GHKKPM: पाखी देगी सई को धक्का, चोट लगते ही बौखलाएगा विराट

स्‍टार प्‍लस का सीरियल ‘गुम है किसी के प्‍यार में’ में नए-नए ट्विस्ट देखने को मिल रहा है. शो के बिते एपिसोड में आपने देखा कि सई और पाखी की लड़ाई बढ़ती ही जा रही है. तो वहीं विराट सई (Ayesha Singh) का बर्थडे धूमधाम से मनाने की प्‍लानिंग कर रहा है. उसने सभी घरवालों के साथ मिलकर प्लानिंग की है लेकिन पाखी काफी गुस्से में है. शो के अपकमिंग एपिसोड में दर्शकों को एंटरटेनमेंट का डबल डोज मिलने वाला है. तो आइए बताते है, शो के नए एपिसोड में क्या होने वाला है.

शो में दिखाया जा रहा है कि विराट ने सभी घरवालों से कहा है कि वह सई का बर्थडे वैसे ही धूमधाम से मनाना चाहता है जैसे उसके पापा मनाया करते थे. तो विराट की ये सारी बाते सुनकर पाखी का गुस्सा सातवें आसमान पर है. पाखी हर तरह से कोशिश कर रही है कि वह सई का बर्थडे बर्बाद करे.

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शो के अपकमिंग एपिसोड में दिखाया जाएगा कि सई ये सोचकर कॉलेज चली जाएगी कि परिवार में किसी को उसका बर्थडे याद है लेकिन जब वह शाम को घर लौटेगी तो पूरा घर सजा हुआ होगा. सई को पता चलेगा कि विराट ने उसके लिए सरप्राइज बर्थडे पार्टी प्‍लान की है.

 

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इस पार्टी में  देवयानी-पुलकित भी शामिल होंगे. केवल पाखी इस पार्टी में नजर नहीं आएगी. लेकिन केक काटने के वक्‍त सई पाखी को बुलाने जाएगी.

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सई पाखी का हाथ पकड़कर चलने के लिए कहेगी तो पाखी गुस्‍से में सई को धक्‍का दे देगी जिससे उसके सिर पर चोट लग जाएगी. तो वहीं विराट भी कमरे में आ जाएगा और वह देख लेगा कि पाखी ने सई को धक्‍का दिया है.

सई के माथे पर खून देखकर विराट बौखला जाएगा. अब शो के अपकमिंग एपिसोड में ये देखना दिलचस्प होगा कि विराट का ये रिएक्शन देखकर पाखी का अगला कदम क्या होगा?

फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह: संघर्षों की बुनियाद पर सफलता की दास्तान

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो संसार में आते हैं तो किसी को भनक तक नहीं होती, लेकिन उन की मौत पर दुनिया को बेतहाशा दुख होता है. ऐसे ही महान इंसानों में मिल्खा सिंह को शामिल किया जा सकता है. जिन्होंने अपनी मेहनत और जज्बे की बदौलत सफलता की ऐसी दास्तान लिखी कि…

भारत के महान फर्राटा धावक मिल्खा सिंह पिछले महीने कोरोना संक्रमण से जूझने के बाद ठीक हो गए थे.

लेकिन कुछ रोज पहले उन की तबीयत फिर से बिगड़ गई, जिस के बाद उन्हें चंडीगढ़ के पीजीआईएमईआर के आईसीयू में भरती कराया गया था. लेकिन दुनिया के बड़े से बडे़ धावकों को पछाड़ने वाले इस धावक को आखिर 18 जून, 2021 की रात साढे़ 11 बजे उन की बीमारी ने हरा दिया.

मिल्खा सिंह की हालत 18 जून की शाम से ही खराब थी. बुखार के साथ उन की औक्सीजन भी कम हो गई थी. उन्हें पिछले महीने कोरोना हुआ था, लेकिन 2 दिन पहले उन की रिपोर्ट नेगेटिव आने के बावजूद तबियत में सुधार नहीं हो रहा था. जिस कारण 2 दिन पहले उन्हें जनरल आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया था, वहां उन की हालत स्थिर बनी हुई थी.

दुखद बात यह थी कि उन की पत्नी 85 वर्षीय निर्मल कौर का भी 5 दिन पहले एक निजी अस्पताल में कोरोना बीमारी के कारण निधन हो गया था. बीमारी से जूझ रहे मिल्खा सिंह को प्राण छोड़ते समय तक इस बात का मलाल था कि वह जीवन के कठिन संघर्षों में उन का साथ निभाने वाली जीवनसंगिनी के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो सके थे. उन की पत्नी भारतीय वालीबाल टीम की पूर्व कप्तान रही थीं.

मिल्खा सिंह के निधन की खबर से देश के खेल जगत से एक ऐसा सितारा टूट कर लुप्त हो गया है, जिस की भरपाई होना बेहद मुश्किल है. मिल्खा सिंह के जन्म से ले कर उन के अवसान तक की कहानी किसी ऐतिहासिक फिल्म की कहानी की तरह है, जो युवाओं को प्रेरित करने वाली है.

मिल्खा सिंह का जन्म 20 नवंबर, 1929 को गोविंदपुरा (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) के एक सिख राठौर (राजपूत) परिवार में हुआ था. अपने मांबाप की कुल 15 संतानों में वह एक थे. उन्होंने अपनी पढ़ाई की शुरुआत वहां के एक स्कूल से की और करीब 5वीं कक्षा तक अपनी पढ़ाई की. उन का बचपन 2 कमरों के घर में रहने वाले परिवार के साथ गरीबी में बीता. इस में एक कमरा पशुओं के लिए था.

1947 में भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान उन्होंने अपने मातापिता को खो दिया. उस दौरान विभाजन के लिए हुए मजहबी दंगों में उन के कई भाईबहन समेत परिवार के कई रिश्तेदारों की उन की आंखों के सामने ही हत्या कर दी गई.

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मिल्खा के मनमस्तिष्क पर दंगों की वे स्मृतियां मरते दम तक जिंदा रहीं. मिल्खा अपने  जीवन में कई बार अपनी बचपन की यादों का जिक्र करते भावुक हुए थे, जब उस दौरान हुए दंगों और चारों तरफ फैले खूनखराबा तथा रक्तरंजित मंजर का जिक्र करते थे. मिल्खा शायद अपने जीवन में पहली बार उस दौरान ही रोए थे.

जब पाकिस्तान में उन के परिवार का नरसंहार हुआ, उस से 3 दिन पहले मिल्खा को मुलतान में अपने सब से बड़े भाई माखन सिंह की मदद के लिए भेजा गया था. माखन सिंह मुलतान में हवलदार तैनात थे. मुलतान जाने के लिए उन्होंने कोट अड्डू से ट्रेन पकड़ी. ट्रेन पहले की यात्रा से खून से सनी पड़ी थी. मिल्खा सिंह डर की वजह से महिलाओं के डिब्बे में एक सीट के नीचे छिप गए थे, क्योंकि उन्हें आक्रोशित भीड़ द्वारा खुद को मार दिए जाने की आशंका थी.

जब मिल्खा अपने भाई माखन के साथ लौट कर कोट अड्डू पहुंचे, तब तक दंगाइयों ने उन के गांव को श्मशान घाट में बदल दिया था. मिल्खा के मातापिता, 2 भाइयों और उन की पत्नियों को इतनी बेरहमी के साथ मारा गया था कि उन के शवों को भी नहीं पहचाना जा सका.

जूतों पर करते थे पौलिश

घटना के लगभग 4 या 5 दिनों के बाद माखन के कहने पर मिल्खा सिंह अपनी भाभी जीत कौर के साथ भारत के लिए सेना के एक ट्रक में सवार हो कर फिरोजपुर-हुसनीवाला क्षेत्र में आ गए. माखन वहां सेना में ही रहे.

यहां आ कर मिल्खा ने काम ढूंढना शुरू किया. काम की तलाश में वह अकसर स्थानीय सेना के शिविरों का दौरा किया करते थे और कई बार भोजन पाने के लिए सेना के जवानों के जूते पौलिश करते थे.

लेकिन यहां भी समस्या ने उन का साथ नहीं छोड़ा. फिरोजपुर से हो कर जो सतलुज नदी गुजरती है, अगस्त महीने में उस में बाढ़ आ गई जिस से छत पर चढ़ कर उन्हें जान बचानी पड़ी. घर का सारा सामान बह चुका था.

फिरोजपुर में तकलीफें झेल चुके मिल्खा ने दिल्ली का रुख करने का मन बनाया. सुना था कि वहां काम ढूंढना आसान होता है. उन की प्राथमिकता दिल्ली पहुंचने की थी लेकिन ट्रेन में इतनी भीड़ थी कि उस में घुसना भी मुश्किल था. किसी तरह उन्होंने भाभी को महिला डिब्बे में घुसा दिया और खुद ट्रेन की छत पर चढ़ गए.

जिस ट्रेन से वह दिल्ली  गए थे, उस में भी कत्लेआम हुआ और दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने उस ट्रेन में कई लाशें देखीं.

पुरानी दिल्ली स्टेशन पर वह उन हजारों शरणार्थियों की तरह ही थे, जो प्लेटफार्म पर खड़े थे, जिन्हें यह नहीं पता था कि जाना कहां है.

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चूंकि दिल्ली में रहने के लिए कोई जगह नहीं थी, उन्होंने कुछ दिन पुरानी दिल्ली रेलवे प्लेटफार्म पर ही अराजकता से भरे दिन बिताए. उन्होंने स्टेशन के बाहर जूते भी पौलिश किए. बाद में उन्हें पता चला कि उन की भाभी के मातापिता दिल्ली के शाहदरा इलाके में बस गए हैं. वह भाभी के मायके में चले तो गए, लेकिन उन्हें भाभी के घर पर रहने में घुटन महसूस हो रही थी, क्योंकि काफी समय यहां रहने पर वह खुद को एक बोझ सा समझने लगे थे.

हालांकि उन के लिए एक राहत की बात यह थी कि जब उन्हें पता चला कि उन की एक बहन ईश्वर कौर पास के ही एक स्थानीय इलाके में रह रही हैं तो वह रहने के लिए उन के पास चले गए. जब वह उन के घर पहुंचे तो परिवार का पुनर्मिलन आंसुओं भरा और मर्मस्पर्शी था. लेकिन वहां भी मिल्खा को यह अहसास हो गया कि बहन के अलावा अन्य लोगों को उन का वहां रहना जरा भी नहीं भाता था.

