जब लड़की का दिल किसी पर आ जाए

Writer- धीरज कुमार

दिव्या बीए की छात्रा थी. वह रोज पढ़ने कालेज जाती थी. कालेज जाने के दौरान उसे शुभम नाम के एक लड़के से प्यार हो गया था.

शुभम भी उसी कालेज का छात्र था. दोनों रास्ते में बातें करते थे. शुभम ज्यादातर पढ़ाईलिखाई से जुड़ी बातें ही करता था. वह हलकाफुलका हंसीमजाक भी कर लेता था.

दिव्या सम?ा नहीं पा रही थी कि शुभम उस से प्यार करता भी है या नहीं. आखिरकार दिव्या ने एक दिन शुभम से अपने दिल की बात कह दी. तभी उसे मालूम हुआ कि शुभम भी उस से प्यार करता है, पर वह अपने दिल की बात कहने से डरता था.

शुभम ने इस की वजह बताई थी, ‘‘मेरी तरफ से पहल करने पर अगर बात नहीं बनती तो मु?ो बहुत बुरा लगता. मेरे दिल को ठेस पहुंचती, इसीलिए मैं चाहते हुए भी अपनी तरफ से कोशिश नहीं कर पा रहा था.’’

यह बात सच है कि कुछ लड़के अपने दिल की बात कहने में ?ि?ाक महसूस करते हैं या शरमाते हैं. सभी लड़के एक तरह के नहीं होते हैं. शुभम चाहता था कि दिव्या से अपनी बात कह दे, लेकिन वह कह नहीं पा रहा था.

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जब दिव्या ने अपने प्यार का इजहार किया, तो शुभम काफी खुश हो गया. अब वे दोनों एकदूसरे से खुल कर प्यार की बातें करने लगे थे.

दिव्या और शुभम शादी करना चाहते थे, लेकिन उन के मातापिता को दूसरी जाति का होने के चलते यह शादी मंजूर नहीं थी. इस के उलट वे दोनों एकदूसरे के बिना नहीं रहना चाहते थे.

दिव्या तो शुभम के बिना जीने की कल्पना ही नहीं कर पा रही थी. वह अपने मातापिता से कई बार अपनी बात रख चुकी थी. उधर शुभम के मातापिता भी इस शादी को करने के लिए तैयार नहीं थे.

इसी वजह से उन दोनों ने मातापिता की रजामंदी के खिलाफ जा कर शादी कर ली और अलग रहने लगे. आज दोनों काफी खुशहाल जिंदगी बिता रहे हैं.

शुभम का कहना है, ‘‘अगर सभी मातापिता इसी तरह से सोचेंगे तो समाज में दहेज प्रथा और जाति प्रथा जैसी बुराइयां कैसे खत्म होंगी? मेरे मातापिता की चाहत थी कि दहेज के रूप में अच्छीखासी रकम लड़की वालों से ली जाए. यही वजह थी कि वे दूसरी जाति की लड़की से शादी कराने को तैयार नहीं थे. प्रेम विवाह में दहेज तो मिलता नहीं है न.’’

आज भी किसी गरीब लड़की के पिता को दहेज प्रथा के चलते काफी परेशानी ?ोलनी पड़ती है. बहुत से लोग पैसे की कमी में अपनी बेटी की शादी सही जगह नहीं कर पाते हैं. वहीं पैसे वाले मातापिता अच्छे घर के लड़कों के पल्ले बदसूरत और बिगड़ैल लड़कियों को बांध देते हैं और उन की जिंदगी नरक बना देते हैं.

कई लड़कों का कहना है कि आज भी दहेज के लेनदेन के चलते बेमेल शादियां हो रही हैं. अगर पूरी तरह से प्रेम विवाह की मान्यता समाज में मिल जाए, तो बेमेल शादियां कम हो जाएंगी.

जब लड़केलड़कियां अपनी इच्छा के मुताबिक अपना घरवर चुनने लगेंगी, तो समाज में अच्छा बदलाव आएगा. इस से दहेज प्रथा जैसी बुराइयों का खात्मा होगा और जाति प्रथा की दीवारें टूटनी शुरू हो जाएंगी. समय के साथ ही लोगों को भी बदलने की जरूरत है.

कई बार लड़कालड़की एकदूसरे से प्यार तो कर लेते हैं, पर मातापिता की रजामंदी न मिलने के चलते शादी नहीं कर पाते हैं. इस तरह उन के सपने अधूरे रह जाते हैं. कई बार लड़के या लड़कियां उस प्यार को नहीं भुला पाते हैं, इसीलिए ऐसा देखा गया है कि मातापिता के चलते जब शादी नहीं हो पाती है, तो शादी के बाद भी लड़की अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है या संबंध बनाए रखती है.

कभीकभी लड़के भी अपनी पत्नी के रहते हुए भी प्रेमिका से संबंध जारी रखते हैं. ऐसे हालात में लड़का या लड़की दोनों को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

कुछ मातापिता को अपने बेटेबेटियों का दूसरी जाति या संप्रदाय में प्यार करना काफी नागवार गुजरता है. दरअसल, उन के अंदर का दिखावटी अभिमान प्रेम विवाह के रास्ते में रोड़ा बन जाता है. यही वजह है कि कभीकभी प्रेमीप्रेमिकाओं को औनर किलिंग का सामना भी करना पड़ता है.

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नेहा प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी. उसे एक लड़के से प्यार हो गया था. हालांकि वे दोनों अलगअलग धर्म के थे, फिर उन्होंने यह तय किया कि शादी एकदूसरे से ही करेंगे.

दोनों ने अपने मातापिता को इस बात की जानकारी दी. आखिरकार कई दिनों की कोशिश के बाद उन के मातापिता अपने बच्चों की खुशी की खातिर इस शादी के लिए मान गए. आज वे दोनों खुशहाल पारिवारिक जिंदगी जी रहे हैं.

लिहाजा जरूरी है कि किसी लड़की का दिल किसी लड़के पर आ जाए, तो सोचसम?ा कर कदम बढ़ाया जाए और उसे शादी तक ले जाने की कोशिश की जाए, तभी समाज में बदलाव होगा.

मिसाल: हरेकाला हजब्बा- एक संतरे बेचने वाले अनपढ़ ने खोल दिया स्कूल

आज मैं ने अपने दोनों बच्चों से एक सवाल पूछा कि नीरज चोपड़ा कौन है, तो उन्होंने तपाक से बता दिया कि वही जैवलिन एथलीट, जिस ने टोक्यो ओलिंपिक खेलों में गोल्ड मैडल जीता है. मेरे ही बच्चे क्यों, आज हर कोई जानता है कि भालाफेंक नीरज चोपड़ा दिखने में जितना हैंडसम है, उस का कारनामा भी उतना ही शानदार है.

पर, जब मैं ने अपने दोनों बच्चों से पूछा कि हाल ही में देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति भवन के ‘दरबार हाल’ में हरेकाला हजब्बा को देश के सब से प्रतिष्ठित सम्मानों में से एक ‘पद्मश्री अवार्ड’ से क्यों नवाजा है, तो यह सुन कर वे दोनों एकदूसरे का मुंह ताकने लगे, फिर बोले, ‘यह कैसा नाम है और ‘पद्मश्री अवार्ड’ क्या होता है’, तो मु?ो कोई हैरानी नहीं हुई.

ज्यादातर बच्चे क्या नौजवान भी इस नाम से अनजान होंगे और जिस काम के लिए हरेकाला हजब्बा को ‘पद्मश्री अवार्ड’ मिला है, इस की अहमियत उन्हें आज तो कतई नहीं सम?ा में आएगी. वजह, एक साधारण सी कदकाठी के इस आम गरीब इनसान ने उस काम के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा दी है, जो किसी की कामयाबी की पहली सीढ़ी होता है.

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65 साल के बुजुर्ग हरेकाला हजब्बा खुद तो संतरे बेच कर अपनी जिंदगी गुजार चुके हैं, पर नई पीढ़ी को उन्होंने जो सौगात दी है, वह किसी गोल्ड मैडल की सुनहरी चमक से कम नहीं है.

हरेकाला हजब्बा को यह सम्मान शिक्षा के क्षेत्र में सामाजिक काम करने के लिए दिया गया है. एक संतरे बेचने वाला शिक्षा के क्षेत्र में यह सम्मान पा रहा है, यह सुनने में क्या थोड़ा अजीब नहीं लग रहा है?

पर ऐसा हुआ है. दरअसल, कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले के न्यूपाड़ापू गांव के रहने वाले हरेकाला हजब्बा ने अपने गांव में अपनी जमापूंजी से एक स्कूल खोला है. इस के साथ ही वे हर साल अपनी बचत का पूरा हिस्सा स्कूल के विकास के लिए देते रहे हैं.

हरेकाला हजब्बा कर्नाटक के मंगलुरु शहर में एक संतरा विक्रेता हैं. अपने गांव में स्कूल न होने की वजह से वे पढ़ाई नहीं कर सके थे, लेकिन पढ़ाईलिखाई की अहमियत को बहुत ज्यादा सम?ाते थे, तभी तो उन्होंने ऐसा कारनामा किया है, जिस के बारे में लोग बातें तो बहुत करते हैं, पर अमल में लाने की बात पर कन्नी काट लेते हैं.

कभी खुद स्कूल की शक्ल न देखने वाले हरेकाला हजब्बा बताते हैं, ‘‘एक दिन एक विदेशी जोड़ा मु?ा से संतरे खरीदना चाहता था. उन्होंने कीमत भी पूछी, लेकिन मैं सम?ा नहीं सका.

‘‘यह मेरी बदकिस्मती थी कि मैं स्थानीय भाषा के अलावा कोई दूसरी भाषा नहीं बोल सकता हूं. वह जोड़ा चला गया. मु?ो बेहद बुरा लगा. इस के बाद मु?ो यह खयाल आया कि गांव में एक प्राइमरी स्कूल होना चाहिए, ताकि हमारे गांव के बच्चों को कभी उन हालात से गुजरना न पड़े, जिन से मैं गुजरा हूं.’’

इस के बाद हरेकाला हजब्बा ने गांव वालों को सम?ाया और उन की मदद से एक मसजिद में एक स्कूल शुरू किया. इस के अलावा वे स्कूल की साफसफाई करते थे और बच्चों के लिए पीने का पानी भी उबालते थे. साथ ही, छुट्टियों के दौरान वे गांव से 25 किलोमीटर दूर दक्षिण जिला पंचायत दफ्तर जाते थे और बारबार बड़े अफसरों से स्कूल से जुड़ी बुनियादी सुविधाओं को औपचारिक रूप देने की गुजारिश करते थे.

स्कूल की जमीन लेने और शिक्षा विभाग से इस की मंजूरी लेने के लिए हरेकाला हजब्बा ने एड़ीचोटी का जोर लगाया. साल 1995 से शुरू की गई उन की इन कोशिशों को साल 1999 में तब कामयाबी मिली, जब दक्षिण कन्नड़ जिला पंचायत ने उन के स्कूल को मंजूरी दे दी.

