गहरी पैठ

दलितों के नेता होने का दावा करने वाले रामविलास पासवान वर्षों से उस पार्टी के साथ चिपके हैं जिस पर उन्होंने ही एक बार सदियों से हो रहे जुल्मों को सही और पिछले जन्मों का फल बताया था. सत्ता के मोह में रामविलास पासवान अपना पासा तो सही फेंकते रहे हैं और अपनी जगह बचाए रखते रहे हैं, पर वे इस चक्कर में दलितों के हितों को नुकसान पहुंचाते रहे हैं.

उदित राज, रामविलास पासवान, मायावती जैसे बीसियों दलित नेता भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में हैं और इन दोनों पार्टियों में दलितों और उन के वोटों का इस्तेमाल करने वाले ऊंचे नेताओं की देश में कमी नहीं है और हर पार्टी में ये मौजूद हैं. इन की मौजूदगी का आम दलितों को कोई फायदा होता है, यह दिखता नहीं है. हाल में अपने गांवों तक बड़े शहरों से पैदल चल कर आने वाले मजदूरों में काफी बड़ी तादाद में दलित ही थे और इन के नेताओं के मंत्रिमंडल में होने के बावजूद न केंद्र सरकार ने और न राज्य सरकारों ने इन मजदूरों से हमदर्दी दिखाई.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अब बिहार के चुनावों से पहले पर फड़फड़ा रही है, पर यह साफ है कि वह नेताओं के हितों को ध्यान में रखेगी, वोटरों के नहीं. दलितों की मुश्किलें अपार हैं, पर चाहे उन की गिनती कुछ भी हो, उन के पास अपना दुख कहने का कोई रास्ता नहीं है.

रामविलास पासवान, प्रकाश अंबेडकर, मायावती जैसे दसियों नेता देशभर में हैं, पर उन्हें अपनी पड़ी रहती है. जो थोड़े उद्दंड होते हैं जैसे चंद्रशेखर उन्हें सरकार जल्दी ही जेल में पहुंचा देती है और ऊंची जातियों के जज उन्हें जमानत नहीं देते. उन के सत्ता में बैठे नेता चुप रहते हैं.

बिहार में चिराग पासवान जो भी जोड़तोड़ करेंगे वह सीटों के लिए होगी. नीतीश कुमार और भाजपा समझते हैं कि यदि उन्हें सीटें ज्यादा दी भी गईं तो फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि हर जीतने वाले विधायक को आसानी से एक गाड़ी, एक मकान और थोड़ा सा पैसा दे कर खरीदा जा सकता है.

लोक जनशक्ति पार्टी ने धमकी दी है कि वह बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) के खिलाफ 143 उम्मीदवार खड़े करेगी, पर सब जानते हैं कि अंत में वह 10-15 पर राजी हो जाएगी. रामविलास पासवान कभी लालू प्रसाद यादव के साथ काम कर चुके हैं, पर लालू यादव जैसे पिछड़े नेताओं को दलितों को मुंह पर खुश करने की कला नहीं आती जो भाषा पहले संस्कृत या अब अंगरेजी पढ़ेलिखे नेताओं को आती है जो कांग्रेस में हमेशा रहे और अब भाजपा में पहुंच गए हैं.

दलितों की बिहार में हालत बहुत बुरी है. सामान्य पढ़ाई करने के बावजूद उन में चेतना नहीं आई है. उन्हें पढ़ाने वाले भी दुत्कारते रहे हैं और उन से काम लेने वाले भी. उन्हें दलितों के लिए बने अलग मंदिरों में ठेल कर बराबरी का झूठा अहसास दिला दिया गया है, पर उन की हैसियत गुलामों और जानवरों सी ही है. अफसोस यही है कि अब जब 3 पीढि़यां पढ़ कर निकल चुकी हैं तब भी वे रास्ता दिखाने वालों की राह तकें, यह गलत है. इस का मतलब तो यही है कि उन्हें फिर एक चुनाव में उन्हें ही वोट देना पड़ेगा जो उन पर अत्याचार करते हैं.

पाकिस्तान का नाम लेले कर चुनाव जीतने वाली सरकार के लिए चीन गले की आफत बनता जा रहा है. लद्दाख से ले कर अरुणाचल तक चीन सीमा पर तनाव पैदा कर रहा है और भारत सरकार को जनता में अपने बचाव के लिए कोई मोहरा नहीं मिल रहा है. सरकार ने 200 से ज्यादा चीनी एप जरूर बैन कर दिए हैं, पर ये चीनी एप खिलंदड़ी के एप थे और इन को बंद करना देश की अपनी सेहत के लिए अच्छा है और चीन को इन से कोई फर्क नहीं पड़ता.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

पाकिस्तान के मामले में आसानी रहती है कि किसी भी दूसरे धर्म वाले को गुनाहगार मान कर गाली दे दो, पर चीनी तो देश में हैं ही नहीं. जिन उत्तरपूर्व के लोगों के राज्यों पर चीन अपना हक जमाने की कोशिश कर रहा है, वे पूरी तरह भारत के साथ हैं. वे कभी भी चीन की मुख्य भूमि के पास भी नहीं फटके थे. ज्यादा से ज्यादा उन का लेनदेन तिब्बत से होता था और तिब्बती खुद भारत के साथ हैं और एक तिब्बती मूल के सैनिक की चीनी मुठभेड़ में मौत इस बात की गवाह है.

सरकार द्वारा मुसीबत को मौके में बदलने में चीनी मामले में चाहे मुश्किल हो रही हो, भारत को यह फिक्र तो करनी ही होगी कि हमारी एक इंच भूमि भी कोई दुश्मन न ले जाए. यह तो हर नागरिक का फर्ज है कि वह जीजान से जमीन की रक्षा करे और इस में न धर्म बीच में आए, न जाति और न पार्टी के झंडे का रंग.
दिक्कत यह है कि देश आज कई मोरचों पर जूझ रहा है. हमारी हालत आज पतली है. नोटबंदी और जीएसटी के हवनों में हम ने अरबों टन घीलकड़ी जला डाला है कि इन हवनों के बाद सब ठीक हो जाएगा.

ठीक तो कुछ नहीं हुआ, सारे कारखाने, व्यापार, धंधे, नौकरियां भी खांस रहे हैं. राज्य सरकारों के खजाने बुरी तरह धुएं से हांफ रहे हैं. ऊपर से कोरोना की महामारी आ गई. हवन कुंड की आग को कोरोना की तेज हवाओं ने बुरी तरह चारों ओर फैला दिया है. चीन से ज्यादा चिंता आज हरेक को अपने अगले खाने के इंतजाम की हो गई है.

दुश्मन पर जीत के लिए देश का हौसला और भरोसा बहुत जरूरी है. यह अब देश से गायब हो गया है. कल क्या होगा यह आज किसी को नहीं मालूम. जब कोरोना के पैर बुरी तरह गलीगली में फैल रहे हों तो सीमा पर चीन की चिंता सेना पर छोड़नी पड़ रही है. जनता के पास इतनी हिम्मत नहीं बनती है कि वह दोनों मोरचों पर सोच सके. जनता ने तो चीन की सीमा का मामला सेना पर छोड़ दिया है. हमारी सरकार भी रस्मीतौर पर चीन के साथ भिड़ने की बात कर रही है, क्योंकि ज्यादातर नेता तो कोविड के डर से घरों में दुबके हैं. आमतौर पर ऐसे मौके पर सितारे, समाज सुधारक, हर पार्टी के नेता, हर जाति व राज्य के नेता सैनिकों की हिम्मत बढ़ाने के लिए फ्रंट पर जाते हैं, पर अब सब छिपे हुए हैं.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

यह सेना की हिम्मत है कि वह बहादुरी से चीन को जता रही है कि भारत को अब 1962 का भारत न समझे. बहुत बर्फ पिघल चुकी है इन 50-60 सालों में. भारत चाहे गरीब आज भी हो, पर अपनी जमीन को बचाना जानता है.

मुसीबत का सबब बने आवारा पशु

पिछले साल के फरवरी महीने में  मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के गांव खापरखेड़ा के जगदीश धाकड़ अपने खेत में लगी गेहूं की फसल में यूरिया डाल रहे थे कि तभी एक आवारा सांड़ खेत में घुस आया, जिसे खदेड़ने के लिए जगदीश दौड़ पड़े.

सांड़ ने भी अपने नथुने फुलाए और सींगो के बल पर जगदीश को जमीन पर पटक दिया. पास के खेत में काम कर रहे कुछ किसानों ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया. डाक्टर की सलाह पर जब ऐक्सरे कराया गया, तो जगदीश के दोनों पैर की हड्डियों में फ्रैक्चर निकला.

जगदीश 3 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे. इस दौरान उन की गेहूं की फसल देखरेख की कमी में बुरी तरह बरबाद हो गई. बताया जाता है कि जिस आवारा सांड़ ने उन्हें घायल किया था, उसे गांव  के ही एक दबंग द्वारा किसी माता की पूजापाठ कर के खुला छोड़ा गया था.

ये भी पढ़ें- वन्य प्राणी “दंतैल हाथियों” की हत्या जारी

लौकडाउन के पहले दतिया के रेलवे स्टेशन पर आवारा पशुओं का जमावड़ा लगा रहता था. ये आवारा गायबैल मुसाफिरों के खानेपीने की चीजों पर झपट पड़ते थे. क‌ई बार इन आवारा जानवरों के अचानक रेलवे प्लेटफार्म पर दौड़ लगाने से बच्चों, औरतों और बुजुर्गों को चोट भी लग जाती थी.

होशंगाबाद जिले के गांव पचुआ में साल 2018 में चरनोई जमीन पर गांव के कुछ रसूख वाले किसानों ने कब्जा कर लिया, जिस के चलते गांव के आवारा पशु किसानों के खेतों में घुस कर  फसलों को नुकसान पहुंचाने लगे. इस बात को ले कर 2 पक्षों में विवाद हो गया, जिस से एक आदमी की मौत हो गई. दूसरे पक्ष के 2 लोग हत्या के आरोप में हवालात में बंद हैं.

पिछले कुछ सालों में देश के अलगअलग इलाकों में हुई ये घटनाएं बताती हैं कि हमारे देश में पशुओं की आवारगी लोगों के लिए मुसीबत का सबब बन गई है. किसानों की हाड़तोड़ मेहनत से उगाई गई फसल जब आवारा पशु चर लेते हैं तो वे मनमसोस कर रह जाते हैं. गांवकसबों में दबंगों के पाले पशु आवारा घूमते हैं और एससी और बीसी तबके की जमीन पर उगी फसल चट कर जाते हैं. दबंगों के खौफ से इन आवारा पशुओं को कोई रोकने की हिम्मत नहीं कर पाता.

क्या हैं कायदेकानून 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(ए) के मुताबिक हर जीवित प्राणी के प्रति सहानुभूति रखना भारत के हर नागरिक का मूल कर्तव्य है. ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ और ‘खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ में इस बात का जिक्र है कि कोई भी पशु सिर्फ बूचड़खाने में ही काटा जाएगा और बीमार तथा गर्भधारण कर चुके पशु को मारा नहीं जाएगा.

भारतीय दंड संहिता की धारा 428 और 429 के मुताबिक किसी पशु को मारना या अपंग करना, भले ही वह आवारा क्यों न हो, दंडनीय अपराध है. ‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ के मुताबिक किसी पशु को आवारा छोड़ने पर 3 महीने की सजा हो सकती है. पशुओं को लड़ने के लिए भड़काना, ऐसी लड़ाई का आयोजन करना या उस में हिस्सा लेना संज्ञेय अपराध है.

‘पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ की धारा 22(2) के मुताबिक भालू, बंदर, बाघ, तेंदुए, शेर और बैल को मनोरंजक कामों के लिए ट्रेनिंग देने और मनोरंजन के लिए इन जानवरों का इस्तेमाल करना गैरकानूनी माना गया है.

ये भी पढ़ें- पुलिस का संरक्षण, हुक्का बार परवान चढ़ा!

पीपुल्स फार एनीमल से जुड़े पत्रकार भागीरथ तिवारी बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जीने के मौलिक अधिकार के दायरे का विस्तार करते हुए इस में पशुओं को भी शामिल कर लिया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार बैलों को भी एक स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण में रहने का अधिकार है, उन्हें पीटा नहीं जा सकता. न ही उन्हें शराब पिलाई जा सकती है और न ही तंग बाड़ों में खड़ा किया जा सकता है.

हमारे देश की न्याय व्यवस्था भी दोहरे मापदंड वाली है. एक तरफ सुप्रीम कोर्ट कहती है कि आवारा पशुओं को भी खयाल रखो और अपनी फसलों को भी सहीसलामत रखो. व्यवहार में  यह कैसे संभव है? जमीनी हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के इलाकों में नीलगाय, सूअर और गाय, बकरी, भैंस जैसे आवारा पशुओं से फसल बचाने के लिए किसान खेतों में रतजगा कर रहे हैं.

आवारा पशुओं को किसान मार भी नहीं सकते, क्योंकि यह गैरकानूनी है. गांवों में खेती करने वाले छोटेछोटे किसानों के पास जो जमीन है, उस पर किसी बड़े फार्महाउस जैसे तार की फैंसिंग नहीं रहती. गरीब, बीसी और एससी पशुपालक अपने पालतू पशुओं को खुद चराने ले जाते हैं, पर ऊंची जाति के दबंगों के पशु बेखौफ आवारा घूमते हैं. देश का कानून भी उपदेशकों जैसे केवल उपदेश भर देता है.

