बंदी के कगार पर मझोले और छोटे कारोबारी

लौकडाउन की वजह से डूबते कारोबारी जगत को अब सरकार से ही राहत की उम्मीद है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके अखिलेश यादव ने कहा कि सरकार को जरूरी एहतियात के साथ कारोबार जगत को पटरी पर लाने के लिए सतर्कता बरतते हुए उपाय करने चाहिए और कारोबारियों की मदद करनी चाहिए.

देश में कारोबार और कारोबारियों की हालत बहुत खराब है. नोटबंदी और जीएसटी की गलत नीतियों से कारोबार जगत उबर भी नहीं पाया था कि कोरोना और लौकडाउन से कारोबार और भी ज्यादा टूट गया और अब यह बंदी के कगार पर पहुंच गया है.

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लखनऊ की युवा कारोबारी रोली सक्सेना ने 3 साल पहले गारमैंट्स का अपना कारोबार शुरू किया था. अपनी छोटी सी दुकान को बड़े शोरूम में बदल दिया था. 40,000 रुपए के किराए पर एक जगह ले कर दुकान शुरू की थी. अचानक नोटबंदी और जीएसटी की वजह से कारोबार में काफी उथलपुथल आ गई.

वे किसी तरह से इन हालात को संभाल रही थीं कि इसी बीच जब कोरोना और लौकडाउन का समय आया, तो कारोबार पूरी तरह बंद हो गया. दुकान के मालिक ने 40,000 रुपए किराए की मांग की. रोली सक्सेना ने किराया देने का तो तय कर लिया, पर यह सोच लिया कि अब वे यह कारोबार नहीं करेंगी.

रोली सक्सेना कहती हैं, ‘‘सरकार कारोबारियों के हालात समझती है. उसे इन की मदद का कोई ऐक्शन प्लान तैयार करना चाहिए, वरना हमारे जैसे न जाने कितने कारोबारी अपना कारोबार बंद कर सड़क पर आ जाएंगे.’’

राहत पैकेज दे सरकार

अखिल भारतीय उद्योग व्यापार मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष संदीप बंसल ने कहा है, ‘‘देश और प्रदेश की सरकार को उन कारोबारियों की चिंता करनी चाहिए, जो मध्यम वर्ग के हैं और जरूरी सेवाओं का कारोबार नहीं करते हैं. ये कारोबारी ऐसी किसी भी सरकारी राहत योजना में भी नहीं आते, जिस से उन को सरकार की मदद मिल सके.

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‘‘होली के समय से ही इन सब का कारोबार नहीं चल रहा है. ये अपने खर्चे और मुलाजिमों की तनख्वाह का इंतजाम तभी कर सकते हैं, जब इन की दुकानें खुलेंगी. जब तक इन कारोबारियों की दुकानें नहीं खुल रही हैं, तब तक ये खुद भुखमरी के कगार पर हैं.

‘‘जो बड़े कारोबारी हैं और सक्षम हैं, वे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री राहत कोष में पैसा दे रहे हैं. तमाम कारोबारी जनता को खाना खिलाने और दूसरी मदद का काम भी कर रहे हैं, इस के बाद भी देश में करोड़ों ऐसे कारोबारी हैं, जो रोज कमाने और खाने वाले हैं.

‘‘सरकार के पास ऐसे कारोबार और उस को करने वाले लोगों के लिए कोई योजना नहीं है. ये कारोबारी अपने कारोबार के बंद होने से परेशान हैं.’’

केंद्र सरकार ने लाखों करोड़ का जो राहत पैकेज दिया है, वह सही हाथों में पहुंचने के बाद ही कारोबारी जगत को उठाने में मदद मिलेगी.

नागरिकता कानून पर बवाल

देशभर में नागरिकता कानून में बदलाव से अफरातफरी मची हुई है. जिस वाहवाही की उम्मीद भाजपा सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा था वह उसे नहीं मिली. यह बदलाव मोटेतौर पर पाकिस्तान, बंगलादेश व अफगानिस्तान से आने वाले हिंदुओं को जल्दी भारतीय नागरिकता देने के लिए बना है. इन देशों में से बंगलादेश से तो हिंदू आते रहे हैं, पर पाकिस्तान व अफगानिस्तान से नाम के हिंदू ही आते हैं.

भाजपा और भगवा जमात की सोच यह है कि पाकिस्तान का नाम ले कर कभी भी इस देश के लोगों को बहकाया जा सकता है. पिछली मई में हुए चुनावों में भाजपा ने पाकिस्तान को ही निशाने पर ले कर बात की थी. बहुत पहले जब इंदिरा गांधी का सिंहासन डोल रहा था तब भी उन्होंने विदेशी हाथ का शिगूफा छेड़ा था और जिस का मतलब रूस या अमेरिका से नहीं था, पाकिस्तान से था. भाजपा कांग्रेस की कारगुजारियों की एकएक बात बारीकी से बहसों में दोहराती है पर वह विदेशी हाथ की बात नहीं करती, क्योंकि आज भाजपा यही कर रही है.

इस बदले कानून में पाकिस्तान का नाम इसलिए लिया गया है कि भारत का हिंदू वोटर भुलावे में रहे कि पाकिस्तान में तो हिंदुओं के साथ बहुत बुरा हो रहा है और वे डर कर भाग रहे हैं. बदले में वे अगर भारतीय मुसलमान को सताएं तो यह सही ही होगा.

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इस प्रकार का बदले का रिवाज सदियों से चल रहा है. दूर कहीं एक धर्म या जाति के लोग कुछ करें तो उन का बदला कहीं और निर्दोषों से लेना आदमी की आदत है. पुलिस ऐसे मामलों में कुछ नहीं करती, यह तो सब जानते हैं. इस नए कानून से एक हथियार हरेक आम हिंदू को मिल जाएगा कि वह किसी भी मुसलिम से पूछताछ करने लगे चाहे उस के पास कोई अधिकार है या नहीं.

बजाय मिल कर देश को बनाने के अब बिगाड़ने का काम शुरू हो गया है. देश की माली हालत खराब है. मंदी छाई हुई है. बिक्री घट रही है. बेरोजगारी बढ़ रही है. प्याज तक के दाम आसमान पर हैं, पर भाजपा सरकार को कश्मीर के अनुच्छेद 370, तीन तलाक, नागरिकता बिल, राम मंदिर, नमामि गंगे, चारधाम, पटेल की मूर्ति, रामसीता की मूर्ति की पड़ी है.

देश में अगर कुछ हो रहा है तो पुलिस का काम हो रहा है. कश्मीर हो, उत्तरपूर्व हो, असम हो, हैदराबाद में रेप हो, उन्नाव में लड़कियों को जलाना हो, पुलिस ही पुलिस दिखती है. लगता है 2014 और 2019 में हम ने देश को बनाने के लिए नहीं देश में पुलिस राज बनाने के लिए सरकारें चुनी थीं.

नागरिकता कानून में बदलाव आम आदमी को देगा कुछ नहीं, पर बेबात का संकट पैदा कर देगा. लंगड़े देश की बैसाखी भी तोड़ दी जाएगी. इस में सब से ज्यादा बुरा उन किसानों, कारखानों के मजदूरों, हुनरमंद लोगों, औरतों, जवानों का होगा जिन का कल काला होता नजर आ रहा है.

अगर कुछ चमचमा रहा है तो मंदिर और पूजापाठ का धंधा जिस में पहले केवल ऊंची जातियों के लोग जाते थे, अब पिछड़े भी धकेले जा रहे हैं और वे कामधंधे छोड़ कर अलख जगाने में लग गए हैं.

मौत के मकान

दिल्ली में 45 लोगों की संकरी गलियों में बने गोदाम में आग लगने से हुई मौतों पर भाजपा और आम आदमी पार्टी एकदूसरे और गोदाम मालिकों पर चाहे जितनी तूतूमैंमैं कर लें, सच बात तो यह है कि दिल्ली जैसे शहर में मजदूरों के पास रहने की जगह तक नहीं है और उन्हें संकरी गलियों में एकदूसरे से सटे बने मकानों में जो गोदामों की तरह इस्तेमाल होते हैं, काम भी करना होता है और वहीं रहना होता है. उन की जिंदगी उन चूजों की तरह होती है जिन्हें आटोरिकशा, ट्रकों पर लाद कर पौल्ट्री फार्म से मंडियों तक ले जाया जाता है और फिर काट कर खा लिया जाता है.