चूंकि मिल्खा के पास काम करने के लिए कुछ नहीं था, उन्होंने अपना समय सड़कों पर बिताना शुरू कर दिया और इस प्रक्रिया में वह बुरी संगत में पड़ गए. उन्होंने फिल्में देखना और उन के टिकट खरीद कर बेचना शुरू कर दिया.

साथ ही साथ अन्य लड़कों के साथ जुआ खेलना और चोरी करना भी शुरू कर दिया. उसी समय मिल्खा ने सुना कि उन के भाई माखन सिंह सेना की टुकड़ी के साथ भारत आ गए हैं. तब उन्हें उम्मीद जगी कि अब सारी चिंताएं दूर हो जाएंगी.

पढ़ाई में नहीं लगा मन

कुछ समय बाद उन के सब से बड़े भाई माखन सिंह को भारत के लाल किले में पोस्टिंग मिल गई. माखन सिंह मिल्खा को पास के एक स्कूल में ले गए और उन्हें 7वीं कक्षा में दाखिला करा दिया. परंतु अब उन्हें पढ़ाई करने में बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था, जिस के कारण वह फिर से बुरी संगत में पड़ गए.

1949 में मिल्खा सिंह और उन के दोस्तों ने भारतीय सेना में शामिल होने के बारे में सोचा और लाल किले में हो रहे भरती कैंप में चले गए. हालांकि मिल्खा सिंह को रिजेक्ट कर दिया गया. उन्होंने 1950 में फिर से एक कोशिश की और फिर से उन्हें खारिज कर दिया गया.

2 बार अस्वीकार किए जाने के बाद उन्होंने एक मैकेनिक के रूप में काम करना शुरू कर दिया. बाद में उन्हें एक रबर फैक्ट्री में नौकरी मिल गई, जहां उन का वेतन 15 रुपए महीना था. लेकिन वह लंबे समय तक काम नहीं कर पाए, क्योंकि इस बीच उन्हें हीट स्ट्रोक आया और 2 महीने तक वह बिस्तर पर ही पड़े रहे.

1952 के नवंबर में उन्हें अपने भाई की मदद से आखिर सेना में नौकरी मिल ही गई और उन की पहली पोस्टिंग श्रीनगर में हुई. श्रीनगर से उन्हें सिकंदराबाद में भारतीय सेना की ईएमई (इलैक्ट्रिकल मैकेनिकल इंजीनियरिंग) इकाई में भेजा गया.

वहां पर रहते हुए उन्होंने पहली बार जनवरी 1953 में 6 मील (लगभग 10 किमी) क्रौस कंट्री रेस में भाग लिया और 6ठे स्थान पर रहे. उस के बाद उन्होंने अपनी पहली 400 मीटर दौड़ 63 सेकंड में ब्रिगेड मीट में पूरी की और चौथे स्थान पर रहे. फिर उन्होंने पूर्व एथलीट गुरदेव सिंह से ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी.

जीतने की धुन हुई सवार

उस वक्त अकसर 400 मीटर दौड़ के अभ्यास के दौरान कभीकभी उन की नाक से खून निकलने लगता था. परंतु उन्हें जीतने की इतनी धुन सवार थी कि उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

समय बीतता गया और एक एथलीट के रूप में वह दिनबदिन निखरते गए. आज उन्होंने जो पाया है, यकीनन वह उस के हकदार हैं. एक एथलीट के रूप में सभी भारतीयों को उन पर गर्व है.

बाद में सेना में एथलीट बनने के उन के ऐसे संघर्ष की शुरुआत हुई, जिस ने मिल्खा सिंह को खेल के आसमान में चमकने वाला ऐसा धु्रव तारा बना दिया, जिस का उदय अब शायद ही कभी होगा.

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नए कीर्तिमान किए स्थापित

मिल्खा सिंह ने दौड़ के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा को पहचान लिया था. इस के बाद उन्होंने सेना में कड़ी मेहनत शुरू की और 200 मीटर और 400 मीटर प्रतिस्पर्धा में अपने आप को स्थापित किया. उन्होंने एक के बाद एक कई प्रतियोगिताओं में सफलता हासिल की.

उन्होंने सन 1956 के मेलबोर्न ओलिंपिक खेलों में 200 और 400 मीटर में भारत का प्रतिनिधित्व किया पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनुभव न होने के कारण सफल नहीं हो पाए. लेकिन 400 मीटर प्रतियोगिता के विजेता चार्ल्स जेंकिंस के साथ हुई मुलाकात ने उन्हें न सिर्फ प्रेरित किया, बल्कि ट्रेनिंग के नए तरीकों से अवगत भी कराया.

इस के बाद सन 1958 में कटक में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर प्रतियोगिता में राष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किए और एशियन खेलों में भी इन दोनों प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक हासिल किए.

साल 1958 में उन्हें एक और महत्त्वपूर्ण सफलता मिली, जब उन्होंने ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेलों में 400 मीटर प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक हासिल किया. इस प्रकार वह राष्ट्रमंडल खेलों के व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले स्वतंत्र भारत के पहले खिलाड़ी बन गए.

मिल्खा सिंह ने खेलों में उस समय सफलता प्राप्त की, जब खिलाडि़यों के लिए कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं, न ही उन के लिए किसी ट्रेनिंग की व्यवस्था थी. आज इतने सालों बाद भी कोई एथलीट ओलंपिक में पदक पाने में कामयाब नहीं हो सका है.

रोम ओलंपिक शुरू होने तक मिल्खा सिंह इतने लोकप्रिय हो गए थे कि जब वह स्टेडियम में घुसते थे तो दर्शक उन का जोशपूर्वक स्वागत करते थे.

रोम ओलंपिक में हो गई बड़ी चूक

दरअसल, मिल्खा सिंह की लोकप्रियता का एक अन्य कारण यह था कि रोम पहुंचने के पूर्व वह यूरोप के कई टूर में अनेक बड़े खिलाडियों को हरा चुके थे और उन के रोम पहुंचने से पहले उन की लोकप्रियता की चर्चा वहां पहुंच चुकी थी.

हालांकि वहां वह कोई टौप के खिलाड़ी नहीं थे, लेकिन श्रेष्ठ धावकों में उन का नाम अवश्य था. उन की लोकप्रियता का दूसरा कारण उन की बढ़ी हुई दाढ़ी व लंबे बाल थे. लोग उस वक्त सिख धर्म के बारे में अधिक नहीं जानते थे. लोगों को लगता था कि कोई साधु इतनी अच्छी दौड़ लगा रहा है. उस वक्त ‘पटखा’ का चलन भी नहीं था, अत: सिख सिर पर रुमाल बांध लेते थे. मिल्खा सिंह के जीवन में 2 घटनाएं सब से ज्यादा महत्त्व रखती हैं.

पहली भारत पाकिस्तान का विभाजन जब उन के परिवार का पाकिस्तान में हुए कत्लेआम में खात्मा कर दिया गया, तब वह पहली बार रोए थे.  दूसरी घटना रोम ओलंपिक में उन का पदक पाने से चूक जाना था, जब वे दूसरी बार बिलखबिलख कर रोए.

रोम ओलिंपिक खेल शुरू होने से कुछ साल पहले से ही मिल्खा सिंह अपने खेल जीवन के सर्वश्रेष्ठ फौर्म में थे और ऐसा माना जा रहा था कि इन खेलों में मिल्खा पदक जरूर जीतेंगे.

रोम में 1960 के ओलंपिक खेलों में मिल्खा भारत के सब से बड़े पदक लाने की उम्मीद वाले खिलाडि़यों में से एक थे और उन के शानदार प्रदर्शन को देख कर देश उन से उम्मीदों पर खरे उतरने की उम्मीद कर रहा था.

लेकिन मिल्खा इस खेल में तीसरे स्थान पर भी नहीं रहे. दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेंस ने ब्रोंज जीता था. हालांकि इस रेस में 250 मीटर तक मिल्खा पहले स्थान पर भाग रहे थे, लेकिन इस के बाद उन की गति कुछ धीमी हो गई और बाकी के धावक उन से आगे निकल गए थे. खास बात यह है कि 400 मीटर की इस रेस में मिल्खा उसी एथलीट से हारे थे, जिसे उन्होंने 1958 कौमनवेल्थ गेम्स में हरा कर स्वर्ण पदक पर कब्जा किया था.

दरअसल उन्होंने ऐसी भूल कर दी, जिस का पछतावा उन्हें मरते दम तक रहा. इस दौड़ के दौरान उन्हें लगा कि वह अपने आप को अंत तक उसी गति पर शायद नहीं रख पाएंगे और पीछे मुड़ कर अपने प्रतिद्वंदियों को देखने लगे, जिस का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और वह धावक जिस से स्वर्ण की आशा थी कांस्य भी नहीं जीत पाया.

लेकिन 1960 के ओलंपिक में भले ही मिल्खा कांस्य पदक से चूक कर चौथे स्थान पर रहे. मगर उन का 45.73 सेकंड का ये रिकौर्ड अगले 40 साल तक नैशनल रिकौर्ड रहा.

मिल्खा को इस बात का अंत तक मलाल रहा. इस असफलता से वह इतने निराश हुए कि उन्होंने दौड़ से संन्यास लेने का मन बना लिया पर बहुत समझाने के बाद मैदान में फिर वापसी की.

1960 में पाकिस्तान में एक इंटरनैशनल एथलीट दौड़ प्रतियोगिता में हिस्सा लेने जाने का न्यौता मिला,  लेकिन बचपन की घटनाओं की वजह से वह वहां जाने से हिचक रहे थे. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समझाने पर वह इस के लिए राजी हो गए, क्योंकि दोनों देशों की मित्रता के लिए हो रहे प्रयासों के बीच उन के पाकिस्तान नहीं जाने से राजनीतिक उथलपुथल का संदेश जा सकता था. इसलिए उन्होंने दौड़ने का न्यौता स्वीकार लिया.

बहरहाल, रोम ओलंपिक के बाद हुए  टोक्यो एशियाई खेलों में मिल्खा ने 200 और 400 मीटर की दौड़ जीत कर भारतीय एथलेटिक्स के लिए नए इतिहास की रचना की. जब उन्होंने पहले दिन 400 मीटर दौड़ में भाग लिया. उन्हें जीत का पहले से ही विश्वास था, क्योंकि एशियाई क्षेत्र में उन का बेहतरीन  कीर्तिमान था.

शुरूशुरू में जो तनाव था, वह स्टार्टर की पिस्तौल की आवाज के साथ रफूचक्कर हो गया. उम्मीद के अनुसार उन्होंने सब से पहले फीते को छुआ और नया रिकौर्ड कायम किया.