एक दौर था जब पशुपालन किसानों के लिए आमदनी का जरीया हुआ करता था. लोग गायभैंस, बकरी पाल कर इन के दूध, घी, मक्खन को बेच कर घरपरिवार की जरूरतों की पूर्ति करते थे. बैल खेतीकिसानी के कामों में हल, बखर चलाते थे. बैलगाड़ी में किसान अपनी उपज मंडियों तक ले जाते थे. न‌ई तकनीक आने से अब खेती में कृषि उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ गया है. इस के चलते पशुपालन में अब किसानों की दिलचस्पी कम हो गई है. अब लोग पालतू पशुओं को दूध देने तक घर में रखते हैं, बाद में उन्हें आवारा छोड़ देते हैं. आजकल गांवकसबों में आवारा पशुओं के चलते फसलों की सुरक्षा एक बड़ी समस्या बन कर उभर रही है.

मौजूदा दौर में खेती में मशीनीकरण से गौवंश के बैल बेकार होने की बात तो समझ में आती है, लेकिन दूध देने वाली गाय के आवारा होने की बात समझ से परे है. गांवशहर से ले कर दिल्ली तक गौवंश की रक्षा की हिमायती सरकार होने के बावजूद भी आज तक पशुओं की आवारगी पर कोई ठोस नीतिनियम नहीं बन पाए हैं.

समस्या की जड़ है पाखंड

धर्म के ठेकेदारों ने गाय को ले कर जो अंधविश्वास और पाखंड फैलाया है, उसे मानने का खमियाजा भी तो समाज ही भुगत रहा है. कपोलकल्पित कथाओं के जरीए पंडेपुजारी लोगों को बताते हैं कि गाय के अंदर 33 करोड़ देवी देवता रहते हैं. जो पंडित को गाय दान में देते हैं, वे कितने ही पाप कर लें, सीधे स्वर्ग पहुंच जाते हैं.

बड़े-बड़े पंडालों में होने वाली कथाओं में बताया जाता है कि दान की गई गाय की पूंछ पकड़ कर स्वर्ग के रास्ते में पड़ने वाली एक वैतरणी नदी को पार करना पड़ता है. इसी पाखंड की वजह से मध्य प्रदेश की एक महिला मुख्यमंत्री तो सड़क पर अपने काफिले को रोक कर गाय को रोटी खिलाती थीं. आखिर लोगों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि गाय को हरे चारे और भूसे की जरूरत रोटी से कहीं ज्यादा है.

समाजसेवी बृजेंद्र सिंह कुशवाहा कहते हैं कि गौहत्या की चिंता करने वालों को यह चिंता भी करना होगी कि गाय को माता मानने वाले लोग गाय को सड़कों पर मरने के लिए क्यों छोड़ देते हैं? वैसे तो गाय एक बहुपयोगी पशु है, उस के दूध को बहुत गुणकारी माना गया है और आज भी गांवदेहात में कई परिवारों की आजीविका का स्रोत गाय का दूध और उस से बने उत्पाद दही, मक्खन और घी हैं. गाय के गोबर से बने उपले गांवदेहात के लाखों घरों के चूल्हों का ईंधन बने हुए हैं, पर वर्तमान में गाय की बदहाली और अनदेखी भी किसी से छिपी नहीं है.

ये भी पढ़ें- दक्षिण अफ्रीका के खेल वैज्ञानिक श्यामल वल्लभजी कर रहे हैं प्रीति जिंटा की तारीफ, पढ़ें खबर

गाय के नाम पर सरकारी अनुदान बटोरने वाले तथाकथित गौसेवक गाय का निवाला खा रहे हैं. आधुनिकता की अंधी दौड़ में आज पशुधन से किसान भी विमुख हो रहे हैं. यही वजह है कि गाय जब तक दूध देती है, पशुपालक उस की सेवा करते हैं और जैसे ही गाय दूध देना बंद करती है तो पशुपालक उसे  सड़कों पर खुला छोड़ देते हैं. ऐसे ही लोगो की वजह से गाएं सड़कों पर आवारा घूमती कचरे के ढेर पर प्लास्टिक की पन्नी खाती नजर आती हैं.

मध्य प्रदेश के भोपालजबलपुर नैशनल हाईवे 12 पर आवारा घूमती गायों का समूह सड़क पर घूमता हमेशा नजर आता है. इन में से कुछ गाएं आएदिन ट्रक या दूसरी बड़ी गाड़ियों की चपेट में आ कर मौत का शिकार हो जाती हैं, तो कुछ जिंदगीभर के लिए अपाहिज हो जाती हैं.

सड़कों पर घायल गायों की सुध लेने कोई नहीं आता. औसतन हर 10 किलोमीटर के दायरे में सड़क किनारे मरी पड़ी गाय की बदबू आनेजाने वालों का ध्यान खींचती है, पर किसी जिम्मेदार अफसर या नेता का ध्यान इस ओर नहीं जाता है.

स्थानीय लोग बताते हैं कि गायों की खरीदफरोख्त करने वाले लोग इन गायों को साप्ताहिक लगने वाले एक बाजार से दूसरे बाजार में ट्रकों से ले जाते हैं. कई बार मवेशी बाजार में सही कीमत न मिलने के चलते ट्रांसपोर्ट का खर्चा बचाने या तथाकथित गौरक्षकों के डर से वे उन्हें दूसरे बाजार के लिए नहीं ले जा पाते. कुछ व्यापारी तो गाय के शरीर पर कलर से कोई मार्क बना कर उसे सड़क पर छोड़ देते हैं. अगले हफ्ते वही व्यापारी आ कर उनगायों की तलाश करते हैं और ज्यादातर गाएं उन्हें मिल भी जाती हैं, जिन्हे वे फिर से बाजार में खरीदफरोख्त के लिए ले जाते हैं. आवारा घूमती गायों की यह बदहाली गाय के नाम पर हायतोबा मचाने वाले गौरक्षकों को धत्ता बताती नजर आती है .

मरने-मारने पर उतारू 

गौसेवा का ढोंग करने वाले भगवाधारी घर में भले ही अपने मांबाप का खयाल न रखते हों, पर गौतस्करी करने वाले लोगों को पकड़ कर उन की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं.

28 अप्रैल, 2020 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के उदयपुरा में एक गाय का कटा सिर मिलने की खबर ने माहौल में जहर घोल दिया था. इस मामले में एक समुदाय विशेष की आलोचना से सोशल मीडिया प्लेटफार्म गरमाया हुआ था.

दरअसल, जिस इलाके में गाय का सिर मिला था, वह एक समुदाय विशेष का महल्ला था. इस वज़ह से यही कयास लगाया जाने लगा कि गाय का कत्ल कर के गौमांस निकाल कर सिर फेंका गया है. जब ऐसी घटनाओं से एक समुदाय गुस्से से भर दूसरे समुदाय पर लानतें भेजने लग जाए तो विश्वास का संकट खड़ा हो जाता है. गौहत्या और गौतस्करों पर सियासत करने वाले लोग मौका पाते ही हर घटना को सांप्रदायिक रंग देने से पीछे नहीं हटते हैं.

इस तरह की घटनाओं का दुखद पहलू यह भी है कि गौहत्या का विरोध कर के गुस्से में आ कर मरनेमारने पर उतारू लोग भीड़ तंत्र का हिस्सा तो बन जाते हैं, पर गायों की आवारगी पर बात नहीं करना चाहते.

हो रही हिंसा और चंदा वसूली  

मध्य प्रदेश में तो बाकायदा गौसेवा आयोग बना कर उस के अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा भी दिया जाता है, पर प्रदेश में गायों की बदहाली गौसेवा आयोग के वजूद पर ही सवालिया निशान लगाती ही लगाती है.

ये भी पढ़ें- झाड़ – फूंक और ‘पागल’ बनाने वाला बाबा!

मध्य प्रदेश के कई शहरों में छोटीबड़ी दुकानों पर गाय की आकृति वाली प्लास्टिक की चंदा जमा करने वाली गुल्लक रखी रहती हैं, जिन में दुकान पर आने वाले ग्राहक चंदे के नाम पर कुछ रकम डालते हैं. ऐसे ही एक दुकानदार से सवाल करने पर बताया गया कि गौशाला चलाने वाली संस्थाओं के नुमाइंदे इन गुल्लकों को दुकान पर छोड़ जाते हैं और एक निश्चित समय पर उस की रकम को निकाल कर ले जाते हैं.

गौशाला चलाने वाले ज्यादातर लोग किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े होते हैं, जो स्वयंसेवी संस्था बना कर शासकीय अनुदान का जुगाड़ करने में माहिर होते हैं. सड़कों पर आवारा घूमती गायों और इन गुल्लकों को देख कर यह सवाल बरबस ही उठता है कि आखिर गौसेवा के नाम पर उगाहे जा रहे इस चंदे का इस्तेमाल कौन सी गायों की सेवा पर किया जाता हैं?

हालांकि कुछ ऐसी गौशालाएं आज भी हैं जो बिना चंदे या शासकीय अनुदान के प्रचार से कोसों दूर निर्बल और रोगी गायों की सेवा का काम कर रही हैं. पर बहुत से संगठन गौसेवा के नाम पर देश में हिंसा फैला रहे हेैं. गौरक्षकों की टोली आएदिन सड़कों पर गायों का परिवहन करने वाले ट्रकों को रोक कर ड्राइवर और क्लीनर से मारपीट कर उन से चौथ वसूली करने में भी पीछे नहीं रहती हैं.

सवाल यह भी उठता है कि सड़कों पर आवारा घूमती गायों को देख कर इन गौरक्षकों का खून क्यों नहीं खोलता? गौहत्या और गौमांस के मुद्दे पर कानों सुनी बातों पर मौब लिंचिंग पर उतारू इन भक्तों की भीड़ को सोचना होगा कि गाय को मां का दर्जा दे कर इस तरह सड़कों पर आवारा छोड़ना भी कोई धर्म नहीं है. गाय को आवारगी से मुक्त करा कर  उस के पालक बनने की पहल भी उन्हें करनी होगी.

चरनोई जमीन पर कब्जा 

पशु चिकित्सा क्षेत्र अधिकारी हरिहर बुनकर मानते हैं कि पशुओं की आवारगी की एक अहम वजह चरनोई जमीन का न होना भी है. चरनोई जमीन पर गांवकसबों के रसूख वाले लोगों ने कब्जा कर रखा है. सरकारी जमीन पर एससी और बीसी तबके द्वारा अपने परिवार का पेट पालने के लिए खेती करने पर पुलिस द्वारा पिटाई करती है, लेकिन दबंगों की दबंगई के आगे पुलिस और बड़े अफसरों को सांप सूंघ जाता है.

चरनोई जमीन न होने से पशु आवारा घूमते हैं और फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से क‌ई बार लड़ाई-झगड़े के हालात भी बन जाते हैं.

आवारा पशुओं की समस्या का समाधान केवल जुमलों से होने वाला नहीं है. इस के लिए सरकार को चरनोई जमीन को दबंगों के चंगुल से मुक्त कराना होगा. बीमार, लाचार, आवारा पशुओं को गौशालाओं में पहुंचा कर गांवकसबों में चरनोई जमीन का रकबा तय कर के और व्यावहारिक कानून बना कर आवारा पशुओं की समस्या से नजात मिल सकती है.

वन्य प्राणी “दंतैल हाथियों” की हत्या जारी

छत्तीसगढ़ में आए दिन वन्य प्राणी हाथियों को मारा जा रहा है. कभी जहर दे कर, अभी करंट से और कभी भूख प्यास से हाथी मारे जा रहे हैं. आज 28 सितंबर को सुबह सुबह छत्तीसगढ़ के गरियाबंद के “धवलपुर वन परीक्षेत्र” से एक हाथी के करंट से मारे जाने की दुखद खबर आई है.

दरअसल, छत्तीसगढ़ सरकार को दुर्लभ वन्य प्राणियों के संरक्षण की गंभीर पहल करनी चाहिए मगर जमीनी हालात यह है कि  बेवजह हाथी मारे जा रहे हैं,और हत्यारे साफ बच निकलते हैं. विपक्ष भाजपा नेता इस मसले पर निरंतर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व वन मंत्री मोहम्मद अकबर को घेर रहे हैैं. सामाजिक कार्यकर्ता हाई कोर्ट तक अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं. मगर सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही . अब स्थिति यह है कि आए दिन अखबारों में यह समाचार सुर्खियों में रहता है कि एक और हाथी मरा बिजली के कर्रेंट से……धरमजयगढ़ बना हाथियों का “मौतगढ़”….. बिजली करंट से प्रदेश में हुई मौतों में से आधी सिर्फ धरमजयगढ़ में!

ये भी पढ़ें- पुलिस का संरक्षण, हुक्का बार परवान चढ़ा!

जबकि हकीकत यह है कि सरकार के कुंभकरणी  नींद के कारण वन विभाग और बिजली कंपनी में मिलीभगत से लगातार हाथी जैसे विशालकाय वन्य प्राणी  की मौत हो रही है. और सरकार का वन अमला सिर्फ कागजी खाना पुर्ती में लगा रहता है.