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ये 45 लोग खुशी से उस गोदाम में नहीं रह रहे थे जहां पुरानी वायरिंग थी, सामान भरा था, छोटी खिड़कियां थीं, गुसलखाने नहीं थे, शौच का आधाअधूरा इंतजाम था. वे गुलाम भी नहीं थे. वे आजाद थे और कहीं भी जा कर रह सकते थे, पर उन्हें वहीं रहना पसंद आया, क्योंकि छत भी मिली, रोजाना रोजगार भी मिला.

देश की 60-70 फीसदी आबादी ऐसे ही रह रही है. यह वह आबादी है जो अछूत नहीं मानी जाती. ये लोग पिछड़ी जातियों के हैं पर आज 70 साल की आजादी और 150 साल की तकनीक के बावजूद जंगलों में रहने की तरह रह रहे हैं. अब जंगल शहरी हो गए हैं, उतने ही खतरनाक.

उत्तर प्रदेश, बिहार,  झारखंड से आए ये मजदूर 500-600 रुपए की दिहाड़ी में इतना ही कमा पाते हैं कि अपना पेट भर सकें, कुछ पैसे घर भेज सकें. ये अपना मकान अलग ले कर नहीं रह सकते, आनेजाने का खर्च नहीं उठा सकते. देशभर में फैली भयंकर बेकारी, गरीबी, अनपढ़ता उन की इस हालत के लिए जिम्मेदार है, न भाजपा की नगरनिगम, न अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार, न पिछली सरकारें और न ही गोदाम मालिक.

इन गोदामनुमा फैक्टरियों में स्कूल बैग बनते हैं, कपड़े सिले जाते हैं, बाइडिंग होती है और यहीं कारीगर सो जाते हैं, क्योंकि वे कहीं और नहीं जा सकते.

यह देश के कर्णधारों की गलती है, अमीर और गरीब के बीच की बढ़ती खाई का नतीजा है. पूरे देश ने किस्मत और पूजापाठ पर भरोसा करना शुरू कर दिया है, मेहनत पर नहीं. देश में गरीबों को, पिछड़ों को, दलितों को पिछले जन्मों के पापों का फल भोगना माना जा रहा है. घंटेघडि़याल बजाए जा रहे हैं, मंदिर बनाए जा रहे हैं, फैक्टरियां नहीं, मजदूरों के घर नहीं. इसलिए जो हुआ होना ही था, होता रहेगा, क्योंकि देश की हालत दिन ब दिन बिगड़ रही है, सुधर नहीं रही.

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गहरी पैठ

अपने कैरियर की शुरुआत से ठाकरे परिवार ने यदि कोई सही फैसला लिया है, तो अब भारतीय जनता पार्टी के साथ बिना मुख्यमंत्री बने सरकार न बनाने का फैसला लिया है. वरना तो यह पार्टी बेमतलब में कभी दक्षिण भारतीयों, कभी बिहारियों, कभी हिंदू पाखंडवादियों के नाम पर हल्ला मचाती रहती थी. शिव सेना का असर महाराष्ट्र में गहरे तक है. महाराष्ट्र की मूल जनता जो पहले खेती करती थी, छोटी कारीगरी करती थी, बाल ठाकरे की नेतागीरी में ही अपना वजूद बना पाई थी.

अफसोस यह है कि 1966 में जन्म से ही शिव सेना भगवा दास की तरह बरताव कर रही है. उस ने वे काम किए जो भारतीय जनता पार्टी सीधे नहीं कर सकती थी. उस ने तोड़फोड़ की नीति अपनाई जिस से वह भगवा एजेंडे का दमदार चेहरा बनी, पर हमेशा भारतीय जनता पार्टी की हुक्मबरदार थी. महाराष्ट्र के मराठे लोग खेती करने वालों में से आते हैं. उन्होंने ही महाराष्ट्र को ऊंचाइयों पर पहुंचाया था. शिवाजी ने ही औरंगजेब से तब दोदो हाथ किए थे, जब उस की सत्ता को चुनौती देने वाला कोई न था. मुगल राज को खत्म करने में मराठों की सेना का बड़ा हाथ था.

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लेकिन शिवाजी के बाद मराठों की नेतागीरी फिर पुरोहितपेशवाओं के हाथों में आ गई. वे ही मराठा साम्राज्य को चलाने लगे थे. 1966 में बाल ठाकरे ने जिस भी वजह से शिव सेना बनाई हो, उस को इस्तेमाल किया गया. उस के लोग महाराष्ट्र के गांवगांव में हैं. वे ही कारखानों की यूनियनों में  झंडा गाड़े रहे. कम्यूनिस्ट आंदोलन को उन्होंने ही हराया, लेकिन वे हरदम चाह कर या अनजाने में सेवक बने रहे. जब मुख्यमंत्री पद एक बार मिला था तो भी भाजपा की कृपा से.

अब 2019 में उद्धव ठाकरे अड़ गए कि वे अपनी कीमत लेंगे. वे केवल मजदूर नहीं हैं जो भाजपा की पालकी उठाएंगे. वे खुद पालकी में बैठेंगे. शिव सेना का मुख्यमंत्री पर हक जमाना सही है, क्योंकि भाजपा की जीत शिव सेना की वजह से हुई है. 2014 में भी भाजपा और शिव सेना अलगअलग लड़ीं, पर भाजपा को 122 सीटें मिली थीं और शिव सेना को 63. भाजपा ने 2019 में मई में लोकसभा चुनावों के बाद एक फालतू का सा मंत्रालय दिल्ली कैबिनेट में दे कर बता दिया था कि उद्धव ठाकरे या नीतीश कुमार की हैसियत क्या है.

कांग्रेस के लिए इस हालत में शिव सेना से समझौते का फैसला करना आसान नहीं है, क्योंकि भाजपा हर तरह से शिव सेना को फुसला सकती है. 6-8 महीने में शिव सेना को मजबूर कर सकती है कि वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी या कांग्रेस से किसी बात पर  झगड़ कर फिर भाजपा के खेमे में आ जाए. 11 दिसंबर को कांग्रेस ने फैसले में देर लगाई तो शिव सेना को निराशा हुई, पर जो यूटर्न शिव सेना ले रही है वह आसानी से पचने वाला नहीं है. शिव सेना को यह जताना होगा कि अब तक उस को गुलामों की तरह इस्तेमाल किया गया है. वह महाराष्ट्र की राजा नहीं थी, केवल मुख्य सेवक थी. उम्मीद करें कि यह अक्ल उन और पार्टियों को भी आएगी जो भाजपा के अश्वमेध घोड़े के साथ चल कर अपने को चक्रवर्ती सम झ रही हैं. वे केवल दास हैं, जैसे उन के वोटर हैं.

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देश के सामने असली परेशानी मंदिरमसजिद नहीं है, बेरोजगारी है. यह बात दूसरी है कि आमतौर पर धर्म के नाम पर लोगों को इस कदर बहकाया जा सकता है कि वे रोजीरोटी की फिक्र न कर के अपनी मूर्ति के लिए जान भी दे दें और अपने पीछे बीवीबच्चों को रोताकलपता छोड़ जाएं. जब देश के नेता मंदिर की जीत पर जश्न मना रहे थे, उस समय 15 साल से 35 साल की उम्र के 58 करोड़ लोगों में नौकरी की फिक्र बढ़ रही थी.

इन में से काफी नौकरी के लिए तैयार से हैं और काफी नौकरी पाए हुए हैं. जिन के पास नौकरी है उन्हें पता नहीं कि यह नौकरी कब तक टिकेगी. जिन के पास नहीं है वे अपना पैसा या समय गलियों, खेतों में बेबात गुजारते हैं. इस देश में हर साल 1 से सवा करोड़ नए जवान लड़केलड़कियां पहले नौकरी ढूंढ़ते हैं. क्या इतनी नौकरियां हैं?

देश में बड़े कारखानों की हालत बुरी है. सरकार की सख्ती से बैंकों ने कर्ज देना बंद सा कर दिया है. कभी प्रदूषण के मामले को ले कर, कभी टैक्स के मामले को ले कर कभी सस्ते चीनी सामान के आने से भारतीय बड़े उद्योग न के बराबर चल रहे हैं, लगना तो दूर. अखबार हर रोज उद्योगों, बैंकों, व्यापारों के घाटे के समाचारों से भरे हैं.