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संतरे बेच कर अपनी गुजरबसर करने वाले की आमदनी का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है, पर पढ़ाईलिखाई न मिलने से जिंदगी में कितनी बड़ी समस्याएं आ सकती हैं, यह बात नई पीढ़ी को सम?ा नहीं आ पाती है.

हरेकाला हजब्बा जैसे लोग अपने जज्बे से दुनिया को यह बता देते हैं कि तालीम की चाबी कामयाबी का ताला खोलने के लिए बहुत ज्यादा जरूरी है.

यही वजह है कि अब हरेकाला हजब्बा अपने बनाए गए स्कूल को और बड़ा बनाना चाहते हैं, जिसे करने में वे कामयाब भी रहेंगे. वे खुद तो अनपढ़ रहे हैं, पर उन के इस काम ने उन्हें ‘अक्षर संत’ की ऐसी उपाधि दिला दी है, जो हर किसी के लिए मिसाल है.

टॉप 10 सामाजिक समस्याएं हिन्दी में

कहा जाता है कि हम आधुनिक जमाने में रहते हैं लेकिन आज भी हमारे समाज की सोच पुराने रीति-रिवाज और ख्यालों से बंधी हुई है, ऐसे में हमें कई समाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इन समस्याओं के कारण कई लोग अपनी जान भी गंवा देते हैं. तो इस खबर में हम आपके लिए लेकर आए हैं, टॉप 10 समाजिक समस्याएं हिन्दी. इसे पढ़कर आप इन समाजिक समस्याओं से रूबरू होंगे और समाज को सच का आईना दिखाएंगे.

  1. शर्मनाक: पकड़ौआ विवाह- बंदूक की नोक पर शादी

social issues in hindi

कहते हैं कि शादी ऐसा लड्डू है, जो खाए वह पछताए और जो न खाए वह भी पछताए. लेकिन वहां आप क्या करेंगे, जहां जबरन गुंडई से आप की मरजी के खिलाफ आप के मुंह में यह लड्डू ठूंसा जाने लगे? हम बात कर रहे हैं ‘पकड़ौवा विवाह’ की, जो बिहार के कुछ जिलों में आज भी हो रहे हैं.

22 साल के शिवम का सेना के टैक्निकल वर्ग में चयन हो गया था और वह 17 जनवरी को नौकरी जौइन करने वाला था. हमेशा की तरह एक सुबह जब वह अपने कुछ दोस्तों के साथ सैर पर निकला, तभी कार में सवार कुछ लोगों ने उसे अगवा कर लिया.

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2.गांव की औरतें: हालात बदले, सोच वही

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राज कपूर ने साल 1985 में फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ बनाई थी, जो पहाड़ के गांव पर आधारित थी. इस में हीरोइन मंदाकिनी ने गंगा का किरदार निभाया था. फिल्म का सब से चर्चित सीन वह था, जिस में मंदाकिनी  झरने के नीचे नहाती है. वह एक सफेद रंग की सूती धोती पहने होती है. पानी में भीगने के चलते उस के सुडौल अंग दिखने लगते हैं.

उस दौर में गांव की औरतों का पहनावा तकरीबन वैसा ही होता था. सूती कपड़े की धोती के नीचे ब्लाउज और पेटीकोट पहनने का रिवाज नहीं था. इस की वजह गांव की गरीबी थी, जहां एक कपड़े में ही काम चलाना पड़ता था.

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3. जिगोलो: देह धंधे में पुरुष भी शामिल

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देह व्यापार का एक बाजार ऐसा भी है, जहां के सैक्सवर्कर औरतें नहीं बल्कि मर्द होते हैं. जिन्हें जिगोलो कहा जाता है. उन्हें यौन पिपासा से भरी औरतों को हर तरह से खुश करना होता है. आजकल जिगोलो की मांग लगातार बढ़ती जा रही है. इस धंधे में मोटी कमाई तो होती ही है साथ ही…

भरे बदन वाली एक अधेड़ महिला कमसिन दिखने की अदाओं के साथ ड्राइंगरूम में खड़ी थी. वहीं कुछ दूसरी महिलएं सिगरेट का धुंआ उड़ाती कुछ दूरी बना कर सोफे पर क्रास टांगों के साथ बैठी थीं. सभी के बीच अपनेअपने सैक्स अपील वाले यौवन को दर्शाने की होड़ सी दिख रही थी.

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4. रीति रिवाजों में छिपी पितृसत्तात्मक सोच

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हम पुरुषवादी समाज में रहते हैं जहां स्त्रियों को हमेशा से दोयम दर्जा दिया जाता रहा है. स्त्री कितना भी पढ़लिख ले, अपनी काबिलीयत के बल पर ऊंचे से ऊंचे पद पर काबिज हो जाए पर घरपरिवार और समाज में उसे पुरुषों के अधीन ही माना जाता है.

उस के परों को अकसर काट दिया जाता है ताकि वह ऊंची उड़ान न भर सके. स्त्रियों को दबा कर रखने और उन की औकात दिखाने के लिए तमाम रीतिरिवाज व परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं.

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5. धर्म का धंधा: कुंडली मिलान, समाज को बांटे रखने का बड़ा हथियार!

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लड़केलड़की की कुंडलियों में यदि 36 गुणों में सभी गुणों का मिलान हो जाए तो क्या इस की कोई गारंटी है कि वैवाहिक जीवन खुशहाल रहेगा? यदि ऐसा न हुआ तो इस में किस का दोष माना जाएगा? क्या शादी से पहले कुंडली मिलान करना आवश्यक है या फिर कुंडली मिलान की प्रक्रिया के पीछे समाज को बांटे रखने वाली मानसिकता काम करती है? क्या यह सिर्फ एक धर्म में ही है या इस जैसी कोई प्रक्रिया अन्य धर्मों में भी पाई जाती है?

साल था जनवरी 2018, जब राजीव की शादी के लिए जगहजगह लड़की तलाशने के लिए लोगों के घर जाया जा रहा था. उन के घर वाले ऐसी बहू की तलाश में थे जो सुंदर हो, सुशील हो, घरबार का काम करना आता हो, पढ़ीलिखी हो इत्यादि.

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6. पत्नी की सलाह मानना दब्बूपन की निशानी नहीं

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पुरुषप्रधान समाज में आज महिलाएं हर क्षेत्र में नेतृत्व कर रही हैं. ऐसे में पढ़ीलिखी, योग्य व समझदार पत्नी की राय को सम्मान देना पति का गुलाम होना नहीं, बल्कि उस की बुद्धिमत्ता को दर्शाता है.

कपिल इंजीनयर हैं. लोक सेवा आयोग से चयनित राकेश उच्च पद पर हैं. विभागीय परिचितों, साथियों में दोनों की इमेज पत्नियों से डरने, उन के आगे न बोलने वाले भीरु या डरपोक पतियों की है. पत्नियों का आलम यह है कि नौकरी संबंधी समस्याओं की बाबत मशवरे के लिए पतियों के उच्च अधिकारियों के पास जाते समय वे भी उन के साथ जाती हैं.

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7. वर्जिनिटी: टूट रही हैं बेडि़यां

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आदिकाल से ही औरतों के लिए शुचिता यानी वर्जिनिटी एक आवश्यक अलंकार के रूप में निर्धारित कर दी गई है. यकीन न हो, तो कोई भी पौराणिक ग्रंथ उठा कर देख लीजिए.

अहल्या की कहानी कौन नहीं जानता. शुचिता के मापदंड पर खरा नहीं उतरने के कारण जीतीजागती, सांस लेती औरत को पत्थर की शिला में परिवर्तित हो जाने का श्राप मिला था. पुराणों के अनुसार, उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि वह अपने पति का रूप धारण कर छद्मवेश में आए छलिए इंद्र को उस के स्पर्श से पहचान न सकी.

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8. नारी हर दोष की मारी

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आज भी स्त्रियों के लिए सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताएं जैसे उन्हें निगलने के लिए मुंह बाए खड़ी हैं. कई योजनाएं बनती हैं, लेख लिखे जाते हैं, कहानियां गढ़ी जाती हैं, प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं और सब से खास प्रतिवर्ष महिला दिवस भी मनाया जाता है. किंतु हकीकत यह है कि घर की चारदीवारी में महिलाएं बचपन से ले कर बुढ़ापे तक समाज एवं धर्म की मान्यताओं में बंधी कसमसा कर रह जाती हैं.

कुंआरी लड़की एवं विधवा दोष

कुछ महीने पहले की ही बात है  झुन झुनवाला की 25 वर्षीय बिटिया के विवाह की बात चल रही थी, लड़कालड़की दोनों ने एकदूसरे को पसंद कर लिया था. लेकिन फिर बात आगे न बढ़ सकी, जब  झुन झुनवाला से पूछा गया कि मिठाई कब खिला रही हैं तो कहने लगीं…

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9. वर्जनिटी: चरित्र का पैमाना क्यों

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हमारे शास्त्रों और सामाजिक व्यवस्था ने वर्जिनिटी यानी कौमार्य को विशेष रूप से महिलाओं के चरित्र के साथ जोड़ कर उन के लिए अच्छे चरित्र का मानदंड निर्धारित कर दिया है.

हमारे समाज में वर्जिनिटी की परिभाषा इस के बिलकुल विपरीत है. दरअसल, समाज और शास्त्रों के अनुसार इस का अर्थ है कि आप प्योर हैं. हम किसी चीज या वस्तु की प्युरिटी की बात नहीं कर रहे हैं वरन लड़की की प्युरिटी की बात कर रहे हैं. लड़की की वर्जिनिटी को ही उस की शुद्धता की पहचान बना दी गई है. लड़कों की वर्जिनिटी की कहीं कोई बात नहीं करता. बात केवल लड़कियों की वर्जिनिटी की करी जाती है.

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10. समलैंगिकता मिथक बनाम सच

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भारत में समलैंगिकता आज भी हंसीमजाक का हिस्सा मात्र है. कानून बनने के बाद भी लोग समलैंगिकता को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे कई मिथक हैं जिन के चलते समलैंगिक लोगों के लिए वातावरण दमघोंटू बना हुआ है.

पिछले वर्ष फरवरी में एक फिल्म आई थी, ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’. उस में समलैंगिक जोड़े को अपनी शादी के लिए परिवार, समाज और मातापिता से संघर्ष करते हुए दिखाया गया था. वह कहीं न कहीं हमारे समाज की सचाई और समलैंगिकों के प्रति होने वाले व्यवहार के बहुत करीब थी.

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बुराई: शाप है जन्म से मिला वर्ग का ठप्पा

विरासत में आदमी अपने पिता के काम को ही अपनाता है, क्योंकि शुरू से ही वह उसे देखतासुनता और समझता है. पहले किसान और कारीगर 2 ही वर्ग थे. आगे चल कर हाकिम, पंडों के वर्ग तैयार हुए. आज दुनियाभर में जो 2 वर्ग हैं, वे हाकिम या अमीर वर्ग हैं और गुलाम या गरीब वर्ग.

हाकिम वर्ग में सामंत व पुरोहित वर्ग और कारोबारी जुड़े हैं, जबकि गुलाम वर्ग में किसान और कारीगर वर्ग और दूसरे मजदूर हैं. दोनों में कैसी प्रतियोगिता, कैसी बराबरी, कैसा बराबर का मौका?

