Writer- ज्योति गुप्ता

क्या कभी आप ने सोचा है कि जो लोग हर मुश्किल घड़ी में हमारा साथ देते हैं, हम उन्हें कितना समय दे पाते हैं. क्या अपने जीवन में हम उन की अहमियत को सम झते हैं? अगर हां, तो कितना? हमें शायद यह लगता है कि ये तो हमारे अपने हैं, कहां जाएंगे, लेकिन धीरेधीरे वे कब और कैसे हम से दूर होते जाते हैं, हमें पता भी नहीं चलता. हमें ऐसा लगता है कि हम इन के लिए ही तो दिनरात मेहनत करते हैं, काम करते हैं. शायद इसी बहाने के साथ हम एक ऐसी दुनिया की तरफ भागने लगते हैं जिस की कोई सीमा नहीं.

हम क्यों भाग रहे हैं, किस के लिए भाग रहे हैं, यह गौर से सोचते भी नहीं. रोज सुबह के बाद दिन, महीने और फिर साल... बस, यों ही गुजरते रहते हैं. जबकि, असल में जिंदगी का मतलब भीड़ में भागना नहीं है. हां, यह सच है कि हमारे लिए काम और सफलता दोनों जरूरी हैं.

इस के लिए हैल्दी कंपीटिशन की भावना हमारे अंदर होनी चाहिए. लेकिन इस का मतलब यह नहीं है कि हम हमेशा काम को प्राथमिकता दें और परिवार को भूल जाएं. भई, जीवन में सबकुछ जरूरी है, इसलिए काम और परिवार के बीच संतुलन बनाना बहुत महत्त्वपूर्ण है. आखिर काम के नाम पर हमेशा आप के अपनों को ही कंप्रोमाइज क्यों करना पड़े.

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लौकडाउन ने दिया सबक

लौकडाउन ने सब को परिवार की अहमियत तो सिखा ही दी, साथ ही, हम सभी को यह सबक भी दिया कि जिंदगी में भले एक दोस्त हो लेकिन वह सच्चा हो. सिर्फ दिखावे के लिए सोशल मीडिया पर भीड़ बढ़ाने वाले रिश्तों से कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि रियल लाइफ में कितने लोग आप का साथ देते हैं, इस से फर्क पड़ता है.

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