छोटे उद्योगों, कारखानों और दुकानों में काफी नौकरियां निकलती हैं. देश के 6 करोड़ छोटे कामों में 14 करोड़ को रोजगार मिला हुआ है, पर इन में से 5 करोड़ लोग तो अपना रोजगार खुद करते हैं. ये खुद काम करने वाले हर तरह की आफत सहते हैं. इन के पास न तो काम करने की सही जगह होती है, न ही कोई नया काम करने का हुनर. इन 6 करोड़ छोटे काम देने वालों में 10 से ज्यादा लोगों को काम देने वाले सिर्फ 8 लाख यूनिट हैं.

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इन 14 करोड़ लोगों को जो काम मिला है वह बड़ी कृपा है पर उन के पास न नया हुनर है, न उन की कोई खास तमन्ना है. वे जेल व कैदियों का सा काम करते हैं. वे इतना न खुद कमा पाते है, न कमा कर मालिक को दे पाते हैं कि कुछ बचत हो, बरकत हो, काम बड़ा हो सके. 50 करोड़ लोग जहां नौकरी पाने के लिए खड़े हों वहां ये 6 करोड़ काम देने वाले क्या कर सकते हैं?

सरकारी नौकरियां देश में कुल 3-4 करोड़ हैं. इस का मतलब हर साल बस 30-40 लाख नए लोगों को काम मिल सकता है. आरक्षण इसी 30-40 लाख के लिए है और उसी को खत्म करने के लिए मंदिर का स्टंट रचा जा रहा है, ताकि लोगों का दिमाग, आंख, कान, मुंह बेरोजगारी से हटाया जा सके और जो नौकरियां हैं, वे भी ऊंचे लोग हड़प जाएं और चूं तक न हो.

दलितों को तो छोडि़ए वे बैकवर्ड जो भगवा गमछा पहने घूम रहे हैं, यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर कोई भी मंदिर उन की नौकरी को पक्का कैसे करेगा. उन्हें लगता है कि भगवान सब की सुनेगा. भगवान सुनता है, पर उन की जो भगवान की झूठी कहानी बनाते हैं, सुनाते हैं, बरगलाते हैं.

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महाराष्ट्र: शरद पवार ने उतारा भाजपा का पानी

कोई नैतिकता, कोई आदर्श, कोई नीति और सिद्धांत नहीं है. जी हां! एक ही दृष्टि मे यह स्पष्ट होता चला गया की महाराष्ट्र में किस तरह मुख्यमंत्री पद और सत्ता के खातिर देश के कर्णधार, आंखो की शरम भी नहीं रखते.

इस संपूर्ण महाखेल मे एक तरह से भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान शीर्षस्थ  मुखिया, प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का शरद पवार ने अपनी सधी हुई चालो से देश के सामने पानी उतार दिया है और क्षण-क्षण की खबर रखने वाली मीडिया विशेषता: इलेक्ट्रौनिक मीडिया सब कुछ समझ जानकर के भी सच को बताने से गुरेज करती रही है.

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नि:संदेह सत्तासीन मोदी और शाह को यह शारदीय करंट कभी भुला नहीं जाएगा क्योंकि अब जब अजित पवार उप मुख्यमंत्री की शपथ अधारी गठबंधन मे भी ले रहे हैं तो यह दूध की तरह साफ हो जाता है की शरद पवार की सहमति से ही अजीत पवार ने देवेंद्र फडणवीस के साथ खेल खेला था.

भूल गये बहेलिए को !

बचपन में एक कहानी, हम सभी ने पढ़ी है, किस तरह एक बहेलिया पक्षी को फंसाने के लिए दाना देता है और लालच में आकर पक्षी बहेलीए के फंदे में फंस जाता है महाराष्ट्र की राजनीतिक सरजमी में भी विगत दिनों यही कहानी एक दूसरे रूपक मे, देश ने देखी. पक्षी तो पक्षी है, उसे कहां बुद्धि होती है. मगर, हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां और उनके सर्वे सर्वा भी ‘पक्षी’ की भांति जाल में फंस जाएंगे, तो यह शर्म का विषय है. शरद पवार नि:संदेह राजनीतिक शिखर पुरुष है और यह उन्होंने सिध्द भी कर दिया.

इस मराठा क्षत्रप में सही अर्थों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की युति को धोबी पछाड़ मारी है.

शरद पवार जानते थे की अमित शाह बाज नहीं आएंगे और सत्ता सुंदरी से परिणय के पूर्व या बाद में बड़ा  खेल खेलेंगे, इसलिए उन्होंने सधी हुई चाल से भतीजे  अजीत पवार को 54 विधायकों के लेटर के साथ फडणवीस के पास भेजा. जानकार जानते हैं की जैसे बहेलिए ने पक्षी फंसाने दाने फेंके थे और पक्षी फस गए थे देवेंद्र फडणवीस और सत्ता की मद में आकर भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उस जाल में फस गया. देश ने देखा की कैसे शरद पवार की पॉलिटेक्निकल गेम में फंसकर बड़े-बड़े नेताओं का पानी उतर गया.

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इतिहास में हुआ नाम दर्ज

महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में भगत सिंह कोशियारी और देवेंद्र फडणवीस का इस तरह महाराष्ट्र की राजनीति और इतिहास में एक तरह से नाम दर्ज हो गया. यह साफ हो गया कि 5 वर्षों तक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे देवेंद्र फडणवीस कितने सत्ता के मुरीद हैं की उन्होंने रातों-रात सरकार बनवाने में थोड़ी भी देर नहीं की और जैसी समझदारी की अपेक्षा थी वह नहीं दिखाई.

देश ने पहली बार देखा एक मुख्यमंत्री कैसे 26/11 के शहीदों की शहादत के कार्यक्रम मे अपने उपमुख्यमंत्री अजीत पवार का इंतजार पलक पावडे बिछा कर कर रहे हैं. सचमुच सत्ता की चाहत इंसान से क्या कुछ नहीं करा सकती. इस तरह महाराष्ट्र के सबसे अल्प समय के मुख्यमंत्री के रूप में देवेंद्र फडणवीस का नाम दर्ज हो गया. मगर जिस तरह उनकी भद पिटी वह देश ने होले होले मुस्कुरा कर देखी.

मराठा क्षत्रप शरद भारी पड़े

महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में शरद पवार की धमक लगभग चार दशकों से है. यही कारण है की देश भर में शरद पवार की ठसक देखते बनती है. उन्हें काफी सम्मान भी मिलता है. क्योंकि शरद पवार कब क्या करेंगे कोई नहीं जानता. राजनीति की चौपड़ पर अपनी सधी हुई चाल के कारण वे एक अलग मुकाम रखते हैं.

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सन 78′ में जनता सरकार के दरम्यान 38 वर्षीय शरद पवार ने राजनीति का सधा हुआ  दांव चला था की मुख्यमंत्री बन गए थे. उन्होंने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, जैसी शख्सियतो के साथ राजनीति की क, ख, ग खेली और सोनिया गांधी के रास्ते के पत्थर बन गए थे समय बदला दक्षिणपंथी विचारधारा को रोकने उन्होंने कांग्रेस के साथ नरम रुख अख्तियार किया है और एक अजेय योद्धा के रूप में विराट व्यक्तित्व के साथ मोदी के सामने खड़े हो गए हैं देखिए आने वाले वक्त में क्या वे विपक्ष के सबसे बड़े नेता पसंदीदा विभूति बन कर प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी बनेंगे या फिर…

गहरी पैठ

महाराष्ट्र, हरियाणा की विधानसभाओं और 51 विधानसभा सीटों के चुनावों के नतीजों से भारतीय जनता पार्टी के सुनहरे रंग की परत तो उतर गई है. भाजपा पहले भी हारी थी पर फिर बालाकोट के कारण और मायावती के पैतरों के कारण लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीत गई. जीतने के बाद उस का गरूर बढ़ गया और उस ने किसानों, कामगारों, छोटे व्यापारियों की फिक्र ही छोड़ दी. आजकल ये काम वे पिछड़े लोग कर रहे हैं जो पहले शूद्रों की गिनती में आते थे, पर भाजपा ने जिन्हें भगवा चोले पहना दिए और कहा कि भजन गाओ और फाके करो.