भारत में तो यह वर्ग जाति के रूप में बदल गया. हिंदू समाज के पंडेपुरोहितों ने ऐसे नियम बनाए कि पूरा समाज

2 वर्गों की 4 जातियों में बंट कर रह गया. हिंदू धार्मिक ग्रंथों ने इन का खूब प्रचार किया.

इन 4 जातियों के तहत भी सैकड़ोंहजारों जातियां बना डाली गई हैं, ताकि सब एकदूसरे से उलझी रहें. अलगअलग समूह बन गए.

इन के रोजीरोजगार से ले कर शादीब्याह तक को अनेक रिवाजों से जकड़ दिया गया कि वे इस के जंजाल से बाहर जाने की सोच भी नहीं सकते थे. जो इस के बाहर जाना भी चाहता, तो उसे हाकिम का डंडा या समाज से बाहर जाने की सजा भुगतनी होती थी.

इन विधानों को हालांकि समयसमय पर चुनौती मिली, मगर समाज में बदलाव आ नहीं पाया. पुरोहित वर्ग ने हथियार उठाने वाले वर्ग के साथ मिल कर चुनौती देने वालों को या तो खत्म कर दिया या उन्हें भी पूजनीय बना किनारे कर दिया.

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महावीर और बुद्ध को देख सकते हैं कि उन के विचारों के आधार पर उन्हें अलगथलग ही कर दिया गया. भीमराव अंबेडकर के मुताबिक, भारतीय समाज में लोग धर्म बदल सकते हैं, पर हिंदू रह कर जाति नहीं बदल सकते.

मुसलिम शासकों ने तो नहीं, मगर ब्रिटिश शासकों ने कुछ नियमों को बदलने की कोशिश की. ब्रिटिश शासकों के समय में उन की कुछ सख्ती या कुछ नरमी की वजह से बदलाव जरूर आए. अंगरेजों की दी गई पढ़ाईलिखाई से समाज में कुछ बदलाव आए जैसे सती प्रथा व परदा प्रथा का खात्मा हुआ. स्त्री शिक्षा का विकास, सभी इनसानों के लिए एकसमान कानून वगैरह आए.

ब्रिटिश सेना और नौकरियों में सभी भारतीयों के साथ एकजैसा बरताव और सुविधाएं वगैरह मिलती थीं. सरकारी नौकरीपेशा के रूप में एक नए मध्य वर्ग का विकास होने लगा था.

आजादी के बाद संविधान ने तो सभी के लिए एकसमान नियमकानून लागू किए थे, फिर भी सामंती सोच वाले लोग इसे मानने को तैयार नहीं थे. इन्हें उकसानेबहकाने में पंडों का एक खास वर्ग बड़ा योगदान देता था.

एक मठाधीश ने कहा कि जो इनसान अपने वर्ग के लोगों को छोड़ कर दूसरे वर्ग का सहारा लेता है, वह उसी तरह बरबाद हो जाता है, जैसे अधर्म का सहारा लेने वाला राजा. इस तरह अधर्म के मानने वाले राजाओं की कहानियों में बहुत पट्टी पढ़ाई गई है, जो राजा और प्रजा दोनों को आगाह करती रही है.

सवाल है कि आदमी को क्या सिर्फ अपने ही वर्ग में रहना चाहिए और दूसरे वर्ग के साथ मेलजोल नहीं रखना चाहिए? धर्म के दुकानदार तो यही मान कर चलते हैं, क्योंकि इसी से उन्हें आसानी रहती है. उन के बनेबनाए ढांचे में उन के हक बनाए रखना आसान रहता है. मेहनत नहीं करनी होती, सवाल नहीं खड़े होते.

मध्य काल में भारत के ज्यादातर राजा तो आपस में ही लड़ते रहे, पर उसी समय अनेक कवियों जैसे कबीर, रैदास, नानक, मीरा आदि ने अपनी जाति की सीमा तोड़ बेहतरीन कविताएं लिखीं और आज अमर हैं.

होना तो यही चाहिए कि सभी अपने इनसान वर्ग से ऊपर उठें. एक मुलाजिम अफसर बने, तो अफसर और बड़े अफसर के वर्ग में जाने की जीतोड़ कोशिश करे.

नौकरियों में ऐसे इंतजाम हों कि हर शख्स को अपनी पढ़ाई, मेहनत और हुनर के बल पर ऊपर वाले वर्ग में जाने का मौका मिले. गांव में रहने वाला शहर में रहने के सपने देखे, तो स्लम एरिया में रहने वाला पौश एरिया में रहने की कोशिश करे.

पर पहले राजतंत्र या धर्मतंत्र में इस भावना पर रोक थी, मगर अब के लोकतंत्र में भी पूरा साथ नहीं मिल रहा है. इसे ले कर सरकारें बनती या बिगड़ती भी हैं.

जैविक आधार पर 2 वर्ग तो रहेंगे ही, आदमी और औरत. इन से 2 वर्ग सामने आए, मजबूत और कमजोर. खेती जानने पर 2 और वर्ग बने, किसान और कारीगर.

मगर ज्योंज्यों आदमी की तरक्की हुई, पैसा बढ़ा, तकनीक बढ़ी, ज्यादा वर्ग बनने लगे. भूस्वामी सामंत के रूप में उभरे, एक बौद्धिक वर्ग भी पैदा हुआ, जो पंडों के वर्ग के रूप में दुनियाभर में सामने आया.

एक तीसरा वर्ग बना कारोबारी का. और ये तीनों लोकतंत्र थे. समाज के बाकी लोग नीचे या सादे वर्ग में थे और इन की भी कोशिश रहती थी कि वे बढ़ कर ऊंचे वर्ग में शामिल हो जाएं.

भारत में वर्ग का बंटवारा आगे चल कर जातियों की मुश्किल व्यवस्था में बदल गया. पुरोहित वर्ग ने हमेशा यह कोशिश की कि यह उलझी जाति व्यवस्था बनी रहे. आजादी के पहले के आंदोलनों, पढ़ाई और राजनीतिक कोशिशों के चलते इस में फर्क हुआ. संविधान ऐसा बनाना चाहा, जिस में वर्गों को खत्म करने का आदेश था.

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अमीर वर्ग चूंकि सत्ता से जुड़े रहे हैं, उन्हें फायदा मिलता रहा है. दुनियाभर में राजा, सामंत, पुरोहित, कारोबारी का गठजोड़ रहा. दूसरे देशों में फिर भी अपने वर्ग से दूसरे वर्ग में पैसे या पढ़ाईलिखाई की वजह से आनेजाने की सुविधा रही.

मगर भारत में यह वर्ग पौराणिक जन्मना जाति व्यवस्था में बदल जाने की वजह से नहीं हुआ. पुरोहित वर्ग प्राचीन धार्मिक शिक्षा, शास्त्र या संस्कार का हवाला देते हैं, एक सिरे से इस के समर्थन में रहते हैं और जो लोग इस से निकलने की कोशिश करते हैं, उन्हें फंसाफंसा कर अपनीअपनी जगह बनाए रखने की कोशिश की जाती है.

गांवों और शहरी इलाकों में भी इस के फर्क को देखा और महसूस किया जा सकता है. होता तो यह है कि जो इनसान गांव में रहते हुए इस जाति भेद के पक्ष में रहता है, वही शहरी क्षेत्र में जाति विरोधी हो जाता है. शहर में आ कर वह जन्मना जाति के खिलाफ हो, काम से तय वर्ग की बातें करने लगता है. वैसे भी बहुत है सघन आबादी वाले शहरों में यह मुमकिन नहीं कि कोई जाति की बात करे, क्योंकि कानूनन पब्लिक सेवाओं पर सभी का बराबर हक रहता है. चाहे सरकारी सुविधाएं हों या स्कूलकालेज, बाजार हों या पार्क, सभी उस का इस्तेमाल करते हैं.

गांव, छोटे कसबों से सार्वजनिक जगहों, वह चाहे नदी, तालाब का घाट हो या स्कूलअस्पताल, सभी पर भी यही बात लागू तो है, मगर दिक्कत तब आती है, जब कोई दबंग या जाति वहां अपना एकाधिकार जमा लेती है. ऐसा होने की एक बड़ी वजह यह है कि गांवों से थानापुलिस बहुत दूर होते हैं या वे भी उन का साथ देने लग जाते हैं.

मगर जैसेजैसे जागरूकता आ रही है, ये बातें भी कम हो रही हैं. ऐसे नाजुक मोड़ पर ही कोई बाबा या धार्मिक ठेकेदार कोई उकसाने वाली बात कह जाता है, तो मामला खराब हो जाता है.

आज भी दिक्कत यह है कि जैसे ही कोई जागरूक उन के खिलाफ आवाज उठाता है, उस पर मारपीट, गाली देने से खतरे आने लगते हैं. जो इन खतरों को झेल जाता है, वही समाज को आगे ले जाता है. गांवों से शहरों की ओर भागने की यह एक बड़ी वजह यही है.

आर्थिक स्तर पर वर्ग की लड़ाई शहरों के बजाय गांवों में ज्यादा होती है. एक समय ऐसा भी था, जब निचले वर्ग से ऊंचे वर्ग द्वारा बेगारी कराई जाती थी बिना पैसे दिए. वह तो खत्म हुआ, मगर अभी भी कम मजदूरी देना या मजदूरी देने में देरी करना आम बात है और यह भी लड़ाई का एक मुद्दा बन जाता है और इन सभी के पीछे यही जन्म से मिला भेद है. इसे बनाए रखने के लिए संतमहात्मा जोर देते रहते हैं.

प्रोफैसर राजेंद्र प्रसाद सिंह के मुताबिक, ‘‘हर जाति अपने से नीची एक जाति खोज लेती है और यह सिद्धांत जाति बनाने वाले का दिया हुआ है, ताकि इस बला का ठीकरा हर जाति के सिर फोड़ा जा सके.’’

एक समय ऐसा था, जब लोग दूरियां बना कर रखते थे. जन्म से पैदा हुई जाति में दूरी तो थी ही, धार्मिक दूरियां भी थीं. मुसलिम शासनकाल में मुसलिम, तो ब्रिटिश काल में ईसाई वर्ग ऊंचा होने के घमंड से भरे रहते थे.

तथाकथित प्रजा कहलाने वाले हिंदू भी उन से दूरी बनाए रखते थे और दूसरी ओर अपने ही धर्म की निचली जातियों से भयंकर दूरी बनाए रखते थे.

यह हैरानी की बात है कि भारतीय मुसलिम और ईसाइयों में भी यह भेदभाव की भावना घर कर गई है और निचले वर्ग से आए कन्वर्टिड मुसलिम और ईसाइयों के साथ भेदभाव रखने लगे हैं.

अब जातीय मिथक टूटने लगे हैं. कहींकहीं धार्मिक मिथक भी टूटे?हैं. मगर ये शहरों में ही देखने को मिलता है, क्योंकि वहां सभी अपने काम से काम रखते हैं. पर गांवदेहात में ऐसा कुछ होने पर अनदेखी, मजाक और दिक्कत का भी सामना करना पड़ता है और इस के लिए सिर्फ और सिर्फ धर्म के धंधेबाज कुसूरवार हैं.