जापान के सम्राट ने जब उन के गले में स्वर्ण पदक पहनाया तो उस क्षण का रोमांच मिल्खा शब्दों में व्यक्त नहीं कर सके. इस के अगले दिन 200 मीटर की दौड़ थी. इस में मिल्खा का पाकिस्तान के अब्दुल खालिक के साथ कड़ा मुकाबला था.

खालिक 100 मीटर का विजेता था. दौड़ शुरू हुई और दोनों के कदम एक साथ पड़ रहे थे. फिनिशिंग टेप से 3 मीटर पहले मिल्खा की टांग की मांसपेशी खिंच गई और वह लड़खड़ा कर गिर पड़े.

चूंकि वह फिनिशिंग लाइन पर ही गिरे थे इसलिए फोटो फिनिश रिव्यू में उन्हें विजेता घोषित किया गया और इस तरह मिल्खा एशिया के सर्वश्रेष्ठ एथलीट बन गए. जापान के सम्राट ने उस समय मिल्खा से जो शब्द कहे थे, वह मरते दम तक कभी नहीं भूले. उन्होंने उन से कहा था, ‘दौड़ना जारी रखोगे तो तुम्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो सकता है. बस, दौड़ना जारी रखो.’

पाकिस्तान में मिल्खा का मुकाबला एशिया के सब से तेज धावक माने जाने वाले अब्दुल खालिक से था. यह मिल्खा की जिंदगी का सब से रोमांचक दबाव भरा और भावनाओं की उथलपुथल भरा मुकाबला था. लेकिन इस मुकाबले में जीत के लिए मिल्खा ने अपना सर्वस्व झोंक दिया.

इस दौड़ में मिल्खा सिंह ने सरलता से अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर दिया और आसानी से जीत गए. इस मुकाबले में अधिकांशत: मुसलिम दर्शक इतने प्रभावित हुए कि पूरी तरह बुर्कानशीन औरतों ने भी इस महान धावक को गुजरते देखने के लिए अपने नकाब तक उतार दिए थे.

मिला फ्लाइंग सिख का खिताब

यही कारण रहा कि अब्दुल खालिक को हराने के बाद उस समय पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान ने मिल्खा सिंह से कहा था, ‘आज तुम दौड़े नहीं उड़े हो. इसलिए हम तुम्हें फ्लाइंग सिख के खिताब से नवाजते हैं.’ इस के बाद से मिल्खा सिंह को पूरी दुनिया में ‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से जाना जाने लगा.

एक के बाद एक रेस जीतने और कई रिकौर्ड अपने नाम पर दर्ज करा चुके मिल्खा धीरेधीरे अपने करियर में आगे बढ़ते रहे. मिल्खा सिंह के करियर का मुख्य आकर्षण 1964 का एशियाई खेल था, जहां उन्होंने 400 मीटर और 4×400 मीटर रिले स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीते.

टोक्यो में आयोजित हुए 1964 ओलंपिक में मिल्खा सिंह का प्रदर्शन यादगार नहीं था, जहां वह केवल एक ही इवेंट में भाग ले रहे थे, वह था 4×400 मीटर रिले दौड़ में मिल्खा सिंह के नेतृत्व वाली भारतीय टीम गरमी के कारण आगे बढ़ने में असमर्थ रही, जिस के बाद इस असफलता से निराश लंबे समय तक मिल्खा सिंह ने अपने दौड़ने वाले जूते लटका दिए थे.

कभीकभार जब मिल्खा सिंह से उन की 80 दौड़ों में से 77 में मिले अंतरराष्ट्रीय पदकों के बारे में पूछा जाता था तो वह कहते थे, ‘ये सब दिखाने की चीजें नहीं हैं, मैं जिन अनुभवों से गुजरा हूं, उन्हें देखते हुए वे मुझे अब भारत रत्न भी दे दें तो मेरे लिए उस का कोई महत्त्व नहीं है.’

बता दें कि आज की तारीख में भारत के पास बैडमिंटन से ले कर शूटिंग तक में वर्ल्ड चैंपियन हैं. बावजूद इस के ‘फ्लाइंग सिख’ मिल्खा सिंह की ख्वाहिश अधूरी है. वह दुनिया छोड़ने से पहले भारत को एथलेटिक्स में ओलंपिक मेडल जीतते देखना चाहते थे.

1958 के एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह के बेहतरीन प्रदर्शन के बाद सेना ने मिल्खा सिंह को जूनियर कमीशंड औफिसर के तौर पर प्रमोशन कर सम्मानित किया था. बाद में उन्हें पंजाब के शिक्षा विभाग में खेल निदेशक के पद पर नियुक्त किया गया और इसी पद से मिल्खा सिंह साल 1998 में रिटायर्ड हुए.

पहली जुलाई, 2012 को उन्हें भारत का सब से सफल धावक माना गया, जिन्होंने ओलंपिक्स खेलों में लगभग 20 पदक अपने नाम किए हैं. यह अपने आप में ही एक रिकौर्ड है. मिल्खा सिंह ने अपने जीते गए सभी पदकों को देश के नाम समर्पित कर दिया था, पहले उन के मैडल्स को जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में रखा गया था, लेकिन फिर बाद में पटियाला के एक गेम्स म्यूजियम में मैडल्स ट्रांसफर कर दिए गए.

जब नेहरू ने मिल्खा सिंह से कहा मांगो क्या मांगते हो

आजादी के फौरन बाद वैश्विक खेल मंच पर अगर किसी एक खिलाड़ी ने भारत का सिर ऊंचा किया तो वह थे मिल्खा सिंह. मिल्खा ने अपनी जिंदगी में कई यादगार रेस पूरी की थीं, मगर 1958 की उस रेस के बाद सब कुछ बदल गया था.

1958 की उस गौरवशाली रेस की कहानी, मिल्खा सिंह के शब्दों में जानना ज्यादा दिलचस्प होगा.

‘मैं टोक्यो एशियन गेम्स में 2 गोल्ड मैडल्स (200 मीटर और 400 मीटर) जीत कर 1958 के कौमनवेल्थ गेम्स (कार्डिफ, वेल्स) में हिस्सा लेने पहुंचा था. जमैका, साउथ अफ्रीका, केन्या, इंग्लैंड, कनाडा और आस्ट्रेलिया के वर्ल्ड क्लास एथलीट्स वहां थे. कार्डिफ में चुनौती बेहद तगड़ी थी और कार्डिफ के लोग सोचते थे, अरे इंडिया क्या है, इंडिया इज नथिंग.

‘मुझे यकीन नहीं था कि मैं कौमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड जीत सकता हूं. उस तरह का भरोसा कभी रहा ही नहीं क्योंकि मैं वर्ल्ड रेकौर्ड होल्डर मैल्कम क्लाइव स्पेंस (साउथ अफ्रीका) से टक्कर ले रहा था. वह उस समय 400 मीटर में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ धावक थे.

‘मैं अपने अमेरिकन कोच डा. आर्थर डब्यू  हावर्ड को क्रेडिट दूंगा. पूरी रेस की रणनीति उन्होंने ही तैयार की थी. उन्होंने स्पेंस को पहले और दूसरे राउंड में दौड़ते हुए देखा. फाइनल रेस से पहले वाली रात वह चारपाई पर बैठे और मुझ से कहा, ‘मिल्का, मैं थोड़ीबहुत हिंदी ही समझता हूं लेकिन मैं तुम्हें मैल्कम स्पेंस की रणनीति के बारे में बताता हूं और यह भी कि तुम्हें क्या करना चाहिए.’

कोच ने मुझ से कहा कि स्पेेंस अपनी रेस के शुरुआती 300-350 मीटर धीमे दौड़ता है और फाइनल स्ट्रेच में बाकियों को पछाड़ देता है. डा. हावर्ड ने कहा, ‘तुम्हें शुरू से ही पूरी स्पीड से दौड़ना होगा. क्योेंकि तुम में स्टैमिना है. अगर तुम ऐसा करोगे तो स्पेंस अपनी रणनीति भूल जाएगा.’

‘मैं आउटर लेन पर था, नंबर 5 वाली और स्पेंस दूसरी लेन पर था. कार्डिफ आर्म्स पार्क स्टेडियम में रेस होनी थी. उन दिनों एक बैग से जो नंबर चुनते थे, उस के आधार पर लेन अलाट होती थी. इसी वजह से मुझे 5 नंबर वाली लेन मिली. मतलब हमें शुरुआती राउंड में पहले दौड़ना था, फिर क्वार्टर फाइनल में, सेमीफाइनल में और फाइनल में भी.

‘मैं शुरू से ही पूरा दम लगा कर भागा, आखिरी 50 मीटर तक बड़ी तेज दौड़ा. स्पेंस को अहसास हो गया कि मिल्खा बहुत आगे निकल गया है. मुझे दिख रहा था कि स्पेंस अपनी रणनीति भूल गया है क्योंकि वह मेरी बराबरी में लगा था.

‘वह तेज दौड़ने लगा और आखिर में वह मुझ से एक फुट ही पीछे था. वह आखिर तक मेरे कंधों के पास था, मगर मुझे हरा नहीं पाया. मैं ने 46.6 सेकेंड्स में रेस खत्म की और उस ने 46.9 में. डा. हावर्ड का शुक्रिया कि मैं ने गोल्ड मेडल जीता.

‘मैं अपनी जीत पर यकीन तक नहीं कर पा रहा था और उस महिला ने मेरी तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह महिला कौन है. इतने में अचानक अपना परिचय देते हुए उस महिला ने कहा, ‘आप ने शायद मुझे पहचाना नहीं, मैं पंडितजी की बहन हूं.’ जी हां, वह महिला थीं तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरूजी की बहन विजयलक्ष्मी पंडित.

‘विजयलक्ष्मी पंडित ने उसी समय मेरी बात पंडित नेहरू से ट्रंक काल के जरिए करवाई. मेरे लिए यह गर्व का क्षण था. पंडितजी ने कहा आज आप ने देश का नाम रोशन किया है. मिल्खा, तुम्हें क्या चाहिए?

‘उस वक्त मुझे पता नहीं था कि क्या  मांगना चाहिए. मैं 200 एकड़ जमीन या दिल्ली में घर मांग सकता था और मुझे मिल भी जाता, लेकिन मैं ने कहा मुझे मांगना नहीं आता. इसीलिए अगर वह कर सकते हैं तो देश भर में एक दिन की छुट्टी घोषित कर दें और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ऐसा ही किया. मिल्खा सिंह के यह कहने से पंडित जवाहरलाल उन की काबीलियत के साथसाथ उन की ईमानदारी के भी कायल हो गए.’