इन लोगों ने जबरदस्त विद्रोह कर दिया. हरियाणा में जाटों, अहीरों, गुर्जरों ने और महाराष्ट्र में मराठों ने भाजपा को पूरा नहीं तो थोड़ा सबक सिखा ही दिया. दलित और मुसलिम वोट बंटते नहीं तो मामला कुछ और होता. दलित ऊंचे सवर्णों से ज्यादा उन पिछड़ों से खार खाए बैठे हैं जिन्हें वे रोज अपने इर्दगिर्द देखते हैं. उन्हें पता ही नहीं रहता कि असली गुनाहगार वह जातिवाद है जो पुराणों की देन है, न कि उन के महल्ले या गांव के थोड़े खातेपीते लोग, जिन्हें वे दबंग समझते हैं.

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हरियाणा में दुष्यंत चौटाला ने 10 सीटें पाईं और भारतीय जनता पार्टी से उपमुख्यमंत्री पद झटक लिया. कांग्रेस ताकती रह गई पर उसे अब उम्मीद है कि दूसरे राज्यों में जहां जाटों, पिछड़ों की पार्टियां नहीं हैं वहां उसे फायदा पहुंचेगा. भाजपा को यह समझना चाहिए पर वह समझेगी नहीं कि किसी भी देश को आगे बढ़ने के लिए ज्यादा सामान पैदा करना होता है. अमीरी कठोर मेहनत से आती है चाहे वह खेतों में हो या कारखानों में. मंदिरों में तो पैसा और समय बरबाद होता है.

भाजपा को तो राम मंदिर, पटेल की मूर्ति, चारधाम की देखभाल, अयोध्या की दीवाली की पड़ी रहती है. इन सब में पौबारह होती है तो इन का रखरखाव करने वाले भगवाधारियों की. वे पिछड़े जो काम कर रहे हैं, खूनपसीना बहा रहे हैं, वे व्यापारी जो रातदिन दुकानें खोले बैठे हैं, दफ्तरों में काम कर रहे वे लोग जो कंप्यूटरों पर आंखें खराब कर रहे हैं, वे औरतें जो बच्चों को पढ़ा रही हैं ताकि वे अपना कल सुधार सकें, को इन पूजापाठों से क्या फायदा होगा?

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भाजपा ने किसानों की परेशानियों को समझा ही नहीं. भाजपा तो सोनिया गांधी के जमीन अधिग्रहण कानून को खत्म करना चाहती है जिस से किसानों की जमीनें उन की अपनी पक्की मिल्कीयत बनी थीं. भाजपा ने जीएसटी लागू कर के उन लाखों पिछड़े वर्गों के दुकानदारों का काम बंद कर दिया जो छोटा काम करने लगे थे. नोटबंदी के बाद छोटे लोगों के पास पैसा बचा ही नहीं. बैंकों में रखा पैसा खतरे में है. भाजपा इस मेहनतकश जमात की सुन नहीं रही है तो इस ने चपत लगाई है, अभी हलकी ही है. महाराष्ट्र, हरियाणा में काफी कम सीटें जीतीं और विधानसभा उपचुनावों में बोलबाला नहीं रहा. यहां तक कि गुजरात के 6 उपचुनावों में से 3 कांग्रेस जीत गई जबकि कांग्रेस का तो कोई नेता ही नहीं है. राहुल फिलहाल सदमे में है, सोनिया बीमार हैं. नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अब चुनावी बिजली का शौक लगा है. अब सरकारें और लड़खड़ाएंगी.

सेना के गुणगान तो हमारे देश में बहुत किए जाते हैं पर ये दिखावा ज्यादा हैं, यह पक्का है. सैनिकों की शिकायतों को किस तरह नजरअंदाज किया जाता है, यह दिखता रहता है. यह तो साफ है यदि ऊंची जाति का ऊंचा अफसर सेना के खिलाफ अदालत में जाए तो भी उस के खिलाफ कुछ नहीं होता. हो सकता है, उसे मंत्री भी बना दिया जाए पर पिछड़ी जाति का कोई अदना सिपाही कुछ गलत कर दे तो पूरी फौज उस के पीछे हाथ धो कर पड़ जाती है.

सुरेंद्र सिंह यादव को आर्मी में सेना में सिपाही की नौकरी दी गई थी और 26 अप्रैल, 1991 में उस ने नौकरी जौइन की. कुछ दिन बाद उस के आवेदन खंगालते समय पता चला कि उस के माध्यमिक शिक्षा मंडल, ग्वालियर के दिए मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट पर कुछ शक है. उसे आर्मी ऐक्ट की धारा 44 पर चार्जशीट दी गई और जब वह साबित नहीं कर पाया कि सर्टिफिकेट असली ही है तो उसे नौकरी से निकाल भी दिया गया और 3 महीने की जेल भी दे दी गई.

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यह तो पक्का है कि उस ने बाकी टैस्ट और फिजिकल जांच पूरी की होगी, क्योंकि सिर्फ मैट्रिक के सर्टिफिकेट के बल पर तो सेना में नौकरी नहीं मिलती. शायद इसीलिए रिव्यूइंग अथौरिटी ने समरी कोर्ट मार्शल का आदेश रद्द कर दिया और उसे फिर 27 नवंबर, 1992 को बहाल कर दिया. पर चूंकि वह अदना सिपाही था, गरीब था, यादव था, उस की छानबीन रिकौर्ड औफिस ने चालू रखी. उसे शो कौज नोटिस दिया गया और 10 जुलाई, 1993 को फिर निकाल दिया.

जिस देश में मंत्री, प्रधानमंत्री के सर्टिफिकेट का अतापता न हो वहां एक पिछड़े वर्ग के सिपाही के पीछे सेना हाथ धो कर पड़ गई. वह हाईकोर्ट गया जिस ने मामला आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल को सौंप दिया. सालों के बाद आर्म्ड फोर्सेस ट्रिब्यूनल ने 2016 में सिपाही के खिलाफ फैसला दिया और डिस्चार्ज को सही ठहराया.

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सुरेंद्र सिंह यादव अब सुप्रीम कोर्ट में आया कि उस पर एक ही गुनाह के लिए 2 बार कार्यवाही हुई, पहले समरी कोर्ट मार्शल और वहां से बहाल होने पर शो कौज नोटिस दे कर. उस पर किसी और गलती या गुनाह का आरोप नहीं था. अपने हक के लिए लड़ रहे आम सैनिक के लिए सुप्रीम कोर्ट में सेना ने सीनियर एडवोकेट आर. बालासुब्रमण्यम के साथ 5 और वकील खड़े किए. सिपाही सुरेंद्र सिंह यादव के साथ केवल एक वकील सुधांशु पात्रा था.

जब सुप्रीम कोर्ट में भारीभरकम फौज के भारीभरकम वकील हों तो अदना सिपाही को हारना ही था. सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि समरी कोर्ट मार्शल का फैसला दोबारा कार्यवाही करने में कोई रुकावट पैदा नहीं करता. वैसे आम कानून यही कहता है कि एक गुनाह पर 2 बार मुकदमा नहीं चल सकता और फिर यह तो पिछड़ी जाति का सीधासादा सिपाही था, उस की हिम्मत कैसे हुई कि अफसरों के खिलाफ खड़ा हो. यह कोई वीके सिंह थोड़े ही है जिस की 2-2 जन्मतिथियां रिकौर्ड में दर्ज हों, जो सेना में जनरल बना और फिर मंत्री.

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सौरव गांगुली का बीसीसीआई अध्यक्ष बनना, बीजेपी की प. बंगाल में बैक डोर एंट्री है!

राजनीति में कोई भी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. विलियम शेक्सपियर का एक मशहूर कोट है ‘Everything is Fair Love And War’. अब तो राजनीति के हालात हैं उसमें इस कोट को बदलकर Everything is Fair Love, War and Politics’. पिछले कुछ सालों में जिस तरह से बंगाल की राजनीति में बदलाव देखा गया वो बाकी अन्य राज्यों में देखने को नहीं मिला. भाजपा ने जिस तरह से बंगाल की राजनीति में एंट्री की है उसने ममता दीदी के माथे में चिंता की लकीरें खींच दी हैं. फिलहाल यहां हम बात करेंगे पूर्व क्रिकेटर और प्रिंस ऑफ कोलकाता कहलाने वाले सौरव गांगुली का. गांगुली ने बीसीसीआई अध्यक्ष पद की कमान संभाल ली है. भारतीय क्रिकेट के लिए तो ये एक स्वर्णिम वक्त है. लगभग 60-65 सालों के बाद कोई भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान इस पद पर बैठा है. लेकिन उनके इस पद से ममता दीदी काफी परेशान हैं. उनको लग रहा है कि अगर गांगुली बीजेपी के खेमे में गए तो ममता दीदी के हाथ से सत्तासुख छिन सकता है.