एक बैंक के मैनेजर रहे अरविंद गुप्त ने सुधा श्रीवास्तव से प्रेमविवाह किया, तो उन की खूब बुराई हुई. दोनों को ही अपनी जातियों में अनदेखी और मजाक का सामना करना पड़ा. मगर उन्होंने इस की परवाह नहीं की और सामान्य जिंदगी जीते रहे और आज 32 साल बाद भी वह सुखी जिंदगी जी रहे हैं.

नेताओं में शाहनवाज हुसेन, रामविलास पासवान, शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव जैसे अनेक उदाहरण समाज में दिख जाते हैं, जिन्होंने जातिधर्म का बंधन तोड़ शादी की और सुखी जिंदगी बिताई.

सिनेमा और टैलीविजन जगत में काम कर रहे लोगों में यह धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र वगैरह की दीवार देखी ही नहीं जाती. ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि दूसरे वर्ग में जाने से नुकसान होता है.

जहां कुछ प्रेमविवाह नाकाम होते हैं, उस के पीछे उन की कुछ कुंठाएं या इच्छाएं होती हैं. कुछ तथाकथित धर्म के ठेकेदारों या बाबाओं द्वारा दी गई सीख भी होती है, जिस में उलझ कर वे अपनी सुखी जिंदगी को बरबाद कर देते हैं.

वैसे देखा जाए तो क्या धर्म और जाति आधारित शादी नाकाम नहीं होती? यह तो इनसानइनसान की सोच पर निर्भर करता है कि वह अपनी जिंदगी में इसे कितना निभा पाता है.

फिल्म, खेल, राजनीति से जुड़े लोगों के बीच वर्ग और जाति भेद को दरकिनार कर शादियां करना आम बात है. मगर उन्होंने इस की परवाह नहीं की और बेहतर जिंदगी जीते रहे. ऐसे में यह कहना कि वर्ग से बाहर जा कर जिंदगी बिताना गलत?है, मजाक ही माना जाएगा.

नशाखोरी: बढ़ती गांजे की लत

हिंदी फिल्म कलाकार और पूरी दुनिया में ‘किंग खान’ के नाम से मशहूर सुपर स्टार शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान और उस के साथ कई लोगों को बैन किया गया. नशा अपने पास रखने और उस का सेवन करने का आरोप उन पर लगा, तो पूरी दुनिया में इस तरह के नशे पर बहस शुरू हो गई.

चिलम, तंबाकू और सिगरेट के साथ गांजे का इस्तेमाल भारत में लंबे समय से होता रहा है. कई मंदिरों में तो यह प्रसाद के तौर पर चढ़ता है. आयुर्वेद में गांजे को दवा के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है. नशे और दवा दोनों के रूप में गांजे का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है.

एक तरफ इस को नशा मान कर इस का कारोबार गैरकानूनी माना जाता है, वहीं दूसरी तरफ दवा और प्रसाद जैसा मान कर इस के बैन को हटाने की मांग भी की जा रही है.

इन सब बातों के बीच गांजे का सब से बड़ा और बुरा असर आम घरपरिवार पर पड़ रहा है. इस की वजह से परिवार के परिवार उजड़ रहे हैं. 50 रुपए की पुडि़या में मिलने के चलते यह सस्ता और मिलना आसान हो गया है. यही वजह है कि गांव के गरीब इस का सेवन कर के बरबाद हो रहे हैं.

गांजे का इस्तेमाल भारत के कई मंदिरों में प्रसाद के तौर पर किया जाता है. कई मंदिरों में इसे ‘महादेव का प्रसाद’ भी कहा जाता है. उत्तर कर्नाटक में कई ऐसे मंदिर हैं, जहां गांजे का इस्तेमाल प्रसाद के तौर पर किया जाता है.

यादगीर जिले के तिन्थिनी के मोरेश्वर मंदिर में छोटे पैकेट में गांजा बतौर प्रसाद मिलता है. बताया जाता है कि यह ध्यान करने में मददगार होता है.

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बिहार के खगडि़या में कात्यायनी मां के मंदिर में भी दूध और गांजा प्रसाद के रूप में चढ़ता है. शिव मंदिरों में भी ऐसा ही चलन देखने को मिलता है. यही वजह है कि जब गांजा न पीने की बात की जाती है, तो पीने वाले कहते हैं कि यह नशा नहीं, बल्कि प्रसाद है.

तमाम साधुसंत इस का सेवन चिलम से धुआं उड़ाते करते हैं. हिंदी फिल्मों में भी ‘दम मारो दम’ जैसे गानों में चिलम के सहारे धुआं उड़ाते गाने सुने जा सकते हैं.

घरपरिवार पर बुरा असर

रात के तकरीबन 11 बज रहे थे. रामपुरगांव के रहने वाले शिवकुमार के घर पर निगोहां पुलिस का छापा पड़ा. शिवकुमार घर में नहीं मिला तो पुलिस ने उस की पत्नी स्वाति को हिरासत में ले लिया.

शिवकुमार के बारे में पुलिस को यह सूचना मिली थी कि वह गांजा बेचने का काम करता है. शिवकुमार के घर से पुलिस को गांजा मिला भी था. अपने पति की बुरी आदतों के चलते स्वाति को जेल जाना पड़ा. इस वजह से उसे गांव में बेहद बदनामी का सामना करना पड़ा.

गांजे का नशा करने वाला थकाथका सा रहता है. उसे देख कर लगता है, जैसे वह बहुत परेशान है. वह बातबात पर गुस्सा और मारपीट करता है. वह चीखनेचिल्लाने का काम ज्यादा करता है.

पिछले कुछ सालों से जब से शराब की कीमत बढ़ने लगी है और कच्ची शराब बनाना मुश्किल होने लगा है, तब से गांवदेहात में गांजे का इस्तेमाल नशे के रूप में बढ़ने लगा है.

इस की सब से बड़ी वजह यह है कि गांजा खरीदना सस्ता पड़ता है. इस के अलावा इस को पुडि़या के रूप में रखा जाता है. शराब की तरह इस की बदबू नहीं फैलती है. गांव में 2-4 लोग ?ांड बना कर बैठ जाते हैं. वहां चिलम में रख कर इसे पीते हैं, जबकि देखने वाले को लगता है कि वे लोग तंबाकू पी रहे हैं. असल में तो वे गांजा पी रहे होते हैं.

गांजा बेचने वाले गांव के लोगों को पहले मुफ्त में पिलाने का काम करते हैं, पर जब इस की आदत पड़ जाती है तो लोग खरीद कर पीने लगते हैं.

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बड़े पैमाने पर तस्करी

गांजे का इस्तेमाल बढ़ने से बड़ी मात्रा में इस की तस्करी भी बढ़ने लगी है. ओडिशा से सस्ते दाम पर गांजा खरीद कर दिल्ली समेत उत्तर प्रदेश के शहरों में बेचने वाले तस्कर गिरोह के 2 सदस्यों को भदोही पुलिस ने गिरफ्तार किया था. वाराणसीप्रयागराज रोड पर ऊंज थाना क्षेत्र में नवधव के पास से ट्रक में लदा 350 किलोग्राम गांजा बरामद किया था.

बरामद गांजे की कीमत 35 लाख रुपए आंकी गई थी. जिस ट्रक से गांजा बरामद किया गया, उस में टूटे हुए शीशे लदे थे. ट्रक के केबिन में गांजे को छिपा कर रखा गया था.

जागरूकता की जरूरत

लखनऊ के निगोहां थाने के क्षेत्राधिकारी नईम उल हसन कहते हैं, ‘‘यह देखा गया है कि नशे के रूप में गांजे का इस्तेमाल तेजी से बढ़ने लगा है, जिस की रोकथाम के लिए पुलिस के साथसाथ गांव के लोगों और समाज के खास लोगों को भी सामने आना पड़ेगा, तभी गांवों को गांजे के नशे से दूर रखा जा सकता है. गांव के लोगों को यह सम?ाना होगा कि यह नशा सेहत के साथसाथ उन की सामाजिक इज्जत को भी नुकसान पहुंचा रहा है.’’

मोहनलालगंज संसदीय सीट के सांसद कौशल किशोर ने नशे के खिलाफ एक बड़ी मुहिम छेड़ी है. वे लोगों को नशा छोड़ने की शपथ दिलाते हैं. इस मुहिम में वे अपने क्षेत्र के साथसाथ पूरे देश में जागरूकता का संदेश दे रहे हैं.

कौशल किशोर कहते हैं, ‘‘किसी भी तरह की नशीली चीजों का सेवन सेहत के लिए खराब होता है. यह घरपरिवार को पूरी तरह से तबाह कर देता है. ऐसे में जरूरी है कि गांवगांव इस बात को ले कर जागरूकता

मुहिम शुरू की जाए और लोगों को सम?ाया जाए.’’

अपराध है गांजे का सेवन

हमारे देश में हजारों सालों से गांजे का सेवन किया जा रहा है. इसे इंगलिश भाषा में कैनेबिस कहा जाता है. कैनेबिस के फूलों से ही गांजा बनाया जाता है. नशे के तौर पर अगर गांजे का सेवन करना छोड़ दिया जाए तो इस पौधे का इस्तेमाल कृषि, बागबानी, कपड़ा उद्योग, दवा और स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों में किया जाता है.

एक जानकारी के मुताबिक, 2 करोड़ लोग गांजे के पौधे से बने उत्पादों का इस्तेमाल नशे के तौर पर करते हैं.

गांजे को तंबाकू में मिला कर चिलम या हुक्के के जरीए लिया जाता है. नए दौर में अब इस को कागज में लपेट कर तंबाकू के साथ सिगरेट जैसा बना कर भी लिया जाता है. शहरों में चलने वाले हुक्का बार में इस का इस्तेमाल हुक्का पीने में किया जाता है.

हाल के कुछ दिनों में गांव से ले कर शहर तक इस का चलन तेजी से बढ़ गया है. साल 1985 में राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे. उस समय से ‘नार्कोटिक ड्रग्स ऐंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस ऐक्ट 1985’ (एनडीपीएस ऐक्ट 1985) लागू हुआ था, जिस में गांजे को बैन कर दिया गया था. अब भारत में गांजे का इस्तेमाल करना और इसे बेचना पूरी तरह से बैन है. इस के बावजूद लोग चोरीछिपे इस का कारोबार और सेवन करते हैं

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गांजे की खेती

गांजे के नर और मादा 2 पौधे होते हैं. नर पौधे की पत्तियों से भांग बनती है. मादा पौधे के फूल को सुखा कर गांजा बनाया जाता है. गांजे का सेवन करने पर लोगों में एक तरह का जोश सा बढ़ जाता है, क्योंकि यह तंबाकू के साथ मिला कर पीया जाता है. यह तेजी से असर करता है.

तंबाकू के साथ मिला कर गांजा पीने से कैंसर का खतरा बढ़ जाता है. जो लोग गांजे का ज्यादा और लगातार सेवन करते हैं, उन के चेहरे पर काले दाग पड़ जाते हैं.