नर हाथी कैसे मारा गया?

छत्तीसगढ़ के जिला रायगढ़ के धरमजयगढ़ के  मेंढ़रमार गांव में बोर के लिए खींचे गए नंगे तार की चपेट में आने से हुई नर हाथी की मौत पर दुख व्यक्त करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता नितिन सिंघवी ने वन विभाग और बिजली कंपनी के अधिकारियों पर आरोप लगाया  है कि इन दोनों विभागों की मिलीभगत के कारण विलुप्ति के कगार पर खड़े मूक प्राणी “हाथियों” की मौतें हो रही है.

elephant-abuse

छत्तीसगढ़ निर्माण के पश्चात बिजली करंट से प्रदेश में 46 हाथियों की मौतें हुई है, इनमें से 24 मौतें सिर्फ  जिला रायगढ़ के धर्मजयगढ़ वन मंडल में हुई है अर्थात बिजली से मरने वाले हाथियों में 52% अकेले धरमजयगढ़ में मरे हैं. छत्तीसगढ़ में अभी तक कुल 163 हाथियों की मौतें हुई है जिसमें से 46 हाथी बिजली करंट से मरे हैं.

हाईकोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ा रहे हैं विभाग

एक जनहित याचिका के बाद छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने आदेश जारी कर कहा था कि -“आंकड़े बताते हैं कि धरमजयगढ़ में बिजली करंट से सबसे ज्यादा मौतें हो रही हैं इसलिए वन विभाग के अधिकारी, राज्य शासन के अधिकारी और बिजली कंपनी के अधिकारी फोकस करेंगे कि धर्मजयगढ़ में अब एक भी हाथी की मौत बिजली करंट से नहीं हो।”

जबकि तथ्य बताते हैं कि एक भी अधिकारी हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने में तत्पर नहीं रहा है. नितिन संघवी बातचीत में बताते हैं- धरमजयगढ़ में हाथियों की मौत बिजली करंट से लगातार हो रही है, यह उच्च न्यायलय के आदेशों की अवमानना है.

मामले का वन विभाग वाले करते हैं रफा-दफा

एक प्रकरण का खुलासा यह है- धर्मजयगढ़ की छाल रेंज में 6 जून 2016 को एक मादा हथनी की मौत हो गई. इसके बाद वहां के वन परिक्षेत्र अधिकारी ने कनिष्ठ यंत्री विद्युत वितरण कंपनी एडु (चंद्रशेखरपुर) और सहायक यंत्री विधुत वितरण कंपनी खरसिया को नोटिस दिया की विधुत तारों के सुधार कार्य के लिए उसके पूर्व उनके द्वारा पांच पत्र लिखे जा चुके हैं. और 6 जून 2016 को 11000 वोल्टेज हाई टेंशन लाइन की चपेट में आने से मादा हथनी की मौका स्थल पर मृत्यु हो गई है .

ये भी पढ़ें- दक्षिण अफ्रीका के खेल वैज्ञानिक श्यामल वल्लभजी कर रहे हैं प्रीति जिंटा की तारीफ, पढ़ें खबर

घटनास्थल पर विधुत लाइन के तीन तारों में से एक तार टूट कर जमीन पर गिरा और मृत हथिनी के शरीर से लगा था जिसमें प्रभावित विद्युतीकरण के कारण मादा हथनी की मौत हुई तथा उस क्षेत्र में जमीनों पर घास भी जले मिले.

विधुत लाइन खंबे में लगे 2 तारों की ऊंचाई घटनास्थल पर जमीन सतह से 3 मीटर की थी. यह जाहिर है कि जिस तार की चपेट से मादा हथनी की मृत्यु हुई वह तार भी कम ऊंचाई पर था इसलिए बिजली कंपनी के अधिकारियों पर वन प्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 भारतीय दंड संहिता तथा विभिन्न अधिनियम के तहत क्यों ना कार्यवाही की जाए?

मामले को रफा-दफा करने के लिए, कुछ दिनों बाद उप-वनमंडलअधिकारी ने वन मंडलअधिकारी धर्मजयगढ़ को पत्र लिखा की बिजली कंपनी वालों ने ग्रामीणों और सरपंच के साथ घटनास्थल का मुआयना किया.हथिनी के सूंड में फंसी पत्तियों को देखकर ग्रामीणों ने कहा कि संभवत: हथिनी ने समीपस्थ वृक्ष की पत्तियों को तोड़ने के लिए अपनी सूंड ऊपर उठाई होगी. जिससे सूंड का  संपर्क 11kv लाइनों के तार से हो गया होगा.अन्यथा सामान्य तौर पर लाइनों की ऊंचाई पर्याप्त थी. ग्रामवासियों और सरपंच ने बताया कि हथिनी द्वारा विद्युत खंभे से छेड़छाड़ की गई है.  उप वनमंडलअधिकारी ने वन मंडलाधिकारी को लिखा कि यह  एक दुर्घटना प्रतीत होती है. इस प्रकार बिना जाँच किये बिजली कंपनी, ग्रामवासियों और सरपंच के बयानों  के आधार पर  मामला रफा-दफा कर दिया गया जब कि खुद वन विभाग ने उस इलाके में बिजली तारों को ऊँचा करने के लिए कई पत्र लिख रखे थे. सामाजिक कार्यकर्ता सिंघवी ने बताया कि इस प्रकरण की मुख्यालय में शिकायत करने के बाद भी मुख्यालय के अधिकारियों द्वारा कोई जांच भी नहीं की गई है.

दस्तावेज पर कुंडली मारे बैठे

6 जून 2016 को जो मादा हथनी मरी थी, उसके संबंध में जारी नोटिस के और जवाब कोई सार्वजनिक  नहीं करना चाहता. तब के तत्कालीन डीएफओ ने यह कहकर सूचना नहीं दी कि आपको जानकारी दे देंगे तो आप अपराधियों को पकड़ने और अभियोजन की प्रक्रिया में अड़चन डाल सकते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता सिंघवी ने वन विभाग के अधिकारियों की इस शर्मनाक सोच को दुर्भाग्य पूर्ण बताते हुए कहा कि अगर उस वक्त वो जवाब की प्रति दी देते तो बिजली कंपनी के अधिकारियों को बचा नहीं पाते.इससे स्पष्ट होता है कि वन विभाग के अधिकारी बिजली कंपनियों के अधिकारियों को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.

elephant

ये भी पढ़ें- झाड़ – फूंक और ‘पागल’ बनाने वाला बाबा!

हाथियों के मृत्यु  प्रकरण में क्या कार्यवाही हुई?

सिंघवी ने बताया कि वन विभाग के मुख्यालय ने डीएफओ धरमजयगढ़ से पूछा गया कि उनके क्षेत्र में विधुत करंट से मरे  हाथियों के प्रकरण में क्या-क्या कार्रवाई की गई हैं? तो जवाब में डीएफओ ने बताया कि 18 जून 2020 तक 23 हाथियों की मौत हुई है जिसमें से  11 मौतों के मामले में वह परिक्षेत्र अधिकारी से जानकारी ले करके बताएंगे. सिंघवी ने कहा कि वन विभाग के अधिकारी हाथियों की मौत को लेकर के चिंतित ही नहीं है और उन्हें पता ही नहीं कि हाथियों की मौत बिजली करंट से होने के बाद में दोषियों के विरुद्ध क्या कार्यवाही की गई. नितिन

सिंघवी ने भूपेश बघेल सरकार से मांग की है कि हाथी विचरण इलाके के वनग्रामो में बोर और खेतों में जा रहे तारों को वन विभाग चिन्हित करे और सभी तारों को कवर्ड कंडक्टर के बदलने के लिए बिजली कंपनी को दे. बिजली कंपनी अपने वित्तीय संसाधनों से कवर्ड कंडक्टर लगाए और वन क्षेत्रों में बिजली तारों की ऊंचाई बढ़ाएं. छत्तीसगढ़ के संदर्भ में कहा जा सकता है कि हाईकोर्ट , विपक्ष भाजपा और विधानसभा में मामले उठने के बाद भी भूपेश बघेल सरकार आंखों में पट्टी बांधकर सो रही है.

पुलिस का संरक्षण, हुक्का बार परवान चढ़ा!

छत्तीसगढ़ में प्रतिबंध के बावजूद हुक्का “बार बार” सरकार और प्रशासन के द्वारा रोके नहीं रुक रहा है. प्रदेश की बड़ी बड़ी होटलों में सफेदपोश हाथों के संरक्षण तले यह खेल बिना रुके अविराम चल रहा है. और औपचारिकता वश पुलिस प्रशासन कार्रवाई करता है फिर कुंभकरण नींद में सो जाता है. जबकि यह सबको पता है कि भूपेश बघेल सरकार ने प्राथमिक रूप से इसे गंभीरता से लेकर पूर्णरूपेण प्रतिबंध लगा दिया है. और कानून सख्त रूप से बनाकर प्रशासन को यह जिम्मेदारी दे दी है कि प्रदेश में हुक्का बार कतई नहीं चलना चाहिए. मगर कागजों में, और हकीकत में, जैसा  अंतर होता है यहां भी वही हालो हवाल है.

कोरोना वायरस के समय में जब छत्तीसगढ़ के अधिकांश शहर लाक डाउन हैं हुक्का बार चल रहे हैं . राजधानी रायपुर में 22 सितंबर की रात को पुलिस ने बारंबार शिकायत के बाद एक बड़ी होटल में कार्रवाई की और यह प्रदर्शित किया कि पुलिस हुक्का बार पर कार्रवाई कर रही है. पुलिस के अनुसार

संपूर्ण लॉकडाउन के दूसरे दिन देर रात हुक्का बार में दबिश देकर 28 युवाओं को धड़ल्ले से बेखौफ होकर कर धुआं उड़ाते पकड़ा है-

ये भी पढ़ें- दक्षिण अफ्रीका के खेल वैज्ञानिक श्यामल वल्लभजी कर रहे हैं प्रीति जिंटा की तारीफ, पढ़ें खबर

बता दें कि मामला सिविल लाइन, रायपुर थाना क्षेत्र का है. जहां ब्लू स्काई कैफे में छुप-छुप युवाओं के पहुँचने की सूचना पुलिस चेकिंग पोईँट में मिली थी, जिसके आधार पर पुलिस नगर पुलिस अधीक्षक नसर सिद्दीकी के नेतृत्व में पुलिस ने रेड की कार्रवाई की जहाँ से 28 युवाओं को हुक्का पीते हुए पकड़ा गया .पुलिस ने पकड़े गए युवाओं के विरुद्ध भा. द. वि. की धारा 269 ,270 के साथ कोटपा एक्ट के तहत कार्रवाई की.

सभी बड़े  शहरों की यही कहानी

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर सहित बिलासपुर, रायगढ़,  दुर्ग आदि शहरों  में धड़ल्ले से जगह-जगह संचालित हो रहे हुक्का बार पर पहले ही कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार लगाम कसने की औपचारिकता पूरी कर चुकी है. कैफे, रेस्टोरेंट, होटल के नाम पर चल रहे हुक्का बार में युवक-युवतियों, महिलाओं के साथ बच्चों को प्रवेश दिए जाने का मामला विधानसभा  में उठने के बाद सरकार की ओर से गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू ने रोक लगाने के लिए कानून बनाने के साथ छापामार कार्रवाई करने की घोषणा कर मामले को शांत करा दिया था. मगर हुआ क्या ? आने वाले दिनों में अवैध हुक्का बारों पर सख्त कार्रवाई करने के संकेत पुलिस अफसरों ने दिये थे बीते एक साल में  अनेक हुक्का बार पर छापामार कार्रवाई की गई है. मतलब यह कि कानून बन जाने के बाद भी कानून का भय है हुक्का बार संचालकों को होटल वालों को नहीं है?

शहर और आउटर इलाके में संचालित हुक्का बार की पड़ताल करें तो  पायेंगे  होटल, रेस्टोरेंट, क्लब, मॉल में  हुक्का बार  चल रहे हैं. इसके लिए कानून का कोई  अवरोध, भय नहीं  है. धूम्रपान और नशे वाली जगहों पर नाबालिगों को प्रवेश नहीं दिए जाने के आबकारी विभाग के  निर्देश हैं. बावजूद इसके अलग-अलग फ्लेवर के तंबाकू हुक्के में डालकर परोसा जा रहा है.  और पुलिस बहुत दबाव के बाद ही नाम मात्र की कार्रवाई कर रही है.

कानून है, कानून का राज नहीं है

नशाखोरी पर लगाम लगाने के लिए छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार  ने बड़ा निर्णय लिया . राज्य सरकार ने प्रदेश भर में संचालित हुक्का बार को बंद करने का निर्णय लिया . मुख्यमंत्री निवास में आनन-फानन में कैबिनेट की बैठक कर प्रदेश के सभी हुक्का बार को कड़ाई से बंद कराने का निर्णय लिया गया . बैठक के बाद वरिष्ठ मंत्री मोहम्‍मद अकबर ने मीडिया से चर्चा में इसकी पुष्टि की. मंत्री अकबर ने कहा कि सरकार अब कड़ाई से सभी हुक्का बारों को बंद कराएगी. हुक्का बार की चपेट में युवा वर्ग आ रहा है, जिसके बाद सरकार ने इसको बंद करने का निर्णय लिया है.  मगर सरकार के बड़ी-बड़ी बातों के बाद भी कानून बनाए जाने के बाद भी, अगरचे छत्तीसगढ़ में “हुक्का बार” चल रहा है तो आखिर दोषी कौन है? और  लाख टके का सवाल यह है कि छत्तीसगढ़ को पंजाब के रास्ते पर ले जाकर, यहां के युवाओं को नशे का आदी कौन बनाना चाहता है.