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गांगुली का केवल 10 महीने के लिए बीसीसीआई अध्यक्ष बनने के लिए तैयार होना भी कई सवाल भी खड़े कर रहे हैं. दरअसल, अध्यक्ष बनना गांगुली के लिए फायदा से ज्यादा नुकसान वाली डील है. अध्यक्ष बनने के बाद गांगुली को कमेंट्री और मीडिया कॉन्ट्रैक्ट से मिलने वाले करीब 7 करोड़ रुपये का नुकसान होगा. जब वह बीसीसीआई अध्यक्ष बन जाएंगे तो ऐसी किसी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे. इसके अलावा टीम इंडिया की कोचिंग का उनका सपना भी दूर की कौड़ी हो जाएगी. बता दें कि गांगुली कई मौकों पर कह चुके हैं कि वह भारतीय टीम का कोच बनने के ख्वाहिशमंद हैं. कहा जा रहा है कि गांगुली अध्यक्ष बनने के लिए इसलिए तैयार हुए हैं क्योंकि वह बंगाल में बीजेपी का मुख्यमंत्री का चेहरा बनने का ऑफर स्वीकार करेंगे. जबतक बीसीसीआई अध्यक्ष पद पर उनका कार्यकाल खत्म होगा तबतक बंगाल में विधानसभा चुनाव करीब आ जाएंगे.

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देश के गृहमंत्री अमित शाह ने इन दिनों कई न्यूज चैनलों को इंटव्यू दिया है. इस इंटरव्यू में एक सवाल कॉमन रहा. वो सवाल था क्या सौरव गांगुली बीजेपी ज्वाइन कर लेंगे. शाह ने भी बड़ी ही चालकी से इस बात का जवाब दिया. उन्होंने कहा कि अभी ऐसी कोई बात नहीं हुई है लेकिन आगे कुछ भी हो सकता है. कई पत्रकारों ने घुमा फिराकर इस सवाल को कई बार दागा लेकिन शाह का जवाब टस्स से मस्स नहीं हुआ. जब गांगुली से जब पूछा गया कि क्या वह 2021 में बीजेपी का बंगाल में चेहरा होंगे, गांगुली ने कहा, ‘कोई राजनेता मेरे संपर्क में नहीं है और यही हकीकत है. जहां तक ममता दीदी की बात है तो मैं उनका बधाई संदेश पाकर काफी खुश हूं.’ लेकिन एक हकीकत यह भी है कि गांगुली अमित शाह, अनुराग ठाकुर और हेमंत बिस्वा शर्मा से मिले हैं.

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केंद्रीय गृह मंत्री ने यह भी साफ कर दिया कि बंगाल में बीजेपी का चेहरा कौन होगा यह अभी तय नहीं है. इस पर अभी फैसला नहीं हुआ है. लेकिन जनता ने यह तय कर लिया है कि ममता बनर्जी सरकार को हटाना है. बता दें कि बीजेपी बंगाल में सरकार बनाने के लिए पूरी कोशिश कर रही है. 2016 में हुए विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने काफी कोशिश की थी लेकिन ममता बनर्जी विजेता बनकर उभरीं थी. 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 42 में से 18 सीटें जीती थीं. अब 2021 में बंगाली में विधानसभा होने जा रहे हैं. बीजेपी इन चुनावों में ममता सरकार को गिराने के लिए गांगुली का सहारा ले सकते हैं.

पश्चिम बंगाल में 42 संसदीय सीटें हैं. 2014 लोकसभा चुनाव में तृणमूल उनमें से 34 सीटें हासिल कर लोकसभा में तीसरी सबसे पार्टी बनी थी. ऐसे में 2019 लोकसभा चुनाव में अगर तृणमूल इससे अच्छा कुछ करती है तो किंगमेकर होने के साथ ममता की पीएम उम्मीदवारी भी मजबूत होगी, लेकिन 2011 विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा यहां मुख्य विपक्षी दल बन कर उभरी. 2014 लोकसभा चुनाव में स्थिति और मजबूत हुई. पहली बार भाजपा को पश्चिम बंगाल से दो सीटें मिलीं. अब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 2019 चुनाव के लिए बंगाल से 23 सीटों का लक्ष्य तय किया था लेकिन भाजपा ने यहां 18 सीटें जीती थी और कई सीटें मामली अंतर से हारी थी.

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कश्मीर : काला दिवस या फिर …!

कश्मीर में सन्नाटा है. जम्मू और लद्दाख में पटाखे छूट रहे हैं. आवाम खुशियां मना रहा है. लोगों के रोंगटे खड़े हो गए हैं और कश्मीर मसले पर दुनिया विशेषकर पाकिस्तान अमेरिका हतप्रभ है. 370 धारा और कश्मीर…. भारत के कोने कोने में सदैव चर्चा का विषय रहे. विगत 40 वर्षों से कश्मीर में आग के शोले उठते रहे जो बुझाए नहीं बुझ रहे थे. इसके पीछे सीधे-सीधे पाकिस्तान का हाथ था. भारत का अभिन्न अंग कश्मीर सिर्फ नाम का था. यह एक बड़ी त्रासदी थी ट्रेजेडी थी. जिसे भारतवासी मुंह छुपाकर मानने को विवश थे.

संविधान और तत्कालीन परिस्थितियों ने कश्मीर को भारत का “लाड़ला अतिथि” बना रखा था. जिसके हर नाज- नखरे, खून- खराबा सहता भारत आथित्य में लगा हुआ था. मगर अब नरेंद्र दामोदरदास मोदी के साहसिक कदम से परिस्थितियां बिल्कुल बदल गई है . कश्मीर अब भारत का विधिवत अभिन्न अंग बन गया है यह एक ऐतिहासिक मौका है…।

कश्मीर में घनघोर अंधेरा है !

हमारा देश एक विचित्र स्थिति में रहा .देश एक, मगर संविधान दो ! देश एक मगर झंडे दो !! देश एक मगर नागरिकता दो !!!

जी हां यह स्थिति पीड़ादायक थी .कश्मीर अखंड भारत का हिस्सा रहा है किसी दूसरी दुनिया से अचानक तो टपका नहीं है.फिर ऐसी परिस्थितियां क्यों कर रही ? आजादी के पश्चात राजनीतिक मजबूरियों के चलते यह सब करना पड़ा सहना पड़ा. मगर कब तलक….!

इसी विचारधारा के तहत प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की व्यवस्था से लोग खफा थे. और अपनी आवाज बुलंद करते रहे.
धारा 370 खत्म करने और जम्मू कश्मीर को सहसा केंद्र शासित प्रदेश घोषित करते ही जहां जम्मू के नागरिकों में खुशी व्याप्त हो गई मिठाई,फटाके चलने लगे वहीं कश्मीर में भयंकर अंधेरा व्याप्त हो गया. 43 विधानसभा क्षेत्रों में बंटा कश्मीर का राजनीतिक ड्रामा खत्म हो गया. महबूबा मुफ्ती, फारूक अब्दुल्ला, परिवार का खेल खत्म होने से सन्नाटा पसर गया. वहीं कश्मीर जो राज्य का मात्र 17 फ़ीसदी भूभाग है, मे रहस्यमय सन्नाटा , अंधेरा, उजाले में भी देखा जा सकता है… केंद्र सरकार के साहसी फैसले से कश्मीर पर मानो बिजली गिर गई है .इन पंक्तियों के लिखे जाने वक्त तलक एक शब्द समर्थन में नहीं फूटा है. जो बताता है यह सन्नाटा एक तूफां का संकेत है. जिसे साहस, समझदारी से हैंडल करना केंद्र सरकार की जवाबदारी और जवाबदेही दोनों है.