अलगअलग रूपों में गांजे का सेवन पूरी दुनिया में होता है. हिमाचल प्रदेश के मलाना इलाके में उगने वाला गांजा दुनिया का सब से बेहतरीन गांजा माना जाता है.

गांजे की खेती  जुलाई महीने के आसपास होती है, तब इस के पौधे को लगाया जाता है. 4 से 8 फुट तक इस का पौधा बढ़ता है.

गांजे के फूल को उलटपलट कर सुखाया जाता है. इसी से गांजा पाउडर तैयार किया जाता है.

अच्छी किस्म के गांजे में 15 से 25 फीसदी रेजिन और 15 फीसदी राख निकलती है. रेजिन को ही तंबाकू के साथ मिला कर पीने का काम किया जाता है.

सेहत के लिए खतरनाक

तंबाकू के साथ मिला कर गांजा पीने से दिमाग में कई तरह के बदलाव होने लगते हैं. कैनेबिस के पौधे में तकरीबन 150 तरह के कैनेबिनौइड पाए जाते हैं. कैनेबिनौइड एक तरह का कैमिकल होता है. 150 कैमिकलों में से 2 कैमिकल टैट्राहाइड्रोकैनाबिनौल (टीएचसी) और कैनेबिडौल (सीबीडी) ऐसे भी होते हैं, जो दिमाग पर सब से ज्यादा असर डालते हैं.

गांजे में पाए जाने वाले ये दोनों कैमिकल यानी टीएचसी और सीबीडी अलगअलग काम करते हैं. टीएचसी जहां एक तरफ नशा बढ़ाता है, तो वहीं दूसरी तरफ सीबीडी नशे के असर को कम करता है. जब गांजे में टीएचसी की मात्रा ज्यादा होती है, तो टीएचसी खून के साथ दिमाग तक पहुंच जाता है और गड़बड़ करने लगता है.

यह दिमाग में काम करने वाले न्यूरौन पर असर डालता है. गांजा पीने के बाद न्यूरौन ही कंट्रोल से बाहर हो जाता है. कैनेबिडौल का इस्तेमाल दवाएं बनाने में किया जाता है.

गांजा पीने के बाद जब हमारा दिमाग बेकाबू हो जाता है, तो लोगों को बेशक मजा सा आता है, लेकिन इस का खराब असर ही पड़ता है. धीरेधीरे नशेड़ी कोई बात ज्यादा देर तक याद नहीं रख पाते हैं. उन का दिमागी बैलेंस खराब होने लगता है. डिप्रैशन बढ़ने लगता है. कैंसर का खतरा बढ़ जाता है.

जो लड़कियां गांजे का सेवन करने लगती हैं, वे अपनी बच्चा जनने की ताकत खोने लगती हैं. माहवारी में दिक्कतें होने लगती हैं. हमेशा नशा करने का मन होता है. नशा पाने की बेचैनी में वे कुछ भी करने को तैयार हो जाती हैं.

यही नहीं, खुद पर काबू न रख पाना ही नशा करने का सब से बड़ा नुकसान है. करता कोई एक है और भुगतता पूरा परिवार है.

“नवजात” को बेचने के “अपराधी”

यह एक प्रसंग देश की संपूर्ण जमीनी हालत का ऐसा सच बता रहा है जिस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. सरकार को ऐसे कदम उठाने चाहिए कि कोई अपनी गरीबी के कारण ना तो अपना जिस्म बेचे और ना ही अपनी नवजात शिशु को.

महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के शिरडी शहर में एक महिला ने कथित तौर पर गरीबी की वजह से  अपने  नवजात शिशु को मुंबई के एक व्यक्ति को 1.78 लाख रुपए में बेच दिया. यहां के डोंबीवली में मानपाड़ा पुलिस थाने मे दर्ज की गई प्राथमिकी से पता चलता है पुलिस ने महिला, बच्चा खरीदने वाले व्यक्ति और इस अपराध में महिला की मदद करने वाले चार लोगों को गिरफ्त में लिया  है. पुलिस थाने के एक अधिकारी अनुसार महिला रेखा देवी (काल्पनिक नाम) ने सितंबर 2021  में एक बच्चे को जन्म दिया था, लेकिन खराब आर्थिक हालात के कारण वह बच्चे के पालन पोषण में असमर्थ थी, इसलिए उसने बच्चे को बेचने के लिए खरीदार की तलाश शुरू कर दी  उसे कुछ बिचौलिए भी मिल गए बच्चे को बेचने की पटकथा लिखी जाने लगी. पुलिस अफसर के अनुसार  अहमदनगर और ठाणे के कल्याण तथा मुलुंड की तीन महिलाओं ने इस काम में उसकी मदद की और उन्होंने मुलुंड के निवासी एक व्यक्ति को बच्चा बेचने का सौदा पक्का कर लिया. प्राथमिकी के अनुसार बच्चे की मां ने अन्य आरोपियों के साथ मिलकर कथित तौर पर व्यक्ति को 1.78 लाख रुपये में बच्चा बेचा. इसके लिए कोई कानूनी औपचारिकता पूरी नहीं की. जब कुछ हंगामा मचा और जानकारी पुलिस तक पहुंची तब सूचना के आधार पर पुलिस ने व्यक्ति के घर पर छापा मारा और बच्चा बरामद किया.इसके बाद बच्चे की मां, बच्चा खरीदने वाले व्यक्ति, तीन अन्य महिलाओं और एक अन्य व्यक्ति को हिरासत में लिया गया.  भारतीय दंड संहिता तथा किशोर न्याय अधिनियम के संबंधित प्रावधानों के तहत मामला दर्ज किया गया है.

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नवजात: जाने कितनी कहानियां

अगर हम इतिहास या पौराणिक कथाओं में जाएं तो ऐसे जाने कितने किस्से कहानियां आपको मिल जाएंगे जो नवजात शिशु के बिक्री और उसके इर्द-गिर्द बुनी गई हैं. फिल्में और साहित्य में ऐसी ही अनेक कहानियां हैं यह मामला समाज का एक ऐसा आईना है जिसे हम अपने आसपास भी अक्सर देखते हैं और महसूस करते हैं कि कभी नवजात को कथित रूप से अवैध संतान होने के कारण परिजन कूड़ेदान में फेंक देते हैं अथवा किसी को पालन पोषण के लिए दे देते हैं. अथवा नदी नालों में बहा दिया जाता है. भाग्यशाली कुछ नवजात शिशु बच जाते हैं अधिकांश अवैध नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है.

ऐसे ही एक कथा महाभारत में  भी चर्चित है, यह पांडवों के बड़े भाई कर्ण की है. इसी तरह राजेश खन्ना की पहली फिल्म आराधना और अमिताभ बच्चन की लावारिश भी कुछ इसी ताने-बाने के साथ बनाई गई थीं.

नवजात शिशु के इस प्रसंग के अंतर्गत यह सच समझना होगा कि जाने कितने नवजात शिशुओं के साथ समाज में एक तरह से भयावह व्यवहार और अत्याचार होता है जिसकी आवाज कभी नहीं उठती.

इस संदर्भ में कानून की कुछ धाराओं का प्रावधान जरूर किया गया है मगर जैसे अन्य बहुतेरे कानून किताबों में कैद हैं नवजात शिशु के व्यवहार संबंधी आचरण भी इन कानूनी धाराओं से बहुत दूर होने के कारण अत्याचार जारी रहता है.हां, कभी कभी महाराष्ट्र के अहमदनगर की घटना के तारतम्य में मामला बहुचर्चित हो जाता है.

वस्तुतः यह मामला समाज की एक ऐसी संवेदनशील अपेक्षा का है जो कानून से बहुत दूर है. जब तक समाज में संवेदना का संचार नहीं होता नवजात शिशुओं के साथ ऐसा व्यवहार जाने कब तक चलता रहेगा इसे कोई नहीं जानता.

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नवजात शिशु के आचरण संबंधी कानून के संदर्भ में अधिवक्ता बीके शुक्ला के मुताबिक कानून की धाराएं अपनी पूरी संवेदना के साथ नवजात शिशुओं का संरक्षण करती है और उनकी बिक्री आदि पर कठोर नियम हैं. यही कारण है कि जब कभी इनका कोई उल्लंघन करता है तो कानून के शिकंजे से बच नहीं सकता.

अधिवक्ता डॉ उत्पल अग्रवाल बताते हैं कि अक्सर ऐसे मामले प्रकाश में आते हैं जिनका सिर्फ एक कारण होता है अवैध संतान का ठप्पा जिसके कारण या तो नवजात शिशु के साथ अत्याचार करते हुए उन्हें कहीं फेंक दिया जाता है या फिर अपनी कथित रूप से इज्जत बचाने के लिए किसी जरूरतमंद को पालन पोषण के लिए बच्चे को सौंप दिया जाता है.

ट्वैंटी-20 वर्ल्ड कप: बतौर टीम फुस्स रहा भारत

दुबई के दुबई इंटरनैशनल क्रिकेट स्टेडियम में हुए इस मैच को खेलने की चाहत 12 टीमों की थी, जिस में भारत, पाकिस्तान, इंगलैंड और दक्षिण अफ्रीका जैसी दिग्गज टीमें तो शामिल थीं ही, साथ ही नामीबिया, स्काटलैंड जैसी नौसिखिया टीमें भी अपना हाथ आजमा रही थीं.

कई देशों ने अपनी ताकत के मुताबिक खेल दिखाया, पर जिस तरह के खेल की उम्मीद भारत से की जा रही थी, उस में वह पूरी तरह नाकाम रहा. दरअसल, यह वर्ल्ड कप शुरू होने से पहले यह मान लिया गया था कि फाइनल मुकाबला खेलने वाली एक टीम तो भारत ही होगी, लड़ाई तो दूसरी टीम के फाइनल में उतरने के लिए हो रही थी.

इस की वजह यह थी कि भारत जिस ग्रुप में था, उस में न्यूजीलैंड और पाकिस्तान के अलावा बाकी 3 टीमें अफगानिस्तान, नामीबिया और स्काटलैंड शामिल थीं. मतलब भारत अगर पाकिस्तान और न्यूजीलैंड में से किसी एक को हरा देता, तो बाकी कच्ची टीमों से आसानी से जीत कर सैमीफाइनल मुकाबले में अपनी जगह बना लेता.

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पर सोचना जितना आसान काम है, उसे पूरा करना उतना ही मुश्किल होता है, वह भी ट्वेंटी-20 मुकाबलों में, जहां कोई एक खिलाड़ी ही पूरे मैच का रुख बदल सकता है. यही भारत के साथ हुआ. भारत का पहला मुकाबला ही पाकिस्तान के साथ था और कागजों पर कमजोर इस टीम को शिकस्त देना भारत के लिए बड़ा ही आसान काम लग रहा था, पर हुआ ठीक इस का उलटा.

भारत ने शर्मनाक तरीके से 10 विकेट से यह मैच गंवा दिया. जले पर नमक अगले ही मैच में न्यूजीलैंड ने छिड़क दिया. पहले 2 मैच हार कर भारत को होश आया, पर तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी थी.

आईपीएल मैचों में करोड़ों रुपए में बिकने वाले हमारे खिलाड़ी बाद के 3 मैच जीत तो गए, पर सैमीफाइनल में जाने से चूक गए. इस जगहंसाई में घरेलू दर्शकों ने भी खिलाड़ियों को नहीं बक्शा. किसी ने रोहित शर्मा पर निशाना साधा तो कोई विराट कोहली के पीछे पड़ गया.

हार्दिक पांड्या ने तो बिलकुल निराश किया. आईपीएल मैचों में छक्केचौके जड़ने वाले हार्दिक पांड्या ने खराब फिटनैस के बावजूद टीम में जगह बनाई, पर वे कोई कारनामा नहीं कर पाए. विराट कोहली पर ढंग की टीम न चुनने और अपनी चलाने का भी इलजाम लगा.

अब चूंकि वर्ल्ड कप खत्म हो चुका है और क्रिकेट की दुनिया को आस्ट्रेलिया के रूप में नया विश्व विजेता मिल चुका है, पर भारत की हार के दूसरे उन पहलुओं पर भी हमें गौर करना होगा, जो उन्हें टीम गेम जैसे खेलों में ज्यादा कामयाब नहीं होने देते हैं.

क्रिकेट ही क्यों, अगर हम फुटबाल, हाकी जैसे ज्यादा खिलाड़ियों वाले खेलों पर गौर करें तो वहां भी वर्ल्ड लैवल पर कभी बहुत ज्यादा कामयाब नहीं हो पाते हैं. 11 खिलाड़ियों वाले खेलों को तो छोड़िए 2 खिलाड़ियों वाले खेलों जैसे बैडमिंटन, टेबल टैनिस, लौन टैनिस वगैरह में भी हम खिलाड़ियों के अहम और कोच के साथ उन के बरताव के चलते बहुत ज्यादा अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं.

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नतीजतन, बैडमिंटन में सायना नेहवाल और पीवी सिंधू की जोड़ी टूट जाती है और उन के रिश्तों में खटास आ जाती है. लिएंडर पेस और महेश भूपति कभी एकसाथ लौन टैनिस नहीं खेलने का ऐलान कर देते हैं.

चूंकि क्रिकेट में हमारे देश के लोग ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं, तो वहां की बातें ज्यादा होती हैं. इस वर्ल्ड कप से पहले ही विराट कोहली ने ट्वैंटी-20 टीम का भविष्य में कप्तान न बनने का ऐलान कर दिया था और रवि शास्त्री का भी बतौर हैड कोच यह आखिरी टूर्नामैंट था, पर जिस तरह का खेल खिलाड़ियों ने दिखाया, उस से यही लगा कि टीम में कुछ भी ठीक नहीं है.

वैसे भी देखा जाए तो टीमवर्क वाले खेलों में टीम के चुनाव का मुद्दा बड़ा खास होता है. भारत जैसे देश में हर राज्य, जाति और तबके के खिलाड़ी को टीम में रखे जाने का दबाव होता है और अलग माहौल व रहनसहन वाले खिलाड़ी आपस में जल्दी से घुलमिल नहीं पाते हैं.

वैब सीरीज ‘इनसाइड ऐज’ में जातिवाद का दंश किस तरह नए खिलाड़ी को तोड़ देता है, बड़ी बारीकी से दिखाया गया था. फिल्म ‘चक दे इंडिया’ में भी झारखंड की खिलाड़ियों को जंगली होने तमगा दिया जाता है और अमीर खिलाड़ी किस तरह गरीब होनहार खिलाड़ी का भविष्य खराब कर सकते हैं या ऐसी चाहत रखते हैं, यह भी दिखाने की कोशिश की गई थी.

अब रहीसही कसर क्रिकेट खिलाड़ियों को मिलने वाले इश्तिहारों ने पूरी कर दी है. वे पैसा बनाने की हवस में जुआ खेलने को बढ़ावा देने वाले इश्तिहारों में भी दिखाई देने लगे हैं कि मोबाइल फोन में फलां एप डालो, अपनी टीम बनाओ और पैसा कमाओ, जबकि ऐसे खेलों की लत लगने से नौजवान पीढ़ी अपने मांबाप की पसीने की गाढ़ी कमाई को भी गंवाने में परहेज नहीं करते है. ये गेमिंग एप बहुत ही खतरनाक चलन है जो कई बार बड़े अपराध की शक्ल भी ले लेता है.

राजस्थान के चुरू में जुलाई, 2021 में पुलिस ने औनलाइन जुआ खिलाने वाले गिरोह को पकड़ा था. पुलिस ने इस मामले में 16 आरोपियों को गिरफ्तार किया था.

पुलिस के बयान के मुताबिक, ये लोग एप के जरीए अलगअलग औनलाइन खेले जाने वाले खेलों में समूह बना कर उस में शामिल होते हैं, बाहर के एक खिलाड़ी को शामिल कर उस से रुपए लगवाते हैं और फिर उसे हरवा कर अलगअलग पेमेंट गेटवे के जरीए रकम हासिल कर लेते हैं.

हालांकि क्रिकेट खेल से जुड़े एप खुद को जुआ खेलाने वाला नहीं बताते हैं, पर उन का मकसद पैसा कमाना ही होता है और खेलने वाला अपना पैसा कहां से ला रहा है, इस से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता है.

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ऐसे इश्तिहारों के अलावा भी क्रिकेट खिलाड़ी दूसरे तमाम इश्तिहारों से पैसा बटोर रहे हैं. अब वे देश के लिए कम, बल्कि पैसे के लिए खेलते ज्यादा नजर आते हैं. उन्हें आईपीएल खेलने से कोई थकावट नहीं होती है, पर वर्ल्ड कप में हारने पर उन्हें ऐसी तमाम कमियां गिनाने का मौका मिल जाता है कि उन शैड्यूल इतना टाइट होता है, लिहाजा उन्हें थोड़ा आराम मिलना चाहिए.

लेकिन जब खिलाड़ियों को आराम दिया जाता है तब वे इश्तिहारों के जरीए पैसा बनाने में मशगूल हो जाते हैं. यही वजह है कि साल 2018 में ही विराट कोहली ने उन विचारों को खारिज कर दिया था कि इश्तिहारों पर ज्यादा समय बिताना एक क्रिकेटर के लिए ध्यान भंग करने वाला हो सकता है.

क्रिकेट के चहेतों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि कौन सा खिलाड़ी कैसे देखते ही देखते करोड़ों रुपयों में खेलने लगता है, पर उन्हें इस बात पर कोफ्त जरूर होती है कि जो खिलाड़ी आईपीएल में चौकेछक्कों की झड़ी लगा देते हैं या अपनी गेंदबाजी से सामने वाले को धूल चटा देते हैं, वे आपस में एक टीम के तौर पर क्यों बेहतरीन खेल नहीं दिखा पाते हैं?

हमें तो आस्ट्रेलिया के दिग्गज खिलाड़ी डेविड वार्नर से सीख लेनी चाहिए, जिन्हें खराब खेल के चलते बीच आईपीएल में ही हैदराबाद की प्लेइंग 11 टीम से बाहर कर दिया गया था, पर हालिया वर्ल्ड कप में उन्होंने अपने कातिलाना खेल से टूर्नामैंट ही कब्जा लिया.

फाइनल मुकाबले में अपनी टीम को जीत के मुहाने तक ले जाने वाले डेविड वार्नर ने ताबड़तोड़ पारी खेलते हुए 38 गेंदों में 53 रन बनाए थे. उन्हें अपने बेहतरीन प्रदर्शन के लिए टी20 वर्ल्ड कप का ‘प्लेयर औफ द टूर्नामैंट’ भी बनाया गया था.

डेविड वार्नर ने इस ट्वैंटी-20 वर्ल्ड कप में कुल 289 रन बनाए थे. उन्हीं के कभी न हार मानने के जज्बे ने आस्ट्रेलिया टीम का मनोबल इतना ज्यादा बढ़ाया कि पहले सैमीफाइनल में और बाद में फाइनल मुकाबले में टीम ने पाकिस्तान और न्यूजीलैंड को करारी शिकस्त दी.

जागरूकता: सड़क हादसे

Writer- देवेंद्रराज सुथार

देश में सड़क हादसों की बढ़ती तादाद पर लगाम लगाने के लिए केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि ट्रक ड्राइवरों के लिए ड्राइविंग का समय तय किया जाना चाहिए. इस के साथ ही सैंसर की मदद से उन की नींद का भी पता लगाया जाना चाहिए, ताकि देश में बढ़ते सड़क हादसों को रोका जा सके.

कई घंटे की ड्राइविंग, इंजन की गड़गड़ाहट और सड़क पर 14 पहियों की आवाज… इस सब में ट्रक ड्राइवर के लिए थकान का सामना करना मुश्किल हो जाता है.

गाड़ी चलाते समय थकान से जू?ाना, नींद न आना ये सामान्य सी समस्याएं हैं, जिन से ट्रक ड्राइवर जू?ाते रहते हैं, लेकिन आज की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर ये ट्रक ड्राइवर सड़क पर चलने वाले दूसरे लोगों के लिए बेहद खतरनाक साबित हो रहे हैं.

उदाहरण के तौर पर, दक्षिण अफ्रीका में जनवरी, 1981 और मार्च, 1994 के बीच 34 फीसदी से ज्यादा हादसे गाड़ी चलाते समय ड्राइवर के सो जाने की वजह से हुए. थकान बढ़ने से उनींदापन होने लगता है और इस का असर शराब के नशे के समान होता है.

थकान से जुड़े इन हादसों के पीछे की बड़ी वजह को हमें ट्रक ड्राइवरों द्वारा काम किए गए कुल घंटों के रूप में देखना होगा, जिस में न केवल ड्राइविंग बल्कि दूसरे काम भी शामिल हैं.

ये काम के घंटे अकसर लंबे और अनियमित होते हैं. ज्यादातर ट्रक ड्राइवर शुरू से आखिर तक अपने दम पर काम को पूरा करना पसंद करते हैं, जिस

का मतलब यह है कि किसी भी मौसम में ग्राहक को सामान पहुंचाना.

कार्य कुशलता तय की गई दूरी और पहुंचाए गए माल से मापी जाती है. काम के घंटे औसत से ऊपर हो सकते हैं. जरमनी में कई ट्रक ड्राइवर हफ्ते में

तकरीबन 40 घंटे से कम तो कई ट्रक ड्राइवर इस से दोगुने से भी ज्यादा काम करते हैं.

ऐसे ही हालात दूसरे देशों में भी हैं. दक्षिण अफ्रीका में वेतन कम है, इसलिए ड्राइवर अपनी कमाई बढ़ाने के लिए ड्राइविंग में ज्यादा समय लगाते हैं.

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भारत की रिपोर्ट बताती है कि परिवहन कंपनियां ड्राइवरों को अपना सफर पूरा करने के लिए पूरा समय देती हैं, लेकिन कई ड्राइवर ऐक्स्ट्रा माल को दूसरी जगहों पर पहुंचा कर अपनी आमदनी बढ़ाते हैं. यह ज्यादा ड्राइविंग समय की मांग करती है. फिर उन्हें समय पर कंपनी में लौटने के लिए नींद में कटौती करनी पड़ती है.