ये भी पढ़ें- झाड़ – फूंक और ‘पागल’ बनाने वाला बाबा!

युवाओं को बर्बाद कौन करना चाहता है?

छत्तीसगढ़ अंचल के सामाजिक कार्यकर्ता इंजीनियर रमाकांत कहते हैं- कोरोना समय में जिस तरीके से राजधानी रायपुर में होटल में 28 युवा हुक्का बार में पुलिस द्वारा धर दबोचे गए हैं उससे यह सिद्ध हो जाता है कि हुक्का बार बड़े मजे से चलाए जा रहे हैं और कानून का भय किसी को नहीं है.

दो सौ से लेकर बारह सौ का हुक्का, बार में  सहजता से  मिलता है .अलग-अलग फ्लेवर के हुक्के की कीमत अलग-अलग है.  कॉलेज के छात्र, बड़े घरों के युवक-युवती, नाबालिग आदि इनके शौकीन हैं. इन्हें आदी बनाया जा रहा है और जैसा कि मालूम है बाद में इन युवाओं का अपराधिक व अन्य गतिविधियों में उपयोग किया जाता है.

यहां उल्लेखनीय है कि सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम 2003 (सीओटीपीए) के अंतर्गत 23 मई 2017 को केंद्र सरकार ने अधिसूचना जारी कर हुक्के के उपयोग पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा रखा है. गुजरात समेत कई राज्यों में इस तरह का काम करने वालों को तीन साल की जेल हो रही है. पंजाब में धारा 144 के तहत कार्रवाई भी की जा रही है. छत्तीसगढ़ में कानून होने के बाद भी हुक्का बार युवाओं का जीवन बर्बाद कर रहा है. पहले तो सिर्फ कानून की आंखों में पट्टी बंधी रहती थी मगर अब लगता है कि पुलिस और जनप्रतिनिधियों की आंखों में भी पट्टी बंध गई है.

ये भी पढ़ें- मूर्तियों की स्थापना, पैसों की बरबादी

झाड़ – फूंक और ‘पागल’ बनाने वाला बाबा!

आज भी 21 वी शताब्दी के इस समय में झाड़-फूंक तंत्र मंत्र पर लोग आस्था रखते हैं और अनपढ़ बाबाओं के चक्कर में आकर अपनी अस्मत, पैसे दोनों लुटा बैठते हैं. छत्तीसगढ़ आदिवासी ग्रामीण बाहुल्य प्रदेश है और यहां जागरूकता के अभाव में यही खेल चल रहा है. सरकार और समाज को जागरूक करने वाले चुनिंदा लोग प्रयासरत है. मगर यह सब ऊंट के मुंह में जीरे के समान है. छत्तीसगढ़ में घटित कुछ मामले ऐसे रहे हैं-

पहला मामला-

जिला कवर्धा कबीरधाम में एक महिला एक तंत्र मंत्र के साधक के चक्कर में पड़कर अपनी इज्जत गंवा बैठने के बाद होश में आई तब तक बहुत देर हो चुकी थी परिजनों ने घर से निकाल दिया महिला ने आत्महत्या कर ली.

ये भी पढ़ें- मूर्तियों की स्थापना, पैसों की बरबादी

दूसरा मामला-

सरगुजा के अंबिकापुर में एक एक शिक्षित महिला तंत्र-मंत्र के चक्कर में पड़कर लाखों रुपए लुटा बैठी बाद में पुलिस ने तांत्रिक को गिरफ्तार किया.

तीसरा मामला-कोरबा जिला के कदौरा थाना अंतर्गत ग्राम रामपुर में एक तांत्रिक आया और महिलाओं को तंत्र मंत्र के नाम ठगने लगा गांव के जागरूक लोगों ने तांत्रिक को पकड़कर उस की पोल खोल दी और पुलिस के हवाले किया.

एक नाबालिक की दास्तां

छत्तीसगढ़ के न्यायधानी बिलासपुर में‌ “झाड़फूंक” के नाम पर नाबालिग से दुष्कर्म करने वाले आरोपी बाबा को पुलिस ने आखिरकार दबोच लिया है. जैसे ही उसके खिलाफ दुष्कर्म का मामला दर्ज हुआ उसे पता चला कि मेरे खिलाफ अपराध दर्ज हो गया है आरोपी बाबा अपने ठिकाने से फरार हो गया, और लगातार बिलासपुर जिले के अलावा पड़ोसी चांपा जांजगीर जिले के गांव में जाकर अपना ठिकाना बना ले रहा था. जगह लगातार बदल रहा था. पुलिस भी तत्परता पूर्वक पुलिस  टीम  बना जांच में जुटी थी. लोकेशन ट्रेस करने पर आरोपी का पता चला. इसके बाद कोटमी सोनार, जिला चांपा जांजगीर में  घेराबंदी कर कथित बाबा को गिरफ्तार किया गया.

बताते हैं कि यह बाबा झाड़-फूंक के नाम पर कथित रूप से नाबालिक लड़कियों पर निगाह रखता था और उनका अध्यक्षता करने में यकीन रखता था जाने कितने लोगों की अस्मत के साथ खेलने वाला या बाबा आज जेल के सीखचों कों के पीछे है.

पुलिस ने हमारे संवाददाता को बताया कि यह घटनाक्रम जुलाई 2019 का है जब  तबीयत खराब रहने पर नाबालिग अपने परिजनों के साथ बलौदा, जांजगीर-चांपा स्थित सैय्यद मीरा अली दातार मजार में झाड़ फूंक कराने पहुंची थी, यहां पर आरोपी ने नाबालिग को “झाड़ फूंक” कर जल्दी ठीक हो जाने की बात कहकर विश्वास में लिया और ग्राम लुतरा, जिला बिलासपुर में डरा धमका कर करीब एक महीने तक इलाज के नाम पर उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता रहा उसका दैहिक शोषण करता रहा. जब नाबालिक लड़की विरोध करती तो किसी परिजन को बताने पर झाड़ फूंक कर “पागल” करने की धमकी दिया करता था तथा परिवार को बदनाम करने एवं जान से मारने की धमकी भी देता रहा, जिससे पीड़िता डर कर दुष्कर्म की बात किसी को नही बताने में अपना भला समझ रही थी.

ये भी पढ़ें- चरम पर बेरोजगारी : काम न आया पाखंडी सरकार का जयजयकार

तन पिपासु बाबा!

कुछ समय बाद  जब वह अपने घर ले जायी गई तब  “आरोपी” उसके घर में आकर झाड़ फूंक करने के बहाने मौका पाकर शारीरिक शोषण करता रहा.

अंततः हिम्मत कर पीडिता ने बाबा का संपूर्ण चरित्र और घटना के बारे में अपने परिजनों को बताया, जिसके बाद परिजनों ने उसकी खूब पिटाई की तो वह भाग खड़ा हुआ परिजनों ने थाना में आरोपी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. जिस पर आरोपी के विरूद्ध छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिला के थाना सीपत में अपराध कमांक 396/2020  धारा 376,506 भादवि व 4, 6 पोक्सो एक्ट के तहत अपराध पंजीबद्ध किया गया. ऐसे बाबाओं की दस्तान  को जानने समझने वाले और मामले के गंभीरता को महसूस करते हुए थाना प्रभारी जे.पी. गुप्ता ने बाबा को जेल के सीखचों में भेजने के लिए एक टीम गठित कर आरोपी का खोजबीन प्रारंभ कराई. मगर आरोपी अपने ठिकाने से फरार हो गया. आरोपी का मोबाईल नंबर प्राप्त कर साईबर सेल के माध्यम से लोकेशन पता किया गया जो आरोपी जगह बदल-बदल कर अलग-अलग गांव में छिप रहा था तथा भागने के फिराक में था, जिसे कोटमी सोनार जिला चांपा जांजगीर के पास के गांव से घेराबंदी कर पकड़ा गया. आरोपी शाकीर अंसारी बाबा उर्फ हब्बू मौलवी से पूछताछ करने पर उसने बालिका के साथ अपराध घटित करना स्वीकार किया. आरोपी को गिरफ्तार कर न्यायायिक रिमाण्ड पर  जेल भेजा गया है.

मूर्तियों की स्थापना, पैसों की बरबादी

आज से तकरीबन 600 साल पहले कबीरदास ने अपने एक दोहे में कहा था :

पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार,

याते तो चाकी भली पीस खाए संसार.

जब विज्ञान का आविष्कार नहीं हुआ था, तब कबीर ने मूर्तिपूजा करने वाले अंधभक्तों को चेताया था कि पत्थरों की मूर्ति पूजने से कभी भगवान नहीं मिलता. ऐसी मूर्तियों से तो पत्थर से बनी चक्की ज्यादा उपयोगी है, जिस में पीसा गया आटा लोगों के पेट भरने के काम आता है.

अफसोस मगर आज की सभ्य, शिक्षित और वैज्ञानिक सोचसमझ वाली पीढ़ी भी कबीर की इन बातों को मानने तैयार नहीं है.

दरअसल, जब हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान की दुहाई देने वाले सरकार के जिम्मेदार मंत्री देश में जगहजगह ऊंचीऊंची मूर्तियां बनवाने और मंदिरमसजिद के निर्माण को ही देश का विकास मानते हों, वहां जनता का ऐसा  अनुसरण करना गलत भी नहीं है. जब देश के वैज्ञानिक चंद्रयान की कामयाबी के लिए मंदिरों में हवनपूजन करते हों, जहां राफेल विमान पर नीबू लटका कर नारियल फोड़े जाते हों, वहां जनता का अंधविश्वासी होना लाजिमी है.

ये भी पढ़ें- चरम पर बेरोजगारी : काम न आया पाखंडी सरकार का जयजयकार

भारत जैसे विकासशील देश में अंधविश्वास की जड़ों में मठा डालने का काम पंडेपुजारियों द्वारा बखूबी किया जा रहा है,क्योंकि उन की रोजीरोटी बिना मेहनत के इसी तरह के पाखंडी कामों के दम पर चल रही है.

हमारे देश में गरीबी के हालात ये हैं कि आबादी का बड़ा तबका दो वक्त की रोटी मुश्किल से जुटा पाता है, लेकिन पंडेपुजारियों द्वारा धर्म का डर दिखा कर  धार्मिक आडंबरों के लिए लोगों को पैसे खर्च करने मजबूर किया जाता है.  दुर्गा पूजा और गणेश उत्सव पर देश के गलीमहल्ले में मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. 9-10 दिन चलने वाले इन उत्सवों पर कई लाख रुपए तक लुटाए जाते हैं. 10,000 रुपए से ले कर 50,000 रुपए की लागत इन मूर्तियों के निर्माण में आती है. 10 दिन बाद उन्हीं मूर्तियों को नदीतालाबों में बहा दिया जाता है.

एक तरफ देश में कोरोना से लड़ने के लिए औक्सीजन और‌ वैंटिलेटर की कमी का रोना रोया जाता है, वहीं दूसरी तरफ छोटे गांवकसबों और शहरों में करोड़ों रुपए इन मूर्तियों पर पानी की तरह बहा दिए जाते हैं. महंगी मूर्तियां बनवा कर उन्हें नष्ट कर देना पैसे की क्रिमिनल बरबादी है.

इस पैसों की बरबादी में उन पंडों की भूमिका रहती है जो खुद कोई  कामधाम करते नहीं हैं, केवल जनता को पूजापाठ में उलझा कर खूब दानदक्षिणा बटोर कर मुफ्त की रोटियां तोड़ते हैं.

चंदे से मौजमस्ती

गणेशोत्सव और दुर्गोत्सव पर बड़ीबड़ी मूर्तियों की स्थापना के लिए पंडेपुजारियों के इशारों पर चंदे का कारोबार चलता है. आम आदमी पर इन पंडों के एजेंट चंदे के लिए भी दबाव डालते हैं. क‌ई कसबों और छोटे शहरों में तो रोड पर बैरियर लगा कर रोड से निकलने वाले गाड़ी मालिकों से जबरन चंदा वसूली की जाती है. चंदा न देने पर उन से बदसुलूकी करने के साथ गाड़ियों में तोड़फोड़ कर नुकसान पहुंचाया जाता है.

पंडालों में मूर्ति स्थापित होने के बाद पूजा करने आने के लिए भी दबाब डाला जाता है. जो आनाकानी करता है उस का हुक्कापानी बंद कर सामाजिक बहिष्कार किया जाता है. गरीब, एससीबीसी तबके के लोग इन दबंगों से लड़ नहीं सकते तो मजबूरी में इन से तालमेल बना कर अपना पेट काट कर मूर्ति बनाने के लिए चंदा देते हैं और नदियों में बहाने के समय ढोलनगाड़ों का खर्च भी.