भाजपा और सरकार की जय जय…

कश्मीर के बहुप्रतीक्षित मसले पर ब्रह्मास्त्र चला कर जहां भाजपा ने अपने एक बहुत पुराने इरादे को पूरा कर दिया. वहीं केंद्र सरकार नरेंद्र दामोदरदास मोदी और अमित शाह की साख देश दुनिया में बढ़ गई.
नि:संदेह 370 धारा का मसला बहुत कठिन और पेचीदा था. जब भाजपा और उसके गणमान्य नेता धारा 370 की समाप्ति की बातें करते थे तब कांग्रेस और उनके विरोधी विद्रूष मुस्कान बिखेर चैलेंज किया करते थे कि ऐसा नहीं हो सकता .आज की परिस्थितियों में कश्मीर के दिग्गज नेता फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती ने भी कल्पना नहीं की थी की केंद्र सरकार आनन-फानन में ऐसा कर गुजरेगी मगर ऐसा हो गया क्योंकि एक मुहावरा है न… ‘मोदी है तो मुमकिन है !!’

आप तो ऐतिहासिक पुरुष बन गए

जी हां! यह सच है कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी और अमित शाह भारतीय इतिहास में अपना नाम लिखाने में कामयाब हो गए हैं .आजादी के 72 वर्षों के इतिहास काल में फिर एक ऐसा मौका आया है जब देश रुक गया है और सरकार अपने भविष्य की ओर तक रहा है.

धारा 370 और कश्मीर मसले पर आमूल चूल करने वाला फैसला कोई मामूली बात नहीं है.
मगर जिस धैर्य और साहस का परिचय नरेंद्र मोदी और अमित शाह की युति ने दिया है वह अद्भुत है. इस पेचीदा मसले पर एक एक करके विजय प्राप्त करना यह दिखाता है की राजनीति भी एक अद्भुत खेल है. जिसमे पग- पग पर कांटे हैं,रहस्य है रोमांच है.
कश्मीरी पंडितों के लिए अविस्मरणीय पल बन गया यह मौका. वही लद्दाख जो लंबे समय से स्वायत्ता मांग रहा था उसकी मांग पूरी हुई. बेहद नफसत के साथ केंद्र सरकार ने एक नासूर का इलाज किया है यही कारण है कि मायावती, अरविंद केजरीवाल जैसे धुर विरोधियों ने भी धारा 370 कश्मीर मसले पर नरेंद्र मोदी का खुलकर साथ दिया.

कांग्रेस “दिवालियेपन” की ओर…

नरेंद्र मोदी अमित शाह के राजनीतिक मास्टर स्ट्रोक के खेल में सबसे बड़ी क्षति अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की हुई. जिसके राज्यसभा के मुख्य सचेतक ने आलाकमान को धत्ता बता राज्यसभा सांसद पद से ही इस्तीफा दे दिया और व्हीप भी जारी नहीं की.
यही नहीं गुलाब नबी आजाद ने कांग्रेस के पैरों में खूब कुल्हाड़ी चलाई. राज्य सभा में उन्होंने कहा अमित शाह की कार्यवाही मानो बम चलाने जैसी है यह संविधान का मर्डर है !
आजाद जैसे परिपक्व राजनेता का यह बेहद बचकाना बयां है . कांग्रेस पार्टी का यह स्टैंड उसे नेस्तनाबूद करेगा क्योंकि देश की आवाम धारा 370 के खिलाफ खड़ी है और कश्मीर में ताजा हवा देशवासियों को मुफीद है. ऐसे में धारा के विपरीत चलना कांग्रेस की छवि, लोकप्रियता को चोटिल करेगा. राहुल गांधी, प्रियंका, सोनिया गांधी का मौन यह बता रहा है की उनके हाथ-पांव भी बंधे हुए हैं और देश की आवाम की भावना को महसूस कर रहे हैं मगर मन से कसक है.

ममता की ओर झुकते नीतीश?

इस बीच ऐसी अटकलें भी तेज हुई थीं कि नीतीश कुमार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सरकार की बहुत ज्यादा बुराई करने को ले कर अजय आलोक से नाराज थे.

अजय आलोक ने पार्टी की राज्य इकाई के प्रमुख वशिष्ठ नारायण सिंह को संबोधित करते हुए अपने इस्तीफे में लिखा था, ‘मैं आप को पत्र लिख कर यह सूचित कर रहा हूं कि मैं पार्टी प्रवक्ता के पद से इस्तीफा दे रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है कि मैं पार्टी के लिए अच्छा काम नहीं कर रहा हूं. मैं यह अवसर देने के लिए आप का और पार्टी का धन्यवाद करता हूं लेकिन कृपया मेरा इस्तीफा स्वीकार करें.’

बता दें कि अपने एक ट्वीट में अजय आलोक ने पहले भी जद (यू) के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर की कंपनी के ममता बनर्जी के लिए चुनाव प्रचार की कमान संभालने पर सवाल उठाए थे.

अजय आलोक पटना के मशहूर डाक्टर गोपाल प्रसाद सिन्हा के बेटे हैं. आलोक अपने कालेज के दिनों से राजनीति में सक्रिय थे. उन्होंने साल 2012 में जद (यू) को जौइन किया था.

सांसद के घर कुर्की का आदेश

वाराणसी. इन लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की घोसी लोकसभा सीट से बहुजन समाज पार्टी के नेता अतुल राय सांसद बने थे, लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान एक छात्रा ने उन पर यह कहते हुए रेप का आरोप लगाया था कि अतुल ने उसे अपनी पत्नी से मिलाने के लिए अपने आवास पर बुलाया था और इस के बाद रेप किया था.

उस पीडि़ता का कहना है कि अतुल राय ने उसे जान से मारने की धमकी भी दी, जबकि अतुल राय का कहना है कि वह छात्रा उन के औफिस आ कर चुनाव लड़ने के नाम पर चंदा लेती थी और चुनाव में उम्मीदवार बनने के बाद उन्हें ब्लैकमेल करने की कोशिश की गई.

छात्रा के आरोप के बाद न्यायिक मैजिस्ट्रेट ने अतुल राय की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए थे. वे जमानत के लिए हाईकोर्ट तक गए, लेकिन उन्हें जमानत नहीं मिली, तो वे फरार हो गए जिस के चलते 14 जून को पुलिसप्रशासन ने उन के घर पर कुर्की का नोटिस लगा दिया.

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बिजली के बहाने भिड़ंत

भोपाल. मध्य प्रदेश में बिजली की कटौती को ले कर विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के एक नेता का सोशल मीडिया पर लंगर डाल कर बिजली गुल करने वाले लड़कों की भरती का इश्तिहार सामने आने से कांग्रेस और उस में तकरार और ज्यादा बढ़ गई.

दरअसल, दमोह जिले के मीडिया प्रभारी मनीष तिवारी ने 12 जून को सोशल मीडिया पर एक पोस्ट डाला था, ‘विज्ञापन-बिजली गोल कराने वाले लड़कों की आवश्यकता है. नोट-लंगर डालने में ऐक्सपर्ट हों. संपर्क करें बीजेपी दमोह.’

इस मसले पर प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष के मीडिया समन्वयक नरेंद्र सलूजा ने कहा, ‘प्रदेश में भाजपा के लोग बिजली गुल कराने की एक बड़ी साजिश चला रहे हैं. बिजली गुल कराने के लिए टीम लगाई जा रही है.’

 राजस्थान कांग्रेस में रार

जयपुर. राजस्थान में सत्ता का सुख भोग रही कांग्रेस पार्टी में खेमेबंदी अब खुल कर सामने आ रही है. इस खेमेबाजी की एक तरफ वहां के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हैं, तो दूसरी तरफ उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट.

दरअसल, दौसा जिले के भंडाना इलाके में मंगलवार, 11 जून को सचिन पायलट के पिता व केंद्रीय मंत्री रह चुके राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर कराई गई एक प्रार्थना सभा में सरकार के 15 मंत्रियों समेत 62 विधायक पहुंचे थे, लेकिन मुख्यमंत्री नहीं आए थे. उन्होंने ट्विटर के जरीए राजेश पायलट को श्रद्धांजलि दी थी.

इस के ठीक एक दिन बाद जब अशोक गहलोत जयपुर में एमएसएमई के एक पोर्टल की शुरुआत कर रहे थे तो कई बड़े मंत्री जयपुर में होने के बावजूद वहां नहीं गए थे.

कैप्टन ने कन्नी काटी

चंडीगढ़. पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में शनिवार, 15 जून को हुई नीति आयोग की बैठक में भाग लेने नहीं गए.

कैप्टन अमरिंदर सिंह के बैठक में शामिल न होने की वजह उन का बीमार होना बताई गई, जबकि वे पूरा एक हफ्ता हिमाचल प्रदेश में अपने फार्महाउस पर छुट्टियां बिता कर पंजाब लौटे थे.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह देश के ऐसे दूसरे मुख्यमंत्री थे जो इस खास बैठक में शामिल होने नहीं गए.

गरमाई धरने की सियासत

बैंगलुरु. जेएसडब्लू जमीन सौदे में धांधली का आरोप लगाते हुए कर्नाटक भाजपा के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री रह चुके बीएस येदियुरप्पा और दूसरे नेताओं ने 14 जून को बैंगलुरु में पूरी रात धरनाप्रदर्शन किया जिस से एचडी कुमारस्वामी की राज्य सरकार कठघरे में आ गई.

यह मामला जेएसडब्लू स्टील कंपनी की बेल्लारी में 3,667 एकड़ जमीन की बिक्री का है. भाजपा ने आरोप लगाया कि जेएसडब्लू को सस्ती दर पर जमीन अलौट करने का फैसला सरकार ने जानबूझ कर किया है. ऐसा कर के सरकार अपनी झोली भरने का काम करना चाहती है, क्योंकि उसे राज्य में अपनी सरकार गिरने का डर है.

केजरीवाल ने उठाया मुद्दा

नई दिल्ली. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 15 जून को नीति आयोग की बैठक में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मुद्दा उठाया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में उन्होंने कहा, ‘दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए जिस का वादा सालों से किया जा रहा है लेकिन लगातार केंद्र सरकारें इनकार करती रही हैं.’

आम आदमी पार्टी ने हालिया लोकसभा चुनाव में भी दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने का मुद्दा उठाया था. उस का कहना है कि केंद्र की दखलअंदाजी की वजह से वह अपनी योजनाओं को असरदार तरीके से लागू करने में कामयाब नहीं हो पा रही?है.

 मूर्ति पर हुई गिरफ्तारी

हैदराबाद. मंगलवार, 17 जून को कांग्रेस के सांसद रह चुके 2 बड़े नेताओं वी. हनुमंथा राव, हर्ष कुमार और उन के समर्थकों को तब गिरफ्तार कर लिया गया जब वे शहर के पंजागुट्टा चौराहे पर भीमराव अंबेडकर की मूर्ति लगाने की कोशिश कर रहे थे.

दरअसल, अप्रैल महीने में ग्रेटर हैदराबाद  नगरनिगम ने ‘अंबेडकर जयंती’ से एक दिन पहले ‘जय भीम सोसाइटी’ द्वारा अंबेडकर की मूर्ति को स्थापित किए जाने के बाद उस जगह से हटा दिया था. बाद में वह मूर्ति टूटीफूटी हालत में कूड़े में मिली थी, जिस का दलित संगठनों ने कड़ा विरोध जताया और इस के जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्यवाही की मांग की.

ग्रेटर हैदराबाद नगरनिगम के अधिकारियों ने कहा कि मूर्ति को बिना इजाजत लिए लगाया गया था, इसलिए हटा दिया गया.

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नेता के सामने पी लिया जहर

मुंबई. 15 जून को महाराष्ट्र के ऊर्जा राज्यमंत्री एमएम येरावर के सामने एक किसान ने जहर पी कर जान देने की कोशिश की. दरअसल, बुलढाणा में एक कार्यक्रम के दौरान ऊर्जा राज्यमंत्री मंच पर मौजूद थे, तभी ईश्वर खारटे नाम के एक किसान ने वहां सब के सामने कीटनाशक पी कर जान देने की कोशिश की.

अस्पताल ले जाए गए ईश्वर खारटे का आरोप है कि उस के दादा ने साल 1980 में बिजी के कनैक्शन के लिए अर्जी लगाई थी पर उन्हें अब तक कनैक्शन नहीं मिला है, जबकि संबंधित अधिकारी का कहना है कि ईश्वर खारटे ने बकाया जमा नहीं किया है, इसलिए उन्हें कनैक्शन नहीं मिला है.              द्य

 

आम लोगों की सरकार से उम्मीदें

आम लोगों को एक सरकार से बहुत उम्मीदें होती हैं चाहे हर 5 साल बाद पता चले कि सरकार उम्मीदों पर पूरी नहीं उतरी. सरकार चलाने वालों के वादे असल में पंडेपुजारियों की तरह होते हैं कि हमें दान दो, सुख मिलेगा. हमें वोट दो, पैसा बरसेगा. अब के तो जैसे हम लोगों ने पंडेपुजारियों को ही संसद में चुन कर भेजा है.

यह तब पक्का हो गया जब संसद सदस्यों ने लोकसभा में शपथ ली. भाजपा सांसद कभी गुरुओं का नाम लेते, कभी ‘भारत माता की जय’ का नारा बोलते, तो कभी ‘वंदे मातरम’ और ‘जय श्रीराम’ एकसुर में चिल्लाते रहे. यह सीन एक धीरगंभीर लोकसभा का नहीं, एक प्रवचन सुनने के लिए जमा हुई भीड़ का सा लगने लगा था.

भाजपा की यह जीत धर्म के दुकानदारों, धर्म की देन जातिवाद के रखवालों, हिंदू राष्ट्र की सपनीली जिंदगी की उम्मीदें लगाए थोड़े से लोगों की अगुआई वाली पार्टी के अंधे समर्थकों को चाहे अच्छी लगे, पर यह देश में एक गहरी खाई खोद रही हो, तो पता नहीं. जिन्हें हिंदू धर्मग्रंथों का पता है वे तो जानते हैं कि हम किस कंकड़ भरे रास्ते पर चल रहे हैं जहां झंडा उठाने वाले और जयजयकार करने वाले तो हैं, पर काम करने वाले कम हैं. ज्यादातर धर्मग्रंथ, हर धर्म के, चमत्कारों की झूठी कहानियों से भरे हैं. ये कहानियां सुनने में अच्छी लगती हैं पर जब इन को जीवन पर थोपा जाता है तो सिर्फ भेदभाव, डर, हिंसा, लूट, बलात्कार मिलता है. सदियों से दुनियाभर में अगर लोगों को सताया गया है तो धर्म के नाम पर बहुत ज्यादा यह राजा की अपनी तानाशाही की वजह से बहुत कम था.

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पिछले 65 सालों में कांग्रेस का राज भी धर्म का राज था पर ऐसा जिस में हर धर्म को छूट थी कि अपने लोगों को मूर्ख बना कर लूटो. अब यह छूट एक धर्म केवल अपने लिए रखना चाह रहा है और संसद के पहले 2 दिनों में ही यह बात साफ हो रही थी.

दुनिया के सारे संविधानों की तरह हमारा संविधान भी धर्म का हक देता है पर सभी जगह संविधान बनाने वाले भूल गए हैं कि धर्म का दुश्मन नंबर एक जनता का ही बनाया गया संविधान है. यह तो पिछले 300 सालों की पढ़ाई व नई सोच का कमाल है कि दुनिया के लगभग हर देश में एक जनप्रतिनिधि सभा द्वारा बनाया गया संविधान धर्म के भगवान के दिए कहलाए जाने वाले सामाजिक कानून के ऊपर छा गया है. अब भारत में कम से कम यह कोशिश की जा रही है कि हजारों साल पुराना धर्म का आदेश नए संविधान के ऊपर मढ़ दिया जाए. सांसदों का शपथ लेने का पहला काम तो यही दर्शाता है.

उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी अपने वादों को याद रखेगी जो विकास और विश्वास के हैं न कि उन नारों के जो संसद में सुनाई दिए गए.

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जातिवादी सोच का नतीजा है सपा बसपा की हार

लेखक- बापू राऊत

लगता था कि यह गठबंधन भारतीय जनता पार्टी को हरा देगा. इस के पीछे की कहानी भी सटीक और गणनात्मक थी. वह थी गोरखपुर और फूलपुर में हुए लोकसभा के उपचुनावों में इस गठबंधन के उम्मीदवारों की जीत.