यूरोपीय संघ में कानून द्वारा अनुमानित अधिकतम घंटों का इस्तेमाल कर के एक ट्रक ड्राइवर हफ्ते में तकरीबन 56 घंटे तक ड्राइव कर सकता है, लेकिन अगले हफ्ते उसे सिर्फ 34 घंटे तक ही गाड़ी चलाने की इजाजत है. लोडिंग और अनलोडिंग समेत उस के काम के घंटे एक निरीक्षण मशीन द्वारा दर्ज किए जाते हैं.

एक दूसरी वजह भी ड्राइविंग के समय को प्रभावित करती है, वह है ट्रक मालिक का रवैया. जब काम के घंटे ज्यादा होते हैं, तो थकान होने लगती है. ऐसा तब भी होता है, जब वे असामान्य समय में सफर शुरू करते हैं.

उदाहरण के लिए, रात के एक बजे से सुबह के 4 बजे के बीच काम शुरू करना सामान्य है. यह वह समय होता है, जब कई ड्राइवर बहुत बेचैन होते हैं और उन की एकाग्रता सब से कम होती है. दबाव तब बनता है, जब ग्राहक कंपनियां स्टौक में कम माल रखती हैं और मांग करती हैं कि सामान समय पर पहुंचाया जाए.

इस का मतलब है कि ड्राइवर को सामान ले कर ग्राहक तक सही समय पर पहुंचना होता है. बिजी यातायात, खराब मौसम और खराब सड़कों के चलते देरी होती है, जिस की भरपाई ड्राइवर को किसी न किसी रूप में करनी पड़ती है.

एक जापानी कंपनी एक वीडियो कैमरे का इस्तेमाल कर के एक इलैक्ट्रौनिक मशीन पर काम कर रही है, जो यह नोट करती है कि ड्राइवर कितनी देर तक अपनी आंखें ?ापकाता है. अगर बारबार पलकें ?ापकती हैं, तो एक रिकौर्ड की गई आवाज उसे उस की खतरनाक हालत के बारे में चेतावनी देती है.

एक यूरोपीय कंपनी भी एक ऐसे ही उपकरण पर काम कर रही है, जो यह नोट करता है कि किसी गाड़ी को कितनी सटीकता से चलाया जा रहा है. अगर ट्रक हिलता है, तो केबिन में एक चेतावनी सुनाई देती है. लेकिन प्रभावी साधन उपलब्ध होने में कुछ समय लगेगा. तकरीबन हर गाड़ी में थकान एक बिन बुलाई और अप्रिय यात्री रही है. लेकिन सवाल यह है कि इस से छुटकारा कैसे पाया जाए?

कुछ ट्रक ड्राइवर तो भारी मात्रा में कैफीनयुक्त पेय पीते हैं, लेकिन थकान फिर भी उन्हें रोक नहीं पाती है. वे दूसरे उत्तेजकों का इस्तेमाल करते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि वे चीजें सेहत के लिए बहुत ही ज्यादा खतरनाक हैं. मैक्सिको में कुछ ड्राइवर जागते रहने के लिए मिर्च खाते हैं.

शुरुआती चेतावनी के संकेतों को पहचान कर कई लोगों की जान बचाई जा सकती है. अमेरिका में नैशनल ट्रैफिक सेफ्टी बोर्ड के एक अध्ययन में भयानक आंकड़े सामने आए कि 107 हादसों में कोई दूसरी गाड़ी शामिल नहीं थी, जबकि 62 हादसे थकान से संबंधित थे.

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भारत में ट्रक ड्राइवरों के लिए अभी तक कोई सुरक्षा मानक नहीं है. अमेरिका और ब्रिटेन की बात करें, तो वहां यह तय होता है कि एक ट्रक ड्राइवर एक दिन में कितने घंटे और कितने किलोमीटर तक ड्राइव करेगा.

ट्रक ड्राइवर के लिए एक निश्चित अंतराल पर आराम करना बहुत ही जरूरी है. लंबी दूरी के ट्रक ड्राइवरों को सफर के बाद कुछ दिनों के लिए आराम करने की जरूरत होती है.

हर ट्रक ड्राइवर और उस के ट्रक का हर मिनट का डाटा सरकारी रेगुलेटर तक पहुंचता रहता है, इसलिए किसी भी तरह से नियमों के उल्लंघन की कोई गुंजाइश नहीं रहती है.

भारत के मामले में केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी का सु?ाव थकान के चलते बढ़ते हादसों को रोकने और सड़क सुरक्षा की दिशा में रास्ता मजबूत करता है. इस पर गंभीरता से सोचविचार किया जाना चाहिए.

समस्या: पढ़ाई से मुंह मोड़ती नौजवान पीढ़ी

मौजूदा दौर में स्कूली पढ़ाईलिखाई इस तरह की हो गई है कि सिलेबस में लिखी बातों को रट कर इम्तिहान तो पास किए जा सकते हैं, पर पेट भरने के लिए वह किसी काम के काबिल नहीं बना पा रही है. स्कूली पढ़ाईलिखाई के सिस्टम में सुधार की जरूरत है, पर सरकार इस बात को नजरअंदाज कर रही है.

यही वजह है कि पढ़ाईलिखाई की नई नीति में बुनियादी और व्यावसायिक तालीम को उतनी तवज्जुह नहीं दी गई, जितनी जरूरी थी. लगातार यह देखा जा रहा है कि नौजवान पीढ़ी की दिलचस्पी पढ़ाईलिखाई के प्रति घटती जा रही है.

शिक्षा मंत्रालय की साल 2018-19 की रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि मध्य प्रदेश में हायर सैकेंडरी तक पहुंचते ही 76 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूल छोड़ देते हैं. इन में लड़कों की तादाद ज्यादा होती है.

जानकारों के मुताबिक, यह वह दौर होता है, जब छात्रों का पूरा ध्यान कैरियर पर होता है. वहीं, माध्यमिक लैवल के बाद 58 फीसदी बच्चे स्कूल बदल लेते हैं.

मध्य प्रदेश उन राज्यों में शामिल है, जहां बच्चों की सरकारी स्कूल छोड़ने की दर बहुत ज्यादा है. इस से पता चलता है कि स्कूली पढ़ाईलिखाई का लैवल प्रदेश में कैसा है.

पहली जमात से 5वीं जमात तक सरकारी स्कूलों में 85 फीसदी बच्चे पढ़ते हैं. यहां बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर 42 फीसदी हो जाती है.

इसी तरह उच्च शिक्षा के लिए माध्यमिक शिक्षा में तो स्कूल छोड़ने की दर 76 फीसदी हो जाती है. इन में से 24 फीसदी लड़कियां होती हैं.

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शिक्षा के प्रति नौजवानों का मोह भंग होने वाली वजहों की पड़ताल करने पर एक बड़ी बात यह सामने आई है कि नौजवानों को यकीन हो गया है कि पढ़ाईलिखाई में जो सिखाया जा रहा है, उस का प्रैक्टिकल तौर पर कहीं इस्तेमाल नहीं है.

बड़ी समस्या यह है कि पढ़ने के बाद भी ऐसी नौकरियां या व्यवसाय कम हैं, जिन में पढ़ाई की जरूरत होती ही हो. सारा समाज ऐसे अधपढ़ों का बनता जा रहा है, जहां पढ़ने वाले कम हैं और देश की उत्पादकता को भी बढ़ने नहीं दे रहे हैं.

कोरोना काल में बिना इम्तिहान दिए हाईस्कूल पास होने वाला 18 साल का रोहित गुप्ता कालेज जाने के बजाय अपने पिता की परचून की दुकान संभालने लगा है.

जब रोहित गुप्ता से आगे की पढ़ाई के बारे में बात की, तो वह कहने लगा, ‘‘पढ़लिख कर कहां नौकरी मिलनी है, इसलिए अभी से दुकान पर ही पूरा

समय दे कर मैं अपने पिता की मदद करता हूं.’’ सिरसिरी गांव का ललित राजपूत 10वीं जमात पास कर आईटीआई डिप्लोमा कर के इलैक्ट्रिशियन बनना चाहता है, पर आईटीआई में दाखिले के लिए 10वीं जमात में 75 फीसदी अंक न होने से वह इलैक्ट्रिक उपकरणों की दुकान पर यह काम सीख रहा है.

वजह पूछने पर ललित राजपूत ने बताया कि पढ़ाईलिखाई में उस का मन ही नहीं लगता, क्योंकि गांव के स्कूल में पिछले 6 सालों से एक शिक्षक ही पढ़ाने के लिए हैं, जो सभी सब्जैक्ट की पढ़ाई नहीं करवा पाते.

बिजली के उपकरणों की मरम्मत का काम सीख रहा ललित अपने घरपरिवार के लिए दो पैसे कमा कर देना चाहता है.

खेतीबारी के बारे में अच्छी पढ़ाई की चाहत रखने वाले नरसिंहपुर जिले के बरहटा स्कूल में पढ़ रहे पवन अहिरवार बताता है कि स्कूल में किताबें तो पढ़ा

दी जाती हैं, मगर कभी खेतखलिहान में जा कर कोई प्रैक्टिकल जानकारी नहीं दी जाती है. स्कूली किताबों में कहीं यह नहीं पढ़ाया जाता है कि बिजली फिटिंग, प्लंबर, मोटर मेकैनिक के कामों में कैसे महारत हासिल की जा सकती है. यही वजह है कि पढ़ाईलिखाई पूरी करने के बाद नौजवानों को जब नौकरी नहीं मिलती, तो वे किसी काम के नहीं रहते.

आज भी देश में ऐसे अनपढ़ों की पौध है, जो नकारा बनी मोबाइल फोन पर उंगलियां घुमा रही है. सरकारी नीतियां भी यही चाहती हैं कि देश के नौजवान धार्मिक आडंबरों और अंधविश्वास में उल?ो रहें.

सरकार नहीं चाहती कि नौजवानों में सवाल करने और सहीगलत का फर्क करने की ताकत बढ़े. धर्म के रंग में रंगी सरकार तो बस यही चाहती है कि नौजवान उन की रैलियों में आंख मूंद कर ?ांडे, बैनर लगा कर उन की गलत नीतियों का गुणगान करें.

होशंगाबाद जिले की पिपरिया तहसील के अनिल सोनी 12वीं तक की पढ़ाई के बाद एक राजनीतिक पार्टी के मीडिया प्रभारी हैं. वे दिनभर सोशल मीडिया पर अपनी पार्टी के नेताओं का गुणगान करते हैं. विधायक और पार्टी नेताओं के आगेपीछे घूमते वे देश के हालात बदल देने की वकालत करते हैं.

टिमरनी हरदा के आदिक लाल पटेल आज से 25 साल पहले बीटैक की पढ़ाई अधूरी छोड़ कर इसलिए गांव आ गए थे कि उन की जिन कामों में दिलचस्पी थी, वे स्कूल में नहीं सिखाए जाते थे.