गरीबों की खूनपसीने की गाढ़ी कमाई से दबंगों के लड़के और बेरोजगार घूम रहे लड़के शराब के नशे में ढोलनगाड़ों और डीजे की धुन पर नाच कर मौजमस्ती करते हैं. बाद में चंदे के हिसाबकिताब को ले कर लड़ाईझगड़े की नौबत आ जाती है.

ये भी पढ़ें- हिम्मती राधा ने भालू से लिया लोहा

साल 2019 में नरसिंहपुर जिले के गांव पिठवानी में चंदे की रकम के खर्च करने को ले कर एक नौजवान की हत्या समिति के दूसरे लड़कों ने कर दी थी. चंदा देने में सब से ज्यादा दिक्कत गरीब एससी तबके को होती है, क्योंकि मूर्तियां स्थापित करने के लिए दलितों से चंदा तो वसूला जाता है, पर उन्हें छुआछूत की वजह से पंडालों में घुसने के बजाय दूर से ही दर्शन करने का उपदेश दिया जाता है.

इस तरह के धार्मिक आयोजनों में होने वाले पाखंड का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक ओर तो नवरात्रि में कन्या पूजन का ढोंग किया जाता है, दूसरी ओर देवी दर्शन के लिए सड़कों पर निकली लड़कियों के साथ खुलेआम छेड़छाड़ की जाती है.

प्रदूषण की वजह

मूर्ति स्थापना की ये दकियानूसी परंपराएं समाज को आर्थिक रूप से खोखला तो कर ही रही हैं, पर्यावरण के लिए भी ख़तरा बन रही हैं. दुर्गा उत्सव, गणेशोत्सव, मोहर्रम जैसे त्योहार पर बनाई जाने वाली मूर्तियां और ताजिया नदियों, तालाबों को प्रदूषित करने का काम कर रहे हैं.

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मूर्ति विसर्जन के लिए गाइडलाइंस जारी तो की हैं, पर उन का पालन हर कहीं नहीं हो रहा है. वैसे, देश में अब कहीं भी प्लास्टिक, प्लास्टर औफ पैरिस, थर्मोकोल जैसी चीजों से बनी हुई मूर्तियों के नदी, जलाशयों में विसर्जन की इजाजत नहीं है.

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने बहुत साफतौर पर देश में पर्यावरण के अनुकूल तरीके से मूर्ति विसर्जन के लिए अपनी गाइडलाइंस में कई संशोधन किए हैं और देवीदेवताओं की मूर्तियां प्लास्टिक थर्मोकोल, प्लास्टर औफ पैरिस से बनाने पर रोक लगा दी है.

सीपीसीबी ने मूर्ति विसर्जन के संबंध में अपने पुराने 2010 के दिशानिर्देशों को विभिन्न लोगों की राय जानने के आधार पर संशोधित किया है. सीपीसीबी ने अपनी नए गाइडलाइंस में खासतौर पर प्राकृतिक रूप से मौजूद मिट्टी से मूर्ति बनाने और उन पर सिंथैटिक पेंट और रसायनों के बजाय प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल पर जोर देने की बात कही है.

लेकिन प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडलाइंस का पालन अंधभक्तों द्वारा कहीं नहीं किया जा रहा. देश में हर साल गणेश चतुर्थी और दशहरा जैसे उत्सवों के दौरान मूर्ति विसर्जन से जलाशय और नदियां प्रदूषित हो जाती हैं. ये मूर्तियां आमतौर पर पारंपरिक मिट्टी के बजाय रसायनिक चीजों की बनाई जाती हैं.

मूर्ति विसर्जन से जलाशयों के प्रदूषण पर अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के एक अध्ययन के बारे में ‘द वायर’ में सुभाष गाताडे का एक आलेख छपा था.

अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के मुताबिक मोटे आकलन के हिसाब से अकेले महाराष्ट्र के तकरीबन 2 करोड़ परिवारों में से एक करोड़ परिवार गणेश की मूर्ति स्थापित करते हैं. घरों में स्थापित ये छोटी मूर्तियां आमतौर पर डेढ़ फुट ऊंची, डेढ़ किलो वजन की होती हैं.

इस का मतलब हर साल औसतन डेढ़ करोड़ किलो ‘प्लास्टर औफ पैरिस सैकड़ों टन रंगों के साथ जलाशयों में पहुंचता है और औसतन 50 लाख किलो फूलमाला आदि को भी पानी में बहाया जाता है. इस तरह नदियां, तालाब, नहरें, झरने, कुएं आदि विभिन्न किस्म के जलाशय प्रदूषित होते रहते हैं.

ये भी पढ़ें- टोनही प्रथा का बन गया “गढ़”

समिति के लोग अपनी प्रचार मुहिम में लोगों को याद दिलाते हैं कि आज की तारीख में ज्यादातर मूर्तियां प्लास्टर औफ पैरिस से (जो पानी में घुलता नहीं हैं) बनी होती हैं, जिन्हें पारा जैसे खतरनाक रासायनिक चीजों से बने रंगों से रंगा जाता है. अगर ऐसा पानी कोई इनसान इस्तेमाल करें तो उसे कैंसर हो सकता है या उस का दिमागी विकास भी रुक सकता है.

नदियों का दूषित पानी केवल इनसान ही नहीं ,जलीय जीवों, मछलियों और दूसरे प्राणियों के लिए मौत की सौगात बन कर आता है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी उत्सवों के दिनों में नदियों के दम घुटने की बात  की है. नदियों के पानी पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि हर साल नवरात्रि के बाद यमुना, गंगा, नर्मदा, हुगली जैसी बड़ी नदियों में प्रदूषण बढ़ जाता है. बोर्ड के निष्कर्षों के मुताबिक सामान्य काल में पानी में पारे की मात्रा तकरीबन न के बराबर होती है, लेकिन उत्सवों के काल में वह अचानक बढ़ जाती है.

और भी हैं वजहें

नदियों को प्रदूषित करने में धार्मिक कर्मकांड की भूमिका ज्यादा है. मर चुके लोगों की अस्थियों से ले कर, मंदिरों में रोजाना चढ़ाई जाने वाले सामग्री भी नदियों में विसर्जित की जाती है. धार्मिक पर्वत्योहारों पर इन नदियों के घाट पर स्नान और पूजापाठ के  बहाने नारियल, अगरबत्ती, प्रसाद और पौलीथिन का कचरा खुलेआम घाटों पर देखा जा सकता है. मर चुके लोगों के कर्मकांड के लिए नदियों के तटों पर होने वाले मुंडन से निकले बाल और भंडारे में इस्तेमाल होने वाली डिस्पोजल सामग्री भी प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है. आजकल नदियों के पानी में अपनी गाड़ियां धोने का काम भी होने लगा है.

पानी के संकट की आहट सुनाई देने लगी है. जल स्रोतों के लगातार दोहन से छोटीछोटी नदियां सूखने लगी हैं. रेत के उत्खनन ने भी नदियों की सेहत को नुकसान पहुंचाया है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम नदियों को प्रदूषण से बचाएं ताकि आने वाले समय में पानी के संकट का सामना करने से बच सकें.

कोरोना वायरस का संक्रमण जिस ढंग से बढ़ रहा है और सरकार ने अनलौक के बहाने अपने हाथ खींच लिए हैं, ऐसे समय में हमें भी वर्तमान हालात से सबक लेने की जरूरत है. जो रुपएपैसे हम मूर्तियां बनवाने और पानी में बहाने में खर्च कर रहे हैं, वही पैसा अपने बच्चों की पढ़ाई और अपने परिवार को कोविड 19 के संक्रमण से बचाने में खर्च कर समझदारी का परिचय दे सकते हैं.

पंडेपुजारियों के बहकावे में न आ कर ठंडे दिमाग से सोचें कि जब लौकडाउन हुआ था तो मंदिरों के दरवाजे बंद थे और कोई भी आप की मदद के लिए आगे नहीं आया था. धर्म के इन्हीं ठेकेदारों के दबाव में सरकार ने भले ही मूर्तियां स्थापित करने की छूट दे दी है, पर आप के परिवार की सुरक्षा और पैसों की बरबादी के लिए इस भेड़चाल से बचने की जरूरत है.

ये भी पढ़ें- भीम सिंह : पावर लिफ्टिंग का पावर हाउस

चरम पर बेरोजगारी : काम न आया पाखंडी सरकार का जयजयकार

मामला : 01

(नौकरी नहीं मिलने से 3 युवकों ने की एकसाथ खुदकुशी)

पिछले दिनों राजस्थान में 3 युवकों ने नौकरी न मिलने से हताश हो कर एकसाथ आत्महत्या कर ली. तीनों युवक जान देने के लिए ट्रेन के आगे कूद गए. जिस से तीनों की मौके पर ही मौत हो गई. घटना के चश्मदीदों की मानें तो ट्रेन के आगे कूदने से पहले ये युवक कह रहे थे कि नौकरी तो लगेगी नहीं, तो फिर जीने का क्या मतलब? ऐसे जी कर क्या करेंगे?

घटना राजस्थान के अलवर जिले की है. यहां पर नौकरी न मिलने से हताश हो कर 5 दोस्तों ने एकसाथ जान देने का प्लान बनाया था. इस योजना के समय 2 युवा ट्रेन के आगे कूदने से डर गए और पीछे हट गए. वहीं 3 अन्य दोस्तों ने एकसाथ ट्रेन के आगे छलांग लगा दी. ये तीनों युवक शहर के एफसीआई गोदाम के पास ट्रेन के आगे कूद गए. ट्रेन के आगे कूदने से इन  की मौके पर ही मौत हो गई.

ये भी पढ़ें- हिम्मती राधा ने भालू से लिया लोहा

बाकी जिन 2 दोस्तों ने मौके पर आत्महत्या न करने का फैसला लिया उन की जान बच गई. उन्होंने बताया कि नौकरी न लगने से सभी परेशान थे. सभी युवकों का मानना था कि नौकरी नहीं लगेगी ये तो तय है लेकिन बिना नौकरी के जीवन कैसे गुजरेगा? ऐसे में ज़िंदा रह कर क्या करेंगे? ट्रेन के आगे कूदने से जान गंवाने वाले युवकों में से एक सत्यनारायण मीणा ने घटना से कुछ घंटे पहले अपने फेसबुक अकाउंट पर आत्महत्या का वीडियो- ‘माही द किलर’ नाम से डाला था.

मामला : 02

(पति की बेकारी से परेशान पत्नी ने दी जान)

जयपुर के गांधी नगर रेलवे स्टेशन पर पिछले शुक्रवार की सुबह एक महिला ने चलती ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली. ट्रेन की चपेट में आने पर महिला का शरीर 2 हिस्सों में बंट गया. घटना के बाद  स्टेशन पर हड़कंप मच गया. सूचना पर पहुंची पर पुलिस ने शव को कब्जे में ले कर इस की सूचना परिजनों को दी.

पुलिस के मुताबिक महिला का पति राजेश पिछले एक साल से बेरोजगार है. वह नौकरी की तलाश में हैं और घर का खर्च मरने वाली महिला शीतल के जिम्मे ही था. शीतल एक प्राईवेट कंपनी में नौकरी कर जैसेतैसे परिवार का खर्च उठा रही थी, लेकिन कोरोना के चलते लोकडाउन ने उस की यह नौकरी भी छीन ली. कामधंधे की बात को ले कर उन के बीच अकसर झगड़े हुआ करते थे. खुदकुशी के दिन की सुबह भी उन में कहासुनी हुई थी.

मामला : 03

(पति की बेकारी से तंग पत्नी ने की खुदकुशी की कोशिश)

अजमेर निवासी विनोद अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ गौतम नगर में किराये के मकान में रहता है. विनोद एक लंबे अरसे से बेरोजगार है. घर का खर्च चलाने में दिक्कत होने के कारण उस की पत्नी हमेशा तनाव में रहती थी. पिछले रविवार की सुबह विनोद किसी काम से घर के बाहर गया था और रंजना अपने दोनों बच्चों के साथ घर में ही थी.

इसी बीच उस ने कमरे के पंखे से लटक कर खुदकशी की कोशिश की. यह देख बच्चों ने शोर मचा दिया, जिस से आसपडोस के लोग जुट गए. उन्होंने तत्काल महिला को फंदे से उतार कर बचा लिया. महिला ने बताया कि पति की बेरोजगारी से तंग आ कर उस ने जान देने की कोशिश की थी. बेरोजगारी के अलावा पति से उसे किसी और तरह की कोई शिकायत नहीं है.

मामला : 04

(बेकारी की वजह से रिश्ता पहुंचा टूटने की कगार पर)

रोहित व रंजना की शादी दिसंबर 2018 में हुई थी. 6-7 माह तक पतिपत्नी का रिश्ता ठीक रहा. रोहित बेरोजगार है और पत्नी खर्चे के लिए पैसे मांगती है. बेरोजगारी के चलते वह पैसे नहीं दे पाता. इस से दोनों के बीच में कहासुनी और झगड़ा होता रहता है. झगड़े में कई बार रोहित अपनी पत्नी पर हाथ भी उठा चुका है.

परिजनों ने बातचीत से कई बार मामला शांत किया, लेकिन कुछ दिन सब ठीक रहता और फिर से वही स्थिति बन जाती. हालात ऐसे बन गए कि मामला थाने तक पहुंच गया. महिला थाने में जिला महिला संरक्षण एवं बाल विवाह निषेध अधिकारी पतिपत्नी के टूटते रिश्ते को जोड़ने का प्रयास कर रही है.