अंतरराष्ट्रीय गेम्स प्रतियोगिताओं की महत्ता उस दौर में भी वही थी और आज भी उन का जादू जस का तस बरकरार है. फर्क बस इतना है कि पहले खिलाड़ी देश के लिए खेलते थे और आज खेल पैसों के लिए खेला जाता है. लेकिन मिल्खा सिंह उस दौर के खेलों के लिए समर्पित इकलौते ऐसे खिलाड़ी थे जिन्हें जीवनपर्यंत दौलत का मोह नहीं रहा.

लव मैरिज हुई थी निर्मल कौर से

मिल्खा सिंह और निर्मल कौर की मुलाकात साल 1955 में श्रीलंका के कोलंबो में हुई थी.  मिल्खा सिंह और निर्मल कौर 1955 में कोलंबो में एक टूर्नामेंट में हिस्सा लेने गए थे. निर्मल कौर उस समय भारतीय महिला वालीबाल टीम की कप्तान थीं, जबकि मिल्खा सिंह एथलेटिक्स टीम का हिस्सा थे.

पहली नजर में मिल्खा को निर्मल पसंद आ गईं. दोनों ने एकदूसरे से काफी बातें कीं. जब वापस जाने लगे तो मिल्खा सिंह अपने होटल का पता लिख कर देने लगे. जब कोई कागज नहीं मिला तो उन्होंने निर्मल के हाथ पर ही होटल का नंबर लिख दिया.

फिर बातें और मुलाकातें होने लगीं और बात शादी तक पहुंच गई. लेकिन शादी में भी अड़चन आ गई. निर्मल पंजाबी खत्री फैमिली से थीं. इसलिए परिवार शादी के लिए राजी नहीं हो रहा था.

प्यार परवान चढ़ चुका था और निर्मल कौर का परिवार मिल्खा सिंह से शादी के लिए तैयार नहीं था. उन की शादी में अड़चन की बात भी कई लोगों तक पहुंच चुकी थी.

पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों को पता चला तो वह मदद के लिए आगे आए और दोनों परिवारों से बात कर शादी तय करवा दी. साल 1962 में दोनों शादी के बंधन में बंध गए.

एक इंटरव्यू में मिल्खा सिंह ने कहा था कि हर खिलाड़ी और एथलीट की जिंदगी में प्यार आता है, उसे हर स्टेशन पर एक प्रेम कहानी मिलती है. मिल्खा सिंह की जिंदगी में 3 लड़कियां आईं. तीनों से प्यार हुआ, लेकिन शादी उन्होंने निर्मल कौर से की.

मिल्खा सिंह ने कई बार सार्वजनिक तौर पर अपनी पत्नी की तारीफ की थी. उन्होंने कहा था कि वे खुद 10वीं पास थे. बच्चों को पढ़ाने और संस्कार देने में उन की पत्नी निर्मल का ही अहम रोल रहा. उन की गैरमौजूदगी में निर्मल ने बच्चों की पढ़ाई और बाकी सभी बातों का ध्यान रखा. वह अपनी पत्नी को सब से बड़ी ताकत मानते थे.

शादी के बाद उन के 4 बच्चे हुए, जिन में 3 बेटियां और एक बेटा है. मिल्खा सिंह के बेटे जीव मिल्खा सिंह इंटरनैशनल स्तर पर एक जानेमाने गोल्फर हैं. जीव ने 2 बार एशियन टूर और्डर औफ मेरिट जीता है. उन्होंने साल 2006 और 2008 में यह उपलब्धि हासिल की थी. 2 बार इस खिताब को जीतने वाले जीव भारत के एकमात्र गोल्फर हैं. वह यूरोपियन टूर, जापान टूर और एशियन टूर में खिताब जीत चुके हैं.

जीव मिल्खा सिंह को पद्मश्री सम्मान से नवाजा जा चुका है. ऐसे में मिल्खा सिंह और उन के बेटे जीव मिल्खा सिंह देश के ऐसे इकलौते पितापुत्र जोड़ी हैं, जिन्हें खेल उपलब्धियों के लिए पद्मश्री मिला है.

साल 1999 में मिल्खा सिंह ने 7 साल के एक बेटे को भी गोद ले लिया था. जिस का नाम हवलदार बिक्रम सिंह था, जोकि टाइगर हिल के युद्ध में शहीद हो गया था.

मिल्खा सिंह ने बाद में खेल से संन्यास ले लिया और भारत सरकार के साथ खेलकूद के प्रोत्साहन के लिए काम करना शुरू किया. अब वह चंडीगढ़ में रहते थे. मिल्खा सिंह देश में होने वाले विविध तरह के खेल आयोजनों में शिरकत करते रहे.

हैदराबाद में 30 नवंबर, 2014 को हुए 10 किलोमीटर के जियो मैराथन-2014 को उन्होंने झंडा दिखा कर रवाना किया. अपने जीवन के अंत समय तक वह युवाओं को खेलों के लिए प्रेरणा देते रहे.

जापान ओलंपिक में यूपी के विजेताओं को मिलेगी इनामी धनराशि

खेलों को बढ़ावा देने वाली प्रदेश सरकार इस साल टोकियो (जापान) में होने वाले ओलंपिक गेम्स में भाग लेने वाले प्रत्येक खिलाड़ी को 10 लाख रुपये देगी. एकल और टीम खेलों में पदक लेकर लौटने वाले खिलाड़ियों का भी उत्साह बढ़ाएगी. यूपी से 10 खिलाड़ी विभिन्न स्पर्धाओं में भाग लेने के लिये टोकियो जाएंगे. राज्य सरकार ओलंपिक खेलों में होने वाले एकल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को 6 करोड़ रुपये, रजत पाने वालों खिलाड़ी को 4 करोड़ रुपये और कांस्य पदक लाने वाले खिलाड़ियों को 2 करोड़ रुपये देगी.

सीएम योगी ने प्रदेश की कमान संभालने के बाद से लगातार खिलाड़ियों की सुविधाओं में बढ़ोत्तरी की है. खिलाड़ियों की प्रतिभा को और निखारने और सुविधाओं को बढ़ाने का भी काम किया है. सरकार ने टोकियो में आयोजित होने वाले ओलंपिक में टीम खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर लाने वाले खिलाड़ी को 3 करोड़ रुपये, रजत लाने पर 2 करोड़ रुपये और कांस्य लाने पर 1 करोड़ रुपये देने का निर्णय लिया है.

‘खूब खेलो-खूब बढ़ो’ मिशन को लेकर यूपी में खिलाड़ियों को राज्य सरकार बहुत मदद दे रही है. खेल में निखार लाने के लिये खिलाड़ियों के बेहतर प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है. प्रशिक्षण देने वाले विशेषज्ञ कोच नियुक्त किये गये हैं. छात्रावासों में खिलाड़ियों की सहूलियत बढ़ाने के साथ-साथ नए स्टेडियमों का निर्माण भी तेजी से कराया है. गौरतलब है कि अपने कार्यकाल में योगी सरकार ने 19 जनपदों में 16 खेलों के प्रशिक्षण के लिये 44 छात्रावास बनवाए हैं. खेल किट के लिये धनराशि को 1000 से बढ़ाकर 2500 रुपये किया गया है.

आशा वर्कर जानेंगी बुजुर्गों की सेहत का हाल

बुजुर्गों की बेहतर सेहत के लिए प्रदेश सरकार ने बड़ा कदम उठाया है. खासकर कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों से जूझ रहे और डायलिसिस करवा रहे बुजुर्गों की तीमारदारी में अब आशा वर्कर तैनात की जाएंगी. प्रदेश भर में आशा वर्कर इन बीमारियों से जंग लड़ रहे बुजुर्गों की सूची तैयार करेंगी और इनसे संवाद स्‍थापित कर रोजाना सेहत का हाल जानेंगी. साथ ही दवा और जांच कराने में भी इन बुजुर्गों की मदद करेंगी. मुख्‍यमंत्री ने एक उच्‍च स्‍तरीय बैठक में यह निर्देश जारी किए हैं.

मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ ने प्रदेश के वरिष्‍ठ नागरिकों की स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं को और बेहतर बनाने के निर्देश दिए हैं. चिकित्‍सा एवं स्‍वास्‍थ्‍य विभाग को वरिष्‍ठ नागरिकों की सूची बनाने को कहा गया है. इससे जरूरत पड़ने पर हर संभव मदद पहुंचाने में आसानी होगी. इस काम में आशा वर्कर अहम रोल अदा करेंगी. अभी तक प्रदेश की 10 लाख 71 हजार से अधिक आशा वर्कर ग्रामीण व शहरी इलाकों में महिलाओं व बच्‍चों को स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी सेवाएं मुहैया कराने में मदद करती है. अब आशा वर्कर प्रदेश के वरिष्‍ठ नागरिकों की सेहत का ख्‍याल भी रखेंगी. आशा वर्कर अपने इलाके के वरिष्‍ठ नागरिकों की सूची तैयार करेंगी. खासकर कैंसर व डायलिसिस पीडि़त मरीजों पर इनका विशेष ध्‍यान होगा. इसके बाद आशा वर्कर रोजाना इनसे संवाद स्‍थापित करेंगी और सेहत का हालचाल पूछेंगी. वरिष्‍ठ नागरिकों को दवा व जांच कराने में सहयोग करेंगी.

एक कॉल पर मिलेगी एम्‍बुलेंस व दवा

चिकित्‍सा एवं स्‍वास्‍थ्‍य विभाग वरिष्‍ठ नागरिकों की बेहतर सेहत के लिए बनाई गई विशेष हेल्‍पलाइन नम्‍बर 14567 को और प्रभावी बनाने जा रहा है. ताकि सेहत से जुड़ी कोई समस्‍या होने पर बुजुर्गों तक फौरन मदद पहुंचाई जा सके. इसके अलावा हेल्‍पलाइन नम्‍बर की जानकारी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए बड़ा जन जागरूकता अभियान भी शुरू किया जाएगा, ताकि अधिक लोगों को इस सेवा का लाभ मिल सके. हेल्‍पलाइन के जरिए विशेष परिस्थितियों में बुजुर्गों को एक कॉल पर एम्बुलेंस और दवा भी पहुंचाने का काम विभाग करेगा. चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग अगले 8-10 महीने में इसे लेकर अपनी कार्ययोजना तैयार करेगा.