ये दोनों जगहें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के गढ़ के तौर पर जानी जाती थीं. गठबंधन के जमीनी, सामाजिक और जातीय आंकड़ों का पलड़ा भाजपा से कहीं ज्यादा भारी था लेकिन लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपाबसपा गठबंधन के जीतने की समाजशास्त्रियों व चुनावी पंडितों की सोच जमीन पर ही रह गई.

आंकड़ों की जांचपड़ताल से पता चलता है कि कांग्रेस से गठबंधन न होने से सपाबसपा को 10 सीटों पर नुकसान हुआ. भाजपा का वोट फीसदी साल 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 42.3 फीसदी से बढ़ कर 50.7 फीसदी हुआ और उसे 62 सीटों पर जीत हासिल हुई, जबकि सपाबसपा का सामूहिक प्रदर्शन खराब रहा.

साल 2019 में सपाबसपा ने जिन सीटों पर चुनाव लड़ा, उन में सपा का वोट शेयर 38.4 फीसदी और बसपा का 40.8 फीसदी था जो कुल वोट शेयर 39.6 फीसदी है.

10 सीटों के साथ बसपा का स्ट्राइक रेट 26.3 फीसदी है, जबकि 5 सीटों के साथ सपा का स्ट्राइक रेट 13.5 फीसदी है. इस से साफ होता है कि समाजवादी पार्टी के वोटरों ने गठबंधन का साथ नहीं निभाया.

चुनाव से पहले जैसे ही सपाबसपा का गठबंधन घोषित हुआ था, वैसे ही भाजपा ने छोटी जातियों पर डोरे डालने शुरू कर दिए थे. उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग में 79 उपजातियां हैं. भाजपा ने यादव जातियों को छोड़ कर कुर्मी (4.5 फीसदी), लोध (2.1 फीसदी), निषाद (2.4 फीसदी), गुर्जर (2 फीसदी), तेली (2 फीसदी), कुम्हार (2 फीसदी), नाई

(1.5 फीसदी), सैनी (1.5 फीसदी), कहार (1.5 फीसदी), काछी (1.5 फीसदी) को सत्ता में भागीदारी के सपने दिखाए. नतीजतन, इन पिछड़ों के भाजपा को 26 से 27 फीसदी वोट मिले. उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों का वोट शेयर 22 से 23 फीसदी है. अनुसूचित जातियों में 65 उपजातियां हैं. यहां पर भी भाजपा ने जाटव को छोड़ कर गैरजाटव पासी (3.2 फीसदी), खटीक (1 फीसदी), धोबी (1.4 फीसदी), कोरी (1.3 फीसदी), बाल्मीकि (1 फीसदी) समुदाय को साथ लिया.

इन जातियों के 9 से 10 फीसदी वोट भाजपा को गए. इस तरह अनुसूचित जाति और पिछड़ों के कुल 37 फीसदी वोट भाजपा को मिले.

ऐसा क्या हुआ कि सपा केवल 5 सीटों और बसपा महज 10 सीटों तक ही सिमट कर रह गईं? 78 फीसदी वाला यह गठबंधन आखिर क्यों हारा? बहुजनवाद की सोच क्यों नहीं चली?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह दिया, कि अंकगणित की जगह कैमिस्ट्री ने काम किया. सच में, क्या मोदीजी की जीत कैमिस्ट्री से हुई है या गठबंधन की हार जातिवादी सोच से?

इस कैमिस्ट्री की वजह कुछ इस तरह है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह मंजे हुए रणनीतिकार हैं. साम, दाम, दंड, भेद, लालच और भावुकता में वे माहिर हैं.

नरेंद्र मोदी की नीति को विरोधी पार्टियां समझ नहीं सकीं. वे अपने गणितीय आंकड़ों में ही मशगूल रहीं. मोदीशाह की जोड़ी ने चुनावी प्रचार में धर्म, हिंदुत्व और मंदिर की राजनीति की. अनुसूचित जाति का हिस्सा रहे वाराणसी के संत रैदासजी के मंदिर में लंगर के लिए नरेंद्र मोदी बैठ गए थे. उन्होंने ‘समरसता भोज’ नाम से अनुसूचित जाति व पिछड़ों के घर भोज के लिए अपने नेताओं को कहा था.

मोदी भले ही दोषियों पर कार्यवाही न करें, लेकिन दलितों की हत्या पर भावुक हो कर रो देते हैं. वे मुसलिमों की लिंचिंग पर चुप रहते हैं. यह हिंदुओं के लिए एक सीधा मैसेज होता?है. वे खुद को गरीब बताते हैं. उन्होंने कुंभ मेले में सफाई मुलाजिमों के पैर धो कर बाल्मीकि समाज को अपनेपन का मैसेज दे दिया.

अमित शाह ने बहराइच में राजभर जाति के राजा सोहेलदेव की मूर्ति का अनावरण किया. उन्होंने सोहेलदेव को हिंदू रक्षक कह कर सोमनाथ मंदिर तोड़ने आए मुसलिम शासकों को हराने का दावा किया. यह कह कर अमित शाह ने पिछड़ों के वोट बैंक को गोलबंद करने का काम किया.

भाजपा ने गैरयादव समुदाय को समाजवादी पार्टी से और गैरजाटव समुदाय को बहुजन समाज पार्टी से तोड़ने की रणनीति बनाई.

भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्य द्वारा अनुसूचित जाति और पिछड़ों के 150 सम्मेलन कराए. चुनाव के समय लंदन में नीरव मोदी को अरैस्ट किया गया. भाजपा ने इस का भी फायदा उठाया. बालाकोट में हुई सैनिकी कार्यवाही को हिंदू राष्ट्रवाद से जोड़ा. इन सारे मुद्दों ने नरेंद्र मोदी को जीत दिलाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी.

भाजपा की जीत में हमेशा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण संघ और दुर्गा वाहिनी जैसे संगठनों का हाथ रहा है. इन संगठनों के कार्यकर्ता कैडर बेस होते हैं और जिस का कैडर मजबूत होता है, उस पार्टी को चुनावों में हराना मुश्किल है. यह भविष्य में भाजपा विरोधियों के लिए बड़ी चुनौती है.

समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में कोई कैडर बेस कार्यकर्ता और सामाजिक संगठन नहीं है. समय आने पर गांधी परिवार को छोड़ सभी कांग्रेसी नेता भाजपा में शामिल हो सकते हैं क्योंकि कांग्रेसी नेताओं के लिए विचारधारा नहीं, बल्कि सत्ता अहम होती है.

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ विभिन्न सामाजिक संस्थानों का कैडर बनाया था. वे फकीर के तौर पर थे, इसीलिए बहुजन समाज उन की छाया बन गया था, लेकिन मायावती द्वारा बसपा को संभालते ही कैडर को खत्म किया गया. राज्यों में जनाधार वाले नेताओं को पदों से हटा दिया गया.

मायावती पर पिछड़ी जाति के नेताओं की अनदेखी करने और ऊंची जाति को बढ़ावा देने का आरोप लगता रहा है. केवल रिजर्व सीटों पर दलितों को टिकट दिया जाता है. बसपा में भाईभतीजावाद का आरोप अकसर लगता रहा है. इन सब का असर चुनावी नतीजों पर होना मुमकिन क्यों नहीं है?

मायावती द्वारा खुद को प्रधानमंत्री पद की दावेदार घोषित करना भी इस गठबंधन की हार की वजह बन गया.

भारत की जातिवादी सोच इतनी मजबूत है कि वह आसानी से किसी भी दलित को प्रधानमंत्री बनने नहीं देगी. मायावती प्रधानमंत्री न बनें, इसीलिए यादवों और गैरयादवों ने भाजपा को वोट दिया. इस के साफ संकेत मिलते हैं. संघीय संस्थाओं ने इस का प्रचार भी किया. मायावती के प्रधानमंत्री बनने के डर से यादवों ने समाजवादी पार्टी को भी वोट नहीं दिए.

यही फर्क है अमेरिका और भारत की जनता में. वहां भी जनता बराक ओबामा को अपना राष्ट्रपति बना सकती?है, लेकिन भारत की जनता आज भी ऊंचनीच के दलदल में धंसी हुई

है. भारत की पुरानी जातिवादी सामाजिक संरचना आज भी टस से मस नहीं हुई  है. आने वाले समय में वह और ज्यादा मजबूत बनेगी.

आज भारत का भविष्य अंधेरों से टकरा रहा है. पता नहीं, उजालों के जलते दीए कब बंद कर दिए जाएंगे.

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