ये भी पढ़ें- टोनही प्रथा का बन गया “गढ़”

बेकारी की वजह से रिश्ता टूटने की कगार पर पहुंचा यह अकेला ऐसा मामला नहीं है. इस तरह के हर दिन 4 से 5 केस पुलिस तक पहुंच रहे हैं. ये तो वे केस हैं जो कि घरों से बाहर रहे हैं. बहुत से केस तो घरों की चारदीवारी (परिवारों में आपसी बातचीत या पंचायतें हो रही हैं) में ही चल रहे हैं.

जयपुर जिला महिला संरक्षण एवं बाल विवाह निषेध अधिकारी सरिता लांबा की मानें तो कुल केस मेें 70 फीसदी केस बेरोजगारी की वजह से हैं. वहीं 20 प्रतिशत केस में पति द्वारा नशा करना वजह सामने आया है. कुछ केस दहेज या अवैध संबंधों के चलते हो रहे हैं. कुछ वैवाहिक संबंध दो माह भी ठीक से नहीं चल पाते. एक मामला पुलिस तक पहुंचने के बाद 50 प्रतिशत रिश्ते ही दोबारा जुड़ पाते हैं.सरिता लांबा के कहे अनुसार रिश्ते बिगड़ने की सब से बड़ी वजह बेरोजगारी रही है.

बेकारी से तंग युवाओं के अवसान का दौर

आज का युवा सड़कों पर उतर आया है तो उस के पीछे ठोस वजहें है. हालिया नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंंकड़े भी यह दर्शाते हैं कि देश के युवाओं का दुर्दिन चल रहा है. तभी तो बेरोजगार युवा अवसाद में आ कर मौत को गले लगा रहा. लेकिन बदकिस्मती देखिए, लोकतांत्रिक परिपाटी के सब से बड़े संवैधानिक देश में युवा एक अदद नौकरी न मिलने के कारण अवसादग्रस्त हो रहे और सियासी व्यवस्था उन्हें सियासत की कठपुतली बना सर्कस में नचा रही है. इतना ही नहीं देश की युवा जमात भी सियासतदानों के बनाए मौत के कुएं में चक्कर काट रही है.  युवाओं को भी अपने मुद्दों का भान नहीं रहा. तभी तो वे राजनीति के भंवर में कठपुतली बन नाच रहे और सियासी दल उन का फायदा उठा रहे.

आज युवाओं की सब से बड़ी जरूरत क्या है ? उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले, बेहतर रोजगार के अवसर मुहैया हों, ताकि उन्हें मौत को गले न लगाना पडे. लेकिन देश के युवा भी गुमराह हो गए हैं. आज का युवा हर मायने में राजनीतिक दल का काम करने लगा है और राजनीतिक दल उन के कंधे पर सवार हो कर चैन की बंशी बजा रहे, जो कतई उचित नहीं. युवाओं की पहली प्राथमिकता शिक्षा और नौकरी है, फिर क्यों युवा उस मुद्दे को ले कर आंदोलित न हो कर राजनीतिक दलों का काम आसान कर रहे है.

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में औसतन प्रतिदिन 36 बेरोजगार युवाओं ने खुदकुशी की, जो किसान आत्महत्या से भी ज्यादा है. यह उस दौर में हुआ, जब देश के प्रधानसेवक भारत को न्यू इंडिया/डिजिटल इंडिया बनाने का दिवास्वप्न दिखा रहे थे. विश्वगुरु बनने की दिशा में बातों ही बातों में लफ्जाजियों का गोता लगाया जा रहा था. देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन बनाने का संकल्प रोजाना दोहराया जा रहा था. 56 इंच की छाती पर गुमान यह कह कर किया जा रहा था कि भारत एक महाशक्ति बनने जा रहा है.

ऐसे में जब 21वीं सदी के भारत में डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और स्किल इंडिया जैसे ढेरों सरकारी कार्यक्रम चल रहे हो, उस दौर में बेरोजगारी से तंग आ कर देश के युवा जान दे रहे हो तो फिर सरकारी नीतियों और उन की नीयत पर सवालिया निशान खड़े होना वाजिब है.

एनसीआरबी के आंंकड़े के मुताबिक साल 2018 में ऐसे मौत को गले लगाने वाले बेरोजगार हताश युवाओं की संख्या 12,936 रही. यानी औसतन हर 2 घंटों में 3 लोगों की जान बेरोजगारी ने ली. ऐसे में यह कहीं न कहीं संविधान के अनुच्छेद- 21 में मिले जीवन जीने की स्वतंत्रता का हनन करना है और इस के लिए दोषी पूरा का पूरा राजनीतिक परिवेश है.

बेरोजगार युवा: सरकार की गलत नीतियों का नतीजा

हालिया दौर में भारत के पास जितना युवा धन है, उतना दुनिया के किसी भी मुल्क के पास नही है मगर सच्चाई यह भी है कि सब से ज़्यादा बेरोज़गार युवाओं का सैलाब भी हमारे ही मुल्क में है. यह सब कुछ वर्तमान सरकार की गलत नीतियों का नतीजा है. पिछले 60-70 सालों में बेरोज़गारी को ले कर जितनी बातें नहीं हुई हैं, उस से कहीं अधिक बीते 6 सालों से सुनाई पड़ रही है. सतासीन सरकार ने सत्ता हासिल करने के लिए युवाओं को हर साल 2 करोड़ रोज़गार गारंटी का वादा कर छला था.

आज मुल्क के कई संस्थानों का लगातार निजीकरण होना यह साबित करता है कि वर्तमान सरकार विफल है. इसी वजह से हर रोज़ लाखों की तादाद में युवाओं की नोकरियां दाव पर लगी रहती हैं. जिस से युवाओं में लगातार डिप्रेशन बढ़ रहा है. आज इन्हीं गलत नीतियों की वजह से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाला युवा चपरासी की नौकरी भी करने को तैयार है. हद तो यह है कि वह भी उसे नहीं मिल रही है. इस से भी कहीं ज़्यादा चौंकाने वाले मामले  अनेक शहरों में उस वक्त सामने आएं, जब म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में सफाई कर्मियों की नौकरी के लिए गैजुएट एवं पोस्ट गैजुएट के साथ इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने वाले युवाओं का तांता लग गया.

ये भी पढ़ें- भीम सिंह : पावर लिफ्टिंग का पावर हाउस

जिस तरह से हर भरती पेपरलीक या कोर्ट के चक्कर में लंबित पड़ी है, उस से साफ़ है कि सरकार और सरकार में बैठे अधिकारी इन भर्तियो को ले कर संवेदनशील नही है. हर साल लाखोकरोड़ों की संख्या में इंटर, ग्रेजुएशन पास करने वाले बच्चे जब किसी सरकारी नौकरी की लिखित परीक्षा दे कर वापस अपने घर तक नही पहुंंच पाते तब तक परीक्षा संबंधी वेबसाइट पर पेपरलीक/परीक्षा स्थगित होने की जानकारी अपलोड कर दी जाती है.

भरती चाहे स्थगित हो अथवा कोर्ट में जाए पर इन सभी बातो का दुष्परिणाम अभ्यर्थी को ही भुगतना पड़ता है, वह अभ्यर्थी जो सालोसाल, दिनरात मेहनत कर के एक अदद सी नौकरी के सपने देखता है परन्तु उसे पेपर लीक/स्थगित होने से निराशा ही हाथ लगती है.

जिस युवाशक्ति के दम पर देश का मुखिया विश्वभर में इतराते घूमता है, देश की वही युवाशक्ति एक नौकरी के लिए दरदर भटकने को मजबूर है. ताजा रिपोर्टो के मुताबिक, जिन युवाओ के दम पर हम भविष्य की मजबूत इमारत की आस लगाए बैठे है, उस की नीव की हालत बेहद निराशाजनक है. 21वीं सदी में अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी अपनाने के बाद भी देश एक ऐसा सिस्टम नही खड़ा कर पाया है जो एक भरती परीक्षा को सकुशल संपन्न करा सके. बेरोजगारी नाम का शब्द दरअसल देश का ऐसा सच है, जिस से राजनीतिज्ञों, खुद को देश का रहनुमा समझने वालो ने अपनी आंंखे मूंद ली हैं.

हद पर बेकारी का दर्द

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते साल अक्टूबर, 2019 में 40.07 करोड़ लोग काम कर रहे थे, लेकिन इस साल अगस्त माह में यह आंकड़ा 6.4 फीसदी घट कर 36.70 करोड़ रह गया. इस से पहले अंतररष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी अपनी एक रिपोर्ट में देश में रोजगार के मामले में हालात बदतर होने की चेतावनी दी थी. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बीते 6 सालों के दौरान रोजाना साढ़े 6 सौ जमीजमाई नौकरियां खत्म हुई हैं.

46 साल के अशोक कुमार एक निजी कंपनी में बीते 22 साल से काम कर रहे थे. लेकिन बीते साल नवंबर माह में एक दिन अचानक कंपनी ने खर्चों में कटौती की बात कह कर उन की सेवाएं खत्म कर दीं. अभी उन के बच्चे छोटेछोटे थे. महीनों नौकरी तलाशने के बावजूद जब उन को कहीं कोई काम हीं मिला तो मजबूरन वह अपनी पुश्तैनी दुकान में बैठने लगे. अशोक कहते हैं, “इस उम्र में नौकरी छिन जाने का दर्द क्या होता है, यह कोई मुझ से पूछे. वह तो गनीमत थी कि पिताजी ने एक छोटी दुकान ले रखी थी. वरना भूखों मरने की नौबत आ जाती.”

अशोक अब वहीं पूरे दिन बैठ कर परचून और घरेलू इस्तेमाल की दूसरी चीजें बेच कर किसी तरह अपने परिवार का गुजरबसर करते हैं. वह बताते हैं कि पहले वेतन अच्छा था. लिहाजा वह बड़े मकान में किराए पर रहते थे. बच्चे भी बढ़िया स्कूलों में पढ़ते थे. लेकिन एक झटके में नौकरी छिनने के बाद उन को अपने कई खर्चों में कटौती करनी पड़ी. पहले मकान छोटा लिया. फिर बच्चों का नाम एक सस्ते स्कूल में लिखवाया. अब हालांकि उन की जिंदगी धीरेधीरे पटरी पर आ रही है. लेकिन अशोक को अब तक अपनी नौकरी छूटने का मलाल रहता है.

जयपुर के एक छोटे कसबे के रहने वाले  हेमंत ने एक प्रतिष्ठित कालेज से बीए (आनर्स) की पढ़ाई करने के बाद नौकरी व बेहतर भविष्य के सपने देखे थे. लेकिन नौकरी की तलाश में बरसों एड़ियां घिसने के बाद उन का मोहभंग हो गया. आखिर अब वह अपने कसबे के बाजार ही में सब्जी की दुकान लगाते हैं. हेमंत बताते हैं, “कालेज से निकलने के बाद मैंने 5 साल तक नौकरी की कोशिश की. लेकिन कहीं कोई नौकरी नहीं मिली. जो मिल रही थी उस में पैसा इतना कम था कि आनेजाने का किराया व जेबखर्च भी पूरा नहीं पड़ता. यही वजह है कि मैंने सब्जी व फल बेचने का फैसला किया. कोई भी काम छोटाबड़ा नहीं होता.

सीएमआईई ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि नोटबंदी के बाद रोजगार में कटौती का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अब कोरोनाकाल में चरम पर है. इस दौरान श्रम सहभागिता दर 48 फीसदी से घट कर तीन साल के अपने निचले स्तर 36.70 फीसदी पर आ गई है. यह दर काम करने के इच्छुक वयस्कों के अनुपात का पैमाना है. रिपोर्ट में बेरोजगारी दर में इस भारी गिरावट को अर्थव्यवस्था व बाजार के लिए खराब संकेत करार दिया गया है.

ये भी पढ़ें- जुल्म की शिकार बेचारी लड़कियां

बेरोजगारी पर अब तक जितने भी सर्वेक्षण आए हैं, उन में आंकड़े अलगअलग हो सकते हैं. लेकिन एक बात जो सब में समान है वह यह कि इस क्षेत्र में नौकरियों में तेजी से होने वाली कटौती की वजह से हालात लगातार बदतर हो रहे हैं. बीते दिनों अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की ओर से प्रकाशित एक सर्वेक्षण में कहा गया था कि देश में विभिन्न क्षेत्रों में ज्यादातर लोगों का वेतन अब भी 8-10 हजार रुपए महीने से कम ही है. इस सर्वेक्षण रिपोर्ट में दावा किया गया था कि रोजगार के क्षेत्र में विभिन्न कर्मचारियों के वेतन में भारी अंतर है. इस खाई को पाटना जरूरी है. एक अन्य सर्वे में कहा गया है कि भारत में 14 करोड़ युवाओं के पास फिलहाल कोई रोजगार नहीं है.

बेअसर तालीथाली की प्रतिक्रांति

देश के बेरोजगार युवाओं द्वारा 5 सितंबर को शाम 5 बजे 5 मिनट तक बेरोज़गारी की थालीताली पीटने के देशव्यापी अभियान के बाद 9 सितंबर को रात्रि 9 बजे 9 मिनट तक अँधेरे के खिलाफ़ मशाल जला कर देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किया गया. माना रहा है कि बेरोजगार युवाओं अपने हक की बात अर्थात नौकरी/नियुक्ति की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित कराने के लिए तालीथाली की प्रतिक्रांति को अंजाम दिया.