गांव आ कर उन्होंने मोटर बाइंडिंग का काम सीखा और इन 25 सालों में आज पूरे इलाके के वे हुनरमंद मेकैनिक हैं. किसानों के खेत में चलने वाले मोटर पंप के जलने पर उन की बाइंडिंग से उन्हें खूब पैसा मिलता है. अपने काम और हुनर के दम पर उन के पास आज सभी तरह की सुखसुविधाएं हैं.

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रायसेन जिले के उदयपुरा के कमलेश पाराशर मैट्रिक तक पढ़े हैं. गांवदेहात के इलाकों में उन की पंडिताई फैली हुई है. वे बताते हैं कि उन्होंने अपने लड़के को 10वीं पास करते ही संस्कृत पाठशाला में दाखिला दिला दिया था.

जब तक समाज में धर्म का बोलबाला है, उन की पंडिताई की दुकान खूब चलेगी. पुरखों के जमेजमाए इस धंधे को अपने बेटे को सौंप देंगे. इस में कमाई के साथसाथ इज्जत भी मिलती है.

मध्य प्रदेश के स्कूल शिक्षा विभाग के मंत्री इंदर सिंह परमार भी स्वीकार करते हैं कि हमारे लिए ये हालात चुनौती से भरे हैं. पहली जमात में जितने बच्चे दाखिला लेते हैं, 12वीं जमात में पहुंचतेपहुंचते 24 फीसदी

बच्चे ही बचते हैं. लेकिन सुधार के लिए कोई खास नीति सरकार के पास नहीं है.  होशंगाबाद के पत्रकार मनीष अहिरवार कहते हैं कि एससीएसटी तबके के होनहार बच्चे पढ़लिख कर डाक्टर या इंजीनियर बनने का सपना देखते हैं, मगर मैडिकल और इंजीनियरिंग कालेज की भारीभरकम फीस उन के सपनों को पूरा नहीं होने देती. सरकार की आरक्षण नीति का फायदा इस तबके के वे चुनिंदा लोग ही ले पाते हैं, जो पहले से नौकरियों में हैं.

स्कूलों में जरूरी सुविधाओं का अकाल पड़ा है. आज भी कई स्कूल ऐसे हैं, जहां पर पढ़ाईलिखाई के कमरे, पीने के लिए साफ पानी और शौचालय भी नहीं हैं. लड़कियों के स्कूल छोड़ने की एक बड़ी वजह यह भी है. माहवारी से जुड़ी समस्याओं के चलते वे स्कूल आने से कतराती हैं.

पढ़ाई काम न आई

आज पूरा देश कोरोना के संकट से जू?ा रहा है. ऐसे समय में हमारे स्कूलकालेजों की पढ़ाई की अहमियत की कोई कीमत नहीं रह गई है.

स्कूलकालेज की पढ़ाई का आलम यह है कि एक इलैक्ट्रिकल इंजीनियर अपने घर का फ्यूज नहीं बदल सकता, वैसे ही बीएससी, एमएससी पढ़े छात्रछात्रा अपने घर के किसी सदस्य को इंजैक्शन तक लगाने का हुनर नहीं जानते. फिर 15-20 साल स्कूलकालेजों में बरबाद करने के बाद हमें कौन सी पढ़ाई मिलती है? हमारे अपनों की जिंदगी मुसीबत में हो और उस से निबटने का कोई हुनर हमारे स्कूलकालेजों में नहीं सिखाया जाता हो, तो ऐसे स्कूलों का क्या फायदा?

अच्छा तो यह होता कि धर्म की कपोल कल्पित कथाकहानियों को पढ़ाने के बजाय ये स्कूल हमें इस बात की ट्रेनिंग देते कि मरीज का ब्लड प्रैशर कैसे नापा जाता है, औक्सिजन की सैचुरेशन कैसे चैक की जाती है. औक्सिजन मशीन, बाई पैप मशीन कैसे लगाते हैं, नैबुलाइजेशन कैसे करते हैं जैसी बातें सिखानी चाहिए.

सिविल डिफैंस में बाढ़, आग, भूकंप से जिंदगी कैसे बचा सकते हैं, हमें यह सिखाया जाता तो आफत की घड़ी में ये सचमुच समाज के काम आ सकते थे, मगर स्कूलों ने हमें यह सब नहीं सिखाया.

कोरोना के मरीजों की तादाद देख कर साफ है कि मजबूरन लोगों को उन के घरों पर ही अस्पताल जैसा इलाज देना होगा. वैसे भी कोरोना के मरीज को किसी किस्म की सर्जरी की जरूरत आमतौर पर नहीं पड़ती, इसलिए अस्पताल की उपयोगिता सिर्फ समय से इंजैक्शन लगाने, औक्सिजन देने और डाक्टर की निगरानी की है.

कुछ मामलों में हालत बिगड़ने पर वैंटिलेटर की जरूरत पड़ती है, लेकिन ज्यादातर मरीज औक्सिजन और बाई पैप मशीन के सहारे ही उठ खड़े होते हैं.

बाई पैप मशीन तेजी से हवा फेंकने वाली एक साधारण मशीन है, जिस की कीमत बमुश्किल 25,000 से 30,000 रुपए होती है. यह मशीन प्रैशर से हवा फेंकती है, जिस से मरीज को सांस लेना ही पड़ता है.

बहुत से लोग इस मशीन को खरीद सकते हैं, घर पर किराए पर लगवा सकते हैं, मगर लगाने वाले टैक्नीशियन कंपाउंडर कहां से लाएंगे? हमारे पास ट्रेंड कंपाउंडर हैं ही नहीं और जो थोड़ेबहुत हैं, वे अस्पतालों को ही कम पड़ रहे हैं.

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पढ़ाईलिखाई का मतलब उपयोगी नागरिक तैयार करना होना चाहिए. चाहे खेती हो, उद्योग हो, अनुसंधान, रक्षा या जीवन उपयोगी काम हो, लेकिन आज की पढ़ाईलिखाई पढ़ेलिखे नकारा नौजवानों की फौज खड़ी कर रही है, जो राजनीतिक पार्टियों की रैली में ?ांडाबैनर लगा कर और धार्मिक सत्संग, कांवड़ यात्रा और भोजभंडारा करने में अपनी ऊर्जा गंवा रही है.

लिहाजा, बेरोजगार नौजवान एक बात गांठ बांध लें कि किसी काम को सीखने के लिए 6 महीने से ले कर एक साल तक का समय होता है, चाहे मोटरकार, साइकिल मेकैनिक बनने की बात हो. डेरी फार्मिंग, मधुमक्खीपालन, खेतीबारी से जुड़े काम भी सीख सकते हैं.

वे घर की इलैक्ट्रिक वायरिंग, प्लंबर, वेल्डिंग का काम, मोबाइल रिपेयरिंग, मिट्टी के बरतन बनाना सीख सकते हैं. कुछ ही महीनों में नौजवान बहुत से ऐसे काम सीख सकते हैं, जो घरपरिवार को भूखा नहीं सोने देंगे.

आज भारत में सब से ज्यादा दुखी वे लोग हैं, जो बहुत ज्यादा पढ़लिख कर छोटेमोटे काम करना पसंद नहीं करते हैं. जो पढ़ाईलिखाई नौजवानों को रोजगार न दे सके, वह किसी काम की नहीं.

रोजगार के लिए ज्यादा पढ़ालिखा होना कोई माने नहीं रखता, बल्कि तरहतरह के हुनर सीख कर अपने परिवार की जिम्मेदारियों को बखूबी उठाया जा सकता है.

राजस्थान: रुदालियों की अनकही दास्तां

भारतीय समाज में पहले दूसरों की मौत पर रोने के लिए रुदालियां हुआ करती थीं, जो पैसे ले कर जमींदार या ठाकुर की मौत पर मातम मनाने के लिए बुलाई जाती थीं.

उन रुदालियों का काम होता था कि वे पूरे जोर के साथ छाती कूट कर, दहाड़ें मारमार कर ऐसा माहौल बना देती थीं कि आने वाला रोने के लिए मजबूर हो जाए.

समाज में उन्हें हमेशा ही नीची नजरों से देखा जाता था और उन के साथ कठोरता भरा बरताव किया जाता था. उन के घर भी गांव की सरहदों के बाहर बने होते थे.

साल 1993 में कल्पना लाजमी ने बंगला की महान लेखिका महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘रुदाली’ पर एक फिल्म भी बनाई थी. इस फिल्म का लता मंगेशकर और भूपेन हजारिका की आवाज में गाया गया एक गीत ‘दिल हूमहूम करे, घबराए…’ इन रुदालियों के निजी दुख को दिखाता है.

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आज भी राजस्थान में दलित औरतों को जबरन अपने दुख में रुलाया जाता है. ऐसे हालात में कई दिनों तक तथाकथित सामंतों के घरों पर जा कर दलित औरतों को मातम मनाना पड़ता है.

राजस्थान के सिरोही जिले में दर्जनों ऐसे गांव मिले हैं, जहां दलित औरतों को ऊंची जाति के लोगों के घर जा कर किसी की मौत होने पर मातम मनाना पड़ता है.

सिरोही जिले के रेवदर इलाके में धाण, भामरा, रोहुआ, दादरला, मलावा, जोलपुर, दवली, दांतराई, रामपुरा, हाथल, उडवारिया, मारोल, पामेरा वगैरह इलाकों में रुदालियों के सैकड़ों परिवार रहते हैं.

अगर किसी तथाकथित सामंतों के यहां कोई मर जाता है, तो पूरे गांव के दलितों को सिर मुंडवाना पड़ता है. साथ ही, दलित परिवार के बच्चों से ले कर बूढ़े तक का जबरन मुंडन करवाया जाता है. अगर कोई दलित रोने न जाए या दलित सिर न मुंडाए, तो उस परिवार को सताने का दौर शुरू हो जाता है.

माना जाता है कि रुदाली की यह परंपरा राजस्थान में तकरीबन 200 साल से है. चूंकि इस बारे में कोई कानून नहीं है, इसलिए यह परंपरा अभी भी जारी है.

लोक मान्यता है कि रोने से कमजोरी होने का डर रहता है और चेहरा बदसूरत हो जाता है, इसलिए ऊंची जातियों ने अपने चेहरे की खूबसूरती बचाए रखने के लिए यह काम निचली जातियों को दे दिया गया.

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बहरहाल, यह बड़े दुख की बात है कि आजादी के 74 साल बाद भी देश के एक हिस्से में कुप्रथा के नाम पर रुदालियों को बेमन से किसी पराए के लिए आंसू बहाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. पर क्या इस तरह से दूसरों की मौत पर रोने से अपनों का अपने के प्रति शोक जाहिर हो जाता है?

एक लोकतांत्रिक देश में दलितों को संविधान से मिलने वाले हकों पर यह सीधी सी चोट ही है. आरक्षण की खिलाफत करने वाले कई लोग इस तरह की जातिवादी चोट को दरकिनार कर देते हैं, जो ठीक नहीं है.

आज जरूरत इस बात की है कि एक प्रजातांत्रिक देश में गलत रिवाजों और कुप्रथाओं से छुटकारे की दिशा में ठोस पहल हो और इस तबके को समाज की मुख्यधारा में लाने की भरसक कोशिश की जाए.

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