अकेले रहने वाले बुजुर्गों के लिए योजना बनेगी वरदान

प्रदेश सरकार अकेले रहने वाले बुजुर्गों की बेहतर सेहत के लिए विशेष योजना तैयार कर रही है. इस योजना के तहत ऐसे बुजुर्गों की देखरेख के लिए एक व्‍यक्ति तैनात किया जाएगा. जो अकेले रह रहे बुजुर्ग को जरूरत पड़ने पर दवा पहुंचाने के साथ जांच के लिए अस्‍पताल ले जाएगा और उनको घर तक पहुंचाएगा. चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग अगले 8-10 महीने में इसे लेकर अपनी कार्ययोजना तैयार करेगा.

Manohar Kahaniya- दुलारी की साजिश: भाग 1

सौजन्य- मनोहर कहानियां

लोक जनशक्ति पार्टी के आदिवासी प्रकोष्ठ के युवा प्रदेश अध्यक्ष 35 वर्षीय अनिल उरांव रोजाना की तरह उस दिन भी नाश्ता कर के क्षेत्र में भ्रमण के लिए तैयार हो कर ड्राइंगरूम में बैठे अपने भतीजे के आने का इंतजार कर रहे थे. तभी उन के मोबाइल फोन की घंटी बजी. अपनी शर्ट की जेब से मोबाइल निकाल कर डिसप्ले पर उभर रहे नंबर पर नजर डाली तो वह नंबर जानापहचाना निकला.

स्क्रीन पर डिसप्ले हो रहे नंबर को देख कर अनिल उरांव का चेहरा खुशियों से खिल उठा था. उन्होंने काल रिसीव करते हुए कहा, ‘‘हैलो!’’

‘‘नेताजी, प्रणाम.’’ दूसरी ओर से एक महिला की मीठी सी आवाज अनिल उरांव के कानों से टकराई.

‘‘प्रणाम…प्रणाम.’’ उन्होंने जबाव दिया, ‘‘कैसी हो प्रियंकाजी?’’ उस महिला का नाम प्रियंका उर्फ दुलारी था.

‘‘ठीक हूं, नेताजी.’’ प्रियंका जबाव देते हुए बोली, ‘‘मैं क्या कह रही थी कि जनता की खैरियत पूछने जब क्षेत्र में निकलिएगा तो मेरे गरीबखाने पर जरूर पधारिएगा. मैं आप की राह तकूंगी.’’

‘‘सुबह….सुबह क्यों मेरी टांग खींच रही हैं प्रियंकाजी. कोई और नहीं मिला था क्या आप को टांग खींचने के लिए? आलीशान और शानदार महल कब से गरीबखाना बन गया?’’ अनिल ने कहा.

‘‘क्या नेताजी? क्यों मजाक उड़ा रहे हैं इस नाचीज का. काहे का शानदार महल. सिर ढंकने के लिए ईंटों की छत ही तो है. बहुत मजाक करते हैं आप मुझ से. अच्छा, अब मजाक छोडि़ए और सीरियस हो जाइए. ये बताइए कि दोपहर तक आ रहे हैं न मेरी कुटिया में, मुझ से मिलने. कुछ जरूरी मशविरा करना है आप से.’’ वह बोली.

‘‘ऐसा कभी हुआ है प्रियंकाजी कि आप बुलाएं और हम न आएं. फिर जब आप इतना प्रेशर मुझ पर बना ही रही हैं तो भला मैं कैसे कह दूं कि मैं आप की कुटिया पर नहीं पधारूंगा, मैं जरूर आऊंगा. मुझे तो सरकार के दरबार में हाजिरी लगानी ही होगी.’’

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नेता अनिल उरांव की दिलचस्प बातें सुन कर प्रियंका खिलखिला कर हंस पड़ी तो वह भी अपनी हंसी रोक नहीं पाए और ठहाका मार कर हंसने लगे. उस के बाद दोनों के बीच कुछ देर तक हंसीमजाक होती रही. फिर प्रियंका ने अपनी ओर से फोन डिसकनेक्ट कर दिया तो अनिल उरांव ने भी मोबाइल वापस अपनी जेब के हवाले किया.

फिर भतीजे राजन के साथ मोटरसाइकिल पर सवार हो कर वह मनिहारी क्षेत्र की ओर निकल पड़े. वह खुद मोटरसाइकिल चला रहे थे और भतीजा पीछे बैठा था. यह 29 अप्रैल, 2021 की सुबह साढ़े 10 बजे की बात है.

अनिल उरांव को क्षेत्र भ्रमण में निकले तकरीबन 10 घंटे बीत चुके थे. वह अभी तक घर वापस नहीं लौटे थे और न ही उन का फोन ही लग रहा था. घर वालों ने साथ गए जब भतीजे से पूछा कि दोनों बाहर साथ निकले थे तो तुम उन्हें कहां छोड़ कर आए?

इस पर उस ने जबाव दिया, ‘‘चाचा को रेलवे लाइन के उस पार छोड़ कर आया था. उन्होंने कहा था कि वह प्रियंका के यहां जा रहे हैं, बुलाया है, मीटिंग करनी है. थोड़ी देर वहां रुक कर वापस घर लौट आऊंगा, तब मैं बाइक ले कर घर लौट आया था.’’

नेताजी अचानक हुए लापता

भतीजे राजन के बताए अनुसार अनिल प्रियंका से मिलने उस के घर गए थे. राजन उस के घर के पास छोड़ कर आया था तो फिर वह कहां चले गए? अनिल के घर वालों ने प्रियंका को फोन कर के अनिल के बारे में पूछा तो उस ने यह कहते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया कि नेताजी तो उस के यहां आए ही नहीं.

यह सुन कर सभी के पैरों तले से जमीन खिसक गई थी. वह प्रियंका के यहां नहीं गए तो फिर कहां गए?

लोजपा नेता अनिल उरांव और प्रियंका काफी सालों से एकदूसरे को जानते थे. दोनों के बीच संबंध काफी मधुर थे. यह बात अनिल के घर वाले और प्रियंका के पति राजा भी जानते थे. बावजूद इस के किसी ने कभी कोई विरोध नहीं जताया था.

अनिल को ले कर घर वाले परेशान हो गए थे. उन के परिचितों के पास भी फोन कर के पता लगाया गया, लेकिन उन का कहीं पता नहीं चला. घर वालों को अंदेशा हुआ कि कहीं उन के साथ कोई अनहोनी तो नहीं हो गई.

उसी दिन रात में नेता अनिल उरांव की पत्नी पिंकी कुछ लोगों को साथ ले कर हाट थाने पहुंची और पति की गुमशुदगी की एक तहरीर थानाप्रभारी सुनील कुमार मंडल को सौंप दी. तहरीर लेने के बाद थानाप्रभारी सुनील कुमार ने पिंकी को भरोसा दिलाया कि पुलिस नेताजी को ढूंढने का हरसंभव प्रयास करेगी. आप निश्चिंत हो कर घर जाएं. उस के बाद पिंकी वापस घर लौट आई.

मामला हाईप्रोफाइल था. लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के आदिवासी प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष अनिल उरांव की गुमशुदगी से  जुड़ा हुआ मामला था. उन्होंने अनिल उरांव की गुमशुदगी की सूचना दर्ज कर ली और आवश्यक काररवाई में जुट गए. चूंकि यह मामला राज्य के एक बड़े नेता की गुमशुदगी से जुड़ा हुआ था, इसलिए उन्होंने इस बाबत एसपी दया शंकर को जानकारी दे दी थी.

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वह जानते थे कि अनिल उरांव कोई छोटीमोटी हस्ती नहीं है. उन के गुम होने की जानकारी जैसे ही समर्थकों तक पहुंचेगी, वो कानून को अपने हाथ में लेने से कभी नहीं हिचकिचाएंगे. इस से शहर की कानूनव्यवस्था बिगड़ सकती है, इसलिए किसी भी स्थिति से निबटने के लिए उन्हें मुस्तैद रहना होगा.

इधर पति के घर लौटने की राह देखती पिंकी ने पूरी रात आंखों में काट दी थी. लेकिन अनिल घर नहीं लौटे. पति की चिंता में रोरो कर उस का हाल बुरा था. दोनों बेटे प्रांजल (7 साल) और मोनू (2 साल) भी मां को रोता देख रोते रहे. रोरो कर सभी की आंखें सूज गई थीं.

फिरौती की आई काल

बात अगले दिन यानी 30 अप्रैल की सुबह की है. पति की चिंता में रात भर की जागी पिंकी की आंखें कब लग गईं, उसे पता ही नहीं चला. उस की आंखें तब खुलीं जब उस के फोन की घंटी की आवाज कानों से टकराई.

स्क्रीन पर डिसप्ले हो रहे नंबर को देख कर हड़बड़ा कर वह नींद से उठ कर बैठ गई. क्योंकि वह फोन नंबर उस के पति का ही था. वह जल्दी से फोन रिसीव करते हुए बोली, ‘‘हैलो! कहां हो आप? एक फोन कर के बताना भी जरूरी नहीं समझा और पूरी रात बाहर बिता दी. जानते हो कि हम सब आप को ले कर कितने परेशान थे रात भर. और आप हैं कि…’’

पिंकी पति का नंबर देख कर एक सांस में बोले जा रही थी. तभी बीच में किसी ने उस की बात काट दी और रौबदार आवाज में बोला, ‘‘तू मेरी बात सुन. तेरा पति अनिल मेरे कब्जे में है. मैं ने उस का अपहरण कर लिया है.’’

‘‘अपहरण किया है?’’ चौंक कर पिंकी बोली.

‘‘तूने सुना नहीं, क्या कहा मैं ने? तेरे पति का अपहरण किया है, अपहरण.’’

‘‘तुम कौन हो भाई.’’ बिना घबराए, हिम्मत जुटा कर पिंकी आगे बोली, ‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया? मेरे पति से तुम्हारी क्या दुश्मनी है, जो उन का अपहरण किया?’’

अपहर्त्ताओं को दिए 10 लाख रुपए

‘‘ज्यादा सवाल मत कर. जो मैं कहता हूं चुपचाप सुन. फिरौती के 10 लाख रुपयों का बंदोबस्त कर के रखना. मेरे दोबारा फोन का इंतजार करना. मैं दोबारा फोन करूंगा. रुपए कब और कहां पहुंचाने हैं, बताऊंगा. हां, ज्यादा चूंचपड़ करने या होशियारी दिखाने की कोशिश मत करना और न ही पुलिस को बताना. नहीं तो तेरे पति के टुकड़ेटुकड़े कर के कौओं को खिला दूंगा, समझी.’’ फोन करने वाले ने पिंकी को धमकाया.

‘‘नहीं…नहीं उन्हें कुछ मत करना.’’ पिंकी फोन पर गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘तुम जो कहोगे, मैं वही करूंगी. मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ती हूं. मैं पुलिस को कुछ नहीं बताऊंगी. प्लीज, उन्हें छोड़ दो. पैसे कहां पहुंचाने हैं, बता दो. तुम्हारे पैसे समय पर पहुंच जाएंगे.