दरअसल, किसी भी समाज व देश की युवापीढ़ी क्रांति की बुनियाद होती है. जब युवा पीढ़ी ही अपने ढोंगी राजा के ढोंग में रंग कर उसी हथियार से क्रांति करने की राह पर आ जाएं तो समझा जाना चाहिए कि उसी रंग में रंग चुके है अर्थात मानसिक स्तर बराबर का हो चुका है.

मगर अफसोस, कुछ अरसे पहले देश व समाज के चुनिंदा बुद्धिजीवी व तार्किक लोग युवाओं के हकों अर्थात हर साल 2 करोड़ रोजगार के वादे को ले कर सरकार से सवाल कर रहे थे, उन को गालियां ये तालीथाली भक्त युवा ही दे रहे थे कि पहले वालों ने क्या कर दिया? मोदीजी के नेतृत्व में देश मजबूत किया जा रहा है तो तुम लोग देशद्रोह का कार्य कर रहे हो ?  तब कह रहे थे कि 70 साल के गड्ढे भरने में समय तो लगेगा ही. तुम वामपंथी/पाकपरस्त लोगों को जलन हो रही है. जब गरीब भातभात कर के भूख से मर रहे थे और लोग सवाल खड़ा कर रहे थे तो इन्हीं मोदीभक्त युवाओं द्वारा कहा जा रहा था कि देश को जबरदस्ती बदनाम किया जा रहा है.

असल बात यह है कि जब कैग, सीवीसी, सीबीआई, ईडी आदि को हड़पा जा रहा था, तब ये युवा समझ रहे थे कि समस्याओं की जड़ यही है और इन के खत्म होने में ही भलाई है. जब सरकारी संस्थानों, ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदले जा रहे थे तब इन युवाओं को लग रहा था कि अतिप्राचीन महान सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित किया जा रहा है और ऐसा रामराज्य स्थापित होगा कि डीजलपेट्रोल की महंगाई से भयमुक्त हो कर बंदरों की तरह हम खुद ही उड़ लेंगे. जब मी लार्ड अरूण मिश्रा जस्टिस बने तो लगा कि न्यायपालिका का भ्रष्टाचार मिटाया जा रहा है. जब रंजन गोगोई राज्यसभा के रंग में रंगे तो लगा कि दुग्गल साहब ने कहा कि राज्यसभा मे हमारा बहुमत नहीं है, शायद बहुमत का जुगाड़ कर के हमारी समस्याओं का समाधान किया जाएगा.

संसद के वित्तीय पावर को जीएसटी कौंसिल को ट्रांसफर किया गया तो इन्हीं युवाओं को लगा कि संसद में देशद्रोही विपक्ष सरकार को काम करने नहीं देते इसलिए कोई रास्ता खोजा जा रहा है. विपक्ष को व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के इन्हीं होनहार युवाओं ने निपटाया है और आज हालात यह है कि सत्ता कह रही है संसद में विपक्ष सवाल पूछ कर क्या करेगा. वो फोटो याद है न जब देश के मुखिया ने संसद की सीढ़ियों को चूम कर ही संसद में प्रवेश किया था, मगर वो बात भूल गये कि गोडसे ने गांधी को खत्म करने के लिए भी पहले दंडवत प्रणाम किये थे.

जो पिछले 3 दशक से वैज्ञानिक सोच को मात देने के लिए चमत्कारिक, ढोंगी, अल्लादीन के चिराग पैदा हुए उन को बड़ा बनाने में भारत के युवाओं ने महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई है. जितने भी सत्ताधारी लोग है उन की सोच को देखते हुए लग रहा है कि युवाओं ने देश की सत्ता चलाने के नौकर नियुक्त नहीं किये बल्कि अवतारी पुरुष पैदा किये है. साहब को सुन कर लगता था कि पढ़ालिखा होना जरूरी है मगर लाल जिल्द वाली पोटली लिए मैडम को देखा तो लगा कि पढ़ने का क्या फायदा.

जब स्वतंत्र निकाय को हड़पा जा रहा था तब भी राष्ट्रभक्त युवा खुश थे. पुलिस-सेना से ले कर न्यायपालिका तक का रंगरोगन किया जा रहा था तब भी खुश थे. जब सरकारी उपक्रमों का निजीकरण किया जा रहा था, जब सरकारी कर्मचारियों को कामचोर, भ्रष्ट, बेईमान कह कर निकाला जा रहा था तब भी मोदीभक्त युवा मौन समर्थक थे.

ये भी पढ़ें- “हम साथ साथ हैं” पर कुदृष्टि!

जब अमेठी के एक युवा ने पकौड़े का ठेला लगाने के लिए लोन मांगा था तो बैंक ने कहा कि तुम्हारे पास कोई एसेट नहीं है, इसलिए लोन नहीं मिलेगा. अब उस युवा को कौन समझाए कि एसेट तो युवाओं की सोच थी जो चाचा नसीब वाले को भेंट कर दी थी, अब रोजगार किस से व किस तरह का मांग रहे हो.

5 सितंबर को तालीथाली बजा लेने व 9 सितंबर को दीयाबाती करने या अब अगले पड़ाव पर शंख बजा लेने से कुछ हासिल नहीं होगा. अमिताभ बच्चन ने भी खूब तालीथाली व शंख बजाया बावजूद कोरोना पॉजिटिव हो गए थे. देश के बेरोजगार युवा जिन से तालीथाली बजा कर रोजगार मांगने जा रहे है, दरअसल वे इस धंधे के ये माहिर खिलाड़ी है. युवाओं का मानसिक स्तर अपने हिसाब से सेट कर चुके है. अब युवा विरोध/आंदोलन/क्रांति नहीं करने वाले क्योंकि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने इन की सोच का दायरा सीमित कर दिया है. अब ये तालीथाली बजाने लायक ही बचे है.

हिम्मती राधा ने भालू से लिया लोहा

पहाड़ों की वादियां, नदियां, झरने, हरियाली लोगों को लुभाती है. वहां के जंगल इंसान के सामने चुनौती पेश करते हैं. कच्ची पगडंडियां इन दुर्गम प्रदेशों के गांवों में जाने का एकमात्र रास्ता होती हैं जहां जंगल होते हैं, वहां जंगली जानवरों का खतरा भी बना रहता है. उत्तराखंड के जनपद चमोली के बहुत से इलाकों में भालुओं का खौफ बढ़ गया है. बीते काफी समय से वहां भालू के हमले की कई घटनाएं हुई हैं, जिन में कई लोग घायल हुए तो कई मवेशियों को भी भालू ने अपना शिकार बनाया.

ऐसी ही एक घटना चमोली के देवाल ब्लौक के वाण गांव में घटी. घर के ईंधन की लकड़ी लेने के लिए कुछ महिलाओं के साथ जंगल गई राधा बिष्ट पर भालू ने अचानक हमला कर दिया.

ये भी पढ़ें- टोनही प्रथा का बन गया “गढ़”

20 साल की राधा बिष्ट ने बताया, “12 सितंबर की सुबह 10 बजे अपने गांव से तकरीबन 2 किलोमीटर दूर जंगल में हम 7-8 महिलाएं ईंधन के लिए लकड़ियां बीनने गई थीं. वहां मैं एक बुरांश के पेड़ पर जा चढ़ी और अपनी दरांती से सूखी हो चुकी लकड़ियां काटने लगी.

babita-devi

“मेरे पड़ोस की बबीता देवी और संजू देवी मुझ से 25 मीटर के आसपास लकड़ियां चुन रही थीं. इसी बीच मुझे महसूस हुआ कि कोई काला साया पेड़ पर चढ़ रहा है. मैं ने गौर से देखा कि वह एक बड़ा भालू था. पहले तो मेरी बोलती सी बंद हो गई, पर कुछ देर बाद अपनी जान बचाने के लिए मैं पेड़ पर और ऊपर जा चढ़ी.

ये भी पढ़ें- भीम सिंह : पावर लिफ्टिंग का पावर हाउस

“भालू मुझ पर हमला करने के इरादे से ही पेड़ पर चढ़ा था और ऊपर आ कर उस ने अपने पंजे से मेरी कमर पर वार किया. उस समय तो मैं ने घाव पर ध्यान नहीं दिया और भालू पर दरांती से हमला किया. इस हमले से भालू थोड़ा नीचे की तरफ गिरा पर पेड़ की टहनियों में उलझ गया. इस से वह और खतरनाक हो गया और दोबारा मेरी तरफ आया.

“तब तक मैं ने भी मन बना लिया था कि इस भालू से हार नहीं माननी है और मैं ने चीखते हुए भालू पर फिर से दरांती चलाई.”

इसी बीच बबीता देवी और संजू देवी ने भालू की तेज आवाज सुनी और वे राधा की तरफ दौड़ीं.

बबीता देवी ने बताया, “भालू तेज आवाज में राधा पर झपट रहा था और राधा भी चीखते हुए उस पर दरांती चला रही थी. हम ने भी शोर मचाना शुरू कर दिया और भालू पर दूर से पत्थर फेंके. इस से भालू बौखला गया और वहां से भाग कर घने जंगल में चला गया.”

संजू देवी और बबीता देवी ने राधा को संभाला. संजू देवी ने बताया, “राधा ने बड़ी हिम्मत दिखाई. उस की कमर पर भालू के पंजे के निशान थे और घाव भी हो गया था.”

ये भी पढ़ें- जुल्म की शिकार बेचारी लड़कियां

इस घटना की सूचना मिलने के बाद राधा को उस के परिवार और गांव वालों ने वहां से कई किलोमीटर दूर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र देवाल में भरती कराया, जहां उस का इलाज किया गया.

जिस तरह से जंगल खत्म हो रहे हैं और इंसान की जंगली जानवरों के इलाकों में दखलअंदाजी बढ़ी है, उस के बाद से उत्तराखंड के पहाड़ी जनपदों में इंसान और जंगली जानवरों के मुठभेड़ की घटनाएं भी बढ़ी हैं,  जो चिंता की बात है. सरकार को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिर क्यों जंगली जानवर इतने हमलावर हो रहे हैं और इस का हल क्या है?

सामाजिक कार्यकर्ता हीरा बिष्ट ने बताया, “हमारे पहाड़ की महिलाएं घर का काम तो करती ही हैं, साथ ही साथ ईंधन के लिए लकड़ी और मवेशियों के लिए घास भी लाती हैं. वे मरदों के बराबर काम करती हैं, पर उन की  सुरक्षा के कोई भी उपाय नहीं किए जाते हैं. अगर किसी महिला के साथ कोई घटना हो जाती है तो पहाड़ में कोई भी पूछने वाला नहीं है.

“सरकार के भरोसे तो यहां कुछ भी नहीं होता. कुरसी मिलने के बाद कोई भी नेता पूछता तक नहीं है. कई महिलाओं की डिलीवरी होतेहोते रास्ते में ही वे दम तोड़ देती हैं. आज तक कई लोगों के साथ जंगली जानवरों वाली घटनाएं हुई हैं, लेकिन कोई जिमेदारी लेने को तैयार नहीं होता है. कहते हैं कि मुआवजा मिलेगा, पर आमतौर पर ऐसा होता नहीं है.”

ये भी पढ़ें- “हम साथ साथ हैं” पर कुदृष्टि!

पहाड़ों पर पहाड़ जैसी समस्याएं हैं, पर राधा बिष्ट ने दिखा दिया है कि पहाड़ की बेटियों का हौसला भी पहाड़ जैसा ही अडिग होता है.

गहरी पैठ

अच्छे दिनों की तरह प्रधानमंत्री का एक और वादा आखिर टूट ही गया. 24 मार्च, 2020 को उन्होंने वादा किया था कि लौकडाउन के 21 दिनों में वे कोरोना वायरस को हरा देंगे और महाभारत को याद दिलाते हुए कहा था कि 18 दिन के युद्ध की तरह कोरोना की लड़ाई भी जीती जाएगी.

अंधभक्तों ने यह बात उसी तरह मान ली थी जैसे उन्होंने नोटबंदी, जीएसटी, धारा 370 से कश्मीर में बदलाव, राष्ट्रभक्ति, 3 तलाक के कानून में बदलाव, नागरिक कानून में बदलाव मान लिया था. महाभारत के युद्ध की चाहे जितनी वाहवाही कर लो असलियत तो यही?है न कि युद्ध के बाद पांडवों की पूरी जमात में सिर्फ 5 पांडव और कृष्ण बचे थे, बाकी सब तो मारे गए थे.

पिछले 6 सालों से हम हर युद्ध में खुद को मरता देख रहे हैं. कोरोना के युद्ध में भी अब 15 लाख से ज्यादा मरीज हो चुके हैं और 35,000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. कहां है महाभारत का सा वादा?

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

कोरोना की लड़ाई में हम उसी तरह हारे हैं जैसे दूसरी झड़पों में हारे. नोटबंदी के बाद करोड़ों देशवासियों को कतारों में खड़ा होना पड़ा पर काला धन वहीं का वहीं है. जीएसटी के बाद भी न तो सरकार को टैक्स ज्यादा मिला, न नकद लेनदेन बंद हुआ.

