंखों में आंसू, बेबसी और अपनों के खोने का गम.
अलबत्ता, राज्य से ले कर केंद्र सरकार के नेता और मंत्री हवाई दौरा जरूर करते हैं.
अखबारों और चैनलों में दर्दनाक तसवीरें दिखाई जाती हैं, बाढ़ राहत पैकेज का ऐलान कर दिया जाता है और फिर सब कुछ शांत हो जाता है.
अगले साल फिर वही सब होता है…
जान की कीमत कुछ भी नहीं
यों नेपाल से सटे बिहार के कुछ जिलों में हर साल बाढ़ आफत लिए आता है. सब से अधिक प्रभावित होते हैं बिहार के 7 जिले जिन में पूर्वी चंपारण, चंपारण, सहरसा, सुपौल, अररिया, किशनगंज और कटिहार.
कटिहार जिले से गंगा नदी भी बहती हुई बंगाल की खाङी तक जाती है और यहीं कहींकहीं कोसी नदी भी इस में मिल जाती है. इस से बाढ़ भयानक रूप ले लेती है.
बाढ़ आने की एक वजह नेपाल भी जरूर है. दरअसल, मौनसून में तेज बारिश के बाद वहां से पानी बहता हुआ तराई क्षेत्रों में आ जाता है. काफी पहले यह समस्या उतनी गहरी नहीं थी क्योंकि तब नेपाल के पहाड़ों पर घने जंगल हुआ करते थे, लेकिन वहां की आबादी बढ़ी तो जंगलों को काट कर खेती लायक बनाया जाने लगा. इस से जो पानी जंगलों में ठहर कर धीरेधीरे और कुछ सूख कर आता था वह अचानक से आने लगा. इस से बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई.
इस बाढ़ से बिहार के 10 जिले के 600 से ज्यादा गांवों में भयंकर तबाही मचती है और यह हर साल की बात है.
वादे हैं वादों का क्या
हर साल बिहार में बाढ़ आती है. हर साल तबाही मचती है. सैकङों लोग मारे जाते हैं और हजारों करोड़ रुपए की संपत्ति पानी में बह जाती है. और इन सब की एक वजह यह भी है कि नेपाल में कोसी नदी पर बांध बना है. यह बांध भारत और नेपाल की सीमा पर है, जिसे 1956 में बनाया गया था.
इस बांध को ले कर भारत और नेपाल के बीच संधि है. संधि के मुताबिक अगर नेपाल में कोसी नदी में पानी ज्यादा हो जाता है तो नेपाल बांध के गेट खोल देता है और इतना पानी भारत की ओर बहा देता है, जिस से बांध को नुकसान न हो.
उधर, बाढ़ की समस्या को ले कर सरकार मानती है कि उत्तर बिहार के मैदान में बाढ़ नियंत्रण तभी हो सकेगा जब यहां की नदियों पर नेपाल में वहीं बांध बना दिए जाएं जहां नदियां पहाड़ों से मैदानी भागों में उतरती हैं. कोसी पर बराह क्षेत्र में, बागमती पर नुनथर में और कमला पर शीसापानी में और गंडक, घाघरा और महानंदा नदियों की सहायक धाराओं पर भी बांध बनाने से बाढ़ को रोका जा सकता है.
लेकिन यह तब होगा जब नेपाल से समझौता हो. मगर देश को आजाद हुए दशकों हो गए मगर इतने लंबे अंतराल के बाद भी इस समस्या पर सिर्फ राजनीति ही होती रही है. और फिर अभी तो नेपाल भारत संबंध भी अच्छे नहीं चल रहे.
जनता से हर चुनाव में वादे किए जाते हैं, सब्जबाग दिखाया जाता है पर होता कुछ नहीं.
हाल ही में बिहार की प्रमुख विपक्षी पार्टी राजद नेता व पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने सरकार पर हमला बोलते हुए कहा है,”मौनसून की दस्तक से बिहार के कोसी और गंडक नदी के मैदानी इलाकों के लोग आतंकित हैं. जानमाल, मवेशी का नुकसान हर साल होता रहा है… इस निकम्मी सरकार ने 15 सालों में कोई ठोस कदम नहीं उठाया. भ्रष्टाचार का आलम यह है कि यहां चूहे बांध खा जाते हैं.”
बिहार राजद के मुख्य प्रवक्ता भाई वीरेंद्र सिंह कहते हैं,”वर्तमान सरकार गरीब जनता की नहीं है. 15 सालों से सत्ता में रहने के बावजूद नीतीश सरकार ने बिहार में बाढ़ प्रभावित जिलों के लिए कुछ नहीं किया. बिहार के लोग एक तो कोरोना से दूसरे बाढ़ से परेशान हैं, उधर जेडीयू और बीजेपी के लोग वर्चुअल रैलियां कर रहे हैं.
“इन्हें सत्ता की भूख है और इतनी अधिक कि अपनी गलतियों की वजह से बिहार भाजपा के 70 से अधिक कार्यकर्ताओं को कोरोना हो गया.”
यों साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं. मगर ऐसा लगता नहीं कि उन्हें बाढ़ की चिंता है क्योंकि हाल के दिनों से बीजेपी और जेडीयू गठबंधन चुनाव की तैयारियों में लगे हैं.
जातिवाद बनाम विकास
एक तरफ कोरोना वायरस का कहर तो दूसरी तरफ बाढ़ से आफत में घिरे लोगों में सरकार के प्रति गुस्सा जरूर है पर आगे चुनाव है और फिर से एक बार जातपात और धर्म के नाम पर वोट मांगे जाएंगे.
इधर नेताजी चुनाव जीतेंगे और उधर विकास का मुद्दा फिर ठंढे बस्ते में चला जाएगा. लोगों को सिर्फ इतना ही सुकून होगा कि कम से कम उन की जाति का कोई नेता तो जीता.
जातपात ने बिहार में विकास की रफ्तार को रोक रखा है और नेता लोग इस बात को अच्छी तरह समझते हैं.
यह मामला बेहद अमानवीय और इनसानियत को शर्मसार करने वाला है. बेजुबान जानवर ऊंटनी के बच्चे की गलती सिर्फ इतनी थी कि उस ने खेत में जा कर फसल खराब कर दी थी. इतनी सी गलती के लिए 3 लोगों ने न सिर्फ उस पर कुल्हाड़ी से ताबड़तोड़ वार किया, बल्कि उस की आगे की टांगें भी काट दीं. इलाज के दौरान देर रात उस ऊंटनी के बच्चे की मौत हो गई.
बेजबान जानवरों को भले ही जबान न दी गई हो, पर वह समझता हर बात है. चाहे वह गायभैंस, भेड़बकरी हों या गधासांड या फिर हाथी, शेर, चीता, सांपबिच्छू वगैरह ही क्यों न हों. लेकिन इन पर अत्याचार के मामले देशभर में थमने का नाम ही नहीं ले रहे. चाहे केरल में गर्भवती हथिनी को विस्फोटक भरा अनानास खिलाने का मामला हो या राजस्थान के चूरू जिले की सरदारशहर तहसील के साजनसर गांव में ऊंटनी के बच्चे को कुल्हाड़ी से काटने का.
18 जुलाई, 2020 को राजस्थान के चूरू जिले की सरदारशहर तहसील के साजनसर गांव में यह ताजा मामला देखने को मिला, जहां एक ऊंटनी के 4 साला बच्चे के साथ कुछ दबंग युवकों ने बर्बरता की. इतना ही नहीं, ऊंटनी के बच्चे पर आरोपियों ने ताबड़तोड़ कुल्हाडियों से वार किए. साथ ही, उस के आगे के पैरों को तोड़ कर अलग कर दिया.
दर्द से कलपते ऊंटनी के बच्चे को बचाने गए 2 लोगों को भी आरोपियों ने कुल्हाडी से काट देने की धमकी दी.
घायल ऊंटनी के बच्चे को गांव कल्याणपुरा बिदावतान की गौशाला में इलाज के लिए पहुंचाया गया, जहां देर रात दम तोड दिया.
पुलिस से मिली जानकारी के मुताबिक, मेहरासर चाचेरा गांव के ओमप्रकाश सिंह ने सरदारशहर थाने में इस मामले की शिकायत दर्ज कराई. गांव के पन्नाराम, गोपीराम और लिछूराम के खिलाफ दी गई शिकायत में बताया कि ये ही 2 बाइक से उस का पीछा कर रहे थे.
प्रत्यक्षदर्शी ओमप्रकाश सिंह के मुताबिक, 18 जुलाई की सुबह 10 बजे वे गांव साजनसर की गोचर जमीन में अपने पशु चरा रहे थे. इस दौरान उन के साथ वहां नोपाराम जाट भी थे, तभी एक ऊंटनी का बच्चा भागता हुआ आया. उस के पीछेपीछे 2 मोटरसाइकिल पर 3 लोग पीछा करते हुए आए.
ऊंटनी का बच्चा बदहवास भागा जा रहा था, तभी आगे का रास्ता बंद होने से जैसे ही वह रुका, तो उसे तीनों ने घेरा दे कर जमीन पर पटक दिया और कुल्हाड़ी से उस के आगे के दोनों पैर काटने लगे.
इस दौरान ऊंटनी का बच्चा तड़पता रहा, कलपता रहा, पर उन दरिंदों के दिल नहीं पसीजे. उस की आवाज सुन कर कुछ लोग वहां पहुंचे, तो आरोपियों ने उन्हें भी जान से मारने की धमकी दे दी.
उन दबंगों या कहें दरिंदों का कहना था कि इस ऊंटनी के बच्चे ने हमारे खेत में नुकसान किया है, लेकिन लोगों ने जब शोर मचाना शुरू किया, तो तीनों मोटरसाइकिल ले कर भाग गए. बाद में पुलिस को खबर की गई और घायल ऊंटनी के बच्चे को गांव कल्याणपुरा बिदावतान की गौशाला में इलाज के लिए पहुंचाया गया था, जहां देर रात उस ने दम तोड दिया.
18 जुलाई, 2020 को गांव के पन्नाराम, गोपीराम और लिछमणराम के खिलाफ ओमप्रकाश सिंह की शिकायत सरदारशहर थाने में ले ली गई और अगले दिन यानी 19 जुलाई, 2020 को पुलिस ने इन तीनों को गिरफ्तार कर लिया, पर आने वाले समय में देखते हैं कि कोर्ट में इन तीनों पर क्या कार्यवाही होती है?
इन तीनों ने 4 साल की ऊंटनी के बच्चे को बड़ी निर्ममतापूर्वक मारा, काटा, जगहजगह जख्मी किया. इनसानियत को शर्मसार करने वाली ऐसी वारदात अब कम ही लोगों के दिल दहलाती है. वजह, इनसानियत धीरेधीरे खत्म जो होती जा रही है. वहीं सोचनेसमझने की ताकत भी.
पर क्या किसी को मार देने से उस नुकसान की भरपाई हो पाएगी? नामुमकिन. पर, ऐसे बेजबान जानवरों के साथ अमानवीयता की सारी हदें लांघ दी जाती हैं. कोई हमदर्दी नहीं, कोई रहम नहीं. यही वजह है कि ये बेजबान जानवर भी अनदेखी के शिकार होते जा रहे हैं.