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तेरा मेरा साथ: भाग 2

पाखी की आंखें फटी की फटी रह गईं. दिनभर इन लोगों की फरमाइशों को पूरा करतेकरते दिन कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता. पाखी ने बड़ी उम्मीद से अरुण की तरफ देखा, शायद… शायद आज तो कुछ बोलेंगे, पर अरुण हमेशा की तरह आज भी चुप थे.

पाखी के दिल का दर्द आंखों मे उभर आया और वह सैलाब बन कर आंखों की सरहदों को तोड़ कर बह निकला.

पाखी चुपचाप अपने कमरे में चली आई. वह घंटों तक रोती रही, तभी कमरे में किसी ने लाइट जलाई. कमरा रोशनी से नहा गया. रोतेरोते उस की आंखें लाल हो चुकी थीं. अरुण चुपचाप बिस्तर पर आ कर लेट गए.

पाखी उठ कर चुपचाप बाथरूम में चली गई और शौवर की तेज धार के नीचे खड़े हो कर अपने मन में चल रहे तूफान को रोकने की कोशिश करती रही. पर बस, अब बहुत हो चुका, अब और बरदाश्त नहीं होता. इस घर के लिए वह एक सजावटी गुडि़या से ज्यादा कुछ नहीं थी, जिस का होना या न होना किसी के लिए कोई माने नहीं रखता था.

पाखी ने अपने कपड़े बदले और गीले बालों का एक ढीला सा जूड़ा बना कर छोड़ दिया.

‘अरुण… अरुण, मु?ो आप से कुछ बात करनी है.’

‘हूं, मेरे सिर में बहुत दर्द है. मैं इस समय बात करने के मूड में नहीं हूं.’

पाखी ने जैसे अरुण की बात ही नहीं सुनी और वह बोलती चली गई

पाखी ने जैसे अरुण की बात ही नहीं सुनी और वह बोलती चली गई, ‘अरुण, अब बस, बहुत हो चुका. मैं ने अब तक बहुत निभाया कि आप सभी को खुश रखने की कोशिश करूं. पर बस, अब और नहीं. अब मु?ा से बरदाश्त नहीं होता. हर बात पर मेरे घर वालों को और मु?ो घसीटा जाता है. दम घुटता है मेरा. अब मैं यहां और नहीं रह सकती. मैं बच्चों को ले कर अपने घर जा रही हूं.’

अरुण ने जलती निगाहों से देखा, ‘पाखी सोच लो, अगर आज तुम गईं तो इस गलतफहमी में बिलकुल भी नहीं रहना कि मैं या मेरे घर वाले तुम्हें मनाने आएंगे. आज से इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा के लिए बंद.’

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पाखी का दिल टूट गया. सात जन्मों तक साथ निभाने की कसमें खाने वाले रिश्ते एक ?ाटके के साथ टूट गए.  6 महीने की मोहलत भी उन के रिश्ते को नहीं जोड़ पाई.

समय बीतता गया. जिंदगी पटरी पर आने लगी. पाखी ने एक स्कूल में नौकरी कर ली. घर पर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी. अरुण हर दूसरे हफ्ते बच्चों से मिलने आते और दिनभर उन को होटल व माल घुमाते. शाम को बच्चे जब लौटते, तो कभी उन के हाथों में खिलौने, तो कभी चौकलेट, तो कभी किताबें होतीं.

पाखी कभीकभी अरुण को चाय के लिए पूछ लेती. पर चाय की चुसकियों के बीच एक अजीब सा सन्नाटा पसरा रहता. दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं होती. शब्द मानो खो से गए थे.

एक बार चीकू का जन्मदिन था. अरुण ने चीकू से वादा किया था कि उसे पसंदीदा होटल में खाना खिलाएंगे. इस बार बच्चों की जिद के आगे पाखी की भी एक न चली. कितने दिनों बाद वह किसी होटल में आई थी. अरुण वेटर को खाने का और्डर दे रहे थे.

पाखी ने चोर निगाहों से अरुण की ओर देखा… कितना कमजोर लगने लगा था. चेहरे की रौनक भी न जाने कहां खो गई थी.

पाखी का भी तो कुछ ऐसा ही हाल था… पहननेओढ़ने का शौक तो न जाने कब का मर चुका था. आईने की तरफ देखे तो जमाना हो गया था.

अरुण पाखी और बच्चों छोड़ कर वापस अपने घर लौट गए. चीकू आज बहुत खुश था. आज उस के पापा ने उसे रिमोट कंट्रोल वाली कार गिफ्ट में दी थी.

हर तरफ कोरोना का समाचार चल रहा था

पाखी ने कपड़े बदले और टीवी खोल कर बैठ गई. हर तरफ कोरोना का समाचार चल रहा था. समाचारवाचक गला फाड़फाड़ चिल्ला रहा था. दुनियाभर के सभी देशों में यह बीमारी अपने पैर पसार चुकी है. इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है. भारत के प्रधानमंत्री ने भी इस संबंध में सख्त फैसला लेते हुए आज रात 12 बजे से लौकडाउन की घोषणा की है.

पाखी के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं. घर में राशन और जरूरत का सामान सब तो लाना पड़ेगा. तभी मोबाइल की घंटी बजी…

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‘पाखी, मैं… मैं अरुण बोल रहा हूं.’

क्या कहती पाखी, उस की आवाज तो वह हजारों में भी पहचान सकती थी.

‘पाखी, तुम ने टीवी देखा?’

‘‘हां, वही देख रही थी.’’

‘‘अगर तुम्हें कोई एतराज न हो, तो बच्चों के साथ घर आ जाओ. पता नहीं, कल क्या हो. जब तक सांसें हैं, मैं अपने बच्चों के साथ रहना चाहता हूं,’’ अरुण की आवाज में निराशा सुनाई दी.

पाखी अरुण को मना नहीं कर पाई, ‘‘पर अरुण, आप आएंगे कैसे? कल से तो निकलना बंद हो जाएगा.’’

‘‘तुम तैयारी करो. मैं अभी आ  रहा हूं.’’

पता नहीं, वह कौन सा धागा था जो पाखी को खींचता ले जा रहा था. बच्चे खुशी से नाच रहे थे कि वे पापा के पास रहने जा रहे हैं, पर वे मासूम यह नहीं जानते थे कि उन की यह खुशी कितने दिनों की है.

बच्चों की आवाज सुन कर सासससुर कमरे से निकल आए. सासससुर की सवालिया निगाहें उसे अंदर तक भेद गईं. ‘‘यह यहां क्या कर रही है? इस का नशा उतर गया सारा,’’ मम्मीजी ने भुनभुनाते हुए तीर छोड़ा.

‘‘मां, इन्हें मैं ले कर आया हूं,’’ अरुण ने सख्ती से कहा.

‘‘चीकू, मिष्टि चलो, दादी व बाबा का पैर छुओ,’’ पाखी की बात सुन कर बच्चों ने ?ाट से पैर छू लिए.

मम्मी वहां भी ताना मारने से नहीं चूकीं, ‘‘चलो, कुछ तो संस्कार दिए, वरना…’’

‘‘पापा, आप का कमरा कहां है?’’ अरुण ने उंगली से कमरे की तरफ इशारा कर दिया. बच्चे हल्ला मचाते हुए उस ओर भागे. कितने सालों के बाद अरुण के चेहरे पर मुसकान आई थी.

पाखी कमरे के बाहर आ कर ठिठक गई. पैर जम से गए. जिस कमरे में वह दुलहन बन कर आई थी, आज वह उसे अपरिचितों की तरह देख रहा था.

‘‘मां, हम पापा के पास ही सोएंगे.’’

‘‘अरे नहीं, तुम लोग बहुत पैर चलाते हो, पापा को दिक्कत होगी.’’

‘‘पाखी, इन्हें यहीं रहने दो,’’ अरुण ने कहा था. अरुण की आंखों में अजीब सा दर्द उस ने महसूस किया था. वह आगे बोला, ‘‘सोनल और सोबित की शादी के बाद कमरा खाली पड़ा है. मैं तुम्हारा सामान उसी कमरे में रख देता हूं.’’

सब अपनेअपने कमरे में चले गए. पाखी की आंखों से नींद कोसों दूर थी. सारी रात करवटें बदलते बीत गई. भोर में न जाने कब आंखें लग गईं. बरतनों की आवाज से पाखी की नींद टूट गई.

‘‘अरे इतना दिन चढ़ आया,’’ पाखी बुदबुदा कर उठ बैठी. आने को तो वह अरुण के साथ चली आई, पर यह सब क्या इतना आसान था.

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सहमे हुए कदमों से उस ने ड्राइंगरूम में कदम रखा. अरुण ?ाड़ू लगा रहे थे. मम्मीजी बरतन धो रही थीं और पापाजी… पापाजी शायद चाय बनाने की कोशिश कर रहे थे.

पाखी के कदमों की आहट सुन कर मम्मीजी बड़बड़ाईं, ‘‘आ गई महारानी.’’

पाखी ने सुन कर भी अनसुना कर दिया. उस ने सोचा, ‘वह कौन सा यहां बसने आई है. कुछ ही दिनों की तो बात है. फिर वही जिंदगी… और फिर वही कशमकश.

‘‘पाखी, तुम जाग गईं,’’  अरुण की आवाज थी.

दिल वर्सेस दौलत: भाग 1

लेखिका- रेणु गुप्ता

‘‘किस का फोन था, पापा?’’

‘‘लाली की मम्मी का. उन्होंने कहा कि किसी वजह से तेरा और लाली का रिश्ता नहीं हो पाएगा.’’

‘‘रिश्ता नहीं हो पाएगा? यह क्या मजाक है? मैं और लाली अपने रिश्ते में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. नहीं, नहीं, आप को कोई गलतफहमी हुई होगी. लाली मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती है? आप ने ठीक से तो सुना था, पापा?’’

‘‘अरे भाई, मैं गलत क्यों बोलने लगा. लाली की मां ने साफसाफ मु झ से कहा, ‘‘आप अपने बेटे के लिए कोई और लड़की ढूंढ़ लें. हम अबीर से लाली की शादी नहीं करा पाएंगे.’’

पापा की ये बातें सुन अबीर का कलेजा छलनी हो आया. उस का हृदय खून के आंसू रो रहा था. उफ, कितने सपने देखे थे उस ने लाली और अपने रिश्ते को ले कर. कुछ नहीं बचा, एक ही  झटके में सब खत्म हो गया, भरे हृदय के साथ लंबी सांस लेते हुए उस ने यह सोचा.

हृदय में चल रहा भीषण  झं झावात आंखों में आंसू बन उमड़नेघुमड़ने लगा. उस ने अपना लैपटौप खोल लिया कि शायद व्यस्तता उस के इस दर्द का इलाज बन जाए लेकिन लैपटौप की स्क्रीन पर चमक रहे शब्द भी उस की आंखों में घिर आए खारे समंदर में गड्डमड्ड हो आए.  झट से उस ने लैपटौप बंद कर दिया और खुद पलंग पर ढह गया.

लाली उस के कुंआरे मनआंगन में पहले प्यार की प्रथम मधुर अनुभूति बन कर उतरी थी. 30 साल के अपने जीवन में उसे याद नहीं कि किसी लड़की ने उस के हृदय के तारों को इतनी शिद्दत से छुआ हो. लाली उस के जीवन में मात्र 5-6 माह के लिए ही तो आई थी, लेकिन इन चंद महीनों की अवधि में ही उस के संपूर्ण वजूद पर वह अपना कब्जा कर बैठी थी, इस हद तक कि उस के भावुक, संवेदनशील मन ने अपने भावी जीवन के कोरे कैनवास को आद्योपांत उस से सा झा कर लिया. मन ही मन उस ने उसे अपने आगत जीवन के हर क्षण में शामिल कर लिया. लेकिन शायद होनी को यह मंजूर नहीं था. लाली के बारे में सोचतेसोचते कब वह उस के साथ बिताए सुखद दिनों की भूलभुलैया में अटकनेभटकने लगा, उसे तनिक भी एहसास नहीं हुआ.

शुरू से वह एक बेहद पढ़ाकू किस्म का लड़का था जिस की जिंदगी किताबों से शुरू होती और किताबों पर ही खत्म. उस की मां लेखिका थीं. उन की कहानियां विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में छपती रहतीं. पिता को भी पढ़नेलिखने का बेहद शौक था. वे एक सरकारी प्रतिष्ठान में वरिष्ठ वैज्ञानिक थे. घर में हर कदम पर किताबें दिखतीं. पुस्तक प्रेम उसे नैसर्गिक विरासत के रूप में मिला. यह शौक उम्र के बढ़तेबढ़ते परवान चढ़ता गया. किशोरावस्था की उम्र में कदम रखतेरखते जब आम किशोर हार्मोंस के प्रभाव में लड़कियों की ओर आकर्षित होते हैं,  उन्हें उन से बातें करना, चैट करना, दोस्ती करना पसंद आता है, तब वह किताबों की मदमाती दुनिया में डूबा रहता.

बचपन से वह बेहद कुशाग्र था. हर कक्षा में प्रथम आता और यह सिलसिला उस की शिक्षा खत्म होने तक कायम रहा. पीएचडी पूरी करने के बाद एक वर्ष उस ने एक प्राइवेट कालेज में नौकरी की. तभी यूनिवर्सिटी में लैक्चरर्स की भरती हुई और उस के विलक्षण अकादमिक रिकौर्ड के चलते उसे वहीं लैक्चरर के पद पर नियुक्ति मिल गई. नौकरी लगने के साथसाथ घर में उस के रिश्ते की बात चलने लगी.

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वह अपने मातापिता की इकलौती संतान था. सो, मां ने उस से उस की ड्रीमगर्ल के बारे में पूछताछ की. जवाब में उस ने जो कहा वह बेहद चौंकाने वाला था.

मां, मु झे कोई प्रोफैशनल लड़की नहीं चाहिए. बस, सीधीसादी, अच्छी पढ़ीलिखी और सम झदार नौनवर्किंग लड़की चाहिए, जिस का मानसिक स्तर मु झ से मिले. जो जिंदगी का एकएक लमहा मेरे साथ शेयर कर सके. शाम को घर आऊं तो उस से बातें कर मेरी थकान दूर हो सके.

मां उस की चाहत के अनुरूप उस के सपनों की शहजादी की तलाश में कमर कस कर जुट गई. शीघ्र ही किसी जानपहचान वाले के माध्यम से ऐसी लड़की मिल भी गई.

उस का नाम था लाली. मनोविज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन की हुई थी. संदली रंग और बेहद आकर्षक, कंटीले नैननक्श थे उस के. फूलों से लदीफंदी डौलनुमा थी वह. उस की मोहक शख्सियत हर किसी को पहली नजर में भा गई.

उस के मातापिता दोनों शहर के बेहद नामी डाक्टर थे. पूरी जिंदगी अपने काम के चलते बेहद व्यस्त रहे. इकलौती बेटी लाली पर भी पूरा ध्यान नहीं दे पाए. लाली नानी, दादी और आयाओं के भरोसे पलीबढ़ी. ताजिंदगी मातापिता के सान्निध्य के लिए तरसती रही. मां को ताउम्र व्यस्त देखा तो खुद एक गृहिणी के तौर पर पति के साथ अपनी जिंदगी का एकएक लमहा भरपूर एंजौय करना चाहती थी.

विवाह योग्य उम्र होने पर उस के मातापिता उस की इच्छानुसार ऐसे लड़के की तलाश कर रहे थे जो उन की बेटी को अपना पूरापूरा समय दे सके, कंपेनियनशिप दे सके. तभी उन के समक्ष अबीर का प्रस्ताव आया. उसे एक उच्चशिक्षित पर घरेलू लड़की की ख्वाहिश थी. आजकल अधिकतर लड़के वर्किंग गर्ल को प्राथमिकता देने लगे थे. अबीर जैसे नौनवर्किंग गर्ल की चाहत रखने वाले लड़कों की कमी थी. सो, अपने और अबीर के मातापिता के आर्थिक स्तर में बहुत अंतर होने के बावजूद उन्होंने अबीर के साथ लाली के रिश्ते की बात छेड़ दी.

संयोगवश उन्हीं दिनों अबीर के मातापिता और दादी एक घनिष्ठ पारिवारिक मित्र की बेटी के विवाह में शामिल होने लाली के शहर पहुंचे. सो, अबीर और उस के घर वाले एक बार लाली के घर भी हो आए. लाली अबीर और उस के परिवार को बेहद पसंद आई. लाली और उस के परिवार वालों को भी अबीर अच्छा लगा.

दोनों के रिश्ते की बात आगे बढ़ी. अबीर और लाली फोन पर बातचीत करने लगे. फिर कुछ दिन चैटिंग की. अबीर एक बेहद सम झदार, मैच्योर और संवेदनशील लड़का था. लाली को बेहद पसंद आया. दोनों में घनिष्ठता बढ़ी. दोनों को एकदूसरे से बातें करना बेहद अच्छा लगता. फोन पर रात को दोनों घंटों बतियाते. एकदूसरे को अपने अनुकूल पा कर दोनों कभीकभार वीकैंड पर मिलने भी लगे. एकदूसरे को विवाह से पहले अच्छी तरह जाननेसम झने के उद्देश्य से अबीर  शुक्रवार की शाम फ्लाइट से उस के शहर पहुंच जाता. दोनों शहर के टूरिस्ट स्पौट्स की सैर करतेकराते वीकैंड साथसाथ मनाने लगे. एकदूसरे को गिफ्ट्स का आदानप्रदान भी करने लगे.

दिन बीतने के साथ दोनों के मन में एकदूसरे के लिए चाहत का बिरवा फूट चुका था. सो, दोनों की तरफ से ग्रीन सिगनल पा कर लाली के मातापिता अबीर का घरबार देखने व उन के रोके की तारीख तय करने अबीर के घर पहुंचे. अबीर का घर, रहनसहन, जीवनशैली देख कर मानो आसमान से गिरे वे.

अबीर का घर, जीवनस्तर उस के पिता की सरकारी नौकरी के अनुरूप था. लाली के रईस और अतिसंपन्न मातापिता की अमीरी की बू मारते रहनसहन से कहीं बहुत कमतर था. उन के 2 बैडरूम के फ्लैट में ससुराल आने पर उन की बेटी शादी के बाद कहां रहेगी, वे दोनों इस सोच में पड़ गए. एक बैडरूम अबीर के मातापिता का था, दूसरा बैडरूम उस की दादी का था.

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अबीर की दादी की घरभर में तूती बोलती. वे काफी दबंग व्यक्तित्व की थीं. बेटाबहू उन को बेहद मान देते. उन की तुलना में अबीर की मां का व्यक्तित्व उन्हें तनिक दबा हुआ प्रतीत हुआ.

अबीर के घर सुबह से शाम तक एक पूरा दिन बिता कर उन्होंने पाया कि उन के घर में दादी की मरजी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता. उन की सीमित आय वाले घर में उन्हें बातबात पर अबीर के मातापिता के मितव्ययी रवैए का परिचय मिला.

अगले दिन लाली के मातापिता ने बेटी को सामने बैठा उस से अबीर के रिश्ते को ले कर अपने खयालात शेयर किए.

लाली के पिता ने लाली से कहा, ‘सब से पहले तो तुम मु झे यह बताओ, अबीर के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’

‘पापा, वह एक सीधासादा, बेहद सैंटीमैंटल और सुल झा हुआ लड़का लगा मु झे. यह निश्चित मानिए, वह कभी दुख नहीं देगा मु झे. मेरी हर बात मानता है. बेहद केयरिंग है. दादागीरी, ईगो, गुस्से जैसी कोई नैगेटिव बात मु झे उस में नजर नहीं आई. मु झे यकीन है, उस के साथ हंसीखुशी जिंदगी बीत जाएगी. सो, मु झे इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं.’

तभी लाली की मां बोल पड़ीं, ‘लेकिन, मु झे औब्जेक्शन है.’

‘यह क्या कह रही हैं मम्मा? हम दोनों अपने रिश्ते में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. अब मैं इस रिश्ते से अपने कदम वापस नहीं खींच सकती. आखिर बात क्या है? आप ने ही तो कहा था, मु झे अपना लाइफपार्टनर चुनने की पूरीपूरी आजादी होगी. फिर, अब आप यह क्या कह रही हैं?’

‘लाली, मैं तुम्हारी मां हूं. तुम्हारा भला ही सोचूंगी. मेरे खयाल से तुम्हें यह शादी कतई नहीं करनी चाहिए.’

‘मौम, सीधेसीधे मुद्दे पर आएं, पहेलियां न बु झाएं.’

‘तो सुनो, एक तो उन का स्टेटस, स्टैंडर्ड हम से बहुत कमतर है. पैसे की बहुत खींचातानी लगी मु झे उन के घर में. क्यों जी, आप ने देखा नहीं, शाम को दादी ने अबीर से कहा, एसी बंद कर दे. सुबह से चल रहा है. आज तो सुबह से मीटर भाग रहा होगा. तौबा उन के यहां तो एसी चलाने पर भी रोकटोक है.

‘फिर दूसरी बात, मु झे अबीर की दादी बहुत डौमिनेटिंग लगीं. बातबात पर अपनी बहू पर रोब जमा रही थीं. अबीर की मां बेचारी चुपचाप मुंह सीए हुए उन के हुक्म की तामील में जुटी हुई थी. दादी मेरे सामने ही बहू से फुसफुसाने लगी थीं, बहू मीठे में गाजर का हलवा ही बना लेती. नाहक इतनी महंगी दुकान से इतना महंगी मूंग की दाल का हलवा और काजू की बर्फी मंगवाई. शायद कल हमारे सामने हमें इंप्रैस करने के लिए ही इतनी वैराइटी का खानापीना परोसा था. मु झे नहीं लगता यह उन का असली चेहरा है.’

‘अरे मां, आप भी न, राई का पहाड़ बना देती हैं. ऐसा कुछ नहीं है. खातेपीते लोग हैं. अबीर के पापा ऐसे कोई गएगुजरे भी नहीं. क्लास वन सरकारी अफसर हैं. हां, हम जैसे पैसेवाले नहीं हैं. इस से क्या फर्क पड़ता है?’

जनसंख्या नीति से पूरे होंगे विशिष्ट उद्देश्य

उत्तर प्रदेश में नई जनसंख्या नीति लागू करके नए भविष्य की नींव रखी जा रही है. उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति 2021-30 में खास बातें शामिल की गई है. उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति-2021 स्वैच्छिक और सूचित विकल्प के माध्यमों से और अपनी विकासशील आवश्यकताओं के साथ जनसांख्यिकीय लक्ष्यों को निर्धारित करके जनसंख्या स्थिरीकरण प्राप्त करने के लिए राज्य की प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है.

यह नीति, बाल-उत्तरजीविता, मातृ-स्वास्थ्य और गर्भनिरोधक के मुद्दों को संबोधित करने के लिए रणनीतियों को प्राथमिकता देने के लिए अगले दशक के लिए एक तन्त्र प्रदान करती है. इस तन्त्र में जागरूकता बढ़ाने और सेवाओं की मांग के साथ-साथ एक मजबूत प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली तक लोगों की पहुंच बढ़ाना भी शामिल है.उत्तर-प्रदेश जनसँख्या नीति -2021 का मूल लक्ष्य यही है कि सभी लोगों के लिए जीवन के प्रत्येक चरण में उसकी गुणवत्ता में सुधार करना और साथ ही साथ सतत् विकास के लिए एक व्यापक और समावेशी दृष्टिकोण को सक्षम करना. उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति-2021 का समग्र लक्ष्य सभी लोगों के जीवन स्तर में सुधार करना, प्रदेश को प्रगति के पथ पर बढ़ाना और इसके सतत् विकास के लिए एक व्यापक और समावेशी दृष्टिकोण को सक्षम करना है.

उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति -2021 प्रदेश की संपूर्ण आबादी के लिए विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों और किशोरों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को बहाल करने, नवीनीकृत करने और विस्तार करने की उत्तर प्रदेश सरकार की प्रतिबद्वता की पुष्टि करती है. इस नीति के माध्यम से वर्ष 2026 तक महिलाओं द्वारा सूचित व स्वनिर्णय के माध्यम से प्रतिस्थापन स्तर (सकल प्रजनन दर -2.1) तथा वर्ष 2030 तक सकल प्रजनन दर 1.9 लाना है.

राज्य में परिवार नियोजन , विशेषकर सुदूरवर्ती व सेवाओं से वंचित समुदाय तक अपूर्ण मांग को कम करने के लिए तथा आधुनिक गर्भनिरोधक प्रचलन दर को बढ़ाने के लिए रणनीतियों को प्राथमिकीकृत किया जाएगा.

प्रदेश की जनसंख्या यथाशीघ्र स्थिर हो सके, इसके लिए दंपत्तियों को प्रोत्साहित एवं निरुत्साहित करने हेतु समुचित कदम उठाये जाएंगे. यह प्रयास भी किया जाएगा कि विभिन्न समुदायों के मध्य जनसंख्या का संतुलन बना रहे. जिन समुदायों, संवर्गो एवं भौगोलिक क्षेत्रों में प्रजनन दर अधिक है उनमें जागरूकता के व्यापक कार्यक्रम चलाए जाएंगे.

जनसंख्या नियंत्रण हेतु उठाए जा रहे विभिन्न कदमों तथा अपनाई जा रही विभिन्न रणनीतियों और प्रभावी बनाने के लिए आवश्यकतानुसार इस सम्बन्ध में नया कानून भी बनाने पर विचार किया जा सकता है.

स्कूल में लड़कियों को पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने और महिलाओं के लिए व्यवसायिक प्रशिक्षण हेतु विभागों और कार्यक्रमों के बीच सामंजस्य स्थापित किया जायेगा.

नई नीति में सामाजिक कुरीतियों को संबोधित करने पर भी विचार किया गया है. जैसे, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, बाल विवाह, लिंग चयन एवं पुत्र प्राप्ति को वरीयता देना आदि शामिल है.

इस नीति में विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सामाजिक एवं व्यावहारिक परिवर्तन की संचार रणनीतियों को विकसित किया जाएगा तथा सामाजिक निर्धारकों को भी सम्मिलित किया जाएगा .उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति -2021 में सभी के लिए स्वास्थ्य सेवाएँ सुनिश्चित करने और उच्च जोखिम वाली गर्भवती महिलाओं, शिशुओं, बीमार नवजात शिशुओं तथा अति कुपोषण के शिकार बच्चों पर विशेष ध्यान रखने के स्पष्ट प्रावधान किये गए. संस्थागत प्रसवों में वृद्धि के दृष्टिगत, प्रसव पश्चात परिवार नियोजन सेवाओं में वृद्धि की जाएगी.

प्रदेश सरकार शिशु और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु में कमी लाने, अधिक से अधिक नवजात शिशुओं को बचाने और बच्चे को बेहतर स्वास्थ्य सेवायें प्रदान करने पर ध्यान देते हुए बच्चे को बचाने के लिए प्रतिबद्ध है.  वर्तमान जनसंख्या नीति में जहाँ जनसंख्या स्थिरीकरण हेतु परिवार नियोजन की बात है, वहीं बाँझपन की चिकित्सा पर भी बल दिया जा रहा है. बाँझपन से प्रभावित दम्पत्तियों को प्रदेश की चिकित्सा इकाईयों पर प्रशिक्षित सेवाप्रदाताओं के माध्यम से परामर्श तथा निःशुल्क उपचार प्रदान किया जाएगा.

प्राथमिक , द्वितीय तथा तृतीय स्तर की चिकित्सा इकाईयो पर बाँझपन के निःशुल्क उपचार एवं सन्दर्भन हेतु रेगुलेटरी तन्त्र एवं प्रोटोकाल स्थापित किये जाएगें.गोद लेने की प्रक्रिया को सरल किया जाएगा, जिससे इच्छुक दम्पत्ति को बच्चों को गोद लेने में आसानी महसूस हो सके.

प्रदेश में लगभग 1.5 करोड़ लाख बुजुर्ग हैं , चूंकि राज्य की कुल प्रजनन दर लगातार कम हो रही है, जिससे आबादी में महत्वपूर्ण बदलाव आएगा. अगले बीस साल में, राज्य की आबादी में धीरे-धीरे बुजुर्गों की आबादी का अनुपात ज्यादा होने का अनुमान है. तेजी से बुजुर्गों की रुग्णता दर और बीमारी बढ़ेगी, जिससे स्वास्थ्य पर बहुत अधिक व्यय होगा. अधिक निर्भरता अनुपात, अपर्याप्त सामाजिक सुरक्षा और एकल परिवार में तेजी से बढ़ोत्तरी से बुजुर्गों की देखभाल की अतिरिक्त चुनौती बढ़ेगी.

प्रदेश के समस्त 75 जनपदों के सामुदायिक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर बुजुर्गों के लिए समर्पित सेवायें, स्कीनिंग डिवाईसेस , उपकरण, प्रशिक्षण, अतिरिक्त मानव संसाधन और प्रचार प्रसार सहित उपलब्ध कराई जायेगी जिला अस्पतालों में 10 बेड वाले समर्पित वार्ड स्थापित किये जायेंगे जिसमें अतिरिक्त मानव संसाधन, उपकरण, उपभोग्य वस्तुएं और दवाईयाँ , प्रशिक्षण और आईईसीहोगी. बुजुर्गों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं और सलाह को शामिल करने के लिए ई.संजीवनी जैसे टेली – परामर्श प्लेटफार्मों का विस्तार किया जाएगा.

उत्तर प्रदेश सरकार ने स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने के लिए स्वास्थ्य सम्बन्धी बिन्दुओं को चिन्हित किया है, जैसे आधारभूत संरचना , मानव संसाधन , गुणवत्तापरक देखभाल , सन्दर्भन प्रणाली, आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन और क्षमता वृद्धि शामिल है. नीति के माध्यम से प्रदेश में मौजूदा स्वास्थ्य संसाधनों के अधिकतम उपयोग के साथ-साथ आवश्यकतानुसार बढ़े हुए आवंटन और निवेश को भी सम्मिलित किया जाएगा.

राज्य में जनसंख्या और स्वास्थ्य शोध के मापन , सीख और मूल्यांकन के लिए एक विशेष स्वास्थ्य शोध इकाई स्थापित की जाएगी. नीति में मध्यमकालिक एवं दीर्घकालिक लक्ष्य परिभाषित किये गये है, जिनके सतत् अनुश्रवण से जनसंख्या स्थिरीकरण एवं मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य में प्रगति , किशोरों की उन्नति, बुजूर्गो की खुशी एवं समावेशी विकास की परिकल्पना की प्राप्ति संभव हो सकेगी.

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस नीति में उल्लिखित लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हर सम्भव प्रयास किया जायेगा . नीति की प्रगति को बढ़ाने के लिए राज्य सरकार विभिन्न विभागों , निर्वाचित प्रतिनिधियों , स्थानीय निकायों, निजी क्षेत्रों और सिविल सोसायटी संगठनों के सामंजस्य से कार्य करेगी. नीति के उददेश्यों की पूर्ति के लिए स्थानीय भागीदारी को बढ़ाना एक आवश्यक कदम होगा.

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