कश्मीर में धारा 370 को बदलने के बाद पूरा कश्मीर जेल की तरह बंद है. जो लोग वहां प्लौट खरीदने की आस लगा रहे थे या वादा जगा रहे थे अब भी मुंह छिपा नहीं रहे क्योंकि जो लोग रोज झूठे वादे करते हैं उन्हें वादों के झूठ के पकड़े जाने पर कोई गिला नहीं होता.

कोरोना के बारे में हमारी सरकार ने पहले जो भी कहा था वह इस भरोसे पर था कि हम तो महान हैं, विश्वगुरु हैं. हमें तो भगवान की कृपा मिली है. पर कोरोना हो या कोई और आफत वह धर्म और पूजा नहीं देखती. उलटे जो धर्म में भरोसा रखता है वह कमजोर हो जाता है. वह तैयारी नहीं करता. हम ने सतही तैयारी की थी.

हमारा देश अमेरिका और ब्राजील की तरह निकला जहां भगवान पर भरोसा करने वाले बहुत हैं. दोनों जगह पूजापाठ हुए. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के कट्टर समर्थक गौडगौड करते फिरते हैं. कई महीनों तक ट्रंप ने मास्क नहीं पहना. नरेंद्र मोदी भी मास्क न पहन कर अंगोछा पहने रहे जो उतना ही कारगर है जितना मास्क, इस पर संदेह है. देश की बड़ी जनता उन की देखादेखी मास्क की जगह टेढ़ासीधा कपड़ा बांधे घूम रही है.

इस देश में बकबकिए भी बहुत हैं. यहां बोले बिना चैन नहीं पड़ता और बोलने वाले को सांस लेने के लिए मास्क या अंगोछा टेढ़ा करना पड़ता है. यह अनुशासन को ढीला कर रहा है. नतीजा है 15 लाख लोग चपेट में आ चुके हैं और 5 लाख अभी भी अस्पतालों में हैं. जहां साफसफाई हो ही नहीं सकती क्योंकि साफसफाई करने वाले जिन घरों में गायों के दड़बों में रहते हैं वहां गंद और बदबू हर समय पसरी रहती है.

कोरोना की वजह से गरीबों की नौकरियां चली गईं. करोड़ों को अपने गांवों को लौटना पड़ा. जमापूंजी लौटने में ही खर्च हो गई. अब वे सरकारी खैरात पर जैसेतैसे जी रहे हैं. यह जीत नहीं हार है पर हमेशा की तरह हम घरघर पर भी जीत का सा जश्न मनाएंगे जैसे महाभारत पढ़ कर या रामायण पढ़ कर मनाते हैं.

देश में नौकरियों का अकाल बड़े दिनों तक बना रहेगा. पहले भी सरकारी फैसलों की वजह से देश के कारखाने ढीलेढाले हो रहे थे और कई तरह के काम नुकसान के कगार पर थे, अब कोरोना के लौकडाउनों की वजह से बिलकुल ही सफाया होने वाला है. रैस्टोरैंटों का काम एक ऐसा काम था जिस में लाखों नए नौजवानों को रोजगार मिल जाता था. इस में ज्यादा हुनर की जरूरत नहीं होती. गांव से आए लोगों को सफाई, बरतन धोने जैसा काम मिल जाता है. दिल्ली में अकेले 1,600 रैस्टोरैंट तो लाइसैंस वाले थे जो अब बंद हैं और उन में काम करने वाले घर लौट चुके हैं. थोड़े से रैस्टोरैंटों ने ही अपना लाइसैंस बनवाया है क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि कब तक बंदिशें जारी रहेंगी.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

ऐसा नहीं है कि लोग अपनी एहतियात की वजह से रैस्टोरैंटों में नहीं जाना चाहते. लाखों तो खाने के लिए इन पर ही भरोसा रखते हैं. ये सस्ता और महंगा दोनों तरह का खाना देते हैं. जो अकेले रहते हैं उन के लिए अपना खाना खुद बनाना एक मुश्किल काम है. अब सरकारी हठधर्मी की वजह से न काम करने वाले को नौकरी मिल रही है, न खाना खाने वाले को खाना मिल रहा है. यह हाल पूरे देश में है. मकान बनाने का काम भी रुक गया. दर्जियों का काम बंद हो गया क्योंकि सिलेसिलाए कपड़ों की बिक्री कम हो गई. ब्यूटीपार्लर बंद हैं, जहां लाखों लड़कियों को काम मिला हुआ था. अमीर घरों में काम करने वाली नौकरानियों का काम खत्म हो गया.

बसअड्डे बंद हैं. लोकल ट्रेनें बंद हैं. मैट्रो ट्रेनें बंद हैं. इन के इर्दगिर्द सामान बेचने वालों की दुकानें भी बंद हैं और इन में वे लोेग काम पा जाते हैं जिन के पास खास हुनर नहीं होता था. ये सब बीमार नहीं बेकार हो गए हैं और गांवों में अब जैसेतैसे टाइम बिता रहे हैं.

दिक्कत यह है कि नरेंद्र मोदी से ले कर पास के सरकारी दफ्तर के चपरासी तक सब की सोच है कि अपनी सुध लो. नेताओं को कुरसियों की पड़ी है, चपरासियों को ऊपरी कमाई की. ये जनता के फायदेनुकसान को अपने फायदेनुकसान से आंकते हैं. ये सब अच्छे घरों में पैदा हुए और सरकारी दया पर फलफूल कर मनमानी करने के आदी हो चुके हैं. इन्हें आम जनता के दुखदर्द का जरा सा भी खयाल नहीं है. ये गरीबों की सुध लेने को तैयार नहीं हैं. इन के फैसले बकबक करने वाले होते हैं, नारों की तरह होते हैं और 100 में से 95 खराब और गलत होते हैं. अगर देश चल रहा है तो उन लोगों की वजह से जो सरकार की परवाह किए बिना काम किए जा रहे हैं, जो कानून नहीं मानते, जो सड़कों पर घर बना सकते हैं, सड़कों पर व्यापार कर सकते हैं.

ये भी पढ़ें- गहरी पैठ

आज अगर भुखमरी नहीं है तो उन किसानों की वजह से जो बिना सरकार के सहारे काम कर रहे हैं. उन कारीगरों की वजह से जो छोटेमोटे कारखानों में काम कर रहे हैं. आज देश गरीबों की मेहनत पर चल रहा है, अमीरों की सूझबूझ और सरकार के फैसलों पर नहीं.

“हम साथ साथ हैं” पर कुदृष्टि!

प्रथम घटना – राजधानी रायपुर के विधान सभा मार्ग में एक प्रेमी जोड़े को कुछ लोगों ने देखा और उन्हें प्रताड़ित किया. यहां तक कि युवक की हत्या हो गई.

दूसरी घटना – न्यायधानी कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर में एक युगल जोड़ी जब एकांत में बैठी हुई थी कुछ अपराधिक किस्म के लोगों ने उन पर हमला किया और युवती के साथ बलात्कार किया.

तीसरी घटना – औद्योगिक नगरी कोरबा के रविशंकर शुक्ला नगर के एकांत में एक युगल जोड़े को युवकों ने पकड़ा और युवती के साथ 8 लोगों ने अनाचार किया. मामला संभ्रांत परिवार का था अतः हड़कंप मच गई पुलिस ने गुप्त रूप से जांच की.

क्या प्यार, प्रेम कोई अपराध है. शायद किसी भी जागरूक और संवेदनशील समाज में इसे अपराध की कोटि में शामिल नहीं किया जा सकता. मगर जब दो प्रेमी कहीं एकांत में मिले और कुछ लोग उस पर हमला कर देंगे तो आप क्या कहेंगे.

ये भी पढ़ें- आत्महत्या का दौर और राहत

छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिला जसपुर में ऐसे ही एक लोमहर्षक घटना घटित हुई है. जहां एक युगल प्रेमी जोड़े को एकांत में पाकर कुछ लोगों ने अपने गिरफ्त में ले लिया और कानून को अपने हाथों में लेते हुए पहले युवक को अपमानित किया गया पीटा गया. और फिर कुदृष्टि डालने वालों ने युवती  के साथ भी वही सब किया गया जो किसी भी दृष्टि से कानून सम्मत नहीं कहा जा सकता.

ऐसी अनेक घटनाएं हमारे आसपास घटित होती रहती हैं और समाज और कानून के भय से कथित रूप से पीड़ित पक्ष  मौन हो जाता है. यह एक ऐसा गंभीर मसला है जिस पर प्रत्येक दृष्टि से समाज के हर एक वर्ग को चिंतन करना चाहिए. इस आलेख में हमने इस गंभीर सामयिक विषय को विभिन्न दृष्टिकोण से आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. ताकि हर एक पक्ष जागरूक हो सके और इसका लाभ उठा सकें और ऐसी घटनाएं कम से कम घटित हो और खत्म हो जाए.

जशपुर का वीडियो वायरल!

छत्तीसगढ़ के आदिवासी जशपुर जिले से शर्मसार करने वाली घटना  घटित हुई है. यहां के कुनकुरी थाने के फरसापानी के एक गोदाम में प्रेमी जोड़े और एक युवक मौजूद थे. इसी दौरान  कुछ लोग पहुंच जाते हैं. युवक-युवती को इस तरह देखकर  युवक की जमकर पिटाई कर देते है.दूसरा युवक घटना स्थल से फरार हो जाता है. इतना ही नहीं  लोगों ने युवती को भी नहीं बख्शा. युवती के साथ बदसलूकी करते हुए गाली-गलौच की. इस पूरे घटना क्रम का बकायदा वीडियो भी बना लिया, जिसे बाद में सोशल मीडिया में वायरल कर दिया है.

वायरल वीडियो में भी पूरी तस्वीर साफ नजर आ रही है, कि किस तरह से ग्रामीणों ने युवती के साथ दुर्व्यवहार किया है. जबरन चेहरे से नाकाब हटाकर चेहरा देखा गया और कैमरे में भी कैद किया गया. इसके साथ ही युवक के साथ भी की गई मारपीट की वाक्या कैमरे में कैद है. लेकिन अब इस मामले में पूरी कहानी ही बदल गई है.

ये भी पढ़ें- महेंद्र सिंह धोनी के बाद क्या होगा भारतीय क्रिकेट का?

दरअसल, अब युवती ने  दोनों  युवकों के खिलाफ दुष्कर्म का आरोप लगाया है. पुलिस के मुताबिक युवती ने दोनों के खिलाफ कुनकुरी थाने में धारा 376 का मामला दर्ज कराया है.  पुलिस अधीक्षक बालाजी राव ने मामले में संज्ञान लेते हुए युवती के साथ बदसलूकी करने वाले ग्रामीणों की भी पहचान कर कार्रवाई करने की बात कही है. कुल जमा सच्चाई यह है कि ऐसे मामलों में प्रेमी युगल के साथ लोगों की  क्रूरता  बारंबार जग जाहिर हुई है. ऐसे में समझदारी की बात तो यह है की युगल जोड़े समझदारी का परिचय देते हुए एकांत में मिलने का प्रयास न करें. अपने जीवन को संकट में ना डालें.

समझदारी और हर पक्ष के लिए कुछ कायदे

प्रेमी युगल जोड़े अक्सर हमले के शिकार होते रहे हैं. इस संदर्भ में हमने वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ उत्पल अग्रवाल से बात की. उन्होंने कहा कि कानूनी दृष्टिकोण से किसी भी प्रेमी जोड़े पर हमला करना गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है. ऐसे लोगों पर शिकायत मिलने पर पुलिस गंभीर कार्रवाई करती है. उन्होंने कहा – मेरा सुझाव तो यही है कि कभी भी किसी को कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए. हां अगर आपको आपत्ति है जो आपका अधिकार है… आप पुलिस में सूचना देकर प्रेमी जोड़े को हिरासत में लेने का आग्रह कर सकते हैं. ऐसी स्थिति में पुलिस कार्रवाई करेगी.

लायनेस समाजसेवी अंजना सिंह ठाकुर के अनुसार ऐसी घटनाएं सुनने में आती है प्रेमी जोड़ों को चाहिए कि स्वयं को सुरक्षित रखते हुए कोई ऐसा कदम ना उठाएं की उनका जीवन खतरे में पड़ जाए.

पुलिस अधिकारी विवेक शर्मा इस संदर्भ में बताते हैं कि उनके कार्यकाल में ऐसी कुछ घटनाएं घटित हुई है युवा जोड़े के उम्र का तकाजा ऐसा  होता है कि वह लोग यह भूल कर बैठते हैं मगर वे  लोग भी अपराधी हैं जो इन पर हमला करते हैं और ऐसे लोगों पर शिकायत मिलने पर कठोर कार्रवाई की जाती है.

ये भी पढ़ें- भारत में बैन चीनी वीडियो ऐप टिकटौक

सार पूर्ण  तथ्य है कि प्रेमी जोड़ों को चाहिए कि कभी भी अपना जीवन संकट में ना डालें. जहां ऐसे घटनाक्रम में युवक की अपेक्षा युवतियां अधिक बर्बरता का शिकार होती है, अनाचार का शिकार भी हो जाती है. वहीं युवक को अपमान झेलना पड़ता है.इसलिए समझदारी का तकाजा यह है कि ऐसी परिस्थितियों से बचें.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें